निपटाए जाने से मैंने क्या पाया

16 जुलाई, 2023

जून 2022 में, मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया। मुझे क्या काम करने होंगे, जो तमाम अनुभव मिलेंगे और यह जीवन में प्रगति के लिए कितना अच्छा होगा, इन सारी बातों के बारे में सोचकर, मैं बहुत उत्साहित थी। अभ्यास का यह मौका देने के लिए मैं परमेश्वर की भी आभारी थी। लेकिन मैं अगुआई में नई थी, इसलिए बहुत-से सिद्धांत नहीं जानती थी। समस्याएँ आने पर मैंने सिद्धांत नहीं खोजे, बल्कि जो मुझे सही लगा वह करते हुए अपना रास्ता बनाती गई। विभिन्न पदों के लिए लोगों का चुनाव भी मैंने ऐसे ही किया। कुछ समय बाद, मैंने जिस सुपरवाइजर को चुना था वह अपने कर्तव्य में लापरवाह होकर काम में बाधा डालने लगी। बड़ी अगुआ ने मुझे फटकार लगाई, “कर्मचारियों की नियुक्ति जैसे महत्वपूर्ण काम में भी तुमने सिद्धांतों को अनदेखा क्यों किया, सहकर्मियों से चर्चा किए बिना खुद फैसले क्यों लिए? तुम बहुत अहंकारी और अति-आत्मविश्वासी हो!” यह सुनकर मुझे बहुत बुरा लगा। मैंने माना कि मैं अहंकारी थी, पर मुझे बहुत चिंता भी होने लगी। अब जब मेरी समस्या उजागर हो गई है, तो अगुआ और भाई-बहन मेरा असली चेहरा पहचान जाएँगे। अगर वही पुरानी समस्या दोबारा सामने आई, तो क्या अगुआ मुझे बर्खास्त कर देगी? मुझे हैरानी हुई जब जल्दी ही एक दूसरे प्रोजेक्ट में मेरे काम को दोबारा करना पड़ा, क्योंकि मैंने उसे अपने तरीके से किया था। इससे काम में देरी हुई, और मेरे साथ दोबारा काट-छाँट और निपटारा हुआ। मुझे कहा गया : “तुम अगुआ हो, तुम निजी मामले नहीं बल्कि वह काम संभाल रही हो जो पूरी कलीसिया से जुड़ी है। अगुआ को सभी मामलों में सत्य के सिद्धांत खोजकर अपने सहकर्मियों से चर्चा करनी चाहिए। तुम हमेशा मनमानी क्यों करती रहती हो? तुम ज्यादा ही अहंकारी हो।” उनकी बात सुनकर लगा मानो कोई नश्तर मेरे दिल के आर-पार हो गया, मैं अपने आँसू नहीं रोक पाई। वह सही थी—अगुआ पहले भी इस समस्या के बारे में बता चुकी थी। मैंने वही गलती क्यों दोहराई? अगर मैं हमेशा अपने तरीके से काम करके गड़बड़ करती रही, तो देर-सवेर मेरा बर्खास्त होना तय था। उस दौरान, मैंने अपने आस-पास के कुछ लोगों को देखा जो अपने कर्तव्य में सत्य के सिद्धांत खोजने के बजाय अपने तरीके से काम करते थे। इससे काम में रुकावटें आईं और उनकी आलोचना हुई, कुछ लोग बर्खास्त कर दिए गए। यह देखकर मैं और ज्यादा डर गई और चिंता में पड़ गई। मैं समझ गई कि अब से मुझे ध्यान रखना होगा, एक भी गलती नहीं करनी होगी। वरना, अगली बार मैं ही बर्खास्त की जाऊँगी। अगर मैंने वाकई अपना कर्तव्य खो दिया, तब भी क्या मुझे अच्छा परिणाम और मंजिल मिलेगी? इसके बाद से मैं बहुत ही डर-डरकर काम करने लगी। यहाँ तक कि काम की मामूली चर्चाओं में भी, जब राय देनी होती थी, तो मुझे अपनी बात कहने में संकोच होता, डरती कि कुछ गलत कह दिया तो मेरी समस्या उजागर हो जाएगी। जो समस्याएँ दिखतीं, उन पर सुझाव देते हुए भी मैं खुद पर संदेह करती, सोचती : “क्या यह वाकई एक समस्या है? अगर मैं गलत हुई, तो क्या अगुआ मेरा निपटारा