बोझ परमेश्वर का वरदान होती है
कुछ ही समय पहले कलीसिया के चुनाव में मुझे अगुआ चुना गया। सुनते ही मैं चौंक उठी, यकीन करने की हिम्मत नहीं हो रही थी। मैं, और अगुआ? भला कैसे? कलीसिया के अगुआ को भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश के मसलों को सुलझाने के लिए सत्य के बारे में संगति कर पाना चाहिए, मगर मैं छोटी थी, जीवन का मेरा अनुभव कम था। यही नहीं, मैंने पहले कभी अगुआ का पद भी नहीं संभाला था। क्या मैं इस काम के काबिल थी? इस बात ने मुझे बहुत समय तक परेशान किया, किसी भी नज़रिये से देखती, मुझे लगता कि मुझमें वह काम करने की काबिलियत नहीं है, मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकती। मैंने इसे स्वीकार कर लिया और फिर काम अच्छा नहीं किया, तो क्या इससे परमेश्वर के घर और मेरे भाई-बहनों की हानि नहीं होगी? साथ ही, सब लोग मेरा असली चेहरा देख लेंगे, मेरी असलियत जान लेंगे, इससे मेरा बहुत अपमान होगा। मैंने ढेर सारे बहाने बनाये, मगर एक बहन ने मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़कर सुनाया : "परमेश्वर के वचनों को खाना और पीना, प्रार्थना का अभ्यास करना, परमेश्वर के बोझ को स्वीकार करना, और उसे स्वीकार करना जो उसने तुम्हें सौंपा है—ये सब मार्ग को प्राप्त करने के उद्देश्य से हैं। परमेश्वर द्वारा सौंपा गया जितना अधिक बोझ तुम्हारे ऊपर होगा, तुम्हारे लिए उसके द्वारा पूर्ण बनाया जाना उतना ही आसान होगा। ... यदि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रखता है, तो तुम कलीसिया के लिए वास्तविक बोझ विकसित करोगे। वास्तव में, इसे कलीसिया के लिए बोझ उठाना कहने की बजाय, यह कहना चाहिए कि तुम खुद अपने जीवन के लिए बोझ उठा रहे हो, क्योंकि कलीसिया के प्रति बोझ तुम इसलिए पैदा करते हो, ताकि तुम ऐसे अनुभवों का इस्तेमाल परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के लिए कर सको" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पूर्णता प्राप्त करने के लिए परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रखो)। परमेश्वर के ये वचन सुनकर मुझे थोड़ा समझ आया कि परमेश्वर ने मुझे ये काम सौंपकर एक मौका दिया है कि मैं खुद को प्रशिक्षित कर सकूँ। हालांकि मुझमें बहुत कमियाँ थीं, मगर उस कर्तव्य को निभाने का अर्थ सिर्फ दूसरों की अगुआई करना और दूसरों की समस्याएँ सुलझाना ही नहीं था, बल्कि अपने कर्तव्य के जरिये सत्य में प्रवेश करने की अपनी एकाग्रता को बढ़ाने के बारे में भी था। अव्वल तो यह कि अपनी खुद की समस्याओं के समाधान के लिए मुझे सत्य को खोजना होगा; मुश्किलें दूर करने में भाई-बहनों की मदद करने के लिए अपने व्यावहारिक अनुभव का उपयोग करने का बस यही एक रास्ता होगा। परमेश्वर का मुझे यह काम सौंपना मुझे एक बोझ देना भी था। कलीसिया की अगुआ के रूप में, मुझे कलीसिया के हर प्रकार के मामलों पर ध्यान देना होगा, बहुत-से लोगों, चीज़ों से निपटना होगा, और बहुत-सी समस्याओं पर काम करना होगा, फिर समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य का प्रयोग करना सीखना होगा। इसका मतलब, सत्य समझने में मैं तेज़ी से तरक्की कर सकूंगी और मेरे परमेश्वर द्वारा पूर्ण होने की संभावना बढ़ेगी। मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश भी याद आया : "यदि तुम परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के अवसर को नहीं ढूँढते हो, और यदि तुम पूर्णता की अपनी खोज में बाकियों से आगे रहने का प्रयास नहीं करोगे, तो तुम अंततः पछताओगे। यह समय ही पूर्ण बनाए जाने का श्रेष्ठ अवसर है; यह बहुत ही अच्छा समय है। यदि तुम गंभीरतापूर्वक परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने की कोशिश नहीं करोगे, तो उसका काम पूरा हो जाने पर, बहुत देर हो जाएगी—तुम अवसर से चूक जाओगे। तुम्हारी अभिलाषा कितनी भी बड़ी हो, यदि परमेश्वर ने काम करना बंद कर दिया है तो फिर तुम चाहे कितने भी प्रयास कर लो, तुम कभी भी पूर्णता हासिल नहीं कर पाओगे" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पूर्णता प्राप्त करने के लिए परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रखो)। मैं जान सकी कि कर्तव्य निभाने का ये मौका दरअसल परमेश्वर द्वारा पूर्ण किये जाने का