मैं इतना अहंकारी क्यों हूँ?
इस समय मेरे पास कलीसिया के वीडियो कार्य की जिम्मेदारी है। शुरुआत में कुछ समय अभ्यास के बाद मैंने कुछ सिद्धांतों पर पकड़ बना ली और अपना कौशल कुछ सुधार लिया। जल्द ही मैं अक्सर अपने कार्य से जुड़ी समस्याएँ पता लगाने लगा और काम पर चर्चाओं के दौरान मेरे सुझाव अक्सर मान लिए जाते थे। कुछ समय बाद मुझमें थोड़ा-सा घमंड आ गया। मेरा खुद पर भरोसा बढ़ता गया, मुझे लगने लगा कि मुझमें थोड़ी काबिलियत है, सिद्धांतों की बहुत शुद्ध समझ और समस्याओं पर व्यापक दृष्टिकोण है। भले ही मैं कलीसिया का अगुआ या किसी प्रमुख कार्य का प्रभारी नहीं था, फिर भी मुझे लगा कि अपनी टीम के प्रोजेक्ट का प्रबंधन करने में सक्षम होना बुरा नहीं है।
मैंने देखा कि मेरा साथी भाई जस्टिन कुछ समय से अपने कर्तव्य में निष्क्रिय पड़ा था। मैं हमेशा काम की चर्चाओं और टीम के साथ सीखने में आगे रहता था और जिम्मेदारी न लेने के कारण उसके प्रति मेरे मन में तिरस्कार की भावना आ गई। कार्य चर्चाओं के दौरान मैं अक्सर भाई जस्टिन के सुझावों को अनदेखा कर उसके ज्यादातर विचारों को खारिज कर देता था। मुझे लगता था, “मैं तुम्हारे साथ काम कर रहा हूँ लेकिन अंततः अधिकांश समय हमें मेरे ही विचारों के अनुसार चलना पड़ता है, इसलिए क्यों न मैं खुद ही काम कर लिया करूँ।” कुछ समय बाद मैंने भाई जस्टिन की जिम्मेदारियाँ अपने हाथ में ले लीं। काम की चर्चाओं के दौरान जब दूसरे मेरे सुझाव नहीं मानते थे तो मैं बार-बार जोर देता था कि मेरा नजरिया सही है, कभी-कभी मैं सबूत के तौर पर नियम और सिद्धांत पेश करता था ताकि वे मेरी सुनें। इसके बाद मैं थोड़ा असहज हो जाता था, मुझे लगता था कि मैं जबर्दस्ती दूसरों से अपना कहा मनवा रहा हूँ। क्या यह अहंकारी स्वभाव दिखाना नहीं था? कभी मैं दूसरों के सुझाव मानने की कोशिश करता था, पर अंत में मेरी सोच ही सही साबित होती, तो मैं और ज्यादा आत्मविश्वासी बन गया। भले ही कभी-कभी मुझे लगता कि मैं अहंकारी स्वभाव दिखा रहा हूँ लेकिन मैं यह सोचकर इसकी ज्यादा चिंता नहीं करता था, “हो सकता है कि मैं थोड़ा-सा घमंडी हूँ लेकिन मैं सही भी होता हूँ! मेरी मंशा तो सिर्फ अपने काम को अच्छी तरह पूरा करने की होती है, इसलिए थोड़ा-सा घमंडी होना कोई बड़ी बात नहीं होनी चाहिए, है ना?” तब मैं दूसरों के किसी भी काम में सहज महसूस नहीं करता था। मुझे लगता था कि वे इतने कुशल नहीं हैं और जिस चीज पर विचार करते हैं उसकी पूरी तस्वीर नहीं देख पाते हैं। अगर उनके सुझाव मेरे विचारों के अनुरूप नहीं होते थे तो मैं दुबारा सोचने से पहले ही उन्हें खारिज कर उन्हें अपमान की नजर से देखता था। एक बार एक बहन का बनाया वीडियो कई बार संपादन के बावजूद अच्छा नहीं बन पाया। इस काम में उसे जो मुश्किलें आ रही होंगी उनके बारे में बात करने की बजाय मैंने सीधे उसे डाँटना शुरू कर दिया, “क्या तुम्हारा इसमें जरा भी ध्यान था? दूसरों ने जो किया वह देखकर क्या तुम नहीं सीख सकती हो?” कभी-कभी जब भाई-बहन वीडियो बनाने के लिए कोई विचार देते, तो यह जानने से पहले ही कि वे कहना क्या चाहते हैं, मैं सरसरी तौर पर देखकर ही उसे खारिज कर देता था। नतीजा यह हुआ कि भाई-बहन मेरे साथ काम करने से डरने लगे और अपने तैयार वीडियो देखने के लिए मेरे पास भेजने से भी कतराने लगे। एक और बार की बात है, एक बहन ने कुछ सामग्री जुटाकर एक सामूहिक अध्ययन सत्र की योजना बनाई। मैंने सामग्री को सरसरी तौर पर देखकर और किसी से चर्चा किए बिना इसे यह कहकर पूरी तरह खारिज कर दिया कि यह अध्ययन के लायक नहीं है। वास्तव में उसे मिली शिक्षण सामग्री भले ही बहुत अच्छी नहीं थी, फिर भी यह कौशल बढ़ाने में मददगार होती। एक बहन ने बाद में बताया कि दूसरों से चर्चा किए बिना काम करना मेरे अहंकारी स्वभाव को दिखाता है। तब मैं खुद को बिल्कुल नहीं जानता था, मैं सोचता था कि मैं बस दूसरों की राय नहीं ले पाया हूँ, आगे से इस पर ज्यादा ध्यान देना काफी होगा। मैं यह भी सोचता था, “हमारे काम में अधिकांश समस्याओं को संभालने और हल करने वाला मैं ही हूँ और मामले छोटे हों या बड़े, अधिकतर मेरी ही चलती है, इसलिए मेरी निगरानी के बिना हमारी टीम का काम खराब हो जाएगा। भले ही तकनीकी तौर पर मैं दूसरों के साथ काम कर रहा हूँ, फिर भी मैं ही टीम सुपरवाइजर जैसा हूँ।” इस खयाल से मुझे लगा कि मैं दूसरों से अलग और मुख्य कर्ताधर्ता हूँ। इससे मुझमें और भी घमंड आ गया। एक बार मैंने और दो बहनों ने कार्य पर चर्चा के लिए दूसरी टीम के साथ एक बैठक रखी, पर आखिरी पल में कुछ काम आने के कारण मैं उस बैठक में शामिल नहीं हो सकता था, इसलिए मैंने उन्हें अकेले जाने को कहा। अचरज तो यह है कि जब उन्होंने सुना कि मैं नहीं आ सकता तो वे घबरा गईं और कहने लगीं कि वे अकेले यह जिम्मेदारी नहीं ले सकती हैं, इसलिए वे मेरे आने तक इंतजार करेंगी।
