अब मैं शांति से मौत का सामना कर सकती हूँ

16 दिसम्बर, 2025

ली रुई, चीन

मेरी सेहत हमेशा से ही खराब रही है। शादी के बाद, मैं परिवार और कारोबार दोनों की देखभाल में व्यस्त हो गई और मैं हर दिन समय पर न तो खा पाती थी और न ही आराम कर पाती थी। सालों की भाग-दौड़ और थकान के कारण मेरी सेहत और खराब हो गई और मुझे मायोकार्डाइटिस, एंट्रल गैस्ट्राइटिस, कोलेसिस्टाइटिस और वर्टिगो हो गया। मेरी हड्डियों में कील भी थी और मेरी रीढ़ के ऊपरी हिस्से में अक्सर दर्द होता था। लगभग मेरा पूरा शरीर बीमारियों का घर बन गया था। मेरा मायोकार्डाइटिस खास तौर से गंभीर था और थोड़ा सा काम करने पर ही मेरी साँस फूलने लगती थी और साँस लेने में मुश्किल होती थी। उन सालों में मैं बीमारी से तड़पती रही और मैंने बहुत दुख झेला। ज्यादातर समय मैं घर पर ही आराम करती थी और मुझे लगता था कि मैं किसी काम की नहीं हूँ। जब मैं सड़कों पर लोगों को ऊर्जा से भरा देखती तो मुझे बहुत ईर्ष्या होती थी और मैं अक्सर सोचती थी, “कब मैं भी उनकी तरह सेहतमंद हो पाऊँगी?”

2004 में, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार किया। एक साल से कुछ ज्यादा समय बाद, मेरी बीमारियाँ लगभग पूरी तरह से ठीक हो गई थीं और मैं सचमुच परमेश्वर की आभारी थी। मैंने मन ही मन एक संकल्प लिया : “मुझे परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान देने के लिए पूरे दिल से परमेश्वर में विश्वास करना चाहिए!” उसके बाद, जब भी मैं भाई-बहनों को मुश्किल में देखती, तो उनकी मदद करने की पूरी कोशिश करती थी और मुझे चाहे जो भी कर्तव्य सौंपा जाता, मैं उसे पूरा करने की पूरी कोशिश करती थी। 2009 में, अगुआ ने मेरे साथ संगति की और मुझसे नए विश्वासियों को सींचने के लिए कहा। मैंने मन में सोचा, “घर पर हमारा कारोबार पूरी तरह से मुझ पर ही निर्भर है और कभी-कभार अपना कर्तव्य करने से मेरे पैसे कमाने पर कोई असर नहीं पड़ता। लेकिन अगर मैं नए विश्वासियों को सींचती हूँ तो इसमें ज्यादा समय और ऊर्जा लगेगी और अगर कोई कारोबार नहीं सँभालेगा तो क्या यह बंद नहीं हो जाएगा?” मैं कुछ दुविधा में पड़ गई। लेकिन फिर मैंने सोचा कि परमेश्वर ने मेरी बीमारियों को ठीक कर दिया है और परमेश्वर ने मुझे इतना बड़ा अनुग्रह दिया है; मैं जानती थी कि मुझे परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान देने के लिए अपना कर्तव्य ठीक से निभाना है। मुझे लगा कि अगर मैं अभी पैसे कमाना छोड़ दूँ और अपने कर्तव्य में और ज्यादा मेहनत करूँ, तो परमेश्वर निश्चित रूप से मेरी रक्षा करेगा और मुझे अच्छी सेहत देगा और जब परमेश्वर का कार्य समाप्त होगा, तो शायद परमेश्वर मुझे महा विनाशों से भी बचाएगा और मुझे महान आशीषों का आनंद लेने के लिए स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने देगा। इसलिए मैंने यह कर्तव्य स्वीकार कर लिया और कारोबार अपने पति को सौंप दिया। कभी-कभी मैं सुसमाचार का प्रचार करने के लिए दिन में दर्जनों मील चलती थी और जब मैं घर पहुँचती तो मेरे टखनों में सूजन आ जाती थी। लेकिन मैंने दिल में कभी शिकायत नहीं की। जब मैं भविष्य में परमेश्वर का और अधिक अनुग्रह और आशीष पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के बारे में सोचती, तो मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए और भी प्रेरित हो जाती थी।

2017 में एक दिन, मुझे अपनी छाती में एक सख्त गाँठ का पता चला। अस्पताल जाने के बाद डॉक्टर ने कहा, “यह तय करने के लिए कि यह ट्यूमर सौम्य है या घातक, इसकी बायोप्सी करनी होगी। अगर यह घातक हुआ तो तुम्हारी सर्जरी करनी पड़ेगी।” मैं यह सोचकर थोड़ा डर गई, “अगर यह घातक हुआ तो क्या इसका मतलब यह नहीं होगा कि मेरा अंत निश्चित है? यह तो एक लाइलाज बीमारी होगी!” लेकिन फिर मैंने सोचा, “मैं एक सृजित प्राणी हूँ—मेरा जीना या मरना परमेश्वर के हाथों में है। अगर परमेश्वर चाहता है कि मैं जीवित रहूँ तो मुझे कैंसर होने पर भी मैं नहीं मरूँगी।” यह सोचकर मेरा डर कम हो गया। बायोप्सी के नतीजे आने के बाद, डॉक्टर ने मुझे बताया कि मुझे स्तन कैंसर है और उसने मेरी सर्जरी का दिन और समय तय कर दिया। सर्जरी तीन घंटे से भी कम समय में सफलतापूर्वक पूरी हो गई। मैं जानती थी कि यह परमेश्वर की सुरक्षा है और मैं परमेश्वर की बहुत आभारी थी। मैंने यह भी सोचा कि इतनी बड़ी बीमारी में भी मैंने परमेश्वर से शिकायत नहीं की थी और यह कि निश्चित रूप से परमेश्वर मेरे कैंसर को दूर कर देगा। सर्जरी के बाद, मेरी कीमोथेरेपी हुई। मैंने सोचा कि इसके बाद मुझे छुट्टी मिल जाएगी, लेकिन मुझे हैरानी हुई जब डॉक्टर ने कहा कि मेरी हालत काफी गंभीर है और कैंसर कोशिकाएँ मेरी लसिका ग्रंथियों तक फैल चुकी हैं। उसने यह भी कहा कि कीमोथेरेपी असरदार नहीं रही और मुझे रेडिएशन थेरेपी करवानी