568  परमेश्वर चाहता है इंसानियत जीती रहे

1

जब इंसानियत मैल से भरी थी, कुछ हद तक नाफ़र्मानी करती थी,

तो अपने उसूलों और सार की ख़ातिर परमेश्वर को उसे तबाह करना पड़ा।

इंसानों के विद्रोह की वजह से परमेश्वर को उनसे नफ़रत थी।

मगर उनकी तबाही के बावजूद, उसका दिल ना बदला, उसकी दया बनी रही।


2

परमेश्वर को इंसान से हमदर्दी थी,

वो हर तरह से उसका उद्धार करना चाहता था।

मगर परमेश्वर के उद्धार को नकारकर, इंसान नाफ़र्मानी करता रहा।

परमेश्वर ने हर तरह से पुकारा, ख़बरदार किया, मदद की, पोषण दिया,

मगर इंसान ने इसे ना समझा, और ना सराहा।


3

इस तरह परमेश्वर ने बहुत बर्दाश्त किया,

दर्द में, इंसान के मुड़ने का इंतज़ार किया।

अपनी हद पे पहुँचकर, जो करना था, वही किया।

उस पल से, जब परमेश्वर ने तबाही की योजना बनाई,

योजना की शुरुआत के लम्हे तक, ये वक्त था इंसान के पलटने का।

ये आख़िरी मौका था, जो परमेश्वर ने इन्सान को दिया।

ये आख़िरी मौका था, जो परमेश्वर ने इन्सान को दिया,

इन्सान को दिया, इन्सान को दिया।


—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर I से रूपांतरित

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