बाद में एक बहन ने मुझसे कहा, “टीम के लिए अब हर छोटी-बड़ी चीज में तुम्हारी ही चलती है। समस्या होने पर वे सत्य नहीं तलाशते, वे बस तुम्हारे भरोसे रहते हैं। उन्हें लगता है कि वे तुम्हारे बिना कुछ नहीं कर सकते। क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि थोड़ा-सा आत्मचिंतन कर लेना चाहिए? चीजें इस तरह नहीं चल सकती हैं!” उसकी बात सुनकर मैं काफी देर तक अपनी भावनाओं में उलझा रहा और सोचने लगा, “मेरे भाई-बहनों को लगता है कि वे मेरे बिना काम नहीं चला सकते; हर चीज मेरी नजरों से गुजरनी चाहिए। क्या यह टीम पर नियंत्रण कर लेना नहीं है? यह तो मसीह-विरोधी व्यवहार है! लेकिन मैंने जो कुछ भी किया उसके पीछे मेरा इरादा सिर्फ काम को ठीक से कराना है। तो भला यह ऐसा कैसे हो गया? मैं इसे किस तरह भली-भाँति समझ सकता हूँ?” भ्रमित और निराश होकर मैंने अपनी हालत परमेश्वर से साझा की और उससे प्रबोधन और मार्गदर्शन माँगा। फिर दूसरों ने मुझे मसीह-विरोधी स्वभाव उजागर करने वाले परमेश्वर के वचनों का एक अंश भेजा जो वाकई मेरी दशा से मेल खा रहे थे। परमेश्वर कहता है : “मसीह-विरोधी के नियंत्रण की सबसे आम घटना यह है कि उसके अधिकार के दायरे में, अंतिम फैसला सिर्फ उसी का होता है। अगर वह मौजूद नहीं है, तो कोई भी व्यक्ति फैसला लेने या मामले को निपटाने की हिम्मत नहीं करता है। उसके बिना, दूसरे लोग खोए हुए बच्चों की तरह हो जाते हैं, जो प्रार्थना करने, तलाश करने या आपस में विचार-विमर्श करने से अनजान होते हैं, और कठपुतली या मुर्दों की तरह व्यवहार करते हैं। ... मसीह-विरोधी की रणनीति हमेशा नया और अनोखा दिखना और भव्य दावे करना है। भले ही किसी और के बयान कितने भी सही क्यों ना हों, वह उन्हें अस्वीकार कर देगा। चाहे दूसरे लोगों के सुझाव उसके अपने विचारों के अनुरूप क्यों ना हों, अगर वह उसके द्वारा पहले प्रस्तावित नहीं किए गए थे, तो वह उन्हें कभी स्वीकार नहीं करेगा और ना ही अपनाएगा। इसके बजाय, वह उनके महत्व को कम करने के लिए सबकुछ करेगा, फिर उन्हें नकारेगा और उनकी निंदा करेगा, लगातार उनमें कमियाँ निकलता रहेगा जब तक कि सुझाव देने वाले व्यक्ति को यह महसूस नहीं होने लगता है कि उसके विचार गलत थे और वह अपनी गलती स्वीकार नहीं कर लेता है। सिर्फ उसके बाद ही आखिर में मसीह-विरोधी इस बात को जाने देगा। मसीह-विरोधी दूसरों के महत्व को कम करके खुद को कायम करने का आनंद लेते हैं, और उनका लक्ष्य दूसरों से अपनी आराधना करवाना और खुद को केंद्र में रखवाना है। वे सिर्फ खुद को चमकने देते हैं, जबकि दूसरे सिर्फ पृष्ठभूमि में खड़े रह सकते हैं। वे जो भी कहते या करते हैं वह सही है, और दूसरे जो भी कहते या करते हैं वह गलत है। वे अक्सर दूसरों के दृष्टिकोणों और क्रियाकलापों को नकारने के लिए, दूसरों के सुझावों में कमियाँ ढूँढने के लिए और दूसरों के प्रस्तावों में गड़बड़ करने और उन्हें अस्वीकार करने के लिए नए दृष्टिकोण पेश करते हैं। इस तरह से दूसरे लोगों को उनकी बात सुननी पड़ती है और उनकी योजनाओं के अनुसार कार्य करना पड़ता है। वे इन तरीकों और रणनीतियों का उपयोग लगातार तुम्हें नकारने, तुम पर आक्रमण करने और तुम्हें यह महसूस कराने के लिए करते हैं कि तुम अयोग्य हो, जिससे तुम उनके प्रति ज्यादा-से-ज्यादा आज्ञाकारी बनते जाते हो, उनकी और ज्यादा सराहना करते हो और उनका और ज्यादा सम्मान करते हो। इस तरह से तुम उनके द्वारा पूरी तरह से नियंत्रित हो जाते हो। यह वह प्रक्रिया है जिसके जरिये मसीह-विरोधी लोगों को दबाते हैं और नियंत्रित करते हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद पाँच : वे लोगों को गुमराह करने, फुसलाने, धमकाने और नियंत्रित करने का काम करते हैं)। इसे पढ़कर मैंने खुद को परमेश्वर के वचनों पर परखा। मैं इस दौरान पूरे समय टीम के काम के लिए जिम्मेदार रहा था, पर दूसरे अभी भी सिद्धांतों के मुताबिक अपने कर्तव्य नहीं निभा पाते थे, बल्कि वे जो कुछ भी करते थे, उसके बारे में मुझसे पूछते थे। मेरे बिना वे आखिरी फैसला करने या दूसरी