होगी। मैं एकदम सन्न रह गई। मैंने दूसरे मरीजों से सुना था कि रेडिएशन थेरेपी बहुत दर्दनाक होती है और वे जो कुछ भी खाते थे, उसकी उल्टी कर देते थे और बहुत कमजोर हो जाते थे। कुछ तो चल भी नहीं पाते थे और परिवार के सदस्यों को उन्हें व्हीलचेयर पर चलाना पड़ता था। कुछ लोग रेडिएशन थेरेपी के बाद भी अपने कैंसर पर काबू नहीं पा सके और आखिरकार मर गए। मैं बहुत डर गई थी। मैंने सोचा, “रेडिएशन थेरेपी इतनी दर्दनाक है—क्या मैं इसे सह पाऊँगी? अगर रेडिएशन थेरेपी के बाद कैंसर कोशिकाएँ काबू में नहीं आईं तो क्या मैं मर जाऊँगी? अगर मैं ऐसे ही मर गई तो क्या मैं उद्धार पाने का मौका नहीं खो दूँगी? तो क्या इतने सालों का त्याग और खपना बेकार नहीं जाएगा? इतने सालों के दुख और खपने के बावजूद परमेश्वर मेरी रक्षा क्यों नहीं कर रहा है? वार्ड में कई मरीज तो परमेश्वर में विश्वास भी नहीं करते, लेकिन कीमोथेरेपी के बाद उनका कैंसर काबू में आ गया और उन्हें छुट्टी मिल गई। ऐसा क्यों है कि मैं परमेश्वर में विश्वास करती हूँ लेकिन मेरी हालत अविश्वासियों से भी बदतर है? कहीं ऐसा तो नहीं कि परमेश्वर ने मुझे त्याग दिया है?” यह सोचकर, मैं एक बच्चे की तरह बेतहाशा रोई और मैं इतनी परेशान हो गई कि न तो खा पा रही थी और न ही सो पा रही थी। मैं परमेश्वर के वचन पढ़ते समय बस सरसरी तौर पर देखती थी और प्रार्थना करने के लिए मुझे शब्द भी नहीं मिलते थे। मेरा दिल अंधकार और दर्द से भर गया था। निराशा होकर मैं घुटनों के बल झुकी और परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, रेडिएशन थेरेपी करवाने के बारे में सोचकर ही मैं बहुत डर जाती हूँ। मुझे चिंता है कि अगर मैं मर गई तो मैं उद्धार पाने का मौका खो दूँगी। परमेश्वर, मैं इस समय बहुत कमजोर हूँ। तुम्हारा इरादा समझने में मेरा मार्गदर्शन करो और इस स्थिति का अनुभव करने का साहस दो।” प्रार्थना करने के बाद, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया : “इंसानों के लिए परमेश्वर का अनुसरण करना सही है, और इस रास्ते पर जितना आगे बढ़ो, रास्ता उतना ही उज्ज्वल होता जाएगा। परमेश्वर तुम्हें गुमराह नहीं करेगा, और भले ही वह तुम्हें शैतान के हवाले कर दे, अंत तक परमेश्वर ही इसकी जिम्मेदारी निभाता है। तुम में यह आस्था होनी चाहिए, और परमेश्वर को लेकर सृजित प्राणियों का यही रवैया होना चाहिए(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर की संप्रभुता को कैसे जानें)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे आस्था दी। मैंने अय्यूब के बारे में सोचा। हालाँकि परमेश्वर ने शैतान को छूट दी कि वह अय्यूब को प्रलोभन दे, उसने शैतान को अय्यूब की जान न लेने की हिदायत दी। इसलिए भले ही अय्यूब की देह ने बहुत दुख झेला, उसने शैतान द्वारा पहुँचाए गए नुकसान से अपनी जान नहीं गँवाई। हालाँकि मुझे कैंसर था और मेरा शरीर बहुत कमजोर था, क्या यह सच नहीं कि मैं अभी भी जीवित थी और सर्जरी सुचारू रूप से हो गई थी, यह भी परमेश्वर की सुरक्षा के कारण ही था? मुझे परमेश्वर में आस्था रखनी चाहिए।

फिर मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “जितना अधिक परमेश्वर लोगों का शोधन करता है, लोगों के हृदय उतने ही अधिक परमेश्वर से प्रेम करने में सक्षम हो जाते हैं। उनके हृदय की यातना उनके जीवन के लिए लाभदायक होती है, वे परमेश्वर के समक्ष अधिक शांत रह सकते हैं, परमेश्वर के साथ उनका संबंध और अधिक निकटता का हो जाता है, और वे परमेश्वर के सर्वोच्च प्रेम और उसके सर्वोच्च उद्धार को और अच्छी तरह से देख पाते हैं। पतरस ने सैकड़ों बार शोधन का अनुभव किया, और अय्यूब कई परीक्षणों से गुजरा। यदि तुम लोग परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाना चाहते हो, तो तुम लोगों को भी सैकड़ों बार शोधन से होकर गुजरना होगा—तुम्हें इस प्रक्रिया से गुजरना ही चाहिए और इस कदम पर भरोसा रखना चाहिए—केवल तभी तुम लोग परमेश्वर के इरादों को पूरा कर पाओगे और परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाओगे। शोधन वह सर्वोत्तम साधन है, जिसके द्वारा परमेश्वर लोगों को पूर्ण बनाता है, केवल शोधन और कड़वे परीक्षण ही लोगों के हृदय में परमेश्वर के लिए सच्चा प्रेम उत्पन्न कर सकते हैं। कष्टों के बिना लोगों में परमेश्वर के लिए सच्चे प्रेम की कमी रहती है; यदि भीतर से उनका परीक्षण नहीं किया जाता, और यदि वे सच्चे शोधन के भागी नहीं बनाए जाते, तो उनके हृदय हमेशा बाहर ही भटकते रहेंगे। एक निश्चित बिंदु तक शोधन किए जाने के बाद तुम अपनी स्वयं की निर्बलताएँ और कठिनाइयाँ देखोगे, तुम देखोगे कि तुममें कितनी कमी है और कि तुम उन अनेक समस्याओं पर काबू पाने में असमर्थ हो, जिनका तुम सामना करते हो, और तुम देखोगे कि तुमने कितना अधिक विद्रोह किया है। केवल परीक्षणों के दौरान ही लोग