नकारात्मकता फैलाने का विश्लेषण

10 जून, 2022

पिछले दिसंबर में एक दिन, बैठक के बाद, मेरी अगुआ ने बताया कि चेन लिन को हटा दिया गया है, क्योंकि वो अक्सर थके होने की बात करती, ढीली पड़ जाती, और कीमत नहीं चुकाना चाहती थी, उसके सारे के सारे काम बेनतीजा थे। उसमें अच्छी इंसानियत नहीं थी, वो भाई-बहनों में नकारात्मकता फैलाती थी और काम बिगाड़ती थी। इन्हीं वजहों से उसे बर्खास्त कर दिया गया। मेरी अगुआ ने एक उदाहरण देकर समझाया। महीनों तक चेन लिन ने नवागतों का सिंचन किया, जो बेनतीजा रहा। वो नये सदस्यों की समस्याएं हल नहीं करती थी, जिसके कारण वे निराश और कमजोर हो गये थे। इसलिए, उसके काम के प्रदर्शन के आधार पर कलीसिया ने उसे हटा दिया। बैठक में चेन लिन ने कहा, "मैंने लगन से अपना काम किया, इसका मुझे ये फल मिला? मुझे नवागतों का सिंचन क्यों नहीं करने दिया जा रहा? क्या मेरे साथ कोई समस्या है? क्या मैं इसके लायक नहीं हूँ? मैं फिर कभी ये काम नहीं करूंगी। ये बेहद शर्मनाक है। पता नहीं परमेश्वर ऐसा क्यों कर रहा है, मुझे उसका प्रेम महसूस नहीं हो रहा।" उसने ये भी कहा, "कुछ लोग अपना काम अच्छे से न करने पर भी अभ्यास का मौका पाते हैं, पर मुझे ये मौका क्यों नहीं मिला?" हमारी अगुआ ने विश्लेषण किया कि कैसे वो अपनी बातों से नकारात्मकता फैलाती थी, पर चेन लिन ने उसे स्वीकार नहीं किया। उसने कहा, उसने सिर्फ अपनी भ्रष्टता की बातें की, कभी नकारात्मकता नहीं फैलाई। उसे लगा उसकी निंदा की जा रही है। उसने दुखी होकर कहा, "अगर बैठक में अपने हालात बताना नकारात्मकता फैलाना है, तो मुझे नहीं पता मुझे कैसे संगति करनी चाहिए।" यह सुनकर मैं उलझन में पड़ गया। किस संदर्भ में चेन लिन ऐसी बातें कह रही थी? क्या वो बैठकों में दिखाई अपनी भ्रष्टता की बात कर रही थी, या जानबूझकर किसी मकसद से नकारात्मकता फैला रही थी? सिर्फ इनके आधार पर क्या यह कहना सही है कि वो नकारात्मकता फैला रही है? उस वक्त मैं बहुत उलझन में था। यही सोचता रहा कि क्या अगुआ ने चेन लिन को गलत समझा। कोई बात हो जाए तो संभव है लोग परमेश्वर की इच्छा न जानें, उसे गलत समझें, शिकायत करें। क्या अपने हालात पर सहभागिता करना आम बात नहीं है? क्या ये सचमुच नकारात्मकता फैलाना है? उस वक्त, मैं अगुआ से इस बारे में और जानना चाहता था कि उन्होंने ऐसी राय क्यों बनाई, पर मुझे संकोच हुआ। मैंने सोचा, "मैं चेन लिन से कुछ ही बार मिला हूँ, उसे अच्छे से नहीं जानता। क्या उसके साथ काम करने वाले उसे मुझसे बेहतर नहीं जानते? गलत ढंग से हटाने पर वे जरूर कुछ कहते, मुझे फिक्र करने की ज़रूरत नहीं।"

अगले दिन, मैं इसी उधेड़बुन में था, शांत नहीं हो पाया। सोचता रहा, "क्या चेन लिन का बर्ताव बर्खास्तगी के लायक था? उसके नकारात्मकता फैलाने की बात सही थी? एक नेक इंसान को बर्खास्त करना बुरा कर्म है। इसे न समझ पाने पर भी अगर मैंने पूछा या खोजा नहीं, तो क्या इसका मतलब है कि मैंने आँखें मूंदकर मान लिया? क्या किसी मामले को इस तरह से देखना गैर-जिम्मेदारी है?" तभी मुझे परमेश्वर के वचन का ये अंश याद आया। "उद्धार प्राप्त करने के लिए कोई भी मार्ग सत्य को स्वीकार करने और खोजने से ज्यादा वास्तविक या व्यावहारिक नहीं है। अगर तुम सत्य को नहीं पा सकते तो परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास खोखला है। जो लोग हमेशा धर्म-सिद्धांत के खोखले शब्द झाड़ते हैं, तोते की तरह नारे लगाते हैं, ऊंची प्रतीत होती बातें कहते हैं, नियमों का पालन करते हैं, और कभी भी सत्य के अभ्यास पर ध्यान नहीं देते, वे कुछ भी हासिल नहीं करते, चाहे वे कितने ही वर्षों पुराने विश्वासी क्यों न हों। वे कौन-से लोग हैं जो कुछ हासिल करते हैं? वे लोग जो ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाते हैं और सत्य का अभ्यास करने के लिए तैयार होते हैं, जो परमेश्वर द्वारा सौंपे गए काम को अपना मिशन समझते हैं, जो खुशी-खुशी अपना सारा जीवन परमेश्वर के लिए खपा देते हैं और खुद अपने लिए योजनाएँ नहीं बनाते, जिनके पाँव मजबूती से जमीन पर टिके होते हैं और जो परमेश्वर के आयोजनों का पालन करते हैं। वे अपना कर्तव्य निभाते हुए सत्य के सिद्धांतों को समझने में सक्षम होते हैं, और हर काम सही ढंग से करने के लिए अथक प्रयास करते हैं, इससे उन्हें परमेश्वर की गवाही देने के परिणाम को हासिल करने और परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने का अवसर मिलता है। जब वे अपना कर्तव्य निभाने के दौरान कठिनाइयों का सामना करते हैं, तो वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और परमेश्वर की इच्छा को समझने की कोशिश करते हैं। वे परमेश्वर की तरफ से आने वाले आयोजनों और व्यवस्थाओं का पालन करने में सक्षम रहते हैं, और वे अपने हर काम में सत्य की खोज और उसका अभ्यास करते हैं। वे तोते की तरह नारे नहीं लगाते या ऊंची प्रतीत होने वाली बातें नहीं कहते, बल्कि अपने पाँव मजबूती से जमीन पर टिकाकर हर काम करने पर, और बहुत जतन से सिद्धांतों का पालन करने पर