टीमों से संवाद करने की हिम्मत नहीं कर पाते थे। वे सब मेरे कारण बेबस थे। क्या मैं उन्हें नुकसान नहीं पहुँचा रहा था? मैंने ऐसा क्या किया और कहा कि ऐसे नतीजे सामने आ गए? चाहे हम काम पर चर्चा कर रहे होते थे या विचारों पर, अगर किसी का दृष्टिकोण मुझसे अलग होता था तो उन्हें नीचा दिखाने के मेरे पास ढेरों कारण होते थे, मैं कभी भी सत्य सिद्धांतों पर संगति नहीं करता था। मैंने परमेश्वर की बड़ाई नहीं की या उसकी गवाही नहीं दी, मैंने बस सबसे अपनी बात मनवाई। जब मुझे लगा कि कोई बात सही है तो मैं आक्रामक और दबंग बन जाता था। जब भी मुझे दूसरों के कौशल में कमियाँ दिखतीं तो मैं उनका तिरस्कार करता और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उन्हें अपनी श्रेष्ठता दिखाता था। मैं हरेक को अपनी बात सुनने को मजबूर करना चाहता था, अगर वो नहीं सुनते, तो मैं इस पर जोर देता कि मैं कुशल हूँ और सिद्धांत समझता हूँ। जब कुछ समय तक मैंने हमेशा दूसरों को नीचा दिखाकर खुद को ऊँचा उठाया तो सभी भाई-बहनों को लगा कि वे किसी काम के नहीं हैं और उनका नजरिया मेरी तरह संपूर्ण नहीं था, इसलिए वे हर चीज के बारे में मुझसे पूछने लगे। वास्तव में इस बारे में सोचूँ तो अक्सर उन्होंने जो योजनाएँ सुझाई थीं, वे ठीक ही थीं। भले ही वे पूरी तरह ठीक नहीं थीं, फिर भी मैं उन्हें सुधारने में मदद कर सकता था। इसके बजाय, मैं अड़ा रहता था कि मैं ही सही हूँ और दूसरों के विचार यह सोचकर खारिज कर देता था कि ऐसा मैं अपने कार्य की भलाई के लिए कर रहा हूँ। मैं बहुत घमंडी था और मुझमें आत्म-ज्ञान की कमी थी!
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक दूसरा अंश पढ़ा : “जब लोग अपनी प्रकृति और सार में अहंकारी हो जाते हैं, तो वे परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह और उसका विरोध कर सकते हैं, उसके वचनों पर ध्यान नहीं देते, उसके बारे में धारणाएं उत्पन्न करते हैं, उसे धोखा देने वाले, अपना उत्कर्ष करने वाले और अपनी ही गवाही देने वाले काम करते हैं। तुम्हारा कहना है कि तुम अहंकारी नहीं हो, लेकिन मान लो कि तुम्हें कलीसिया चलाने और उसकी अगुआई करने की जिम्मेदारी दे दी जाती है; मान लो कि मैंने तुम्हारे साथ काट-छाँट नहीं की, और परमेश्वर के परिवार के किसी सदस्य ने तुम्हारी आलोचना या सहायता नहीं की है : कुछ समय तक उसकी अगुआई करने के बाद, तुम लोगों को अपने पैरों पर गिरा लोगे और उनसे अपनी आज्ञा मनवा लोगे कि वे तुम्हारी प्रशंसा और आदर करने लगें। और तुम ऐसा क्यों करोगे? यह तुम्हारी प्रकृति द्वारा निर्धारित होगा; यह स्वाभाविक प्रकटीकरण के अलावा और कुछ नहीं होगा। तुम्हें इसे दूसरों से सीखने की आवश्यकता नहीं है, और न ही दूसरों को तुम्हें यह सिखाने की आवश्यकता है। तुम्हें दूसरों की आवश्यकता नहीं है कि वे तुम्हें निर्देश दें या उसे करने के लिए तुम्हें विवश करें; इस तरह की स्थिति स्वाभाविक रूप से आती है। तुम जो भी करते हो, वह इसलिए होता है कि लोग तुम्हारी बड़ाई करें, तुम्हारी प्रशंसा करें, तुम्हारी आराधना करे, तुम्हारी आज्ञा मानें और हर बात में तुम्हारी सुनें। जब तुम अगुआ बनने की कोशिश करते हो, तो स्वाभाविक रूप से इस तरह की स्थिति पैदा होती है और इसे बदला नहीं जा सकता। यह स्थिति कैसे पैदा होती है? ये मनुष्य की अहंकारी प्रकृति से निर्धारित होती है। अहंकार की अभिव्यक्ति परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसका विरोध है। जब लोग अहंकारी, दंभी और आत्मतुष्ट होते हैं, तो उनकी अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने और अपने तरीके से चीज़ों को करने की प्रवृत्ति होती है। वे दूसरों को भी अपनी ओर खींचकर उन्हें अपने आलिंगन में ले लेते हैं। लोगों का ऐसी अहंकारी हरकतें करने में सक्षम होना साबित करता है कि उनकी अहंकारी प्रकृति का सार शैतान का है; प्रधान दूत का है। जब उनका अहंकार और दंभ एक निश्चित स्तर पर पहुँच जाता है, तो उनके दिलों में परमेश्वर के लिए स्थान नहीं रहता, और परमेश्वर अलग रख दिया जाता है। तब वे परमेश्वर बनना चाहते हैं, लोगों से अपना आज्ञापालन करवाते हैं और प्रधान दूत बन जाते हैं। यदि तुम्हारी प्रकृति ऐसी ही शैतानी अहंकारी है, तो तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं होगा। भले ही तुम परमेश्वर पर विश्वास करो, परमेश्वर तुम्हें नहीं पहचानेगा, वह तुम्हें दुष्ट व्यक्ति समझेगा और हटा देगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध की जड़ में अहंकारी स्वभाव है)। मैंने परमेश्वर के वचनों से सीखा कि मेरी अहंकारी प्रकृति मुझे भाई-बहनों के साथ समन्वय करने से रोक रही थी। मुझे लगा कि यह अहंकारी, आत्म-अभिमानी प्रकृति होना स्वाभाविक है, इसलिए मुझे कुछ विशेष करने या सीखने की जरूरत नहीं है और मैं अभी भी अपनी बात सुनने के लिए सबको मजबूर कर सकता हूँ। दूसरे भाई-बहनों के साथ अपना कर्तव्य निभाने के समय के बारे में सोचूँ तो, चाहे हम वीडियो के लिए सुझाव दे रहे होते थे या काम को व्यवस्थित कर रहे होते थे, मुझे हमेशा यही लगता था कि मेरे विचार सबसे अच्छे हैं। जब मैंने देखा कि भाई जस्टिन अपने कर्तव्य में थोड़ा-सा निष्क्रिय है तो मैंने सत्य पर संगति के जरिए उसकी मदद नहीं की। बल्कि उसकी कम काबिलियत होने और जिम्मेदारी न उठा पाने के कारण मैंने अपने मन में उसे कमतर माना और बस हर चीज की पूरी जिम्मेदारी खुद ले ली, मानो अकेला मैं ही काम करवा सकता था, कोई और नहीं। जब मैंने वो क्षेत्र देखे जहाँ दूसरों में कौशल की कमी थी, तो मैंने काबिलियत और समझ की कमी होने को लेकर उनका तिरस्कार किया, मानो मेरी समझ सबसे सटीक थी और मैं सिद्धांतों को सबसे अच्छी तरह जानता था। मैं हमेशा दूसरों को कमतर मानकर खुद को आदर्श समझ रहा था और अपने विचार और राय उनके सामने सत्य की तरह पेश कर रहा था। कुछ समय बाद दूसरों को लगने लगा कि वे खुद कुछ नहीं कर सकते, यहाँ तक कि वे हर चीज पूछने के लिए मेरे पास आने लगे और पूरी तरह मेरे भरोसे रहने लगे। अगर मैं उनके बीच नहीं होता था तो वे आगे बढ़ने का साहस नहीं करते थे। मैंने परमेश्वर के वचनों में पढ़ा : “जब उनका अहंकार और दंभ एक निश्चित स्तर पर पहुँच जाता है, तो उनके दिलों में परमेश्वर के लिए स्थान नहीं रहता, और परमेश्वर अलग रख दिया जाता है। तब वे परमेश्वर बनना चाहते हैं, लोगों से अपना आज्ञापालन करवाते हैं और प्रधान दूत बन जाते हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध की जड़ में अहंकारी स्वभाव है)। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के सामने मुझे शर्म आई और आत्म-ग्लानि हुई। मुझे लगा कि यह बहुत गंभीर समस्या है। मैंने खुद को ऊँचाई पर रखा, हमेशा सोचा कि मेरे पास खूबियाँ और काबिलियत है, मैं आम इंसान नहीं हूँ। मुझे लगता था कि मुझमें स्वाभाविक रूप से प्रभारी होने, अगुआ के रूप में कार्य करने की क्षमता है, जबकि दूसरों में काबिलियत की कमी है और उन्हें मेरी बात माननी चाहिए। अपने इन विचारों और खयालों के बारे में सोचकर मुझे डर लगा और खीझ हुई। मुझमें वाकई कोई शर्म नहीं थी! हम अपने कर्तव्य निभाने के लिए साथ काम कर रहे थे, सभी परमेश्वर की अगुआई स्वीकार कर रहे थे और सत्य सिद्धांतों के प्रति समर्पण कर रहे थे, पर मैं सबको अपनी अगुआई स्वीकारने और अपने प्रति समर्पण करने को मजबूर कर रहा था। क्या मैं यहाँ गलत नहीं था? मैं इतना अहंकारी हो गया था कि मैंने सारा विवेक खो दिया। “दस प्रशासनिक आदेश जो राज्य के युग में परमेश्वर के चुने लोगों द्वारा पालन किए जाने चाहिए” में परमेश्वर कहता है : “मनुष्य को स्वयं को बड़ा नहीं दिखाना चाहिए, न अपनी बड़ाई करनी चाहिए। उसे परमेश्वर की आराधना और बड़ाई करनी चाहिए” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य)। अपने दिल में मुझे हमेशा लगता था कि मैं बाकी टीम की तुलना में बेहतर हूँ, मैं हमेशा खुद को दूसरे भाई-बहनों से ऊपर रखता था। मैं गलत जगह पर खड़ा था—मैं खुद को दूसरों से श्रेष्ठ समझ रहा था। इस विचार ने वाकई मुझे चेतावनी दे दी और डरा दिया। मैंने तुरंत प्रार्थना की : “परमेश्वर, मैं बहुत घमंडी और आत्मविश्वासी हूँ। मैंने तुम्हारे स्वभाव को जरा-सा भी जाने बगैर तुम्हें नाराज कर दिया है। मैं अपनी उचित जगह पाने और अपना कर्तव्य ठीक से निभाने के लिए पश्चात्ताप करना चाहता हूँ।” मेरा सुपरवाइजर बाद में मेरे साथ संगति करने आया। उसने कहा कि कुछ भाई-बहनों ने जिक्र किया है वे मेरे साथ काम करने में खुद को काफी बेबस पाते हैं। उन्होंने कहा कि मैं दूसरों का तिरस्कार करता हूँ और उन्हें हेय दृष्टि से देखता हूँ, और हमेशा उनके विचार ठुकरा देता हूँ, उनमें से कुछ ने तो यह भी कहा, “मैंने पहले भी घमंडी लोग देखे हैं पर ऐसा घमंडी कभी नहीं देखा।” ये शब्द सीधे मेरे दिल में चुभे। मैंने कभी नहीं सोचा था कि भाई-बहन मुझे ऐसे व्यक्ति के रूप में देखते होंगे कि मैं उन्हें बेबस करूँगा और इतनी चोट पहुँचाऊंगा। उसके बाद कुछ दिन तक मुझे यह लगा मानो मेरे दिल में खंजर चुभा हो। खासकर काम पर चर्चाओं के दौरान जब किसी ने बोलने की हिम्मत नहीं की और माहौल काफी रूखा रहता था तो मुझे और ज्यादा बुरा लगता था। मुझे पता था कि इसका कारण पूरी तरह वे बाध्यताएँ हैं जो मैंने उन पर थोपी थीं। दुख और पीड़ा की हालत में मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की कि सच्चे मन से आत्मचिंतन और प्रवेश करने के लिए वह मेरा मार्गदर्शन और अगुआई करे।
