एक बाध्यकारी कर्तव्य
सितंबर 2020 में मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार किया। उसके बाद मैं अक्सर सभाओं में जाने लगी, और कोई बात समझ में न आती तो भाई-बहनों से पूछ लेती। मैं परमेश्वर के वचनों की अपनी समझ को लेकर भी बढ़-चढ़कर संगति करती और दूसरों को भी संगति करने के लिए हौसला बढ़ाती। एक बार, समूह अगुआ ने मुझसे कहा, "तुम सभाओं में अच्छी संगति करती हो और तुम्हारी समझ काफी अच्छी है, क्या तुम सभाओं की मेजबानी करना चाहोगी?" मुझे यकीन ही नहीं हुआ : वह मुझे खुद सभाएं करने के लिए कह रही थी? मैं इस दिन का कब से इंतजार कर रही थी। प्रभु में विश्वास करने के बाद, मुझे सुसमाचार का प्रचार करने वालों से हमेशा ईर्ष्या होती थी। मैं तो एक पादरी भी बनना चाहती थी, ताकि मैं एक दिन उन्हीं की तरह प्रवचन-डेस्क के पीछे खड़ी होकर प्रवचन दे सकूँ, दूसरों की सराहना और तारीफ पा सकूँ। मुझे यकीन नहीं हुआ कि मेरा सपना आखिर सच हो गया था। मैं जिन लोगों के साथ सभा में शामिल होती थी, उनमें से सिर्फ मुझे मेजबान के रूप में चुना गया था, इसलिए मुझे लगा कि मैं उन सबसे बेहतर हूँ। खुद को खुशकिस्मत मानते हुए मैंने बिना किसी झिझक के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। मैंने सभा की तैयारी पहले से करने और भाई-बहनों के मसले उसी समय हल करने का संकल्प लिया, अगर मैं हल न कर सकी तो समूह अगुआ की मदद लूँगी। कुछ दिन बाद, समूह अगुआ ने मुझसे कहा कि मैं बहुत अच्छी मेजबानी कर रही थी, मुझमें उसका भरोसा और भी बढ़ गया था। मैं गर्व से फूली नहीं समा रही थी। बाद में, काम की जरूरत को देखते हुए कलीसिया अगुआ बहन इवी ने मुझे सुसमाचार साझा करने का अभ्यास करने के लिए कहा। मेरी प्रमुख जिम्मेदारी प्रवचन सुनने के लिए लोगों को आमंत्रित करने की थी। मैं इसे स्वीकार न सकी, क्योंकि मुझे लगता था कि सुसमाचार साझा करने वाले का दर्जा मेजबान से कम था। मेजबान अगुआ की तरह होते हैं—इस ओहदे से मैं दूसरों की अगुवाई करके नाम कमा सकती थी, जबकि प्रवचन सुनने के लिए लोगो को बुलाना पर्दे के पीछे का काम था, जिस पर किसी का ध्यान ही नहीं जाएगा। मैंने मन-ही-मन शिकायत की : "मुझे यह काम क्यों दिया गया है? क्या मैं अच्छी नहीं हूँ?" मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। मेरे मन में अगुआ के लिए पूर्वाग्रह पनपने लगा, कि शायद वह मुझे कमतर समझती है। उसने मेरे साथ संगति करके बताया कि कैसे सुसमाचार साझा करना परमेश्वर का आदेश है, और यह कर्तव्य हर किसी को निभाना चाहिए। तब जाकर मैंने बेमन से इसे स्वीकार किया। पर मेरा दिल इस काम में नहीं था, और मैं हमेशा सभाओं की मेजबानी के काम में लौटना चाहती थी। मुझे यह भी लगता था कि सुसमाचार साझा करना मेरे लिए उपयुक्त काम नहीं था, और मैं सभाओं की मेजबानी कहीं बेहतर कर सकती थी।
