जीवन संवृद्धि के छह संकेतक

अभी क्या तुम सबके पास अपने जीवन-प्रवेश को लेकर कोई मार्ग और संवृद्धि है? क्या तुम लोग जानते हो कि जीवन-प्रवेश में संवृद्धि के क्या चिह्न होते हैं? अपनी आध्यात्मिक अवस्था में आए कौन-से बदलाव या अपनी पिछली अभिव्यक्तियों से भिन्न कौन-सी अभिव्यक्तियाँ तुम्हें एहसास कराती हैं कि तुममें जीवन-संवृद्धि है या तुम्हारे भाई-बहनों को यह देखने देती हैं कि तुम विकसित हो चुके हो और तुम्हारा स्वभाव बदलने लगा है? आध्यात्मिक अवस्था देखकर जब किसी को अपने जीवन-प्रवेश में संवृद्धि का अनुभव होता है, तो वह फिर परमेश्वर में विश्वास के बारे में अस्पष्ट नहीं रहता, वह हिचकिचाता नहीं और उसके पास अनुसरण के लिए एक मार्ग होता है; वह जानता है कि परमेश्वर में विश्वास उद्धार के लिए है, और वह यह भी जानता है कि सत्य का अनुसरण करने वाले ही उद्धार पा सकते हैं। इस मार्ग को स्पष्ट रूप से देखने और इस पर चलने से पहले लोगों के दिलों को अमन-चैन मिलता है। क्या तुम लोगों के दिलों में अब यह अमन-चैन है? (हाँ। जब हमारा सामना लोगों, घटनाओं या चीजों से होता है और हम परमेश्वर के इरादे समझ पाते हैं और यह देख पाते हैं कि ये परिस्थितियाँ उन चीजों के लिए विशेष रूप से आयोजित की गई हैं जिनकी हममें कमी है—कि ये वो चीजें हैं जिनकी हमें जरूरत है—तो उस समय हमें मानसिक शांति महसूस होती है। लेकिन जब हमारा मुश्किलों से सामना होता है और हम उनसे निपटना नहीं जानते, तो हम घबरा जाते हैं।) मुश्किलों में पड़ने पर चाहे तुम लोगों की आंतरिक अवस्था आम तौर पर जो भी हो, पहले बड़ी तसवीर देखो : क्या तुम लोग अपने दिलों में यह नहीं मानते कि परमेश्वर में विश्वास का मार्ग चुनना सही है, कि यह पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायसंगत है? क्या तुमने पहले ही तय नहीं कर लिया है कि जीवन के लिए यह मार्ग सही है? क्या तुममें दुविधा छोड़कर इस मार्ग पर चलते रहने का संकल्प और इच्छा नहीं है? क्या तुम्हारी यही अवस्था नहीं है? (यही है।) यह एक बदलता हुआ पहलू है, जो तुम्हारे जीवन के विकसित होने का पहला संकेत है। इसके अलावा कई मामलों में—उदाहरण के लिए लोग, संसार, यह समाज, जीवन का मार्ग, जीवन-लक्ष्य और दिशा, जीवन के प्रति तुम लोगों के मायने और मूल्य—क्या तुम्हारे विचारों और दृष्टिकोणों में कोई बदलाव हुए हैं? (कुछ बदलाव हुए हैं।) जब लोग नियमित रूप से उपदेश सुनते हैं, तो उनके द्वारा अपना कर्तव्य निभाने में, उनके आचरण और व्यवहार में, और विचारों में कुछ बदलाव आते हैं; लेकिन क्या वे लोगों, मामलों और जीवन-लक्ष्यों और दिशा के प्रति अपने दृष्टिकोणों में सचमुच बदल रहे हैं? अगर वे इस संबंध में वाकई बदलते हैं, तो इसमें जीवन-प्रवेश शामिल है। तुम जिस हद तक बदलते हो, वह इस बात का प्रमाण है कि तुम्हारे पास कितना जीवन-प्रवेश है। कई लोग चीजों के इस पहलू के बारे में अभी भी भ्रमित हैं। वे नहीं जानते कि लोगों या मामलों को कैसे देखें, न ही वे यह जानते हैं कि अपने सामने आने वाली चीजों और परिस्थितियों को कैसे अनुभव करें। उनके परमेश्वर में विश्वास करने से पहले के समय के साथ तुलना करने पर ऊपर से यह लगता है कि उन्होंने कुछ सही दृष्टिकोण स्वीकार लिए हैं जो सत्य के अनुरूप हैं, लेकिन वे नहीं जानते कि मामलों से सामना होने पर उन्हें कैसे लागू करें, और वे उन्हें मामलों से जोड़ नहीं पाते। क्या यह सच्चा बदलाव है? (नहीं।) यह सच्चा बदलाव नहीं है। यह देखने के लिए कितने संकेतकों का उल्लेख किया गया है कि किसी व्यक्ति ने अपने जीवन-प्रवेश में संवृद्धि का अनुभव किया है या नहीं? (दो संकेतकों का।) ये पहले दो संकेतक हैं, जिनका संबंध दर्शनों और सिद्धांतों के सत्य से है।

किसी व्यक्ति ने अपने जीवन-प्रवेश में संवृद्धि का अनुभव किया है या नहीं, यह आकलन करते समय अभ्यास से संबंध रखने वाले और भी कई संकेतक हैं। पहला, सबसे प्रारंभिक और बुनियादी संकेतक यह है : रोजाना तुम चाहे जिस भी काम में व्यस्त रहते हो या जो भी कर्तव्य निभा रहे होते हो, परमेश्वर के सामने तुम्हारा दिल कितने समय तक शांत और उसकी उपस्थिति में रहता है। यह अनुपात महत्वपूर्ण है। अगर तुम लगभग पूरे दिन बाहरी मामलों में व्यस्त रहते हो और अपनी आजीविका कमाने के लिए काम करते हो, परमेश्वर के वचन पढ़ने या उससे प्रार्थना करने के लिए कुछ समय नहीं निकाल पाते, सत्य पर चिंतन करने में अपना दिमाग नहीं लगाते, तो परमेश्वर के साथ तुम्हारा संबंध असामान्य है; तुम्हारे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है और तुम परमेश्वर में विश्वास को महत्वपूर्ण नहीं मानते। अगर तुम्हारा दिल हमेशा ऐसी ही अवस्था में रहता है, तो तुम परमेश्वर से ज्यादा से ज्यादा दूर होते जाओगे, उसमें तुम्हारा विश्वास कम से कम होता जाएगा और जब तुम्हारे साथ चीजें घटित होंगी तो तुम नकारात्मक और कमजोर हो जाओगे। ऐसा होने पर तुम्हारी आंतरिक अवस्था अधिक से अधिक असामान्य होती जाती है। अर्थात, तुम चाहे परमेश्वर में विश्वास की स्थिति में हो या नहीं, तुम्हारी अवस्था वैसी सामान्य हो या नहीं जैसी परमेश्वर के विश्वासी की होनी चाहिए, तुम ऐसी सामान्य स्थिति में कितनी देर रहते हो, और अपने दिल पर कब्जा जमाए भौतिक जीवन के अनेक मामलों से इतर तुम परमेश्वर के समक्ष कितना समय बिताते हो—अभ्यास के संबंध में यह पहला संकेतक है। कुछ लोग अपने भौतिक जीवन से इतर परमेश्वर के वचन पढ़ने या सत्य के बारे में संगति करने में बहुत कम समय बिताते हैं। अधिकांश समय वे अपना जीवन बाहरी मामलों में बिता देते हैं और दैहिक सुख के लिए जीते हैं। क्या यह एक भ्रष्ट स्वभाव में जीना नहीं है? अगर कोई अक्सर भ्रष्ट स्वभाव में जीता है, तो परमेश्वर के प्रति उनका प्रतिरोध और विद्रोह बढ़ेगा, जो परमेश्वर के साथ असामान्य संबंध की ओर ले जाता है जो उसके साथ कोई संबंध न होने के बराबर है। तो परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध सहेजना और कायम रखना महत्वपूर्ण है या नहीं? (महत्वपूर्ण है।) यह कितना महत्वपूर्ण है? यह कहाँ महत्वपूर्ण है? (अगर अपना कर्तव्य निभाते समय व्यक्ति के दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है, तो वह खुद पर ही भरोसा करता है, जो सत्य का अभ्यास करना बिल्कुल नहीं है। इस तरह उसके पास जीवन-प्रवेश नहीं हो सकता।) शायद तुम लोग इसे सैद्धांतिक स्तर पर तो समझ पाते हो, लेकिन व्यावहारिक पहलू के बारे में तुम लोग स्पष्ट रूप से बात नहीं कर सकते; इससे मेरा मतलब है कि ज्यादातर लोग सत्य के इस पहलू पर बहुत स्पष्ट नहीं हैं और इसे अच्छी तरह से नहीं समझते, और तुम्हें सिर्फ थोड़ा-सा बोधात्मक ज्ञान है, है न? (सही कहा।) तो फिर मैं तुम लोगों से पूछता हूँ कि अगर परमेश्वर के किसी विश्वासी को अक्सर अपनी कथनी-करनी और आचरण में या कर्तव्य निभाने में परमेश्वर में विश्वास से या स्वयं परमेश्वर से कुछ लेना-देना न हो, तो वह जो कुछ भी करता है उसका सत्य से कुछ लेना-देना होगा? (नहीं होगा।) वह यह सब किसके लिए करता है? वह किस नींव पर बना है? उसका प्रस्थान-बिंदु, प्रेरणाएँ, लक्ष्य और सिद्धांत कहाँ से आते हैं? अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध रखने में असमर्थ है और वह जो कुछ भी करता है, उसका परमेश्वर से कोई लेना-देना नहीं है, तो वह कार्य करने के लिए किस पर निर्भर करता है? उसके कार्यकलापों का स्रोत क्या है? (शैतानी फलसफे।) वह कार्य करने के लिए शैतानी फलसफों पर निर्भर करता है, इतना स्पष्ट है। अगर अपना काम करते हुए और अपना कर्तव्य निभाते हुए व्यक्ति जो कुछ करता है और जो कुछ और जीता है, उसका परमेश्वर से कोई लेना-देना नहीं है—जिसका तात्पर्य यह है कि उसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है—तो रोजाना खुद को व्यस्त रखते हुए वह किस पर निर्भर रहता है? वह कार्य करने, अपना कर्तव्य निभाने, जीने और आचरण करने में शैतानी जहरों और अपने शैतानी, भ्रष्ट स्वभाव पर निर्भर रहता है। व्यक्ति के जीवन-प्रवेश में कोई संवृद्धि हुई है या नहीं, इसे मापने का यह तीसरा संकेतक है—जो संक्षेप में यह है कि व्यक्ति का परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध है या नहीं।

