अपनी मर्जी से कर्तव्य निभाने के नतीजे
जून 2020 में, मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया था। पहले-पहल काम में समस्या होने पर, मैं सचेत होकर सिद्धांत खोज पाती थी, काम कैसे करना है, यह जानकर भी मैं सहकर्मियों की सलाह लेती थी, और सबके सहमत होने पर ही काम करती थी। मगर, कुछ समय बाद, मैंने पाया कि ज्यादातर मेरी सलाह ही सही होती थी, पहले मैं अगुआ रह चुकी थी, तो मुझे लगा मैं कुछ सिद्धांतों को समझती हूँ, लोगों और मामलों को समझ कर सही व्यवस्थाएं भी कर सकती हूँ। खास तौर से, एक बार, जब सुसमाचार कार्य ज्यादा प्रभावी नहीं था, तो मेरी सहभागी नहीं जानती थी कि इसे कैसे ठीक करें, तो मैंने प्रस्ताव रखा कि जो भाई-बहन सुसमाचार का प्रचार किया करते थे, वे साथ काम करें और एक सुसमाचार समूह बना लें, तो वे सब अपनी-अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल कर सकेंगे। फिर, हमने सत्य खोजकर सुसमाचार कार्य की मुश्किलों को सुलझाने के लिए संगति की, कुछ समय बाद, सुसमाचार कार्य की प्रभाविता काफी सुधर गई। अनजाने में ही मैं खुद पर गौरव करने लगी और बेपरवाह हो गई, मुझे लगा मैं एक काबिल अगुआ थी, कर्मियों और कलीसिया के कार्य की उचित व्यवस्था कर सकती थी।
कुछ महीने बाद, कलीसिया को एक उपयाजक का उपचुनाव करना था। चुनाव से पहले, मैंने कलीसिया के सभी लोगों पर नजर डाली, मुझे लगा बहन ली सबसे उपयुक्त थी। उसने कई बर्षों से विश्वास रखा था, वह त्याग कर खुद को खपा सकती थी, और उसका मन लचीला था। वह पहले सुसमाचार का प्रचार करने कई जगह जा चुकी थी और उसके नतीजे अच्छे थे। अब वह बाहर गाँव से अभी हाल ही में लौटी थी, पर बहुत-से लोगों का मत परिवर्तन कर चुकी थी, तो मुझे लगा वह सुसमाचार उपयाजिका बनने के लिए सही रहेगी। लेकिन मैंने बहुत-सी टिप्पणियाँ देखीं कि वह घमंडी स्वभाव की है, अक्सर दूसरों को दबा कर रखती है, और ऐसे लोगों पर हमला करती है, जो अपने कर्तव्य में सक्रिय थे, तो मैं झिझक गई। लेकिन फिर मैंने सोचा, वह काम अच्छा कर सकती थी, और असरदार तरीके से सुसमाचार का प्रचार करती थी, तो कुछ समस्याएँ होने पर भी अगर हमने उसकी मदद की, तो कोई मुश्किल नहीं होगी। बार-बार सोचने के बाद, मुझे लगा बहन ली सुसमाचार उपयाजिका बनने योग्य है। अगले दिन, मैंने अपनी राय अपनी सहभागी से साझा की। उसने कहा, "बहन ली दूसरों को बहुत ज्यादा दबाकर रखती है। वह खुद ही सुसमाचार का प्रचार कर सकती है। लेकिन एक सुसमाचार उपयाजिका के रूप में वह सुसमाचार कार्य को बाधित करेगी, तो हमें सतर्क रहना होगा।" तब, अपनी बहन की यह बात सुनकर मुझे खुशी नहीं हुई। मुझे लगा, "तुमने कुछ समय से ही परमेश्वर में विश्वास रखा है, और तुम्हारी राय काफी एकतरफा है। मैं लोगों और चीजों को ज्यादा सही तौर पर समझती हूँ, तो तुम्हें मेरी बात सुननी चाहिए।" इसलिए, मैंने चिढ़े हुए भाव के साथ उससे कहा, "सुसमाचार उपयाजक चुनते समय, सबसे अहम चीज यह है कि क्या वह इंसान सुसमाचार कार्य करने में सक्षम है, इसमें विशेषज्ञता रखता है। अगर वह घमंडी है, और उसमें दूसरों को दबाने की प्रवृत्ति है, लेकिन उसमें कार्यक्षमता है, उसका प्रचार असरदार होता है। हमें सीखना होगा कि लोगों का उनकी खूबियों के अनुसार कैसे इस्तेमाल करें, और छोटी-छोटी समस्याओं में फँसे न रहें।" यह सुनकर मेरी सहभागी बहुत हताश हो गई, इसलिए वह कुछ और नहीं बोली।
फिर, मैंने चुनाव के बारे में भाई-बहनों के साथ संगति की, मगर चुनाव के सिद्धांतों पर संगति नहीं की। इसके बजाय, मैंने जानबूझ कर जोर दिया कि जो सक्षम हो, असरदार हो, उसे ही चुना जाना चाहिए। मेरी संगति के बाद, ज्यादातर भाई-बहनों ने बहन ली को सुसमाचार उपयाजिका के रूप में चुना। तब, मैं बहुत खुश हुई। एकाएक, मेरी वरिष्ठ अगुआ ने बहन ली का आकलन पढ़ने के बाद कहा, बहन ली हमेशा दूसरों को दबाकर रखती है, और दूसरों के बढ़-चढ़कर काम करने पर उन पर हमला करती है, वह खास तौर से घमंडी है, और अपने भाई-बहनों की सलाह नहीं मानती। अगुआ ने कहा कि वह सुसमाचार उपयाजिका के रूप में चुनी गई, तो हमारा काम आसानी से बाधित कर देगी। मैंने सोचा, "आप मेरी कलीसिया के कर्मियों की हालत नहीं जानतीं। अगर मैंने चीजों को लेकर बहुत सख्ती दिखाई, तो कोई भी उपयुक्त इंसान नहीं मिलेगा। इसके अलावा, बहन ली पूरी तरह से ठुकरा देने लायक नहीं है। पिछली बार जब मैंने उसका निपटान किया, तो उसने इसे स्वीकारा था। इस भूमिका के लिए वह बहुत सही है।" यह सोचकर मैंने फौरन कहा, "बहन ली निपटान स्वीकार सकती है, उसका सुसमाचार का प्रचार असरदार है। उसके घमंडी स्वभाव के लिए हम उसकी मदद कर सकते हैं, और वह इस पद को संभाल सकती है। इसके अलावा, कलीसिया में फिलहाल उससे ज्यादा उपयुक्त दूसरा कोई नहीं है।" सुनने के बाद, अगुआ ने असहाय होकर कहा, "फिर उसे कुछ समय तक अभ्यास करने देते हैं, फिर देखेंगे। अगर आप देखें कि वह लोगों पर हमला कर रही है, काम को बाधित कर रही है, तो समय रहते उसका तबादला कर दें।" इस तरह, बहन ली सुसमाचार उपयाजिका बन गई।