लेकिन मुझे बड़ी हैरानी हुई जब एक दिन एक ऊंचे स्तर के अगुआ ने मुझे बताया : "एक अच्छी खबर है, तुम्हें कलीसिया अगुआ चुन लिया गया है।" मैं सन्न रह गई। मैं अभी तक सत्य नहीं समझती थी, मैं इतनी अहम भूमिका कैसे निभा सकती थी? पर मैं जानती थी यह परमेश्वर का उत्कर्ष था, इसलिए मैंने इसे स्वीकार लिया। बाद में, अगुआ ने मुझे बताया कि मैं मुख्य रूप से सुसमाचार के काम के लिए जिम्मेदार रहूंगी। जैसे ही मैंने "सुसमाचार का काम" सुना, तो मेरे मन में पहला ख्याल यह आया कि यह कम महत्वपूर्ण कर्तव्य है। इसमें सिर्फ सत्य की खोज करने वालों के साथ संगति करनी थी, जिससे मेरा ज्यादा नाम न हो पाता। मैं फिर से मन-ही-मन शिकायत करने और अनिच्छुक महसूस करने लगी। मैं सुसमाचार के काम की इंचार्ज नहीं बनना चाहती थी। बाद में, अपना कर्तव्य निभाते हुए मैं सभाओं की मेजबानी पर ही ध्यान देती और सुसमाचार के काम की कोई खास सुधबुध न लेती। जब एक ऊँचे स्तर के अगुआ ने सुसमाचार के काम के बारे में पूछा, तो इसकी कोई खास समझ न होने के कारण मैं कुछ न कह सकी। मैं जानती थी कि सुसमाचार के काम में कलीसिया को अच्छे नतीजे न मिलने, और भाई-बहनों को सुसमाचार साझा करना न आने का कारण मेरी लापरवाही थी। मुझे बहुत बुरा लग रहा था। बाद में मैंने अगुआओं को अपनी हालत के बारे में खुलकर बताया तो उन्होंने मेरे साथ संगति करके स्थिति के समाधान पर चर्चा की। उन्होंने मुझे सुसमाचार के काम पर ज्यादा ध्यान देने के लिए भी कहा। मैं दोषी महसूस कर रही थी। एक अगुआ होने के नाते, मुझे सुसमाचार के काम का बोझ उठाना चाहिए था, पर मैंने अपने कर्तव्य में जिम्मेदारी महसूस नहीं की, जिसके कारण काम के अच्छे नतीजे नहीं आए। यह एहसास होने के बाद मुझे बहुत खराब लग रहा था।
एक सभा के दौरान, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश दिखा, जिससे मुझे खुद को समझने में मदद मिली : परमेश्वर के वचन कहते हैं, "अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया कैसा होना चाहिए, जिसे कि सही और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप कहा जा सके? पहली बात, तुम इसकी जाँच नहीं कर सकते कि उसकी किसके द्वारा व्यवस्था की गई है, उसे किस स्तर की अगुआई द्वारा सौंपा गया है—तुम्हें उसे परमेश्वर की ओर से स्वीकार करना चाहिए। तुम इसका विश्लेषण नहीं कर सकते, तुम्हें इसे परमेश्वर से स्वीकार करना चाहिए। यह एक शर्त है। इसके अलावा, तुम्हारा चाहे जो भी कर्तव्य हो, उसमें ऊँचे और नीचे के बीच भेद न करो। मान लो तुम कहते हो, 'हालाँकि यह काम परमेश्वर का आदेश और परमेश्वर के घर का कार्य है, पर यदि मैं इसे करूँगा, तो लोग मुझे नीची निगाह से देख सकते हैं। दूसरों को ऐसा काम मिलता है, जो उन्हें विशिष्ट बनाता है। मुझे यह काम दिया गया है, जो मुझे विशिष्ट नहीं बनाता, बल्कि परदे के पीछे मुझसे कड़ी मेहनत करवाता है, यह अनुचित है! मैं यह कर्तव्य नहीं करूँगा। मेरा कर्तव्य वह होना चाहिए, जो मुझे दूसरों के बीच खास बनाए और मुझे प्रसिद्धि दे—और अगर प्रसिद्धि न भी दे या खास न भी बनाए, तो भी मुझे इससे लाभ होना चाहिए और शारीरिक आराम मिलना चाहिए।' क्या यह कोई स्वीकार्य