ही ध्यान देते हैं। वे हर काम में अथक प्रयास करते हैं, हर चीज को समझने का बहुत प्रयास करते हैं, और कई मामलों में वे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम रहते हैं, जिसके बाद वे ज्ञान और समझ हासिल कर लेते हैं, और वे सबक सीखने और सचमुच कुछ पा लेने में सफल हो जाते हैं। जब उनके मन में गलत विचार आते हैं तो वे परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, और उनके समाधान के लिए सत्य की खोज करते हैं; वे चाहे जिन सत्यों को भी समझते हों, उनके मन में उनके लिए प्रशंसा की भावना होती है, और वे अपने अनुभवों और गवाही के बारे में बात करने में सक्षम होते हैं। ऐसे लोग आखिर में सत्य को प्राप्त कर लेते हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्वर में आस्था के लिए सर्वाधिक आवश्यक है जीवन में प्रवेश')। परमेश्वर के वचनों से समझ आया कि विवेकशील इंसान आसपास की चीज़ों से सत्य खोजकर सबक सीख सकता है। वो अपने अनुभवों से लाभ पाता है। हर दिन मैं जो देखता-सुनता हूँ वो परमेश्वर द्वारा बनाया माहौल है, उनमें सीखने के लिए सबक होता है। पहले, बर्खास्त किये गये या हटाये गये लोगों के बर्ताव पर सहभागिता के दौरान, मैं सुनता और भूल जाता था। इन्हें कभी गंभीरता से नहीं लिया, इनसे कुछ भी नहीं सीखा। इस बार भी यही सोचा कि इससे मेरा कोई लेना-देना नहीं और उलझन में पड़ा रहा, तो इस अनुभव से मुझे क्या हासिल होगा? इस बारे में सोचने पर, लगा इस बार सत्य खोजना होगा, पूछना होगा। उसकी बर्खास्तगी सही हो, तब भी मैं उनसे जुड़े सिद्धांत तो समझ सकता था। अगर मैं सत्य और चीज़ों को समझ पाया, तो ये बेकार नहीं जाएगा।

उस रात, मैंने बहन झाओ से चेन लिन के हटाये जाने पर राय मांगी, ताकि उसका मूल्यांकन जान सकूं। उसने कहा, "चेन लिन कलीसिया की बनाई व्यवस्था के अनुसार काम करती है, सबसे मिल-जुलकर रहती है। वो बैठकों में अपनी भ्रष्टता के बारे में बात करती है। उसे परमेश्वर के बारे में शिकायतें और गलतफहमियां थीं, इसी वजह से उसने ऐसी बातें की। मुझे नहीं लगता वो नकारात्मकता फैला रही थी।" फिर, मैंने एक और बहन से पूछा तो उसके विचार भी बहन झाओ जैसे ही थे। उसने कहा कि चेन लिन बातचीत से तो ठीक लगती थी, उसे हटाये जाने से वो हैरान थी। मैंने सोचा, दोनों बहनें चेन लिन से परिचित थीं, दोनों ने कहा उसमें कोई समस्या नहीं थी। वो सामान्य रूप से लोगों से मिलती थी, कलीसिया की व्यवस्था मानती थी, उसमें बुरी इंसानियत भी नहीं थी। फिर अगुआ ने क्यों कहा, उसमें बुरी इंसानियत है, वो नकारात्मकता फैलाती है? इतना ही नहीं, चेन लिन के पास ऐसी बातें कहने की वजह भी थी। बर्खास्त होने पर आप परमेश्वर की इच्छा नहीं समझते, तो क्या कुछ गलतफहमियां और शिकायतें होना आम नहीं है? बैठकों में खुलकर बात करना, सहभागिता करना, नकारात्मकता फैलाना कैसे है? इसका मतलब मुझे समझ नहीं आया। मैंने परमेश्वर के पास जाकर प्रार्थना की।

एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचन का ये अंश पढ़ा। "सबसे पहले हम यह देखें कि नकारात्मकता का भाव दिखाने को कैसे समझा और पहचाना जाए, लोगों की नकारात्मकता को कैसे भाँपें, उनकी कौन-सी टिप्पणियों और अभिव्यक्तियों से नकारात्मकता का भाव दिखता है। सबसे पहले तो, लोगों में जो नकारात्मकता का भाव दिखता है वह सकारात्मक नहीं होता, यह एक विपरीत चीज होती है जो सत्य को खंडित करती है, एक ऐसी चीज जो उनके भ्रष्ट स्वभाव से पनपती है। भ्रष्ट स्वभाव के कारण सत्य का अभ्यास और परमेश्वर का आज्ञापालन कठिन हो जाता है—और इन कठिनाइयों के कारण लोगों में नकारात्मक विचार और दूसरी नकारात्मक चीजें उजागर होने लगती हैं। ये चीजें सत्य के अभ्यास की उनकी कोशिश के संदर्भ में पनपती हैं; ये वे विचार और नजरिए होते हैं जो सत्य के अभ्यास के दौरान लोगों को प्रभावित और बाधित करते हैं, और ये पूरी तरह नकारात्मक होते हैं। चाहे ये नकारात्मक विचार मनुष्य की धारणाओं के कितने ही अनुरूप क्यों न हों और ये कितने ही तर्कपूर्ण क्यों न प्रतीत हों, ये परमेश्वर के वचनों की समझ से नहीं आते, परमेश्वर के वचनों के अनुभव और ज्ञान से तो बिलकुल भी नहीं। इसके बजाय, ये मनुष्य के दिमाग की देन होते हैं, और ये सत्य से बिलकुल भी मेल नहीं खाते—इसलिए ये नकारात्मक, विपरीत चीजें होती हैं। नकारात्मकता का भाव दिखाने वाले लोगों की मंशा सत्य का अभ्यास करने में अपनी विफलता के बहुत-से निष्पक्ष कारण ढूँढने की होती है, ताकि वे दूसरे लोगों की हमदर्दी और सहमति पा सकें। यह व्यवहार, अलग-अलग पैमाने पर, सत्य का अभ्यास करने की लोगों की पहल को प्रभावित कर सकता है, उस पर प्रहार कर सकता है, और बहुत-से लोगों को सत्य का अभ्यास करने से रोक भी सकता है। ऐसे परिणाम और प्रतिकूल प्रभाव इन नकारात्मक चीजों को विपरीत, परमेश्वर के प्रतिरोधी और सत्य के पूरी तरह विरुद्ध परिभाषित किए जाने के और भी योग्य बना देते हैं। कुछ लोग नकारात्मकता के सार को लेकर आँखें मूँदे रहते हैं, और सोचते हैं कि कभी-कभार की नकारात्मकता