कुछ ही दिनों में, मेरी सहभागी ने कहा, "हाल में, मैं बहन ली के संपर्क में रही हूँ, मैंने पाया है कि वह अब भी लोगों को बुरी तरह से दबाती है। जब सुसमाचार कर्मियों में कमियाँ होती हैं, तो वह उनकी मदद करने के बजाय उन पर हमला करती है, कहती है वे बेकार हैं, बहुत धीरे-धीरे प्रगति करते हैं, या सारा काम अकेले वही करती है और उन लोगों के साथ सहयोग करना बहुत मुश्किल है, इससे सभी लोग नकारात्मक हालत में पहुँच जाते हैं।" मैंने उसकी सलाह गंभीरता से नहीं ली, और सोचा, "सबमें भ्रष्टता है, लेकिन अगर वे अपना कर्तव्य निभा सकें और असरदार हों, तो ठीक ही है। तुम्हारा अनुभव और तुम्हारी अंतर्दृष्टि अब भी बहुत सतही है। मैंने उस जैसे बहुत देखे हैं। अगर तुम उनके साथ संगति कर उनका निपटान करो, तो वे जरूर काम कर सकते हैं।" मैंने उस बहन से यह भी कहा, "हमें उसकी खूबियों पर ज्यादा गौर करना चाहिए। वह घमंडी है, लेकिन सुसमाचार का प्रचार कर सकती है। हमें इन छोटी-छोटी खामियों के प्रति सहनशील होना चाहिए। आगे से, मैं उसके साथ ज्यादा संगति करूंगी।" मैंने अपनी सहभागी की बात काट दी, तो फिर वह कुछ नहीं बोली। बाद में, बहन ली से मिलने पर मैंने उसे उजागर कर उसकी समस्याओं का विश्लेषण करना चाहा, लेकिन जैसे ही हम मिले, वह बोली कि अब सुसमाचार कार्य बहुत असरदार है। मैंने देखा वह अपने कर्तव्य में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही थी, तो मैंने थोड़े शब्दों में उसके घमंडी स्वभाव और दूसरों को दबाने का जिक्र किया और भाई-बहनों के साथ सही ढंग से पेश आने के तरीकों के बारे में उससे संगति की। सुनकर वह बोली कि वह बदलने को तैयार है, इसलिए मैं आगे कुछ नहीं बोली। बाद में, बहुत-सी बहनें एक-के-बाद-एक शिकायत करने लगीं कि बहन ली न सिर्फ व्यावहारिक कार्य नहीं करती, बल्कि लोगों को मुश्किल होने पर उनकी समस्याएँ सुलझाने के लिए वह सत्य पर संगति भी नहीं करती, और अक्सर नाराज होकर लोगों को डांटती-डपटती या उन पर हमले करती थी, जिससे सब नकारात्मक हालत में चले जाते और सुसमाचार का प्रचार करने को तैयार नहीं होते। सुसमाचार कार्य की प्रभाविता गिर चुकी थी, इसकी प्रगति में बड़ी रुकावट पैदा हो गई थी। मुझे लगा, "क्या उसे उपयाजिका चुनने पर जोर देकर मैंने सच में गलती की? भाई-बहनों ने कई बार इस बात का जिक्र किया था, इसलिए अब मैं अपने नजरिए से चिपकी नहीं रह सकती।" इसके बाद, मैंने बहन ली के आकलनों पर नजर डाली, और देखा कि वह सुसमाचार कार्य के अपने कई वर्षों के अनुभव के सहारे ऊँचे ओहदे से, लोगों को अक्सर डांटती-डपटती और उन पर हमले करती थी, जिससे वे दबा हुआ महसूस करते थे, और नकारात्मक हालत में सामान्य ढंग से अपना कर्तव्य नहीं निभा पाते थे। जब दूसरे उसकी समस्याएँ बताते, तो वह दलीलें देकर खुद को बचाती थी। बहुत-से लोगों ने उसके साथ संगति की, लेकिन उसने नहीं स्वीकारा। यह नतीजा देखकर मैं हक्का-बक्का रह गई। मुझे उम्मीद नहीं थी कि बहन ली की समस्या इतनी गंभीर होगी। इतने वर्ष काम करने के बाद, मैंने एक गलत इंसान को उपयाजिका बनने के लिए चुना था, काम बिगाड़ दिया था, और दूसरों को शिकायत का मौका दिया था। इससे मैं बहुत दुखी हो गई। बाद में, बहन ली के निरंतर ऐसे व्यवहार के आधार पर, यह तय किया गया कि वह एक सुसमाचार उपयाजिका के रूप में उपयुक्त नहीं है, और उसे हटा दिया गया।
बहन ली को बर्खास्त करने के बाद, मुझे ऐसा कुछ महसूस हुआ जो मैं बयान नहीं कर सकती। लगा जैसे मुझे जोर का थप्पड़ जड़ दिया गया हो। मैंने याद किया कि कैसे मेरी सहभागी ने बहन ली की समस्याओं के बारे में इतनी बार बताया था, फिर भी मैंने उसे गंभीरता से नहीं लिया था, नतीजतन, मैंने परमेश्वर के घर के कार्य को गंभीर नुकसान पहुँचाया। मुझे बहुत पछतावा हुआ, मैंने दोषी महसूस किया, और खुद से पूछा, "मैंने बहन ली को चुनने में इतनी बड़ी गलती कैसे कर दी? मैं आत्मचिंतन कैसे करूँ, और सत्य के किस पहलू में प्रवेश करूँ?" मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे मुझे प्रबुद्ध करने की विनती की, ताकि मैं खुद को जान सकूँ। फिर मैंने परमेश्वर के वचन का यह अंश पढ़ा, "कुछ लोग अपने कर्तव्य का पालन करते हुए कभी सत्य की तलाश नहीं करते। वे, अपनी कल्पनाओं के अनुसार आचरण करते हुए, महज़ वही करते हैं जो उन्हें अच्छा लगता है, वे हमेशा स्वेच्छाचारी और उतावले बने रहते हैं, और वे बस सत्य का अभ्यास करने के मार्ग पर नहीं चलते। 