अपनी सच्ची अवस्थाओं को सचमुच जान पाते हैं; परीक्षण लोगों को पूर्ण बनाने में और भी अधिक सक्षम होते हैं(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल शोधन का अनुभव करके ही मनुष्य सच्चे प्रेम से युक्त हो सकता है)। “परमेश्वर पर विश्वास करते हुए लोग भविष्य के लिए आशीष पाने में लगे रहते हैं; यही उनके विश्वास का लक्ष्‍य होता है। सभी लोगों की यही मंशा और आशा होती है, लेकिन उनकी प्रकृति की भ्रष्टता परीक्षणों और शोधन के माध्यम से जरूर दूर की जानी चाहिए। लोग जिन-जिन पहलुओं में शुद्ध नहीं होते और भ्रष्टता दिखाते हैं उन पहलुओं में उन्हें परिष्कृत किया जाना चाहिए—यह परमेश्वर की व्यवस्था है। परमेश्वर तुम्हारे लिए एक परिवेश बनाता है, तुम्हें उसमें परिष्कृत होने के लिए बाध्य करता है जिससे तुम अपनी भ्रष्टता को जान जाओ। अंततः तुम उस मुकाम पर पहुँच जाते हो जहाँ तुम अपने मंसूबों और इच्छाओं को छोड़ने और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के प्रति समर्पण करना चाहते हो, भले ही इसका मतलब मृत्यु हो। इसलिए अगर लोग कई वर्षों के शोधन से न गुजरें, अगर वे एक हद तक पीड़ा न सहें, तो वे अपनी सोच और हृदय में देह की भ्रष्टता की बाध्यताएँ तोड़ने में सक्षम नहीं होंगे। जिन किन्हीं पहलुओं में लोग अभी भी अपनी शैतानी प्रकृति की बाध्यताओं में जकड़े हैं और जिन भी पहलुओं में उनकी अपनी इच्छाएँ और माँगें बची हैं, उन्हीं पहलुओं में उन्हें कष्ट उठाना चाहिए। केवल दुख भोगकर ही सबक सीखे जा सकते हैं, जिसका अर्थ है सत्य पाने और परमेश्वर के इरादे समझने में समर्थ होना। वास्तव में, कई सत्य कष्ट और परीक्षणों से गुजरकर समझ में आते हैं। कोई भी व्यक्ति आरामदायक और सहज परिवेश या अनुकूल परिस्थिति में परमेश्वर के इरादों को नहीं समझ सकता है, परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि को नहीं पहचान सकता है, परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की सराहना नहीं कर सकता है। यह असंभव होगा!(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मैं परमेश्वर के इरादे के बारे में कुछ और ज्यादा समझी। परमेश्वर लोगों को शुद्ध करने के लिए उनका परीक्षण और शोधन करता है, उन्हें सत्य खोजने और अपनी भ्रष्टता, अशुद्धियों और इरादों को जानने के लिए मजबूर करता है। यह लोगों को परमेश्वर की सच्ची समझ पाने और उसके प्रति सच्चा प्रेम विकसित करने में सक्षम बनाता है। मुझे कैंसर इसलिए नहीं हुआ कि परमेश्वर मुझे उजागर कर हटा देना चाहता था, बल्कि इसलिए कि मेरा स्वभाव भ्रष्ट था और मेरे विश्वास में अशुद्धियाँ थीं। केवल इस तरह की स्थिति के माध्यम से ही ये बातें उजागर हो सकती थीं। पहले, मैंने परमेश्वर में विश्वास करने और अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपना कारोबार छोड़ दिया था और अपने कर्तव्य में मैंने चाहे कितना भी दुख झेला हो, मैंने शिकायत नहीं की। मैंने हमेशा इन त्यागों और खपने को परमेश्वर के सामने एक पूँजी के रूप में माना और मैंने तो यह भी सोचा कि मैं परमेश्वर के प्रति समर्पण करने वाली और उससे प्रेम करने वाली इंसान हूँ। लेकिन अब जब मुझे कैंसर हो गया था और रेडिएशन थेरेपी की जरूरत थी, तो मुझमें परमेश्वर पर बिल्कुल भी आस्था नहीं रही थी और मैंने उसे गलत समझा, यह सोचते हुए कि वह अब मुझे नहीं चाहता। मैंने तो परमेश्वर से बहस करने के लिए अपने प्रयासों और खपने को एक पूँजी के रूप में इस्तेमाल किया और शिकायत की कि वह मेरी रक्षा नहीं कर रहा है। मैंने देखा कि मैं सचमुच विद्रोही हो गई हूँ और परमेश्वर के प्रति माँगों और अपेक्षाओं से भर गई हूँ। इस बीमारी का अनुभव किए बिना, मैं कभी भी अपने भ्रष्ट स्वभाव या परमेश्वर में विश्वास करने के अपने गलत इरादों को नहीं जान पाती। अगर परमेश्वर का कार्य समाप्त होने तक मैं बिल्कुल भी नहीं बदलती, तो मैं उद्धार का अपना मौका पूरी तरह से खो देती। इस बीमारी का सामना करने में, परमेश्वर मुझे हटा देने की नहीं, बल्कि मुझे बचाने की कोशिश कर रहा था! लेकिन मैं परमेश्वर का इरादा नहीं समझी और उसे गलत समझकर उससे शिकायत भी की। यह सोचकर, मुझे गहरा पश्चात्ताप हुआ और शर्मिंदगी महसूस हुई। मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, उसके सामने पश्चात्ताप करने और अपने भ्रष्ट स्वभाव पर विचार करने के लिए सत्य खोजने को तैयार थी।

