एक ऐसी पीड़ा जिससे छुटकारा नहीं
जब मैं 47 साल का हुआ तो मेरी आंखों की रोशनी तेजी से कम होने लगी। डॉक्टर ने कहा कि अगर मैंने अपनी आंखों की देखभाल नहीं की तो धीरे-धीरे मेरी आंखों की रोशनी चली जाएगी, इसलिए मुझे काम बंद कर घर बैठना पड़ा। भविष्य अंधकारमय दिखने लगा, जैसे मेरे जीवन से प्रकाश गायब हो जाएगा। मैं बुरी तरह टूट गया। 2007 में, सौभाग्य से मुझे सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य हासिल हुआ और जल्दी ही मेरी आँखें ठीक हो गईं। परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए, मैंने कोई काम देने का अनुरोध किया। भाई-बहनों को आने वाली कठिनाई में मैं यथासंभव मदद को तैयार था। चाहे कितने भी लोग मेरे घर आएँ और चाहे वे कितने भी दिन रुकें, मैं उत्साह के साथ उनकी मेजबानी करता। घर बहुत छोटा होने के कारण कभी-कभी उनके लिए पर्याप्त बिस्तर न होते तो मैं सोफे या फर्श पर ही सो जाता। मुझे लगता कि मेरा इस तरह कर्तव्य-निर्वहन परमेश्वर के प्रति वफादारी है, लेकिन बाद में यह सच उजागर हुआ कि मैं बेहद स्वार्थी हूँ, अपने कर्तव्य के प्रति मेरी कोई निष्ठा नहीं है। इसने मेरे अंदर एक असहनीय दर्द पैदा कर दिया।
2014 में, मैंने जिस कलीसिया अगुआ की मेजबानी की थी, उसे पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया, वह जैसे ही मेरे घर से निकली, मैं और मेरी पत्नी अपनी सुरक्षा के लिए तुरंत घर से निकल गए। सर्दियों का मौसम था और कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। जाने का कोई ठिकाना नहीं था, अपनी पीड़ा में मैंने सोचा : "हमारी उम्र 60 से ऊपर है। रीढ़ की हड्डी में एक जन्मजात गाँठ की वजह से मेरी पत्नी अब काफी कमजोर हो गई है। हम जाएँ तो जाएँ कहाँ?" फिर एक बहन ने हमें थोड़े समय ठहरने के लिए एक जगह ढूँढ़कर दी। तब पता चला कि जो दो बहनें मेरे घर आईं थीं, उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया है। एक के बाद एक भाई-बहनों के गिरफ्तार होने की खबर सुनकर, मेरा हर दिन खौफ में बीतने लगा, मैं डरता रहा कि पुलिस कभी भी आ धमकेगी। उससे बचाव के लिए मैंने कुछ फुट स्पा और मसाज उपकरण जुटा लिए और भाई-बहनों की मेजबानी जारी रखी।
फिर 2017 में एक सभा के दौरान, एक बहन ने बताया कि उसके मेजबान का बेटा वापस आ गया है। वह गैर-विश्वासी था और अपनी माँ की आस्था का कड़ा विरोध करता था, इसलिए बहन अब वहाँ नहीं रह सकती थी। मैं और मेरी पत्नी ने उसे मुसीबत में देखकर अपने साथ रख लिया। कुछ ही समय बाद हमने सुना कि सीसीपी बड़े पैमाने पर छापेमारी की योजना बना रही है, और किरायेदारों की जांच पर उनका ज्यादा ध्यान है। मुझे चिंता हुई, "हम भी किरायेदार हैं, अगर इस बहन के रहते पुलिस निरीक्षण करने आ गई तो हम क्या जवाब देंगे? बहन एक महत्वपूर्ण काम कर रही है। अगर वह गिरफ्तार हो गई, तो पक्का हम भी फंस जाएँगे। मेरी पत्नी पहले ही कमजोर है, अगर कुछ हुआ तो वह दहल जाएगी। उसकी तबीयत कभी भी बिगड़ सकती है।" मेरी पत्नी को गिरफ्तारी का डर सताता था, उसने मुझसे बहन को निकाल देने को कहा। मुझे लगा कि उसे निकालना सही नहीं है, ऐसी ठंड में वह कहाँ जाएगी, तो मैंने अपनी पत्नी से उसे वहीं रहने देने को कहा। मेरी पत्नी ने नाराज होकर मुझे नतीजों के बारे में सोचने को कहा। मैंने सोचा, "सीसीपी द्वारा विश्वासियों की गिरफ़्तारी और उत्पीड़न बढ़ता ही जा रहा है। फिलहाल समुदाय में सभी के वास्तविक नामों का एक रजिस्टर है। अगर पुलिस को पता चला कि हम परमेश्वर में विश्वास रखते हैं और भाई-बहनों की मेजबानी करते हैं, तो फिर हमारे बचने का कोई रास्ता नहीं होगा। हमारी पेंशन रद्द करके हमारी संपत्ति जब्त कर ली जाएगी। हमने अब तक मेहनत करके जो कुछ कमाया है वह कुल जमा पूँजी यही है। अगर यह भी छिन गई तो हम कैसे जिएँगे? इतना ही नहीं, इसका असर हमारे बच्चों के भविष्य पर भी पड़ सकता है। हम