अभ्यास का एक और संकेतक है, जिसका उपयोग यह आकलन करने के लिए किया जा सकता है कि किसी व्यक्ति ने अपने जीवन-प्रवेश में संवृद्धि और बदलाव महसूस किया है या नहीं। क्या तुम लोग बता सकते हो कि वह क्या है? (क्या वह यह नहीं है कि जब लोगों के साथ चीजें होती हैं, तो वे मानते हैं कि यह परमेश्वर द्वारा आयोजित और व्यवस्थित है और उनके पास समर्पणशील हृदय होता है।) बिल्कुल सही, यह समर्पणशील हृदय होना है; इसका आकलन यह देखकर किया जाता है कि व्यक्ति का जिन लोगों, घटनाओं और चीजों से सामना होता है, वह उनके प्रति कितना समर्पणशील है और किस हद तक समर्पण कर सकता है। व्यक्ति अपने साथ कुछ होने पर समर्पण कर सकता है या नहीं, किस हद तक समर्पण कर सकता है, और परमेश्वर के सभी आयोजनों के प्रति समर्पण करने के बाद वह कौन-सा सत्य प्राप्त करने में सक्षम होता है—यह व्यक्ति के जीवन-प्रवेश के किस पहलू को परखता है? (यह ये परखता है कि उसमें सच्चा विश्वास है या नहीं।) यह परखता है कि वह वाकई परमेश्वर में विश्वास करता है या नहीं, और यह भी कि परमेश्वर में उसकी कितनी ज्यादा आस्था है; यह इसका सिर्फ एक भाग है। और कुछ? (परमेश्वर का भय।) यह परखता है कि लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाले दिल हैं या नहीं, यह इसका दूसरा पहलू है। और क्या है? (वे सत्य से प्रेम करते हैं या नहीं।) बिल्कुल सही, यह ये भी परखता है कि वे सत्य से प्रेम करते हैं या नहीं, वे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हैं या नहीं। कुल मिलाकर ये तीन पहलू हैं। तुम समर्पण कर पाते हो या नहीं, यह इस पर निर्भर करता है कि जब तुम्हारे साथ चीजें होती हैं, तो तुम्हारा रवैया क्या रहता है, तुम प्रतिरोध करते हो या स्वीकारते हो; यह सबसे बुनियादी बात है। कभी-कभी, जब कुछ होता है, तो तुम्हारा रवैया समर्पणशील हो सकता है, लेकिन अगर चीजें तुम्हारी धारणा के अनुरूप नहीं होतीं, तो तुम्हें समर्पण करने में कुछ जतन करना पड़ता है; अगर यह तुम्हारी रुचियों के अनुरूप होता है और इससे तुम्हें लाभ हो सकता है, तो समर्पण करना तुम्हारे लिए आसान रहता है। क्या इसका यह मतलब नहीं कि तुम पर्याप्त रूप से समर्पणशील नहीं हो? क्या अनियमित या अस्थायी समर्पण परमेश्वर के प्रति सच्चे समर्पण का परिचायक है? जो कुछ परमेश्वर से और उसके आयोजनों से आता है, उसके संबंध में कुछ चीजें हैं जिन्हें तुम स्वीकार पाते हो और अन्य चीजें तुम नहीं स्वीकार पाते। यह एक समस्या है। क्या यह परमेश्वर के विरुद्ध स्पष्ट विद्रोह नहीं है? उदाहरण के लिए, मान लो परमेश्वर ने तुम्हें भ्रमित कहा, तो तुम क्या प्रतिक्रिया दोगे? क्षण भर के लिए तुम सोचोगे, “परमेश्वर के वचन निश्चित रूप से गलत नहीं हैं,” और इसे दिल से स्वीकार कर परमेश्वर के वचनों के लिए आमीन कहोगे। इस तरह तुम मूल रूप से लगभग अस्सी-नब्बे प्रतिशत समर्पणशील हो जाओगे, लेकिन इसे अनुभव करने की प्रक्रिया में कभी-कभी तुम्हें लग सकता है कि तुम भ्रमित नहीं बल्कि काफी होशियार हो—यह वह आखिरी दस प्रतिशत है, जो तुम्हें पूरी तरह से समर्पण करने से रोकता है। इस तरह की अवस्था सामान्य है। अनुभव के किस बिंदु पर तुम इस कथन को पूरी तरह समझोगे? (जिस दिन हम प्रकट किए जाएँगे, उस दिन हम यह महसूस करेंगे कि हम भ्रमित हैं, और अपने बारे में सच्चा ज्ञान प्राप्त करेंगे।) बिल्कुल सही। जब तुम्हें अपनी प्रकृति, स्वभाव, कार्य के सिद्धांतों, और साथ ही अपनी मानवता और काबिलियत की गुणवत्ता आदि का कुछ ज्ञान होगा, तब तुम्हें एहसास होगा : “मैं भ्रमित हूँ! मेरे विचार बिल्कुल भी स्पष्ट नहीं हैं, न ही मैं स्पष्ट रूप से बोलता हूँ; मैं बहुत खराब ढंग से मामले निपटाता हूँ और मेरे साथ जो चीजें होती हैं, उन्हें मैं भ्रमित तरीके से सुलझाता हूँ; मैं किसी भी चीज को गंभीरता से नहीं लेता और अगर लेता भी हूँ तो मैं उसे समझता नहीं—भ्रमित व्यक्ति ऐसा ही होता है!” तुम जितना ज्यादा अनुभव करोगे, तुम्हें उतना ही ज्यादा लगेगा कि परमेश्वर के वचन सही हैं, कि वह तुम्हारे बारे में ही बोल रहा है; तुम इन वचनों के प्रति ज्यादा से ज्यादा समर्पित होते जाओगे। लोगों में इन वचनों की स्वीकृति की एक प्रक्रिया होती है, लेकिन वह पहली चीज क्या है जो परमेश्वर चाहता है? जब परमेश्वर कहता है कि तुम भ्रमित हो, तो वह तुमसे प्रतिरोधी, लापरवाह रवैये की अपेक्षा करता है या स्वीकारने वाले रवैये की? (स्वीकारने वाले रवैये की।) परमेश्वर चाहता है कि लोगों का रवैया स्वीकारने वाला हो। लोगों की ऐसी अवस्था होनी चाहिए कि वे चाहे जितना भी जानते हों, उन्हें पहले स्वीकारना और समर्पण करना सीखना चाहिए। हालाँकि तुम सोच सकते हो कि तुम थोड़े ही भ्रमित हो, पूरे भ्रमित नहीं जैसा परमेश्वर ने तुम्हारे बारे में कहा है, फिर भी तुम्हें इसे स्वीकारना चाहिए। अनुभव की प्रक्रिया में, स्वभाव बदलने का अनुसरण करने की प्रक्रिया में तुम धीरे-धीरे अपनी मानवता का, अपने भ्रष्ट स्वभाव के प्रकाशनों का, अपने रवैयों का और अपने कार्यों के नतीजों का, और अपना कर्तव्य निभाने के दौरान की अपनी सारी अवस्थाओं का ज्ञान हो जाएगा। तुम्हें एहसास होगा कि तुम थोड़े भ्रमित नहीं हो, बल्कि असल में पूरे भ्रमित हो, कोई छोटे-मोटे भ्रमित नहीं हो। इस समय परमेश्वर द्वारा उजागर किए गए भ्रमित व्यक्ति के प्रति तुम्हारा कोई विचार या प्रतिरोध नहीं होगा, न ही तुम्हारी कोई धारणाएँ होंगी, और तुम इसे स्वीकारने में सक्षम होगे। परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराइयों की जाँच करता है। परमेश्वर के खुलासे को तुम एक तथ्य के रूप में स्वीकारते हो या अपनी निंदा के रूप में? (एक तथ्य के रूप में।) तो क्या तुम इसे सत्य के रूप में स्वीकारते हो? हकीकत में, परमेश्वर द्वारा मनुष्य का खुलासा तथ्यों के अनुरूप होता है, वह सत्य होता है और लोगों को उसे इसी रूप में स्वीकारना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं : “क्या ‘भ्रमित’ शब्द सत्य है?” इसे कैसे समझाया जाए? वास्तव में, ऐसा नहीं है कि यह शब्द सत्य है, बल्कि इस शब्द का सार—इस तरह के स्वभाव के बारे में परमेश्वर की परिभाषा और मूल्यांकन सत्य है। यही तथ्य है। इस कथन को कि तुम लोग भ्रमित हो, तुम मूल रूप से अपने वर्तमान आध्यात्मिक कद के आधार पर स्वीकार सकते हो। क्या “भ्रमित” शब्द अपमानजनक है? (नहीं।) क्यों नहीं? (क्योंकि यह एक तथ्य है।) कुछ लोग शायद अपने दिल में ऐसा न सोचें और कहें : “भ्रमित शब्द लगभग शिष्ट और सभ्य है, यह शाप नहीं है, इसलिए हम इसे स्वीकार क्यों नहीं करेंगे? हमने इससे भी ज्यादा कठोर शब्द सुने हैं—हम उन्हें स्वीकार सकते हैं, तो ऐसे शिष्ट शब्द को हमें और अधिक कैसे स्वीकारना चाहिए?” क्या इसका तात्पर्य यह नहीं है कि तुम लोगों की खाल मोटी है, इसलिए ऐसा शिष्ट, सभ्य शब्द तुम लोगों को कटाक्ष जैसा नहीं लगता? क्या ऐसा ही है? वास्तव में ऐसा नहीं है। कोई शब्द कठोर हो या शिष्ट, अगर तुम्हें लगता है कि तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो, अगर तुम नहीं जानते कि मूल्यांकन के शब्द सही हैं या नहीं, यह तुम्हारा सार है या नहीं, तो भले ही वह शब्द सुखद और शिष्ट हो, तुम उसे स्वीकारने में असमर्थ होगे। इसका संबंध इस समस्या से है कि व्यक्ति सत्य स्वीकार सकता है या नहीं, और इस समस्या से भी कि उसे अपनी प्रकृति और सार का सच्चा ज्ञान है या नहीं। तुम लोगों ने पहले कहीं अधिक कठोर शब्द सुने हैं और तुमने अधिक कठोर शब्द स्वीकारे, सहे और माने हैं, इसलिए कम कठोर शब्द “भ्रमित” तुम लोगों को परेशान नहीं करता, लेकिन हकीकत में तुम लोग इस शब्द को खुद पर वास्तव में लागू नहीं करते। यह सच्चे समर्पण और स्वीकृति का रवैया नहीं है। अगर तुम वास्तव में इस शब्द को सत्य के रूप में स्वीकार कर खुद पर लागू कर पाते, तो तुम्हारा आत्म-ज्ञान ज्यादा गहरा होता। जब परमेश्वर तुम्हें भ्रमित कहता है, तो वह यह नहीं कह रहा है कि तुम किसी कथन, वचन या परिभाषा को स्वीकार कर लो—वह कहता है कि तुम उसके भीतर के सत्य को समझो। तो जब परमेश्वर किसी को भ्रमित कहता है, तो उसके अंदर क्या सच्चाई है? “भ्रमित” शब्द का सतही अर्थ तो हर कोई समझता है। लेकिन भ्रमित व्यक्ति की अभिव्यक्तियाँ और स्वभाव क्या होता है, लोग जो करते हैं उनमें से कौन-सी चीजें भ्रमित हैं, और कौन-सी नहीं, परमेश्वर लोगों को इस तरह क्यों उजागर करता है, भ्रमित लोग परमेश्वर के सामने आ सकते हैं या नहीं, भ्रमित लोग सिद्धांत के अनुसार कार्य कर सकते हैं या नहीं, सही-गलत क्या है, इसे समझ सकते हैं या नहीं, परमेश्वर को क्या प्रिय है और किससे वह घृणा करता है, उन्हें इसकी पहचान है या नहीं—अधिकांश समय, लोग इन बातों को लेकर स्पष्ट नहीं होते; उनके लिए ये चीजें दुविधापूर्ण, गलत तरीके से परिभाषित और पूरी तरह से अस्पष्ट होती हैं। उदाहरण के लिए : ज्यादातर समय लोगों को पता नहीं होता—उन्हें इसकी साफ समझ नहीं होती—क्या किसी एक तरीके से काम करना केवल विनियमों का पालन करना है या सत्य का अभ्यास करना है। न तो उन्हें पता होता है—न ही उन्हें यह स्पष्ट होता है—कि परमेश्वर को फलाँ चीज प्रिय है या वह उससे घृणा करता है। वे नहीं जानते कि क्या एक निश्चित तरीके से अभ्यास करना लोगों को विवश करना है या सामान्य रूप से सत्य पर संगति करना और लोगों की मदद करना है। वे नहीं जानते कि लोगों के प्रति उनके व्यवहार के पीछे के सिद्धांत सही हैं या नहीं, और वे मित्र बनाने की कोशिश कर रहे हैं या लोगों की मदद करने की। वे नहीं जानते कि किसी विशेष तरीके से कार्य करने का मतलब सिद्धांत का पालन करना और अपनी बात पर अडिग रहना है या फिर अहंकारी और आत्म-तुष्ट होना और दिखावा करना है। जब कुछ लोगों के पास करने को और कुछ नहीं होता, तो उन्हें आईना देखना अच्छा लगता है; उन्हें पता ही नहीं होता कि यह आत्म-मोह और अभिमान है या यह सामान्य चीज है। कुछ लोग गर्म-मिजाज होते हैं और उनका व्यक्तित्व थोड़ा-सा अजीब होता है; क्या वे बता सकते हैं कि यह बात उनका बुरा स्वभाव होने से जुड़ी हुई है या नहीं? लोग इन आम तौर पर देखी जाने वाली, आम तौर पर सामने आने वाली चीजों तक में अंतर नहीं कर पाते—और फिर भी कहते हैं कि उन्होंने परमेश्वर में विश्वास रखकर बहुत कुछ हासिल किया है। क्या यह भ्रमित होना नहीं है? तो क्या तुम लोगों को भ्रमित कहलाना स्वीकार है? (हाँ।) अभी लगता है कि ज्यादातर लोग इसे स्वीकार सकते हैं। इसे स्वीकारने के बाद तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें अपनी अवस्था से इसकी तुलना करते हुए खास तौर से यह जाँचना चाहिए कि तुम किन मामलों में भ्रमित और किन मामलों में समझदार हो। इसकी अपनी अवस्था से तुलना करते हुए अपनी भ्रष्टता को बाहर निकालो, और फिर इन मामलों में खुद को जानो और भ्रमित लोगों की श्रेणी में गिने जाने का प्रयास करो। इस तरह के अभ्यास के बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या यह ज्ञान पूर्ण है? (नहीं, यह पूर्ण नहीं है। हमें सत्य खोजना चाहिए और इस पहलू में बदलाव अनुभव करना चाहिए।) सही कहा। और क्या तुम लोग आजीवन भ्रमित बने रहना चाहते हो? (नहीं।) कोई भी भ्रमित नहीं बनना चाहता। वास्तव में, इस तरह से संगति और गहन विश्लेषण करने का प्रयोजन तुम्हें भ्रमित की श्रेणी में डालना नहीं है; परमेश्वर तुम्हें जैसे चाहे परिभाषित करे, तुम्हारे बारे में कुछ भी उजागर करे, चाहे जैसे तुम्हारा न्याय करे, तुम्हें ताड़ना दे और तुम्हारी काट-छाँट करे, अंतिम उद्देश्य तुम्हें उन अवस्थाओं से बचने देना, सत्य समझने देना, सत्य प्राप्त करने देना और भ्रमित न बनने देना है। इसलिए अगर तुम, भ्रमित नहीं बनना चाहते तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें सत्य का अनुसरण करना चाहिए। सबसे पहले, तुम्हें यह समझना चाहिए कि तुम किन मामलों में भ्रमित हो, किन मामलों में तुम हमेशा धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करते रहते हो, धर्म-सिद्धांतों और मतों के शब्दजाल में भटकते रहते हो और तथ्य सामने होने पर शून्य में ताकते रहते हो। जब तुम इन समस्याओं का समाधान कर लोगे और सत्य के हर पहलू के बारे में स्पष्ट हो जाओगे, तब तुम्हारे भ्रमित होने के अवसर कम हो जाएँगे। जब तुम्हें हर सत्य की स्पष्ट समझ होगी, जब कार्य करते हुए तुम्हारे हाथ-पैर बंधे नहीं होंगे, जब तुम नियंत्रित या बाध्य नहीं होगे—जब तुम्हारे साथ कोई बात हो जाए, तब तुम अभ्यास के सही सिद्धांत खोज पाओ और परमेश्वर से प्रार्थना कर सच में सिद्धांत के अनुसार पेश आ सको, सत्य खोज सको या संगति करने के लिए किसी को खोज सको, तब तुम भ्रमित नहीं रहोगे। यदि तुम किसी चीज को लेकर स्पष्ट हो और तुम सत्य का सही ढंग से अभ्यास कर पा रहे हो, जब वह मामला आएगा, तो तुम भ्रमित नहीं होगे। लोगों का हृदय सहज रूप से प्रबुद्ध हो सके इसके लिए उन्हें बस सत्य समझना है।

परमेश्वर कहता है कि कुछ लोग भ्रमित होते हैं और शुरुआत में वे शायद इसे स्वीकार न कर पाएँ, लेकिन कुछ समय बीतने के बाद उन्हें एहसास होता है कि वे वास्तव में कुछ भी स्पष्ट नहीं समझते; वे नकली अगुआओं और मसीह-विरोधियों को पहचानना नहीं जानते; वे काफी भ्रमित महसूस करते हैं और यह भी कि उनकी क्षमता कम है, इसलिए वे इसे स्वीकार कर समर्पित हो जाते हैं। “भ्रमित” अपेक्षाकृत सुखद लगने वाला, शिष्ट शब्द है और एक अवधि से गुजरने के बाद ही लोग इसे स्वीकार पाते हैं; कम सुखद लगने वाले अशिष्ट शब्दों को स्वीकारना उनके लिए काफी कठिन हो सकता है। परमेश्वर के वचनों में से कुछ वचन जब लोगों को उजागर कर उनका न्याय करते हैं, तो ऐसा सटीक रूप से करते हैं; वे अधिक कठोर होते हैं। अधिकतर लोगों का आध्यात्मिक कद इतना छोटा होता है कि वे उन्हें स्वीकार नहीं पाते। उन्हें सुनने के बाद उन्हें पीड़ा और नाखुशी होती है; उन्हें लगता है कि उनकी गरिमा को चोट पहुँची है, कि उनके अपरिपक्व दिलों को उत्तेजित और घायल किया गया है। किन वचनों को सुनना तुम लोगों को खास तौर से बेचैन करता है, तुम्हें सोचने पर बाध्य करता है कि परमेश्वर को इन्हें नहीं कहना चाहिए, जिन्हें तुम नहीं स्वीकार सकते? उदाहरण के लिए : कचरा, कीड़ा, गंदा दानव, सूअर या कुत्तों से भी गया-गुजरा, जानवर आदि। ऐसा लगता है कि ज्यादातर लोगों के लिए ये शब्द स्वीकारना आसान नहीं है। क्या सभ्य लोग आम तौर पर ऐसे शब्द कहते हैं? तुम सभी सुशिक्षित हो। तुम सभी अपनी बोली में परिष्कृत और संतुलित होने पर ध्यान देते हो, और बोलने के तरीके पर भी ध्यान देते हो : तुम व्यवहारकुशल हो, और दूसरों की गरिमा और अभिमान को ठेस न पहुँचाना सीख चुके हो। अपने शब्दों और कार्यों में, तुम लोगों को उनकी अपनी सोच से काम करने का अवसर देते हो। लोगों को सहज महसूस कराने के लिए तुम वह सब कुछ करते हो जो तुम कर सकते हो। तुम उनकी कमियों या कमज़ोरियों को उजागर नहीं करते हो, और तुम कोशिश करते हो कि तुम उन्हें तकलीफ़ न पहुँचाओ और शर्मिंदा न करो। अधिकांश लोग इसी अंतर्वैयक्तिक सिद्धांत के अनुसार काम करते हैं। और यह किस तरह का सिद्धांत है? (लोगों को खुश करने का; कपट और धूर्तता का।) यह चालाक, कपटी, विश्वासघाती और धोखेबाज़ है। लोगों के मुस्कुराते चेहरों के पीछे बहुत-सी द्वेषी, कपटी और घिनौनी बातें होती हैं। उदाहरण के लिए, आपस में बातचीत करते कुछ लोगों को जैसे ही दूसरा व्यक्ति थोड़ा रुतबे वाला दिखता है, वे अपने दिल में सोचते हैं : “इससे बात करते समय मुझे मीठे शब्दों का चयन करना चाहिए, वरना मैं इसकी प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचा सकता हूँ—अगर इसने मुझे दंडित किया, तो क्या होगा?” वे कुछ बोलते ही नहीं, और अगर बोलते भी हैं तो चतुराई भरे, सुखद और चापलूसी भरे तरीके से बोलते हैं। जब वे मिलते हैं, तो कहते हैं : “अहा! मैंने तुम जैसी सुंदरी कभी नहीं देखी। क्या तुम परी हो? तुम इतनी सुंदर हो कि तुम्हें मेकअप की भी जरूरत नहीं; अगर तुम मेकअप कर लो तो और भी बेजोड़ लगोगी। अपनी देहयष्टि देखो, जो भी पहनती हो, वही तुम पर फबता है! ऐसे सुंदर और प्यारे परिधान खास तौर पर तुम जैसे लोगों के लिए ही सिले गए होंगे!” वे विशेष रूप से सुखद ढंग से बात करते हैं, इसलिए जो कोई भी उन्हें सुनता है, सहज महसूस करता है, लेकिन क्या वे वाकई ऐसी बातें दिल से बोलते हैं? (नहीं, दिल से नहीं बोलते।) वे वास्तव में क्या सोच रहे होते हैं? निश्चित रूप से उनके इरादे और गुप्त उद्देश्य होते हैं, जो निश्चित रूप से शर्मनाक होते हैं; वे खास तौर से अशुभ, दुष्ट या नीच हो सकते हैं, जो दूसरों के लिए घृणास्पद होंगे। रास्ते अलग होते ही वे दूसरों से उस व्यक्ति के बारे में बुरा-भला कहते हैं, उनके बारे में वे जो भी अपमाननक और घृणित बात कह सकते हैं, कहते हैं। उनके शब्दों में आक्षेप होता है, जहर होता है! उन्होंने जो चापलूसी भरे शब्द अभी-अभी कहे होते हैं, वे उनमें नाराजगी और वितृष्णा भर देते हैं; दूसरे लोगों को उनकी पीठ पीछे नीचा दिखाना और उनकी बदनामी करना उन्हें वापस संतुलन में लाता है। ऐसे लोगों के दिलों में कालिमा रहती है; वे स्वार्थी और घृणास्पद होते हैं। इस प्रकार का आचरण घृणित और निंदनीय है। यह कैसा इंसान है? यह धोखेबाज इंसान है। गैर-विश्वासियों के बीच ऐसे बहुत सारे लोग हैं, यहाँ तक कि कुछ परमेश्वर के घर में भी हैं। जब वे वो सुखद बातें कहते हैं, तो उनका एक शर्मनाक और घृणित इरादा और गुप्त उद्देश्य होता है; वे वह सब बोलते हैं जो उनका उद्देश्य हासिल करने में मदद करता है। वे तथ्यों के अनुरूप बिल्कुल नहीं बोलते और बढ़ा-चढ़ाकर बात करते हैं; सुखद बातों के पीछे उनके इरादे और उद्देश्य होते हैं। जब वे अपमानजनक ढंग से बोलते हैं, तो कोई भी नफरती बात बोल सकते हैं और वे तमाम तरह के जहरीले शब्द बोलने में भी सक्षम होते हैं। यह कैसा व्यक्ति है? सतह पर उसके स्वभावों के प्रकाशनों के अलावा, जो कि पाखंडपूर्ण, धूर्ततापूर्ण और कपटी होते हैं, उसकी प्रकृति में और क्या होता है? ये जहरीले होते हैं—अत्यधिक जहरीले! जब वे दूसरों की तारीफ करते हैं, तो क्या दूसरे उनसे ऐसा करने के लिए कहते हैं? (नहीं।) वे उनकी तारीफ क्यों करते हैं? (इसके पीछे उनका कोई उद्देश्य होता है।) सही कहा। अच्छे तरीके से हो या बुरे तरीके से, वे अपने इरादे और उद्देश्य पूरे करने के लिए लोगों के साथ खिलवाड़ करते हैं; वे कुछ भी कह देते हैं, चाहे वह कितना भी घिनौना क्यों न हो। क्या यह जहरीला नहीं है? फिर अपने दिल में पैदा हुआ असंतुलन दूर करने के लिए वे लोगों की पीठ में छुरा घोंपते हैं, उन्हें कोसते हैं और उनकी निंदा करते हैं और उनसे जो भी अपमानजनक और नफरत भरी बात कह सकते हैं, कहते हैं। क्या यह जहरीला नहीं है? यह बहुत जहरीला है! इस मामले से तुम इंसान की प्रकृति देख सकते हो। वे लोगों के सामने या पीछे जो कुछ भी करते हैं, वह वास्तविक या ईमानदार नहीं होता, न ही उसमें से कुछ सत्य या मानवता के अनुरूप होता है; यह सब बुरा, जहरीला है। भ्रष्ट मनुष्य जो कुछ भी कहता है, क्या उस सब में विषैले तत्त्व नहीं होते हैं? (होते हैं।) तो क्या लोगों की बातें विश्वसनीय हैं? क्या उनकी बातों पर भरोसा किया जा सकता है? लोग बहुत अविश्वसनीय, बहुत बेईमान हैं! क्यों? क्योंकि जीते हुए उनकी कथनी-करनी में जो चीजें प्रकट होती हैं, उनका हर कर्म और क्रियाकलाप, उनका हर विचार और भाव, सब शैतानी स्वभाव के होते हैं, पूरी तरह से शैतानी प्रकृति और सार के द्योतक होते हैं।