सामान्य बात है, और इसका सत्य की खोज पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता। यह गलत है; सच्चाई यह है कि इसका बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है, और अगर नकारात्मकता असहनीय हो जाए तो यह आसानी से विश्वासघात में बदल सकती है। यह भयानक परिणाम सिर्फ नकारात्मकता की देन होता है। तो नकारात्मकता के प्रदर्शन को कैसे पहचानें और समझें? सीधे शब्दों में कहें तो नकारात्मकता का भाव दिखाने का अर्थ है लोगों को छलना और उन्हें सत्य का अभ्यास करने से रोकना; यह लोगों को झांसा देने और गुमराह करने के लिए नरम हथकंडों और सामान्य प्रतीत होने वाले तरीकों का प्रयोग है। क्या इससे उन्हें नुकसान होता है? दरअसल इससे उन्हें बहुत गहरी क्षति पहुँचती है। और इसलिए, नकारात्मकता का भाव दिखाना एक विपरीत चीज है, परमेश्वर इसकी निंदा करता है; यह नकारात्मकता का भाव दिखाने की सबसे सरल व्याख्या है। तो फिर नकारात्मकता का भाव दिखाने का नकारात्मक घटक क्या है? कौन-सी चीजें नकारात्मक होती हैं और लोगों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती हैं, बाधा और क्षति पहुंचा सकती हैं? नकारात्मकता में क्या-क्या शामिल है? अगर लोगों में परमेश्वर के वचनों की सही समझ हो तो क्या उनकी संगति के शब्दों में नकारात्मकता हो सकती है? अगर लोगों में परमेश्वर द्वारा उनके सामने पेश किए गए हालात के प्रति आज्ञाकारिता का रवैया है, तो क्या इन हालात के बारे में उनकी जानकारी में कोई नकारात्मकता होगी? जब वे हर किसी के साथ अपने अनुभव और जानकारी साझा करते हैं तो क्या इसमें कोई नकारात्मकता होगी? निश्चित ही नहीं होगी" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। परमेश्वर के वचनों से समझ आया कि जब लोग परमेश्वर के कार्य या उसके बनाये माहौल और बातों को स्वीकार नहीं कर पाते हैं, वे सत्य खोजना या आज्ञापालन करना नहीं चाहते, और असंतुष्ट होकर शिकायतें करते हैं, उसके खिलाफ विद्रोह या विरोध तक करते हैं, ये सभी नकारात्मक हालात हैं। नकारात्मक हालात में जीने पर, लोग सत्य नहीं खोजते या अपनी गलत सोच पर चिंतन या विश्लेषण नहीं करते, इसके बजाय परमेश्वर के घर के काम को लेकर असंतोष जाहिर करते हैं, उसके बारे में गलतफहमियां फैलाकर शिकायतें करते हैं, ऐसी बातें करना ही नकारात्मकता फैलाना है। वचनों पर विचार करके समझ आया कि चेन लिन अपने काम में प्रभावकारी नहीं थी। उसके बर्खास्त किए जाने में कोई भी समझदार इंसान परमेश्वर की धार्मिकता देख सकता है। वो चुपचाप आत्मचिंतन करेगा, सबक सीखने की कोशिश करेगा, सोचेगा कि वो क्यों प्रभावकारी नहीं रहा, असल समस्या क्या है, वो असफल क्यों हुआ। ईमानदारी से सत्य खोजने वाला इंसान सावधानी से इन सवालों पर चिंतन करेगा। परमेश्वर की इच्छा न समझने या गलतफहमियां और धारणाएं होने पर भी, वो कम से कम इनका प्रसार नहीं करेगा, अपने नकारात्मक हालात को ठीक करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करेगा, सत्य खोजेगा। चेन लिन ने खुद को, समझने या परमेश्वर की इच्छा खोजने की कोशिश नहीं की, ना ही ये खोजा कि वो क्या सबक सीख सकती है। इसके बजाय, उसने कलीसिया की व्यवस्थाओं का विरोध किया, उसकी अवज्ञा और शिकायत की, बैठकों में परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाएं और गलतफहमियां फैलाई। सहभागिता में, अपनी गलत सोच नहीं पहचानी, उसका विश्लेषण नहीं किया, ना ही उसने अभ्यास और प्रवेश का मार्ग ढूंढा। उसमें सत्य खोजने और चिंतन करने की प्रवृत्ति भी नहीं थी। भाई-बहन परमेश्वर के बारे में उसकी गलतफहमियां और धारणाएं, उसकी शिकायतें और असंतोष और उसके ये दावे ही सुनते थे कि परमेश्वर और उसके घर की व्यवस्थाएं अनुचित हैं, उसके सवाल सुनते थे कि क्यों दूसरों को मौके मिले पर उसे नहीं, कि परमेश्वर को उसके साथ ऐसे पेश नहीं आना चाहिए, उसकी बातें सुनते कि, "मैं फिर ये काम कभी नहीं करूंगी। ये बेहद शर्मनाक है। मैं परमेश्वर का प्रेम महसूस नहीं कर पा रही।" ऊपर से वो अपने भ्रष्ट हालात के बारे में बात करती दिखती थी, पर वो असल में परमेश्वर से गुस्से से कुतर्क करती, उसका विरोध करती। उसे लगता था खराब नतीजे का कारण परमेश्वर का अनुग्रह और आशीष न मिलना है, उसे परमेश्वर के पक्षपाती होने, प्रेम न करने के कारण हटाया गया। वो अपने गलत कदमों और अपने साथ हुए काट-छांट और निपटान को शर्मनाक मानती थी, उसे उसका काम घुटन भरा और दमघोंटू लगता था। उसने अपमान सहने के बजाय काम न करना पसंद किया। उसकी बातों के सार से, यह खुलकर बात करना और अपनी भ्रष्ट हालत के बारे में बोलना नहीं था। यह नकारात्मकता और धारणाएं फैलाने से कम नहीं था। यह परमेश्वर से कुतर्क करना, शोर मचाना, उसका विरोध करना था। फिर मुझे पता चला कि चेन लिन के ये सब कहने के बाद, कुछ भाई-बहन उससे सहानुभूति रखते हुए, उसका पक्ष लेने लगे। जिन लोगों को हाल ही में काम से हटाया गया था, उन्होंने उसकी बातें मानते हुए आलोचना की कि परमेश्वर का घर पक्षपाती है, और कहा, "अच्छा