रवैया है? मीन-मेख निकालना परमेश्वर से आई चीज़ को स्वीकार करना नहीं है; यह अपनी पसंद के अनुसार विकल्प चुनना है। यह अपने कर्तव्य को स्वीकारना नहीं है; यह अपने कर्तव्य से इनकार करना है, यह तुम्हारी विद्रोहशीलता की अभिव्यक्ति है। इस तरह मीन-मेख निकालने में तुम्हारी निजी पसंद और आकांक्षाओं की मिलावट होती है; जब तुम अपने लाभ, अपनी ख्याति आदि को महत्त्व देते हो, तो अपने कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया आज्ञाकारी नहीं होता। कर्तव्य के प्रति तुम्हारा रवैया कैसा होना चाहिए? पहले तो तुम उसका विश्लेषण न करो, न ही यह सोचो कि उसे तुम्हें किसने सौंपा है; इसके बजाय तुम्हें उसे परमेश्वर से मिला हुआ, परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपा गया मानना चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर की व्यवस्थाओं का पालन करना और परमेश्वर से अपने कर्तव्य को ग्रहण करना चाहिए। दूसरे, ऊँचे और नीचे के बीच भेद न करो, और उसकी प्रकृति के बारे में न सोचो, क्या वह तुम्हें लोगों के बीच खास बनाता है, यह सभी के सामने किया जाता है या पर्दे के पीछे। इन चीजों पर गौर मत करो। एक और रवैया भी है : आज्ञाकारिता और सक्रिय सहयोग" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्य का समुचित निर्वहन क्या है?)। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मुझे एहसास हुआ कि कोई भी कर्तव्य ज्यादा या कम महत्वपूर्ण नहीं होता। परमेश्वर की नजरों में, हम उसके घर में चाहे जो भी काम करें, हम सब सृजित प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्य निभा रहे होते हैं। हमें कम या ज्यादा महत्वपूर्ण कर्तव्यों में फर्क नहीं करना चाहिए और उन्हें किसी इंसान से मिला नहीं मानना चाहिए। क्योंकि ये सब परमेश्वर की संप्रभुता से आते हैं और ये ऐसी जिम्मेदारियाँ हैं जिन्हें हमें पूरा करना चाहिए। आत्मचिंतन करते हुए, मैंने देखा कि मैं हमेशा अपने मनचाहे काम को ऊपर रखती थी, और कलीसिया की व्यवस्था के आगे समर्पण करने के बजाय सिर्फ ऐसे काम चुनती थी जिनसे मैं विशिष्ट दिखूँ। जब भी कोई काम मेरी पसंद का न होता और मुझे विशिष्ट दिखने का मौका न देता, तो मैं इसे स्वीकारने के बजाय मन-ही-मन नकारती और शिकायत करती रहती थी। जब अगुआ ने मुझे सभाओं की मेजबानी करने के लिए कहा, तो मेरी पसंद का काम होने, मेरी इच्छाओं को पूरा करने, और विशिष्ट दिखने का मौका देने के कारण, मैं खुश थी और खूब मेहनत करती थी। पर जब अगुआ ने मुझे सुसमाचार साझा करने का काम सौंपा, तो मैं उससे कुढ़ने लगी, क्योंकि इस काम में मैं विशिष्ट नहीं दिख सकती थी। मैं सोचने लगी वह मुझे कमतर समझती थी, उदास और निराश महसूस करते हुए मैं उसके प्रति पूर्वाग्रह पालने लगी। मैं अपने कर्तव्यों को अपने मन से चुनना चाहती थी, और उन्हें परमेश्वर से मिले काम न मानकर सच्चे मन से समर्पण नहीं करती थी। अपने कर्तव्य को लेकर इस गलत धारणा के कारण, मैंने सुसमाचार के काम में ढील बरती और उसमें मन नहीं लगाया। नतीजा यह हुआ कि हमें खराब नतीजे मिले और सुसमाचार के काम में देर हो गई। मुझे अपने तौर-तरीकों की गलती का एहसास हुआ, चाहे मुझे कोई भी कर्तव्य दिया जाए, मैं इसे पसंद करूँ या न करूँ, अगर कलीसिया के काम के लिए इसकी जरूरत थी तो मुझे समर्पित भाव से अपना सर्वश्रेष्ठ देना चाहिए। मुझे इस बात का ख्याल होना चाहिए था, पर मैं हमेशा अपनी पसंद के हिसाब से ही कर्तव्यों को देखती रही। मैं सचमुच अवज्ञाकारी और निष्ठाहीन थी। मुझे खुशी थी कि परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़कर मुझे अपनी भ्रष्टता का एहसास हो गया। मैंने एक संकल्प लिया : मुझे चाहे कोई भी कर्तव्य सौंपा जाए, मैं इसे सिर-आँखों पर लूँगी।
मैंने अपने विचारों को शांत करके खुद से पूछा : ऐसा क्यों है कि अगर कोई कर्तव्य मेरी पसंद और इच्छाओं को पूरा करता है, और मुझे विशिष्ट दिखने का मौका देता है, तो मैं परमेश्वर का धन्यवाद करती हूँ, पर अगर कोई कर्तव्य मुझे पसंद न हो, और इसे करने की मेरी इच्छा न हो, तो मैं शिकायत करते हुए इसे स्वीकारना नहीं चाहती? मुझे इसका जवाब परमेश्वर के वचनों में मिला। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा के प्रति मसीह-विरोधियों का चाव सामान्य लोगों से कहीं ज्यादा होता है, और यह एक ऐसी चीज है जो उनके स्वभाव और सार के भीतर होती है; यह कोई अस्थायी रुचि या उनके परिवेश का क्षणिक प्रभाव नहीं होता—यह उनके जीवन, उनकी हड्डियों में समायी हुई चीज है, और इसलिए यह उनका सार है। कहने का तात्पर्य यह है कि मसीह-विरोधी जो कुछ भी करता है, उसमें उनका पहला विचार अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा का होता है, और कुछ नहीं। मसीह-विरोधी के लिए हैसियत और प्रतिष्ठा उनका जीवन और उनके जीवन भर का लक्ष्य होती हैं। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार यही होता है : 'मेरी हैसियत का क्या होगा? और मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? क्या ऐसा करने से मुझे प्रतिष्ठा मिलेगी? क्या इससे लोगों के मन में मेरी हैसियत बढ़ेगी?' यही वह पहली चीज है जिसके बारे में वे सोचते हैं, जो इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि उनमें मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार है; वे अन्यथा इन समस्याओं पर विचार नहीं करेंगे। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी के लिए हैसियत और प्रतिष्ठा कोई अतिरिक्त आवश्यकता नहीं है, कोई बाहरी चीज तो बिलकुल भी नहीं है जिसके बिना उनका काम चल सकता हो। ये मसीह-विरोधियों की प्रकृति का हिस्सा हैं, ये उनकी हड्डियों में हैं, उनके खून में हैं, ये उनमें जन्मजात हैं। मसीह-विरोधी इस बात के प्रति उदासीन नहीं होते कि उनके पास हैसियत और प्रतिष्ठा है या नहीं; यह उनका रवैया नहीं होता। फिर उनका रवैया क्या होता है? हैसियत और प्रतिष्ठा उनके दैनिक जीवन से, उनकी दैनिक स्थिति से, जिस चीज के लिए वे दैनिक आधार पर प्रयास