लोग क्यों परमेश्वर में तो विश्वास करते हैं लेकिन उसके वचनों को सत्य नहीं मानते हैं? इसका कारण यह है कि वे अंधे होते हैं, वे नहीं जानते कि सत्य क्या है और उन्हें परमेश्वर का कोई ज्ञान नहीं होता। अनेक लोग परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं और यह भी स्वीकार करने में सक्षम हैं कि उसके वचन सत्य हैं लेकिन परमेश्वर ने “कीड़ों,” “कूड़े-कचरे,” “दुष्टों,” और “जानवरों” के बारे में जो कुछ कहा है, उसे लेकर उनमें इस हद तक धारणाएँ और प्रतिरोध होता है कि वे इन चीजों को स्वीकार करने में पूरी तरह असमर्थ होते हैं। इसका कारण यह है कि वे अपनी ही प्रकृति को नहीं जानते हैं। लोग मानवीय प्रकृति-सार को कैसे देखते हैं? (वे अपने शैतानी स्वभावों को तो कबूल करते हैं लेकिन फिर भी सोचते हैं कि उनका एक अच्छा पहलू भी है और यह नहीं देख पाते कि वे खुद जीवित शैतान हैं।) क्या लोग अपने प्रकृति-सार को उतने सटीक, साफ और सच्चे ढंग से समझ पाते हैं जैसे परमेश्वर समझता है? (नहीं।) वास्तव में, मनुष्य की प्रकृति-सार परमेश्वर के बिल्कुल प्रतिकूल है। परमेश्वर मनुष्य के सार और प्रकृति को देखता है। वह यह नहीं देखता कि लोग बाहरी तौर पर क्या कहते या करते हैं, वह उनके दिलों को देखता है, उनका सार और प्रकृति देखता है। परमेश्वर के पास मनुष्यों के लिए जो परिभाषाएँ और संबोधन के तरीके हैं, वे कहाँ से आते हैं? उनकी परिभाषा मानवीय प्रकृति-सार के साथ ही उन भ्रष्ट स्वभावों पर भी आधारित होती है जिन्हें मनुष्य प्रकट करता है। इतना कह चुकने के बाद, क्या तुम लोग जानते हो कि “परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराइयों की जाँच करता है” का अर्थ क्या है? लोग हमेशा कहते रहते हैं कि “परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराइयों की जाँच करता है,” तो फिर इन शब्दों के साथ तुम लोगों का अनुभव क्या है? क्या तुम लोगों ने वाकई इन्हें कभी अनुभव किया है? तुम्हें इन शब्दों का कितना ज्ञान और कितनी समझ है? कुछ लोग भ्रमित होते हैं; वे इसका यह अर्थ समझते हैं कि परमेश्वर उनके मन से निकलने वाले विचारों और ख्यालों को जानता है, वह उन चीजों को जानता है जो उन्होंने सत्य के अनुरूप नहीं की हैं, वह उनके दिल की गंदगी, भ्रष्टता और असंयमी इच्छाओं को भी जानता है; भले ही वे चुपचाप बुरे काम करें, तो भी परमेश्वर जानता है। जब परमेश्वर लोगों की जाँच करता है, तो क्या वह वास्तव में केवल सतही स्तर पर उन्हीं चीजों की जाँच करता है, जिनसे लोग वाकिफ हैं? क्या इसे यह कहा जा सकता है कि परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराइयों की जाँच करता है? (नहीं।) किसी व्यक्ति के दिल का गहनतम अंश क्या होता है? (उसका प्रकृति-सार।) क्या लोग अपना प्रकृति-सार जानने में सक्षम होते हैं? क्या वे उसे महसूस कर सकते हैं? क्या वे उसे जान सकते हैं? (नहीं जान सकते।) अगर लोग उसे महसूस नहीं कर सकते तो फिर वे खुद को सच्चे ढंग से कैसे जान सकते हैं? (वे स्वयं को केवल परमेश्वर के वचनों के खुलासे और उसके द्वारा उनके प्रकाशन के जरिए ही जान सकते हैं।) परमेश्वर लोगों के प्रकृति-सार की जाँच करता है जिसे वे न तो महसूस कर सकते हैं, न ही जान सकते हैं; जब परमेश्वर लोगों के प्रकृति-सार को उजागर करता है, जब तथ्य इसे उजागर कर देते हैं, तो वे ईमानदारी से आश्वस्त हो जाते हैं। लोगों के विचार, ख्याल और नजरिये सभी सतही चीजें हैं। कभी-कभी इन्हें बोलकर जाहिर कर दिया जाता है, और कभी ये सिर्फ क्षणिक ख्याल, दिल से निकला एक विचार या एक अस्थायी सक्रिय विचार होता है, लेकिन ये सब सतही चीजें ही हैं। ये सक्रिय विचार अस्थायी रूप से तुम्हारे कार्यकलापों को प्रभावित और निर्देशित कर सकते हैं लेकिन क्या ये तुम्हारे जीवन की दिशा और लक्ष्यों को भी प्रभावित या निर्देशित कर सकते हैं? नहीं कर सकते। तो वह क्या है जो तुम्हारे कार्यकलापों को प्रभावित करने और दिशा देने के साथ-ही-साथ तुम्हारे जीवन की दिशा और लक्ष्यों को भी निर्देशित कर सके? क्या यह मामला तुम्हें स्पष्ट रूप से समझ आ रहा है? यही लोगों के अंतःस्थल में, उनके मन में छिपा रहता है। यही वह चीज है जो लोगों के विचारों और कार्यकलापों को नियंत्रित करती है और उनके दृष्टिकोणों को जन्म देती है। कुछ लोग इस उक्ति “परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराइयों की जाँच करता है” का अर्थ नहीं समझते। यहाँ “लोगों के दिलों की गहराइयों” का क्या अर्थ है? किसी व्यक्ति के अंतरतम में कौन-सी चीजें उत्पन्न होती हैं? क्या ये उनके सबसे गहन आंतरिक विचार होते हैं? ऊपर से ऐसा लग सकता है, लेकिन वास्तविकता में यह क्या है? ये चीजें मानवीय प्रकृति-सार हैं जिन्हें कोई अपनी जगह से हिला नहीं सकता, ये लोगों के सबसे सच्चे विचार होते हैं, जो वे किसी को नहीं बताते; कई बार तो वे खुद भी नहीं जानते कि ये क्या हैं। लोग इन्हीं चीजों के अनुसार जीते हैं। उन्हें लगता है कि अगर वे इन चीजों को खो देंगे, अगर वे इन चीजों से मिलने वाली प्रेरणा खो बैठेंगे तो वे आगे से परमेश्वर में विश्वास नहीं कर पाएंगे। तो क्या तुम लोग जानते हो कि लोगों के दिलों की गहराइयों में कौन-सी चीजें रहती हैं? (आशीष पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास; यह वो चीज है जो लोगों के दिलों में रहती है।) बिल्कुल सही, लोग आशीष पाने, पुरस्कृत होने, ताज पहनने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। क्या यह सबके दिलों में नहीं है? यह एक तथ्य है कि यह सबके दिलों में है। हालाँकि लोग अक्सर इसके बारे में बात नहीं करते, यहाँ तक कि वे आशीष प्राप्त करने का अपना मकसद और इच्छा छिपाते हैं, फिर भी यह इच्छा और मकसद लोगों के दिलों की गहराई में हमेशा अडिग रहा है। लोग चाहे कितना भी आध्यात्मिक सिद्धांत समझते हों, उनके पास जो भी अनुभव या ज्ञान हो, वे जो भी कर्तव्य निभा सकते हों, कितना भी कष्ट सहते हों, या कितनी भी कीमत चुकाते हों, वे अपने दिलों में गहरी छिपी आशीष पाने की प्रेरणा कभी नहीं छोड़ते, और हमेशा चुपचाप उसके लिए मेहनत करते हैं। क्या यह लोगों के दिल के अंदर सबसे गहरी दबी बात नहीं है? आशीष प्राप्त करने की इस प्रेरणा के बिना तुम लोग कैसा महसूस करोगे? तुम किस रवैये के साथ अपना कर्तव्य निभाओगे और परमेश्वर का अनुसरण करोगे? अगर लोगों के दिलों में छिपी आशीष प्राप्त करने की यह प्रेरणा खत्म हो जाए तो ऐसे लोगों का क्या होगा? संभव है कि बहुत-से लोग नकारात्मक हो जाएँगे, जबकि कुछ अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन हो जाएँगे। वे परमेश्वर में अपने विश्वास में रुचि खो देंगे, मानो उनकी आत्मा गायब हो गई हो। वे ऐसे प्रतीत होंगे, मानो उनका हृदय छीन लिया गया हो। इसीलिए मैं कहता हूँ कि आशीष पाने की प्रेरणा ऐसी चीज है जो लोगों के दिल में गहरी छिपी है। शायद अपना कर्तव्य निभाते हुए या कलीसिया का जीवन जीते हुए उन्हें लगता है कि वे अपने परिवार त्यागने और खुद को खुशी-खुशी परमेश्वर के लिए खपाने में सक्षम हैं, और अब वे आशीष प्राप्त करने की अपनी प्रेरणा को जानकर इसे दरकिनार भी कर चुके हैं, और अब उससे नियंत्रित या विवश नहीं होते। फिर वे सोचते हैं कि उनमें अब आशीष पाने की प्रेरणा नहीं रही, लेकिन परमेश्वर ऐसा नहीं सोचता है। लोग मामलों को केवल सतही तौर पर देखते हैं। परीक्षणों के बिना, वे अपने बारे में अच्छा महसूस करते हैं। अगर वे कलीसिया नहीं छोड़ते या परमेश्वर के नाम को नहीं नकारते, और परमेश्वर के लिए खपने में लगे रहते हैं, तो वे मानते हैं कि वे बदल गए हैं। उन्हें लगता है कि वे अब अपने कर्तव्य-पालन में व्यक्तिगत उत्साह या क्षणिक आवेगों से प्रेरित नहीं हैं। इसके बजाय, वे मानते हैं कि वे सत्य का अनुसरण कर सकते हैं, और अपना कर्तव्य निभाते हुए लगातार सत्य की तलाश और अभ्यास कर सकते हैं, ताकि उनके भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध हो सकें और वे कुछ वास्तविक बदलाव हासिल कर सकें। लेकिन जब सीधे लोगों की मंजिल और परिणाम से संबंधित कोई बात हो जाती है तो वे किस प्रकार व्यवहार करते हैं? सच्चाई पूरी तरह से प्रकट हो जाती है। तो आखिर में, जहाँ तक लोगों की बात है, क्या यह परिस्थिति उद्धार और पूर्णता की है या प्रकट किए जाने और हटाए जाने की? क्या यह अच्छी बात है या बुरी बात? सत्य का अनुसरण करने वालों के लिए इसका अर्थ उद्धार और पूर्णता है, जो अच्छा है; सत्य का अनुसरण न करने वालों के लिए इसका अर्थ है प्रकट किया जाना और हटाया जाना, जो बुरा है। एक समयावधि से गुजरते हुए, क्या सभी लोगों को परीक्षण और शोधन की परिस्थितियों का सामना नहीं करना पड़ता? परमेश्वर ऐसा क्यों करता है? यह निश्चित रूप से सार्थक है क्योंकि परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराइयों की जाँच करता है; वह लोगों के अंतरतम हिस्सों की वास्तविक दशा जानता है, वह लोगों को समझता है और उनकी प्रकृति-सार को स्पष्ट और पूर्ण रूप से देखता है। कुछ समय बाद, किसी को कुछ सफलता मिल सकती है, उसने कुछ अच्छे काम किए होंगे, कोई बड़ी गलती नहीं की होगी और वह अपनी काट-छाँट किए जाने को स्वीकार करने में सक्षम हो सकता है। जब उसके साथ कुछ चीजें घटित होती हैं तो उसका रवैया कुछ हद तक आज्ञाकारी हो सकता है। इसलिए वह सोचता है कि वह बहुत अच्छा इंसान है, कि उसने परमेश्वर में विश्वास के सही रास्ते पर कदम रखा है, कि उसे बचा लिया और पूर्ण बना दिया गया है। जब वह सबसे अधिक बेपरवाह और आत्म-संतुष्ट होता है तो परमेश्वर का अनुशासन, न्याय और ताड़ना आती है। ये परिस्थितियाँ लोगों को प्रकट करती हैं और उनके आध्यात्मिक कद, उनके भ्रष्ट स्वभावों, उनके प्रकृति-सार को और परमेश्वर के प्रति उनके दृष्टिकोण को भी उजागर करती हैं। यह प्रकाशन लोगों के लिए सचमुच अच्छा होता है। यदि वे सत्य का अनुसरण करते हैं, तो यह प्रकाशन और यह परिस्थिति उन्हें स्वच्छ कर देगी। कौन-सी चीज दूरकर उन्हें से स्वच्छ करेगी? यह तुम्हें परमेश्वर से अतार्किक याचनाएँ करने और अपनी असंयमी इच्छाओं से स्वच्छ करेगी, और तुम्हें सही दृष्टिकोण अपनाने को प्रेरित करेगी; फिर कभी तुम परमेश्वर के साथ लेनदेन की कोशिश नहीं करोगे या उससे अपनी असंयमी इच्छाओं की पूर्ति की याचना नहीं करोगे; बल्कि, तुम्हारे पास ज्यादा से ज्यादा परमेश्वर के प्रति सच्चे समर्पण का दिल होगा। तुम कुछ भी याचना नहीं करोगे, केवल सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर के दिल को संतुष्ट करने का प्रयास करोगे, जिससे तुम अधिकाधिक शुद्ध होते जाओगे और अंत में एक दिन उद्धार पाने में सक्षम हो जाओगे। क्या यह परमेश्वर के कार्य से हासिल परिणाम नहीं है? (है।) क्या ऐसा करने के पीछे परमेश्वर का कोई अभिप्राय नहीं है? क्या यह लोगों को स्वच्छ नहीं करता? क्या लोगों को इस तरह स्वच्छ करने की जरूरत है? (हाँ, है।) अगर परमेश्वर ने लोगों को इस तरह उजागर या स्वच्छ न किया होता तो क्या लोग सत्य हासिल कर सकते थे? (नहीं।) वे सत्य हासिल नहीं कर सकते थे। अपने शैतानी स्वभाव के आधार पर लोग कैसी राह पकड़ सकते हैं? (शैतान के अनुसरण और परमेश्वर के विरोध की राह।) क्या ऐसे व्यक्ति आशीष पा सकते हैं? नहीं पा सकते, वे केवल हटाए जा सकते हैं।