करेगी? चलो छोड़ो—इस बारे में बात न करना ही बेहतर है। इस तरह कम-से-कम मैं गलत नहीं होउंगी—मेरी आलोचना नहीं होगी।” यह सोचकर, जिन बातों पर मैं पूरी तरह आश्वस्त नहीं होती, उन्हें छोड़ देती। मगर इससे मैं थोड़ी दोषी महसूस करने लगी, एहसास हुआ कि मैं अपने काम में गैर-जिम्मेदार बन रही थी। मैंने तय किया, मुझे सहकर्मियों से बात करने और उनकी राय जानने के बाद ही मामलों को निपटाना चाहिए। इस तरह अगुआ मुझे अहंकारी और मनमानी नहीं कहेगी। एक बार, कलीसिया को सुसमाचार कार्य के लिए टीम अगुआ चुनना था। एक भाई को सुसमाचार प्रचार में महारत थी, मगर लोगों ने कहा कि उसमें अच्छी मानवता नहीं है, उसने कई बार गुस्से में आकर दूसरों से बदला भी लिया था। मैं तय नहीं कर पाई कि वह सही उम्मीदवार है या नहीं, तो मैंने इस बारे में सहकर्मियों से चर्चा की। सबने उसे एक बार आजमाने को कहा। उस वक्त मैं थोड़ी बेचैन हो रही थी, मगर फिर मैंने सोचा, सबका कहना है कि उसे आजमाया जा सकता है, तो कोई दिक्कत नहीं आनी चाहिए। इसलिए मैंने अपनी चिंताएं जाहिर नहीं कीं और खुद को दिलासा भी दिया : मैं सबकी राय मांग चुकी हूँ, अगर कुछ गलत होता भी है, तो सारी जिम्मेदारी मेरी नहीं होगी। जल्दी ही, बड़ी अगुआ ने हमारे काम की जांच की और पाया कि उसमें अच्छी मानवता नहीं थी। वह दूसरों के सुझाव नहीं मानता था, यहाँ तक कि उन पर गुस्सा करता और उनसे बदला भी लेता था। अगुआ ने कहा, “अगर उसे फौरन बर्खास्त नहीं किया गया, तो काम पर असर पड़ेगा।” उनकी बात सुनकर मैं बहुत परेशान हो गई, मुझे इस समस्या का पहले से पता था, पर मुझे डर था कि मेरी राय सही नहीं होगी, और कोई समस्या आई तो उसकी जिम्मेदार मैं कहलाऊँगी, इसलिए मैंने कुछ कहा नहीं था। संयोग से, इस पर अगुआ का ध्यान गया और उसे बर्खास्त कर दिया, वरना काम पर यकीनन असर पड़ता। मैंने बहुत दोषी महसूस किया। मुझे भनक थी कि कोई समस्या तो जरूर है, फिर भी मैंने उसे सामने लाने की हिम्मत क्यों नहीं की? मैं कलीसिया कार्य की रक्षा क्यों नहीं कर पाई? मैं काट-छाँट और निपटारे से इतनी डरी हुई क्यों थी? मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर मुझे राह दिखाने को कहा ताकि मैं अपनी समस्या समझ पाऊँ।

फिर एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। “कुछ लोग कार्य करते समय अपनी इच्छा का अनुसरण करते हैं। वे सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं और काट-छाँट किए जाने और निपटे जाने पर वे केवल मौखिक रूप से यह स्वीकार करते हैं कि वे अभिमानी हैं, और उन्होंने केवल इसलिए भूल की क्योंकि वे सत्य से अनभिज्ञ हैं। लेकिन अपने दिलों में वे अभी भी शिकायत करते हैं, ‘कोई और ज़िम्मेदारी उठाने आगे नहीं आता है, बस मैं ही ऐसा करता हूँ, और अंत में, जब कुछ गलत हो जाता है, तो वे सारी ज़िम्मेदारी मुझ पर डाल देते हैं। क्या यह मेरी मूर्खता नहीं है? मैं अगली बार ऐसा नहीं कर सकता, इस तरह आगे नहीं आ सकता। बाहर निकली हुई कील ही ठोकी जाती है!’ इस रवैये के बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या यह पश्चात्ताप का रवैया है? (नहीं।) यह कैसा रवैया है? क्या वे अविश्वसनीय और धोखेबाज नहीं बन जाते? अपने दिलों में वे सोचते हैं, ‘मैं भाग्यशाली हूँ कि इस बार यह आपदा में नहीं बदला। दूसरे शब्दों में, अनुभव सिखाता है। मुझे भविष्य में और अधिक सावधान रहना होगा।’ वे सत्य की तलाश नहीं करते, बल्कि मामले को देखने और संभालने के लिए अपने ओछेपन और धूर्त योजनाओं का प्रयोग करते हैं। क्या वे इस तरह सत्य हासिल कर सकते हैं? वे ऐसा नहीं कर सकते, क्योंकि उन्होंने पश्चात्ताप नहीं किया है। पश्चात्ताप करते समय सबसे पहले की जाने वाली चीज यह समझना है कि तुमने क्या गलत किया है; यह देखना है कि तुम्हारी गलती कहाँ है, समस्या का सार क्या है, और तुमने कैसा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया है; तुम्हें इन बातों पर विचार करना चाहिए और सत्य स्वीकारना चाहिए, फिर सत्य के अनुसार अभ्यास करना चाहिए। सिर्फ यही पश्चात्ताप का रवैया है। दूसरी ओर, यदि तुम व्यापक रूप से शातिर तरीकों पर विचार करते हो, तुम पहले की तुलना में अधिक धूर्त बन जाते हो, तुम्हारी तरकीबें और भी अधिक चालाकी भरी और गुप्त होती हैं, और तुम्हारे पास चीजों से निपटने के और भी तरीके होते हैं, तो समस्या सिर्फ धोखेबाज होने जितनी सरल नहीं है। तुम छलपूर्ण साधनों का उपयोग कर रहे हो और तुम्हारे पास ऐसे रहस्य हैं जिन्हें तुम प्रकट नहीं कर सकते। यह बुराई है। न सिर्फ तुमने पश्चात्ताप नहीं किया है, बल्कि तुम और ज्यादा धूर्त और धोखेबाज बन गए हो। परमेश्वर देखता है कि तुम हठी और दुष्ट हो, एक ऐसा व्यक्ति जो सतही तौर पर यह मानता है कि वह गलत था, और निपटे जाने और काट-छाँट किए जाने को स्वीकारता है, लेकिन वास्तव में जिसमें पश्चात्ताप का रवैया लेशमात्र भी नहीं होता। हम ऐसा क्यों कहते हैं? क्योंकि जब यह घटना हो रही थी या उसके बाद, तुमने सत्य बिल्कुल नहीं खोजा, तुमने चिंतन करने और खुद को जानने का प्रयास नहीं किया और तुमने सत्य के अनुसार अभ्यास नहीं किया। तुम्हारा रवैया समस्या हल करने के लिए शैतान के फलसफे, तर्क और तरीकों का उपयोग करने का है। वास्तव में तुम समस्या से बचकर निकल रहे हो और उसे साफ-सुथरे पैकेज में लपेट रहे हो, ताकि दूसरे समस्या का कोई नामोनिशान न देख पाएँ, उन्हें कोई सुराग न मिले। अंत में, तुम्हें लगता है कि तुम बहुत सयाने हो। ये वे चीज़ें हैं जो परमेश्वर को नज़र आती हैं, बजाय इसके कि तुम वास्तव में आत्म-चिंतन करो, पाप स्वीकारो और पश्चात्ताप करो, उस मामले के सामने आते ही, जो आ पड़ा है, फिर सत्य की तलाश करो और सत्य के अनुसार अभ्यास करो। तुम्हारा रवैया सत्य की तलाश या उसका अभ्यास करने का नहीं है, न ही यह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के प्रति समर्पण करने का है, बल्कि समस्या को हल करने के लिए शैतान की तरकीबों और तरीकों का उपयोग करने का है। तुम दूसरों को अपने बारे में एक गलत धारणा देते हो और परमेश्वर द्वारा उजागर किए जाने का विरोध करते हो, और परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जिन परिस्थितियों का आयोजन किया