परमेश्वर के वचनों ने मेरी आत्मा को जगा दिया
सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "अंत के दिनों में, इन दिनों में परमेश्वर के कार्य के वर्तमान चरण में, वह मनुष्य को पहले की तरह अनुग्रह एवं आशीषें प्रदान नहीं करता है, न ही वह लोगों को आगे बढ़ने के लिए फुसलाता है। कार्य के इस चरण के दौरान, परमेश्वर के कार्य के सभी पहलुओं से मनुष्य ने क्या देखा जिसका उसने अनुभव किया है? मनुष्य ने परमेश्वर के प्रेम को, परमेश्वर के न्याय और उसकी ताड़ना को देखा है। इस समयावधि के दौरान, परमेश्वर मनुष्य का भरण पोषण करता है, उसे सहारा देता है, प्रबुद्ध करता है और उसका मार्गदर्शन करता है, ताकि मनुष्य उसके बोले वचनों को और उसके द्वारा मनुष्य को प्रदत्त सत्य को जानने के लिए धीरे-धीरे उसके इरादों को जानने लगे। ... परमेश्वर का न्याय और उसकी ताड़ना लोगों को मानवजाति की भ्रष्टता और भ्रष्ट शैतानी सार को धीरे-धीरे जानने देते हैं। जो कुछ परमेश्वर प्रदान करता है, परमेश्वर का मनुष्य को प्रबुद्ध करना एवं उसका मार्गदर्शन, ये सब मानवजाति को सत्य के सार को और भी अधिक जानने देते हैं, और उत्तरोत्तर यह जानने देते हैं कि लोगों को किस चीज़ की आवश्यकता है, उन्हें कौन-सा मार्ग लेना चाहिए, वे किसके लिए जीते हैं, उनकी ज़िंदगी का मूल्य एवं अर्थ क्या है, और कैसे आगे के मार्ग पर चलना है। ... जब मनुष्य के हृदय को पुनर्जीवित किया जाता है, तब मनुष्य एक पतित एवं भ्रष्ट स्वभाव के साथऔर जीने की इच्छा नहीं करता, बल्कि इसके बजाय परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सत्य का अनुसरण करने की इच्छा करता है। जब मनुष्य के हृदय को जागृत कर दिया जाता है, तो मनुष्य खुद को शैतान से पूरी तरह अलग करने में सक्षम हो जाता है। अब उसे शैतान के द्वारा हानि नहीं पहुँचेगी, उसके द्वारा वो अब और नियंत्रित या मूर्ख नहीं बनेगा। इसके बजाय, मनुष्य परमेश्वर के हृदय को संतुष्ट करने के लिए, परमेश्वर के कार्य और उसके वचनों में सक्रियात्मक रूप से सहयोग कर सकता है, इस प्रकार परमेश्वर के भय और बुराई को त्यागने को प्राप्त करता है। यह परमेश्वर के कार्य का मूल उद्देश्य है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। मैंने परमेश्वर के वचनों के इस अंश को अनुभव किया है।
जून 2016 में, मुझे अंग्रेज़ी भक्ति-पाठ की टीम में एक काम सौंपा गया। मैं बहुत खुश थी, क्योंकि मुझे आखिरकार अपने अंग्रेज़ी के हुनर को काम में लाने का मौक़ा मिल रहा था। इसमें मैं अपना पूरा हुनर दिखा सकती थी! मैं घर जाकर जल्द से जल्द अपने भाई-बहनों को ये अच्छी खबर देना चाहती थी। मैं तो मन ही मन इस खबर को सुनने के बाद उनके चेहरों पर उभरने वाले ईर्ष्या के भावों को भी महसूस कर खुश हो रही थी।
जब मैंने अपने काम की शुरुआत की, तो मैंने देखा कि दूसरे भाई-बहन बहुत अच्छी तरह से अंग्रेज़ी पढ़ते है और उनका उच्चारण भी बहुत अच्छा है। वो अक्सर एक-दूसरे से अंग्रेज़ी में बातें किया करते थे, यहां तक कि सभाओं में और कर्तव्य निभाते हुए भी वो सारी बातचीत अंग्रेज़ी में ही करते थे। मेरी अंग्रेज़ी उनके जितनी अच्छी नहीं थी। मुझे ईर्ष्या के साथ-साथ चिंता भी हो रही थी, मगर मैंने खुद से कहा : अगर मैंने मेहनत से पढ़ाई की तो एक न एक दिन अंग्रेज़ी में उनकी तरह या उनसे भी बेहतर बन जाऊँगी! इसलिए मैं अंग्रेज़ी की पढ़ाई करने और शब्दकोष याद करने के लिए सुबह जल्दी जग जाती और रात को देर तक पढ़ती रहती। मैं हर पल अपने काम के प्रदर्शन को बेहतर बनाने के बारे में सोचती रहती। जब भी किसी को अपने काम का अनुभव साझा