क्या तुम लोग जानते हो कि कोई फरीसी सचमुच कैसा होता है? क्या तुम लोगों के आसपास कोई फरीसी है? इन लोगों को “फरीसी” क्यों कहा जाता है? फरीसियों का वर्णन कैसे किया जाता है? वे ऐसे लोग होते हैं जो पाखंडी हैं, जो पूरी तरह से नकली हैं और अपने हर कार्य में नाटक करते हैं। वे क्या नाटक करते हैं? वे अच्छे, दयालु और सकारात्मक होने का ढोंग करते हैं। क्या वे वास्तव में ऐसे होते हैं? बिलकुल नहीं। चूँकि वे पाखंडी होते हैं, इसलिए उनमें जो कुछ भी व्यक्त और प्रकट होता है, वह झूठ होता है; वह सब ढोंग होता है—यह उनका असली चेहरा नहीं होता। उनका असली चेहरा कहाँ छिपा होता है? वह उनके दिल की गहराई में छिपा होता है, दूसरे उसे कभी नहीं देख सकते। बाहर सब नाटक होता है, सब नकली होता है, लेकिन वे केवल लोगों को मूर्ख बना सकते हैं; वे परमेश्वर को मूर्ख नहीं बना सकते। अगर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, अगर वे परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव नहीं करते, तो वे वास्तव में सत्य नहीं समझ सकते, इसलिए उनके शब्द कितने भी अच्छे क्यों न हों, वे शब्द सत्य वास्तविकता नहीं होते, बल्कि शब्द और धर्म-सिद्धांत होते हैं। कुछ लोग केवल शब्दों और धर्म-सिद्धांतों को रटने पर ही ध्यान देते हैं, जो भी उच्चतम उपदेश देता है वे उसकी नकल करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप कुछ ही वर्षों में उनका शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का पाठ निरंतर उन्नत होता जाता है, और वे बहुत-से लोगों द्वारा सराहे और पूजे जाते हैं, जिसके बाद वे खुद को छद्मावरण द्वारा छिपाने लगते हैं, अपनी कथनी-करनी पर बहुत ध्यान देते हैं, और स्वयं को खास तौर पर पवित्र और आध्यात्मिक दिखाते हैं। वे इन तथाकथित आध्यात्मिक सिद्धांतों का प्रयोग खुद को छद्मावरण से छिपाने के लिए करते हैं। वे जहाँ कहीं जाते हैं, बस इन्हीं चीजों के बारे में बात करते हैं, ऊपर से आकर्षक लगने वाली चीजें जो लोगों की धारणाओं के अनुकूल तो होती हैं, लेकिन जिनमें कोई सत्य वास्तविकता नहीं होती। और इन चीजों का प्रचार करके—जो लोगों की धारणाओं और रुचियों के अनुरूप होती हैं—वे बहुत लोगों को गुमराह करते हैं। दूसरों को ऐसे लोग बहुत ही धर्मपरायण और विनम्र लगते हैं, लेकिन वास्तव में यह नकली होता है; वे सहिष्णु, धैर्यवान और प्रेमपूर्ण लगते हैं परंतु यह सब वास्तव में ढोंग होता है; वे कहते हैं कि वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं, लेकिन वास्तव में यह एक नाटक होता है। दूसरे लोग ऐसे लोगों को पवित्र समझते हैं, लेकिन असल में यह झूठ होता है। सच्चा पवित्र व्यक्ति कहाँ मिल सकता है? मनुष्य की सारी पवित्रता नकली होती है, वह सब एक नाटक, एक ढोंग होता है। बाहर से वे परमेश्वर के प्रति वफादार प्रतीत होते हैं, लेकिन वे वास्तव में केवल दूसरों को दिखाने के लिए ऐसा कर रहे होते हैं। जब कोई नहीं देख रहा होता है, तो वे जरा से भी वफादार नहीं होते हैं, और वे जो कुछ भी करते हैं, वह लापरवाही से किया गया होता है। सतह पर वे खुद को परमेश्वर के लिए खपाते हैं और उन्होंने अपने परिवारों और अपनी आजीविकाओं को छोड़ दिया है। लेकिन वे गुप्त रूप से क्या कर रहे हैं? वे परमेश्वर के लिए काम करने के नाम पर कलीसिया का फायदा उठाते हुए और चुपके से चढ़ावे चुराते हुए कलीसिया में अपना उद्यम और अपना कार्य व्यापार चला रहे हैं...। ये लोग आधुनिक पाखंडी फरीसी हैं। फरीसी आते कहाँ से हैं? क्या वे गैर-विश्वासियों के बीच से आते हैं? नहीं, ये सभी विश्वासियों के बीच से आते हैं। ये लोग फरीसी क्यों बन जाते हैं? क्या किसी ने इन्हें इस तरह बनाया है? जाहिर है, ऐसा नहीं है। तो कारण क्या है? कारण यह है कि उनका प्रकृति-सार ही ऐसा होता है और उन्होंने जो रास्ता पकड़ा है वही इसकी वजह है। वे परमेश्वर के वचनों का उपयोग केवल प्रचार करने और कलीसिया से लाभ प्राप्त करने के साधन के रूप में करते हैं। वे अपने दिमाग और मुँह परमेश्वर के वचनों से लैस कर लेते हैं, नकली आध्यात्मिक सिद्धांतों के उपदेश देते हैं, खुद को पवित्र के रूप में पेश करते हैं और फिर कलीसिया से फायदे उठाने के उद्देश्य से इसका पूँजी की तरह इस्तेमाल करते हैं। वे मात्र सिद्धांतों का उपदेश देते हैं, मगर उन्होंने कभी भी सत्य का अभ्यास नहीं किया है। वे किस तरह के लोग हैं जो परमेश्वर के मार्ग का कभी भी अनुसरण न करने के बावजूद वचनों और सिद्धांतों का उपदेश देना जारी रखते हैं? ये पाखंडी फरीसी हैं। उनका थोड़ा-सा कथित अच्छा व्यवहार और अच्छा आचरण, और जो थोड़ा-बहुत उन्होंने त्यागा और खुद को खपाया है, वह सब अपनी इच्छा को रोककर और इसे नया आवरण पहनाकर हासिल किया गया है। ये सारे कृत्य पूरी तरह नकली हैं और ढोंग हैं। इन लोगों के दिल में परमेश्वर का जरा-सा भी भय नहीं है, न परमेश्वर में उनकी कोई सच्ची आस्था है। और तो और, वे अविश्वासी हैं। यदि लोग सत्य की खोज नहीं करते हैं, तो वे इस तरह के रास्ते पर चलेंगे, और वे फरीसी बन जाएँगे। क्या यह डरावना नहीं है? फरीसी जिस धार्मिक स्थान पर एकत्र होते हैं वह एक बाजार बन जाता है। परमेश्वर की दृष्टि में यह धर्म है; यह परमेश्वर की कलीसिया नहीं है, न ही वह कोई ऐसा स्थान है जिसमें उसकी आराधना की जाती है। इस प्रकार, यदि लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो फिर वे परमेश्वर के कथनों से संबंधित चाहे जितने भी हू-ब-हू शब्द और सतही धर्म-सिद्धांत धारण कर लें, ये किसी काम नहीं आएंगे। कुछ लोग कहते हैं : “मैं चाहे जितने वचनों से युक्त हो जाऊँ, सब बेकार है, इसलिए मैं खुद को इनसे बिल्कुल भी युक्त नहीं करूँगा।” वे क्या कह रहे हैं? क्या यह निरर्थक नहीं है? क्या यह बेतुकी बात नहीं है? इन वचनों पर संगति करने के पीछे मेरा उद्देश्य क्या है? क्या तुम्हें परमेश्वर के वचनों से युक्त होने से रोकना है? (नहीं।) तुम्हें खुद को परमेश्वर के वचनों से युक्त जरूर करना चाहिए लेकिन एक महत्वपूर्ण बात स्पष्ट रहे कि तुम परमेश्वर के वचनों का इस्तेमाल खुद को किसी भी ढंग से पेश करने के लिए नहीं कर सकते, न ही तुम्हें कलीसिया से फायदा उठाने के लिए इन वचनों को पूँजी के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए, दूसरों पर वार करने के लिए हथियार के रूप में इस्तेमाल करना तो बहुत दूर की बात है। परमेश्वर के वचन क्या हैं? परमेश्वर के वचन सत्य, मार्ग और जीवन हैं जो लोगों के भ्रष्ट स्वभावों का समाधान करते हैं। अगर तुम इन वचनों को बिल्कुल सही तरह से लागू कर अभ्यास करो तो सत्य हासिल कर लोगे; यह सत्य तुम्हारे लिए धर्म-सिद्धांत या शब्द भर नहीं होंगे, बल्कि तुम्हारी जीवन-वास्तविकता होंगे। सत्य पा लोगे तो, तुम जीवन पा लोगे।

अभी मैंने “परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराइयों की जाँच करता है” संबंधी जिस विषय पर बात की है, उसके बारे में मैं एक कहानी सुनाता हूँ : एक बार एक सुंदर महिला का विवाह एक धनवान व्यक्ति से हुआ। दुनिया ऐसे विवाहों को अमूमन किस नजरिये से देखती है? सुंदर महिला की नजर धनवान के पैसे पर है और धनवान व्यक्ति सुंदर महिला के रूप पर मोहित है; दोनों को जो चाहिए वे हासिल कर लेते हैं और उनमें कोई सच्चा प्यार नहीं है—यह सौदे की शादी है। दुनिया की कल्पनाओं के अनुसार यह सुंदर महिला निश्चित रूप से पैसा फालतू उड़ाएगी, आलीशान जिंदगी जिएगी लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। वह साधारण गृहिणी का जीवन जीते हुए रोजमर्रा के कार्य निपटाती थी; रोज वह इस कदर मेहनत और ईमानदारी से काम करती, अपने पति और परिवार के साथ सद्व्यवहार करती कि उसे सदाचारी और दयालु कहा जा सकता था। लेकिन धनवान व्यक्ति ने उससे कैसा सलूक किया? पहले तो उसे यह चिंता हुई कि यह सुंदर महिला उसके साथ सच्चे मन से रह नहीं सकेगी और उनकी शादी नहीं टिकेगी, इसलिए वह अपनी धन-दौलत और जरूरी चीजें अपने पास ही रखता था। उसने यह सब अपने नाम पर रखा, अपनी पत्नी को नहीं सौंपा। लेकिन उस सुंदरी ने इस सब की परवाह नहीं की। पति ने चाहे जैसा भी व्यवहार किया—चाहे उस पर भरोसा नहीं किया, चाहे उसे रुपये-पैसे के मामले में रोका—उसने कोई भी अनिच्छा या नाराजगी नहीं जताई। बल्कि वह और भी मेहनत करने लगी। कुछ साल में वह कई बच्चों की माँ बनी और एक अच्छी माँ और पत्नी के रूप में अपने पूरे परिवार की देखभाल पहले जैसे ही करती रही; वह आज्ञाकारी और विनम्र होकर अपने पति का ध्यान रखती थी। आखिरकार एक दिन उस धनवान को एहसास हुआ कि उसकी पत्नी वैसी नहीं है जैसा उसने सोचा था : वह न तो उसकी धन-दौलत के पीछे थी, न उसके सुख-साधनों के पीछे। सामान्य जीवन की जरूरतों के अलावा उसकी कोई अतिरिक्त माँग नहीं थी, और यही नहीं, परिवार को संभालने के लिए उसने खुद को बहुत खपाया—अपना यौवन, अपना रूप और अपना समय, सब दिया। वह परिवार के प्रति परिश्रमी और ईमानदार थी और कभी शिकायत नहीं करती थी। धनवान द्रवित हो गया। द्रवित होने पर उसे पहला विचार क्या आया? क्या वह ऐसा नहीं सोचेगा : “मेरी पत्नी इतनी भरोसेमंद है लेकिन मैं उस पर शक कर पहरा बैठाता रहा। इस तरह पेश आकर मैंने उसके साथ ज्यादती की। मुझे अपनी सारी धन-दौलत और चीजें उसे देखभाल के लिए सौंप देनी चाहिए, क्योंकि वह मेरा सच्चा प्यार है, ऐसी इंसान जिस पर मुझे सबसे ज्यादा भरोसा करना चाहिए और जो मेरे विश्वास की सबसे योग्य पात्र है। अगर मैं उस पर विश्वास न करूँ, उस पर पहरा बैठाए रखूँ, तो फिर यह उसके साथ अन्याय होगा। ऐसा व्यवहार अनुचित है। वह पहले ही इतने साल परीक्षाओं से गुजर चुकी है, मैं उस पर और शक नहीं कर सकता।” क्या यह विचार उन सारे तथ्यों को देखकर नहीं उत्पन्न हुआ? (बिल्कुल।) इस तरह का विचार मानवीय न्याय से आता है। जो घटनाएँ घटीं, उस दौरान पत्नी ने जैसा व्यवहार किया, उसे देखकर पति ने यह निर्णय लिया, जिससे उसे अपनी पत्नी की परिभाषा मिली। इसलिए जब धनवान पति द्रवित हुआ तो उसने अपनी सारी धन-दौलत पत्नी के नाम कर दी और इस तरह उस पर पूरा भरोसा दिखाया, उसकी कई बरसों की वफादारी और अपने प्रति उसके समर्पण का उत्तर दे दिया। अधिकतर लोगों के लिए यह मानवीय अंतरात्मा, न्याय, सदाचार और नैतिकता के अनुरूप है। क्या यह मामला खत्म हो गया? (नहीं।) कानूनी प्रक्रियाएँ पूरी करने के बाद धनवान ने अपनी सारी दौलत अपनी पत्नी के नाम कर दी। एक दिन वह खाना खाने घर पहुँचा और जैसे ही दरवाजे से अंदर दाखिल हुआ तो माहौल गड़बड़ लगा। उसकी पत्नी न तो स्वागत करने आई, न ही बात करने और घर में कोई चहल-पहल नहीं थी। इस वक्त जो मेज आम तौर पर पकवानों से भरी रहती थी, वह आज खाली क्यों है? उसने पीछे मुड़कर देखा तो डाइनिंग टेबल पर एक कागज मिला, उस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था—अलविदा!