मौका था। अब परमेश्वर का कार्य अंतिम चरण में है, इसलिए अपना कर्तव्य निभाने के लिए अब ज़्यादा समय नहीं बचा है। उस आदेश को मना करना मतलब बाद में चाहूँ तो भी यह मौका मुझे नहीं मिल पायेगा। पछताने का समय भी बीत चुका होगा। मुझे लगा कि मैं मुश्किलों में डूबकर ज़िंदगी जीती नहीं रह सकती, न ही सिर्फ अपनी शोहरत और रुतबे के बारे में सोचती रह सकती हूँ, मुझे यह स्वीकारना और समर्पण करना होगा। मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की, अभ्यास का अवसर देने के लिए धन्यवाद दिया। मैं परमेश्वर के सहारे रहने और पूरी लगन से कर्तव्य निभाने को तैयार थी।
मुझे तब अचरज हुआ जब नया कर्तव्य संभालने के कुछ ही दिन बाद मेरे रास्ते में रोड़ा आ पड़ा। एक सभा में, हमारे वरिष्ठ अगुआ एक उपयाजक को ले आये, जो लगभग दो वर्ष से विश्वासी थे, उनमें थोड़ी काबिलियत थी पर वे बहुत ज़्यादा घमंडी थे। अपने कामकाज में वे तानाशाह थे, कभी किसी से कोई चर्चा नहीं करते थे। उनके कारण परमेश्वर के घर के कार्य को थोड़ा नुकसान हुआ। अगुआ ने हम लोगों से पूछा कि इस किस्म के इंसान के बारे में हम क्या सोचते हैं। मेरा ख़याल था कि इतना घमंडी इंसान जो भाई-बहनों के साथ मिल-जुल कर काम नहीं कर सकता, वह उपयाजक होने के लायक ही नहीं है, उसे बर्खास्त कर देना चाहिए। मैंने अपनी राय दी। लेकिन अगुआ ने बाद में जो संगति की, उससे मैं जान सकी कि यह उपयाजक कम समय से विश्वासी हैं, उनमें थोड़ी योग्यता है, मगर उनमें अत्यधिक घमंड है; बहरहाल, अगर वह सत्य को स्वीकार कर पाएँ, तो उन्हें प्रशिक्षित किया जा सकता है, मदद और सहायता के लिए उन्हें सत्य के बारे में और संगति की ज़रूरत है। उन्हें उजागर कर उनसे निपटा भी जा सकता है, लेकिन उन्हें यूं ही बर्खास्त कर हटा देना बिलकुल अस्वीकार्य है। हाँ। पहले-पहल मुझे लगा कि भले ही मेरा नज़रिया गलत था और मुझे थोड़ी शर्मिंदगी झेलनी पड़ी, मगर मैं लोगों के साथ उचित रूप से पेश आने का सिद्धांत समझ पाई, इसलिए कुलमिलाकर यह एक अच्छी बात रही। लेकिन बाद में, मुझे पता चला कि कलीसिया के दूसरे अगुआओं को पहले से ही इस बात की थोड़ी समझ थी, और उनके मुकाबले वाकई मुझमें कमी थी। सत्य के बारे में मेरी समझ सतही थी, मुझमें समझ नहीं थी, और मैं दूसरों से सिद्धांत अनुसार पेश नहीं आती थी। क्या वाकई मुझमें अगुआ के गुण हैं? एक अगुआ का काम करने के लिए सत्य की एक निश्चित समझ और हर किस्म के लोगों के बारे में अंतर्दृष्टि होनी चाहिए। इसके लिए ज़रूरत होती है कलीसिया में हर किस्म के व्यक्ति के लिए सही नज़रिया जानने की। लेकिन सच्चाई तो यह थी कि मुझमें ये गुण थे ही नहीं। इसके बारे में सोचने पर मुझे लगा कि मुझे यह काम नहीं करना चाहिए। इसके अलावा, कर्तव्य निभाते हुए मुझे कुछ ही दिन हुए थे, लेकिन मेरा काम बढ़ता जा रहा था, मुझे कुछ मुश्किलें भी हुईं। लगा कि यह कर्तव्य मेरे लिए बहुत थकाऊ और दूभर होगा। उस शाम, मेरे दिल में हलचल मची हुई थी, मैं सोच रही थी कि सभी अगुआओं के बीच ज़रूर मैं ही सबसे औसत हूँ। अपनी अगुआई में इतनी जल्दी मैंने गलती कर डाली—हमारे वरिष्ठ अगुआ ने मेरी असलियत जान ली होगी, समझ लिया होगा कि मेरा आध्यात्मिक कद छोटा और काबिलियत कम है, और मुझमें समझ नहीं है। वे सोचेंगे कि मुझमें विकसित करने लायक कोई योग्यता नहीं है। भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे कहेंगे कि मुझमें अंतर्दृष्टि है ही नहीं, मुझे एक अगुआ के रूप में चुनना एक गलती थी? इस बारे में मैं जितना सोचती, मुझे उतना ही लगता कि मैं अगुआ के रूप में मुंह दिखाने लायक नहीं हूँ। सोचने लगी कि थोड़ी समझदारी दिखा कर जल्दी-से-जल्दी अपने पद से इस्तीफा दे दूँ। मगर, उस ख़याल ने मुझे परेशान कर डाला। आदेश को स्वीकार करने के तुरंत बाद, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर संकल्प लिया था, इसलिए अगर मैं लापरवाही से उसे किनारे फेंक दूं तो क्या यह परमेश्वर से धोखा नहीं होगा? उस रात मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और अपनी दुविधा साझा की, उससे विनती की कि वह मुझे खुद को जानने का रास्ता दिखाये, ताकि जान सकूँ कि मैं इसके पार कैसे लगूं।