पहले से ही 60 से ऊपर के हैं और स्वास्थ्य भी खराब है। अगर हमें जेल हो गई तो क्या हम पुलिस की यातना झेल पाएंगे? अगर नहीं झेल पाए और यहूदा बन गए, तो हम अपनी मंजिल भी गँवा बैठेंगे। तो क्या हमारी बरसों की आस्था व्यर्थ नहीं चली जाएगी?" मैंने अपनी पत्नी की नाराजगी का भी विचार किया। बहुत सोचने के बाद, मैंने अपनी पत्नी की बात मानते हुए, बहन से कहीं और जाकर रहने की बात कही। मगर महीने भर बाद भी बहन ने घर नहीं छोड़ा, मुझे डर लग रहा कि कहीं कुछ हो न जाए, मैं अक्सर उससे पूछता रहता कि उसे रहने को कोई जगह मिली या नहीं और वह कब जा रही है। मैं गोल-गोल घुमाकर बात करता था। लेकिन ऐसा करते हुए मेरे मन में अपराध-बोध था। कुछ समय बाद बहन को एक जगह मिल गई और वह चली गई, लेकिन मैंने इस पूरे मामले में आत्म-चिंतन नहीं किया।
2018 में चीनी नव वर्ष के दौरान, बहन ली लैन ने हमें बताया कि उसके घर पर पुलिस नजर रख रही है, जब तक उसे रहने के लिए नई जगह नहीं मिल जाती, क्या वह कुछ दिन हमारे साथ रह सकती है। उस समय मैंने इस मामले पर ज्यादा विचार नहीं किया और बस बहन को रहने की इजाजत दे दी। हमारे साथ रहते हुए, वह अक्सर सभाओं में जाने लगी, इससे मैं घबराने लगा, "चीनी नव वर्ष चल रहा है। पुलिस इसका फायदा उठाकर बड़े पैमाने पर छापेमारी कर सकती है। अगर बहन गिरफ्तार हो गई, तो हम बच नहीं पाएंगे और हमारा परिवार भी फंस जाएगा।" मुझे यही लगता रहा कि बहन हमारे साथ जितना ज्यादा रहेगी, खतरा उतना ही बढ़ता जाएगा। मुझे अपनी सुरक्षा और अपने बच्चों के भविष्य की चिंता थी, मैं बहन को तुरंत निकाल देने के बहाने सोचता रहता। फिर मैंने सोचा कि बहन ली तो सभाओं में जाती ही रहती है, वह वहाँ भी तो रह सकती है जहां सभा होती है। मैंने यह बात उससे कह दी, अब उसके पास जाने के अलावा कोई चारा न था, उसका मुँह उतर गया। इसके बाद मैंने किसी और की मेजबानी नहीं की और सिर्फ दूसरे काम किये। 2021 के बसंत में एक दिन, एक अगुआ मुझसे बात करने आई और पूछा कि क्या तीन भाई कुछ समय के लिए हमारे साथ रह सकते हैं। इससे पहले कि मैं सहमति जताता, मेरी पत्नी बोल पड़ी, "क्या हम कल आपको जवाब दे सकते हैं?" अगुआ के जाने के बाद उसने कहा, "अभी तो वह कुछ समय के लिए कह रही है, लेकिन अगर वे लंबे समय तक रहे और गिरफ्तार हो गए तो? हमें ना करने का कोई बहाना ढूँढ़ना होगा। हम कह सकते हैं कि एक अगुआ जो कुछ समय पहले हमारे साथ थी, शायद वह गिरफ्तार हो गई, हमारा घर सुरक्षित नहीं है, इसलिए फिलहाल किसी की मेजबानी नहीं कर सकते।" मैं भी थोड़ा घबराया हुआ था, इसलिए मैंने पत्नी की बात मान ली। लेकिन अगले दिन, मेरे मना करने से पहले ही अगुआ ने कहा, "उन तीनों भाइयों को रहने के लिए कहीं और जगह मिल गई है। तुम्हारे साथ रहने वाली अगुआ गिरफ्तार हो चुकी है, तुम्हारा घर सुरक्षित नहीं है। तुम लोग भी फिलहाल अपना काम बंद कर दो।" यह सुनकर मेरा कलेजा मुँह को आ गया। मुझे लगा यह हम पर परमेश्वर का कोप है। परमेश्वर हमारे दिल की गहराई जांचता है। हालांकि मैंने भाइयों को न रखने की बात नहीं कही थी, पर मन में तो सोचा ही था। मैंने अपना कर्तव्य नहीं निभाया था। मैंने परोक्ष रूप से भाई-बहनों को निकाल ही दिया था। क्या अपने कर्तव्य के प्रति मेरे रवैये से परमेश्वर का क्रोध भड़क गया था और उसने ऐसे हालात बनाये जिससे मेरा काम रुक गया? मुझे अचानक खालीपन महसूस हुआ और भयंकर बेचैनी होने लगी, मानो मुझे सजा मिली हो और मैं अंधेरे में जा गिरा हूँ। