कोई मुझसे आगे बढ़ जाए, मुझे यह डर क्यों सताए?
जून 2019 में मैंने परमेश्वर का नया कार्य स्वीकारा और कुछ ही समय बाद मैं नए लोगों का सिंचन करने लगी। कुछ नवागंतुकों ने मदद करने के बाद मुझे बहुत धन्यवाद दिया, इसलिए मुझे बहुत गर्व हुआ और मुझे लगा कि मैं सिंचन कार्य के लिए उपयुक्त हूँ। बाद में मैंने एक और नवागंतुक को लिया और शुरू में मैंने पूरी लगन से उसका सिंचन किया और साथ दिया। मैंने पाया कि वह चीजों को अच्छी तरह समझती थी, उसने बहुत तेजी से प्रगति की और सभाओं में भी अच्छी अनुभवात्मक समझ के साथ संगति करती थी। मुझे लगा कि वह जल्दी ही मुझसे आगे निकल जाएगी और जब ऐसा होगा तो अगुआ उसे सभी अन्य भाई-बहनों का सिंचन करने को कहेगा और मेरी जरूरत नहीं रह जाएगी। जब यह खयाल आया तो मैं अब उसका सिंचन ठीक से नहीं करना चाहती थी, इसलिए मैंने उसके साथ केवल कुछ बाहरी चीजों पर चर्चा की। एक बार अगुआ ने मुझसे उसके बारे में पूछा, उसने कहा, “हमें अभी और सिंचनकर्ता चाहिए, क्या तुम्हें लगता है कि वह विकसित करने के लिए उपयुक्त है?” मैं नहीं चाहती थी कि उसे विकसित किया जाए क्योंकि उसकी काबिलियत बहुत अच्छी थी और मुझे डर था कि वह भविष्य में कलीसिया अगुआ बन जाएगी और मुझसे भी ऊँचा पद पाएगी। इसलिए मैंने अगुआ से कहा, “इसमें मेरी समझ कम है। शायद तुम इस पर और गौर कर सको।” जब मैंने सुना कि अगुआ उससे बात करने गया था, तो मुझे बहुत ईर्ष्या हुई और डर लगा। मैं अक्सर मन में सोचती, “शायद उसे विकसित कर तरक्की दे दी जाएगी और वह मेरी जगह ले लेगी।” उस समय कलीसिया का विभाजन हो गया था, इसलिए हम अलग-अलग कलीसियाओं में थे। कुछ महीने बाद मुझे पता चला कि वह कलीसिया अगुआ बन गई है। हालाँकि मैंने उसे बधाई दी और कहा कि मैं उसके लिए खुश हूँ, लेकिन अंदर ही अंदर मुझे उससे जलन हो रही थी। मैंने मन में सोचा : “वह इतनी जल्दी अगुआ कैसे बन गई जबकि मैं अभी भी सिंचनकर्ता हूँ?” मैं बहुत परेशान थी और मैं नवागंतुकों के सिंचन पर कड़ी मेहनत करने लगी क्योंकि मैं अपने अगुआ को साबित करना चाहती थी कि मैं भी कलीसिया अगुआ बनने के लायक हूँ।
बाद में मुझे भी कलीसिया अगुआ चुन लिया गया, लेकिन मुझे तब भी जलन हुई जब मैंने देखा कि दूसरे लोग मुझसे बेहतर हैं। एक बार मैं दूसरे अगुआओं और उपयाजकों के साथ नवागंतुकों को सहयोग और उन्हें मदद करने के तरीके पर चर्चा कर रही थी और सुसमाचार उपयाजक ने इस मामले पर अपने विचार साझा किए। उच्च अगुआ और समूह अगुआओं को लगा कि उसके विचार अच्छे हैं, इसलिए हमने उसके सुझावों के अनुसार नवागंतुकों का सहयोग और सिंचन करने की कोशिश की। यह बहुत प्रभावी रहा और नवागंतुक वाकई सभाओं में आने और कर्तव्य निभाने के लिए तैयार हो गए। इससे मुझे थोड़ी जलन हुई और मैंने सोचा, “सुसमाचार उपयाजक मुझसे बेहतर है। मुझे खुद को सुधारना होगा और ज्यादा सीखना होगा।” बाद में मैंने उससे पूछा कि वह कितने समय से अपना कर्तव्य निभा रही है और मुझे बहुत हैरानी हुई जब उसने मुझे बताया कि उसे केवल छह महीने ही हुए हैं। मुझे वाकई शर्मिंदगी महसूस हुई—मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर का कार्य स्वीकारे दो साल हो चुके थे और मैं समूह के सभी लोगों में सबसे लंबे समय से विश्वासी थी, लेकिन मैं अभी भी एक नौसिखिया की तरह थी, जिसके