करते हैं उससे, घनिष्ठ रूप से जुड़ी होती हैं। और इसलिए मसीह-विरोधियों के लिए हैसियत और प्रतिष्ठा उनका जीवन हैं। चाहे वे कैसे भी जीते हों, चाहे वे किसी भी वातावरण में रहते हों, चाहे वे कोई भी काम करते हों, चाहे वे किसी भी चीज के लिए प्रयास करते हों, उनके कोई भी लक्ष्य हों, उनके जीवन की कोई भी दिशा हो, यह सब अच्छी प्रतिष्ठा और उच्च पद पाने के इर्द-गिर्द घूमता है। और यह लक्ष्य बदलता नहीं; वे इसे कभी दरकिनार नहीं कर सकते। यह मसीह-विरोधियों का असली चेहरा और उनका सार है" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन))। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि मसीह-विरोधी खास तौर से नाम और रुतबे के भूखे होते हैं। वे दूसरों से हमेशा ऊंचा दिखना और उनके दिलों में जगह बनाना चाहते हैं। हालात चाहे कैसे भी हों, उन्हें सबसे पहले यही ख्याल आता है कि क्या वे दूसरों की प्रशंसा और सराहना पा सकते हैं। आम लोग नाम और रुतबा न मिलने पर थोड़े उदास हो सकते हैं, पर मसीह-विरोधी इसके बिना काम ही नहीं कर पाते और तड़पने लगते हैं, यहाँ तक कि उनके लिए जीना मुश्किल हो जाता है। मसीह-विरोधियों के लिए नाम और रुतबा ही उनकी जान है। मेरा स्वभाव भी ऐसा ही था : मैं हमेशा नाम, रुतबे और दूसरों की तारीफ पाने के चक्कर में रहती थी। अपने भाई-बहनों में भी मैं हमेशा माता-पिता की चहेती बनना चाहती थी। अपने दोस्तों में सबसे लोकप्रिय होना चाहती थी। स्कूल में शिक्षकों की शाबाशी पाना चाहती थी, और प्रभु की विश्वासी के रूप में उपदेशक जैसी बनना चाहती थी, लोगों के बीच प्रवचन देना और हरेक की तारीफ बटोरना चाहती थी। परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार करने के बाद, मैं अब भी उसी रास्ते पर चल रही थी : मुझे लगता था कि सभाओं की मेजबानी करके मैं खुद को साबित कर सकती हूँ, दूसरों की तारीफ और अगुआओं का सम्मान पा सकती हूँ। इसलिए जब मुझे सभाओं की मेजबानी का काम सौंपा गया तो मैं बहुत खुश हो गई, मुझे दूसरों से इज्जत और तारीफ पाना बहुत अच्छा लगने लगा। पर सुसमाचार साझा करना पर्दे के पीछे का काम था, जिस पर किसी का ध्यान नहीं जाता था। अगर मुझे एक "अगुआ" का तमगा भी मिल जाए तो भी मैं इसे स्वीकारना नहीं चाहती थी। मुझे यह महत्वपूर्ण काम नहीं लगता था, और मैं सभाओं की मेजबानी के काम में वापस लौटना चाहती थी। जब मेरी इच्छाएँ पूरी नहीं हो पाईं तो मैंने काम में लापरवाही करनी शुरू कर दी, जिससे सुसमाचार के काम के खराब नतीजे मिले। पहले, अपने कर्तव्य में अपना सर्वश्रेष्ठ देने की इच्छा को लेकर मेरी प्रार्थनाएँ सच्ची और ईमानदार नहीं होती थीं—मैं परमेश्वर से छल कर रही थी! मैं सिर्फ रुतबे और नाम के लिए अपना कर्तव्य निभा रही थी, और भाई-बहनों की तारीफ पाना चाहती थी, न कि परमेश्वर को संतुष्ट करना। मैं अपने मसीह-विरोधी स्वभाव को उजागर कर रही थी और परमेश्वर के प्रतिरोध के रास्ते पर चल रही थी। यह एहसास होने पर मैं काफी डर गई। अगर मैं इसी गंभीर मसीह-विरोधी