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर! आज मेरे काम में ठहराव कोई संयोग नहीं है, जरूर इसमें तेरी इच्छा होगी। मुझे प्रबुद्ध कर राह दिखा ताकि मैं सबक सीख सकूँ।" फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े। "तुम लोग अपने बच्चों या अपने पति या आत्म-रक्षा के लिए मुझे बाहर निकाल देते हो। मेरी चिंता करने के बजाय तुम लोग अपने परिवार, अपने बच्चों, अपनी हैसियत, अपने भविष्य और अपनी संतुष्टि की चिंता करते हो। तुम लोगों ने बातचीत या कार्य करते समय कभी मेरे बारे में सोचा है? ठंड के दिनों में तुम लोगों के विचार अपने बच्चों, अपने पति, अपनी पत्नी या अपने माता-पिता की तरफ मुड़ जाते हैं। गर्मी के दिनों में भी तुम सबके विचारों में मेरे लिए कोई स्थान नहीं होता। जब तुम अपना कर्तव्य निभाते हो, तब तुम अपने हितों, अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा, अपने परिवार के सदस्यों के बारे में ही सोच रहे होते हो। तुमने कब मेरे लिए क्या किया है? तुमने कब मेरे बारे में सोचा है? तुमने कब अपने आप को, हर कीमत पर, मेरे लिए और मेरे कार्य के लिए समर्पित किया है? मेरे साथ तुम्हारी अनुकूलता का प्रमाण कहाँ है? मेरे साथ तुम्हारी वफ़ादारी की वास्तविकता कहाँ है? मेरे साथ तुम्हारी आज्ञाकारिता की वास्तविकता कहाँ है? कब तुम्हारे इरादे केवल मेरे आशीष पाने के लिए नहीं रहे हैं? तुम लोग मुझे मूर्ख बनाते और धोखा देते हो, तुम लोग सत्य के साथ खेलते हो, तुम सत्य के अस्तित्व को छिपाते हो, और सत्य के सार को धोखा देते हो। इस तरह मेरे ख़िलाफ़ जाने से भविष्य में क्या चीज़ तुम लोगों की प्रतीक्षा कर रही है? तुम लोग केवल एक अज्ञात परमेश्वर के साथ अनुकूलता की खोज करते हो, और मात्र एक अज्ञात विश्वास की खोज करते हो, लेकिन तुम मसीह के साथ अनुकूल नहीं हो। क्या तुम्हारी दुष्टता के लिए भी वही प्रतिफल नहीं मिलेगा, जो दुष्ट को मिलता है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम्हें मसीह के साथ अनुकूलता का तरीका खोजना चाहिए)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी हालत का खुलासा कर दिया। जब से मेरे घर में रहने वाले लोग एक-एक कर गिरफ्तार होते गए, मैं कायरता और भय की हालत में जी रहा था। खुद को बचाने के लिए मैंने बहनों को जल्द से जल्द निकाल देने के बहाने ढूंढ़े, और जब अगुआ ने कुछ समय के लिये तीन भाइयों को रखने के लिए कहा, तो मैं सहमत नहीं हुआ और ना करने का बहाना बना लिया। इन बातों पर विचार करूँ, तो क्या मैं वाकई विश्वासी हूँ? जब बाकी लोग खतरे से जूझ रहे थे, तो मैं केवल अपने हितों की रक्षा करने और उन्हें निकालने की तरकीबें सोच रहा था। मैं सच में स्वार्थी, नीच और मानवता से शून्य था! मुझे अपने बच्चों का तो बहुत ख्याल था कि मुसीबत आने पर कहीं वे सर्दी या भूख से न तड़पने लगें। हर खतरे और कठिनाई में, मैं अपने बच्चों के लिए तो खुद ढाल बनने को तैयार था। लेकिन मैं भाई-बहनों के साथ बेहद रुखाई से पेश आया। सोच-सोचकर लगा मुझमें इंसानियत नहीं है। मुझे अफसोस हुआ और मन आत्म-ग्लानि से भर गया। मैंने परमेश्वर के कुछ और वचन पढ़े। "वह मानक क्या है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के कर्मों का न्याय अच्छे या बुरे के रूप में किया जाता है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसमें अपने विचारों, अभिव्यक्तियों और कार्यों में सत्य को व्यवहार में लाने और सत्य की वास्तविकता को जीने की गवाही है या नहीं। यदि तुम्हारे पास यह वास्तविकता नहीं है या तुम इसे नहीं जीते, तो बेशक, तुम एक कुकर्मी हो। परमेश्वर कुकर्मियों को किस नज़र से देखता है? तुम्हारे विचार और बाहरी कर्म परमेश्वर की गवाही नहीं देते, न ही वे शैतान को शर्मिंदा करते या उसे हरा पाते हैं; बल्कि वे परमेश्वर को शर्मिंदा करते हैं और ऐसे निशानों से भरे पड़े हैं जिनसे परमेश्वर शर्मिंदा होता है। तुम परमेश्वर के लिए गवाही नहीं दे रहे, न ही तुम परमेश्वर के लिये अपने आपको खपा रहे हो, तुम परमेश्वर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को भी पूरा नहीं कर रहे; बल्कि तुम अपने फ़ायदे के लिये काम कर रहे हो। 