अपनी खोज में, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “परमेश्वर के साथ मनुष्य का संबंध केवल नग्न स्वार्थ पर आधारित है। यह आशीष लेने वाले और देने वाले के मध्य का संबंध है। स्पष्ट रूप से कहें तो यह एक कर्मचारी और एक नियोक्ता के मध्य का संबंध है। कर्मचारी केवल नियोक्ता द्वारा दिए जाने वाले प्रतिफल प्राप्त करने के लिए कठिन परिश्रम करता है। इस प्रकार के हित-आधारित संबंध में कोई आत्मीय स्नेह नहीं होता, केवल एक लेन-देन होता है। प्रेम करने या प्रेम पाने जैसी कोई बात नहीं होती, केवल दान और दया होती है। कोई समझ नहीं होती, केवल असहाय दबा हुआ आक्रोश और धोखा होता है। कोई अंतरंगता नहीं होती, केवल एक अगम खाई होती है। अब जबकि चीजें इस बिंदु तक आ गई हैं तो ऐसी राह को कौन उलट सकता है? और कितने लोग इस बात को वास्तव में समझने में सक्षम हैं कि यह संबंध कितना गंभीर बन चुका है? मेरा मानना है कि जब लोग आशीष प्राप्त होने के आनंद में निमग्न हो जाते हैं तो कोई यह कल्पना नहीं कर सकता कि परमेश्वर के साथ ऐसा संबंध कितना अटपटा और भद्दा है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 3 : मनुष्य को केवल परमेश्वर के प्रबंधन के बीच ही बचाया जा सकता है)। “लोगों के परमेश्वर से हमेशा माँग करते रहने में क्या समस्या है? और उनके हमेशा परमेश्वर के बारे में धारणाएँ पालने में क्या समस्या है? मनुष्य की प्रकृति में क्या निहित है? मैंने पाया कि लोगों के साथ चाहे कुछ भी घटित हो या वे चाहे जिस चीज से निपट रहे हों, वे हमेशा अपने हितों की सुरक्षा और अपने देह की चिंता करते हैं, और वे हमेशा अपने पक्ष में तर्क और बहाने ढूंढ़ते रहते हैं। वे लेशमात्र भी सत्य खोजते और स्वीकारते नहीं हैं, और वे जो कुछ भी करते हैं वह अपने देह को उचित ठहराने और अपनी संभावनाओं की योजना बनाने के लिए होता है। वे सब परमेश्वर से अनुग्रह पाना चाहते हैं ताकि हर संभव लाभ उठा सकें। लोग परमेश्वर से इतनी सारी माँगें क्यों करते हैं? यह साबित करता है कि लोग अपनी प्रकृति से लालची हैं, और परमेश्वर के समक्ष उनमें कोई समझ नहीं है। लोग जो कुछ भी करते हैं—वे चाहे प्रार्थना कर रहे हों या संगति या प्रचार कर रहे हों—उनके अनुसरण, विचार और आकांक्षाएँ, ये सारी चीजें परमेश्वर से माँगें हैं और उससे चीजें पाने के प्रयास हैं, ये सब परमेश्वर से कुछ हासिल करने की उम्मीद से किए जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि ‘यह मानव प्रकृति है,’ जो सही है। इसके अलावा, परमेश्वर से लोगों का बहुत अधिक माँगें करना और बहुत अधिक असंयत लालसाएँ रखना यह साबित करता है कि सचमुच लोगों में अंतरात्मा और विवेक की कमी है। वे सब अपने लिए चीजों की माँग और आग्रह कर रहे हैं, या अपने लिए बहस करने और बहाने ढूंढ़ने की कोशिश कर रहे हैं—वे यह सब अपने लिए करते हैं। कई मामलों में देखा जा सकता है कि लोग जो कुछ करते हैं वह पूरी तरह समझ से रहित है, जो इस बात का पूर्ण प्रमाण है कि ‘हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए’ वाला शैतानी तर्क पहले ही मनुष्य की प्रकृति बन चुका है। परमेश्वर से लोगों का बहुत अधिक माँगें करना किस समस्या को दर्शाता है? यह दर्शाता है कि लोगों को शैतान एक निश्चित बिंदु तक भ्रष्ट कर चुका है, और परमेश्वर में अपने विश्वास में वे उसे परमेश्वर बिल्कुल नहीं मानते हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं)। परमेश्वर उजागर करता है कि मनुष्य की प्रकृति स्वार्थी और घिनौनी है और वे चाहे कुछ भी करें, वह सब अपने फायदे के लिए ही होता है। यहाँ तक कि परमेश्वर में उनकी आस्था में भी व्यक्तिगत इरादे होते हैं और वे व्यर्थ ही बाहरी दुख और खपने के बदले एक अच्छी मंजिल पाने की उम्मीद करते हैं। परमेश्वर ने ठीक मेरी अवस्था उजागर कर दी थी। परमेश्वर को पाने से पहले, मैं बीमारियों से घिरी हुई थी और परमेश्वर को पाने के बाद, मेरी सारी बीमारियाँ ठीक हो गईं। इसलिए मैंने परमेश्वर को धन्यवाद दिया, उसकी प्रशंसा की और परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान देने का संकल्प लिया और कलीसिया ने मेरे लिए चाहे जो भी कर्तव्य तय किया, मैंने उसे सक्रिय रूप से पूरा किया। मैंने तो अपना कारोबार भी छोड़ दिया और पूरे समय परमेश्वर के लिए खुद को खपाया। जब मुझे पता चला कि मुझे कैंसर है, हालाँकि मैंने कुछ हद तक समर्पण दिखाया, असल में, मैं “समर्पण” के बदले परमेश्वर की सुरक्षा पाने की कोशिश कर रही थी, इस उम्मीद में कि वह मेरी बीमारी ठीक कर देगा। जब मैंने देखा कि अविश्वासी कैंसर से ठीक हो रहे हैं जबकि मुझे कीमोथेरेपी के बाद भी रेडिएशन करवानी पड़ रही है—न केवल दुख का सामना करना पड़ रहा है, बल्कि जान का खतरा भी है—तो मेरी असलियत उजागर हो गई। मैंने शिकायत करना शुरू कर दिया कि परमेश्वर मेरी रक्षा नहीं कर रहा है और मैंने बेवजह माँग की कि वह मेरी बीमारी दूर करे। मैंने देखा कि मेरी आस्था आशीष पाने के इरादों से प्रेरित थी और मेरे इतने सालों के प्रयास और मेरा खपना एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा करने के लिए नहीं थे, बल्कि अनुग्रह, आशीषों और स्वर्गीय पुरस्कारों के लिए अपने दुख और खपने का सौदा करने की कोशिश थी। मैं सचमुच स्वार्थी और घिनौनी थी। पौलुस