'स्वेच्छाचारी और उतावला' होने का क्या अर्थ है? इसका मतलब है कि जब तुम्हारा किसी समस्या से सामना हो, तो किसी विचार-प्रक्रिया या खोज-प्रक्रिया के बगै़र, उस तरह का आचरण करना जो तुम्हारे हिसाब से ठीक बैठता हो। किसी और का कहा हुआ कुछ भी तुम्हारे दिल को नहीं छू सकता, न तुम्हारे दिमाग को बदल सकता है। यहाँ तक कि अपने साथ सत्य की संगति किए जाने पर भी तुम उसे स्वीकार नहीं कर सकते, तुम अपनी ही राय पर अड़े रहते हो, जब दूसरे लोग कुछ भी सही कहते हैं, तब तुम नहीं सुनते, खुद को ही सही मानते हो और अपने ही विचारों से चिपके रहते हो। भले ही तुम्हारी सोच सही हो, तुम्हें दूसरे लोगों की राय पर भी ध्यान देना चाहिए, है न? और अगर तुम ऐसा बिलकुल नहीं करते, तो क्या यह अत्यधिक दंभी होना नहीं है? जो लोग अत्यधिक दंभी और स्वच्छंद होते हैं, उनके लिए सत्य को स्वीकार करना आसान नहीं होता। अगर वे कुछ गलत करते हैं और तुम यह कहते हुए उनकी आलोचना करते हो, 'तुम इसे सत्य के अनुसार नहीं कर रहे!' तो वे जवाब देते हैं, 'भले ही मैं इसे सत्य के अनुसार नहीं कर रहा, फिर भी मैं इसे इसी तरह से करने वाला हूँ।' और फिर वे कोई ऐसा कारण ढूँढ़ते हैं, जिससे वे तुम्हें सही लगने लगे। अगर तुम उन्हें यह कहते हुए फटकार लगाते हो, 'तुम्हारा इस तरह से काम करना दखलंदाजी है और यह परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाएगा,' तो न केवल वे नहीं सुनते, बल्कि बहाने भी बनाते रहते हैं : 'मुझे लगता है कि यही सही तरीका है, इसलिए मैं इसे इसी तरह करने वाला हूँ।' यह कौन-सा स्वभाव है? (अहंकार।) अहंकारी स्वभाव लोगों को जिद्दी बनाता है। जब लोगों का ऐसा दुराग्रही स्वभाव होता है, तो क्या वे स्वेच्छाचारी और अविवेकी होने की ओर उन्मुख नहीं होते?" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। परमेश्वर के वचन ने मेरी हालत का सटीक खुलासा किया। मुझे लगा, मैं कई वर्षों से अगुआ थी, कुछ सिद्धांत अच्छी तरह से जानती थी, अपने काम में कुछ नतीजे पाए थे, सत्य को समझती थी, लोगों और चीजों को स्पष्ट रूप से समझ सकती थी, इसलिए मैं खास तौर से खुद पर भरोसा करती थी। जब कोई समस्या आती, तो मैं अपने मन की करती, और सत्य खोजने के बारे में नहीं सोचती। मेरी सहभागी ने मुझसे यह पता लगाने को कहा था कि क्या बहन ली सिद्धांतों के अनुसार प्रायश्चित करके बदल चुकी थी, लेकिन मैंने नहीं सुनी, उसकी बात नहीं मानी, और अड़ी रही कि वह मेरी बात माने। चुनाव के दौरान, मैंने दूसरों को गुमराह करने के लिए जान-बूझ कर अपनी राय पर जोर दिया। चुनाव के बाद, वरिष्ठ अगुआ ने मुझे याद दिलाया था कि बहन ली उपयुक्त नहीं थी, लेकिन मैं घमंड के साथ अपनी राय से चिपकी रही, और अपनी अगुआ की बात काटने की दलीलें ढूँढ़ लीं। सुसमाचार उपयाजिका बन जाने के बाद, बहन ली ने हर चीज में दूसरों को दबाकर रखा। जब मेरी सहभागी ने इस समस्या की ओर फिर से इशारा किया, तब भी मैंने आत्मचिंतन नहीं किया। मुझे लगा, उसका अनुभव और अंतर्दृष्टि बहुत कम है, और मैंने उसकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया। मैंने यह भी कहा कि काबिलियत वाले लोगों का थोड़ा घमंडी होना आम बात है। मैंने बहन ली को बचाने और माफ करने के लिए इसे एक बहाने के रूप में इस्तेमाल किया। मैं अड़ियल बनकर अपनी राय से चिपकी रही, मैंने नहीं देखा कि क्या बहन ली व्यावहारिक कार्य करती थी या रोड़े अटकाती थी, नतीजतन, सभी लोग अपने कर्तव्य में उससे दबा हुआ महसूस करने लगे, जिससे सुसमाचार कार्य में बड़ी रुकावटें पैदा हो गईं। मैं बहुत ज्यादा घमंडी और मनमानी करनेवाली थी! मैं अपना कर्तव्य कैसे निभा रही थी? मैं बाधा और परेशानी खड़ी कर रही थी, दुष्टता कर परमेश्वर का प्रतिरोध कर रही थी, जिससे परमेश्वर घृणा करता है। यह समझ लेने के बाद, कुछ समय तक मैं डरे बिना नहीं रह सकी, तो मैंने फौरन प्रायश्चित करने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की, कहा कि मैं अपनी गलत हालत और विचारों को बदलना चाहती हूँ, और लोगों का इस्तेमाल करने के सिद्धांत खोजना चाहती हूँ।
अपनी खोज में, मैंने देखा कि अगुआओं और कर्मियों के चुनाव के सिद्धांतों में ऐसा जिक्र किया गया है, "अहंकारी स्वभाव के तमाम लोगों को समान रूप से बुरा नहीं समझना चाहिए। अगर कोई व्यक्ति सत्य को स्वीकार करने और व्यावहारिक कार्य करने में सक्षम हैं, तो उन्हें चुना जा सकता है" (सत्य का अभ्यास करने के 170 सिद्धांत)। घमंडी स्वभाव वाले लोगों को भी चुना जा सकता है, लेकिन उसकी एक पहली शर्त यह है : जरूरी है कि वे सत्य स्वीकार कर सकें और कुछ व्यावहारिक कार्य कर सकें। हालाँकि बहन ली में थोड़ी काबिलियत थी, और वह सुसमाचार के प्रचार में अच्छी थी, मगर उसका स्वभाव खास तौर पर घमंडी था, और वह दूसरों को नीची नजर से सिर्फ इसलिए देखती थी कि उसे सुसमाचार का अनुभव था। जब दूसरे उसकी समस्याएँ बताते, तो वह उन्हें नहीं स्वीकारती, चीजों पर मनन किए बिना खुद को सही ठहराती। कभी-कभी, ऊपर से मान लेने पर भी, वह बाद में बिल्कुल नहीं बदलती। वह सत्य को जरा भी स्वीकारने वाली इंसान नहीं थी। वह अपने ओहदे का डर दिखाकर दूसरों को दबाती, उन पर हमले करती, जिससे भाई-बहन नकारात्मक हालत में जिंदगी जीते, और इससे सुसमाचार कार्य पर गंभीर असर पड़ता। व्यावहारिक कार्य न कर सकने वाले और काम को बाधित करने वाले उस जैसे लोग, खूबियां और काबिलियत होने पर भी उपयुक्त नहीं होते, और उन्हें सुसमाचार उपयाजकों के रूप में नहीं चुना जा सकता। साथ ही, बहन ली को चुनते समय मेरा नजरिया गलत था। मेरा ख्याल था कि अगर कोई अनुभवी और असरदार है, तो वह सुसमाचार उपयाजक का काम संभाल सकता है, लेकिन यह पूरी तरह से मेरी अपनी कल्पना थी। सुसमाचार का प्रचार कर लोगों को साथ ला सकने की उसकी क्षमता से यह जरूर साबित होता था कि वह सुसमाचार कार्य में अच्छी थी, यह नहीं कि वह उस कार्य की देखरेख के लायक थी। किसी के पास कितना भी अनुभव क्यों न हो, अगर उनकी इंसानियत बुरी है, शैतानी स्वभाव से वे दूसरों को दबाकर उन पर हमले करते हैं, काट-छाँट और निपटान स्वीकार नहीं करते, तो यह एक समस्या है। ऐसे इंसान का इस्तेमाल करने से परमेश्वर के घर का कार्य बाधित होता और बिगड़ जाता है। मैंने कई वर्षों से विश्वास रखा था, लेकिन समस्याएं आने पर मैंने सत्य की खोज नहीं की, लोगों और चीजों को अपनी ही धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर देखा। मैं भला परमेश्वर की विश्वासी कैसे हो सकती थी? मूल रूप से मैं एक गैर-विश्वासी थी। इस बारे में सोचकर, मुझे दिल में चुभने वाला दर्द महसूस हुआ। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, विनती करते हुए कहा कि मैं सत्य के सिद्धांत खोजना चाहती हूँ, और अब मनमाने ढ़ंग से से काम नहीं करना चाहती।
हालाँकि मैं बदलना चाहती थी, मगर मनमानी की इच्छा के बहुत मजबूत होने के कारण, मैं फिर से वही पुरानी गलतियाँ दोहराने लगी। एक दिन, जब अगुआ हमारे काम की जाँच-पड़ताल कर रही थीं, तो उन्होंने देखा कि पाठ्य-सामग्री के काम की सुपरवाइजर बहन शू की काबिलियत कमजोर थी। लंबे समय से उसे तैयार करने की कोशिश हो रही थी, मगर उसने कोई स्पष्ट प्रगति नहीं दिखाई थी, कोई असरदार काम नहीं किया था। अगुआ ने प्रशिक्षण देने के लिए बेहतर काबिलियत वाले किसी व्यक्ति को जल्द ढूँढने की सलाह दी, और कहा कि उनके अभ्यास का समय कम भी हो तो कोई बात नहीं। मुझे लगा, भले ही बहन शू ऊँची काबिलियत वाली नहीं थी, पर वह लंबे समय से अपना कर्तव्य निभा रही थी, और जिम्मेदार थी, तो वह काम के लिए किसी नए व्यक्ति से बेहतर थी। काम में नए लोग सिद्धांतों को नहीं समझते, उन्हें कार्य का अनुभव भी नहीं होता, और उन्हें प्रशिक्षित करने में समय लगता है, इसलिए बहन शू उस भूमिका के लिए अब भी बेहतर थी। वह बुरी हालत में होने के कारण, शायद हाल में प्रभावी न रही हो। एक बार वह खुद को संभाल ले, तो उसके नतीजे खुद-ब-खुद सुधर जाएंगे। इसलिए, मैंने बहन शू का तबादला नहीं किया। कुछ समय बाद, अगुआ ने मुझे एक और पत्र भेज कर बहन शू का तबादला करने को कहा, और बहन शिन की सिफारिश करते हुए कहा कि उसकी काबिलियत अच्छी है और वह लेखन कला में कुशल है। उसने पहले पाठ्य-सामग्री का काम किया था और वह इस भूमिका के लिए तैयार करने योग्य है। मैंने देखा कि उसने बहुत थोड़े समय से ही परमेश्वर में विश्वास रखा था, और उसका अनुभव कम था। क्या वह सच में यह काम संभाल सकेगी? यह सोचकर, मैंने बहन शू के बने रहने पर जोर दिया और बहन शिन को तैयार नहीं किया। महीना खत्म होने पर ही मैं जान पाई कि पाठ्य-सामग्री का काम लगभग रुका पड़ा है। अगुआ ने मेरा निपटान करते हुए कहा कि मैं अपने विचारों पर बहुत ज्यादा अड़ी रहती हूँ, उन्होंने दो बार बहन शू का तबादला करने की सलाह दी, मगर मैंने नहीं किया, और बहन शिन को भी तैयार नहीं किया, जिससे पाठ्य-सामग्री के काम में गंभीर रुकावट पैदा हो गई। मैं बहुत दुखी हो गई। मेरी अगुआ ने दो बार मुझे याद दिलाया था कि बहन शू की काबिलियत कमजोर थी, और वह प्रशिक्षण के लायक नहीं थी। मैं इसे क्यों स्वीकार नहीं सकी? मैं हमेशा लोगों का इस्तेमाल अपनी शर्तों पर ही क्यों करती हूँ? नतीजतन, हमारे काम को इतना बड़ा नुकसान हुआ। मुझे बहुत पछतावा हुआ, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे रास्ता दिखाने की विनती की ताकि मैं आत्मचिंतन कर सकूँ।