पास विचारों की कमी थी। उसके बाद मैं हमेशा अपनी तुलना उससे करने लगी। जब मैंने देखा कि वह अपने काम में सक्षम है, उसके पास हमेशा कलीसिया के काम करने के लिए विभिन्न प्रकार बढ़िया तरीके और रास्ते होते हैं और उसे नतीजे भी मिले हैं तो मुझे उससे और भी ईर्ष्या हुई। मैंने सोचा, “अगर उसे अपने काम में ऐसे ही बेहतरीन नतीजे मिलते रहे और काम पर चर्चाओं के दौरान हमेशा अच्छे विचार रखती रही तो उच्च अगुआ देखेगा कि वह सक्षम है और उसमें अच्छी काबिलियत है और वह उसे कलीसिया अगुआ बनने के लिए प्रशिक्षित करेगा। क्या इसका मतलब यह नहीं होगा कि वह मेरी जगह ले लेगी?” एक बार वह दूसरे काम में व्यस्त होने के कारण एक सभा में नहीं आई और उसने बाद में मुझसे पूछा कि हमने सभा में क्या सीखा। मैं दरअसल उसे बताना नहीं चाहती थी, इसलिए मैंने बस इतना कहा कि मैं भूल गई हूँ। बाद में मैंने देखा कि ऊपरी अगुआ अक्सर उसके साथ संगति करता है, लेकिन मेरे साथ शायद ही कभी संगति करता है और इससे मुझे बहुत गुस्सा आया। मैंने सोचा, “अगर तुम मुझसे बात नहीं करोगे तो मैं अपना कर्तव्य नहीं निभाऊँगी!” उस समय मैं एक ऐसे कर्तव्य में तबादला चाहती थी जहाँ बाकी लोग मेरा सम्मान करें। मैंने सोचा कि अगर मैं सुसमाचार का प्रभावी ढंग से प्रचार कर पाती हूँ तो भाई-बहन मेरे बारे में बहुत अच्छा सोचेंगे, इसलिए मैंने सुसमाचार का प्रचार करना शुरू कर दिया और नवागंतुकों के सिंचन कार्य को एक तरफ कर दिया। ऊपरी अगुआ ने मुझे याद दिलाया कि मुझे नवागंतुकों की मुश्किलें तुरंत समझनी और सुलझानी चाहिए और मैंने उत्तर दिया, “जरूर, मैं उनसे बाद में बात करूँगी।” लेकिन मुझे सिर्फ सुसमाचार का प्रचार करने की परवाह थी और नवागंतुकों से मैंने कोई संपर्क नहीं किया। उनकी समस्याओं का समय पर समाधान नहीं हुआ और उन्होंने सामान्य रूप से सभा करना बंद कर दिया। कुछ ही समय में ऊपरी अगुआ ने संदेश भेजकर मुझसे पूछा कि नवागंतुक सभा क्यों नहीं कर रहे हैं और क्या मुझे कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है, और मैंने उसे अपनी अवस्था के बारे में बताया। उसने मेरे साथ संगति की, “तुम कलीसिया अगुआ हो और तुम कलीसिया के सभी कामों के लिए जिम्मेदार हो, खासकर नवागंतुकों के सिंचन के लिए। यह काम बहुत महत्वपूर्ण है। तुम इसमें लापरवाह नहीं हो सकती या इसे उलझा नहीं सकती।” यह सुनकर मैं रो पड़ी। मुझे बहुत बुरा लगा कि उसने सुसमाचार का प्रचार करने के मेरे प्रयासों पर जरा भी ध्यान नहीं दिया था।
बाद में मैंने अपने कर्तव्य के प्रति रवैये पर आत्म-चिंतन करना शुरू किया। पूरे समय मुझे इसी बात की चिंता रहती थी कि नवागंतुक मुझसे बेहतर हो जाएँगे और मैं नहीं चाहती थी कि वे मुझसे आगे निकल जाएँ। अपना रुतबा बनाए रखने के लिए मैंने नवागंतुकों का सिंचन ठीक से नहीं किया था—खासकर उनका जो अच्छी काबिलियत वाले थे। मैंने उन्हें अपने कर्तव्य निभाने के लिए प्रोत्साहित भी नहीं किया था। मैं अपनी जिम्मेदारियाँ बिल्कुल भी नहीं निभा रही थी। मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा : “कुछ लोग हमेशा इस बात से डरे रहते हैं कि दूसरे लोग उनसे बेहतर और ऊपर हैं, अन्य लोगों को पहचान मिलेगी, जबकि उन्हें अनदेखा किया जाता है, और इसी वजह से वे दूसरों पर हमला करते हैं और उन्हें