है, उनके प्रति रक्षात्मक और टकरावपूर्ण होते हो। तुम्हारा दिल पहले से ज्यादा अवरुद्ध और परमेश्वर से अलग है। इस तरह, क्या इसमें से कोई अच्छा परिणाम आ सकता है? क्या तुम अभी भी शांति और आनंद का लाभ उठाते हुए प्रकाश में रह सकते हो? नहीं रह सकते। अगर तुम सत्य और परमेश्वर से दूर हो जाते हो, तो तुम निश्चित रूप से अँधेरे में गिरोगे और रोते हुए दाँत पीसोगे(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज से ही परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं और गलतफ़हमियों को दूर किया जा सकता है)। परमेश्वर कहता है कि अपने कर्तव्य में जो सिद्धांतों का उल्लंघन करते और काम में बाधा डालते हैं अगर उनकी काट-छाँट और निपटारा किया जाए, तो सत्य से प्रेम करने और इसे स्वीकारने वाले सत्य खोज कर आत्मचिंतन कर पाते हैं और अपनी गलती से सीखते हैं, वे जानते हैं कि उन्होंने कौन-सा भ्रष्ट स्वभाव दिखाया है और उसे कैसे ठीक करना चाहिए। इसके बाद, वे सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाते हैं। सही मायनों में निपटारा करना और सच्चा पश्चात्ताप दिखाना यही है। मगर जब सत्य न स्वीकारने वालों से निपटा जाता है, तो वे कहने को तो अपनी गलती मान लेते हैं, पर वे खुद को जानने के लिए आत्म-चिंतन या सत्य की खोज नहीं करते। वे मक्कारी और धूर्तता से खुद को छिपाते हैं, दूसरों को अपनी समस्याएँ नहीं देखने देते, ताकि वे खुद को बचा सकें। इस तरह के लोग सिर्फ कपटी ही नहीं होते, दुष्ट भी होते हैं। मैंने परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से खुद की तुलना की। जब मैं पहली बार अगुआ बनी थी, न मैं बहुत-से सिद्धांत जानती थी, न मैंने जानने की कोशिश की; बस अपने तरीके से काम किया। इससे काम में बाधाएँ आईं। अगुआ ने आलोचना करके मेरी गलती बताई ताकि मेरी मदद हो सके। पर अपनी गलती मानने के बाद भी, मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया, न ही सिद्धांत समझने की कोशिश की। मैं बस अंदाजा लगाती और सतर्कता बरतती रही, क्योंकि मुझे लगा की अगुआ पहले ही मेरी समस्या जान चुकी थी, अगर मैंने एक और गलती की तो बर्खास्त हो जाऊँगी, फिर मेरा परिणाम अच्छा नहीं होगा। मैंने हर मोड़ पर खुद को बचाने के लिए छल-कपट किया, अपनी समस्याएँ या कमियाँ सामने नहीं आने दीं। मैं जो भी कहती और करती, उसमें बहुत सावधान रहती थी। कोई भी समस्या बताने या राय देने से पहले मैं उसके फायदे-नुकसान पर विचार करती थी, सोचती कि इसके लिए मुझे निपटाया जा सकता है या नहीं। मैं तभी कुछ कहती जब मुझे यकीन होता कि सब सही होगा। किसी बात पर आश्वस्त न होने पर, मैं उस बारे में कुछ नहीं कहती थी, इस पर ध्यान न देती कि समस्या को अनदेखा करने से काम का कितना नुकसान होगा। आलोचना से बचने के लिए, जब मुझे किसी को चुनना होता, तो अपने सहकर्मियों की राय मांगती, पर यह सिर्फ एक दिखावा था। उनके सुझाव को लेकर आश्वस्त न होने पर भी, मैं आगे जाँच-पड़ताल नहीं करती थी, जिससे गलत इंसान चुन लिया जाता। यह भाई-बहनों के साथ-साथ काम के लिए भी नुकसानदेह था। मैंने देखा