बाद में, परमेश्वर के वचन पढ़कर मैंने अपने बारे में थोड़ी समझ हासिल की। "तुम परमेश्वर की सेवा अपने स्वाभाविक चरित्र से और अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के अनुसार करते हो। इसके अलावा, तुम हमेशा सोचते हो कि जो कुछ भी तुम करना चाहते हो, वो परमेश्वर को पसंद है, और जो कुछ भी तुम नहीं करना चाहते हो, उनसे परमेश्वर घृणा करता है, और तुम पूर्णतः अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार कार्य करते हो। क्या इसे परमेश्वर की सेवा करना कह सकते हैं? अंततः तुम्हारे जीवन स्वभाव में रत्ती भर भी परिवर्तन नहीं आएगा; बल्कि तुम्हारी सेवा तुम्हें और भी अधिक ज़िद्दी बना देगी और इससे तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव गहराई तक जड़ें जमा लेगा। इस तरह, तुम्हारे मन में परमेश्वर की सेवा के बारे में ऐसे नियम बन जाएँगे जो मुख्यतः तुम्हारे स्वयं के चरित्र पर और तुम्हारे अपने स्वभाव के अनुसार तुम्हारी सेवा से प्राप्त अनुभवों पर आधारित होंगे। ये मनुष्य के अनुभव और सबक हैं। यह दुनिया में जीने का मनुष्य का जीवन-दर्शन है। इस तरह के लोगों को फरीसियों और धार्मिक अधिकारियों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। यदि वे कभी भी जागते और पश्चाताप नहीं करते हैं, तो वे निश्चित रूप से झूठे मसीह और मसीह विरोधी बन जाएँगे जो अंत के दिनों में लोगों को धोखा देते हैं। झूठे मसीह और मसीह विरोधी, जिनके बारे में कहा गया था, इसी प्रकार के लोगों में से उठ खड़े होंगे। जो परमेश्वर की सेवा करते हैं, यदि वे अपने चरित्र का अनुसरण करते हैं और अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करते हैं, तब वे किसी भी समय बहिष्कृत कर दिए जाने के ख़तरे में होते हैं। जो दूसरों के दिलों को जीतने, उन्हें व्याख्यान देने और नियंत्रित करने तथा ऊंचाई पर खड़े होने के लिए परमेश्वर की सेवा के कई वर्षों के अपने अनुभव का प्रयोग करते हैं—और जो कभी पछतावा नहीं करते हैं, कभी भी अपने पापों को स्वीकार नहीं करते हैं, पद के लाभों को कभी नहीं त्यागते हैं—उनका परमेश्वर के सामने पतन हो जाएगा। ये अपनी वरिष्ठता का घमंड दिखाते और अपनी योग्यताओं पर इतराते पौलुस की ही तरह के लोग हैं। परमेश्वर इस तरह के लोगों को पूर्णता प्रदान नहीं करेगा। इस प्रकार की सेवा परमेश्वर के कार्य में विघ्न डालती है। लोग हमेशा पुराने से चिपके रहते हैं। वे अतीत की धारणाओं और अतीत की हर चीज़ से चिपके रहते हैं। यह उनकी सेवा में एक बड़ी बाधा है। यदि तुम उन्हें छोड़ नहीं सकते हो, तो ये चीज़ें तुम्हारे पूरे जीवन को विफल कर देंगी। परमेश्वर तुम्हारी प्रशंसा नहीं करेगा, थोड़ी-सी भी नहीं, भले ही तुम दौड़-भाग करके अपनी टाँगों को तोड़ लो या मेहनत करके अपनी कमर तोड़ लो, भले ही तुम परमेश्वर की 'सेवा' में शहीद हो जाओ। इसके विपरीत वह कहेगा कि तुम एक कुकर्मी हो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, धार्मिक सेवाओं का शुद्धिकरण अवश्य होना चाहिए)। "यदि कोई व्यक्ति सत्य से प्रेम नहीं करता और अक्सर अपनी इच्छा के अनुसार काम करता है, तो वह अक्सर परमेश्वर को रुष्ट करेगा। परमेश्वर उससे घृणा करेगा और अस्वीकार कर उसे एक किनारे कर देगा। ऐसा व्यक्ति जो कुछ करता है, वह अक्सर परमेश्वर की स्वीकृति पाने में विफल हो जाता है, और अगर वह पश्चाताप न करे, तो सजा उससे दूर नहीं है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्वर की इच्छा को खोजना सत्य के अभ्यास के लिए है')। परमेश्वर के वचनों पर मनन करके मुझे थोड़ा डर लगा। मुझे लगा, मैंने लंबे समय से अपना कर्तव्य निभाया था, कुछ अनुभव था, सत्य भी समझती थी, इसलिए मैं अपनी ही धारणाओं को सत्य मान कर उन पर अमल करती रही, और अपने कार्य अनुभव को अपनी पूँजी समझती रही। नतीजतन, मैं और भी ज्यादा घमंडी हो गई। जब समस्याएं आईं, तो मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं थी, मैंने सत्य के सिद्धांत नहीं खोजे, दूसरों के सुझाव नहीं माने, और अड़ियल होकर मनमानी करती रही। जिससे परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान हुआ। आखिरकार मैंने साफ तौर पर देखा कि कार्य अनुभव का अर्थ यह नहीं है कि मैं सत्य को समझती हूँ या मुझे इसकी वास्तविकताएँ हासिल हैं। सत्य का अनुसरण न कर, अपने ही अनुभव और इच्छा के अनुसार कर्म करके, मैं परमेश्वर के घर के कार्य को सिर्फ बाधित कर सकती थी, जो परमेश्वर का प्रतिरोध करने वाली सेवा है। परमेश्वर के घर में सत्य का राज्य है, और लोगों के कर्मों के लिए सत्य ही मानदंड है। लेकिन मैंने अपने ही कार्य अनुभव और अपनी ही इच्छा पर अमल किया मानो वही सत्य हों। इसे परमेश्वर में आस्था कैसे माना जा सकता था? यह तो स्वयं में आस्था थी! यह ऐसी चीज है जिससे परमेश्वर के स्वभाव का अपमान होता है। मैंने सोचा, कलीसिया से निकाले गए सारे मसीह-विरोधी कैसे घमंडी और मनमानी करने वाले लोग थे। वे अपने कर्तव्य में, परमेश्वर के घर के सिद्धांतों की अनदेखी करते थे और लापरवाही से काम करते थे, लोग उन्हें जैसे भी याद दिलाएं या उनका निपटान करें, वे कभी प्रायश्चित नहीं करते थे, इसलिए उन्हें निकाल दिया गया, क्योंकि उन्होंने परमेश्वर के घर के कार्य को गंभीर रूप से बाधित किया था। क्या मेरा स्वभाव भी इन मसीह-विरोधियों जैसा ही नहीं था? मैं भी मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चल रही थी। मुझे खास तौर से पछतावा हुआ, मैंने दोषी महसूस किया, और बहुत ज्यादा घमंडी होने पर खुद से घृणा की।