अगली सुबह, जब मैं परमेश्वर के दैनिक वचन पढ़ रही थी, तब मैंने अय्यूब के बारे में ऐसा कुछ पढ़ा जिसने मुझे वाकई प्रेरित किया : "अपनी प्रतिष्ठापूर्ण हैसियत और रुतबे के बावज़ूद, उसने इन चीज़ों से न कभी प्रेम किया था और न ही कभी उन पर ध्यान दिया था; उसने परवाह नहीं की कि दूसरे उसकी प्रतिष्ठा को कैसे देखते हैं, न ही वह अपने कार्यकलापों और आचरण का अपनी प्रतिष्ठा पर कोई नकारात्मक प्रभाव पड़ने या न पड़ने के विषय में चिंतित था; वह प्रतिष्ठा के लाभों में लिप्त नहीं हुआ, न ही उसने हैसियत और प्रतिष्ठा के साथ आने वाली महिमा का आनंद उठाया। उसने केवल यहोवा परमेश्वर की नज़रों में अपने मूल्य और अपने जीवन जीने के महत्व की परवाह की। अय्यूब का सच्चा आत्म ही उसका सार था : वह प्रसिद्धि और सौभाग्य से प्रेम नहीं करता था, और वह प्रसिद्धि और सौभाग्य के लिए नहीं जीता था; वह सच्चा, और शुद्ध और असत्यता से रहित था" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ पायी कि हालांकि अय्यूब का स्थान बहुत ऊंचा था, वह पूरब के लोगों में सबसे महान था, मगर उसने कभी परवाह नहीं की कि दूसरे उसे किस नज़र से देखते हैं या क्या सोचते हैं। जब परीक्षण में उसके पूरे शरीर पर फोड़े पड़ गए, तो राख की ढेर पर बैठ ठीकरे से अपने शरीर को रगड़ते हुए उसने इसकी फ़िक्र नहीं की कि क्या उसके रुतबे और ओहदे पर इसका बुरा असर होगा। उसके आस-पास के लोगों ने उसका मखौल भी उड़ाया, पर उसने इसे दिल पर नहीं लिया। अय्यूब को शोहरत और रुतबे का लालच नहीं था—उसके लिए बस यही मायने रखता था कि परमेश्वर उसकी करनी को कैसे देखेगा, क्या उसका काम परमेश्वर को संतुष्ट कर उसकी स्वीकृति पाएगा इसने मुझे आत्मचिंतन के लिए प्रेरित किया : मैं किसकी परवाह करती थी? मैं इतनी परेशान क्यों थी? मेरे लिए सबसे अहम बात यह थी कि मेरी कथनी और करनी का, मेरी शोहरत और रुतबे पर क्या असर हुआ। अभी हाल का वह अनुभव एक अहम उदाहरण था—मेरी कमज़ोरियाँ सामने थीं, मैं नहीं जानती थी कि सिद्धांतों के आधार पर लोगों से कैसे पेश आऊँ। मगर मैं बस यही सोच रही थी कि क्या अगुआ मुझे नीची नज़र से देखेंगे, क्या भाई-बहन मुझे चुनकर पछता रहे होंगे। मैंने एक बार भी नहीं सोचा कि परमेश्वर की इच्छा क्या है, मुझे क्या सबक लेना चाहिए, उस स्थिति से कौन-सा सत्य हासिल करना चाहिए। मेरा पूरा ध्यान तमाम गलत चीज़ों पर था। मैं सिर्फ अपनी शोहरत और रुतबे को बनाये रखने के लिए परमेश्वर द्वारा सौंपे गये आदेश को छोड़ना चाहती थी। मैं समझ गयी कि मैं बहुत ज़्यादा विद्रोही हूँ, बहुत ज़्यादा कृतघ्न हूँ।
बाद के आत्मचिंतन में, मैंने सोचा कि उस गलती से मुझे इतनी पीड़ा क्यों हुई, इतनी कि मैं अब अपना कर्तव्य ही नहीं निभाना चाहती थी। यह कौन-सा स्वभाव था जो मुझ पर काबू किये हुए था? फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "मसीह-विरोधी किस्म के लोग विश्वासघाती और धूर्त होते हैं। वे संभलकर बोलते हैं, कुछ भी प्रकट नहीं करते, और यदि वे कोई भेद खोलने वाली बात कह बैठते हैं, तो वे इसका निवारण कर लेते हैं। वे इसका निवारण कैसे करते हैं? शायद वे तुरंत ही इसका निवारण नहीं कर पाते, ऐसे में वे न दिन में खा पाते हैं, न रात को सो पाते हैं; उठते-बैठते वे यही सोचते रहते हैं : 'मैं अपनी प्रतिष्ठा, अपने नाम को कैसे बचाऊँगा? मैं अपने पद की रक्षा कैसे करूँगा? मैं दूसरों को मुझे नीची दृष्टि से देखने और मुझे पूरी तरह से पहचान जाने से कैसे रोकूँगा?' उनके सभी विचार इन्हीं मामलों पर अटके रहते हैं। कभी-कभी, वे थोड़े वफादार हो सकते हैं या कुछ कीमत चुका सकते हैं, और ऊपर से सही लगने वाले काम कर सकते हैं, फिर भी इन कार्यों के पीछे के राज़ को वे कभी भी साझा नहीं करते। एक मसीह-विरोधी के लिए उसकी हैसियत और प्रतिष्ठा एक परियोजना होती है, जिसे वह तभी शुरू कर देता है जब वह चीजों को समझना शुरू करता है और वह जीवन-भर यही करता रहता है। यह एक मसीह-विरोधी का प्रकृति-सार है। यदि, किसी दिन, वे कोई भारी गलती करके खुद को शर्मिंदा कर बैठें, दूसरों को यह देखने का अवसर दे दें कि वे भी गलत, दोषपूर्ण या अयोग्य हैं, तो वे इसे एक अच्छी घटना नहीं मानते, और उन्हें इस मामले से यंत्रणा पहुँचती है, और यह बात उनके दिमाग में घूमती रहती है, और वे बेचैन हो जाते हैं। वे न सो पाते हैं, न खा पाते हैं, और अक्सर विचलित रहते हैं। जब दूसरे उनसे पूछते हैं कि वे विचलित क्यों हैं, तो वे कहते हैं कि उनके कर्तव्य ने उन्हें इतना व्यस्त रखा है कि वे सो ही नहीं पाए, जो कि सच्चाई से कोसों दूर होता है—वे दूसरों को धोखा देने की हर संभव कोशिश करते हैं। वे मन में क्या सोच रहे होते हैं? 