सिंचन कार्य न करने वाले लोगों को अभी भी अभ्यास का मौका मिल रहा है, तो परमेश्वर का घर हमें मौका क्यों नहीं देता?" उन्होंने कलीसिया की व्यवस्थाओं पर सवाल उठाये, वे न सत्य खोज सके, न सबक सीख सके। मैंने देखा कि चेन लिन की बातों से कुछ विवेकहीन लोग उलझन में पड़ गए, इसने कलीसियाई जीवन में रुकावट और अशांति पैदा की। बाद में पता चला, चेन लिन का ये दावा कि कुछ अप्रभावी लोगों को अभ्यास का मौका मिला, पर उसे नहीं, तथ्यों के अनुरूप बिल्कुल नहीं था। अभी शुरू करने के कारण कुछ भाई-बहनों को काम की जानकारी नहीं थी, इसलिए वे ज़्यादा असरदार नहीं थे, लेकिन सत्य के सिद्धांतों पर सहभागिता से, वे समझकर प्रवेश कर सके, प्रगति की, दिखाया कि वे प्रशिक्षण लायक हैं। कुछ लोग अपने कर्तव्य से भटककर असफल हुए, पर सहभागिता और मदद मिलने के बाद आत्मचिंतन किया, सिद्धांत खोजकर खुद को बदला, जल्दी ही वे आगे बढ़ने में कामयाब हुए। जब चेन लिन ने नवागतों का सिंचन करना शुरू किया था, अगुआओं ने कई बार उसकी मदद की, उसे अभ्यास का काफी वक्त दिया, पर उसने कभी पूरे दिल से काम नहीं किया, मेहनत नहीं की, भाई-बहन उसकी समस्याएँ बताते, तो वह इसे गंभीरता से नहीं लेती थी। बरसों के अभ्यास के बाद भी कोई प्रगति या नये सदस्यों की परेशानियां हल नहीं कर पाई, तो कलीसिया ने उसे हटा दिया। पर उसने कभी आत्मचिंतन नहीं किया, अपनी विफलता को समझने की कोशिश नहीं की, न ही उसे लगा कि काम में विफल होने पर वो परमेश्वर की ऋणी है। उसे पक्षपाती कहते हुए ये दावा किया कि परमेश्वर के घर ने उसे मौका नहीं दिया, शिकायत की कि परमेश्वर में प्रेम नहीं है। यह तथ्य मरोड़कर अपनी बात को सही ठहराना है। इसका एहसास होने पर, मैंने सोचा कैसे पहले मेरे पास विवेक नहीं था। मैं बहन लिन की नकारात्मकता और धारणाएं फैलाने की समस्या नहीं देख पाया। मुझे लगा कलीसिया ने गलती की है, मैं इसे ठीक करना चाहता था। मैं बहुत अज्ञानी और अंधा था।

फिर मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया। "मूल रूप से, ये उन लोगों की विभिन्न अवस्थाएँ और अभिव्यक्तियाँ होती हैं जो नकारात्मकता का भाव दिखाते हैं। जब उनके रुतबे, प्रतिष्ठा, हित—साथ ही उनकी इच्छाएँ, लाग-लपेट वगैरह—पूरे नहीं होते, जब परमेश्वर ऐसी चीजें करता है जो उनकी धारणाओं, कल्पनाओं और उनके हित से जुड़ी चीजों के उलट होती हैं, तो वे अवज्ञा और असंतोष जैसी भावनाओं के शिकार हो जाते हैं। और जब उनमें अवज्ञा और असंतोष के ये भाव आ जाते हैं, तो उनके दिमाग में बहाने, युक्तियाँ, उचित ठहराने, बचाव के तरीके और आहत होने के ऐसे ही दूसरे विचार पैदा होने लगते हैं। जब आहत होने के ऐसे विचार पनपते हैं, तो परमेश्वर की प्रशंसा और आज्ञापालन करने, और सबसे बढ़कर परमेश्वर को खोजने के बजाय वे अपनी धारणाओं, कल्पनाओं, विचारों, मतों या विवेकहीनता का प्रयोग करके परमेश्वर से पलटकर लड़ने लगते हैं। वे यह जवाबी हमला कैसे करते हैं? वे अवज्ञा और असंतोष की अपनी भावनाओं को फैलाने लगते हैं, और इस तरीके से अपने विचार और मत परमेश्वर के सामने स्पष्ट कर देते हैं; वे परमेश्वर को अपनी इच्छाओं और माँगों के हिसाब से चलाकर अपनी मनोकामनाओं को पूरा करवाने की कोशिश करते हैं, इसके बाद ही उन्हें चैन पड़ता है। परमेश्वर ने, खासतौर पर, लोगों के न्याय और ताड़ना के लिए, उनके भ्रष्ट स्वभाव के शुद्धिकरण के लिए, उन्हें शैतान के प्रभाव से बचाने के लिए, बहुत-से सत्य प्रकट किए हैं, और किसे पता है कि इन सत्यों ने कितने लोगों के आशीष प्राप्त करने के सपनों को चकनाचूर किया है, कितने लोगों की स्वर्ग में ले जाए जाने की उस फंतासी को ध्वस्त किया है जिसकी वे रात-दिन उम्मीद करते रहे। वे इसे ठीक करने के लिए, पटरी पर लाने के लिए, वह सब कुछ करने के लिए तैयार हैं जो वे कर सकते हैं—पर वे शक्तिहीन हैं, वे नकारात्मकता और असंतोष के साथ सिर्फ बर्बादी के गर्त में जा सकते हैं। वे उस सबका पालन करने से इनकार करते है जो परमेश्वर ने व्यवस्थित किया है, क्योंकि परमेश्वर जो करता है वह उनकी धारणाओं, हितों और विचारों के विरुद्ध होता है। खासतौर से, जब कलीसिया परिशोधन का काम करती है और बहुत-से लोगों को बाहर कर देती है, तो ये लोग सोचते हैं कि परमेश्वर उनसे प्रेम नहीं करता, कि परमेश्वर ने गलत किया है, कि उनके साथ अन्याय हो रहा है, और इसलिए वे विरोध में एकजुट होना चाहते हैं, वे इसे नकारने की कोशिश करते हैं कि परमेश्वर ही सत्य है, वे परमेश्वर की पहचान और सार को नकारते हैं, और वे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को नकारते हैं। निश्चित ही, वे सभी चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता को भी नकारते हैं। और वे किन साधनों से इन सबको नकारते हैं? प्रतिरोध और विरोध से। इसका तात्पर्य यह होता है, 'परमेश्वर जो करता है, वह मेरी धारणाओं से मेल नहीं खाता, इसलिए मैं आज्ञापालन नहीं करता। मैं नहीं मानता कि तुम सत्य हो, मैं तुम्हारे साथ बहस करूंगा, और ये विचार कलीसिया में लोगों के बीच