स्वभाव के अनुसार चलती रही तो मेरा मसीह-विरोधियों वाला ही अंत होगा और मैं परमेश्वर द्वारा शापित और दंडित की जाऊँगी! कितनी खतरनाक बात है! मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की : "प्यारे परमेश्वर, मैं बहुत खतरनाक जगह पर हूँ—मैं नाम और रुतबे के पीछे भागती रही हूँ और गलत रास्ते पर चलती रही हूँ। मैं प्रायश्चित करने को तैयार हूँ और तुम्हारे उद्धार की कामना करती हूँ।"
एक सभा में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिससे मुझे सुसमाचार के काम की अपनी गलत सोच को सुधारने में मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "मैं सभी लोगों को चेतावनी देता हूँ और उन सभी को बता देना चाहता हूँ कि सुसमाचार का प्रसार करना, किसी एक प्रकार या समूह के लोगों का विशेष काम नहीं है; यह हर उस व्यक्ति का काम है जो परमेश्वर का अनुसरण करता है। मुझे लोगों को सत्य का यह पहलु क्यों समझाना चाहिए? और उन्हें इसे समझने की ज़रूरत क्यों है? क्योंकि सुसमाचार फैलाना वह मिशन और काम है जिसे प्रत्येक सृजित प्राणी और परमेश्वर के प्रत्येक अनुयायी को स्वीकार करना चाहिए, चाहे वह बूढ़ा हो या जवान, पुरुष हो या महिला। अगर यह मिशन तुम्हें मिलता है और तुमसे खुद को खपाने, कीमत चुकाने, यहाँ तक कि अपना जीवन अर्पित करने की अपेक्षा की जाती है, तो तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें उसे स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि तुम उसे करने के लिए कर्तव्य-बाध्य हो। यही सत्य है, और इसे तुम्हें समझना चाहिए। यह कोई सिद्धांत मात्र नहीं है; यह सत्य है। और क्या चीज इसे सत्य बनाती है? ऐसा इसलिए है क्योंकि, गुजरते समय के बावजूद, या युग कैसे बदलता है, भूगोल और अंतरिक्ष में कैसे परिवर्तन होता है, इन सब से परे सुसमाचार का प्रसार करना और परमेश्वर की गवाही देना शाश्वत रूप से एक सकारात्मक बात है; इसका अर्थ और इसका मूल्य अपरिवर्तनीय हैं। यह समय बीतने के साथ या भौगोलिक स्थान के बदलाव से नहीं बदलता है। यह शाश्वत रूप से मौजूद है, और यही वह चीज़ है जिसे हर सृजित प्राणी को स्वीकार करना और अभ्यास में लाना चाहिए। यह शाश्वत सत्य है। कुछ लोग कहते हैं, 'मैं सुसमाचार फैलाने का कर्तव्य नहीं निभा रहा हूँ।' फिर भी, सुसमाचार फैलाने का सत्य ऐसी चीज है, जिसे लोगों को समझना चाहिए। चूँकि यह दर्शनों के क्षेत्र में एक सत्य है, इसलिए परमेश्वर के सभी विश्वासियों को इसे समझना चाहिए; यह एक ऐसी चीज है, जो परमेश्वर में व्यक्ति की आस्था की जड़ों को जमाती है, और यह व्यक्ति के जीवन-प्रवेश के लिए लाभकारी है। इसके अलावा, चाहे तुम्हारा कोई भी कर्तव्य क्यों न हो, तुम्हें अविश्वासियों के साथ व्यवहार करना होगा, इसलिए तुम पर सुसमाचार फैलाने की जिम्मेदारी है। तुम जब सुसमाचार फैलाने के बारे में सत्य समझ लेते हो, तो तुम अपने हृदय में जान जाओगे : 'परमेश्वर के नए कार्य का प्रवचन देना और लोगों को बचाने के परमेश्वर के कार्य के सुसमाचार