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा और उस पर अमल करना सीखा। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "ऐसे में स्वेच्छाचारी और अविवेकी होने से बचने के लिए तुम किस तरह का अभ्यास कर सकते हो? पहले तुम्हारा रवैया विनम्र होना चाहिए, जिसे तुम सही समझते हो उसे बगल में रख दो, और हर किसी को संगति करने दो। भले ही तुम अपने तरीके को सही मानो, तुम्हें उस पर ज़ोर नहीं देते रहना चाहिए। यह एक तरह की प्रगति है; यह सत्य की खोज करने, स्वयं को नकारने और परमेश्वर की इच्छा पूरी करने की प्रवृत्ति को दर्शाता है। जैसे ही तुम्हारे भीतर यह प्रवृत्ति पैदा होती है, उस समय तुम अपनी धारणा से चिपके नहीं रहते, तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, परमेश्वर से सत्य जानना चाहिए, और फिर परमेश्वर के वचनों में आधार ढूँढ़ना चाहिए—परमेश्वर के वचनों के आधार पर तय करो कि काम कैसे करना है। यही सबसे उपयुक्त और सटीक अभ्यास है। जब लोग सत्य की तलाश करते हैं और सभी के लिए एक-साथ संगति करने हेतु कोई समस्या रखते हैं और उसका उत्तर ढूँढ़ते हैं, तो ऐसा तब होता है जब पवित्र आत्मा प्रबुद्धता प्रदान करता है। परमेश्वर लोगों को सिद्धांत के अनुसार प्रबुद्ध करता है। वह तुम्हारे रवैये का जायजा लेता है। अगर तुम हठपूर्वक अपनी बात पर अड़े रहते हो, फिर चाहे तुम्हारा दृष्टिकोण सही हो या गलत, तो परमेश्वर तुमसे अपना मुँह छिपा लेगा और तुम्हारी उपेक्षा करेगा; वह तुम्हें दीवार से टकराने देगा, तुम्हें उजागर करेगा और तुम्हारी बदसूरत हालत जाहिर करेगा। दूसरी ओर, यदि तुम्हारा रवैया सही है, अपने तरीके पर अड़े रहने वाला नहीं है, न ही वह दंभी, मनमाना और अंधाधुंध रवैया है, बल्कि सत्य की खोज और उसे स्वीकार करने का रवैया है, अगर तुम इसकी सभी के साथ संगति करते हो, तो पवित्र आत्मा तुम्हारे बीच कार्य आरंभ करेगा और संभवतः वह तुम्हें किसी के वचनों के माध्यम से समझ की ओर ले जाएगा। कभी-कभी जब पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध करता है, तो वह सिर्फ कुछ शब्दों या वाक्यांशों में ही, या तुम्हें समझ देकर, मामले की तह तक ले जाता है। तुम एक ही क्षण में समझ जाते हो कि जिस बात से तुम चिपके रहे हो वह गलत है, और उसी क्षण तुम यह भी समझ जाते हो कि इस काम को सबसे अच्छे तरीके से कैसे किया जा सकता है। इस स्तर तक पहुँचने के बाद, क्या तुम बुराई करने और गलती का परिणाम भुगतने से सफलतापूर्वक बच जाते हो? इस तरह की चीज को कैसे हासिल किया जाता है? वह तभी प्राप्त होती है, जब तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है, और जब तुम आज्ञाकारी हृदय से सत्य की खोज करते हो। जब तुम पवित्र आत्मा का ज्ञान प्राप्त कर लेते हो और अभ्यास के सिद्धांत निर्धारित कर लेते हो, तो तुम्हारा अभ्यास सत्य के अनुरूप होगा, और तुम परमेश्वर की इच्छा पूरी करने में सक्षम हो जाओगे" (अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। परमेश्वर के वचनों से हम समझ सकते हैं कि जो भी हो, हमारा दिल परमेश्वर का भय मानने वाला होना चाहिए, हमें परमेश्वर की इच्छा और सत्य के सिद्धांतों को खोजना चाहिए। खास तौर से जब हमारे भाई-बहन अलग-अलग सुझाव दें, तो पहले हमें खुद को नकारकर उन्हें स्वीकारना चाहिए। भले ही हम सोचें कि हम सही हैं, पहले हमें खुद का हित छोड़ देना चाहिए, और भाई-बहनों के साथ मिलकर सत्य की खोज और संगति करनी चाहिए। सिर्फ इसी तरह हम परमेश्वर की प्रबुद्धता हासिल कर सकते हैं। मैंने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा, लेकिन अब भी मैं सत्य के अनुसार दिए गए सुझाव स्वीकार नहीं कर पा रही थी। मुझमें सत्य की वास्तविकता थी ही नहीं, मैं पूरी तरह से अपने घमंडी स्वभाव के अनुसार जी रही थी। इतनी दरिद्र, दयनीय, बुरी और भ्रष्ट होकर भी, मैं गर्व से सोचती थी मैं नेक हूँ, और कर्म करते समय खुद पर जबरदस्त यकीन करती थी। अब इस बारे में सोचती हूँ, तो एहसास होता है कि यह बेशर्मी थी। मैंने तय कर लिया कि मैं कभी भी खुद पर भरोसा नहीं करूँगी, हर चीज में, सत्य के सिद्धांत खोजूँगी और दूसरों के साथ संगति करूँगी, क्योंकि अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने का यही तरीका है।