अलग कर देते हैं। क्या यह प्रतिभाशाली लोगों से ईर्ष्या करने का मामला नहीं है? क्या यह स्वार्थपूर्ण और निंदनीय नहीं है? यह कैसा स्वभाव है? यह दुर्भावना है! जो लोग दूसरों के बारे में सोचे बिना या परमेश्वर के घर के हितों को ध्यान में रखे बिना केवल अपने हितों के बारे में सोचते हैं, जो केवल अपनी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं को संतुष्ट करते हैं, वे बुरे स्वभाव वाले होते हैं, और परमेश्वर में उनके लिए कोई प्रेम नहीं होता” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। “इस समय, तुम सभी अपने कर्तव्यों का पूर्णकालिक निर्वहन करते हो। तुम परिवार, विवाह या धन-संपत्ति से बेबस या उनके बंधन में नहीं हो। तुम पहले ही इन चीजों से ऊपर उठ चुके हो। लेकिन, तुम्हारे दिमाग में जो धारणाएँ, कल्पनाएँ, जानकारियाँ, और निजी मंशाएँ व इच्छाएँ भरी हुई हैं, वे पूरी तरह से यथावत् बनी हुई हैं। तो, जैसे ही कोई ऐसी बात आती है जिसमें प्रतिष्ठा, हैसियत या विशिष्ट दिखने का अवसर सम्मिलित हो—उदाहरण के तौर पर, जब तुम लोग सुनते हो कि परमेश्वर के घर की योजना विभिन्न प्रकार के प्रतिभावान व्यक्तियों को पोषण देने की है—तुममें से हर किसी का दिल प्रत्याशा में उछलने लगता है, तुममें से हर कोई हमेशा अपना नाम करना चाहता है और सुर्खियों में आना चाहता है। तुम सभी प्रतिष्ठा और हैसियत के लिए लड़ना चाहते हो। तुम्हें इस पर शर्मिंदगी भी महसूस होती है, पर ऐसा न करने पर तुम्हें बुरा महसूस होगा। जब तुम्हें कोई व्यक्ति भीड़ से अलग दिखता है, तो तुम उससे ईर्ष्या व घृणा महसूस करते हो और उसकी शिकायत करते हो, और तुम सोचते हो कि यह अन्याय है : ‘मैं भीड़ से अलग क्यों नहीं हो सकता? हमेशा दूसरे लोग ही क्यों सुर्खियों में आ जाते हैं? कभी मेरी बारी क्यों नहीं आती?’ और रोष महसूस करने पर तुम उसे दबाने की कोशिश करते हो, लेकिन ऐसा नहीं कर पाते। तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते हो और कुछ समय के लिए बेहतर महसूस करते हो, लेकिन जब तुम्हारा सामना दुबारा ऐसी ही परिस्थिति से होता है, तो तुम फिर भी उसे नियंत्रित नहीं कर पाते। क्या यह एक अपरिपक्व आध्यात्मिक कद का प्रकटीकरण नहीं है? जब लोग ऐसी स्थितियों में फँस जाते हैं, तो क्या वे शैतान के जाल में नहीं फँस गए हैं? ये शैतान की भ्रष्ट प्रकृति के बंधन हैं जो इंसानों को बाँध देते हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी अवस्था ठीक से उजागर कर दी। जब दूसरे मुझसे बेहतर होते या मुझसे आगे निकल जाते तो मुझे नफरत होती। जब मैं ऐसे नवागंतुकों से मिलती जो चीजों को अच्छी तरह समझते और अच्छी काबिलियत वाले होते थे तो मुझे डर लगता था कि वे मुझसे आगे निकल जाएँगे और मेरी जगह ले लेंगे, तो मैं उनका ठीक से सिंचन नहीं करना चाहती थी या नहीं चाहती थी कि अगुआ उन्हें विकसित करे। खासकर जब मैंने सुसमाचार उपयाजक के साथ काम किया और देखा कि उसका उपदेश प्रभावशाली था, वह हमेशा अच्छे सुझाव देती थी, और उच्च अगुआ हमेशा काम पर चर्चा करने के लिए उसके पास जाता था तो मुझे उससे ईर्ष्या हुई, चुपचाप मैंने उससे अपनी तुलना की और सुसमाचार का प्रचार करके उच्च अगुआ को अपनी अहमियत जतानी चाही। मैं केवल अपने रुतबे और दूसरों की ऊँची राय के बारे में सोचती