कि काट-छाँट और निपटारा होने पर, मैंने बिल्कुल भी पश्चात्ताप नहीं किया। बस और धूर्त और कपटी बन गई, यही सोचती रही कि गलतियाँ करने और फटकारे जाने से कैसे बचूँ, मैं हमेशा परमेश्वर और अगुआओं के खिलाफ सतर्क रहती थी। इस तरह कर्तव्य निभाना परमेश्वर के लिए घृणित और अप्रिय था। ऐसे में मुझे पवित्र आत्मा का कार्य और मार्गदर्शन कभी नहीं मिलता। मैं जानती थी, अगर मैंने पश्चात्ताप नहीं किया, तो अंत में परमेश्वर मुझे ठुकराकर निकाल देगा।

एक बार अपने भक्ति-कार्य में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा कि मसीह-विरोधी निपटाये जाने पर कैसा बर्ताव करते हैं, इससे मुझे अपनी समस्या समझने में मदद मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “कुछ मसीह-विरोधी, जो परमेश्वर के घर में काम करते हैं, वे चुपचाप संकल्प लेते हैं कि वे सावधानी से काम करेंगे, गलतियाँ करने, काट-छाँट किए जाने और निपटे जाने, ऊपर वाले को नाराज करने या कुछ बुरा करते हुए अपने अगुआ द्वारा पकड़े जाने से बचेंगे, और जब वे अच्छे कर्म करते हैं तो दर्शकों का होना सुनिश्चित करते हैं। फिर भी, चाहे वे कितने भी सावधान क्यों न रहें, इस तथ्य के कारण कि वे गलत प्रस्थान-बिंदु से चलते हैं और गलत मार्ग अपनाते हैं, सिर्फ प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए काम करते हैं और कभी सत्य नहीं खोजते, वे अक्सर सिद्धांतों का उल्लंघन कर देते हैं, कलीसिया का कार्य बाधित और अव्यवस्थित कर देते हैं, शैतान के अनुचरों के रूप में कार्य करते हैं, यहाँ तक कि अकसर अपराध कर बैठते हैं। ऐसे लोगों के लिए अकसर सिद्धांतों का उल्लंघन और अपराध करना बहुत आम बात है। इसलिए, बेशक, उनके लिए काट-छाँट किए जाने और निपटे जाने से बचना मुश्किल होता है। अब जब काट-छाँट और निपटारा नहीं किया जा रहा होता, तो मसीह-विरोधी इतनी सावधानी से कार्य क्यों करते हैं? निश्चित रूप से इसका एक कारण यह होता है कि वे सोचते हैं, ‘मुझे सावधान रहना होगा—आखिरकार, “सावधानी ही सुरक्षा की माँ है” और “अच्छे लोगों का जीवन शांतिपूर्ण होता है।” मुझे इन सिद्धांतों का पालन करना चाहिए और हर पल खुद को गलत काम करने या परेशानी में पड़ने से बचने की याद दिलानी चाहिए, और मुझे अपनी भ्रष्टता और इरादे दबा देने चाहिए। अगर मैं गलत न करूँ और अंत तक डटा रह सकूँ, तो मैं आशीष पाऊँगा, आपदाओं से बचूँगा, और परमेश्वर में अपने विश्वास में सफल होऊँगा!’ वे अकसर खुद को इस तरह से राजी, प्रेरित और प्रोत्साहित करते हैं। उनका मानना है कि अगर वे गलत करते हैं, तो वे आशीष प्राप्त करने के अपने अवसर काफी कम कर देंगे। क्या यह गणना और विश्वास ही उनके दिल की गहराइयों में घर नहीं किए रहता? इसे एक तरफ रखते हुए कि मसीह-विरोधियों की यह गणना या विश्वास सही है या गलत, इस विश्वास के आधार पर निपटे और काट-छाँट किए जाने पर उन्हें सबसे ज्यादा चिंता किस बात की होगी? (अपनी संभावनाओं और भाग्य की।) वे निपटारे और काट-छाँट किए जाने को अपनी संभावनाओं और भाग्य के साथ जोड़ते हैं—इसका संबंध उनकी दुष्ट प्रकृति से है। वे मन ही