इसके बाद, मैं सबकी काबिलियत और खूबियों के आधार पर कर्तव्यों की सही व्यवस्था करने के तरीके खोजने लगी। मुझे परमेश्वर के ये वचन मिले : "तुम्हें हर व्यक्ति का अधिकतम उपयोग करना होगा, उनकी व्यक्तिगत क्षमताओं का पूरा-पूरा लाभ उठाना होगा और उनकी योग्यता के अनुसार उनके लिए उपयुक्त जिम्मेदारियाँ तय करनी होंगी, उनकी क्षमता का स्तर क्या है, उनकी उम्र क्या है, वे कितने समय से परमेश्वर में विश्वास करते रहे हैं। तुम्हें हर किस्म के व्यक्ति के लिए उसके अनुकूल एक साँचे में ढली योजना बनानी होगी, जो हर व्यक्ति के अनुसार बदलती रहेगी, ताकि वे परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्यों को पूरा कर सकें और अपने कार्यों को अधिकतम ऊंचाई तक ले जा सकें" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'कर्तव्य का समुचित निर्वहन क्या है?')। "कुछ लोग खुद को लेखन में कुशल मानते हैं, इसलिए वे इसे करने की कर्मठता से माँग करते हैं। बेशक, परमेश्वर का घर उन्हें निराश नहीं होने देगा, परमेश्वर का घर प्रतिभाशाली व्यक्तियों को सँजोता है, और लोगों के पास जो भी गुण या कौशल हों, परमेश्वर का घर उन्हें उनका उपयोग करने का अवसर देगा, और इसलिए कलीसिया उनके लिए कोई साहित्यिक कार्य करने की व्यवस्था करती है। लेकिन कुछ समय गुजरने के बाद पता चलता है कि उनमें वास्तव में यह कौशल नहीं है और वे इस कर्तव्य को ठीक से निभाने में असमर्थ हैं; वे पूरी तरह से बेअसर हैं। उनका कौशल-सेट और क्षमता उन्हें इस काम के लिए पूरी तरह से अक्षम बनाती है। तो ऐसी परिस्थितियों में क्या किया जाना चाहिए? क्या यह संभव है कि उन्हें बस बरदाश्त किया जाए और कहा जाए, 'तुममें जुनून है, और हालाँकि तुम्हारे पास अधिक प्रतिभा नहीं है और तुम्हारी क्षमता औसत है, लेकिन अगर तुम इच्छुक हो और कड़ी मेहनत करने से नहीं कतराते, तो परमेश्वर का घर तुम्हें बरदाश्त करेगा और तुम्हें यह कर्तव्य निभाने देगा। अगर तुम इसे अच्छी तरह से नहीं करते, तो भी कोई बात नहीं। परमेश्वर का घर आँखें मूँद लेगा, और तुम्हें बदले जाने की कोई आवश्यकता नहीं है'? क्या यही वह सिद्धांत है, जिसके द्वारा परमेश्वर का घर मामले सँभालता है? स्पष्टतः नहीं। ऐसी परिस्थितियों में आम तौर पर उनके लिए उनकी क्षमता और खूबियों के आधार पर किसी उपयुक्त कर्तव्य की व्यवस्था की जाती है; यह इसका एक पक्ष है। लेकिन केवल इसी पर निर्भर रहना काफी नहीं है, क्योंकि कई मामलों में लोग खुद भी नहीं जानते कि वे कौन-सा कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त हैं, और भले ही उन्हें लगता हो कि वे इसमें अच्छे हैं, जरूरी नहीं कि यह सही हो, और इसलिए उन्हें इसे आजमाना होगा और कुछ समय के लिए प्रशिक्षित होना होगा; इस आधार पर निर्णय लेना कि वे प्रभावी हैं या नहीं, सही है। अगर प्रशिक्षण की अवधि का कोई प्रभाव नहीं पड़ता और कोई प्रगति नहीं होती, तो इसका मतलब है कि उन्हें विकसित किए जाने में कोई मूल्य नहीं है, और कर्तव्यों में समायोजन किया जाना चाहिए और उनके लिए फिर से किसी उपयुक्त कर्तव्य की व्यवस्था की जानी चाहिए। लोगों के कर्तव्य इस तरह से पुनर्व्यवस्थित और समायोजित करना उचित बात है, और यह सिद्धांत के अनुरूप भी है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'जब कोई पद या आशीष पाने की आशा नहीं होती तो वे पीछे हटना चाहते हैं')। मैंने परमेश्वर के वचन में देखा कि परमेश्वर का घर प्रत्येक व्यक्ति की इंसानियत, काबिलियत, और प्रतिभा के आधार पर कर्तव्यों की व्यवस्था करता है, ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपना बढ़िया योगदान दे सके, और सब लोग सही जगह अपनी सही भूमिका अदा कर सकें। कुछ लोग पाठ्य-सामग्री का काम करते हैं, लेकिन कुछ समय तक तैयार किए जाने के बावजूद उनकी प्रगति नहीं हो पाती है। उनमें काबिलियत नहीं होती, वे काम के लायक नहीं होते हैं, तो वे उस भूमिका में बने नहीं रहेंगे। इसके बजाय, उनकी काबिलियत के आधार पर कोई उपयुक्त कर्तव्य की व्यवस्था की जाएगी, जो उनके और परमेश्वर के घर, दोनों के लिए फायदेमंद हो। सिद्धांतों का इस्तेमाल कर देखने पर, हालाँकि बहन शू में अच्छी इंसानियत थी, वह अपने कर्तव्य में जिम्मेदारी का बोझ उठाती थी, मगर उसकी काबिलियत कमजोर थी, हालाँकि उसने वर्षों से पाठ्य-सामग्री का काम किया था, पर उसकी प्रगति बहुत धीमी थी, इसलिए वह सच में पाठ्य-सामग्री के काम के लिए उपयुक्त नहीं थी। हालाँकि बहन शिन ने थोड़े समय से ही विश्वास रखा था, पर वह सत्य को ठीक से समझती थी, अनुभव करने में सक्षम थी, उसकी काबिलियत अच्छी थी, और उसे लिखने में आनंद आता था। हालाँकि वह अब तक उस काम के योग्य नहीं थी, मगर थोड़े दिन तक तैयार किया जाए, तो वह सक्षम बन सकती है। लोगों को तैयार करने और उनका इस्तेमाल करने के सिद्धांतों को जान लेने के बाद, मैंने बहन शिन को पाठ्य-सामग्री के काम का प्रभारी बना दिया, बहन शू का किसी दूसरे काम में तबादला कर दिया, फिर कुछ समय बाद, हमारे पाठ्य-सामग्री के काम में धीरे-धीरे सुधार हुआ।