'मैंने भारी भूल की और खुद को शर्मिंदा किया। मैं खुद को दोषमुक्त कैसे करूँ? दूसरे के यह देखे बिना कि मैं क्या करने की कोशिश कर रहा हूँ, मैं खुद को दोषमुक्त करने के लिए क्या कर सकता हूँ? इस मामले की सफाई देने के लिए मुझे किस तरीके, किस लहजे का इस्तेमाल करना चाहिए? मैं कैसे बोलूँ कि दूसरे यह न समझ पाएँ कि मैं मामले की सफाई दे रहा हूँ?' वे इस मामले पर इसी तरह बड़े विस्तार से सोच-विचार करते हैं, हर कोण से इतना सोचते हैं कि इस मगजपच्ची में खाना-पीना ही भूल जाते हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग दो)')। परमेश्वर के वचनों पर सोच-विचार कर मैं समझ सकी कि मेरा बर्ताव परमेश्वर द्वारा उजागर किये गए उन मसीह-विरोधियों के जैसा है जो सिर्फ अपनी शोहरत और रुतबे के बारे में सोचते हैं। कुछ गड़बड़ी करने के कारण मैं शर्मिंदा हुई और मेरे भाई-बहनों ने मेरी कमज़ोरी जान ली—मुझे यह बड़ा अपमानजनक लगा, इसलिए मैं यही सोचती रहती कि वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे। दिन में कर्तव्य निभाने के लिए मैं शांत नहीं हो पाती, और रात में नींद उड़ जाती। यह ख़याल मुझे चौबीसों घंटे खाता रहा| दूसरे सब देख चुके थे, इसलिए स्थिति ठीक करने का मेरे पास कोई तरीका नहीं था। मैं अपनी प्रतिष्ठा वापस नहीं पा सकती थी, मैं कर्तव्य निभाने की इच्छा पूरी तरह खो चुकी थी, लग रहा था कि अगर मैं काम छोड़ दूं, तो कम-से-कम मुझे असफल, और खराब काम करनेवाली तो नहीं कहा जाएगा, न ही लोग मुझे नीची नज़र से देखेंगे। मुझे परमेश्वर के वचनों के इस अंश की भी याद आयी : "एक मसीह-विरोधी के लिए उसकी हैसियत और प्रतिष्ठा एक परियोजना होती है, जिसे वह तभी शुरू कर देता है जब वह चीजों को समझना शुरू करता है और वह जीवन-भर यही करता रहता है। यह एक मसीह-विरोधी का प्रकृति-सार है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग दो)')। इससे मैं समझ पायी कि मसीह-विरोधी का एक मुख्य लक्षण होता है, सिर्फ अपनी ही शोहरत और रुतबे के लिए बोलना और काम करना। यही वे चीज़ें हैं जिनके पीछे भागने और काम करने में वे अपना पूरा जीवन लगा देते हैं। मसीह-विरोधी शोहरत और रुतबे को सब चीज़ों से ऊपर रखते हैं। मैं समझ गयी कि मेरा भी यही वर्णन है। अपने स्कूल के दिनों में, मैं हमेशा अपनी क्लास में अव्वल रहना चाहती थी, ताकि मेरे शिक्षक मुझे अच्छा समझें और मेरा परिवार और मित्र मेरी प्रशंसा करें। इतने वर्ष परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाते हुए, मुझे इस सिद्धांत का पता था कि शोहरत और रुतबे के पीछे भागने का कोई फायदा नहीं है, इन चीज़ों का होना सत्य का होना बिलकुल नहीं है। ऊपर से तो मैं ऐसी चीज़ों के पीछे नहीं भागती थी। मगर, गहराई में मैं अभी भी प्रतिष्ठा से प्यार करती थी, अपने हर काम में मैं अच्छाकरना चाहती थी, ताकि दूसरे मेरी प्रशंसा और आदर करें। जब मैंने कलीसिया की अगुआ का पद स्वीकार किया, तो मुझे उम्मीद थी कि मैं "अगुआ" पद के लायक बन सकूंगी, वह पद संभालते ही सब लोग मेरी प्रशंसा करेंगे। जब मैं किसी चीज़ में असफल हो गयी, तो मैंने सोचा कि भाई-बहन मुझे नीची नज़र से देखेंगे और मेरी शोहरत और रुतबे पर बुरा असर पडेगा, इसलिए मैं नहीं चहती थी कि वह कर्तव्य करती रहूँ। मैं समझ गयी कि मैं बस दूसरों के दिलों में बनी अपनी छवि संजोती थी, बजाय इसके कि कर्तव्य निभाने के मौके को संजोऊँ। जब मेरी शोहरत और रुतबे जोखिम में पड़े, तो मैंने परमेश्वर द्वारा सौंपे गये कर्तव्य को छोड़ना चाहा। अपनी शोहरत और रुतबे को सब चीज़ों से ऊपर माना। मैं समझ गयी कि ऐसा ही मसीह-विरोधी स्वभाव मेरी रगों में था, मैं मसीह-विरोधी के पथ पर चल रही थी। मैंने सोचा, आखिर भाई-बहन मेरा आदर क्यों करें? मेरे पास सत्य नहीं था, मुझे कोई व्यावहारिक अनुभव नहीं था, मेरी काबिलियत कम थी, और अभी भी मेरे मन में रुतबे का ख़याल बना हुआ था। मैं पूरी तरह शैतानी स्वभाव के काबू में थी, पर अभी भी चाहती थी कि दूसरे मुझसे प्यार करें! मैं कितनी बेशर्म थी!