का उपदेश देना मेरा काम है; स्थान या समय की परवाह किए बिना, अपनी स्थिति या भूमिका या वर्तमान में जिस कर्तव्य को मैं निभा रहा हूँ उसकी परवाह किए बिना, मेरा दायित्व है कि मैं जाऊं और परमेश्वर के नए कार्य की ख़ुशख़बरी का प्रसार करूं। जब भी मुझे अवसर मिले या मेरे पास ख़ाली समय हो इसे आगे पहुँचाना मेरा अनुग्रहीत कर्तव्य है।' क्या ये अधिकांश लोगों के वर्तमान विचार हैं? (नहीं।) अधिकांश लोग क्या सोचते हैं? 'मेरे पास फिलहाल एक नियत कार्य है; मैं अध्ययन करने में लगा हूँ और एक निश्चित पेशे और विशेषज्ञता में तल्लीन हूँ, इसलिए सुसमाचार का प्रसार करने से मेरा कुछ भी लेना-देना नहीं है।' यह किस प्रकार का रवैया है? यह अपनी जिम्मेदारी और मिशन से बचने का रवैया है, एक नकारात्मक रवैया है, और ऐसा व्यक्ति परमेश्वर की इच्छा का ध्यान नहीं रखता और उसके प्रति अवज्ञाकारी होता है। चाहे तुम कोई भी हो, अगर तुममें सुसमाचार फैलाने का दायित्व नहीं है, तो क्या तुम जमीर और विवेक की कमी नहीं दर्शा रहे? अगर तुम सहयोग करने, जिम्मेदारी लेने और समर्पण करने में फुरतीले और सक्रिय नहीं हो, तो तुम केवल नकारात्मक और निष्क्रिय प्रतिक्रिया दे रहे हो। यह वह रवैया है, जो तुम्हें नहीं रखना चाहिए। तुम चाहे जिस भी कर्तव्य में लगे हो, और चाहे तुम्हारे काम के साथ जो भी पेशा या विशिष्टता जुड़ी हो, तुम्हारे कार्य के सभी नतीजों के सबसे महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक है मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के कार्य के सुसमाचार का प्रसार करने और उसकी गवाही देने में सक्षम होना। एक सृजित प्राणी को कम से कम इतना तो करना ही चाहिए" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद एक : वे लोगों का दिल जीतना चाहते हैं)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे रोना आ गया—मैंने खुद को दोषी पाया। परमेश्वर के वचनों ने मुझे साफ-साफ दिखाया कि सुसमाचार साझा करना परमेश्वर का आदेश है और हरेक का अनिवार्य कर्तव्य और मिशन है। कलीसिया में हम चाहे कोई भी कर्तव्य निभाएँ, हमारा अंतिम लक्ष्य एक ही है : परमेश्वर के सुसमाचार का प्रचार करना। अपनी बात करूँ तो, मुझे सुसमाचार साझा करना पसंद नहीं था और मैं इस गलतफहमी में भी थी कि सुसमाचार के काम में मेरी कोई भूमिका नहीं थी। मुझे लगता था कि सभाओं की मेजबानी और भाई-बहनों का सिंचन करके मैं अपना कर्तव्य निभा रही थी और परमेश्वर को संतुष्ट कर रही थी। मुझे सुसमाचार के काम की अहमियत ही नहीं पता थी। तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि सुसमाचार का प्रचार परमेश्वर की तात्कालिक जरूरत है। सुसमाचार का काम मानवजाति को बचाने का काम है, जिसका परमेश्वर की गवाही से, लोगों को परमेश्वर का कार्य समझाने और बचाए जाने के लिए उसके पास लौटने से सीधा संबंध है। यह सचमुच बहुत सार्थक काम है। पर मेरे पास परमेश्वर की गवाही देने वाला मन नहीं था और मैं अपने कर्तव्य में जरा-भी बोझ नहीं