मैंने अपनी भक्ति में परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिससे मुझे अपने बारे में बेहतर समझ मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “कुछ अगुआ कभी सिद्धांतों के अनुसार काम नहीं करते, वे अपने आप में कानून होते हैं, मनमाने और अविवेकी होते हैं। संभव है भाई-बहन इसका उल्लेख करते हुए कहें, ‘तुम कार्य करने से पहले कभी-कभार ही किसी से परमर्श करते हो। हमें तुम्हारे फैसले और निर्णय तब तक पता नहीं चलते, जब तक कि तुम उन्हें ले नहीं लेते। तुम किसी से चर्चा क्यों नहीं करते? जब तुम कोई निर्णय लेते हो, तो हमें पहले बताते क्यों नहीं? भले ही तुम जो कर रहे हो वह सही हो, और तुम्हारी क्षमता हमसे ज्यादा हो, फिर भी तुम्हें पहले हमें उसके बारे में सूचित करना चाहिए। कम से कम, हमें यह जानने का अधिकार है कि क्या हो रहा है। हमेशा खुद को ही कानून मानकर काम करने के द्वारा तुम मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रहे हो!’ और इस पर तुम अगुआ को क्या कहते सुनते हो? ‘मेरे घर में, मैं मालिक हूँ। छोटे-बड़े सभी मामले मैं ही तय करता हूँ। मैं इसी का आदी हूँ। जब मेरे विस्तारित परिवार में किसी को कोई समस्या होती है, तो वह मेरे पास आता है और क्या करना है इसका निर्णय मुझे लेने को कहता है। वे जानते हैं कि में समस्याएँ सुलझाने में अच्छा हूँ। इसलिए अपने परिवार के मामलों का मैं ही कर्ता-धर्ता हूँ। जब मैं कलीसिया से जुड़ा, तो मैंने सोचा था कि मुझे चीजों को लेकर और झंझट मोल नहीं लेनी होगी, लेकिन फिर मुझे अगुआ चुन लिया गया। मैं कुछ नहीं कर सकता—मैं पैदा ही इसके लिए हुआ था। परमेश्वर ने मुझे यह हुनर दिया। मैं फैसले करने और दूसरे लोगों के लिए निर्णय लेने को ही पैदा हुआ हूँ।’ यहाँ निहितार्थ यह है कि अधिकारी होना उनकी किस्मत में है, और दूसरे लोग पैदल सैनिक और गुलाम बनने के लिए पैदा हुए हैं। उन्हें लगता है कि उनकी बात ही अंतिम होनी चाहिए और दूसरे लोगों को उनकी बात सुननी चाहिए। यहाँ तक कि जब भाई-बहन इस अगुआ की समस्या देखकर उसे बताते हैं, तो वह इसे स्वीकारेगा नहीं, और न ही अपनी काट-छाँट स्वीकारेगा। वह तब तक लड़ता और विरोध करता रहेगा, जब तक कि भाई-बहन जोरों से उसे हटाने की माँग नहीं करते। हर समय, वह अगुआ यही सोचेगा कि, ‘मेरी क्षमता ही ऐसी है कि मैं जहाँ भी जाता हूँ, वहीं मेरी किस्मत में प्रभारी होना बदा होता है। जैसी तुम लोगों की क्षमता है, तुम हमेशा गुलाम और नौकर ही बनोगे। दूसरों से आदेश पाना तुम्हारा भाग्य है।’ अक्सर ऐसी बातें कहकर वे किस तरह का स्वभाव प्रकट कर रहे हैं? स्पष्ट रूप से, यह एक भ्रष्ट स्वभाव है, यह अहंकार, दंभ, और अत्यधिक अहंभाव रखना है, फिर भी वे बेशर्मी से इसका प्रदर्शन करते और दिखाते हैं मानो यह उनकी खूबी और गुण हो। जब कोई व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है, तो उसे आत्मचिंतन करना चाहिए, अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानना, पश्चात्ताप करना और इससे विद्रोह करना चाहिए और उसे तब तक सत्य का अनुसरण करना चाहिए, जब तक कि वह सिद्धांतों के अनुसार कार्य न करने लगे। लेकिन यह अगुआ इस तरह से अभ्यास नहीं करता। बल्कि वह अपने विचारों और तरीकों पर अड़े रहकर सुधरता नहीं। इन व्यवहारों से, तुम देख सकते हो कि वह जरा भी सत्य नहीं स्वीकारता और सत्य का अनुसरण करने वाल इंसान तो बिल्कुल नहीं है। वह ऐसे किसी भी व्यक्ति की नहीं सुनता जो उसे उजागर कर उसकी काट-छाँट करता है, इसके बजाय वह अपनी सफाई देता रहता है : ‘हम्म—मैं ऐसा ही हूँ! इसे कहते हैं क्षमता और प्रतिभा—क्या तुम लोगों में से किसी में हैं ये चीजें? मेरी किस्मत में प्रभारी होना बदा है। मैं जहाँ भी जाता हूँ, अगुआ रहता हूँ। मैं अपनी बात मनवाने का और बिना दूसरों से परामर्श किए सभी चीजों को लेकर फैसले करने का आदी हूँ। मैं ऐसा ही हूँ, यह मेरा अपना आकर्षण है।’ क्या यह हद दर्जे की बेशर्मी नहीं है? वे यह स्वीकार नहीं करते कि उनका स्वभाव भ्रष्ट है, और वे स्पष्ट रूप से परमेश्वर के वचन नहीं स्वीकारते, जो मनुष्य का न्याय कर उसे उजागर करते हैं। इसके विपरीत, वे अपने विधर्म और भ्रांतियों को सत्य मानते हैं, और बाकी सबसे उन्हें स्वीकार करवाने, उनका आदर करवाने की कोशिश करते हैं। दिल ही दिल में वे मानते हैं कि उन्हें परमेश्वर के घर में राज करना चाहिए सत्य को नहीं, उन्हें ही सारे निर्णय लेने चाहिए। क्या यह खुल्लमखुल्ला बेशर्मी नहीं है?” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण करने का क्या अर्थ है (1))। परमेश्वर के वचनों के इस प्रकाशन के सामने मैं शर्मिंदा था। क्या मैं भी वास्तव में इसी तरह कार्य नहीं करता था? मुझमें कुछ कौशल थे और लगता था कि थोड़ी प्रतिभा और काबिलियत भी है, इसलिए मुझे लगता था कि मुझे ही आखिरी फैसला करना चाहिए। मेरी इस सोच के कारण दूसरे भाई-बहन कुछ अच्छा नहीं कर पाए और जब किसी ने मेरी समस्या बताई, तो भी मैंने इसे गंभीरता से नहीं लिया। मुझे लगा कि मैं केवल अभिमानी हूँ क्योंकि मेरे पास काबिलियत थी और मेरे सुझाव सही होते थे। मैं खुद को बिल्कुल नहीं जानता था। वास्तव में कई ऐसे मौके आए जब मैंने समस्या को सही ढंग से नहीं समझा और पूरी स्थिति पर विचार नहीं किया, जैसे जब मैंने अपनी बहन की खोजी हुई शिक्षण सामग्री बेकार मानकर खारिज कर दी, पर दूसरों ने पाया कि संदर्भ लेने के लिए इसका कुछ महत्व था और इसमें कुछ अच्छे सुझाव भी थे। भले ही मेरे पास कुछ चीजों को लेकर सही विचार था, फिर भी मुझे घमंड में आकर दूसरों को इसे स्वीकारने को मजबूर नहीं करना चाहिए था। मुझे सिद्धांतों पर और अपनी निजी समझ और विचारों पर संगति करनी चाहिए थी। तब अगर सबको लगता कि मेरा कहा सही है तो वे खुद ही इसे स्वीकार लेते। इसके बजाय मैं अभिमानी और आत्मविश्वासी बना रहा, मैंने दूसरों की खूबियों को बिल्कुल नहीं देखा या आत्मचिंतन नहीं किया। मैं मन में हिसाब लगाता रहता था कि मैंने किन चीजों पर सही फैसला लिया है, अपने काम में किन समस्याओं की खोज कर उन्हें हल किया। जितना अधिक मैंने इन “उपलब्धियों” का हिसाब लगाया, उतना ही मुझे लगा कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ। मेरा अहंकार काफी बढ़ गया और मैं दूसरे को ज्यादा से ज्यादा नीचा दिखाने लगा। मैंने यहाँ तक सोच लिया कि मैं सुपरवाइजर की भूमिका के लिए ही बना था, इसलिए मैं घमंड में आकर हर बात पर अपनी आखिरी मुहर लगाना चाहता था। मैं बहुत अभिमानी और अविवेकी था और मैंने अपने शैतानी स्वभाव को थोड़ा-सा भी नहीं बदला था। मैं दूसरों के साथ सामान्य रूप से घुलमिल नहीं पाता था। मुझे किस बात का घमंड था? इस तरह खुद से इतना खुश होना वाकई दयनीय बात थी! पीछे मुड़कर देखा तो पाया कि मैं कितना आक्रामक और दबंग था, फिर मैं पछतावे से भर गया।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “तुम लोग क्या कहते हो, क्या किसी के लिए अपने कर्तव्य को ठीक से पूरा करना मुश्किल होता है? वास्तव में, ऐसा नहीं है; लोगों को केवल विनम्रता का एक भाव रखने में सक्षम होना होगा, थोड़ी समझ रखनी होगी और एक उपयुक्त स्थिति अपनानी होगी। चाहे तुम कितने भी शिक्षित हो, चाहे तुमने कोई भी पुरस्कार जीते हों, या तुम्हारी कुछ भी उपलब्धियाँ हों, और तुम्हारा रुतबा और दर्जा कितना भी ऊँचा हो, तुम्हें इन सभी चीजों को छोड़ देना चाहिए, तुम्हें अपनी ऊँची गद्दी से उतर जाना चाहिए—इन सबका कोई मोल नहीं है। चाहे वे महिमामयी चीजें कितनी भी महान हों, परमेश्वर के घर में वे सत्य से बड़ी नहीं हो सकती हैं; क्योंकि ऐसी सतही चीजें सत्य नहीं हैं, और उसकी जगह नहीं ले सकती हैं। तुम्हें यह मसला स्पष्ट होना चाहिए। यदि तुम कहते हो, ‘मैं बहुत गुणी हूँ, मेरे पास एक बहुत तेज दिमाग है, मेरे पास त्वरित सजगता है, मैं शीघ्रता से सीखता हूँ, और मेरी याददाश्त बहुत अच्छी है, इसलिए मैं अंतिम निर्णय लेने योग्य हूँ,’ यदि तुम हमेशा इन चीजों को पूंजी के रूप में उपयोग करते हो, उन्हें कीमती और सकारात्मक मानते हो, तो यह परेशानी वाली बात है। अगर तुम्हारा दिल इन चीजों के कब्जे में है, अगर इन चीजों ने तुम्हारे दिल में जड़ें जमा ली हों, तो तुम्हारे लिए सत्य स्वीकारना मुश्किल हो जाएगा—और इसके दुष्परिणामों की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इस प्रकार, सबसे पहले तुम उन