फैलाऊंगा। जो भी जी में आए मैं वह कहूँगा, और मुझे इसके परिणामों की परवाह नहीं है। मुझे बोलने की आजादी है, तुम मेरा मुंह बंद नहीं करवा सकते, मैं जो चाहे कहूँगा। तुम क्या कर सकते हो?' जब ये लोग अपने खुद के भ्रांतिपूर्ण विचारों और मतों को प्रसारित करने पर तुल जाते हैं, तो क्या वे अपनी खुद की समझ की बात कर रहे होते हैं? क्या वे सत्य पर संगति कर रहे होते हैं? बिलकुल भी नहीं। वे नकारात्मकता फैला रहे होते हैं, वे दुष्टतापूर्ण भ्रांतियाँ प्रसारित कर रहे होते हैं। वे अपनी खुद की भ्रष्टता या सत्य से मेल न खाने वाले अपने कृत्यों को जानने या उजागर करने की कोशिश नहीं कर रहे होते, न ही अपनी गलतियों को उजागर करते हैं; इसके बजाय वे अपनी गलतियों के लिए तर्क देने की, उनका बचाव करने की भरसक कोशिश कर रहे होते हैं ताकि ये साबित करें कि वे सही हैं, और इसके साथ ही बेहूदा फैसले लेते हुए विपरीत और भ्रांतिपूर्ण विचारों और अंतर्दृष्टियों को, विकृत और दुष्टतापूर्ण शब्दों को प्रसारित कर रहे होते हैं। परमेश्वर के चुने हुए लोगों और कलीसिया पर इसका प्रभाव बाधाएँ और भ्रम पैदा करने वाला होता है; इससे लोग नकारात्मक अवस्था और उलझन के शिकार भी हो सकते हैं—जो नकारात्मकता का भाव दिखाने वाले लोगों द्वारा पैदा किए गए प्रतिकूल प्रभाव होते हैं" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मैंने जाना कि नकारात्मकता और धारणाएं फैलाने वाले समस्या होने पर परमेश्वर की व्यवस्था नहीं मानते। वे परमेश्वर से चीजें नहीं स्वीकारते, उनका नजरिया भी अविश्वासियों जैसा होता है, असल में वे गैर-विश्वासी हैं, वे शैतान हैं। समस्याएं आने पर सत्य नहीं खोजते, अपनी धारणाओं और मान्यताओं पर भरोसा करते हैं, जब चीज़ें उनके खिलाफ होती हैं या उनके हितों का नुकसान होता है, तो वे परमेश्वर की शिकायत और उसका विरोध जरूर करते हैं, मनमाने ढंग से चीज़ों को आंकते और भाई-बहनों के बीच धारणाएं फैलाते हैं, जो जी में आए कहते हैं, परमेश्वर के प्रति श्रद्धा नहीं रखते। मैं चेन लिन के नकारात्मकता और धारणाएं फैलाने के सार को नहीं समझ पाया, क्योंकि मुझे यही समझ नहीं थी कि नकारात्मकता फैलाना क्या है, मैंने बैठकों में उसकी नकारात्मक टिप्पणियों को भ्रष्टता की अभिव्यक्ति माना। मुझे लगा ऐसे मौकों पर नकारात्मक और कमजोर होना, परमेश्वर के बारे में धारणाएं होना सामान्य है। जब उसने अपनी हालत बताते हुए अपने मन की धारणाएँ बताईं, तो मुझे ये आम बात लगी। पर अपनी भ्रष्टता के बारे में खुलना और धारणाएं और नकारात्मकता फैलाना बिल्कुल अलग-अलग बातें हैं। इच्छाओं के विरुद्ध कुछ होने पर, हमारे अंदर परमेश्वर के बारे में गलतफहमियां और धारणाएं पैदा हो सकती हैं, लेकिन अगर परमेश्वर में सच्चा विश्वास है, अंतरात्मा और समझ है, आप परमेश्वर का भय मानते हैं, तो उसकी इच्छा न जानकर भी आप प्रार्थना करके सत्य खोजेंगे, जो मन करे वो नहीं बोलेंगे, आपको उसकी कृपा मिलेगी, सबक सीखेंगे, अपनी धारणा हल करने के लिये सत्य खोजेंगे। सहभागिता में विश्लेषण करेंगे कि इन धारणाओं में कहां गलती थी, अपनी भ्रष्टता का खुलासा करके उसे स्वीकारेंगे, अपने कुरूपता सबके सामने रखेंगे। भाई-बहन आपकी सहभागिता सुनकर गुमराह नहीं होंगे, परमेश्वर के प्रति गलतफहमियां और शिकायतें नहीं पालेंगे। इसके बजाय, वे सत्य समझ सकते हैं, गलत सोच को पहचान कर उसे ठुकरा सकते हैं। आपकी सहभागिता का सकारात्मक असर होगा। खुलकर बताने और सहभागिता करने का यही मतलब है। नकारात्मकता और धारणाएं फैलाने का सार अलग है। देखने में लगेगा कि यह अपनी हालत बताना या भ्रष्टता के बारे में खुलना है, पर इसका मकसद सत्य खोजना, परमेश्वर की इच्छा समझना या अपनी समस्याएं हल करना नहीं है। वे सहभागिता के दौरान इसका इस्तेमाल नकारात्मक भावनाएं और असंतोष दिखाने में करते हैं, वे परमेश्वर के बनाये माहौल की शिकायत करते हैं, सोचते हैं दूसरे मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं, वे परमेश्वर के बारे में धारणाएं और गलतफहमियां तक फैलाते हैं, बेतुके या नकारात्मक सोच को बढ़ावा देते हैं। वे कभी अपने भ्रष्ट स्वभाव को नहीं स्वीकारते, आत्मचिंतन नहीं करते, सबक नहीं सीखते। कुछ लोग अपनी समस्याओं के बारे में बात करने से बचते हैं, अपनी नाकामियों की वजह किसी न किसी चीज़ को बताते हैं। ऐसी सहभागिता सुनकर वे लोग, जो सत्य नहीं समझते या पहचान नहीं कर पाते, वे आसानी से धोखा खा सकते हैं, परमेश्वर के खिलाफ होकर बोलने वाले से सहानुभूति रखते हुए, उनका पक्ष लेते हैं, परमेश्वर और उसके घर को गलत समझते और शिकायत करते हैं। मैं संदर्भ के आधार पर आंकता था कि क्या कोई नकारात्मकता और धारणाएं फैला रहा है, और क्या उसकी बातों में मंशाएं छिपी हैं। मुझे सत्य और इसकी समझ नहीं थी कि चीजों को कैसे देखना है। दरअसल, कोई नकारात्मकता फैला रहा है या नहीं, ये समझने के लिये उसके मकसद या बात के संदर्भ को नहीं, बल्कि उसकी बात के सार और नतीजों को समझना अहम है। अगर कोई परमेश्वर से असंतोष जाहिर करने के लिए बोलता है, उसके बारे में धारणाएं फैलाता है, अपने आसपास के लोगों पर नकारात्मक प्रभाव डालता है, जिससे लोग परमेश्वर को गलत समझते, उसे दोष देते हैं, उसके घर का विरोध करते और नकारात्मकता में डूब जाते हैं, तो वे जानबूझकर ऐसा करें या न करें, उनकी बातें कलीसियाई जीवन में नकारात्मकता और अशांति फैलाती हैं।