उस समय, मैं भी सत्य के इस पहलू के बारे में सोचाती और उसे खोजती थी। परमेश्वर के वचनों का एक और उपकारी अंश था जो मैंने पढ़ा : "एक सृजित प्राणी के रूप में, जब तुम सृष्टिकर्ता के सामने आते हो, तो तुम्हें अपना कर्तव्य निभाना ही चाहिए। यही करना उचित है। यह देखते हुए कि लोगों को सृजित प्राणियों के कर्तव्य को निभाना ही चाहिए, सृष्टिकर्ता ने फिर से मानवजाति के बीच और भी बड़ा कार्य किया है। उसने मानवजाति पर कार्य का अगला कदम निष्पादित किया है। और वह कौन-सा कार्य है? वह मानवजाति को सत्य प्रदान करता है, जिससे उन्हें अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए परमेश्वर से सत्य हासिल करने, और इस प्रकार अपने भ्रष्ट स्वभावों को दूर करने और शुद्ध होने का अवसर मिलता है। इस प्रकार, वे परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट कर पाते हैं और जीवन में सही मार्ग अपना पाते हैं, और अंततः, वे परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने, पूर्ण उद्धार प्राप्त करने, और शैतान के दुखों के अधीन न रहने में सक्षम हो जाते हैं। यही वह मुख्य प्रभाव है जो परमेश्वर चाहता है कि अपने कर्तव्य का पालन करके मानवजाति अंततः प्राप्त करे। इसलिए, अपना कर्तव्य निभाते हुए, तुम केवल उस मूल्य और महत्व का आनंद ही नहीं लेते, जो एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने से तुम्हें मिलते हैं। इसके अलावा, तुम शुद्ध किए और बचा लिए जाते हो, और अंततः, सृष्टिकर्ता के मुखमंडल के प्रकाश में रहने लगते हो। ... वर्तमान की बात करें तो, हर इंसान जो परमेश्वर के सामने आता और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाता है, परमेश्वर से वह पाता है जो इंसानों के बीच सबसे मूल्यवान और सुंदर है। मानवजाति का कोई भी सृजित प्राणी सृष्टिकर्ता के हाथों मात्र संयोग से ऐसे आशीष प्राप्त नहीं कर सकता। ऐसी खूबसूरत और बड़ी चीज को मसीह-विरोधियों का किस्म एक लेन-देन के रूप में विकृत कर देता है, जिसमें वह सृष्टिकर्ता से मुकुटों और पुरस्कारों की माँग करता है। इस प्रकार का लेन-देन सबसे सुंदर और धार्मिक चीज को सबसे बदसूरत और दुष्ट चीज में बदल देता है। क्या मसीह-विरोधी ऐसा ही नहीं करते? इससे आकलन करते हुए, क्या मसीह-विरोधी दुष्ट हैं? वे वास्तव में काफी दुष्ट हैं, और यह उनकी बुराई के केवल एक पहलू का प्रकटीकरण है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग छह)')। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते समय मैंने महसूस किया कि जब एक सृजित प्राणी को सृजनकर्ता के सामने आकर, परमेश्वर के प्रबंधन कार्य के दायरे में कर्तव्य निभाने का सौभाग्य मिलता है, तो यह सबसे सुंदर और धार्मिक होता है। मैंने सोचा, परमेश्वर ने क्यों कहा कि अपना कर्तव्य निभाना सबसे सुंदर और धार्मिक होता है? ऐसा इसलिए कि परमेश्वर बिना स्वार्थ के हमें अनेक सत्य प्रदान करता है, वह उसके घर में हमें अपना कर्तव्य निभाने देता है, और वह हमें खुद को प्रशिक्षित करने के अवसर देता है। अपना कर्तव्य निभाते हुए हम सत्य समझ कर उसे हासिल कर सकते हैं, और हम धीरे-धीरे अपने जीवन में बढ़ सकते हैं। न सिर्फ हम अपने भ्रष्ट स्वभाव को खोज कर, उसके बारे में जान कर उसे सुधार सकते हैं, बल्कि हम परमेश्वर के बारे में सच्ची समझ भी हासिल कर सकते हैं, और परमेश्वर से प्रेम करने और बुराई से दूर रहने के रास्ते पर चल सकते हैं, जिससे आखिरकार हमारे लिए परमेश्वर को प्राप्त होना संभव हो जाता है। परमेश्वर हमें अपना कर्तव्य करने देता है ताकि वह हमें सत्य और जीवन प्रदान करे—यह हमें शुद्ध करने और बचाने के लिए है, वह बदले में किसी चीज़ की आशा नहीं करता। सृजित प्राणियों के रूप में, सच्चे दिल से ईमानदारी के साथ अपना कर्तव्य निभाते हुए हमें परमेश्वर के सच्चे इरादों को देखना और समझना चाहिए, पूरे दिल से कर्तव्य निभाना चाहिए, ताकि हम परमेश्वर के प्रेम को चुकता कर सकें। सृजनकर्ता और सृजन के बीच, परमेश्वर ही स्वयं पूरी तरह से समर्पित है, जबकि इंसानों को चाहिए कि सच्चाई से समर्पण कर परमेश्वर को प्रतिफल दें। आखिरकार हम परमेश्वर से मिलनेवाला सत्य हासिल करते हैं, शैतान से आनेवाले भ्रष्ट स्वभावों को त्यागते हैं, इंसान की तरह जीवन जीते हैं, और परमेश्वर के हृदय को सुकून