चीजों का त्याग करो, उन्हें नकारो जो तुम्हें प्रिय हों, जो तुम्हें अच्छी लगती हों और जो तुम्हारे लिए बेशकीमती हों। वे बातें सत्य नहीं हैं बल्कि, वे तुम्हें सत्य में प्रवेश करने से रोक सकती हैं। अब सबसे जरूरी चीज यह है कि तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने में सत्य की तलाश करनी चाहिए और सत्य के अनुसार अभ्यास करना चाहिए, ताकि तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन समुचित हो जाए, क्योंकि कर्तव्य का समुचित निर्वहन जीवन-प्रवेश के मार्ग पर मात्र पहला कदम है। यहाँ ‘पहला कदम’ का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है यात्रा शुरू करना। सभी चीजों में, कुछ ऐसा होता है जिसके साथ यात्रा शुरू करनी होती है, कुछ ऐसा जो सबसे बुनियादी, सबसे मूलभूत होता है, और कर्तव्य का समुचित निर्वहन हासिल करना जीवन प्रवेश का मार्ग है। यदि तुम्हारा कर्तव्य-निर्वहन केवल इस दृष्टि से सही लगता है कि वह कैसे किया जाता है, लेकिन वह सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, तो तुम अपना कर्तव्य समुचित रूप से नहीं निभा रहे। तो फिर, इस पर कैसे कार्य करना चाहिए? सत्य सिद्धांतों पर काम करना चाहिए और उन्हें खोजना चाहिए; सत्य सिद्धांतों से लैस होना ही अहम है। अगर तुम केवल अपना बरताव और मिजाज सुधारते हो, लेकिन सत्य वास्तविकताओं से लैस नहीं होते, तो यह बेकार है। तुम्हारे पास कोई गुण या विशेषता हो सकती है। यह एक अच्छी बात है—लेकिन उसे अपना कर्तव्य निभाने में इस्तेमाल करके ही तुम उसका ठीक से उपयोग करते हो। अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए तुम्हारी मानवता या व्यक्तित्व में सुधार होना आवश्यक नहीं है, न ही ये आवश्यक है कि तुम अपना गुण या प्रतिभा अलग रख दो। महत्वपूर्ण यह है कि तुम सत्य को समझो और परमेश्वर के प्रति समर्पित होना सीखो। यह लगभग तय है कि अपना कर्तव्य निर्वहन करते समय तुम अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करोगे। ऐसे समय में तुम्हें क्या करना चाहिए? तुम्हें समस्या हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए और सत्य सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करना चाहिए। ऐसा करो और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना तुम्हारे लिए समस्या नहीं रह जाएगी। तुम्हारा गुण या विशेषता जिस भी क्षेत्र में हो या जिसका भी तुम्हें कुछ व्यावसायिक ज्ञान हो, कर्तव्य निर्वहन में इन चीजों का उपयोग करना सबसे उचित है—अच्छी तरह से अपना कर्तव्य निभाने का यही एकमात्र तरीका है। एक तरफ तुम्हें अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए जमीर और विवेक पर भरोसा करना चाहिए तो दूसरी तरफ अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए सत्य खोजना चाहिए। इस तरह अपना कर्तव्य निभाते हुए व्यक्ति जीवन प्रवेश प्राप्त करता है और अपना कर्तव्य समुचित रूप से निभाने में सक्षम हो जाता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्य का समुचित निर्वहन क्या है?)। परमेश्वर के वचनों पर मनन कर मैंने जाना कि कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य मानक के अनुरूप निभा रहा है कि नहीं, परमेश्वर यह आकलन इस आधार पर नहीं करता कि व्यक्ति कितना काम कर चुका दिखाई दे रहा है या क्या यह काम सही हुआ है, बल्कि वह इस आधार पर आकलन करता है कि व्यक्ति अपने कर्तव्य में किस रास्ते पर चलता है, क्या वह सत्य को खोजता और उसका अभ्यास करता है। मैंने यह भी सीखा कि घमंडी स्वभाव को ठीक करने और अपना कर्तव्य मानक के अनुसार निभाने के लिए मुझे पहले उन खूबियों और क्षमताओं को परे रखना था जिन पर मुझे गर्व था और सत्य खोजने के लिए परमेश्वर के सामने आना था। अगर मैं सत्य की खोज या सिद्धांतों का पालन किए बिना अपनी खूबियों और काबिलियत के भरोसे रहकर कार्य करता रहा, तो मैं चाहे कितना भी कार्य करूँ, परमेश्वर इसे स्वीकृति नहीं देगा। पहले मैं कौशल और काबिलियत की कमी के कारण दूसरों को नीचा दिखाता था। जब मैं उन्हें छोटी-सी भी गलती करते या कोई चीज अनाड़ीपन के साथ करते देखता था तो मैं भीतर और बाहर से उनके प्रति तिरस्कार और घृणा से भर जाता था। लेकिन जब मेरे बनाए वीडियो बार-बार संशोधन करने के लिए लौटा दिए जाते थे और दूसरे मुझे सुझाव देते थे तो वे मुझे नीचा नहीं दिखाते थे, बल्कि धैर्यपूर्वक बताते कि क्या सुधार करना है। साथ ही