मन सोचते हैं : ‘क्या मेरा इस तरह निपटान इसलिए किया जा रहा है क्योंकि परमेश्वर मुझे बाहर निष्कासित करने वाला है? क्योंकि परमेश्वर मुझे नहीं चाहता? क्या परमेश्वर का घर मुझे इस काम को करने से रोकेगा? क्या मैं भरोसेमंद नहीं लगता? क्या मेरी जगह किसी बेहतर व्यक्ति को लाया जाएगा? अगर मुझे निष्कासित कर दिया गया, क्या तब भी मुझे आशीष मिलेगा? क्या मैं तब भी स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर सकता हूँ? ऐसा लगता है कि मेरा प्रदर्शन बहुत संतोषजनक नहीं रहा है, इसलिए मुझे भविष्य में और अधिक सावधान रहना चाहिए, आज्ञाकारी बनकर अच्छा व्यवहार करना सीखना चाहिए और कोई परेशानी नहीं खड़ी करनी चाहिए। मुझे धैर्य रखना सीखना चाहिए और सिर झुकाकर जीना चाहिए। प्रतिदिन काम करते समय मुझे यह मानकर चलना चाहिए कि मैं तलवार की धार पर चल रहा हूँ। मैं जरा-सा भी असावधान नहीं हो सकता। हालाँकि इस बार लापरवाही बरतने के कारण मुझसे निपटा गया है और मेरी काट-छाँट की गई है, लेकिन ऐसा लगता है कि समस्या बहुत गंभीर नहीं है। लगता है कि अभी भी मेरे पास एक मौका है—मैं अभी भी आपदाओं से बचकर आशीष पा सकता हूँ, इसलिए मुझे विनम्रतापूर्वक इसे स्वीकार लेना चाहिए। ऐसा नहीं है कि मेरी जगह किसी और को दे दी जाएगी, निकालने या निष्कासित करने की तो बात तो दूर है, तो मैं इस तरह अपना निपटारा और काट-छाँट स्वीकार कर सकता हूँ।’ क्या यह निपटान और काट-छाँट स्वीकार करने का रवैया है? क्या यह वास्तव में अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानना है? क्या यह पश्चात्ताप कर अपने में बदलाव लाने की इच्छा है? क्या यह सच में सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के लिए दृढ़संकल्पी होना है? नहीं, ऐसा नहीं है। फिर वे ऐसा बर्ताव क्यों करते हैं? क्योंकि उन्हें आशा होती है कि वे आपदाओं से बचकर आशीष पा सकते हैं। जब तक उन्हें यह उम्मीद होती है, वे अपने असली इरादे नहीं दिखा सकते, वे अपनी असलियत का खुलासा नहीं कर सकते, वे लोगों को नहीं बता सकते कि उनके दिल की गहराइयों में क्या छिपा है, लोगों को अपने अंदर छिपी नाराजगी के बारे में नहीं बता सकते। उन्हें खुद को छिपाकर रखना होगा, विनम्रता का व्यवहार करना और लोगों को पता नहीं लगने देना होगा कि असलियत में वे कौन हैं। इसलिए काँट-छाँट और निपटारे के बाद भी उनमें कोई बदलाव नहीं आता और वे पहले की तरह ही कार्य करने में लगे रहते हैं। तो उनके कार्यों के पीछे क्या सिद्धांत है? सीधी-सी बात है, हर काम में अपने हितों की रक्षा करना। वे चाहे जो भी गलती करें, वे दूसरों को उसका पता नहीं चलने देते; उन्हें अपने आस-पास के लोगों में यह छवि बनाकर होगी कि वे दोषों या कमियों से मुक्त एक आदर्श इंसान हैं और कभी कोई गलती नहीं करते। इस तरह वे छद्मवेश में रहते हैं। लंबे समय तक छद्मवेश में रहकर वे आश्वस्त हो जाते हैं कि उनका आपदाओं से बचना, आशीष पाना और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना कमोबेश निश्चित है(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग आठ))। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि सिद्धांतों का उल्लंघन या बुरे काम करने के कारण निपटाये जाने पर मसीह-विरोधियों की सबसे बड़ी चिंता निकाल दिये जाने की होती है, जिससे उन्हें आशीष नहीं मिलेगी। इसके बाद वे अपने हर काम में बेहद सतर्क हो जाते हैं, परमेश्वर और इंसान से काफी सावधान रहते हैं। उन्हें लगता है अगर वे कुछ गलत न करें और दूसरों को अपनी कमियाँ न देखने दें, तो अपने ओहदे पर बने रह पाएँगे और उन्हें आशीष जरूर मिलेगी। मैंने देखा कि मसीह-विरोधी बेहद स्वार्थी, दुष्ट, कपटी और बुरे होते हैं। वे सिर्फ आशीष पाने की खातिर परमेश्वर में विश्वास करते हैं। निपटाये जाने पर उन्हें सिर्फ अपने भविष्य और हितों की चिंता रहती है। भले ही कुछ समय के लिए उनका बर्ताव ठीक हो और वे आज्ञा मानें, पर यह सिर्फ दिखावा है, ताकि आपदाओं से बचने के लिए कलीसिया में दुबक सकें। मैंने देखा कि निपटाये जाने को लेकर मेरा रवैया ठीक मसीह-विरोधियों जैसा ही था, मैं आलोचना को आशीष पाने से जोड़ देती थी। जब मुझे फटकार पड़ी तो मैं सोचने लगी कि कहीं अगुआ मुझे बर्खास्त तो नहीं कर देगी, बस अच्छे भविष्य और मंजिल मिलने की चिंता करती रही। उसके बाद मैं बच-बचकर अपना कर्तव्य निभाने लगी। जो भी सुझाव देती या समस्या बताती, उस पर बार-बार सोचती, मुझे गलती करने और अपनी कमियाँ उजागर होने का डर लगा रहता था। इससे अगुआ मेरी असलियत जान जाती और मुझे बर्खास्त कर देती। जब दूसरे भाई-बहनों को बर्खास्त होते देखा तो मैं परमेश्वर के खिलाफ और ज्यादा सावधान हो गई, डरती रही कि गलती हो गई तो मेरा दोबारा निपटान होगा या बर्खास्त किया जाएगा। मुझे एहसास हुआ कि आज तक मैंने सच में निपटारे को स्वीकारा नहीं था या आत्म-चिंतन करके अपनी गलतियाँ नहीं देखी थी। बिना सोचे-समझे परमेश्वर से सावधान रहने लगी थी, खुद को छिपाने के लिए और ज्यादा कपटी चालें चलने लगी थी। मैंने सोचा अगर मैं अपना असली चेहरा छुपाये रखूँगी, गलतियाँ नहीं करूँगी या मेरी आलोचना नहीं होगी, तो बर्खास्त नहीं होउंगी, और फिर मैं कलीसिया में रहकर अच्छा परिणाम और मंजिल पा सकूँगी। मैं हमेशा परमेश्वर से सावधान रहती थी, अपने निजी फायदे-नुकसान का हिसाब लगाती रहती थी। समस्या देखकर भी मैंने सत्य की खोज या रिपोर्ट नहीं की। बस अपने बारे में सोचा, कलीसिया कार्य पर जरा भी विचार नहीं किया। मैं बहुत स्वार्थी और कपटी थी। इस तरह खुद को छिपाकर मैं भले ही कुछ समय के लिए अगुआ को बेवकूफ बना लेती और तुरंत बर्खास्त नहीं होती, लेकिन अगर मैंने कभी आत्म-चिंतन, पश्चात्ताप और बदलाव नहीं किया तो देर-सवेर परमेश्वर मुझे उजागर करके निकाल ही देगा। यह एहसास होने पर, मैंने पश्चात्ताप करने और अपनी समस्या हल करने के लिए सत्य खोजने को तैयार होकर प्रार्थना की।