'अपने फ़ायदे के लिए', इसका क्या मतलब है? इसका सही-सही मतलब है शैतान के लिये काम करना। इसलिये, अंत में परमेश्वर यही कहेगा, 'हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।' परमेश्वर की नज़र में तुमने अच्छे कर्म नहीं किये हैं, बल्कि तुम्हारा व्यवहार दुष्टों वाला हो गया है। इसे न केवल परमेश्वर की स्वीकृति हासिल नहीं होगी—बल्कि इसकी निंदा भी की जाएगी। परमेश्वर में ऐसी आस्था रखने वाला इंसान क्या हासिल करने का प्रयास करता है? क्या इस तरह की आस्था अंतत: व्यर्थ नहीं हो जाएगी? अपने कर्तव्य को निभाने वाले उन तमाम लोगों के लिए, चाहे सत्य की उनकी समझ कितनी भी उथली या गहरी क्यों न हो, सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि हर काम में परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचा जाए, अपनी स्वार्थी इच्छाओं, व्यक्तिगत इरादों, अभिप्रेरणाओं, घमंड और हैसियत का त्याग किया जाए। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—कम से कम इतना तो व्यक्ति को करना ही चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने वाला कोई व्यक्ति अगर इतना भी नहीं कर सकता, तो उस व्यक्ति को कर्तव्य निभाने वाला कैसे कहा जा सकता है? यह अपने कर्तव्य को पूरा करना नहीं है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। कोई व्यक्ति अच्छा है या बुरा, यह तय करने के लिए परमेश्वर का मापदंड यह है कि क्या उसके इरादे, विचार, कार्य और आचरण सत्य के अनुरूप हैं। मैंने अपने कृत्यों पर आत्म-चिंतन किया। मेरे इरादे, विचार, कथनी या करनी चाहे जो भी हों, सबके पीछे मेरे अपने हित थे, मुझे परमेश्वर की इच्छा का कोई ख्याल नहीं था। सुसमाचार के प्रचार के कारण बड़ा लाल अजगर भाई-बहनों को अपना शिकार बनाकर उन्हें सता रहा था। वे बेघर होकर भगौड़े बन गए थे, अगर उनके पास रहने को उपयुक्त स्थान न होता, तो वे सुरक्षित ढंग से अपना कर्तव्य-पालन नहीं कर सकते थे। लेकिन मैं उनकी वजह से कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहता था और जल्द से जल्द उनसे पिंड छुड़ाना चाहता था, इस कारण उनके लिए हालात और खराब हो गए थे। मैंने स्वार्थी और द्वेषपूर्ण बनकर सारी मानवता गँवा दी थी! अगर मुझमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता या रत्ती भर भी इंसानियत होती, तो परमेश्वर की इच्छा का ख्याल करते हुए, संकट की घड़ी में दूसरों की सुरक्षा का भी ध्यान रखता, और उन्हें अपने यहाँ रखकर उनकी सुरक्षा के तरीके सोचता। मैंने प्रभु यीशु के वचनों पर विचार किया, "मैं तुम से सच कहता हूँ कि तुमने जो मेरे इन छोटे से छोटे भाइयों में से किसी एक के साथ किया, वह मेरे ही साथ किया" (मत्ती 25:40)। ऐसे भयानक हालात में, मैंने उन भाई-बहनों को रखने से मना कर दिया जिनका बड़ा लाल अजगर पीछा कर रहा था और सता रहा था। इसने परमेश्वर के प्रति मेरे रवैये को जाहिर कर दिया। मैं स्वार्थी, नीच और मानवता से रहित इंसान था। अगर किसी दिन मुझे मसीह की मेजबानी करने को कहा जाता, तो मैं उसके साथ भी यही व्यवहार करता। जब मैंने भाई-बहनों के साथ किए अपने व्यवहार को याद किया, तो मन में एक खलबली-सी मच गई, मानो मैंने कोई भयंकर आपदा बुला ली हो, मैं पीड़ा और बेचैनी से तड़प उठा। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मुझमें मानवता नाम की कोई चीज नहीं है। मैंने तेरे वचनों के पोषण का भरपूर आनंद लिया है, फिर भी मैंने तेरी इच्छा का कोई ख्याल नहीं किया। भाई-बहन जब परेशानी में थे, तो मैंने उन्हें शरण देने से इनकार कर दिया और तरह-तरह के बहाने बनाकर उन्हें निकाल दिया। मेरे कृत्य और आचरण तेरे लिए घृणित और निंदनीय हैं। आज अपने अँधकार और कष्टों के लिए मैं स्वयं दोषी हूँ, इससे तेरी धार्मिकता प्रकट होती है। तू धन्य है, मैं तेरी स्तुति करता हूँ! हे परमेश्वर, अगर अभी भी मेजबानी का अवसर हो, तो मैं पश्चाताप कर बेशक अपने तौर-तरीके सुधारूंगा और तेरी संतुष्टि के लिए अपना कर्तव्य निभाऊंगा!"