उठा रही थी। जब अगुआ ने मुझे सुसमाचार साझा करने का काम सौंपा तो मैं उसका विरोध करने, उसे ठुकराने लगी और अपनी जिम्मेदारी से कतराने लगी। मुझमें चेतना और समझ की कितनी कमी थी! अगर किसी ने मुझे प्रवचन सुनने, सुसमाचार साझा करने और परमेश्वर की गवाही देने के लिए न बुलाया होता, तो मैंने कभी परमेश्वर की वाणी न सुनी होती और मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारने का अवसर न मिलता। अगर मैं सुसमाचार साझा करने में अपनी भूमिका नहीं निभा सकती और सिर्फ खानापूरी करना चाहती हूँ, तो परमेश्वर मुझे अपनी विश्वासी और अनुयायी नहीं मानेगा, वह सोचेगा मुझमें चेतना और मानवता की कमी है। मैंने सुसमाचार साझा करने की अपनी जिम्मेदारी को टाला और ठुकराया था और सभाओं की मेजबानी पर ध्यान देने के लिए सुसमाचार के काम को दरकिनार करना चाहा था। पीछे मुड़कर देखने पर, यह बहुत बड़ी भूल लगती है। मुझे नूह की कहानी याद आ गई : नूह ने परमेश्वर के वचन सुने तो उसके मन में कोई शंका नहीं थी, उसने अपने हितों के बारे में नहीं सोचा। वह बस परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहता था, उसकी इच्छा और उसके आदेश के मुताबिक नाव बनाना चाहता था। उसने सुसमाचार साझा करने में भी कोई कसर न छोड़ी। मुझे नूह की कहानी बहुत प्रेरणादायक लगी। मैं नूह की तरह ही परमेश्वर की व्यवस्थाओं के आगे समर्पण करके अपना कर्तव्य निभाना चाहती थी। मैंने सत्य के इस पहलू को समझने और अपनी भ्रष्टता को पहचानने में मदद के लिए सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद किया। मैं प्रायश्चित के लिए तैयार थी, अब मुझे चाहे कोई भी काम सौंपा जाए, मैं सुसमाचार जरूर साझा करूंगी!
इसके बाद, मैं सुसमाचार साझा करने पर ध्यान देने लगी। मुझे कोई खास अनुभव नहीं था, और अलग-अलग तरह के लोगों के साथ संगति करना मेरे लिए काफी चुनौतीपूर्ण था। वे मुझे ठुकरा सकते थे और मैं खराब मौसम में फँसकर तरह-तरह की मुश्किलों का सामना कर सकती थी पर मैं इसे छोड़ नहीं सकती थी। मुझे परमेश्वर के वे वचन याद आए, जिनमें कहा गया है : "तुम चाहे जिस भी कर्तव्य में लगे हो, और चाहे तुम्हारे काम के साथ जो भी पेशा या विशिष्टता जुड़ी हो, तुम्हारे कार्य के सभी नतीजों के सबसे महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक है मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के कार्य के सुसमाचार का प्रसार करने और उसकी गवाही देने में सक्षम होना। एक सृजित प्राणी को कम से कम इतना तो करना ही चाहिए" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद एक : वे लोगों का दिल जीतना चाहते हैं)। इस अंश से मुझे बहुत प्रेरणा मिली। मुझे जो कर्तव्य सौंपा गया था, वह परमेश्वर द्वारा दी गई एक जिम्मेदारी थी। मैं समर्पण के लिए तैयार थी। इसमें कुछ मुश्किलें आ सकती थीं, लेकिन मैं जानती थी कि अगर मैं ईमानदारी से प्रार्थना करूंगी तो परमेश्वर मुझे राह दिखाएगा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?