करते हुए सुनती, तो मैं उन्हें लिखने बैठ जाती थी। देखते ही देखते कई महीने बीत गये, मगर मेरी प्रगति अब भी बहुत धीमी थी और पूरी टीम में सबसे बेकार प्रदर्शन मेरा ही था। ये जानते हुए कि मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा रही हूँ और मुझे अक्सर अपने से छोटे भाई-बहनों से सलाह और मदद लेनी पड़ती है, साथ ही उस दौरान टीम के अगुआ भी मुझे छोटे-मोटे और साधारण काम ही देते हैं, मैं खुद को टीम के लिए अनावश्यक समझने लगी। मैं बहुत उदास और परेशान रहने लगी। बाद में, हमारी टीम में एक नयी बहन काम करने आयी। वो हमारी टीम के कामों के बारे में नहीं जानती थी, इसलिए मुझे उसकी मदद करने को कहा गया। मैं मन ही मन इस बात से खुश हुई कि अब मैं हमारी टीम की सबसे कम योग्य सदस्य नहीं थी। मगर हैरानी की बात थी कि ये बहन बहुत बुद्धिमान निकली और सब कुछ जल्दी सीख जाती थी, इसलिए उसकी अंग्रेज़ी तेज़ी से बेहतर हो गयी। दो-तीन महीनों में ही वो मुझसे बेहतर प्रदर्शन करने लगी। इस बात से मैं घबरा गयी: "अगर ऐसा ही चलता रहा तो मैं दोबारा हमारी टीम की सबसे बेकार सदस्य बन जाऊँगी। मैं मानती हूँ कि मैं हमारी टीम में पहले से काम कर रहे सदस्यों जितना अच्छा प्रदर्शन नहीं कर रही हूँ। अब इस नये सदस्य के आने पर मुझे इसकी मदद करने को कहा गया है, मगर अब ये मुझसे भी बेहतर हो गयी है। ये काफ़ी अपमानजनक है!" मैं अपना हर दिन रुतबा और सम्मान पाने की होड़ करते हुए जी रही थी जिसने मुझे परेशान कर रखा था। मैं हर दिन दयनीय स्थिति में बिता रही थी। मुझे वो दिन याद आने लगे जब मैं अपने शहर में ईमानदारी से कर्तव्य निभाया करती थी। हर चर्चा और योजना निर्माण की अगुआई मैं ही किया करती थी। मेरे सभी भाई-बहन मेरे विचारों से सहमत होते थे और कलीसिया के अगुआ भी मुझे काफ़ी पसंद करते थे। मैं काफ़ी महत्वपूर्ण सदस्य हुआ करती थी, मगर अब मैं कितनी नीचे गिर गई हूँ। मैं जितना इस बारे में सोचती, उतना ही मुझे लगता कि मेरे साथ अन्याय हुआ है। एक बार, मैं बाथरूम में छुपकर बहुत रोई। उस रात मैं सो नहीं पा रही थी, सारी रात बिस्तर पर करबटें बदलती रही। मेरे मन में बहुत कुछ चल रहा था, "मैं पहले दिन से ही हमारी टीम की सबसे बेकार सदस्य रही हूँ। दूसरे भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचते होंगे? मैं यहाँ नहीं रहना चाहती।" मगर फिर मुझे याद आया कि मैंने परमेश्वर के सामने ये शपथ ली है कि जब तक मैं ज़िंदा हूँ, उसके प्यार का मूल्य चुकाने के लिए खुद को खापऊँगी। अपने कर्तव्य से मुँह मोड़ना क्या अपनी शपथ से मुँह मोड़ना नहीं होगा? क्या ये परमेश्वर के साथ धोखेबाजी नहीं होगी? मैं बहुत दुखी थी, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, मैंने कहा: "प्रिय परमेश्वर, मैं नहीं जानती कि इस परिस्थिति में मुझे क्या करना चाहिए या इससे क्या सीख लेनी चाहिए। कृपा करके मेरा मार्गदर्शन करो और मुझे प्रबुद्ध बनाओ।"
उसके बाद, मैंने अपने फ़ोन पर परमेश्वर के वचनों का ये अंश पढ़ा: "तुम लोगों की खोज में, तुम्हारी बहुत सी व्यक्तिगत अवधारणाएँ, आशाएँ और भविष्य होते हैं। वर्तमान कार्य तुम लोगों की हैसियत पाने की अभिलाषा और तुम्हारी अनावश्यक अभिलाषाओं से निपटने के लिए है। आशाएँ, हैसियत और अवधारणाएँ सभी शैतानी स्वभाव के विशिष्ट प्रतिनिधित्व हैं। लोगों के हृदय में इन चीज़ों के होने का कारण पूरी तरह से यह है कि शैतान का विष हमेशा लोगों के विचारों को दूषित कर रहा है, और लोग शैतान के इन प्रलोभनों से पीछा छुड़ाने में हमेशा असमर्थ रहे हैं। वे पाप के बीच रह रहे हैं, मगर इसे पाप नहीं