कुछ समय बाद मैं एक दूसरी जगह काम करने गया। मैं परमेश्वर का आभारी था, मैंने उस अवसर को संजोया। उसके कुछ समय बाद ही, मेरी पत्नी अचानक गंभीर रूप से बीमार होकर चल बसी। देहांत से पहले उसके आखिरी शब्द थे : "अगर मैं कल को अपने कर्तव्य-निर्वहन के लिए बाहर न जा सकूँ, तो आप अच्छे से अपना काम करना।" उसके आखिरी शब्दों में प्रायश्चित का भाव था, मैं आत्म-चिंतन करने लगा। पत्नी का आजीवन जो आचरण और कार्य थे, मैंने उन पर विचार किया, वह अपना कर्तव्य निभाते समय केवल अपने हितों की सोचती थी और निष्ठावान या आज्ञाकारी नहीं थी। कायरता के कारण वह भाई-बहनों की मेजबानी नहीं करना चाहती थी। उसने मुझे भी आग्रह करके उन्हें घर से भगाने के लिए उकसाया। यह एक बुरा कर्म था। उसके आखिरी शब्दों से मुझे लगा कि अपने कर्तव्य के प्रति उसमें अपराध-बोध और पछतावा था। मेरी पत्नी की मृत्यु मेरे लिए भी एक चेतावनी थी, मुझे एहसास हुआ कि मैं अपने कर्तव्य में पहले की तरह पेश नहीं आ सकता, अगर मैंने अपने कर्तव्य-निर्वहन के लिए मौत आने तक इंतजार किया, तो बहुत देर हो चुकी होगी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मैं 70 साल का हूँ; मैं दूसरा कोई काम नहीं कर सकता। तेरी कृपा से ही मैं मेजबानी कर सकता हूँ। मैं पहले बहुत स्वार्थी था और बहुत अच्छा मेजबान नहीं था, मैंने बहुत अपराध किए हैं। मैं अपने बचे-खुचे जीवन में पश्चात्ताप और सत्य का अनुसरण करने और अच्छे से कर्तव्य निभाने को तैयार हूँ।"
फिर मैंने इस पर भी विचार किया कि मेरी गिरफ्तारी के भय, सुरक्षा की चिंता, संपत्ति की हिफाजत और बच्चों के भविष्य की फिक्र के पीछे मूल कारण क्या थे। फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े। "खुद को बचाने में, मसीह-विरोधी अक्सर भाई-बहनों की सुरक्षा की उपेक्षा कर देते हैं। इसके बारे में 'आस्था' रखने और खुद को पूरी तरह से परमेश्वर को 'सौंपने' के अलावा, वे कलीसिया के कार्य और अपने कर्तव्य के प्रति लापरवाह रहते हैं। वे बेमन से काम करते हैं, किसी भी चीज को गंभीरता से नहीं लेते। अगर कोई स्थान सुरक्षित होता है, या अगर कोई कार्य या कर्तव्य उनकी सुरक्षा सुनिश्चित कर सकता है और उसमें जोखिम नहीं होता, तो वे अपनी महान 'जिम्मेदारी की भावना' और 'वफादारी' दिखाने के लिए वहाँ जाने में बहुत सकारात्मक और सक्रिय रहते हैं। अगर किसी कार्य में जोखिम होता है और उसके खराब होने या उसे करने वाले के बड़े लाल अजगर द्वारा पकड़ लिए जाने की संभावना होती है, तो वे बहाने बना देते हैं और उसे किसी और को सौंपकर उससे बचकर भागने का मौका ढूँढ़ लेते हैं। जैसे ही कोई खतरा होता है, या जैसे ही खतरे का कोई संकेत होता है, वे भाई-बहनों की परवाह किए बिना, खुद को छुड़ाने और अपना कर्तव्य त्यागने के तरीके सोचते हैं। वे केवल खुद को खतरे से बाहर निकालने की परवाह करते हैं। दिल में वे पहले से ही तैयार रह सकते हैं। जैसे ही खतरा प्रकट होता है, वे उस काम को तुरंत छोड़ देते हैं जिसे वे कर रहे होते हैं, इस बात की परवाह किए बिना कि कलीसिया का काम कैसे होगा, या इससे परमेश्वर के घर के हितों या भाई-बहनों की सुरक्षा को क्या नुकसान पहुँचेगा। उनके लिए जो मायने रखता है, वह है भागना। यहाँ तक कि उनके पास एक 'तुरुप का इक्का', खुद को बचाने की एक योजना भी होती है : जैसे ही उन पर खतरा मँडराता है या उन्हें गिरफ्तार किया जाता है, वे जो कुछ भी जानते हैं वह सब कह देते हैं, खुद को पाक-साफ बताकर तमाम जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं। फिर वे सुरक्षित हो जाते हैं, है न? उनके पास ऐसी योजना भी होती है। ये लोग परमेश्वर पर विश्वास करने के कारण उत्पीड़न सहने को तैयार नहीं