मुझे चेन लिन के बारे में समझ नहीं थी, क्योंकि मैं न सिर्फ नकारात्मकता फैलाने का मतलब नहीं जानता था, बल्कि अच्छी और बुरी इंसानियत के बीच फर्क भी नहीं कर पाता था। फिर, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े जिससे सत्य के इस पहलू को समझ पाया। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "जब लोगों के साथ अलग-अलग चीजें होती हैं तो उनमें तरह-तरह की अभिव्यक्तियाँ दिखाई देती हैं, जिनसे अच्छी मानवता और बुरी मानवता के फर्क का पता चलता है। तो मानवता को मापने का पैमाना क्या है? यह कैसे मापा जाए कि कोई किस तरह का व्यक्ति है, और उसे बचाया जा सकता है या नहीं? यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या वे सत्य से प्रेम करते हैं और वे सत्य को स्वीकार करने और उसका अभ्यास करने में सक्षम हैं या नहीं। सभी लोगों के भीतर धारणाएँ और विद्रोहीपन होता है, सभी में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं, इसलिए उनके सामने ऐसे वक्त आएंगे जब परमेश्वर की माँगें उनके हितों के खिलाफ होंगी, और उन्हें चुनाव करना होगा—ये ऐसी चीजें हैं जिनसे सभी का अक्सर वास्ता पड़ता रहेगा, कोई भी इससे बच नहीं सकता। हरेक के सामने ऐसा वक्त भी आएगा जब वे परमेश्वर की गलत व्याख्या करेंगे और उसके बारे में धारणाएँ पाल लेंगे, या जब वे चिढ़ जाएंगे, पीछे हट जाएंगे, या परमेश्वर के प्रति विद्रोही हो जाएंगे—पर क्योंकि सत्य के बारे में लोगों का अलग-अलग रवैया होता है, इसलिए इसके प्रति उनका नजरिया भी अलग होगा। कुछ लोग अपनी धारणाओं के बारे में कभी भी बात नहीं करते, बल्कि सत्य को खोजकर खुद ही उनका समाधान करते हैं। वे उनके बारे में क्यों नहीं बोलते? (उनके दिल में परमेश्वर का डर होता है।) सही कहा : उनके पास एक ऐसा दिल होता है जो परमेश्वर से डरता है। उन्हें यह डर होता है कि कुछ कहने से नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। इसलिए किसी दूसरे को प्रभावित किए बिना वे बस इसे दिल-ही-दिल में इसका समाधान करने की कोशिश करते हैं। जब वे दूसरों को ऐसी अवस्था में देखते हैं तो अपने अनुभवों से उनकी मदद करते हैं। यह उदारहृदयता है। उदारहृदय लोग दूसरों से स्नेह करते हैं, वे दूसरों की समस्याएँ सुलझाने में उनकी मदद करने के लिए तैयार रहते हैं। जब वे कोई काम करते हैं या दूसरों की मदद करते हैं तो इसके पीछे कुछ सिद्धांत होते हैं, वे समस्याएँ सुलझाने में दूसरों की मदद करते हैं ताकि उनका भला हो सके, वे ऐसा कुछ भी नहीं कहते जिससे उनका भला न हो। यह प्रेम है। इन लोगों के दिल में परमेश्वर का डर होता है, और उनके कृत्य सिद्धांतों के अनुसार और बुद्धिमत्तापूर्ण होते हैं। यह वह पैमाना है जिससे मापा जा सकता है कि लोगों की मानवता अच्छी है या बुरी। वे जानते हैं कि नकारात्मक चीजें किसी को भी लाभ नहीं पहुंचातीं, और अगर वे इन्हें अपने मुख से प्रकट करेंगे तो दूसरों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। इसलिए वे मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं और सत्य को खोजकर इनका समाधान करते हैं। उनकी धारणाएँ चाहे किसी भी तरह की हों, वे परमेश्वर के प्रति एक आज्ञाकारी हृदय के साथ उनसे निपटते और उनका समाधान करते हैं, और फिर सत्य की समझ हासिल करते हैं, और परमेश्वर की आज्ञा का पूरी तरह पालन करने में सक्षम होते हैं; इस तरह, उनकी धारणाएँ कम-से-कम होती जाएंगी। पर कुछ लोगों में समझ होती ही नहीं है। उनमें धारणाएँ होती हैं तो वे हर किसी के साथ उन पर संगति करने लगते हैं। पर इससे समस्या हल नहीं होती, बल्कि दूसरों में भी धारणाएँ आ जाती हैं—क्या इससे उनका नुकसान नहीं होता? कुछ लोग धारणाएँ होने पर भाई-बहनों को उनके बारे में नहीं बताते, उन्हें यह डर होता है कि इससे वे उनकी असलियत जान जाएंगे और उनके खिलाफ इसका इस्तेमाल करेंगे। पर घर पर वे बिना मलाल के बोलते हैं, जो मन में आता है कह देते हैं, और परिवार के अविश्वासी सदस्यों को भाई-बहनों की तरह देखते हैं। वे यह नहीं सोचते कि इसका नतीजा क्या होगा। क्या यह सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करना है? उदाहरण के लिए, उनके संबंधियों में ऐसे लोग हो सकते हैं जो परमेश्वर में विश्वास करते हों, और जो विश्वास न करते हों, या जो आधा विश्वास करते हों और आधा शक करते हों; जब उनमें धारणाएँ होती हैं तो वे इन्हें परिवार के सदस्यों में फैला देते हैं, जिसका नतीजा यह होता है कि वे अपने साथ दूसरे सदस्यों को भी नीचे खींच लेते हैं और वे भी परमेश्वर के बारे में धारणाएँ और गलतफहमियाँ पालने लगते हैं। धारणाएँ और गलतफहमियाँ सहज रूप से घातक होती हैं, और एक