मानते, और अभी भी सोचते हैं: 'हम परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, इसलिए उसे हमें आशीष प्रदान करना चाहिए और हमारे लिए सब कुछ सही ढंग से व्यवस्थित करना चाहिए। हम परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, इसलिए हमें दूसरों से श्रेष्ठतर होना चाहिए, और हमारे पास दूसरों की तुलना में बेहतर हैसियत और बेहतर भविष्य होना चाहिए। चूँकि हम परमेश्वर पर विश्वास करते हैं, इसलिए उसे हमें असीम आशीष देनी चाहिए। अन्यथा, इसे परमेश्वर पर विश्वास करना नहीं कहा जाएगा।' बहुत सालों से, जिन विचारों पर लोगों ने अपने अस्तित्व के लिए भरोसा रखा था, वे उनके हृदय को इस स्थिति तक दूषित कर रहे हैं कि वे विश्वासघाती, डरपोक और नीच हो गए हैं। उनमें न केवल इच्छा-शक्ति और संकल्प का अभाव है, बल्कि वे लालची, अभिमानी और स्वेच्छाचारी भी बन गए हैं। उनमें ऐसे किसी भी संकल्प का सर्वथा अभाव है जो स्वयं को ऊँचा उठाता हो, बल्कि, उनमें इन अंधेरे प्रभावों की बाध्यताओं से पीछा छुड़ाने की लेश-मात्र भी हिम्मत नहीं है। लोगों के विचार और जीवन इतने सड़े हुए हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करने के बारे में उनके दृष्टिकोण अभी भी बेहद वीभत्स हैं। यहाँ तक कि जब लोग परमेश्वर में विश्वास के बारे में अपना दृष्टिकोण बताते हैं तो इसे सुनना मात्र ही असहनीय होता है। सभी लोग कायर, अक्षम, नीच और दुर्बल हैं। उन्हें अंधेरे की शक्तियों के प्रति क्रोध नहीं आता, उनके अंदर प्रकाश और सत्य के लिए प्रेम पैदा नहीं होता; बल्कि, वे उन्हें बाहर निकालने का पूरा प्रयास करते हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विषमता होने के अनिच्छुक क्यों हो?)। परमेश्वर के वचनों में मेरी स्थिति का बिल्कुल सटीक वर्णन किया गया था! क्या मेरा इतनी पीड़ा में होने, अपने कर्तव्यों से मुँह मोड़ने और अपने कर्तव्यों को त्यागकर परमेश्वर को धोखा देने का कारण मेरी रुतबा पाने की इच्छा पूरी न होना नहीं था? जब से मैं टीम में शामिल हुई हूँ, अपने प्रदर्शन को सुधारने के लिए मेरा अंग्रेज़ी पर इतनी मेहनत करने का कारण यही था कि मैं खुद को साबित करके टीम में अपनी अलग पहचान बनाना चाहती थी। नयी बहन को इतनी जल्दी प्रगति करते देखकर मुझे चिंता होने लगी कि वो मुझसे बेहतर बन जायेगी और मैं फिर से हमारी टीम की सबसे बेकार सदस्य बनकर रह जाऊँगी। मैं अपना पूरा दिन रुतबे के बारे में सोचते हुए और दुख में बिताने लगी। परमेश्वर के इन वचनों को पढ़कर कि "जिन विचारों पर लोगों ने अपने अस्तित्व के लिए भरोसा रखा था, वे उनके हृदयों को दूषित कर रहे हैं," मैंने खुद से पूछा : "मैं रुतबे की भूखी क्यों हूँ? मेरे कौन से विचार मुझे इतना दुख पहुँचा रहे हैं?" परमेश्वर के वचनों पर विचार करने के बाद ही मैंने जाना कि मैं इन शैतानी उसूलों के अनुसार जीवन जी रही थी, जैसे कि "भीड़ से ऊपर उठो और अपने पूर्वजों का नाम करो," "आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है," और "सारे ब्रह्मांड का सर्वोच्च शासक बस मैं ही हूँ।" बचपन से ही हमारे अध्यापक हमें बेहतरीन प्रदर्शन करना और सर्वश्रेष्ठ बनना सिखाते आये हैं। मैं हमेशा प्रतिष्ठित और मशहूर लोगों को बड़ा समझती थी और उनसे ईर्ष्या करती थी, मैं उन्हीं की तरह बनना चाहती थी। मैं हर जगह यही चाहती थी कि लोग हमेशा मेरा सम्मान करें, और अगर वो मेरा सम्मान करते हैं, मुझे मानते हैं, मेरी प्रशंसा करते हैं, फिर तो और भी अच्छी बात है। मुझे लगा कि एक आनंदमय और सार्थक जीवन जीने का यही एकमात्र तरीका है। जब मुझे दूसरों का