पहुँचाने लायक बनते हैं। यह एक मनोहारी रिश्ता है जोकि अत्यंत शुद्ध है। इसके अलावा, एक सृजित प्राणी जो सृजनकर्ता के आदेश को स्वीकारता है और अपना कर्तव्य निभाता है, वह वो बच्चा होता है जिसका अपने माता-पिता से संतानीय रिश्ता होता है। यह सही और उचित है; यह सबसे बुनियादी चीज़ है जो करना चाहिए। अपने कर्तव्य में, हम अपना उद्यम नहीं चला रहे हैं, बल्कि सुसमाचार फैलाने में अपनी भूमिका निभा रहे हैं, ताकि ज़्यादा-से-ज़्यादा लोग परमेश्वर के सामने आयें। इस पृथ्वी पर यह सबसे धार्मिक कार्य है। लेकिन विवेक के विपरीत, ठीक इसी अत्युत्तम धार्मिक बात को मैंने तोड़-मरोड़ कर बुरी, बहुत भद्दी चीज़ में बदल डाला। मैंने इसे लेन-देन और विनिमय समझा जिसमें शायद मुझे रुतबा मिले या न मिले। मैं यह करने को तैयार थी अगर इससे मेरा रुतबा बढ़ जाए, वरना, मैं मना करके, उसे किसी दूसरे के हवाले कर देती। मैं परमेश्वर की उन्नति और अनुग्रह का लाभ उठाकर अपने खुद के कुटिल लक्ष्य हासिल करना चाहती थी। मैंने देखा कि मैं कितनी भयानक दुष्ट थी, मैं परमेश्वर के सृजित प्राणियों में से एक होने लायक भी नहीं थी। अपने कर्तव्य के प्रति अपने रवैये के बारे में सोच कर, मैं पश्चाताप से भर गयी। मैं प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आयी : "हे परमेश्वर, मेरी कमजोर काबिलियत या जीवन के मेरे दयनीय अनुभव के कारण आप मुझसे दूर नहीं गये। आपने तब भी मुझे अभ्यास करने का एक मौक़ा दिया, मेरे लिए यह एक आशीष था। फिर भी, मैंने अपने कर्तव्य का इस्तेमाल आपसे सौदे करने के लिए किया। मैं बहुत दुष्ट हूँ! हे परमेश्वर, मैं अब अपनी निजी शोहरत और रुतबे के बारे में सोचना नहीं चाहती, बल्कि अब मैं इस अवसर को सच में संजोना चाहती हूँ, इस कर्तव्य को निभाने में अपना सब-कुछ लगा देना चाहती हूँ, ताकि मैं आपको निराश न करूं।" प्रार्थना के बाद, मुझे बहुत आराम मिला, बहुत सुकून मिला। पीछे मुड़कर देखती हूँ, उस पद पर आते ही विफलता का अनुभव करना और अपमानित होना ऊपर से तो बुरा दिखता है, मगर दरअसल यह एक अच्छी बात थी। परमेश्वर मेरे प्रयास के लक्ष्यों और दिशा में सुधार ला रहे थे। मेरी उम्मीद थी कि अपना पद संभालते ही मैं बढ़िया काम करनेवाली एक बहुत अच्छी अगुआ बन जाऊंगी, मुझे भाई-बहनों की शाबाशी और प्रशंसा हासिल होगी। लेकिन इस अनुभव ने मुझे दिखा दिया कि शोहरत और रुतबे के पीछे भागना गलत रास्ता है, यह विफलता का रास्ता है। मैंने समझ लिया कि उस कर्तव्य को निभाते समय मेरी कमियां उजागर हो सकती हैं, मुझे अपनी विफलताओं को स्वीकार करने और सच्चाई का सामना करने की ज़रूरत है, फिर खुद को सत्य से लैस करने के लिए कड़ी मेहनत करनी है, ताकि मैं कदम-दर-कदम आगे बढ़ सकूं, कर्तव्य अच्छे से निभा कर परमेश्वर को संतुष्ट कर सकूं। वरिष्ठ अगुआओं की सराहना और भाई-बहनों से प्रशंसा पाने में नहीं लगे रहना चाहिए। हालांकि मेरी यह कमज़ोरी प्रकट हो चुकी थी कि मुझे सिद्धांतों के अनुसार लोगों से पेश आना नहीं आता, यानि कि मुझे यह स्वीकारने की ज़रूरत थी कि मुझमें सत्य की वास्तविकता नहीं है, मुझे सबक सीखना और सिद्धांतों को समझना चाहिए। उस एक असफलता से मुझे इतना अधिक डरने की ज़रूरत नहीं थी। सत्य का अभ्यास करना और भविष्य में ऊंचा उठना ही ज़रूरी है। परमेश्वर के वचनों का एक और अंश मेरे मन में कौंधा : "अपना कर्तव्य पूरा करने की प्रक्रिया के माध्यम से मनुष्य धीरे-धीरे बदलता है, और इसी प्रक्रिया के माध्यम से वह अपनी वफ़ादारी प्रदर्शित करता है। इस प्रकार, जितना अधिक तुम अपना कार्य करने में सक्षम होगे, उतना ही अधिक तुम सत्य को प्राप्त करोगे, और उतनी ही अधिक तुम्हारी अभिव्यक्ति वास्तविक हो जाएगी" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। परमेश्वर के वचनों से मैंने यह समझा कि अगुआ का कर्तव्य संभालने के लिए यह ज़रूरी नहीं कि कोई तमाम सत्य समझे और पर्याप्त कद हासिल करे। इसके अलावा, शुरू-शुरू में कोई भी व्यक्ति अगुआ के काम के लायक नहीं होता। परमेश्वर हमें हमारे कर्तव्य के जरिये प्रशिक्षित करता है, और इस प्रशिक्षण के जरिये ही परमेश्वर हमारी अगुआई कर हमें पूर्ण करता है। अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया के दौरान संभव है हम बहुत-से दोष प्रकट करें, कुछ असफलताओं और