मैं उन लोगों के सुझाव शायद ही कभी मानता था जिनके साथ मैं काम करता था, और भले ही कुछ भाई-बहनों में बहुत बड़ी खूबियाँ या काबिलियत नहीं थी, फिर भी वे अपने कर्तव्य में सिद्धांत खोजते थे, विनम्रतापूर्वक दूसरों के सुझाव सुनते थे और मिलजुलकर सहयोग करते थे। उनसे अपने व्यवहार की तुलना कर मैं बहुत शर्मिंदा हुआ। मैंने देखा कि सत्य में प्रवेश करने में मुझमें कितनी कमी थी। इसके बाद अपने कर्तव्य में जब भी मेरे और दूसरों के बीच असहमति होती तो मैं खुद को एक तरफ रखने का अभ्यास करता था, सत्य सिद्धांत खोजने की कोशिश करता था और इसे सत्य का अभ्यास करने के एक मौके के रूप में देखता था।
बाद में एक बार मैं कुछ बहनों के साथ एक समस्या पर बात कर रहा था और हमारे अलग-अलग विचार थे। मुझे लगा कि मेरा विचार सबसे अच्छा है और मैं सोच रहा था कि यह साबित करने के लिए क्या कहूँ कि मैं सही हूँ, उन्हें कैसे समझाऊँ। मुझे अचानक लगा कि मैं फिर से घमंडी स्वभाव दिखा रहा था और दूसरों के विचार नकारने के लिए अपनी राय थोपना चाहता था। मैंने फौरन प्रार्थना की, परमेश्वर से राह दिखाने को कहा कि मैं खुद को अलग रख सबके सुझाव सुनूँ। मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : “कलीसिया में यह संभव है कि पवित्रात्मा की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन उन लोगों में से किसी को भी मिल सकता है जो सत्य समझते हैं और जिनमें समझने की क्षमता है। तुम्हें पवित्रात्मा की प्रबुद्धता और रोशनी को थाम लेना चाहिए और करीब से उसका अनुसरण करना चाहिए और उसके साथ घनिष्ठता से सहयोग करना चाहिए। ऐसा करने से तुम सबसे सही रास्ते पर चल रहे होगे; यह पवित्र आत्मा द्वारा दिखाया गया रास्ता है। इस बात पर विशेष ध्यान दो कि पवित्र आत्मा जिन पर कार्य करता है, उनमें वह किस प्रकार कार्य करता है और कैसे उनका मार्गदर्शन करता है। तुम्हें अक्सर दूसरों के साथ संगति करनी चाहिए, अपने सुझाव देने चाहिए और अपने विचार व्यक्त करने चाहिए—यह तुम्हारा कर्तव्य भी है और तुम्हारी स्वतंत्रता भी है। लेकिन अंत में, जब कोई निर्णय लेने का समय आए और तुम अकेले ही अंतिम निर्णय लेते हो, सब को तुम्हारा कहा मानने को और तुम्हारी मर्जी के अनुसार चलने को मजबूर करते हो तो फिर तुम सिद्धांतों का उल्लंघन कर रहे हो। तुम्हें इस आधार पर सही चुनाव करना चाहिए कि अधिकांश लोग क्या सोचते हैं और फिर निर्णय लेना चाहिए। यदि अधिकांश लोगों के सुझाव सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं हैं, तो तुम्हें सत्य को कायम रखना चाहिए। केवल यही सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैंने पाया कि अपने विचार देना और वीडियो बनाना मेरा कर्तव्य है, पर कौन-सी योजना सबसे अच्छी है यह तय करना किसी एक इंसान पर निर्भर नहीं है। इसे भाई-बहनों को एक साथ चर्चा करके तय करना होता है और फिर सबसे अच्छे सुझाव पर काम करना होता है। इन एहसासों को अभ्यास में लाने पर मुझे सच में शांति महसूस हुई। एक बार जब वह वीडियो बन गया और भले ही अंततः दूसरे लोगों ने मेरे सुझाव पर ही काम किया तो भी इस कारण मैंने उन दो बहनों को कमतर नहीं माना। मुझे लगा कि इस प्रक्रिया के जरिए मैं आखिर घमंडी स्वभाव के अनुसार काम किए बिना सत्य का अभ्यास कर पाया। मुझे इस तथ्य का भी अनुभव हुआ कि परमेश्वर सिर्फ यह नहीं जाँचता कि क्या सही या गलत है; महत्वपूर्ण यह है कि लोग किस स्वभाव को जीते हैं। अगर कोई सही है पर अहंकारी स्वभाव दिखाता है तो इससे परमेश्वर घृणा करता है।
बाद में जब मैंने दूसरों के विचारों पर गंभीरता से सोचने की कोशिश की, तो पाया कि भाई-बहनों के सुझावों में वास्तव में कई ऐसे पहलू होते थे जिनका उपयोग किया जा सकता था; वे बस चीजों को मुझसे अलग नजरिए से देखते थे। पहले मैं हमेशा यही सोचता था कि अन्य लोग पूरी तस्वीर नहीं देख रहे हैं क्योंकि मैं केवल चीजों को अपने नजरिए से देखता था और शायद ही कभी दूसरों के सुझाव सुनता था। तब मुझे एहसास हुआ कि हर किसी में खूबियाँ होती हैं और ऐसी भी चीजें हैं जो मैं उनसे सीख सकता हूँ। मैं घमंड में रहकर अपने पर ही विश्वास नहीं करते रहना चाहता हूँ। बल्कि मैं अपने भाई-बहनों के साथ अच्छे ढंग से काम करने, सत्य खोजने, उनके सुझाव ज्यादा से ज्यादा सुनने और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए इसमें सहयोग करने को तैयार हूँ।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?