थी। मैं एक अगुआ के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ बिल्कुल भी नहीं निभा रही थी। मुझे बहुत शर्मिंदगी हुई। मुझसे उम्मीद की जाती थी कि मैं नवागंतुकों का ठीक से सिंचन करूँ ताकि वे जल्दी से सच्चे मार्ग पर नींव रख सकें, लेकिन मैंने परमेश्वर के इरादों पर कोई विचार नहीं किया था। मैंने सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के बारे में सोचा था और मैंने नवागंतुकों के सिंचन और सहयोग में मेहनत नहीं की थी, जिसके कारण वे सामान्य रूप से सभाओं में शामिल नहीं हुए। मैं बुराई कर रही थी! मैंने आत्म-चिंतन करना शुरू किया कि मैं अपने कर्तव्य में किस लक्ष्य का अनुसरण कर रही थी। क्या मैं अपना कर्तव्य परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए निभा रही थी या अपने हितों के लिए? अगर मैं कलीसिया के काम के बारे में सोचती और परमेश्वर को संतुष्ट करने की कोशिश करती तो मैं और लोगों को कर्तव्य निभाने के लिए प्रशिक्षित करना चाहती। लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया था। इसके बजाय मैंने प्रतिभाशाली लोगों से ईर्ष्या की थी और उन्हें दबाया था, उम्मीद की थी कि अगुआ उन पर ध्यान नहीं देंगे। मुझे एहसास हुआ कि मैं अपना कर्तव्य पूरी तरह से अपने पद और हितों के लिए निभा रही थी। मैं कितनी स्वार्थी थी!
बाद में जब एक बहन को मेरी अवस्था के बारे में पता चला तो उसने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश भेजा : “कुछ लोग परमेश्वर में विश्वास तो करते हैं, लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करते। वे हमेशा देह के स्तर पर जीते हैं, दैहिक-सुखों की इच्छा करते हैं, हमेशा अपनी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं को पूरा करते हैं। वे चाहे कितने भी वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करें, वे कभी भी सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं करेंगे। यह परमेश्वर को शर्मिंदा करने का संकेत है। तुम कहते हो, ‘मैंने परमेश्वर के प्रतिरोध जैसा कुछ नहीं किया। मैंने उसे शर्मिंदा कैसे कर दिया?’ तुम्हारे सभी विचार और सोच दुष्टतापूर्ण हैं। तुम जो करते हो, उसके पीछे की मंशाएँ, लक्ष्य और उद्देश्य और तुम्हारे कार्यों के परिणाम हमेशा शैतान को संतुष्ट करते हैं, जिससे तुम उसके उपहास के पात्र बनते हो और उसे तुम्हारे विरुद्ध कुछ-न-कुछ जानकारी मिल ही जाती है। तुमने एक भी गवाही नहीं दी है जो एक ईसाई को देनी चाहिए। तुम शैतान के हो। तुम सभी चीज़ों में परमेश्वर का नाम बदनाम करते हो और तुम्हारे पास सच्ची गवाही नहीं है। क्या परमेश्वर तुम्हारे द्वारा किए गए कृत्यों को याद रखेगा? अंत में, परमेश्वर तुम्हारे सभी कृत्यों, व्यवहार और कर्तव्यों के बारे में क्या निष्कर्ष निकालेगा? क्या उसका कोई नतीजा नहीं निकलना चाहिए, किसी प्रकार का कोई वक्तव्य नहीं आना चाहिए? बाइबल में, प्रभु यीशु कहता है, ‘उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, “हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत से आश्चर्यकर्म नहीं किए?” तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, “मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ”’ (मत्ती 7:22-23)। प्रभु यीशु ने ऐसा