अवरोधों का सामना करें, हमारी काट-छाँट और निपटान भी होगा। सत्य खोजकर, धीरे-धीरे सिद्धांतों पर अपनी पकड़ मज़बूत करके हम अपना आध्यात्मिक कद सुधार सकते हैं। इस दौरान, यह आम है कि हम कुछ बातों को न समझें या हासिल न कर पायें, या कुछ विफलताओं और बाधाओं का सामना करें। हमारे लिए इन सबसे होकर गुज़रना भी अनिवार्य है। मैंने महसूस किया कि अगर मैं परमेश्वर द्वारा पूर्ण किये जाने के इस अवसर को ठुकरा दूं तो यह मेरी मूर्खता होगी, सिर्फ इसलिए कि मैं शर्मिंदा और अपमानित होने से डरती थी, और इस कारण कर्तव्य नहीं निभाना चाहती थी। ऐसा सोचने से मुझे वाकई बहुत आजादी महसूस हुई। मैं जानती थी कि मेरी काबिलियत कमजोर है, मैं सत्य नहीं समझती थी, और मेरा जीवन-प्रवेश बहुत कम है, लेकिन मैं कड़ी मेहनत कर कीमत चुका सकती हूँ और सत्य के लिए प्रयास कर सकती हूँ। भले ही उस समय मैं सभी अगुआओं में सबसे कमज़ोर थी, शायद आगे किसी दिन मैं कुछ तरक्की कर सकूं। मैंने नूह के बारे में सोचा, जिसने पहले कोई जहाज तो नहीं बनाया था, मगर दिल से वह सच्चा और समर्पित था, उसने मार्गदर्शन के लिए परमेश्वर पर भरोसा किया। वह 120 वर्ष तक प्रयास करता रहा, आखिरकार उसने जहाज बना लिया, परमेश्वर का आदेशपूरा किया। उस समय, न तो उसके पास परमेश्वर के इतने वचन थे, न ही बहुत-से लोग उसकी मदद कर रहे थे। लेकिन परमेश्वर के मार्गदर्शन अपने अगुआ के निर्देश , और इतने सारे भाई-बहनों से मिल रहे सहयोग और समर्थन के साथ, मुझे अपने कर्तव्य की समस्याओं के बारे में शिकायत करने का क्या अधिकार है? इस तरह शिकायत करते रहने का मेरे पास कोई आधार नहीं है। इस विचार ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया : मैं अपना कर्तव्य किस तरह निभाऊं, ताकि मैं कुछ व्यावहारिक कार्य कर सकूं?
थोड़ी देर बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "परमेश्वर की इच्छा को तुम जितना अधिक ध्यान में रखोगे, तुम्हारा बोझ उतना अधिक होगा और तुम जितना ज्यादा बोझ वहन करोगे, तुम्हारा अनुभव भी उतना ही ज्यादा समृद्ध होगा। जब तुम परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रखोगे, तो परमेश्वर तुम पर एक दायित्व डाल देगा, और उसने तुम्हें जो काम सौंपें हैं, उनके बारे में वह तुम्हें प्रबुद्ध करेगा। जब परमेश्वर द्वारा तुम्हें यह बोझ दिया जाएगा, तो तुम परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते समय सभी संबंधित सत्य पर ध्यान दोगे। यदि तुम्हारे ऊपर भाई-बहनों की स्थिति से जुड़ा बोझ है तो यह बोझ परमेश्वर ने तुम्हें सौंपा है, और तुम प्रतिदिन की प्रार्थना में इस बोझ को हमेशा अपने साथ रखोगे। परमेश्वर जो करता है वही तुम्हें सौंपा गया है, और तुम वो करने के लिए तैयार हो जिसे परमेश्वर करना चाहता है; परमेश्वर के बोझ को अपना बोझ समझने का यही अर्थ है। इस बिंदु पर, परमेश्वर के वचन को खाते और पीते समय, तुम इस तरह के मामलों पर ध्यान केन्द्रित करोगे, और तुम सोचोगे कि मैं इन समस्याओं को कैसे सुलझा पाऊँगा? मैं अपने भाइयों और बहनों को मुक्ति और आध्यात्मिक आनंद प्राप्त करने के योग्य कैसे बना सकता हूँ? तुम संगति करते और परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते समय भी इन मुद्दों को हल करने पर ध्यान दोगे, तुम इन मुद्दों से संबंधित वचनों को खाने-पीने पर भी ध्यान दोगे। तुम उसके वचनों को खाते-पीते समय भी बोझ उठाओगे। एक बार जब तुम परमेश्वर की अपेक्षाओं को समझ लोगे, तो तुम्हारे मन में तुम स्पष्ट हो जाओगे कि तुम्हें किस मार्ग पर चलना है। यह पवित्र आत्मा की वह प्रबुद्धता और रोशनी है जो तुम्हारे बोझ का परिणाम है, और यह परमेश्वर का मार्गदर्शन भी है जो तुम्हें प्रदान किया गया है। मैं ऐसा क्यों कहता हूं? यदि तुम्हारे ऊपर कोई बोझ नहीं है, तब तुम परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते समय इस पर ध्यान नहीं दोगे; बोझ उठाने के दौरान जब तुम परमेश्वर के वचनों को खाते और पीते हो, तो तुम परमेश्वर के वचनों का सार समझ सकते हो, अपना मार्ग खोज सकते हो, और परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रख सकते हो। इसलिए, परमेश्वर से प्रार्थना करते समय तुम्हें अधिक बोझ माँगना चाहिए, और अधिक बड़े काम सौंपे जाने की कामना करनी चाहिए, ताकि तुम्हारे