ने यूरोप के बड़े हिस्से में सुसमाचार का प्रचार किया और बहुत दुख झेला, लेकिन यह परमेश्वर से पुरस्कार और मुकुट माँगने के लिए था। अंत में, उसने ये बेशर्म शब्द भी कहे, “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)। पौलुस की तरह मेरे प्रयास और खपना भी इरादों से भरे थे और मुझमें परमेश्वर के प्रति बिल्कुल भी सच्चाई या वफादारी नहीं थी। मैंने परमेश्वर को एक आखिरी सहारे के रूप में, एक ऐसे नियोक्ता के रूप में माना जो मुझे पुरस्कार और मजदूरी देता है। मेरा दुख और खपना केवल परमेश्वर से लाभ पाने के लिए था। इसमें, मैं परमेश्वर को धोखा देने और उसका फायदा उठाने की कोशिश कर रही थी। यह सचमुच परमेश्वर के लिए घृणित है। अगर मैंने अपने अनुसरण के गलत दृष्टिकोण को नहीं बदला और स्वभाव में बदलाव नहीं किया, तो चाहे मैं कितनी भी सक्रियता से अपना कर्तव्य निभाती, अंत में मैं फिर भी उद्धार नहीं पाती। मैंने अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, कैंसर के इस अनुभव के माध्यम से, मैंने देखा है कि हालाँकि मैंने कई सालों तक तुम पर विश्वास किया है, लेकिन मुझमें तुम्हारे प्रति कोई सच्चाई या वफादारी नहीं रही है। अपने कर्तव्य में भी, मैं केवल तुमसे अनुग्रह और आशीषों की माँग करती रही हूँ। अब मैं देखती हूँ कि मैं कितनी स्वार्थी और घिनौनी हूँ। परमेश्वर, मैं अब इस तरह से तुम्हारे खिलाफ विद्रोह नहीं करना चाहती। चाहे मेरे सामने कोई भी स्थिति आए, मैं सत्य खोजने पर ध्यान केंद्रित करने और तुम्हारे आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने को तैयार हूँ।”

अपनी एक भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “मनुष्य के कर्तव्य और उसे आशीष का प्राप्त होना या दुर्भाग्य सहना, इन दोनों के बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, उसे प्रतिफल खोजे बिना, और बिना शर्तों या कारणों के इसे करना चाहिए। केवल इसे अपना कर्तव्य निभाना कहा जा सकता है। आशीष प्राप्त होना उन आशीषों को संदर्भित करता है जिनका कोई व्यक्ति तब आनंद लेता है जब उसे न्याय का अनुभव करने के बाद पूर्ण बनाया जाता है। दुर्भाग्य सहना उस सज़ा को संदर्भित करता है जो एक व्यक्ति को तब मिलती है जब ताड़ना और न्याय से गुजरने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता—अर्थात जब उन्हें पूर्ण नहीं बनाया जाता। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें आशीष प्राप्त होते हैं या दुर्भाग्य सहना पड़ता है, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल आशीष प्राप्त करने के लिए नहीं निभाना चाहिए, और तुम्हें दुर्भाग्य सहने के भय से अपना कर्तव्य निभाने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है। अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया के माध्यम से मनुष्य धीरे-धीरे बदलता है, और इसी प्रक्रिया के माध्यम से वह अपनी वफ़ादारी प्रदर्शित करता है। इस प्रकार, जितना अधिक तुम अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम होगे, उतना ही अधिक मात्र में तुम सत्य प्राप्त करने में सक्षम होगे, और उतनी ही अधिक तुम्हारी अभिव्यक्ति व्यावहारिक हो जाएगी। जो लोग अपना कर्तव्य बेमन से निभाते हैं और सत्य की खोज नहीं करते, वे अंत में निकाल दिए जाएँगे, क्योंकि ऐसे लोग सत्य के अभ्यास में अपना कर्तव्य नहीं निभाते, और अपना कर्तव्य निभाने में सत्य का अभ्यास नहीं करते। ये वे लोग हैं, जो अपरिवर्तित रहते हैं और जिन्हें दुर्भाग्य सहना पड़ेगा। उनकी न केवल अभिव्यक्तियाँ अशुद्ध हैं, बल्कि वे जो कुछ भी व्यक्त करते हैं, वह दुष्टतापूर्ण होता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मुझे अपना कर्तव्य निभाने के अर्थ की सही समझ मिली। हम सृजित प्राणी हैं, इसलिए अपना कर्तव्य निभाना बिल्कुल स्वाभाविक और उचित है। यह वह है जो हमें करना चाहिए। हमें इसे परमेश्वर के साथ सौदा करने के लिए मोल-भाव का जरिया बनाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। हमें आशीष मिलती है या हम दुर्भाग्य झेलते हैं, इसका हमारे कर्तव्य निभाने से कोई लेना-देना नहीं है—ऐसा नहीं है कि केवल अपना कर्तव्य निभाने से अंत में आशीष की गारंटी मिलती है। परमेश्वर यह देखता है कि हमारे स्वभाव में बदलाव आया है या नहीं। अगर हम परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना से गुजरते हैं और हमारा भ्रष्ट स्वभाव बदल जाता है और हम परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण कर एक सृजित प्राणी का कर्तव्य पूरा कर सकते हैं, तभी हम परमेश्वर की स्वीकृति पा सकते हैं। अगर हमारा भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध नहीं हुआ है, तो चाहे हम कितना भी भाग-दौड़ करें या खुद को खपाएँ, हम फिर भी आशीष नहीं पाएँगे। मैंने उस समय