कहानी अब खत्म हो गई है। शायद तुम सभी लोग कमोबेश बात समझ गए होगे, तो यह कहानी सुनाने का उद्देश्य क्या है? (हमें यह बताना कि लोगों पर भरोसा नहीं किया जा सकता और वे ढोंग रचने में माहिर हैं।) धनी व्यक्ति एक छद्म रूप से धोखा खा गया। इस सुंदर महिला ने खूब ढोंग रचा; इतने वर्षों तक उसने कभी कोई चूक नहीं होने दी, और उसके साथ इतने साल रहकर भी धनी व्यक्ति को जरा-सा भी संकेत नहीं मिला। यह सुंदर महिला किस तरह की इंसान है? (वह कपटी और धूर्त, और विशेष रूप से चालबाज है।) क्या शुरुआत से ही उसकी यही मंशा थी या उसने अंत में सारी दौलत हाथ लगने के बाद ही ऐसा करने की सोची? (उसकी शुरुआत से ही यही मंशा थी।) धनी व्यक्ति से विवाह करते समय उसके असली इरादे क्या थे? क्या उसने उन्हें अभिव्यक्त किया? (नहीं, उसने उन्हें छिपाया।) तो उसने जाहिर क्या होने दिया? (अपना झूठा रूप।) बिल्कुल झूठा रूप। इस झूठे रूप के पीछे उसका सबसे गहरा विचार क्या था? (वह दौलत और लाभ प्राप्त करना चाहती थी।) उसने उस अमीर आदमी से निष्ठापूर्वक शादी नहीं की, वह सिर्फ उसकी दौलत चाहती थी। दस साल लगते या बीस साल, उसकी दौलत हड़पने के लिए वह उससे विवाह करने या इतने साल तक अपना यौवन लुटाने और कठोर मेहनत करने को तैयार थी। यही उसके दिल का सबसे गहरा विचार था। इस विचार की खातिर उसने जो चीजें कीं, वे किस तरह की हैं? (ढोंग और छल-कपट।) उसने जो चीजें कीं, क्या वे याद रखने लायक हैं या लोगों की नजर में घिनौनी हैं? (घिनौनी हैं।) यह अच्छा है या बुरा? (बुरा।) यह सब बुरा है। उसके सारे क्रियाकलाप और उसने जो भी बाहरी मूल्य चुकाए, उन्हें किस आधार पर बुरा ठहराया जा सकता है? यह निष्कर्ष कैसे निकलता है? (यह निष्कर्ष उसके इरादों और उसके क्रियाकलापों के प्रारंभिक बिंदु के आधार पर निकलता है।) तो तुम लोग इस कहानी से क्या समझते हो? (लोग बाहरी रूप देखते हैं, लेकिन परमेश्वर लोगों का सार देखता है।) यह निश्चित है। लोग बाहरी रूप क्यों देखते हैं? क्या लोग दूसरों की कथनी-करनी से उनके इरादों और उद्देश्यों को भाँप सकते हैं? क्या तुम लोग जानते हो कि इन्हें कैसे पहचाना जाए? (हम कुछ स्पष्ट, सतही स्तर की चीजें देख सकते हैं।) तुम लोग कुछ बाहरी अभिव्यक्तियाँ देख सकते हो, लेकिन जब तुम सत्य समझते हो और तुम्हारे पास कुछ सत्य-वास्तविकता होती है, तो क्या तुम लोगों के सार को थोड़ा और स्पष्ट रूप से नहीं देख पाओगे? (बिल्कुल देख पाएँगे।) परमेश्वर लोगों के दिलों को इतने स्पष्ट रूप से कैसे देख पाता है? इसका कारण यह है कि परमेश्वर ही सत्य है, वह सर्वशक्तिमान है और वह लोगों के दिलों की गहराइयों की जाँच करता है। क्या तुम लोगों को लगता है कि मनुष्यों के पास न्याय का एक सही मापदंड है, जिससे वे दूसरों को उसी तरह आँक सकते हैं, जैसे परमेश्वर आँकता है? (उनके पास सही मापदंड नहीं है, क्योंकि सभी मनुष्य एक जैसे होते हैं, जबकि परमेश्वर स्रष्टा है।) सभी मनुष्य एक जैसे होते हैं, तो क्या मनुष्यों में कोई अंतर होता है? क्या जिसके पास सत्य होता है और जिसके पास नहीं होता, उनमें कोई अंतर होता है? क्या जो परमेश्वर को जानता है और जो नहीं जानता, उनमें कोई अंतर होता है? क्या परमेश्वर का भय मानने वाले और न मानने वाले में कोई अंतर होता है? (होता है।) किस तरह का व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के सार को जान सकता है? (वह जो परमेश्वर को जानता है और उसका भय मानता है।) अंतिम विश्लेषण में, कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के सार को कैसे जान सकता है? जहाँ तक मनुष्यों का संबंध है, वे यह तभी जान सकते हैं, जब वे सत्य को समझेंगे और उनके पास सत्य-वास्तविकता होगी। तो जहाँ तक परमेश्वर का संबंध है, वह लोगों का सार कैसे जान लेता है? तुम इस मामले को कैसे समझाते हो? क्या यह कहा जा सकता है कि परमेश्वर ही सभी लोगों, घटनाओं और चीजों को आँकने का मापदंड है, और वही सभी सकारात्मक और नकारात्मक चीजों को भी आँकने की कसौटी है? (बिल्कुल।) इन शब्दों का व्यावहारिक तत्त्व क्या है? किसी व्यक्ति का बाहरी आचरण अच्छा और सही हो सकता है, लेकिन अगर तुम्हारे पास सत्य-वास्तविकता होती, तो तुम यह पहचान सकते हो कि वह सत्य का अभ्यास करता है या नहीं। लेकिन अगर तुम्हारे पास सत्य-वास्तविकता नहीं होती, तो जब तुम किसी सही आचरण वाले ऐसे व्यक्ति को देखते हो जो अपना बाहरी रूप बहुत अच्छी तरह छिपा सकता है, बेजोड़ तरीके से छिपा सकता है, तो क्या तुम यह देख पाओगे कि वह सत्य का अभ्यास करता है कि नहीं? तुम नहीं जान पाओगे कि उसे कैसे पहचाना जाए। सत्य-वास्तविकता के बिना तुम्हारे पास दूसरों को आँकने का मापदंड नहीं होगा, और तुम नहीं जान पाओगे कि उन्हें कैसे आँकना है। अगर तुम अच्छे बाहरी आचरण वाले किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो, जो खुशमिजाजी से बोलता है, जो बहुत कष्ट उठाता है और खुद को बहुत खपाता हो, जो बाहरी तौर पर कोई समस्या प्रकट नहीं करता और जिसमें कोई ऐसी कमी नहीं है जिसके बारे में बोला जा सके, तो तुम कैसे आँकते हो कि वह अच्छा इंसान है या बुरा, कि वह सत्य से प्रेम करता है या उससे विमुख है? तुम इसे कैसे पहचानते हो? अगर तुम्हारे पास इसे आँकने का कोई मापदंड नहीं है, तो तुम उसके बाहरी आचरण और क्रियाकलापों से आसानी से धोखा खा जाओगे। अगर उसने तुम्हारी आँखों में धुल झोंक दी और तुम उससे धोखा खा गए, तो क्या तुम यह पहचान पाओगे कि वह अच्छा है या बुरा, दयालु है या दुष्ट? नहीं पहचान पाओगे। कुछ लोग कहते हैं : “जो लोग सत्य को समझते हैं, क्या वे परमेश्वर की तरह दूसरे लोगों के दिलों की जाँच कर पाते हैं?” इंसानों में यह क्षमता नहीं है। अगर उनमें सत्य की गहरी समझ हो, तो भी इसका यह मतलब नहीं कि उनके पास सत्य-वास्तविकता है। हालाँकि, अगर कोई व्यक्ति सत्य को समझता है, तो वह यह पहचानने में सक्षम रहता है कि कोई अन्य व्यक्ति अच्छा है या बुरा, सत्य से प्रेम करता है या नहीं, ईमानदार है या धोखेबाज, परमेश्वर का भय मानता है या उसके प्रति विद्रोही और बैरी है, और ईमानदारी से परमेश्वर का अनुसरण करता है या पाखंडी है। तुम इन सभी चीजों को समझ पाओगे। अंतिम विश्लेषण में, सबसे महत्वपूर्ण क्या है? (सत्य-वास्तविकता का होना।) जिन लोगों के पास सत्य-वास्तविकता नहीं होती, वे कुछ भी पूरी तरह नहीं समझ पाते; वे हमेशा मूर्खतापूर्ण ढंग से कार्य करते हैं और ऐसे तरीकों से काम करते हैं जो सत्य से टकराते हैं और परमेश्वर का विरोध करते हैं। ऐसे लोग दयनीय हैं। यह इस बात का महत्व बताता है कि व्यक्ति सत्य प्राप्त करने और सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करने में सक्षम है या नहीं। जब लोग खुद ही सत्य को नहीं समझते, तो वे दूसरों को कैसे देखते हैं? वे दूसरों को सिर्फ अपनी धारणाओं और कल्पनाओं से ही देख पाते हैं। जब वे किसी दूसरे व्यक्ति का मूल्यांकन और वर्गीकरण करते हैं, तो वे सिर्फ उसकी काबिलियत और ज्ञान ही देखते हैं; वे केवल इतना देखते हैं कि उसका बाहरी आचरण नैतिक है या नहीं, वह परंपरागत संस्कृति और मानवीय नैतिकता के अनुरूप है या नहीं, और उसके क्रियाकलापों से दूसरों को लाभ होता है या नहीं। अगर वे देख पाते हैं कि किसी व्यक्ति की कथनी-करनी बुनियादी तौर पर वाजिब है, वह पूरी तरह नैतिकता और सदाचार की मानवीय धारणाओं के अनुरूप है और हर किसी की पसंद के अनुरूप भी है, तो वे उस व्यक्ति को एक अच्छे व्यक्ति के रूप में वर्गीकृत कर देंगे। लेकिन परमेश्वर लोगों का वर्गीकरण कैसे करता है? क्या लोगों द्वारा निष्कर्षों पर पहुँचने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले ये सारे तरीके और उनके प्रारंभिक बिंदु ही वे मापदंड हैं, जिनसे परमेश्वर किसी व्यक्ति का सार निर्धारित करता है? (नहीं।) परमेश्वर अपना निर्धारण किस चीज के आधार पर करता है? परमेश्वर किसी व्यक्ति के प्रकृति-सार का निर्धारण उसके हृदय के विचारों और भावों, और उसकी कथनी-करनी के ध्येय के आधार पर करता है, जो कि उसके इरादे और उद्देश्य होते हैं। इसी कारण यह कहा जाता है कि परमेश्वर ही है जो लोगों के दिलों की गहराइयाँ जाँचता है। क्या कोई इंसान लोगों के दिलों की गहराइयाँ जाँच सकता है? (नहीं।) लोग दूसरों की बाहरी अभिव्यक्तियाँ ही देख सकते हैं, और अपनी बातचीत से जो इरादे वे प्रकट करते हैं उन्हें या उनमें निहित अभिप्राय ही भाँप सकते हैं; हद से हद, लोग इन्हीं चीजों को देख पाते हैं, इसलिए वे जो कुछ देखते-सुनते हैं, उसी के आधार पर दूसरों के व्यवहार का निर्धारण कर सकते हैं। दूसरी ओर, जब परमेश्वर लोगों का निर्धारण करता है, तो सिर्फ उनके क्रियाकलाप, उनके चलने की दिशा या किसी क्रियाकलाप विशेष की गुणवत्ता ही नहीं देखता। परमेश्वर उनके सबसे सच्चे विचार देखना चाहता है, यह देखना चाहता है कि कार्य करते हुए उनके इरादे और उद्देश्य वास्तव में क्या होते हैं, उनका प्रकृति-सार किन चीजों को जन्म देता है, और वे चीजें उन्हें किस राह पर चलने को बाध्य करती हैं। यही वे चीजें हैं, जिन्हें परमेश्वर देखता है। इसलिए मैं तुम लोगों से पूछता हूँ, परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराइयों की जाँच करता है—इसमें “लोगों के दिलों की गहराइयों” से क्या आशय है? सरल शब्दों में कहें तो, ये लोगों के दिलों के सबसे सच्चे विचार हैं। इसलिए परमेश्वर की उपस्थिति में तुम खुद को चाहे जैसे लुकाओ-छिपाओ या अपने को चाहे जिस रूप में गढ़ो, परमेश्वर को तुम्हारे सभी सबसे सच्चे विचारों और तुम्हारे अंदर सबसे गहरे, अंतरतम हिस्सों में छिपी चीजों की स्पष्ट समझ होती है; ऐसा एक भी इंसान नहीं है जिसकी गुप्त, आंतरिक चीजें परमेश्वर की जाँच से बच सकती हों। क्या तुम समझ रहे हो कि मैं क्या कह रहा हूँ? दशकों के जीवन और व्यवहार से उस सुंदर महिला ने अपने सबसे नजदीकी व्यक्ति को धोखा दे दिया—अगर तुम लोगों के साथ भी यही हुआ, तो क्या तुम भी धोखा नहीं खा जाओगे? (हम भी धोखा खा जाएँगे।) तो क्या तुम यह नहीं कह सकते कि उसने अपने पति को ही धोखा नहीं दिया, बल्कि तुम लोगों और बाकी सबको भी धोखा दिया? (हाँ, कह सकते हैं।) उसने अपने दिल के सबसे सच्चे विचार अन्य किसी के सामने प्रकट नहीं किए—उसने किसी को नहीं बताया—यही नहीं, उसका छद्म वेश अचूक था, जिसके बारे में कोई नहीं जानता था। फिर भी, उसने एक चीज पर ध्यान नहीं दिया—परमेश्वर लोगों की तमाम हरकतें देखता है। वह भले ही अन्य सभी को धोखा देने में कामयाब हो गई हो, लेकिन वह परमेश्वर को धोखा नहीं दे पाई। वह धनी व्यक्ति बाहर से चतुर लगता था, वह बहुत पैसा कमाने में भी समर्थ था, लेकिन वह एक औरत का शिकार बन गया। क्या यह उसकी ओर से क्षणिक लापरवाही थी? (नहीं।) तो फिर इसका क्या कारण था? इसका कारण यह था कि वह अपनी पत्नी की असलियत नहीं देख पाया। इस कहानी से मैं तुम लोगों को कौन-से तथ्य बता रहा हूँ? मैं तुम लोगों को यह बता रहा हूँ कि परमेश्वर में विश्वास करते समय तुम्हें सही मार्ग पर चलना चाहिए और अपना आचरण सही रखना चाहिए, और कुटिल और बुरे तरीकों में नहीं पड़ना चाहिए। कुटिल और बुरे तरीके कौन-से हैं? परमेश्वर के विश्वासी अपनी भ्रष्टता, दोष और कमियाँ, और अपनी कम काबिलियत जैसी समस्याएँ छिपाने के लिए हमेशा छोटी-मोटी साजिशों पर, कपटी और चतुर खेलों पर और चालें चलने पर निर्भर रहना चाहते हैं; वे हमेशा शैतानी फलसफों के अनुसार मामले निपटाते हैं, जिन्हें वे ज्यादा बुरा नहीं मानते। सतही स्तर के मामलों में वे परमेश्वर और अपने अगुआओं की चापलूसी करते हैं, लेकिन वे सत्य का अभ्यास नहीं करते, न ही वे सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हैं। वे दूसरों के शब्दों और अभिव्यक्तियों को सावधानी से तौलते हैं और हमेशा सोचते हैं : “मेरा हालिया प्रदर्शन कैसा रहा है? क्या हर कोई मेरा समर्थन करता है? क्या परमेश्वर उन सारी अच्छी चीजों के बारे में जानता है, जो मैंने की हैं? अगर वह जानता है, तो क्या मेरी प्रशंसा करेगा? परमेश्वर के दिल में मेरा क्या स्थान है? क्या वहाँ मैं महत्वपूर्ण हूँ?” निहितार्थ यह है कि परमेश्वर में विश्वास करने वाले व्यक्ति के रूप में क्या उसे आशीष मिलेगा या उसे हटा दिया जाएगा? क्या सदा इन्हीं विषयों पर सोचते रहना कुटिल और बुरा मार्ग नहीं है? बेशक यह कुटिल और बुरा मार्ग है, सही मार्ग नहीं। तो फिर सही मार्ग क्या है? (सत्य का अनुसरण कर स्वभाव में बदलाव करना।) बिल्कुल सही। जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उनके लिए सत्य का अनुसरण करना, सत्य प्राप्त करना और स्वभाव बदलना ही एकमात्र सही मार्ग है। जिस मार्ग पर परमेश्वर लोगों को उद्धार पाने के लिए ले जाता है, वही सच्चा मार्ग है, सही मार्ग है।

परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराइयों की जाँच करता है; वह लोगों के दिलों के सबसे गहरे हिस्सों, उनके सबसे सच्चे विचारों को देखने में सक्षम है। जब परमेश्वर कहता है कि “लोग कीड़े-मकोड़े हैं,” तो किस आधार पर कहता है? (मनुष्य के प्रकृति-सार के आधार पर।) क्या तुम लोगों ने कभी उन “कीड़े-मकोड़ों” के सार, अवस्था और अभिव्यक्तियों का गहन विश्लेषण किया है, जिनके बारे में परमेश्वर बोलता और देखता है? मनुष्य के सार के कौन-से तत्त्वों के कारण परमेश्वर उसे ऐसा कहता है? परमेश्वर क्यों कहता है कि लोग कीड़े-मकोड़े हैं? परमेश्वर की नजरों में, भ्रष्ट मानवजाति स्पष्ट रूप से उसकी रचना है; लेकिन क्या मनुष्य वे दायित्व और कर्तव्य निभाते हैं, जो सृजित प्राणियों को निभाने चाहिए? अनेक लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं, लेकिन ऐसा करते समय उनका प्रदर्शन कैसा रहता है? वे अपने कर्तव्य-निर्वाह में पहल नहीं करते; अगर उनकी काट-छाँट न की जाए या उन्हें अनुशासित न किया जाए, तो वे आगे नहीं बढ़ते रहते; यहाँ तक कि थोड़ी-सी आस्था रखने, कुछ छोटे सक्रिय तत्त्व पाने के लिए भी उन्हें हमेशा सभा, संगति और पोषण की जरूरत पड़ती है—क्या यह उनका भ्रष्ट स्वभाव नहीं है? (बिल्कुल है।) लोग अपनी स्थिति नहीं जानते, न ही वे यह जानते हैं कि उन्हें क्या करना चाहिए, किसका अनुसरण करना चाहिए, किस रास्ते पर चलना चाहिए; यहाँ तक कि अधिकांश समय वे अपनी ही इच्छाओं के अनुसार काम करते हैं और बेकाबू हो जाते हैं। अगर बारंबार सिंचन और काट-छाँट न की जाए, अगर परमेश्वर लोगों को वापस अपनी ओर लाने के लिए लगातार परिस्थितियों की व्यवस्था न करे, तो लोग क्या करेंगे? तुम कह सकते हो कि ऐसा व्यक्ति न केवल अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभा सकता, बल्कि वह इस हद तक विकृत हो जाएगा कि नकारात्मक हो जाएगा, अपने काम में सुस्त पड़ जाएगा, लापरवाही से काम करेगा और परमेश्वर को धोखा देगा। अगर व्यक्ति अपना वह कर्तव्य नहीं निभा सकता जो उसे निभाना चाहिए, तो उसके तमाम कार्यों की गुणवत्ता क्या है? तुम कह सकते हो कि वे सब बुरे कर्म हैं—वह केवल बुरा करता है! पूरे दिन उसके विचारों का सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता, परमेश्वर के मार्ग पर चलने से कोई लेना-देना नहीं होता। रोज वह बिना विचारे या बिना मेहनत किए दिन में तीन बार भरपेट भोजन करता है; अगर उसके पास कोई विचार होता भी है, तो वह सत्य-सिद्धांतों के अनुरूप नहीं होता, न ही उसका उन अपेक्षाओं से कोई संबंध होता है जो परमेश्वर मनुष्य से करता है। वह परमेश्वर की गवाही बिल्कुल न देते हुए व्यवधान और परेशान करने वाले काम करता है। उसका दिल इन्हीं विचारों से भरा रहता है कि अपना भौतिक कल्याण कैसे खोजें, रुतबे और शोहरत के लिए कैसे प्रयास करें, दूसरे लोगों के बीच कैसे दृढ़ रहें, रुतबा और यश कैसे पाएँ। वे मानवीय मामलों में शामिल हुए बिना ही परमेश्वर का दिया खाना खाते हैं और उसकी दी हुई सारी चीजों का आनंद लेते हैं। परमेश्वर ऐसे लोगों को पसंद नहीं करता—वह उनका तिरस्कार करता है। कुछ लोग अपना कर्तव्य महज औपचारिकता के रूप में निभाते हैं। वे एक गैर-विश्वासी अगुआ की तरह कलीसिया में कार्यों का निरीक्षण करने के लिए आते हैं; एक बार राउंड लेते हैं, कुछ नारे लगाते हैं, भाई-बहनों को भाषण पिलाते हैं, हर किसी को आज्ञाकारी ढंग से अपनी बात सुनने के लिए मजबूर करते हैं, और फिर उनका काम खत्म हो जाता है। जब वे किसी को जिम्मेदारी लिए बिना लापरवाही से अपना कर्तव्य निभाते देखते हैं, तो सोचते हैं : “इससे मेरा कोई वास्ता नहीं, इससे मेरे रुतबे पर कोई आँच नहीं आती, इसलिए मुझे इसकी परवाह नहीं।” दिन-प्रतिदिन वे इसी तरह दिशाहीन जीते जाते हैं, कभी कोई वास्तविक काम नहीं करते, कभी कोई वास्तविक समस्या नहीं सुलझाते। यह किस तरह का व्यक्ति है? (ऐसा व्यक्ति, जो बिना विचारे या बिना मेहनत किए दिन में तीन बार भरपेट भोजन करता है।) वह नहीं जानता कि उसे प्रतिदिन क्या करना चाहिए, इसलिए लापरवाही से दिन काटता रहता हैं और नहीं जानता कि परमेश्वर उससे प्रसन्न है या उसका तिरस्कार करता है, या क्या वह उनकी जाँच कर रहा है। क्या वे जो चीजें करते हैं, वे सत्य के अनुरूप होती हैं? क्या वे अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कर रहे हैं? क्या वे वफादार हैं? क्या वे लापरवाही बरतते हैं? क्या वे जो कुछ करते हैं, उसमें अपनी बड़ाई करते हैं? क्या वे परमेश्वर की गवाही दे रहे हैं? वे इनसे में से कुछ नहीं जानते। जो व्यक्ति बिना विचारे या बिना मेहनत किए दिन में तीन बार भरपेट खाना खाता है, उसे आम तौर पर “मुफ्तखोर” कहा जाता है। वह कोई वास्तविक कार्य नहीं करता; वह इतना आलसी होता है कि अपने लिए प्लेट में खाना भी खुद नहीं ले सकता, और चाहता है कि लोग उनके लिए खाना ला दें। यह किस तरह का इंसान है? ऐसे लोग रोजाना जहाँ कहीं भटककर चले जाते हैं वहीं ठहर जाते हैं, जहाँ कहीं उम्दा खाना मिलता है वहीं खाते हैं, जहाँ कहीं सोने के लिए आरामदेह जगह मिलती है वहीँ चले जाते हैं, और जहाँ कहीं जी-हुजूरी करने वाले लोग मिल जाते हैं, वहीं पहुँच जाते हैं। ऐसे इंसान और कीड़े-मकोड़े में कोई अंतर नहीं है, है न? (बिल्कुल।) कोई अंतर नहीं है। इन इंसानी व्यवहारों के आधार पर लोगों को “कीड़े-मकोड़े” कहना क्या अनुचित है? (यह अनुचित नहीं है।) लोग लगातार ऐसी अधम प्रकृति में जीते हैं; थोड़ा-सा वास्तविक कार्य करने पर ही वे अपनी उपलब्धियों की मान्यता चाहते हैं। कुछ लोग कहते हैं : “मैं पहले ही पाँच-छह साल से अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ। मैं लगातार रोज अपना कर्तव्य निभाता हूँ और मेरे बाल पकने लगे हैं।” क्या यह बोलने का घिनौना ढंग नहीं है? तुम पौलुस की तरह कैसे बोल सकते हो? अपनी उपलब्धियों की मान्यता पाने के लिए प्रयास करने का क्या उद्देश्य है? क्या ऐसा नहीं है कि तुम परमेश्वर से पुरस्कार चाहते हो? जो लोग पुरस्कार पाना चाहते हैं, उन्हें हम आम तौर पर क्या कहते हैं? क्या हम उन्हें “भिखारी” नहीं कहते? क्या ऐसे लोग बेशर्म नहीं हैं? तुम एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभा रहे हो, और तुम्हारी मेहनत किसके लिए है? क्या वह परमेश्वर के लिए है? परमेश्वर इसे अहमियत नहीं देता। वास्तव में तुम अपने लिए ही कार्य कर रहे हो, इसलिए कर रहे हो कि उद्धार पा सको, तो फिर तुम कौन-सी मान्यता चाहते हो और कौन-सा पुरस्कार माँग रहे हो? क्या परमेश्वर ने तुम्हें कुछ कम अनुग्रह या थोड़े आशीष दिए हैं? क्या परमेश्वर ने तुम्हें यह जिंदगी इसलिए दी है कि तुम पुरस्कार माँग सको? क्या यह इसलिए है कि तुम भोजन की भीख माँगने के लिए परमेश्वर के आगे हाथ फैला सको? अभी तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो। यह तुम्हारा दायित्व और जिम्मेदारी है। परमेश्वर ने तुम्हें एक कर्तव्य सौंपा है जो उसका अनुग्रह है, इसलिए तुम्हें किसी भी चीज की भीख नहीं माँगनी चाहिए; अगर ऐसा करोगे तो परमेश्वर तुम्हारा तिरस्कार कर तुमसे घृणा करेगा। लोग हमेशा परमेश्वर से अनुग्रह और पुरस्कार की भीख चाहते हैं। वे किस तरह के लोग हैं? क्या वे हीन चरित्र के निर्लज्ज लोग नहीं हैं? क्या तुम सभी लोग ऐसी ही स्थिति में हो? (हाँ।) तुम्हें इस अवस्था को कैसे हल करना चाहिए? तुम्हें यह पहचानना चाहिए कि तुम्हारी कौन-सी कथनी-करनी इस अवस्था से जुड़ी है, और फिर जल्दी से परमेश्वर के समक्ष प्रार्थना में आकर उसकी जाँच स्वीकारनी चाहिए; अपनी कुरूपता और अपने प्रकृति-सार का गहन विश्लेषण करना चाहिए। जब तुम्हारे पास कुछ ज्ञान और समझ हो जाए, तो इन चीजों को अपने भाई-बहनों के पास ले जाओ और इनके बारे में संगति करो और उनके सामने खुद को खोलकर रख दो। जिस समय तुम इस तरह संगति करके खुद को खोलकर रखते हो, उसी समय तुम वास्तव में परमेश्वर की जाँच स्वीकार कर रहे होगे, और इस तरह तुम्हारी अवस्था धीरे-धीरे हल हो जाएगी। अपना भ्रष्ट स्वभाव हल करने के लिए तुम्हें पहले स्पष्ट रूप से यह जानना चाहिए कि तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव कितना दुष्ट और घृणित है; तभी तुम अपने दिल में अपना तिरस्कार कर खुद से घृणा कर सकते हो—अगर तुम खुद से घृणा नहीं करते, तो समस्या हल नहीं कर सकते। अगर तुम हमेशा यह सोचते हो कि भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीने में कुछ भी गलत नहीं है, कि दूसरे लोगों को इससे कोई दिक्कत नहीं होगी, और अगर तुम कुछ बुरा नहीं करते तो तुम ठीक हो—तो क्या यह बकवास नहीं है? क्या ऐसे लोग सत्य प्राप्त कर सकते हैं? क्या वे परमेश्वर का उद्धार पा सकते हैं? परमेश्वर लोगों की भ्रष्ट अवस्थाएँ उजागर क्यों करता है? तुम लोगों को परमेश्वर के वचनों के बारे में ईमानदारी से संगति करनी चाहिए, लोगों की भ्रष्ट अवस्थाओं और भ्रष्टता के प्रकाशनों को जोड़ना चाहिए, और फिर उनकी उन वचनों से तुलना करनी चाहिए जिनके द्वारा परमेश्वर यह उजागर करता है कि भ्रष्ट मनुष्य कीड़े-मकोड़े हैं—क्या तुम देख सकते हो कि यह समस्या बहुत गंभीर है? क्या तुम लोग इसे स्वीकारने में सक्षम हो? (हाँ।) जब परमेश्वर कहता है कि लोग कीड़े-मकोड़े हैं, तो वह मुख्य रूप से किसे संबोधित कर रहा होता है? वह मुख्य रूप से मनुष्य की किन अवस्थाओं और भ्रष्ट स्वभावों के बारे में बता रहा होता है? वह मनुष्य की भ्रष्ट प्रकृति के किस पक्ष को उजागर कर रहा होता है? सबसे पहले, जो व्यक्ति कीड़ा-मकौड़ा है वह बेकार है, उसमें शर्म की भावना नहीं है; परमेश्वर की नजर में उसका धेले भर का मूल्य नहीं हैं! मैं यह क्यों कहता हूँ कि उसका धेले भर का मूल्य नहीं हैं? परमेश्वर ने तुम्हें बनाया और तुम्हें जिंदगी दी, और तुम अपने कर्तव्य का न्यूनतम निर्वाह भी नहीं कर सकते; तुम मुफ्तखोर हो। परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से तुम किसी काम के नहीं हो और तुम्हारा जीवन निरर्थक है! क्या ऐसे लोग कीड़े-मकोड़े नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) तो अगर लोग कीड़े-मकोड़े नहीं बनना चाहते, तो उन्हें क्या करना चाहिए? सबसे पहले, तुम्हें अपनी जगह खोजनी चाहिए और जैसे भी हो सके, अपना कर्तव्य निभाने का तरीका खोजना चाहिए, ताकि तुम स्रष्टा के साथ सामान्य संबंध बना सको और परमेश्वर को हिसाब दे सको। इसके बाद, यह विचार करो कि तुम लापरवाह हुए बिना अपना कर्तव्य निभाने में वफादार कैसे हो सकते हो; तुम्हें इसमें अपना पूरा दिल लगाना चाहिए। स्रष्टा के साथ लापरवाही से पेश आने की कोशिश मत करो। परमेश्वर तुमसे जो कुछ भी कहे, उसे करो, सुनो और समर्पण करो। अब, क्या लोगों को कीड़े-मकोड़े कहने वाले परमेश्वर के वचनों के बारे में तुम्हारा कोई अन्य विचार या प्रतिरोध है? क्या तुम इसे खुद से जोड़कर देख सकते हो? कुछ लोग कहते हैं : “मैं कई वर्षों से अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ, इसलिए मैं शायद कीड़ा-मकोड़ा नहीं हूँ, है न?” क्या वे सही हैं? (नहीं।) वे गलत क्यों हैं? तुम कीड़े-मकोड़े हो या नहीं, इसका इस बात से कोई वास्ता नहीं कि तुम बाहरी तौर पर क्या करते हो। परमेश्वर यह देखना चाहता है कि तुम अपना कर्तव्य कैसे निभाते हो, अपना कर्तव्य निभाते समय तुम किस अवस्था में होते हो, अपना कर्तव्य निभाने के लिए तुम किस पर भरोसा करते हो, अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम नतीजे हासिल करते हो या नहीं, तुम अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करते हो या नहीं, और तुम अपना काम करने में सक्षम हो या नहीं। अगर तुम अपना कर्तव्य सत्य-सिद्धांतों के अनुसार निभाते हो, वफादारी हासिल करते हो, अपना कर्तव्य स्वीकार्य मापदंड तक कर पाते हो और परमेश्वर को संतुष्ट कर पाते हो, तो तुम “कीड़े-मकोड़े” के संबोधन से बच जाओगे।

परमेश्वर के कार्यों का अनुभव करते समय तुम्हें पहले उसके उन वचनों को स्वीकारना चाहिए, जो मनुष्य का प्रकृति-सार उजागर करते हैं। अगर तुम लोगों का भ्रष्ट स्वभाव और उनकी भ्रष्टता का सत्य स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम हो, और अगर तुम सचमुच खुद को जान लेते हो, तो क्या यह तुम्हारे लिए उद्धार पाने का मार्ग नहीं है? मनुष्य का न्याय कर उसे उजागर करने वाले परमेश्वर के वचनों के प्रति अपनाया जाने वाला तुम्हारा दृष्टिकोण महत्वपूर्ण है। सबसे पहले तुम्हें परमेश्वर के उन वचनों पर विचार करना चाहिए, जो मनुष्य की प्रकृति उजागर करते हैं; अगर तुम स्पष्ट रूप से देख पाते हो कि परमेश्वर के वचनों ने जो कुछ उजागर किया है, वह पूरी तरह से तुम्हारी वास्तविक दशा के अनुरूप है, तो तुम्हें लाभ होगा। कुछ लोग परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद उनकी तुलना हमेशा दूसरों से करते हैं; वे हमेशा यही सोचते हैं कि ये वचन दूसरों को लक्ष्य कर कहे गए हैं और परमेश्वर ने जो वचन कहे हैं उनका खुद उनसे कोई लेना-देना नहीं है, चाहे वे कितने भी कठोर क्यों न हों। यह तकलीफदेह है—ऐसा व्यक्ति सत्य नहीं स्वीकारता। तो फिर तुम्हें परमेश्वर के वचनों के प्रति कैसा दृष्टिकोण अपनाना चाहिए? जब भी तुम परमेश्वर का कोई वचन पढ़ो, तुम्हें उसकी तुलना खुद से करनी चाहिए, उसका अपनी अवस्था, अपने विचारों और दृष्टिकोणों, और अपने व्यवहार के साथ परस्पर-मिलान करना चाहिए। अगर तुम वाकई उनके समान हो और अपनी समस्याएँ हल करने के लिए सत्य खोजते हो, तो इस तरह से तुम्हें लाभ होगा। फिर तुम्हें स्वयं द्वारा समझे गए सत्य की वास्तविकता का उपयोग दूसरों के पास जाकर उनकी मदद करने के लिए करना चाहिए; सत्य समझने और समस्याएँ हल करने में उनकी मदद करो, परमेश्वर के सामने आकर उसके वचनों और सत्य को स्वीकारने में उनकी मदद करो। यह दूसरों के प्रति प्रेम दर्शाता है और तुम इससे लाभ उठा सकते हो; इससे तुम्हें और दूसरों दोनों को लाभ होता है, दोहरा लाभ होता है। इस तरह कार्य करना तुम्हें परमेश्वर के घर में एक उपयोगी व्यक्ति बनाता है; अगर तुम्हारे पास ऐसी सत्य-वास्तविकता होती है, तो तुम परमेश्वर के लिए गवाही देने में सक्षम रहते हो। तब क्या तुम परमेश्वर की स्वीकृति नहीं पा लेते? परमेश्वर के उन शेष वचनों को स्वीकारकर उनके प्रति समर्पित होने के लिए भी तुम्हें यही तरीके इस्तेमाल करने चाहिए, जिनसे परमेश्वर ने लोगों को उजागर किया है, और फिर गहन आत्म-विश्लेषण कर खुद को जानना चाहिए। क्या तुम लोग इस तरह अपनी तुलना करना जानते हो? (थोड़ा-सा जानते हैं।) अगर परमेश्वर ने कहा कि तुम शैतान हो, तुम दानव हो, तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है और तुम उसका विरोध करते हो, तो तुम इन बड़ी चीजों की खुद से तुलना करने में सक्षम हो सकते हो; लेकिन जब उसके वचन यह तय करने के लिए कि तुम किस तरह के व्यक्ति हो, कुछ अन्य दशाओं और उद्गारों के बारे में बात करते हैं, तो तुम उनकी खुद से तुलना नहीं कर पाते और उन्हें स्वीकार नहीं पाते—यह बहुत तकलीफदेह है। इसका क्या अर्थ है? (इसका अर्थ यह है कि हम खुद को वास्तव में नहीं जानते।) तुम वास्तव में खुद को नहीं जानते और तुम सत्य नहीं स्वीकारते, क्या यही बात नहीं है? (यही बात है।) लोगों को धीरे-धीरे वे शब्द समझ लेने चाहिए, जिनका इस्तेमाल परमेश्वर लोगों को उजागर करने के लिए करता है, जैसे “कीड़े-मकोड़े,” “गंदा दानव,” “धेले भर का मूल्य नहीं,” “कूड़ा-कचरा,” और “किसी काम के नहीं।” क्या लोगों को उजागर करने के पीछे परमेश्वर का उद्देश्य उनकी निंदा करना है? (नहीं।) तो फिर क्या उद्देश्य है? (लोग खुद को जानें और अपनी भ्रष्टता दूर करें।) बिल्कुल सही। इन चीजों को उजागर करने के पीछे परमेश्वर का उद्देश्य यह है कि तुम खुद को जानो, इस प्रक्रिया में सत्य प्राप्त करो और उसके इरादे समझो। अगर परमेश्वर तुम्हें किसी कीड़े-मकोड़े, किसी नीच व्यक्ति, किसी निकम्मे के रूप में उजागर करता है, तो तुम्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? तुम कह सकते हो, “परमेश्वर कहता है कि मैं कीड़ा-मकोड़ा हूँ, इसलिए मैं कीड़ा-मकोड़ा ही रहूँगा। परमेश्वर कहता है कि मैं निकम्मा हूँ, इसलिए मैं निकम्मा ही रहूँगा। परमेश्वर कहता है कि मेरा धेले भर का मूल्य नहीं, इसलिए मैं कूड़े का एक बेकार टुकड़ा ही रहूँगा। परमेश्वर कहता है कि मैं गंदा दानव हूँ, मैं शैतान हूँ, इसलिए मैं गंदा दानव ही रहूँगा, शैतान ही रहूँगा।” क्या सत्य प्राप्त करने का यही तरीका है? (नहीं।) इन वचनों को कहने में परमेश्वर का उद्देश्य, अपने न्याय, ताड़ना और उजागर करने में उसका अंतिम उद्देश्य यह है कि लोग उसके इरादे समझें, सत्य का अभ्यास करने के मार्ग पर कदम रखें, परमेश्वर को जानें और उसके प्रति समर्पण करें। अगर इस मार्ग पर चलते समय लोग परमेश्वर को हमेशा गलत समझते हैं, अगर वे अक्सर उसके न्याय और ताड़ना को पूरी तरह स्वीकार नहीं पाते और अगर उनकी विद्रोहशीलता बहुत ज्यादा है, तो फिर वे क्या कर सकते हैं? तुम्हें अक्सर परमेश्वर के सामने आना चाहिए, उसकी जाँच स्वीकारनी चाहिए, उसे बार-बार के परीक्षणों और शोधन द्वारा अपनी अगुआई करने देनी चाहिए, और तुम्हें स्वच्छ करने के लिए परिस्थितियाँ व्यवस्थित करने देनी चाहिए। लोगों की भ्रष्टता बहुत गहरी है, उन्हें स्वच्छ होने के लिए परमेश्वर की जरूरत है! अगर लोगों में ऐसा करने की इच्छा नहीं है, अगर वे हमेशा आरामतलबी में डूबे रहते हैं, अगर वे हमेशा भ्रमित रहते हैं और सत्य बिल्कुल नहीं खोजते, तो सत्य प्राप्त करने की उनकी आशा बहुत कम है। परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराइयों की जाँच करने की कई व्यावहारिक अभिव्यक्तियाँ हैं, जिन्हें लोगों के भ्रष्ट स्वभावों की उन अनेक चीजों से देखा जा सकता है, जिन्हें परमेश्वर उजागर करता है। सिर्फ परमेश्वर ही मनुष्य के प्रकृति-सार के भीतर की चीजें देख सकता है। इसलिए अगर तुम परमेश्वर के वचन नहीं सुनते, उस तरह से नहीं जीते जैसा परमेश्वर ने जीने के लिए कहा है और उसमें विश्वास नहीं करते या उस तरह से अपना कर्तव्य नहीं निभाते जैसा उसने निभाने के लिए कहा है, तो तुम्हारे पास परमेश्वर के इरादे पूरे करने के मार्ग पर चलने का कोई उपाय नहीं है; तुम्हारे पास परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग पर चलने का कोई उपाय नहीं है और तुम्हारे लिए उद्धार पाना बहुत कठिन है। क्या मैं जो कह रहा हूँ, वह सही है? (सही है।) क्या लोग अपने तरीकों से परमेश्वर में विश्वास करके उसे संतुष्ट कर सकते हैं? (नहीं।) लोगों के तरीके, कल्पनाएँ, और वे तरीके और साधन जिन पर वे पहुँचते हैं, सत्य के अनुरूप नहीं हैं, इसलिए परमेश्वर में इस तरह का विश्वास उसे कभी संतुष्ट नहीं कर सकता।