क्यों कहा? धर्मोपदेश देने, दुष्टात्माओं को निकालने और प्रभु के नाम पर इतने चमत्कार करने वालों में से इतने सारे लोग कुकर्मी क्यों हो गए? इसका कारण यह था कि उन्होंने प्रभु यीशु द्वारा व्यक्त किए गए सत्यों को स्वीकार नहीं किया, उन्होंने उसकी आज्ञाओं का पालन नहीं किया, और सत्य के लिए उनके दिल में कोई प्रेम नहीं था। वे सिर्फ प्रभु के लिए किए गए अपने काम, उठाए गए कष्टों और त्यागों के बदले में स्वर्ग के राज्य के आशीष चाहते थे। ऐसा करके, वे परमेश्वर के साथ एक सौदा करने की कोशिश कर रहे थे, और वे परमेश्वर का इस्तेमाल करने और परमेश्वर को धोखा देने की कोशिश कर रहे थे, इसलिए प्रभु यीशु उनसे दुःखी था, उनसे घृणा करता था और उनकी कुकर्मियों के रूप में निंदा करता था। आज लोग परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार कर रहे हैं, लेकिन कुछ अब भी नाम और हैसियत के पीछे भागते हैं, और हमेशा विशिष्ट दिखना चाहते हैं, हमेशा अगुआ और कार्यकर्ता बनना और नाम और हैसियत पाना चाहते हैं। हालांकि वे सभी कहते हैं कि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं और उसका अनुसरण करते हैं, और वे परमेश्वर के लिए त्याग करते हैं और खपते हैं, पर वे कीर्ति, लाभ और हैसियत पाने के लिए ही अपने कर्तव्य निर्वहन करते हैं और उनके सामने हमेशा निजी योजनाएँ रहती हैं। वे परमेश्वर के प्रति समर्पित या वफादार नहीं हैं, वे थोड़ा भी आत्मचिंतन किए बिना अनियंत्रित रूप से बुरे कर्म कर सकते हैं, इसलिए वे कुकर्मी बन जाते हैं। परमेश्वर इन कुकर्मियों से घृणा करता है, और उन्हें बचाता नहीं है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों के इस अंश को पढ़कर मैं बहुत प्रभावित हुई। जिन कुकर्मियों के बारे में परमेश्वर बात करता है वे अविश्वासी नहीं हैं। वे परमेश्वर में विश्वास करने वाले लोग हैं, जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, परमेश्वर के लिए खुद को खपाते हैं, जो सुसमाचार का प्रचार करने जाते हैं और विभिन्न स्थानों पर काम करते हैं और कुछ कष्ट सहते हैं, लेकिन वे अपने कर्तव्य सिर्फ इसलिए निभाते हैं ताकि उन्हें प्रतिष्ठा और रुतबा, दूसरों से तारीफ या पुरस्कार और सिंहासन मिल सके। वे परमेश्वर के प्रति वफादार होने में सक्षम नहीं हैं और वे सत्य का अभ्यास नहीं कर सकते और उसके प्रति समर्पित नहीं हो सकते, इसलिए प्रभु यीशु ने कहा : “हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ” (मत्ती 7:23)। मैंने सोचा कि कैसे मैंने दो साल तक परमेश्वर पर विश्वास किया, कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपनी पढ़ाई छोड़ दी और कष्ट सहे और कीमत चुकाई और फिर भी मेरा इरादा कभी भी परमेश्वर को संतुष्ट करने का नहीं था। मैं बस कलीसिया में सर्वश्रेष्ठ बनना चाहती थी और भाई-बहनों और अगुआ की नजरों में ऊपर उठना चाहती थी। इसलिए मैंने खुद को अलग दिखाने के लिए इतनी मेहनत की। मैंने जो कुछ भी किया था, वह मेरी अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए था और मैं एक भ्रष्ट शैतानी स्वभाव में जी रही थी। मैंने जो कुछ भी किया था, उनमें से कुछ भी अच्छा कर्म नहीं था—वे बुरे कर्म थे। मैं गलत इरादे और प्रेरणा के साथ अपना कर्तव्य निभा रही थी, जो केवल परमेश्वर की घृणा और नफरत को ही बुलावा देती। अगर मैं इसी तरह चलती रहती तो मैं परमेश्वर द्वारा केवल ठुकराई ही जाती। इसका एहसास होने पर मैं डर गई। मैं पश्चात्ताप करना चाहती थी और अपने भाई-बहनों से अब और ईर्ष्या नहीं करना चाहती थी, इसलिए मैंने परमेश्वर से मार्गदर्शन माँगने के लिए प्रार्थना की।