बाद में, मैंने देखा कि एक दूसरे समूह की बहन वांग अच्छा लिखती थी, मुझे लगा, पाठ्य-सामग्री के काम के लिए उसे विकसित किया जा सकता है, तो मैंने उसकी सिफारिश की, लेकिन मेरी सहभागी ने कहा कि वह घमंडी और खुदपसंद है, उसमें लोगों को दबाने की प्रवृत्ति है, और हमेशा दूसरों से अपनी बात मनवाती है, तो वह उपयुक्त नहीं है। उसकी यह बात सुनकर मैं थोड़ी नाखुश हुई, मुझे लगा, "हाँ, बहन वांग थोड़ी घमंडी थी, और उसमें लोगों को दबाने की प्रवृत्ति थी, लेकिन उसका वह व्यवहार पुरानी बात हो चुकी है। अब, वह काट-छाँट और निपटान स्वीकार सकती है, और उसमें कुछ बदलाव देखने को मिला है। मेरे ख्याल से वह पाठ्य-सामग्री के काम के लिए बहुत उपयुक्त है।" इसलिए मैं अपनी राय से चिपकी रही, मगर फिर मैंने सोचा, "मेरी सहकर्मी की इस बात में परमेश्वर की इच्छा निहित है। मैंने हमेशा लोगों का इस्तेमाल अपनी इच्छा से किया, जिससे परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान पहुँचा। अब मैं सिद्धांत खोजे बिना बहन वांग के इस्तेमाल का फैसला कर रही हूँ। मैंने बस अकेले ही फैसला कर लिया था। मैं अब भी मनमानी कर रही हूँ! अब मैं अपने ही विचारों से चिपकी नहीं रह सकती। इसमें मुझे सत्य खोजना होगा। इसे तय करने का एकमात्र सही तरीका सिद्धांतों के अनुसार काम करना है।" बाद में, मैंने परमेश्वर के वचन में पढ़ा, "उन्नत और विकसित किए जा सकने वाले एक अन्य प्रकार के व्यक्ति वे हैं, जिनमें विशेष प्रतिभा या गुण हैं और जिन्होंने किसी विशेषज्ञता या कौशल में महारत हासिल की है। ऐसे लोगों को टीम-अगुआओं में विकसित करने के लिए परमेश्वर का घर किस मानक की अपेक्षा करता है? पहले, अपनी मानवता के संबंध में उन्हें केवल सकारात्मक चीजों के प्रति अपेक्षाकृत उत्साही होना चाहिए; ऐसे लोग दुष्ट नहीं होने चाहिए। कुछ लोग पूछ सकते हैं, 'उन्हें सत्य से प्रेम करने वाले व्यक्ति होने की आवश्यकता क्यों नहीं है?' क्योंकि टीम-पर्यवेक्षक अगुआ या कार्यकर्ता नहीं हैं, न ही वे लोगों का सिंचन करते हैं। उनसे सत्य से प्रेम करने का मानक पूरा करने की अपेक्षा करना बहुत अधिक चाहना होगा और यह अधिकांश लोगों की पहुँच से बाहर होगा। यह उन लोगों से अपेक्षित नहीं है, जो प्रशासनिक या विशेषज्ञ कार्य करते हैं; अगर ऐसा होता, तो यह उनमें से अधिकतर के सामर्थ्य से परे होता, केवल कुछ लोग ही योग्य होते, इसलिए मानक कम करने होंगे। अगर लोग किसी निश्चित क्षेत्र में कुशल और काम करने में सक्षम हैं, और बुराई नहीं करते या कोई हस्तक्षेप नहीं करते, तो यह काफी है। ये लोग, जिनके पास कुछ कौशलों या कार्यों में विशेषज्ञता और कुछ खूबियाँ होती हैं, जब ऐसा काम करते हैं जिसके लिए थोड़े कौशल की जरूरत होती है और जो परमेश्वर के घर में उनके पेशे से संबंधित होता है, तो उन्हें केवल अपेक्षाकृत निष्कपट और ईमानदार होना चाहिए, दुष्ट और अपनी समझ में गलत या बेतुका नहीं, उन्हें कठिनाई सहने में सक्षम, और कीमत चुकाने के लिए तैयार होना चाहिए" (नकली अगुआओं की पहचान करना)। परमेश्वर का घर विशेष हुनर वाले लोगों को इस सिद्धांत के आधार पर तैयार करता है : उनमें स्वीकार की जा सकने वाली इंसानियत और अडिग समझ होनी चाहिए, जरूरी है कि वे अपने कर्तव्य को गंभीरता से लें, और सकारात्मक चीजों से प्रेम करें। बहन वांग कुछ हद तक घमंडी स्वभाव की थी, लेकिन अगर दूसरों के सुझाव सही और सत्य के अनुरूप थे, तो वह उन्हें स्वीकार सकती थी। उसमें पाठ्य-सामग्री का काम करने की प्रतिभा थी, वह अपने कर्तव्य में कष्ट झेल कर कीमत चुका सकती थी, और वह परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा कर सकती थी, इसलिए वह उस सिद्धांत के अनुरूप थी। बाद में, मैंने अपने विचारों के बारे में, वरिष्ठ अगुआ और अनेक सहभागियों के साथ संगति करने में इस सिद्धांत का इस्तेमाल किया, सभी को लगा कि भले ही बहन वांग का स्वभाव घमंडी था, पर उसमें स्वीकार की जा सकने वाली इंसानियत थी, वह अपने कर्तव्य में जिम्मेदार थी, और वह दूसरों के सुझाव स्वीकार सकती थी, इसलिए उसे तैयार किया जा सकता था। इसके बाद, मैंने बहन वांग के लिए पाठ्य-सामाग्री के काम की व्यवस्था की। उसने यह मौका संजोया और अपने नए कर्तव्य में अच्छे नतीजे दिखाए। मैं समझ गई कि जब हम हर चीज में परमेश्वर की इच्छा खोजें, और सत्य के सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाएँ, तो हमें पवित्र आत्मा का मार्गदर्शन मिलेगा, हमारे दिलों को सुकून मिलेगा। परमेश्वर का धन्यवाद!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?