मैंने अभी-अभी उस चौथे संकेतक के बारे में बात की, जिससे यह आँका जा सकता है कि किसी व्यक्ति ने अपने जीवन-प्रवेश में संवृद्धि का अनुभव किया है या नहीं, जो यह है कि कोई व्यक्ति लोगों, घटनाओं और चीजों से सामना होने पर परमेश्वर के प्रति किस हद तक समर्पण करने में सक्षम है। वह क्या है जो निर्धारित करता है कि तुम किस हद तक परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम हो? अगर तुम परमेश्वर के वचनों को समझने-बूझने में असमर्थ हो, अगर तुम उन चीज़ों को बिल्कुल भी नहीं समझ सकते जो परमेश्वर कहता है और जिनकी वह अपेक्षा करता है, तो क्या तुम उसके प्रति समर्पण कर सकते हो? (नहीं।) यह बहुत कठिन है। तो अंतिम विश्लेषण में, समर्पण हासिल करने के लिए व्यक्ति को क्या करना चाहिए? (सत्य को समझना चाहिए।) अगर व्यक्ति सत्य को समझता है, तो क्या यह परमेश्वर के इरादे समझने के समान नहीं है? (बिल्कुल है।) परमेश्वर के इरादे समझने के बाद ही वह धीरे-धीरे परमेश्वर के प्रति समर्पण और उसके इरादों की पूर्ति कर सकता है।

किसी व्यक्ति ने अपने जीवन-प्रवेश में संवृद्धि का अनुभव किया है या नहीं, इसे आँकने का एक और महत्वपूर्ण संकेतक यह है कि तुम परमेश्वर के इरादे समझने और अपने सामने आने वाली चीजों के बीच सत्य हासिल करने में सक्षम हो या नहीं। अब, जब तुम लोगों में से अधिकांश किसी मामले या परिस्थिति का सामना करते हैं, तो उससे तुम कितना सत्य समझ पाते हो? क्या तुम उससे सत्य प्राप्त कर पाते हो? क्या तुम अधिकतर मामलों में सत्य प्राप्त करते हो, या अधिकांश समय सत्य प्राप्त नहीं कर पाते, हमेशा भ्रमित होकर कार्य करते हो और चीजें अधूरी छोड़ देते हो? (अधिकांश समय हम चीजें अधूरी छोड़ देते हैं।) यह तुम लोगों की वास्तविक स्थिति है : अधिकांश समय तुम सत्य प्राप्त नहीं कर पाते। यह क्या दिखाता है? यह दिखाता है कि तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है और जब तुम कई मामलों का सामना करते हो, तो तुम्हारे पास समस्याएँ हल करने के लिए आवश्यक आध्यात्मिक कद या सत्य-वास्तविकता नहीं होती। तुम चाहे परीक्षणों या प्रलोभनों का सामना करते हो या नहीं, तुम अपनी गवाही में दृढ़ नहीं रहते, इसलिए तुम्हारे पास सत्य-वास्तविकता नहीं है। अगर तुम अपनी ही समस्याएँ नहीं समझ सकते और नहीं जानते कि अपनी ही समस्याएँ हल करने के लिए सत्य कैसे खोजें, तो तुम पूरी तरह से विफल हो। अगर तुम दोबारा उसी तरह के परीक्षण का सामना करते हो, तो तुम अभी भी भ्रमित रहोगे और तुम उसका समाधान करने के लिए उसी तरीके का इस्तेमाल करोगे और उसके प्रति वही रवैया अपनाओगे। क्या यह संवृद्धि की कमी नहीं दिखाता? (दिखाता है।) तुम्हारा आध्यात्मिक कद अभी किस हद तक रुका हुआ है? जब तुम्हारे साथ चीजें घटित होती हैं तो तुम भ्रमित हो जाते हो, और फिर तुम परमेश्वर के वचन, भजन, उपदेश और संगतियाँ, और साथ ही जिन विभिन्न सिद्धांतों का तुम अमूमन इस्तेमाल करते हो उन्हें खोजते हो, या फिर संगति करने के लिए लोगों को ढूँढ़ते हो—क्या अभी तुम्हारा यही आध्यात्मिक कद है? (हाँ।) तो तुम्हारा आध्यात्मिक कद बड़ा है या छोटा? (छोटा।) क्या तुम ऐसे आध्यात्मिक कद के साथ स्वतंत्र रूप से जी सकते हो? क्या तुम स्वतंत्र रूप से अपनी समस्याएँ हल कर सकते हो? (नहीं।) अगर अभी यही तुम लोगों का आध्यात्मिक कद है, तो जैसे ही तुम कलीसियाई जीवन छोड़ोगे, अपने भाई-बहनों को छोड़ोगे, जिन परिस्थितियों और जगहों पर तुम अपना कर्तव्य निभाते हो उन्हें छोड़कर जाओगे, तो क्या तब भी तुम लोग परमेश्वर का अनुसरण कर पाओगे? क्या तुम वाकई अंत तक उसका अनुसरण कर पाओगे? अभी यह ज्ञात नहीं है। यह भी संभव है कि तीन या पाँच साल बाद भी तुम परमेश्वर का अनुसरण करते रहो, लेकिन तुम्हारा आचरण और व्यवहार, वे लक्ष्य जिनका तुम अनुसरण करते हो, तुम्हारे जीवन की दिशा, मामलों में तुम्हारे दृष्टिकोण, तुम्हारा दूसरों के साथ मेलजोल का ढंग और मामलों से निपटने का तुम्हारा रवैया, इनमें से कोई चीज नहीं बदली होगी, और तुम किसी गैर-विश्वासी से भिन्न नहीं होगे। एकमात्र फर्क यही होगा कि तुम बस खुद को विश्वासी कहते हो, तुम अभी भी नाममात्र के लिए परमेश्वर में विश्वास करते हो और खुद को उसका अनुयायी कहते हो। लेकिन सार में परमेश्वर अब तुम्हारे दिल में नहीं रहता, तुम अब अपने दिल में उसके मार्ग पर नहीं चलते, और तुम्हारा उससे कोई लेना-देना नहीं है। चूँकि तुम अक्सर परमेश्वर के सामने यह जाने बगैर ही आते हो कि प्रार्थना में उससे क्या कहना है या क्या खोजना है, और तुम्हारे दिल में उससे कहने के लिए कुछ नहीं होता, इसलिए तुम परमेश्वर से दूर होने लगते हो। जब तुम चीजों का सामना करते हो, तो परमेश्वर के वचन तुम्हारे मार्गदर्शक का कार्य नहीं करते, न ही तुम यह जानते हो कि सत्य कैसे खोजा जाए, और तुम अपनी ही कल्पनाओं के अनुसार कार्य करते हो। तो क्या इस प्रकार तुम पूरी तरह से अविश्वासी नहीं बन गए हो? इन शब्दों से मेरा क्या आशय है? सत्य प्राप्त करने से पहले जब व्यक्ति के साथ कुछ घटित होता है तो वह हमेशा भ्रमित हो जाता है, वह नहीं जानता कि सत्य को कैसे लागू किया जाए, और वह नहीं जानता कि परमेश्वर के इरादों के अनुरूप चीजों से कैसे निपटा जाए। तुम चाहे अच्छी परिस्थितियों में हो या खराब परिस्थितियों में, चाहे तुम्हें प्रलोभन दिया जा रहा हो या तुम्हारा परीक्षण किया जा रहा हो, तुम हमेशा किंकर्तव्यविमूढ़ रहते हो; तुम केवल निष्क्रिय रूप से इसका मुकाबला करते हो, और तुम चीजें हल करने के लिए सकारात्मक दृष्टिकोण या सत्य का उपयोग करने में असमर्थ रहते हो। तुम चाहे जिन भी परिस्थितियों का सामना करो, तुममें उनका मुकाबला करने की कतई क्षमता नहीं होती, और तुम समस्याएँ हल करने के लिए सत्य का उपयोग करने की पहल करने में असमर्थ रहते हो। यहाँ तक कि अगर उन्हें हल करने के लिए तुम्हें ठीक उसी समय सत्य खोजना हो और इस मामले के संबंध में परमेश्वर के इरादे पूरे करने का प्रयास करना हो, तो तुम ऐसा नहीं कर पाओगे। तो तुम्हारा कितना आचरण और जीवन परमेश्वर से संबंधित है, उस आचरण और जीवन से जो एक विश्वासी के पास होना चाहिए? अगर औपचारिकता और तुम्हारे दिल की व्यक्तिपरक इच्छाओं के संदर्भ में केवल एक प्रतिशत ही परमेश्वर से संबंधित है और निन्यानबे प्रतिशत सत्य से संबंधित नहीं है, तो तुम वैसे ही हो जैसा परमेश्वर ने कहा है : “तुम लोगों ने ऐसा बहुत कुछ किया है जो सत्य के अनुरूप नहीं है।” क्या यह डरावना और खतरनाक नहीं है? (बिल्कुल है।) यह बहुत डरावना और बहुत खतरनाक है। तो लोग किन समस्याओं का सामना करते हैं? अगर लोग उन परिस्थितियों को छोड़ देते हैं जो परमेश्वर ने व्यवस्थित की हैं, तो वे परमेश्वर द्वारा उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अवसर खो देते हैं, वे परमेश्वर के सुचिंतित विचार के अयोग्य हो जाते हैं, और ऐसे सबक छोड़ देते हैं जो परमेश्वर जान-बूझकर उन्हीं के लिए व्यवस्थित करता है। यही वह चीज है, जो परमेश्वर को सबसे ज्यादा दुखी करती है। परमेश्वर लोगों के लिए उचित परिस्थितियाँ व्यवस्थित करता है, ताकि वे सत्य का अनुसरण कर सकें। अगर लोग अपने कर्तव्य निभाना छोड़ देते हैं, सत्य का अनुसरण करना छोड़ देते हैं, परमेश्वर के वचन नहीं पढ़ते, और किसी भी समय और स्थान पर परमेश्वर से दूर जाने में सक्षम रहते हैं, तो क्या वे परमेश्वर के निष्ठावान अनुयायी हैं? बिल्कुल नहीं। तुम लोग शायद इसे स्पष्ट रूप से देख सकते हो—इस समय तुम लोगों का यही वास्तविक आध्यात्मिक कद है। जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे परमेश्वर के इरादे बिल्कुल नहीं समझते। अगर लोग उन परिस्थितियों को बिल्कुल नहीं समझते जो परमेश्वर उनके लिए व्यवस्थित करता है, न ही परमेश्वर से प्रार्थना या संगति करना जानते हैं, तो इन लोगों का आध्यात्मिक कद कैसा है? क्या ऐसा नहीं है कि इनका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा है, और ये नहीं जानते कि सत्य का अनुसरण कैसे करना है? अगर ये नहीं जानते कि सत्य का अनुसरण कैसे करना है, तो ये उसे प्राप्त कैसे कर सकते हैं? व्यक्तिपरक परिप्रेक्ष्य से, तुम यह सोच सकते हो कि तुमने सब-कुछ छोड़ दिया है और परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास सच्चा है, लेकिन वास्तव में तुम सत्य को नहीं स्वीकारते, और परमेश्वर ने तुम्हारा हृदय प्राप्त नहीं किया है—क्या यही बात नहीं है? (यही बात है।) परमेश्वर ने तुम्हारा हृदय प्राप्त नहीं किया है, जिसका अर्थ है कि तुम अभी कई मामलों में परमेश्वर का प्रतिरोध करने और उसे धोखा देने, और उससे दूर जाने में सक्षम हो, यहाँ तक कि तुम परमेश्वर का अस्तित्व भी नकार दोगे। तुम न सिर्फ परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर सकते, परमेश्वर के प्रति वफादार नहीं हो हो सकते और परमेश्वर का भय नहीं मान सकते, बल्कि तुम हर समय और स्थान पर परमेश्वर का प्रतिरोध करने और उसे धोखा देने में भी समक्ष हो। यह वह स्थिति है, जिसमें लोग सत्य प्राप्त करने से पहले होते हैं। तुम लोगों से यह सब कहने के पीछे मेरा क्या उद्देश्य है? मैं ये बातें क्यों कहता हूँ? क्या यह तुम लोगों को हतोत्साहित करने के लिए है? (नहीं, यह हमें अपना असली आध्यात्मिक कद जानने देने के लिए है।) ये शब्द तुम लोगों के लिए एक चेतावनी हैं और इनसे तुम्हें लाभ होगा। एक विश्वासी के रूप में अगर तुम सत्य प्राप्त नहीं करते, तो तुम कभी परमेश्वर को प्राप्त नहीं कर पाओगे और उसके पास तुम्हें प्राप्त करने की कोई सूरत नहीं होगी। इस प्रकार परमेश्वर में अपने विश्वास में सत्य का अनुसरण सबसे महत्वपूर्ण चीज है।