एक दिन मुझमें साहस आया कि मैं अगुआ के सामने अपनी भ्रष्टता के बारे में खुलकर बात करूँ। मुझे डाँटने के बजाय उसने मेरी मदद करने के लिए अपने अनुभव के बारे में संगति की। उसने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश भी भेजा : “कलीसिया का अगुआ होने के नाते तुम्हें समस्याएँ सुलझाने के लिए केवल सत्य का प्रयोग सीखने की आवश्यकता ही नहीं है, बल्कि प्रतिभाशाली लोगों का पता लगाने और उन्हें विकसित करना सीखने की आवश्यकता भी है, जिनसे तुम्हें बिल्कुल ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए या जिनका बिल्कुल दमन नहीं करना चाहिए। इस तरह के अभ्यास से कलीसिया के काम को लाभ पहुँचता है। अगर तुम अपने कार्यों में सहयोग के लिए सत्य के कुछ खोजी तैयार कर सको और सारा काम अच्छी तरह से करो, और अंत में, तुम सभी के पास अनुभवजन्य गवाहियाँ हों, तो तुम एक योग्य अगुआ या कार्यकर्ता होंगे। यदि तुम हर चीज़ सिद्धांतों के अनुसार संभाल सको, तो तुम अपनी वफादारी निभा रहे हो। ... अगर तुम वाकई परमेश्वर के इरादों का ध्यान रखने में सक्षम हो, तो तुम दूसरे लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करने में सक्षम होंगे। अगर तुम किसी अच्छे व्यक्ति की सिफ़ारिश करते हो और उसे प्रशिक्षण प्राप्त करने और कोई कर्तव्य निर्वहन करने देते हो, और इस तरह एक प्रतिभाशाली व्यक्ति को परमेश्वर के घर में शामिल करते हो, तो क्या उससे तुम्हारा काम और आसान नहीं हो जाएगा? तब क्या यह तुम्हारा कर्तव्य के प्रति वफादारी प्रदर्शित करना नहीं होगा? यह परमेश्वर के समक्ष एक अच्छा कर्म है; अगुआ के रूप में सेवाएँ देने वालों के पास कम-से-कम इतनी अंतश्चेतना और तर्क तो होना ही चाहिए। जो लोग सत्य को अभ्यास में लाने में सक्षम हैं, वे अपने कार्यों में परमेश्वर की पड़ताल को स्वीकार कर सकते हैं। परमेश्वर की पड़ताल को स्वीकार करने पर तुम्हारा हृदय निष्कपट हो जाएगा। यदि तुम हमेशा दूसरों को दिखाने के लिए ही काम करते हो, और हमेशा दूसरों की प्रशंसा और सराहना प्राप्त करना चाहता हो और परमेश्वर की पड़ताल स्वीकार नहीं करते, तब भी क्या तुम्हारे हृदय में परमेश्वर है? ऐसे लोगों में परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता। हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, इंसान के हितों पर ध्यान मत दे, और अपने गौरव, प्रतिष्ठा और हैसियत पर विचार मत कर। तुम्हें सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उन्हें अपनी प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुम्हें परमेश्वर के इरादों का ध्यान रखना चाहिए और इस पर चिंतन से शुरुआत करनी चाहिए कि तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में अशुद्धियाँ रही हैं या नहीं, तुम वफादार रहे हो या नहीं, तुमने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं या नहीं, और अपना सर्वस्व दिया है या नहीं, साथ ही तुम अपने कर्तव्य, और