के बारे में सोचा जब यह बीमारी जीवन और मृत्यु का मामला थी। मैंने अपने पिछले दुख और खपने को एक पूँजी के रूप में लेकर परमेश्वर से मेरी रक्षा करने की माँग की, गलत सोचा कि चूँकि मैंने कीमत चुकाई है, परमेश्वर को मुझ पर अनुग्रह करना चाहिए। मैंने परमेश्वर के इतने सारे अनुग्रहों और आशीषों का आनंद लिया था, फिर भी मैंने अपने कर्तव्य को अपनी जिम्मेदारी नहीं माना। मैं थोड़े से प्रयास या खपने के लिए परमेश्वर से आशीष और पुरस्कार माँगती थी। मुझमें सचमुच जमीर और विवेक की कमी थी! परमेश्वर मुझे विशाल जनसमूह से निकालकर अपने घर में वापस लाया और मुझे कर्तव्य निभाने की छूट दी। परमेश्वर का इरादा था कि मैं अपना कर्तव्य निभाते हुए सत्य खोजूँ और मैं अपना भ्रष्ट स्वभाव बदलूँ, ताकि ऐसा करके मैं शुद्ध होकर उद्धार पा सकूँ। मुझे परमेश्वर के प्रति समर्पण करना चाहिए और उसे संतुष्ट करने की कोशिश करनी चाहिए। यह सोचकर, मैंने मन ही मन एक संकल्प लिया, “अगर विकिरण चिकित्सा के बाद मेरा कैंसर ठीक नहीं होता है, तो भले ही मैं मर जाऊँ, मैं परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने को तैयार रहूँगी और मैं अब परमेश्वर से शिकायत नहीं करूँगी। अगर विकिरण चिकित्सा से कैंसर ठीक हो सकता है, तो मैं उसके बाद और भी लगन से सत्य का अनुसरण करूँगी और मैं परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान देने के लिए अपना कर्तव्य पूरा करूँगी।” एक बार जब मैं ये बातें समझ गई, तो मैंने ज्यादा सोचना बंद कर दिया और मैंने अपने पति से मुझे विकिरण चिकित्सा के लिए अस्पताल ले जाने को कहा। अस्पताल में, डॉक्टर ने मुझसे विकिरण चिकित्सा के लिए सही स्थिति तय करने वाला साँचा बनाने के लिए अपना हाथ उठाने को कहा। लेकिन मेरे हाथ में इतना दर्द था कि मैं उसे कंधे की ऊँचाई तक भी नहीं उठा पा रही थी। मशीन के प्रभावित क्षेत्र तक न जा पाने के कारण साँचा नहीं बन पा रहा था। डॉक्टर के पास मुझे कुछ दिनों के लिए घर जाकर व्यायाम करने और एक बार जब मैं अपना हाथ उठा सकूँ तो वापस आने के लिए कहने के अलावा कोई चारा नहीं था। घर आकर, मैंने देरी करने की हिम्मत नहीं की और व्यायाम करती रही। लेकिन तीन दिनों के बाद भी, मैं अपना हाथ नहीं उठा पा रही थी। मैं अस्पताल के बिस्तर पर लेटी थी और मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, आज मैं बिना किसी समस्या के विकिरण चिकित्सा करवा पाऊँ या नहीं, मैं तुम्हारे आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने को तैयार हूँ!” मुझे पता भी नहीं चला और मैं अपना हाथ उठाकर अपने सिर के पीछे रखने में सक्षम हो गई। जब डॉक्टर ने यह देखा, तो उसने तुरंत मेरे लिए साँचा बना दिया। विकिरण चिकित्सा के दौरान, मुझे बहुत अधिक कष्ट नहीं हुआ, न ही बहुत सारे दुष्प्रभाव हुए और मैं स्पष्ट रूप से जानती थी कि यह मेरे लिए परमेश्वर की सुरक्षा है। मैं सचमुच परमेश्वर की आभारी थी। इस तरह, विकिरण चिकित्सा के सत्रह दौर के बाद, मेरी बीमारी काबू में आ गई। उसके बाद, मैंने भाई-बहनों के साथ कर्तव्य निभाना जारी रखा।

2020 में, मैं मेजबानी का कर्तव्य निभा रही थी। काम की जरूरतों के कारण, मुझे कभी-कभी बाहर जाकर चीजें सँभालनी पड़ती थीं और कभी-कभी काम खत्म करने के बाद, मैं शाम को घर लौटती तो बहुत थकी हुई महसूस करती थी। मुझे याद आया कि एक साथी मरीज ने एक बार कहा था, “कैंसर होने के बाद, तुम्हें बिल्कुल भी ज्यादा मेहनत नहीं करनी चाहिए, वरना यह आसानी से दोबारा हो सकता है। अगर कैंसर दोबारा हो गया तो यह लाइलाज हो सकता है।” डॉक्टर ने भी मुझे ज्यादा आराम करने और खुद को ज्यादा न थकाने की सलाह दी थी। खास तौर से, जब मैंने अस्पताल में दोबारा बीमारी होने से हुई मौतों के सभी मामलों के बारे में सोचा, जिनके बारे में मैंने सुना था, तो मुझे थोड़ा डर लगा। अगर कैंसर वापस आ गया तो? कहीं मैं इससे मर तो नहीं जाऊँगी? लेकिन इस समय, सीसीपी उन्मत्त होकर भाई-बहनों को गिरफ्तार कर रही थी और मुझे परिवेश की रक्षा करने और उन्हें सुरक्षित रखने की जरूरत थी, इसलिए मेरे पास अनुवर्ती जाँच के लिए अस्पताल जाने का समय ही नहीं था। हालाँकि मैं अपने कर्तव्य में दृढ़ दिख रही थी, मैं अक्सर अपनी बीमारी के बारे में चिंता करती थी और समय-समय पर, मैं मन ही मन सोचती थी, “हालाँकि मेरी सेहत खराब है, मैंने इतने सालों में अपना कर्तव्य निभाना कभी नहीं छोड़ा। निश्चित रूप से परमेश्वर मेरे कैंसर को दोबारा होने से रोकेगा, है न?” मुझे एहसास हुआ कि मैं एक बार फिर परमेश्वर के साथ सौदा करने की कोशिश कर रही थी, इसलिए मैंने जल्दी से परमेश्वर से प्रार्थना की कि मैं अपने इस इरादे के खिलाफ विद्रोह करूँ। बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और जीवन-मृत्यु के मामले की असलियत को कुछ और समझ गई। परमेश्वर कहता है : “जिस व्यक्ति ने जीवन के कई दशकों का अनुभव करने के बाद सृष्टिकर्ता की संप्रभुता का ज्ञान प्राप्त कर लिया है, वह ऐसा व्यक्ति है जिसके पास जीवन के अर्थ और मूल्य की सही समझ है। ऐसे व्यक्ति के पास सृष्टिकर्ता की संप्रभुता के वास्तविक अनुभव और समझ के साथ जीवन के उद्देश्य का गहन ज्ञान है, और उससे भी बढ़कर, वह सृष्टिकर्ता के अधिकार के समक्ष समर्पण कर सकता है। ऐसा व्यक्ति सृष्टिकर्ता के द्वारा मानवजाति के सृजन का अर्थ समझता है, वह समझता है कि मनुष्य को सृष्टिकर्ता की आराधना करनी चाहिए, कि जो कुछ भी मनुष्य के पास है, वह सृष्टिकर्ता से आता है और वह निकट भविष्य में ही किसी दिन उसके पास लौट जाएगा। ऐसा व्यक्ति समझता है कि सृष्टिकर्ता मनुष्य के जन्म की व्यवस्था करता है और मनुष्य की मृत्यु पर उसकी संप्रभुता है, और जीवन व मृत्यु दोनों सृष्टिकर्ता के अधिकार द्वारा पूर्वनियत हैं। इसलिए, जब कोई व्यक्ति वास्तव में इन बातों को समझ लेता है, तो वह शांति से मृत्यु का सामना करने, अपनी सारी बाहरी चीजों को शांतिपूर्वक एक तरफ रख देने, और जो होने वाला है, उसे खुशी से स्वीकार व समर्पण करने, और सृष्टिकर्ता द्वारा व्यवस्थित जीवन के अंतिम मोड़ का स्वागत करने में सक्षम होगा न कि आँखें मूँदकर उससे डरेगा और संघर्ष करेगा(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मैं समझ गई कि जन्म, बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु सब परमेश्वर के हाथों में हैं और हर व्यक्ति की मृत्यु का समय परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्धारित किया जा चुका है। यह वैसा नहीं है जैसा अविश्वासी कहते हैं कि ज्यादा काम करने से कैंसर दोबारा हो जाता है जिससे मृत्यु हो जाती है। अगर परमेश्वर ने पूर्व-निर्धारित कर दिया है कि मैं केवल एक निश्चित उम्र तक ही जीवित रहूँगी, तो भले ही मैं हर दिन बिस्तर पर आराम करूँ और खुद को ज्यादा न थकाऊँ, मैं फिर भी मृत्यु से नहीं बच पाऊँगी। अगर मैंने अपना कर्तव्य निभाना इसलिए बंद कर दिया क्योंकि मुझे अपने कैंसर के दोबारा होने का डर है, तो यह परमेश्वर के खिलाफ असल में एक विद्रोह होगा। भले ही मेरा कैंसर अंत में दोबारा न होता, अगर मैंने अपना कर्तव्य पूरा नहीं किया होता तो मेरा जीवन खोखला होता और परमेश्वर मुझसे घृणा करता। मैं यह भी समझ गई कि मैं जीवित रहूँगी या मरूँगी, यह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं पर निर्भर है और मेरी चिंताएँ और फिक्र उसे नहीं बदल सकतीं। मुझे जो करना चाहिए वह है परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना और अपना कर्तव्य पूरा करना। तब, भले ही एक दिन मैं इस दुनिया से चली जाऊँ, मेरा जीवन सार्थक होगा। यह एहसास होने पर, मुझे अब इस बात की चिंता नहीं रही कि मुझे कैंसर दोबारा होगा या नहीं और मैं मरूँगी या नहीं।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और अभ्यास का मार्ग और भी स्पष्ट हो गया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अगर परमेश्वर में अपनी आस्था और सत्य की खोज में तुम यह कहने में सक्षम हो कि ‘परमेश्वर कोई भी बीमारी या अप्रिय घटना मेरे साथ होने दे—परमेश्वर चाहे कुछ भी करे—मुझे समर्पण करना चाहिए और एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी जगह पर रहना चाहिए। अन्य सभी चीजों से पहले मुझे सत्य के इस पहलू—समर्पण—को अभ्यास में लाना चाहिए, मुझे इसे कार्यान्वित करना और परमेश्वर के प्रति समर्पण की वास्तविकता को जीना ही चाहिए। साथ ही, परमेश्वर ने जो आदेश मुझे दिया है और जो कर्तव्य मुझे निभाना चाहिए, मुझे उनका परित्याग नहीं करना चाहिए। यहाँ तक कि अंतिम साँस लेते हुए भी मुझे अपने कर्तव्य पर डटे रहना चाहिए,’ तो क्या यह गवाही देना नहीं है? जब तुम्हारा इस तरह का संकल्प होता है और तुम्हारी इस तरह की अवस्था होती है, तो क्या तब भी तुम परमेश्वर की शिकायत कर सकते हो? नहीं, तुम ऐसा नहीं कर सकते। ऐसे समय में तुम मन ही मन सोचोगे, ‘परमेश्वर ने मुझे यह साँस दी है, उसने इन तमाम वर्षों में मेरा पोषण और मेरी रक्षा की है, उसने मुझसे बहुत-सा दर्द लिया है और मुझे बहुत-सा अनुग्रह और बहुत-से सत्य दिए हैं। मैंने ऐसे सत्यों और रहस्यों को समझा है, जिन्हें लोग कई पीढ़ियों से नहीं समझ पाए हैं। मैंने परमेश्वर से इतना कुछ पाया है, इसलिए मुझे भी परमेश्वर को कुछ लौटाना चाहिए! पहले मेरा आध्यात्मिक कद बहुत छोटा था, मैं कुछ भी नहीं समझता था, और मैं जो कुछ भी करता था, उससे परमेश्वर को दुख पहुँचता था। हो सकता है, मुझे परमेश्वर को लौटाने का भविष्य में और अवसर न मिले। मेरे पास जीने के लिए जितना भी समय बचा हो, मुझे अपनी बची हुई थोड़ी-सी शक्ति अर्पित करके परमेश्वर के लिए वह सब करना चाहिए जो मैं कर सकता हूँ, ताकि परमेश्वर यह देख सके कि उसने इतने वर्षों से मेरा जो पोषण किया है, वह व्यर्थ नहीं गया, बल्कि फलदायक रहा है। मुझे परमेश्वर को और दुखी या निराश करने के बजाय उसे सुख पहुँचाना चाहिए।’ इस तरह सोचने के बारे में तुम्हारा क्या विचार है? यह सोचकर अपने आपको बचाने और कतराने की कोशिश न करो कि ‘यह बीमारी कब ठीक होगी? जब यह ठीक हो जाएगी, तो मैं अपना कर्तव्य निभाने का भरसक प्रयास करूँगा और समर्पित रहूँगा। मैं बीमार होते हुए समर्पित कैसे रह सकता हूँ? मैं एक सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे निभा सकता हूँ?’ जब तक तुम्हारे पास एक भी साँस बची है, क्या तुम अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम नहीं हो? जब तक तुम्हारे पास एक भी साँस बची है, क्या तुम परमेश्वर को शर्मिंदा न करने में सक्षम हो? जब तक तुम्हारे पास एक भी साँस बची है, जब तक तुम्हारी सोच स्पष्ट है, क्या तुम परमेश्वर के बारे में शिकायत न करने में सक्षम हो? (हाँ।) अभी ‘हाँ’ कहना बड़ा आसान है, पर यह उस समय इतना आसान नहीं होगा जब यह सचमुच तुम्हारे साथ घटेगा। इसीलिए, तुम लोगों को सत्य का अनुसरण करना चाहिए, अक्सर सत्य पर कठिन परिश्रम करना चाहिए और यह सोचने में ज्यादा समय लगाना चाहिए कि ‘मैं परमेश्वर के इरादे कैसे पूरे कर सकता हूँ? मैं परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान कैसे कर सकता हूँ? मैं सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे निभा सकता हूँ?’ सृजित प्राणी क्या होता है? क्या सृजित प्राणी का कर्तव्य परमेश्वर के वचनों को सुनना भर है? नहीं—उसका कर्तव्य परमेश्वर के वचनों को जीना है। परमेश्वर ने तुम्हें इतना सारा सत्य दिया है, इतना सारा मार्ग और इतना सारा जीवन दिया है, ताकि तुम इन चीजों को जी सको और उसकी गवाही दे सको। यही है, जो एक सृजित प्राणी को करना चाहिए, यह तुम्हारी जिम्मेदारी और दायित्व है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल परमेश्वर के वचन बार-बार पढ़ने और सत्य पर चिंतन-मनन करने में ही आगे बढ़ने का मार्ग है)। मैं समझ गई कि हमारे लिए परमेश्वर की अपेक्षाएँ बहुत सरल हैं, जो समर्पण की वास्तविकता को जीना है और चाहे हम बीमारी या अन्य विपत्तियों का सामना करें, हमें अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए। मेरा जीवन परमेश्वर का दिया हुआ है और आगे बढ़ते हुए, मेरी बीमारी दोबारा होगी या नहीं और मैं मरूँगी या नहीं, यह सब परमेश्वर के हाथों में था और मैं परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करने को तैयार थी। मुझे बस थोड़ी शारीरिक थकान महसूस होती थी, लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि मुझे कैंसर दोबारा हो गया है और मैं इतनी नहीं थकती थी कि बिस्तर से उठ न सकूँ। खास तौर से सीसीपी द्वारा भाई-बहनों की उन्मत्त होकर की जा रही गिरफ्तारियों के साथ, मुझे अपना दिल अपने कर्तव्य पर केंद्रित करना चाहिए और मुझे भाई-बहनों की रक्षा के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उस पर भरोसा करना चाहिए ताकि वे शांति से अपने कर्तव्य निभा सकें। उसके बाद, मैंने बस हमेशा की तरह अपना कर्तव्य निभाना जारी रखा। कभी-कभी जब मेरे शरीर को असहज महसूस होता तो मैं ज्यादा आराम करती और जब मुझे बेहतर महसूस होता तो मैं उठकर परमेश्वर के वचन पढ़ती। जब मुझे चीजें सँभालने के लिए बाहर जाने की जरूरत होती तो मैं अपनी बीमारी के बारे में ज्यादा सोचे बिना हमेशा की तरह बाहर जाती। कुछ समय बाद, मैं अनुवर्ती जाँच के लिए अस्पताल गई और कैंसर दोबारा नहीं हुआ था। मैं इसी तरह से अपना कर्तव्य निभाती आ रही हूँ, हर कुछ महीनों में अनुवर्ती जाँच के लिए अस्पताल जाती हूँ और अब कई साल बीत चुके हैं लेकिन मेरा कैंसर अभी भी दोबारा नहीं हुआ है। मैं परमेश्वर की सुरक्षा और मार्गदर्शन के लिए सचमुच आभारी हूँ।

इस बीमारी के माध्यम से, मैं मानवजाति को बचाने के परमेश्वर के इरादे को और अधिक समझ गई हूँ और मैंने देखा है कि परमेश्वर चाहे कैसी भी स्थितियाँ बनाता है, वे सभी मनुष्य को शुद्ध करने और मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव और उसके विश्वास में मौजूद अशुद्धियों को दूर करने के लिए होती हैं। साथ ही, मैं यह भी समझ गई कि जब तक कोई व्यक्ति जीवित है, उसे सत्य का अनुसरण करना चाहिए, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए और अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए। यही अर्थ और मूल्य के साथ जीने का एकमात्र तरीका है। अब से, मैं लगन से सत्य का अनुसरण करूँगी, स्वभाव में बदलाव लाऊँगी और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य पूरा करूँगी। परमेश्वर का धन्यवाद!

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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