सत्य का अनुसरण करने के लिए हमें सत्य का अभ्यास करने पर ध्यान देना चाहिए, लेकिन सत्य का अभ्यास कहाँ से शुरू किया जाए? इसके लिए कोई विनियम नहीं हैं। तुम सत्य के जिस किसी पहलू को समझते हो, उसका अभ्यास करना चाहिए। अगर तुम कर्तव्य निभाना शुरू कर चुके हो, तो अपने कर्तव्य पालन में सत्य का अभ्यास करना शुरू कर दो। अपना कर्तव्य निभाते हुए सत्य का अभ्यास करने के लिए कई पहलू होते हैं, और तुम जिस किसी पहलू को समझते हो उसका अभ्यास करना चाहिए। उदाहरण के लिए, तुम ईमानदार इंसान बनकर, ईमानदारी से बात करके और अपना दिल खोलकर शुरुआत कर सकते हो। अगर ऐसी कोई बात है जिस पर अपने भाई-बहनों से चर्चा करते हुए तुमको शर्म आती है, तो तुम्हें परमेश्वर के आगे घुटनों के बल झुककर, प्रार्थना के माध्यम से उनसे अपनी बात कह देनी चाहिये। तुमको परमेश्वर से क्या कहना चाहिए? तुम परमेश्वर से अपने दिल की बात कहो। तुम उनसे खुश करने वाली खोखली बातें न करो या उन्हें धोखा देने की कोशिश न करो। ईमानदार होने से शुरुआत करो। अगर तुम दुर्बल रहे हो, तो कहो कि तुम दुर्बल रहे हो; अगर तुम दुष्ट रहे हो, तो कहो कि तुम दुष्ट रहे हो; अगर कपटी रहे हो, तो कहो कि तुम कपटी रहे हो; अगर तुम्हारे मन में गंदे और धोखेबाजी के विचार आए हैं, तो उनके बारे में परमेश्वर को बताओ। अगर तुम हमेशा पद के लिए प्रतिस्पर्धा करते रहते हो, तो उसे यह भी बताओ। परमेश्वर को तुम्हें अनुशासित करने दो; उसे तुम्हारे लिये परिवेश बनाने दो। परमेश्वर को अवसर दो कि वह तमाम मुश्किलें पार करने और सारी समस्याएँ दूर करने में तुम्हारी मदद करे। तुम्हें परमेश्वर के सामने अपना दिल खोल देना चाहिये; उसे बंद न रखो। अगर तुम परमेश्वर के लिये अपने दिल के दरवाजे बंद भी कर देते हो, तो भी वह तुम्हारी जाँच कर सकता है। लेकिन अगर तुम उसके सामने अपना दिल खोलते हो, तो तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो। तो तुम्हें कौन-सा मार्ग चुनना चाहिए? तुम्हें अपना दिल खोलकर परमेश्वर से अपने दिल की बात कहनी चाहिए। किसी भी तरीके से तुम्हें कोई झूठी बात नहीं कहनी चाहिए या खुद को छिपाना नहीं चाहिए। तुम्हें ईमानदार इंसान बनकर शुरुआत करनी चाहिए। बरसों से हम ईमानदार इंसान बनने संबंधी सत्य पर संगति करते आ रहे हैं, फिर भी अभी तक ऐसे अनेक लोग हैं जो इसके प्रति उदासीन बने हुए हैं जो सिर्फ अपने इरादों, इच्छाओं और लक्ष्यों के अनुरूप बोलते और काम करते हैं और जिन्होंने कभी भी पश्चात्ताप करने की नहीं सोची है। यह ईमानदार लोगों का रवैया नहीं है। परमेश्वर लोगों से ईमानदार होने की अपेक्षा क्यों करता है? क्या इसका उद्देश्य लोगों को समझना सरल बनाना है? बेशक नहीं। परमेश्वर लोगों को ईमानदार बनने को इसलिए कहता है क्योंकि वह ईमानदार लोगों से प्रेम करता है और उन्हें आशीष देता है। ईमानदार इंसान होने का अर्थ है अंतरात्मा और विवेक युक्त व्यक्ति होना। इसका अर्थ है भरोसेमंद होना, ऐसा व्यक्ति जिससे परमेश्वर प्रेम करता है, और जो सत्य का अभ्यास और परमेश्वर से प्रेम कर सके। ईमानदार इंसान होना सामान्य मानवता होने और सच्चे मनुष्य जैसा जीवन जीने की सबसे मूल अभिव्यक्ति है। अगर कोई व्यक्ति कभी भी ईमानदार नहीं रहा या उसने ईमानदार बनने की नहीं सोची, तो फिर उसके लिए सत्य हासिल करना तो बहुत दूर रहा, वह सत्य को समझ भी नहीं सकता है। अगर तुम मुझ पर विश्वास नहीं करते, तो जाओ और खुद परख लो या इसका खुद अनुभव कर लो। केवल ईमानदार बनकर ही तुम्हारे दिल के द्वार परमेश्वर के लिए खुल पाएँगे, तुम सत्य स्वीकार कर पाओगे, सत्य तुम्हारे हृदय में तुम्हारा जीवन बन सकेगा और तुम सत्य को समझ और हासिल कर सकोगे। अगर तुम्हारे दिल के दरवाजे हमेशा बंद रहते हैं, अगर तुम खुलकर नहीं बोलते हो या अपने दिल की बात किसी को नहीं बताते, इस कदर कि कोई भी तुम्हें समझ नहीं सकता तो फिर तुम बड़े ही घुन्ने हो और सबसे धोखेबाज लोगों में शामिल हो। अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो लेकिन खुद को परमेश्वर के सामने शुद्ध मन से नहीं खोल सकते, अगर तुम परमेश्वर से झूठ बोल सकते हो या उसे धोखा देने के लिए बढ़ा-चढ़ाकर बात कर सकते हो, अगर तुम परमेश्वर के सामने अपना दिल खोलने में असमर्थ हो, और अब भी घिसी-पिटी बातें करके अपनी मंशा छिपा सकते हो, तो फिर तुम अपना ही नुकसान कर रहे होगे और परमेश्वर तुम्हारी उपेक्षा करेगा और तुम पर कार्य नहीं करेगा। तुम न कोई सत्य समझ पाओगे, न कोई सत्य हासिल कर सकोगे। क्या तुम लोग अब सत्य का अनुसरण करने और इसे हासिल करने का महत्व समझ पा रहे हो? सत्य का अनुसरण करने के लिए तुम्हें पहला काम क्या करना चाहिए? तुम्हें ईमानदार इंसान बनना चाहिए। अगर लोग ईमानदार होने की कोशिश करें तभी वे जान सकते हैं कि वे कितनी बुरी तरह से भ्रष्ट हैं, उनमें वास्तव में इंसानियत बची है या नहीं, और क्या वे अपनी थाह ले सकते हैं कि नहीं या अपनी कमियाँ देख सकते हैं कि नहीं। ईमानदारी पर अमल करने पर ही वे जान सकते हैं कि वे कितने झूठ बोलते हैं और कपट और बेईमानी उनके अंदर कितनी गहराई में छिपे हैं। ईमानदारी पर अमल करने का अनुभव होने पर ही वे धीरे-धीरे अपनी भ्रष्टता की सच्चाई को जान सकते है और अपने प्रकृति-सार को पहचान सकते हैं और तभी उनका भ्रष्ट स्वभाव निरंतर शुद्ध हो सकेगा। अपने भ्रष्ट स्वभाव की निरंतर शुद्धि के दौरान ही लोग सत्य पा सकते हैं। इन वचनों का अनुभव करने के लिए समय लो। परमेश्वर उन लोगों को सिद्ध नहीं बनाता है जो धोखेबाज हैं। अगर तुम लोगों का हृदय ईमानदार नहीं है, अगर तुम ईमानदार व्यक्ति नहीं हो, तो तुम परमेश्वर द्वारा प्राप्त नहीं किए जाओगे। इसी तरह, तुम कभी भी सत्य को प्राप्त नहीं कर पाओगे, और परमेश्वर को पाने में भी असमर्थ रहोगे। परमेश्वर को न पाने का क्या अर्थ है? अगर तुम परमेश्वर को प्राप्त नहीं करते हो और तुमने सत्य को नहीं समझा है, तो तुम परमेश्वर को नहीं जानोगे और तुम्हारे पास परमेश्वर के अनुकूल होने का कोई रास्ता नहीं होगा, ऐसा हुआ तो तुम परमेश्वर के शत्रु हो। अगर तुम परमेश्वर से असंगत हो, तो परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर नहीं है; अगर परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर नहीं है, तो तुम्हें बचाया नहीं जा सकता। अगर तुम उद्धार प्राप्त करने की कोशिश नहीं करते, तो तुम परमेश्वर में विश्वास क्यों करते हो? अगर तुम उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते, तो तुम हमेशा परमेश्वर के कट्टर शत्रु बनकर रहोगे और तुम्हारा परिणाम तय हो चुका होगा। इस प्रकार, अगर लोग चाहते हैं कि उन्हें बचाया जाए, तो उन्हें ईमानदार बनना शुरू करना होगा। अंत में जिन्हें परमेश्वर प्राप्त कर लेता है, उन पर एक संकेत चिह्न लगाया जाता है। क्या तुम लोग जानते हो कि वह क्या है? बाइबल में, प्रकाशित-वाक्य में लिखा है : “उनके मुँह से कभी झूठ न निकला था, वे निर्दोष हैं” (प्रकाशितवाक्य 14:5)। कौन हैं “वे”? ये वे लोग हैं, जिन्हें परमेश्वर द्वारा बचाया, पूर्ण किया और प्राप्त किया जाता है। परमेश्वर उनका वर्णन कैसे करता है? उनके आचरण की विशेषताएँ और अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? उन पर कोई दोष नहीं है। वे झूठ नहीं बोलते। तुम सब शायद समझ-बूझ सकते हो कि झूठ न बोलने का क्या अर्थ है : इसका अर्थ ईमानदार होना है। “निर्दोष” का क्या मतलब है? इसका मतलब है कोई बुराई न करना। और कोई बुराई न करना किस नींव पर निर्मित है? बिना किसी संदेह के, यह परमेश्वर का भय मानने की नींव पर निर्मित है। अतः निर्दोष होने का अर्थ है परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना। निर्दोष व्यक्ति को परमेश्वर कैसे परिभाषित करता है? परमेश्वर की दृष्टि में केवल वे ही पूर्ण हैं, जो परमेश्वर का भय मानते हैं और बुराई से दूर रहते हैं; इस प्रकार, निर्दोष लोग वे हैं जो परमेश्वर का भय मानते हैं और बुराई से दूर रहते हैं, और केवल पूर्ण लोग ही निर्दोष हैं। यह बिल्कुल सही है। अगर कोई रोज झूठ बोलता है, तो क्या यह एक दोष नहीं है? अगर वह अपनी ही मर्जी के अनुसार बोलता और काम करता है तो क्या यह दोष नहीं है? अगर वह कार्य करते हुए हमेशा सम्मान पाना चाहता है, हमेशा परमेश्वर से पुरस्कार माँगता है तो क्या यह दोष नहीं है? अगर उसने कभी भी परमेश्वर का उत्कर्ष नहीं किया, हमेशा अपनी ही गवाही देता है, तो क्या यह दोष नहीं है? अगर वह अपना कर्तव्य लापरवाही से निभाता है, अवसरवादी ढंग से काम करता है, बुरे इरादे पालता है और सुस्त पड़ा रहता है, तो क्या यह दोष नहीं है? भ्रष्ट स्वभाव के ये सारे प्रकाशन दोष हैं। बात बस इतनी है कि सत्य को समझने से पहले लोग इसे जानते नहीं हैं। अभी तुम सब लोग जानते हो कि भ्रष्टता के ये सारे प्रकाशन दोष और गंदगी हैं; जब तुम सत्य को थोड़ा-सा समझ लेते हो, तभी तुममें इस प्रकार का विवेक आ सकता है। जो कुछ भी भ्रष्टता के प्रकाशनों से संबंधित है, वह सब झूठ से जुड़ा है; बाइबल के ये शब्द, “कभी झूठ न निकला,” यह चिंतन करने के लिए महत्वपूर्ण तत्व हैं कि तुममें दोष हैं या नहीं। इसलिए किसी व्यक्ति ने अपने जीवन में प्रगति का अनुभव किया है या नहीं, यह आँकने का एक और संकेतक यह है : तुम ईमानदार व्यक्ति बनने में प्रवेश कर चुके हो या नहीं, तुम जो कहते हो उसमें कितने झूठ पाए जा सकते हैं, और क्या तुम्हारे झूठ धीरे-धीरे कम हो रहे हैं या पहले जितने ही हैं। अगर तुम्हारे झूठ, जिनमें तुम्हारे भ्रामक और फरेबी शब्द भी शामिल हैं, धीरे-धीरे घट रहे हैं तो यह साबित करता है कि तुमने वास्तविकता में प्रवेश करना शुरू कर दिया है, और तुम्हारा जीवन प्रगति कर रहा है। क्या यह चीजों को देखने का व्यावहारिक तरीका नहीं है? (बिल्कुल है।) अगर तुम्हें लगता है कि तुम पहले ही प्रगति का अनुभव कर चुके हो, लेकिन तुम्हारे झूठ बिल्कुल भी कम नहीं हुए हैं और तुम मूल रूप से किसी गैर-विश्वासी जैसे ही हो, तो क्या यह सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने का सामान्य लक्षण है? (नहीं।) जब कोई व्यक्ति सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लेता है तो वह झूठ बहुत ही कम बोलेगा; वह मूल रूप से ईमानदार इंसान होगा। अगर तुम बहुत ज्यादा झूठ बोलते हो और तुम्हारे शब्दों में बहुत मिलावट होती है, तो इससे साबित हो जाता है कि तुम बिल्कुल नहीं बदले हो और तुम अभी भी एक ईमानदार इंसान नहीं हो। अगर तुम ईमानदार नहीं हो, तो फिर तुम्हारे पास जीवन प्रवेश भी नहीं होगा, फिर तुम कैसी प्रगति का अनुभव कर सकोगे? तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव अब भी मजबूती से कायम है, और तुम गैर-विश्वासी और शैतान हो। ईमानदार होना यह आँकने का संकेतक है कि किसी व्यक्ति ने अपने जीवन में प्रगति का अनुभव किया है या नहीं; लोगों को पता होना चाहिए कि कैसे इन चीजों को अपने पर परखा जाए और अपनी थाह ली जाए।

कुल मिलाकर, हमने इस बात के कितने संकेतकों के बारे में संगति की है कि किसी व्यक्ति ने अपने जीवन-प्रवेश में संवृद्धि का अनुभव किया है या नहीं? (छह संकेतकों के बारे में।) संक्षेप में बताओ कि वे छह चीजें कौन-सी हैं। (पहली चीज यह है कि व्यक्ति अपने दिल में यह विश्वास करता है या नहीं कि परमेश्वर में विश्वास का मार्ग चुनना सही, पूरी तरह से स्वाभाविक और न्यायसंगत है, क्या उसने पहले ही यह निर्धारित कर लिया है कि यह मार्ग जीवन में सही मार्ग है, और क्या दुविधा में पड़े बिना उसमें परमेश्वर का अनुसरण करने का दृढ़ संकल्प और इच्छा है। दूसरी चीज यह है कि उसने लोगों, दुनिया, इस समाज, जीवन-मार्ग, लक्ष्य और दिशा, और जीवन के अर्थ और मूल्य के बारे में अपने दृष्टिकोण बदले हैं या नहीं। तीसरी चीज यह है कि लोगों का परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध है या नहीं। चौथी चीज यह है कि वे अपने सामने आने वाले लोगों, घटनाओं, चीजों और परिस्थितियों के मामले में परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम हैं या नहीं, और हैं तो किस हद तक। पाँचवीं चीज यह है कि जब लोगों के साथ चीजें घटित होती हैं, तो वे परमेश्वर के इरादे समझ सकते हैं या नहीं और सत्य प्राप्त कर सकते हैं या नहीं। छठी चीज यह है कि उन्होंने ईमानदार व्यक्ति बनने में प्रवेश किया है या नहीं।) तुम लोगों को बार-बार अपनी जाँच करके यह देखना चाहिए कि तुमने इन चीजों में प्रवेश किया है या नहीं, और सभाओं में इन पर संगति करनी चाहिए। अगर तुम हमेशा इन चीजों पर ध्यान केंद्रित नहीं करते, तो तुम्हारा जीवन किसी भी सूरत में संवृद्धि नहीं कर पाएगा और तुम्हारा स्वभाव किसी भी सूरत में नहीं बदलेगा। लोग जिन भी चीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जहाँ भी प्रयास करते हैं, उसमें नतीजे प्राप्त करते हैं। अगर तुम हमेशा धर्मसिद्धांत पर ध्यान केंद्रित करते हो तो तुम केवल सिद्धांत ही प्राप्त करोगे; अगर तुम रुतबा और ताकत पाने पर ध्यान केंद्रित करते हो तो तुम्हारा रुतबा और ताकत मजबूत हो सकती है, लेकिन तुमने सत्य प्राप्त नहीं किया होगा, और तुम्हें हटा दिया जाएगा। तुम चाहे जो भी कर्तव्य करो, जीवन-प्रवेश महत्वपूर्ण चीज है। इस संबंध में तुम ढील नहीं बरत सकते, न ही लापरवाही बरत सकते हो।

31 जनवरी 2017

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परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में I सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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