होते; वे गिरफ्तार होने, प्रताड़ित किए जाने और दोषी ठहराए जाने से डरते हैं। सच तो यह है कि वे बहुत पहले ही शैतान के आगे घुटने टेक चुके हैं। वे शैतानी शासन की शक्ति से भयभीत हैं, और इससे भी ज्यादा खुद पर होने वाली यातना और कठोर पूछताछ जैसी चीजों से डरते हैं। इसलिए, मसीह-विरोधियों के साथ अगर सब-कुछ सुचारु रूप से चल रहा होता है, और उनकी सुरक्षा को कोई खतरा या उसे लेकर कोई समस्या नहीं होती, तो वे अपने उत्साह और वफादारी, यहाँ तक कि अपनी संपत्ति की भी पेशकश कर सकते हैं। लेकिन अगर हालात खराब हों और परमेश्वर पर विश्वास करने और अपना कर्तव्य निभाने के कारण उन्हें किसी भी समय गिरफ्तार किया जा सकता हो, और अगर परमेश्वर पर उनके विश्वास के कारण उन्हें उनके आधिकारिक पद से हटाया जा सकता हो या उनके करीबी लोगों द्वारा त्यागा जा सकता हो, तो वे असाधारण रूप से सावधान रहेंगे, न तो सुसमाचार का प्रचार करेंगे, न ही परमेश्वर की गवाही देंगे और न ही अपना कर्तव्य निभाएँगे। जब परेशानी का कोई छोटा-सा भी संकेत होता है, तो वे छुईमुई बन जाते हैं; जब परेशानी का कोई छोटा-सा भी संकेत होता है, तो वे परमेश्वर के वचनों की अपनी पुस्तकें और परमेश्वर पर विश्वास से संबंधित कोई भी चीज फौरन कलीसिया को लौटा देना चाहते हैं, ताकि खुद को सुरक्षित और हानि से बचाए रख सकें। क्या ऐसा व्यक्ति खतरनाक नहीं है? गिरफ्तार किए जाने पर क्या वह यहूदा नहीं बन जाएगा? मसीह-विरोधी इतना खतरनाक होता है कि कभी भी यहूदा बन सकता है; इस बात की संभावना हमेशा बनी रहती है कि वह परमेश्वर से मुँह मोड़ लेगा। इतना ही नहीं, वह परम स्वार्थी और नीच होता है। यह मसीह-विरोधी की प्रकृति और सार द्वारा निर्धारित होता है" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग दो))। परमेश्वर ऐसे मसीह-विरोधियों का विश्लेषण करता है जो सुरक्षित परिस्थितियों में त्याग कर और स्वयं को खपाकर कष्ट उठा सकते हैं। देखने में वे अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित लगते हैं, लेकिन खतरा देखते ही भाग खड़े होते हैं, कर्तव्य-निर्वहन से बचने के लिए तरह-तरह के बहाने ढूँढ़ते हैं, उन्हें कलीसिया के कार्य या भाई-बहनों की सुरक्षा की कोई चिंता नहीं होती, वे केवल अपने हितों की सोचते हैं। वे विशेष रूप से स्वार्थी और नीच होते हैं। अगर मैं अपने कार्यों और आचरण की तुलना करूँ, तो क्या मेरा स्वभाव भी मसीह-विरोधी जैसा नहीं था? परमेश्वर में विश्वास रखने की शुरुआत में, मुझे परमेश्वर का काफी अनुग्रह मिला। मेरी आँखों के असाध्य रोग में चमत्कारिक सुधार हुआ, इसलिए लोगों की मेजबानी करने के लिए मैंने पूरे जोश से खुद को खपाया। लेकिन जब पता चला कि जिन लोगों की मैंने मेजबानी की थी, उनमें से कुछ गिरफ्तार हो गए और मैं भी फँस सकता हूँ, मेरी सुरक्षा और हितों को खतरा हो सकता है, तो फिर मैं मेजबानी करने को तैयार नहीं था, बल्कि उन्हें निकालने के बहाने खोज लिए और उनकी सुरक्षा की परवाह नहीं की। मैं बहुत स्वार्थी और नीच था, मुझमें जरा भी मानवता नहीं थी। मैंने सीसीपी द्वारा बिछाए गए जाल और फंदों के बारे में भी सोचा कि कैसे वे निष्ठावान लोगों की गिरफ्तारी के लिए हर हथकंडा अपना रहे हैं, परमेश्वर के कार्य को नष्ट करने और उसके चुने हुए लोगों को गिरफ्तार करने का व्यर्थ प्रयास कर रहे हैं। इन क्रूर और भयानक हालात में बहुत से भाई-बहनों को गिरफ्तार कर बेघर कर दिया गया। परमेश्वर यह सब नहीं देखना चाहता, इन हालात में, जरूरी है कि लोग उसकी इच्छा पर ध्यान दें और इन भाई-बहनों की मेजबानी का जोखिम उठाएँ। नेक कर्म करने का यही अर्थ है और परमेश्वर इन्हें याद रखता है। मुझे गिरफ्तारी का डर था, इसलिए मैंने