सम्मान और प्रशंसा नहीं मिली, तो मेरा जीवन दुखी बन गया और मैं निराश महसूस करने लगी। परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्यों को निभाते हुए भी मैं इन चीज़ों की चाह रखती थी। मगर जब मुझे ज़्यादा प्रगति नहीं दिखी या दूसरों की प्रशंसा या सम्मान नहीं मिला, तो मैं बहुत निराश, दुखी और उदास महसूस करने लगी। मैंने तो अपने कर्तव्यों को त्यागकर परमेश्वर को धोखा देने के बारे में भी सोचा। प्रतिष्ठता पाने की मेरी इच्छा ने मुझे पूरी तरह से खत्म कर दिया। मेरी पूरी दुनिया प्रतिष्ठा पाने के आसपास इस हद तक घूम रही थी कि मैं उसके लिए कोई भी पीड़ा सहने या कोई भी जंग लड़ने को तैयार थी। तभी मुझे एहसास हुआ कि मुझे गलत चीज़ की भूख है। मैं सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर के प्यार का मूल्य चुकाने के लिए अपने कर्तव्य नहीं निभा रही थी, बल्कि मैं तो प्रतिष्ठा और रुतबा पाने की अपनी इच्छा को पूरा करने के लिए ऐसा कर रही थी।
परमेश्वर के वचनों के प्रकाशनों ने मुझे दिखाया कि कैसे मेरी खोज गलत थी। फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का ये अंश पढ़ा: "अपने कर्तव्य को निभाने वालो, चाहे तुम सत्य को कितनी भी गहराई से क्यों न समझो, यदि तुम सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करना चाहते हो, तो अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि तुम जो भी काम करो, उसमें परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचो, अपनी स्वार्थी इच्छाओं, व्यक्तिगत अभिलाषाओं, इरादों, सम्मान और हैसियत को त्याग दो। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—तुम्हें कम से कम यह तो करना ही चाहिए। ... इसके साथ ही, यदि तुम अपनी ज़िम्मेदारियों को निभा सको, अपने दायित्वों और कर्तव्यों को पूरा कर सको, अपनी स्वार्थी इच्छाओं, व्यक्तिगत अभिलाषाओं और इरादों को त्याग सको, परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रख सको, और परमेश्वर तथा उसके घर के हितों को सर्वोपरि रख सको, तो इस तरह से कुछ समय अनुभव करने के बाद, तुम पाओगे कि यह जीने का एक अच्छा तरीका है। नीच या निकम्मा व्यक्ति बने बिना, यह सरलता और नेकी से जीना है, न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है, एक संकुचित मन वाले या ओछे व्यक्ति की तरह नहीं। तुम पाओगे कि किसी व्यक्ति को ऐसे ही जीना और काम करना चाहिए। धीरे-धीरे, अपने हितों को पूरा करने की तुम्हारी इच्छा घटती चली जाएगी"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर, मुझे एहसास हुआ कि दूसरों का सम्मान पाना ज़रूरी नहीं है। परमेश्वर की प्रभुता और योजनाओं के प्रति समर्पित होना, परमेश्वर के घर के काम को आगे बढ़ाना, सत्य का अभ्यास करना और अपने कर्तव्यों को निभाना—यही सबसे ज़रूरी चीज़ें हैं, और इसे ही खुले तौर पर और ईमानदारी से जीवन जीना कहा जाता है। परमेश्वर की इच्छा को जानकर मुझे काफ़ी राहत मिली। मैं अब भी हमारी टीम की सबसे बेकार प्रदर्शन करने वाली सदस्य थी, मगर अब मुझे इस बात का कोई दुख नहीं था। अब जब भी किसी बात से मेरी प्रतिष्ठा और रुतबे को ठेस पहुँचती, तो मैं पहले की तरह कमज़ोर नहीं पड़ती थी। मैं पूरे मन से परमेश्वर से प्रार्थना करके अपनी गलत मंशाओं को त्याग सकती थी और अच्छे से अपना कर्तव्य निभा पा रही थी। मगर शैतान का ज़हर मेरे भीतर गहराई तक जड़ें जमा चुका था और मेरी प्रकृति बन गया था। इसे जड़ से मिटाने के लिए केवल इसकी समझ होना ही काफ़ी नहीं था। शुद्ध होने और बदलने के लिए मुझे और भी ज़्यादा न्याय और शुद्धिकरण का अनुभव करने की ज़रूरत थी।