बार वे फैल जाएँ तो जो लोग उनकी असलियत नहीं जान पाते उन्हें नुकसान पहुँच सकता है। खासतौर से उलझे हुए लोग तो उन्हें सुनने के बाद और भी भ्रम में पड़ सकते हैं। सिर्फ वही लोग जो सत्य को समझते हैं और इन भ्रांतियों को पहचान सकते हैं, ऐसी सामने दिखने वाली चीजों को—ऐसी धारणाओं, नकारात्मकता और गलतफहमियों को—नकार सकते हैं और परमेश्वर द्वारा बचाए जा सकते हैं। अधिकांश लोगों में ऐसी आध्यात्मिक कद-काठी नहीं होती। कुछ लोग यह भाँप सकते हैं कि ये गलत हैं—जो अपने-आपमें बड़ी प्रभावकारी बात है—पर वे यह नहीं बता सकते कि इनकी असलियत क्या है। इसलिए, जब अक्सर धारणाएँ और नकारात्मकता फैलाते रहने वाले लोग होंगे तो अधिकांश लोग परेशान हो जाएंगे और कमजोर और नकारात्मक महसूस करेंगे। यह निश्चित है। इन नकारात्मक, अभिमुख चीजों में नए विश्वासियों को भ्रमित करने और नुकसान पहुंचाने की अपार शक्ति होती है। जिनके पास पहले से ही एक आधार होता है, उन पर इसका कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता; कुछ समय बाद, ऐसे लोग सत्य को समझ जाते हैं और खुद को सही रास्ते पर ले आते हैं। पर किसी आधार से वंचित नए विश्वासी एक बार ऐसी नकारात्मक बातें सुन लेते हैं तो वे आसानी से नकारात्मकता और दुर्बलता के शिकार हो सकते हैं; जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते वे तो पीछे हटकर परमेश्वर में विश्वास करना ही छोड़ सकते हैं; यहाँ तक कि वे कुकर्मी, धारणाएँ फैलाकर परमेश्वर के घर के काम में भी अड़चन डाल सकते हैं। वे किस किस्म के लोग होते हैं जो किसी पछतावे के बिना नकारात्मकता और धारणाएँ फैलाते हैं? ये सब कुकर्मी होते हैं, राक्षस होते हैं, और इन सभी को उजागर करके बाहर फेंक दिया जाएगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्वर के प्रति जो प्रवृत्ति होनी चाहिए मनुष्य की')। परमेश्वर के वचनों से समझ आया कि किसी में अच्छी इंसानियत है या बुरी, इसका आधार ये नहीं है कि उसकी लोगों से अच्छी निभती है या नहीं, न ही ये कि वो कितना जोशीला दिखता है, वो कितने अच्छे कर्म करता है या कितने लोग उसे स्वीकारते हैं। अहम बात है परमेश्वर और सत्य से वह कैसे पेश आता है, कर्तव्य के प्रति उसका रवैया कैसा है, वो सत्य से प्रेम कर इसे स्वीकार कर पाता है। चेन लिन को बर्खास्त किया गया, लेकिन ऐसा झटका लगने पर भी उसने सत्य नहीं खोजा, न ही उसने परमेश्वर का भय माना। उसने नकारात्मकता और धारणाएं फैलाई, जिसके कारण दूसरे भी परमेश्वर और उसके घर की व्यवस्थाओं की शिकायत करने लगे। उसने अगुआ के खुलासे और विश्लेषण को नहीं स्वीकारा, खुद को सही ठहराने की कोशिश की। ऐसा बर्ताव दिखाता है कि वो सत्य को नहीं स्वीकारती थी, उसमें बुरी इंसानियत थी। उसका दिल अच्छा नहीं था। यह परमेश्वर या उसके घर की ओर नहीं था। चीज़ें उसके हिसाब से नहीं हुईं तो, उसने परमेश्वर का विरोध किया, शिकायत की। इससे उसकी दुर्भावनापूर्ण प्रकृति, समझ और दिल में परमेश्वर के भय के अभाव का पता चलता है। परमेश्वर के वचनों से इन चीज़ों को आंकने और चेन लिन के बर्ताव का विश्लेषण करने के बाद, मेरे मन का अंधेरा छंट गया, मैं चेन लिन के असली चेहरे को सही तरीके से समझ पाया। वो बुरी इंसानियत वाली एक गैर-विश्वासी थी और सत्य से नफरत करती थी। जैसे ही परमेश्वर का कार्य उसकी धारणाओं के विरुद्ध जाता, वो परमेश्वर को दोष देती, उससे नफरत करती, शोर मचाती। मैंने देखा कि कलीसिया ने सत्य के सिद्धांतों के अनुसार, उचित और निष्पक्ष तरीके से उसके साथ बिल्कुल सही किया।

चेन लिन ने ये भी कहा कि अगर बैठकों में अपनी हालत की बात करना नकारात्मकता फैलाना है, तो उसे नहीं पता सहभागिता कैसे करनी है। मैंने देखा कि उसने सत्य को बिल्कुल नहीं स्वीकारा। उसने नकारात्मकता फैलाई, दूसरों ने इस हालत को पहचानकर उसे रोकने की कोशिश की। उसने आत्मचिंतन नहीं किया, ऊपर से कहा कि उसे सहभागिता करना ही नहीं आता। मतलब ये कि दूसरे उसे बेबस कर रहे थे, तो वो फिर से खुलकर बात या संगति नहीं कर सकती। वो दूसरों पर उंगली उठा रही थी, ताकि लोग उनकी समस्या देखें। वो आरोप के बदले झूठे आरोप लगा रही थी। जब दूसरे उसकी बातों को पहचान नहीं पाते थे, तो वो उन्हें उलझा देती थी। ऐसी स्थिति आने पर, लोग अभ्यास का तरीका नहीं जान पाते थे। नकारात्मकता फैलाने से बचने के लिये, हमें कैसे खुलकर बोलना और सहभागिता करनी चाहिए? फिर मैंने इस दिशा में अभ्यास का मार्ग खोजा, मैंने परमेश्वर के वचनों का ये अंश पढ़ा : "जब लोगों की शैतानी प्रकृति होती है—और जब वे अपनी शैतानी प्रकृति के अनुसार जीते हैं—तो उनके लिए नकारात्मक अवस्था से बचना बहुत मुश्किल हो जाता है। ऐसी नकारात्मकता खासतौर से उस स्थिति में बहुत आम हो जाती है जब लोग सत्य को नहीं समझते हैं। हरेक व्यक्ति कभी न कभी नकारात्मक महसूस करता है। कुछ लोग ज़्यादातर समय नकारात्मक ही रहते हैं तो कुछ कभी-कभार इसके शिकार होते हैं। कुछ बहुत देर तक नकारात्मक रहते हैं तो कुछ सिर्फ थोड़ी देर के लिए। लोगों की आध्यात्मिक