कलीसिया के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार करते रहे हो या नहीं। तुम्हें इन चीज़ों के बारे में अवश्य विचार करना चाहिए। अगर तुम इन पर बार-बार विचार करते हो और इन्हें समझ लेते हो, तो तुम्हारे लिए अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना आसान हो जाएगा। अगर तुम्हारे पास ज्यादा काबिलियत नहीं है, अगर तुम्हारा अनुभव उथला है, या अगर तुम अपने पेशेवर कार्य में दक्ष नहीं हो, तब तुम्हारेतुम्हारे कार्य में कुछ गलतियाँ या कमियाँ हो सकती हैं, हो सकता है कि तुम्हें अच्छे परिणाम न मिलें—पर तब तुमने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया होगा। तुमतुम अपनी स्वार्थपूर्णइच्छाएँ या प्राथमिकताएँ पूरी नहीं करते। इसके बजाय, तुम लगातार कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करते हो। भले ही तुम्हें अपने कर्तव्य में अच्छे परिणाम प्राप्त न हों, फिर भी तुम्हारा दिल निष्कपट हो गया होगा; अगर इसके अलावा, इसके ऊपर से, तुम अपने कर्तव्य में आई समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य खोज सकते हो, तब तुम अपना कर्तव्य निर्वहन मानक स्तर का कर पाओगे और साथ ही, तुम सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर पाओगे। किसी के पास गवाही होने का यही अर्थ है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचन अभ्यास के सिद्धांतों को बहुत स्पष्ट रूप से बताते हैं। एक कलीसिया अगुआ को कलीसिया का काम सबसे ऊपर रखना चाहिए। सही रवैया अपनाने पर उनके लिए अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाना आसान हो जाता है। मैंने यह भी समझा कि परमेश्वर में आस्था रखने का मतलब है हर चीज में परमेश्वर के इरादे पर विचार करना, परमेश्वर की जाँच-पड़ताल को स्वीकारना और दूसरे लोग क्या सोचते हैं, इस पर ध्यान न देना। अगर मुझे परमेश्वर को संतुष्ट करना था और एक सक्षम अगुआ बनना था तो मुझे अपना रुतबा, प्रतिष्ठा और हित छोड़ने थे। मुझे विकसित करने लायक प्रतिभाशाली नवागंतुकों को ढूँढ़ना था और अपने कर्तव्य निभाने और अच्छे कर्म करने में उनकी मदद करनी थी। मेरे लिए अपना कर्तव्य निभाने का यही एकमात्र तरीका था। परमेश्वर सबके साथ निष्पक्ष होता है। वह हमारी करबिलियत या रुतबा नहीं देखता, वह देखता है कि हम सत्य का अनुसरण और अभ्यास कर सकते हैं या नहीं। अगर मैं परमेश्वर की अपेक्षाओं और सत्य सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाती और हमेशा सोचती कि मैं अपना कार्य कैसे करूँ जिससे कलीसिया के कार्य को लाभ हो तो भले ही मेरी काबिलियत थोड़ी कम हो, परमेश्वर फिर भी मुझे प्रबुद्ध करता और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए मार्गदर्शन करता। जब मैंने परमेश्वर का इरादा समझा तो मैंने परमेश्वर से पश्चात्ताप करने के लिए प्रार्थना की और कहा कि मैं देह के खिलाफ विद्रोह करने, सत्य का अभ्यास करने और उसे संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य निभाने के लिए तैयार हूँ।