हमारी टीम के अगुआ ने बहन लियू और झांग के बेहतरीन पेशेवर कौशल के कारण उन्हें हमारे काम की निगरानी का जिम्मा सौंप दिया। मुझे उनसे ईर्ष्या और द्वेष महसूस होने लगा। मुझे लगा कि दूसरे भाई-बहनों को सिखाने की प्रतिष्ठा कितनी अधिक होगी। मैं उनके जैसी क्यों नहीं बन सकती? मैं सिर्फ़ ऐसे छोटे-मोटे काम कर पा रही थी जिनके लिए किसी हुनर की ज़रूरत नहीं थी। बाद में, मुझे हमारी टीम में सिंचन का काम सौंपने की सिफ़ारिश की गई जिसमें मुझे दूसरों को उनकी समस्याएँ सुलझाने में मदद करनी थी। मगर मैं इसे लेकर बिलकुल भी उत्साहित नहीं थी, बल्कि मैंने इस काम को नीची नजर से देखा। मुझे लगा कि ये काम केवल अयोग्य सदस्यों को ही सौंपा जाता है। अगर हमारी टीम ने अच्छा काम किया तो सभी सदस्य इसका श्रेय उन दो बहनों को ही देंगे। मुझे परदे के पीछे काम करते हुए और दूसरों की समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य पर सहभागिता करते हुए कौन देखेगा? अपनी गलत सोच और पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त नहीं कर पाने के कारण, मैं अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए उत्साहित नहीं थी, कभी-कभी तो मैं सोचती: "मेरी काबिलियत दूसरों जितनी क्यों नहीं है? मैं किस काम में अच्छी हूँ? मुझे अपना हुनर दिखाने का मौका कब मिलेगा?" धीरे-धीरे मैं पहले से ज़्यादा प्रतिरोधी और व्यथित महसूस करने लगी। जल्दी ही, मेरी हालत ऐसी हो गयी कि जब भी बहन झांग मुझे दरवाज़ा बंद करने या खिड़की खोलने के लिए भी कहती, तो मुझे गुस्सा आने लगता था। मैंने सोचती थी : "तुम्हें विश्वासी बने अभी समय ही कितना हुआ है? तुम्हारे पास केवल दूसरों से थोड़े बेहतर हुनर के अलावा और कुछ भी नहीं है। क्या इससे तुम्हें मुझे आदेश देने का हक़ मिल गया है?" आखिर में, मैं बहन झांग की हर बात को नज़रंदाज़ करने लगी। कभी-कभी जब वो मुझसे कोई सवाल करती, तो मैं उन्हें अनसुना करने का नाटक करने लगती थी। अगर मैं जवाब भी देती, तो लहजा ठीक नहीं होता था। जब मैं देखती कि मेरे व्यवहार के कारण वो बेबस महसूस कर रही है, तो बेशक मुझे बुरा लगता, मगर रुतबे और प्रतिष्ठा की बात आते ही, मैं अपनी भावनाओं को ज़्यादा महत्व देती थी।
एक सुबह मैंने बहन लियू और बहन झांग को काम के सिलसिले में बाहर जाते देखा। वो अपने कपड़ों में बेहद ऊँचे दर्जे की और फैशनपरस्त दिख रही थीं, मुझे बेचैनी और ईर्ष्या होने लगी। मैंने मन ही मन सोचा, "तुम दोनों को सबकी प्रशंसा मिल रही है और मैं यहाँ परदे के पीछे बिना किसी प्रशंसा के कड़ी मेहनत किये जा रही हूँ। मेरी मेहनत कभी किसी को नहीं दिखेगी..." उस रात जब वो बहनें वापस आयीं, तो सभी उनका स्वागत करने के लिए दौड़ पड़े, और कुछ ने तो उनके लिए खाना भी तैयार कर रखा था। पहले तो मैं भी उनका स्वागत करने के लिए जाना चाहती थी और उनके काम के बारे में पूछना चाहती थी, मगर उनके प्रति दूसरों का व्यवहार देखकर मुझे फिर उनसे ईर्ष्या होने लगी, मैंने सोचा: "तुम दोनों को फिर से सबकी प्रशंसा मिल रही है और मैं अब पहले से भी ज़्यादा बेकार दिख रही हूँ।" इस सोच के साथ, मैं अपने कमरे में वापस चली गयी। मैं खुद को संभाल नहीं पा रही थी, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। मैंने कहा: "प्रिय परमेश्वर, रुतबा पाने की मेरी इच्छा फिर से प्रबल हो गयी है। मैं प्रतिष्ठा और रुतबा पाने की अपनी इच्छा को त्यागना चाहती हूँ मगर ऐसा नहीं कर पा रही। कृपा करके मुझे बताओ कि मैं रुतबे और प्रतिष्ठा की इन जंजीरों से खुद को कैसे मुक्त करूं?"