कद-काठी अलग-अलग होती है, इसलिए उनकी नकारात्मक अवस्थाएँ भी अलग-अलग होती हैं। ... बार-बार नकारात्मक महसूस करने की समस्या का समाधान कैसे किया जा सकता है? अगर लोग यह नहीं जानते कि सत्य को कैसे खोजा जाए, तो वे मजबूती से खड़े नहीं रह पाएंगे। अगर वे परमेश्वर के वचनों को खाना और पीना नहीं जानते, और अगर वे यह नहीं जानते कि परमेश्वर से प्रार्थना कैसे करें, तो वे बड़ी मुसीबत में हैं; वे सिर्फ भाई-बहनों की मदद और सहारे पर निर्भर रह सकते हैं। और अगर कोई भी उनकी मदद नहीं कर पाता, या वे मदद स्वीकार नहीं कर पाते, तो उनके बुरी तरह नकारात्मक के शिकार हो जाने की संभावना है, और वे विश्वास करना भी छोड़ सकते हैं। तो देखो, हमेशा धारणाएँ पाले रहना, और हमेशा नकारात्मक रहना कितना खतरनाक है। उनके साथ कितनी ही संगति क्यों न की जाए, वे सत्य को स्वीकार करने से इनकार करते देते हैं, और वे हमेशा यही सोचते हैं कि उनकी धारणाएँ और कल्पनाएँ ही सही हैं—ये लोग बहुत परेशानी खड़ी करते हैं। पर तुम चाहे कितने ही नकारात्मक क्यों न हो, अपने दिल में तुम्हें यह समझना चाहिए कि तुम्हारे अंदर धारणाएँ होने का यह अर्थ नहीं है कि वे सत्य की पुष्टि करती हैं। यह तुम्हारी समझ की समस्या है। अगर तुममें थोड़ी सूझबूझ है, तो तुम इन धारणाओं को नहीं फैलाओगे; लोगों को कम-से-कम इतने का पालन तो करना चाहिए। अगर तुम्हारे दिल में परमेश्वर का कुछ डर है, और तुम यह स्वीकार कर सकते हो कि तुम परमेश्वर के अनुयायी हो, तो तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और अपनी धारणाओं का समाधान करना चाहिए, सत्य का पालन करने में सक्षम होना चाहिए, और कोई ऐसा काम नहीं करना चाहिए जिससे कोई बाधा या व्यवधान उत्पन्न हो। ... तुम परमेश्वर की गलत व्याख्या करते हो और नकारात्मक महसूस करते ह, और परमेश्वर की शिकायत करते हो—तो ऐसी स्थितियों में तुम्हें क्या करना चाहिए? इसे आसानी से समझा जा सकता है। कुछ लोगों को खोजो जो सत्य को समझते हों, और उन्हें अपने दिल की बात बताते हुए उनके साथ संगति और खोज करो। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है परमेश्वर के सामने आना और उससे सच्ची प्रार्थना करते हुए इस सारी नकारात्मकता, कमजोरी, और उन चीजों के बारे में उसके साथ संगति करना, जिन्हें तुम नहीं समझते हो और जो दुष्कर प्रतीत होती हैं—उन्हें छिपाओ मत। अगर कुछ ऐसी बातें हैं जो तुम्हारे लिए अकथनीय हैं, जो तुम किसी भी दूसरे व्यक्ति को नहीं बता सकते, तो यह और भी जरूरी है कि तुम परमेश्वर के सामने आओ और उससे प्रार्थना करो" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। परमेश्वर के वचन से समझ आया, अपनी पसंद का माहौल नहीं मिलने पर लोग भ्रष्टता दिखा सकते हैं, नकारात्मक हो सकते हैं या परमेश्वर की शिकायत कर सकते हैं। ऐसे नकारात्मक हालात होने पर, दिल से परमेश्वर का भय मानना और ज़बान पर काबू रखना चाहिए, जो नहीं जानते या नहीं समझते उसका प्रसार नहीं करना चाहिए, दूसरों के लिए रुकावट नहीं बनना चाहिए। यह न्यूनतम अपेक्षा है। हमें परमेश्वर के सामने जाकर प्रार्थना करनी होगी, उसके वचनों को खाना-पीना और समस्याओं के हल के लिए सत्य खोजना होगा, जल्द से जल्द अपनी नकारात्मकता और धारणाओं से निकलना होगा। अगर हम खुद इसका हल नहीं कर पाये, तो हमें अगुआओं और कर्मियों या सत्य समझने वालों से सहभागिता लेनी होगी। यह सत्य खोजना और समस्याओं को हल करना है, नकारात्मकता फैलाना नहीं। मगर हमें सही इंसान के संग खोजना होगा। कुछ नये विश्वासी सत्य नहीं समझते या उनका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा होता है। उनके साथ खुलकर बोलने और सहभागिता करने से फायदा तो नहीं, पर उनमें ही गलतफहमियां और धारणाएं पैदा हो सकती हैं। ऐसी सहभागिता से लोग सीखते नहीं, उनके ठोकर खाने की संभावना बढ़ जाती है। हम चाहे कितने ही नकारात्मक हों, हमारी धारणाएं या गलतफहमियां हों, हमें परमेश्वर के सामने प्रार्थना करके उसके साथ सत्य खोजना होगा, उसके वचनों में सत्य और पवित्र आत्मा का प्रबोधन ढूंढना होगा। सत्य की समझने पर, हम अपनी धारणाओं और गलतफहमियों को दूर कर लेंगे, तब हम अपना अनुभव दूसरों को बता सकते हैं। आप ये सहभागिता कर सकते हैं कि आपने कैसे सत्य खोजा, कैसे अपनी गलत सोच और नकारात्मक चीज़ों को पहचानना सीखा, कैसे परमेश्वर की इच्छा को समझा, उसके बारे में अपनी धारणाओं और गलतफहमियों को दूर किया। यही सचमुच खुलकर बोलना, सहभागिता करना और परमेश्वर की गवाही देना है। इस तरह खुलकर बोलने से लोग सीख पाते हैं। इसे समझने के बाद, मुझे अभ्यास का मार्ग मिल गया।

इस अनुभव ने मुझे नकारात्मकता फैलाने और खुलकर बोलने के बीच का फर्क समझाया, अच्छी और बुरी इंसानियत के मूल्यांकन का सिद्धांत दिया, साथ ही, कलीसिया में छिपे कुछ गैर-विश्वासियों की पहचान कराई। मुझे यह काफी फायदेमंद लगा। परमेश्वर का धन्यवाद!

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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