उसके बाद अधिक से अधिक नवागंतुकों ने अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकारना शुरू कर दिया और अगुआ ने मुझसे और अधिक सिंचन कर्मियों को प्रशिक्षित करने के लिए कहा। मुझे फिर से चिंता होने लगी कि जिन नवागंतुकों को मैंने विकसित किया है वे मेरी जगह ले लेंगे और अगुआ अब मुझे महत्व नहीं देगा। तब मुझे एहसास हुआ कि मुझे अपने अभिमान और रुतबे के बारे में नहीं सोचना चाहिए और मुझे कलीसिया के कार्य पर विचार करना चाहिए। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उनके कुछ वचनों को याद किया : “कलीसिया का अगुआ होने के नाते तुम्हें समस्याएँ सुलझाने के लिए केवल सत्य का प्रयोग सीखने की आवश्यकता ही नहीं है, बल्कि प्रतिभाशाली लोगों का पता लगाने और उन्हें विकसित करना सीखने की आवश्यकता भी है, जिनसे तुम्हें बिल्कुल ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए या जिनका बिल्कुल दमन नहीं करना चाहिए। इस तरह के अभ्यास से कलीसिया के काम को लाभ पहुँचता है। अगर तुम अपने कार्यों में सहयोग के लिए सत्य के कुछ खोजी तैयार कर सको और सारा काम अच्छी तरह से करो, और अंत में, तुम सभी के पास अनुभवजन्य गवाहियाँ हों, तो तुम एक योग्य अगुआ या कार्यकर्ता होंगे। यदि तुम हर चीज़ सिद्धांतों के अनुसार संभाल सको, तो तुम अपनी वफादारी निभा रहे हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। एक कलीसिया अगुआ के रूप में नवागंतुकों को उनके कर्तव्य निर्वहन के लिए प्रशिक्षित करना मेरी जिम्मेदारी थी और यह हर विश्वासी की जिम्मेदारी और दायित्व था कि वह अपना कर्तव्य निभाए। मुझे और अधिक नवागंतुकों को सिंचनकर्ता के रूप में विकसित करने की जरूरत थी। अधिक से अधिक नवागंतुक सर्वशक्तिमान परमेश्वर को स्वीकारने के लिए आ रहे थे और अगर मैं उनके सिंचन के लिए किसी को विकसित नहीं करती तो नवागंतुकों का सिंचन तुरंत नहीं हो पाता, उनके जीवन प्रवेश पर असर पड़ता और कलीसिया का काम भी प्रभावित होता। इसलिए मैंने चार नवागंतुकों को चुना जो चीजों को अच्छी तरह समझते थे, उन्हें समूह के अगुआ बनने के लिए प्रशिक्षित किया और उन्हें बारी-बारी से सभाओं की मेजबानी करने दी। मैं उन्हें बार-बार याद दिलाती थी और अन्य नवागंतुकों के सिंचन में उनकी मदद करती थी। इस तरह सहयोग करने से न केवल नवागंतुकों का सिंचन जल्दी हुआ बल्कि मुझे कलीसिया के पूरे काम पर ध्यान देने के लिए ज्यादा समय मिला, और काम की प्रभावशीलता धीरे-धीरे बेहतर हुई। मुझे यह देखकर बहुत खुशी हुई कि नवागंतुक धीरे-धीरे प्रगति कर रहे हैं और अपने कर्तव्य निभाना शुरू कर रहे हैं। मुझे सहजता महसूस हुई और मुझे परमेश्वर के वचनों की थोड़ी और समझ मिली। यह वैसा ही है जैसा परमेश्वर के वचन कहते हैं : “अगर तुम किसी अच्छे व्यक्ति की सिफ़ारिश करते हो और उसे प्रशिक्षण प्राप्त करने और कोई कर्तव्य निर्वहन करने देते हो, और इस तरह एक प्रतिभाशाली व्यक्ति को परमेश्वर के घर में शामिल करते हो, तो क्या उससे तुम्हारा काम और आसान नहीं हो जाएगा? तब क्या यह तुम्हारा कर्तव्य के प्रति वफादारी प्रदर्शित करना नहीं होगा? यह परमेश्वर के समक्ष एक अच्छा कर्म है; अगुआ के रूप में सेवाएँ देने वालों के पास कम-से-कम इतनी अंतश्चेतना और तर्क तो होना ही चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। यह पूरी तरह से परमेश्वर के वचनों की वजह से है कि मुझे यह समझ मिली है और अपने कर्तव्य में कुछ अभ्यास और प्रवेश मिला है। परमेश्वर का धन्यवाद!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?