अगले दिन, एक बहन ने मेरी बुरी हालत देखी, तो मुझे परमेश्वर के वचनों का ये अंश पढ़कर सुनाया: "जैसे ही पद, प्रतिष्ठा या रुतबे की बात आती है, हर किसी का दिल प्रत्याशा में उछलने लगता है, तुममें से हर कोई हमेशा दूसरों से अलग दिखना, मशहूर होना, और अपनी पहचान बनाना चाहता है। हर कोई झुकने को अनिच्छुक रहता है, इसके बजाय हमेशा विरोध करना चाहता है—इसके बावजूद कि विरोध करना शर्मनाक है और परमेश्वर के घर में इसकी अनुमति नहीं है। हालांकि, वाद-विवाद के बिना, तुम अब भी संतुष्ट नहीं होते हो। जब तुम किसी को दूसरों से विशिष्ट देखते हो, तो तुम्हें ईर्ष्या और नफ़रत महसूस होती है, तुम्हें लगता है कि यह अनुचित है। 'मैं दूसरों से विशिष्ट क्यों नहीं हो सकता? हमेशा वही व्यक्ति दूसरों से अलग क्यों दिखता है, और मेरी बारी कभी क्यों नहीं आती है?' फिर तुम्हें कुछ नाराज़गी महसूस होती है। तुम इसे दबाने की कोशिश करते हो, लेकिन तुम ऐसा नहीं कर पाते, तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते हो। और कुछ समय के लिए बेहतर महसूस करते हो, लेकिन जब एक बार फिर तुम्हारा सामना इसी तरह के मामले से होता है, तो तुम इससे जीत नहीं पाते हो। क्या यह एक अपरिपक्व कद नहीं दिखाता है? क्या किसी व्यक्ति का इस तरह की स्थिति में गिर जाना एक फंदा नहीं है? ये शैतान की भ्रष्ट प्रकृति के बंधन हैं जो इंसानों को बाँध देते हैं"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों ने मुझे दिखाया कि अपने अनुसरण में, मैं बिल्कुल भी नहीं बदली। मुझे आज भी सम्मान और रुतबा पाने और सबसे श्रेष्ठ बनने की चाहत थी। इन चीज़ों को पाने के जूनून में, मैं हमेशा दूसरों से अलग दिखना और उनका ध्यान खींचना चाहती थी, वही कर्तव्य निभाना चाहती थी जो महत्वपूर्ण थे या जिनमें हुनर दिखाने की ज़रूरत थी। मुझे लगा कि दूसरों का सम्मान या प्रशंसा और परमेश्वर की स्वीकृति और आशीष पाने का यही एकमात्र तरीका है। मैं हर अनावश्यक काम को नज़रंदाज़ करती थी, मैं तो अपने सिंचन कार्य को भी हेय दृष्टि से देखती थी। उन दो बहनों को महत्वपूर्ण काम सौंपे जाते और मुझे ऐसे छोटे-मोटे काम जिन पर कभी किसी का ध्यान नहीं जाएगा, इससे मेरे अंदर ईर्ष्या और द्वेष पैदा होने लगा, यहाँ तक कि मुझे बेहतर काबिलियत या हुनर नहीं देने के कारण मैं परमेश्वर को दोषी ठहराते हुए शिकायतें करने लगी। मैं कितनी नासमझ थी! रुतबा पाने की मेरी इच्छा पूरी न होने के कारण मैंने अपने कर्तव्य में कड़ी मेहनत करनी बंद कर दी, यहां तक कि अपनी बहनों पर गुस्सा करके अपने असंतोष की खीझ उतारने लगी। बेशक इससे मेरी बहनों के दिलों को ठेस पहुँचती थी और उन्हें तकलीफ़ होती थी। मैं इस बारे में जितना सोचती, खुद को उतना ही दोषी महसूस करती। मुझे एहसास हुआ कि मैं कितनी स्वार्थी बन गयी थी, मुझमें इंसानियत का नामोनिशान नहीं था।
फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का ये अंश पढ़ा: "लोग हमेशा प्रसिद्धि पाना चाहते हैं या मशहूर हस्तियाँ बनना चाहते हैं; वे बहुत प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा पाना चाहते हैं, और अपने पूर्वजों का सम्मान बढ़ाना चाहते हैं। क्या ये सकारात्मक चीज़ें हैं? ये सकारात्मक चीज़ों के अनुरूप बिलकुल भी नहीं हैं; यही नहीं, ये मनुष्यजाति की नियति पर परमेश्वर का प्रभुत्व रखने वाली व्यवस्था के विरुद्ध हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? परमेश्वर किस प्रकार का व्यक्ति चाहता है? क्या वह ऐसा व्यक्ति चाहता है, जो महान हो, मशहूर हो, अभिजात हो, या संसार को हिला देने वाला हो? (नहीं।) तो फिर परमेश्वर को किस प्रकार का व्यक्ति चाहिए? उसे ऐसा व्यक्ति चाहिए, जिसके पैर दृढ़ता से ज़मीन पर रखे हों, जो परमेश्वर का एक योग्य प्राणी बनना चाहता हो, जो एक प्राणी का कर्तव्य निभा सकता हो, और जो इंसान बना रह सकता हो"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'सत्य की खोज करके और परमेश्वर पर निर्भर रहकर ही भ्रष्ट स्वभावों से मुक्त हुआ जा सकता है')। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके, मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर को नेक लोग या बेजोड़ हुनर वाले लोग नहीं चाहिए, बल्कि ज़मीन से जुड़े हुए ऐसे लोग चाहिए जो परमेश्वर के सृजित प्राणियों के तौर पर ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभा सकें। परमेश्वर को मेरी बेहतरीन काबिलियत या बेजोड़ पेशेवर कौशल की ज़रूरत नहीं है, वो सिर्फ़ इतना चाहता है कि मैं अपनी जगह पर रहकर अच्छे से अपने कर्तव्य निभाऊँ। और बेशक मैं ऐसा कर सकती थी। परमेश्वर हर इंसान को अलग तरह की काबिलियत और हुनर देता है। अगर हम अपनी काबिलियत का अच्छे से इस्तेमाल करके एक-दूसरे की मदद करें और साथ मिलकर काम करें, तो हम अपने कर्तव्यों को निभाकर परमेश्वर को संतुष्ट कर पायेंगे।
मैंने परमेश्वर के इन वचनों को भी पढ़ा: "मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंज़िल, उसकी आयु, वरिष्ठता, पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता और जिस सीमा तक वे दया के पात्र होते हैं, उसके आधार पर तो बिल्कल भी तय नहीं करता बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। तुम्हें यह अवश्य समझना चाहिए कि वे सब जो परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण नहीं करते हैं, दण्डित किए जाएँगे। यह एक अडिग तथ्य है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। परमेश्वर धार्मिक परमेश्वर है; परमेश्वर जिनकी सराहना करता है, और जो अंत और मंज़िल वो हर इंसान के लिए निर्धारित करता है वो सब इस बात पर आधारित नहीं होता कि उस इंसान की प्रतिष्ठा या प्रसिद्धि कितनी है या कितने लोग उसका समर्थन करते हैं और उसे स्वीकार करते हैं या वह अपने कौशल का कितना प्रयोग करता है। बल्कि ये सब केवल इस बात पर आधारित होता है कि लोग सत्य का अभ्यास करते हैं या नहीं, परमेश्वर के प्रति समर्पित हैं या नहीं और परमेश्वर के सृजित प्राणियों के तौर पर अपने कर्तव्य निभाते हैं या नहीं। मुख्य याजकों, शास्त्रियों और फ़रीसियों का ही उदाहरण लेते हैं। उनके पास रुतबा और नाम था, बहुत से लोग उनकी पूजा और उनका अनुसरण करते थे, मगर जब प्रभु यीशु अपना कार्य करने आया, तो उन्होंने न सत्य की खोज की और न ही परमेश्वर के कार्य को स्वीकार किया। यहाँ तक कि उन्होंने अपने रुतबे और कमाई के साधन को बचाने के लिए प्रभु यीशु की बेतहाशा निंदा की और उसका विरोध किया, और आखिरकार उसे क्रूस पर चढ़ा दिया, जिससे अंत में उन्हें परमेश्वर का शाप और दंड झेलना पड़ा। मैंने नूह के बारे में भी सोचा, जिसने परमेश्वर के आदेश के अनुसार नाव बनाई। उस वक्त, सभी लोगों को वो पागल लगा, मगर क्योंकि उसने परमेश्वर की बात मानकर उसकी आज्ञा का पालन किया था, इसलिए उसे परमेश्वर की सराहना मिली और वो बाढ़ से बच सका। फिर बाइबल की उस गरीब विधवा की कहानी भी है। उसके द्वारा दिए गए वो दो सिक्के भले ही दूसरों के लिए इतने कीमती न हों, मगर परमेश्वर ने उसकी सराहना की, क्योंकि उसने अपनी हर चीज़ उसे दान कर दी थी। इन कहानियों पर विचार करके मैंने जाना कि परमेश्वर वास्तव में धार्मिक है। परमेश्वर लोगों की ईमानदारी की कद्र करता है। केवल परमेश्वर के वचनों को सुनकर, परमेश्वर के प्रति समर्पित होकर, परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करके और परमेश्वर के सृजित प्राणियों के तौर पर अपने कर्तव्य निभाकर ही हम एक सार्थक जीवन जी सकते हैं। दूसरों से प्रशंसा पाने के लिए हमारा संघर्ष सिर्फ़ हमें बुराई करने और परमेश्वर का विरोध करने पर मजबूर करता है और हमें उसके दंड का भागी बनाता है। मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर ने मुझे पीड़ा देने या अपमानित करने के लिए ऐसी परिस्थिति में कर्तव्य निभाने का जिम्मा नहीं सौंपा था, बल्कि उसके पास मेरे लिए एक योजना थी। मुझे रुतबा पाने का कुछ ज़्यादा ही जूनून सवार था, इसलिए मुझे उजागर किये जाने और शुद्धिकरण का