मेजबानी से हाथ खींच लिया। मैंने परमेश्वर की इच्छा पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया, मुझमें न अंतरात्मा थी और न ही विवेक। आगे विचार करने पर, एहसास हुआ कि मुझे अपने जीवन से मोह के कारण गिरफ्तारी और मौत का डर है। मुझे प्रभु यीशु के वचन याद आए, "क्योंकि जो कोई अपना प्राण बचाना चाहे, वह उसे खोएगा; और जो कोई मेरे लिये अपना प्राण खोएगा, वह उसे पाएगा" (मत्ती 16:25)। प्रभु के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि हमारा सांसारिक जीवन क्षणिक है, और सच्चा जीवन ही अमर है। जैसे पतरस को परमेश्वर के लिए सूली पर उल्टा लटकाया गया था, उसने अपना सांसारिक जीवन भले ही गँवा दिया, लेकिन अनंत जीवन पा लिया। गिरफ्तार किए गए भाई-बहनों का उत्पीड़न तो किया जा सकता है, मारा-पीटा या हत्या भी की जा सकती है, लेकिन वे गवाही में दृढ़ बने रहकर परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त करते हैं। ऐसा जीवन ही सार्थक और मूल्यवान होता है। इस विचार से मुझे आस्था और शक्ति प्राप्त हुई, मेरी बुजदिली और डर जाता रहा।
दिसंबर के अंत में एक दिन अचानक एक भाई मेरे पास आया और बोला कि उसका और एक अन्य भाई का मौजूदा निवास अब सुरक्षित नहीं रहा। उसने पूछा कि क्या वे कुछ समय के लिए मेरे साथ रह सकते हैं। मैं समझ गया कि परमेश्वर मुझे पश्चात्ताप का एक और मौका दे रहा है, मैंने तुरंत हाँ कर दी। मैंने उनकी दैनिक जरूरतों का सामान भी मुहैया करा दिया। सीसीपी द्वारा गिरफ्तारियां और उत्पीड़न और भी सख्त हो गए, मुझे भाई-बहनों के गिरफ्तार होने की खबरें मिलती रहीं। दोनों भाई अभी भी मेरे साथ ही रह रहे थे, मुझे थोड़ा डर तो लग रहा था कि अगर मैं गिरफ्तार हो गया तो मेरे बच्चे फंस जाएँगे। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उसके वचन पढ़े। मैंने परमेश्वर के वचनों में पढ़ा : "शैतान चाहे जितना भी 'सामर्थ्यवान' हो, चाहे वह जितना भी दुस्साहसी और महत्वाकांक्षी हो, चाहे नुकसान पहुँचाने की उसकी क्षमता जितनी भी बड़ी हो, चाहे मनुष्य को भ्रष्ट करने और लुभाने की उसकी तकनीकें जितनी भी व्यापक हों, चाहे मनुष्य को डराने की उसकी तरकीबें और योजनाएँ जितनी भी चतुराई से भरी हों, चाहे उसके अस्तित्व के रूप जितने भी परिवर्तनशील हों, वह कभी एक भी जीवित चीज सृजित करने में सक्षम नहीं हुआ, कभी सभी चीजों के अस्तित्व के लिए व्यवस्थाएँ या नियम निर्धारित करने में सक्षम नहीं हुआ, और कभी किसी सजीव या निर्जीव चीज पर शासन और नियंत्रण करने में सक्षम नहीं हुआ। ब्रह्मांड और आकाश के भीतर, एक भी व्यक्ति या चीज नहीं है जो उससे पैदा हुई हो, या उसके कारण अस्तित्व में हो; एक भी व्यक्ति या चीज नहीं है जो उसके द्वारा शासित हो, या उसके द्वारा नियंत्रित हो। इसके विपरीत, उसे न केवल परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन रहना है, बल्कि, परमेश्वर के सभी आदेशों और आज्ञाओं का पालन करना है। परमेश्वर की अनुमति के बिना शैतान के लिए जमीन पर पानी की एक बूँद या रेत का एक कण छूना भी मुश्किल है; परमेश्वर की अनुमति के बिना शैतान धरती पर चींटियों का स्थान बदलने के लिए भी स्वतंत्र नहीं है, परमेश्वर द्वारा सृजित मानव-जाति की तो बात ही छोड़ दो। परमेश्वर की दृष्टि में, शैतान पहाड़ पर उगने वाली कुमुदनियों से, हवा में उड़ने वाले पक्षियों से, समुद्र में रहने वाली मछलियों से, और पृथ्वी पर रहने वाले कीड़ों से भी तुच्छ है। सभी चीजों के बीच उसकी भूमिका सभी चीजों की सेवा करना, मानव-जाति के लिए कार्य करना, और परमेश्वर के कार्य और उसकी प्रबंधन-योजना के काम आना है। उसकी प्रकृति कितनी भी दुर्भावनापूर्ण क्यों न हो, और उसका सार कितना भी बुरा क्यों न हो, केवल एक चीज जो वह कर सकता है, वह है अपने कार्य का कर्तव्यनिष्ठा से पालन करना : परमेश्वर के लिए सेवा देना, और परमेश्वर को एक विषमता प्रदान करना। ऐसा है शैतान का सार और उसकी स्थिति। उसका सार जीवन से असंबद्ध है, सामर्थ्य से असंबद्ध है, अधिकार से असंबद्ध है; वह परमेश्वर के हाथ में केवल एक खिलौना है, परमेश्वर की सेवा में रत सिर्फ एक मशीन है!" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे आस्था और शक्ति दी। मैं समझ गया कि हर चीज पर परमेश्वर का ही प्रभुत्व है, शैतान तो मात्र एक सेवा की वस्तु और उसके हाथ का खिलौना है। शैतान परमेश्वर के चुने हुए लोगों को पूर्ण करने का कार्य करता है, शैतान की ताकतें कितनी भी मजबूत, बर्बर या दुर्भावनापूर्ण क्यों न प्रतीत हों, अगर परमेश्वर हम पर किसी परिस्थिति-विशेष के आने की इजाजत न दे, तो सीसीपी चाहे कितनी भी क्रूरता करे, उसके कुकृत्य नाकाम साबित होंगे। परमेश्वर शैतान के लिए जो सीमा तय करता है, वह उसे पार करने की हिम्मत नहीं करता। यह परमेश्वर के अधिकार और सामर्थ्य से तय होता है। मुझे अपनी गिरफ्तारी और बच्चों के फंसने का डर इसलिए था क्योंकि मुझे परमेश्वर के अधिकार और सर्वशक्तिमान संप्रभुता की समझ नहीं थी। मुझे गिरफ्तार किया जाएगा या नहीं यह परमेश्वर के हाथों में था, जैसे मेरे बच्चों और पोते-पोतियों का भविष्य भी उसी के हाथों में है। परमेश्वर इन चीजों को बहुत पहले तय कर चुका है और कोई भी इंसान इन्हें बदल नहीं सकता। सीसीपी भले ही कितना भी दावा करे कि विश्वासियों के वंशज यूनिवर्सिटी में प्रवेश नहीं पा सकते, उन्हें सिविल सेवा या सेना में दाखिला नहीं मिल सकता और उनके सभी सगे-सबंधियों को फंसा दिया जाएगा, मगर सीसीपी किसी की किस्मत नहीं बदल सकती। इससे उसकी दुष्टता, परमेश्वर-विरोधी और परमेश्वर से घृणा करने वाला सार ही उजागर होता है। आपदाएँ बड़े पैमाने पर बढ़ रही हैं, अगर लोग परमेश्वर पर विश्वास नहीं करेंगे या अपने पाप दूर नहीं करेंगे, तो वे नष्ट कर दिए जाएंगे। फिर उनके पास क्या भविष्य बचेगा? केवल परमेश्वर के सामने आकर, सत्य का अभ्यास और अच्छे से अपना कर्तव्य-निर्वहन करते हुए ही हम शांति, आनंद और एक अच्छा अंतिम भाग्य प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार मैं खुद को और अपने परिवार को परमेश्वर के हाथों में सौंपकर उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो गया। जब मैं उन पर विचार करता हूँ जिनको आश्रय देना मैंने ठुकरा दिया था, तो बतौर एक विश्वासी यह मेरे जीवन का अमिट कलंक बन गया है और यह एक शर्मिंदगी की भी निशानी है। मैं अब परमेश्वर के दिल को चोट नहीं पहुंचा सकता। अगर मुझे गिरफ्तार कर लिया जाए और मेरे पास कुछ न बचे, तो भी मैं अपना कर्तव्य ठीक से निभाऊंगा और भाई-बहनों की मेजबानी करूंगा।
मैं अभी भी एक मेजबान के रूप में अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ, अब मैं वो काम करके संतुष्ट नहीं हूँ जो मैंने पहले किए थे। मैं अब सत्य का अनुसरण कर अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने पर ध्यान देता हूँ। मेरा दिल पहले की तुलना में बहुत सुकून और अधिक शांति में है! इस अनुभव से, मैंने जाना कि परमेश्वर का कार्य सच में बुद्धिमत्तापूर्ण है। बड़े लाल अजगर द्वारा गिरफ्तारी और उत्पीड़न ने मेरी भ्रष्टता उजागर कर दी जिससे मैं यह समझ पाया कि मैं स्वार्थी और नीच था, मुझमें अपने कर्तव्य के प्रति कोई निष्ठा नहीं थी। मैंने अपनी भ्रष्टता की थोड़ी समझ पाई और कुछ हद तक खुद को बदलने में कामयाब रहा। मैं वास्तव में परमेश्वर का आभारी हूँ!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?