आगे अभ्यास करने के लिए और अधिक मार्ग हों, ताकि तुम्हारे परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने का और ज्यादा प्रभाव हो; ताकि तुम उसके वचनों के सार को प्राप्त करने में सक्षम हो जाओ; और तुम पवित्र आत्मा द्वारा प्रेरित किए जाने के लिए और भी सक्षम हो जाओ" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पूर्णता प्राप्त करने के लिए परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रखो)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ पायी कि अपने कर्तव्य को अच्छे से निभाने की कुंजी उसकी बोझ का भार उठाने में है, उससे पूरी तरह जुड़े रहने में है। जब मुझे अपने काम में, या भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश में मुश्किलें नज़र आयें, तो हर बार, मुझे उन समस्याओं को सुलझाने के लिए दिमाग लगाना चाहिए। अपनी बोझ के साथ परमेश्वर के वचनों को खाना-पीना व प्रार्थना करनी चाहिए, जब दिमाग में ये व्यावहारिक समस्याएँ लेकर मैं सत्य खोजूँगी, तो मेरे लिए पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन और प्रबुद्धता हासिल करना आसान हो जाएगा। उसके बाद से, सभाओं में, भाई-बहनों के निजी अनुभवों वाली संगतियों को मैंने दिल से सुनना शुरू कर दिया, फिर उनकी हालत और उनकी समस्याओं के बारे में सच्चा सोच-विचार करती, सोचती कि अपनी संगतियों में मैं परमेश्वर के वचनों के साथ उन्हें कैसे जोड़ सकती हूँ। जब कोई मसला मुझ पर हावी हो जाता, तो जिस बहन के साथ मैं निकटता से काम करती थी, उसके साथ चर्चा कर खोज में जुट जाती, ताकि समस्या को स्पष्ट रूप में समझ सकूं। हमारी सभाओं के लिए यह असरदार था। एक बार लंबे समय के विश्वासियों के साथ एक सभा में, मैं बहुत ज़्यादा बेचैन थी, मैं डर रही थी कि मेरी संगति में, समझ की कमी प्रकट हो जाएगी, और उनकी समस्याएँ सुलझ नहीं पाएंगी। मैं डर रही थी कि मैं खुद को शर्मिंदा कर लूंगी, हंसी की पात्र बन जाऊँगी, मेरी कम उम्र देख शायद वे सोचें, छोटी-सी लड़की और बातें बड़ी-बड़ी। इसलिए मैंने अपना मुंह बंद रखा। मैं मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना करती रही, उससे विनती करती रही कि मुझे रोकने वाली शोहरत और रुतबे की इन बंदिशों से आज़ाद होने का रास्ता दिखाये ताकि मैं खुलकर संगति कर सकूं। मुझे लगा कि मेरा रवैया धीरे-धीरे बदल रहा है, मुझे महसूस हुआ कि संगति, दूसरों की स्वीकृति पाने के लिए ऊंची-ऊंची प्रेरक बातें करना नहीं है, बल्कि यह एक सच्चा इंसान होने और अपनी क्षमता के अनुसार अपनी निजी समझ को साझा करना है। सभा चाहे किसी के भी साथ हो, हम सब परमेश्वर के सामने अपना कर्तव्य निभा रहे हैं, इसलिए चाहे मेरे बारे में कोई भी कुछ भी सोचे, मुझे अपनी ज़िम्मेदारियां निभानी हैं। अपना रवैया ठीक कर लेने के बाद, मैंने दिल से बहुत आज़ाद महसूस किया और मेरे विचार स्पष्ट हो गए। मैंने मसलों को स्पष्ट रूप से देखा और समझ गई कि मैं संगति में कुछ योगदान दे सकती हूँ। मुझे सच में लगा कि यह मेरे निजी आध्यात्मिक कद से नहीं, बल्कि परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन से आया है। यह ऐसा कुछ है जो मैं सिर्फ अपने बूते पर कभी भी हासिल नहीं कर सकती। उन अनुभवों के बाद, मुझे लगा कि मैंने थोड़ी तरक्की की है, मैं बहुत खुश थी कि मैंने कर्तव्य त्यागा नहीं। वरना, मुझे ये लाभ कभी भी हासिल नहीं होते। मुझे परमेश्वर के इन वचनों के बिल्कुल सच्चे होने पर और भी यकीन हो गया : "परमेश्वर की इच्छा को तुम जितना अधिक ध्यान में रखोगे, तुम्हारा बोझ उतना अधिक होगा और तुम जितना ज्यादा बोझ वहन करोगे, तुम्हारा अनुभव भी उतना ही ज्यादा समृद्ध होगा। जब तुम परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रखोगे, तो परमेश्वर तुम पर एक दायित्व डाल देगा, और उसने तुम्हें जो काम सौंपें हैं, उनके बारे में वह तुम्हें प्रबुद्ध करेगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पूर्णता प्राप्त करने के लिए परमेश्वर की इच्छा को ध्यान में रखो)। ये वचन ही सत्य हैं और बिल्कुल अकाट्य हैं। परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाने के बाद, मैं सही मायनों में उनकी अगुआई और आशीषों को समझ पायी।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?