अनुभव करने की ज़रूरत थी, ताकि मैं खुद को पहचान सकूँ, प्रतिष्ठा और रुतबे की जंजीरों से मुक्त होकर परमेश्वर के सामने एक आज़ाद और निर्बाध जीवन जी सकूँ। ये परमेश्वर का मुझे बदलने और शुद्ध करने का बेहतरीन तरीका था, ये परमेश्वर का प्रेम और उद्धार था। यह सोचकर, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मुझे बचाने और शुद्ध करने के लिए ऐसी परिस्थितियाँ बनाने पर तुम्हारा बहुत-बहुत शुक्रिया। अब मैं प्रतिष्ठा और रुतबा पाने के लिए नहीं जीना चाहती, चाहे मुझे कोई भी कर्तव्य सौंपा जाए, चाहे वो कर्तव्य दूसरों को कितना भी छोटा लगे, मैं हमारे कर्तव्यों को निभाने के लिए अपने भाई-बहनों के साथ मिलकर काम करने के लिए समर्पित होने को हूँ।"
कुछ समय बाद, मेरी टीम को कलीसिया से संबंधित मामलों के लिए कुछ लोगों को बाहर भेजने की ज़रूरत पड़ी। इसके बारे में सुनकर, मेरे भीतर फिर से मेरी चाहत उमड़ने लगी। मुझे लगा अब मुझे खुद को साबित करने का मौक़ा ज़रूर मिलेगा। जब मेरे भाई-बहन इस बात पर फ़ैसला ले रहे थे कि इस काम के लिए किसे भेजा जाएगा, तब मैं मन ही मन अपने चुने जाने की उम्मीद कर रही थी, मगर अंत में बहन लियू और बहन झांग को भेजने का फ़ैसला लिया गया। मैं थोड़ी निराश हो गयी। ऐसा लगा जैसे मुझे कभी भी कोई मौका नहीं मिलेगा। मुझे एहसास हुआ मैं एक बार फिर शोहरत पाने की इच्छा कर रही थी, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करके अपनी गलत मंशाओं को त्याग दिया। मैंने सोचा कि कैसे मैं इस पूरे समय अपने काम पर ध्यान देने के बजाय, अपना सारा कीमती समय और ऊर्जा सिर्फ़ रुतबा पाने में लगा रही हूँ, मैंने अपना कर्तव्य निभाने पर जरा भी ध्यान नहीं दिया। मैं हर दिन शोहरत और रुतबा पाने के लिए संघर्ष कर रही थी, और ये बेहद बुरा एहसास था। ऐसा लगा जैसे शैतान मेरे साथ चाल चल रहा है। रुतबा और प्रतिष्ठा सचमुच इंसान को बर्बाद कर सकते हैं। सच तो ये है कि हमारी टीम के सभी भाई-बहनों के पास अलग-अलग काबिलियत और हुनर हैं। परमेश्वर ने हमें एक साथ काम करने के लिए इसलिए जोड़ा क्योंकि वो चाहता था कि हम अपने-अपने हुनर का इस्तेमाल करें, एक-दूसरे के हुनर से सीखते हुए एक-दूसरे के पूरक बनें और अपने कर्तव्य निभाने के लिए साथ मिलकर काम करें। परमेश्वर ने मेरी काबिलियत और आध्यात्मिक कद बहुत पहले ही निर्धारित कर दिया था। मैं टीम में क्या काम करूँगी और क्या भूमिका निभाऊंगी, ये सब कुछ परमेश्वर ने पहले ही तय कर लिया था। इसलिए मुझे अपने पद से खुश होकर, अच्छे से अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, और एक ऐसा समझदार इंसान बनने की कोशिश करनी चाहिए जो परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सके। ये एहसास होने के बाद, मुझे काफ़ी सुकून मिला। वो दोनों बहनें जब भी काम से बाहर जातीं, तो मैं उनके लिए प्रार्थना करती और अपने सभी नियमित काम अच्छे से पूरा करती थी, ताकि दूसरी बहनें अपने-अपने कर्तव्य निभाने पर ध्यान दे सकें। मैं भाई-बहनों को उनके आध्यात्मिक कार्यों में हिस्सा लेने के लिए भी कहती ताकि अपना काम करते हुए उन्हें जीवन में प्रवेश का समय भी मिल सके। जब मैं ध्यान लगाकर अपना कर्तव्य निभाने लगी, तो मुझे काफ़ी स्थिरता और शांति का एहसास हुआ। मैं खुद को परमेश्वर के करीब महसूस करने लगी और सभी भाई-बहनों के साथ मेरे रिश्ते भी पहले जैसे हो गए। अब मैं प्रतिष्ठा और रुतबे पर ज़्यादा ध्यान नहीं देती थी, बल्कि मैं अब खुले विचारों वाली बन गयी थी। इस छोटे से बदलाव के कारण मेरा हृदय पूरी तरह से परमेश्वर का आभारी हो गया था। परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना ने मेरी आत्मा को जगा दिया, मैं शोहरत और प्रतिष्ठा के खोखलेपन और पीड़ा को देख पायी, और यह समझ सकी कि केवल परमेश्वर में विश्वास करके, सत्य की खोज करके और सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाकर ही हम एक सार्थक जीवन जी सकते हैं!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?