अपनी खोज में, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े कि निपटारा होने पर हमें कैसा बर्ताव करना चाहिए। “तथ्य यह है कि परमेश्वर का घर लोगों की काट-छाँट और निपटारा सिर्फ इसलिए करता है क्योंकि वे लोग कर्तव्य निभाते समय मनमर्जी चलाते हैं, परमेश्वर के घर के कार्य को बाधित और अस्तव्यस्त कर देते हैं, वे न तो आत्म-चिंतन करते हैं और न ही पश्चात्ताप। इसलिए उनकी काट-छाँट और निपटारा किया जाता है। जब इस तरह की स्थिति में लोगों की काट-छाँट और निपटारा किया जाता है, तो क्या उन्हें निष्कासित किया जा रहा है? (नहीं।) बिल्कुल नहीं, लोगों को इन चीजों की सकारात्मक समझ होनी चाहिए। इस संदर्भ में, काट-छाँट और निपटारा किया जाना दुर्भावनापूर्ण नहीं है, यह कलीसिया के काम को लाभ पहुँचाता है, फिर चाहे वह परमेश्वर की ओर से आए, अन्य लोगों की ओर से, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की ओर से या फिर भाई-बहनों की ओर से आए। जब कोई व्यक्ति मनमाने तरीके से काम कर परमेश्वर के घर के कार्य को बाधित करता है, तो उसकी काट-छाँट और निपटारा करना एक धार्मिक और सकारात्मक कार्य होता है। ईमानदार और सत्य से प्रेम करने वाले लोगों को यही करना चाहिए(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग आठ))। “जब काट-छाँट करने और निपटने की बात आती है, तो लोगों को कम से कम क्या पता होना चाहिए? अपना कर्तव्य यथेष्ट रूप से निभाने के लिए काट-छाँट किए जाने और निपटे जाने का अनुभव होना चाहिए, यह अपरिहार्य है। ये ऐसी चीजें हैं, जिनका लोगों को प्रतिदिन सामना करना चाहिए और जिन्हें परमेश्वर में अपने विश्वास और उद्धार की प्राप्ति में अकसर अनुभव करना चाहिए। कोई भी काट-छाँट किए जाने और निपटे जाने से अलग नहीं रह सकता। क्या किसी की काट-छाँट और उसके निपटारे में उसका भविष्य और नियति भी शामिल होते हैं? (नहीं।) तो व्यक्ति के लिए काट-छाँट और निपटारा क्या होता है? क्या यह लोगों की निंदा करने के लिए किया जाता है? (नहीं, यह लोगों को सत्य समझने और अपना कर्तव्य सिद्धांतों के अनुसार निभाने में मदद करना है।) सही है। यह इसकी एकदम सही समझ है। किसी की काट-छाँट करना और उससे निपटना एक तरह का अनुशासन है, ताड़ना है, यह एक प्रकार से लोगों की मदद करना भी है। काट-छाँट किए जाने और निपटे जाने से तुम समय रहते अपने गलत लक्ष्य को बदल सकते हो। इससे तुम अपनी मौजूदा समस्याएँ तुरंत पहचान सकते हो और समय रहते अपने उजागर हुए भ्रष्ट स्वभाव को पहचान सकते हो। चाहे कुछ भी हो, काट-छाँट किया जाना और निपटा जाना तुम्हें अपने कर्तव्य सिद्धांतों के अनुसार पूरा करने में मदद करते हैं, ये तुम्हें समय रहते गलतियाँ करने और भटकने से बचाते हैं और तबाही मचाने से रोकते हैं। क्या यह लोगों की सबसे बड़ी सहायता, उनका सबसे बड़ा उपचार नहीं है? जमीर और विवेक रखने वालों को निपटे जाने और काट-छाँट किए जाने को सही ढंग से लेने में सक्षम होना चाहिए(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग आठ))। उसके वचनों से मैंने सीखा कि यह लोगों को शुद्ध करने और पूर्ण बनाने का एक तरीका है। जीवन में प्रगति की प्रक्रिया में हमें इसका सामना करना और इसे अनुभव करना जरूरी है। काट-छाँट और निपटारा कई बार बहुत कठोर और तीखा हो सकता है, पर यह हमारे भ्रष्ट स्वभाव पर केंद्रित है। यह हमारी भ्रष्टता और अवज्ञा उजागर कर उसका विश्लेषण करता है। इसमें हमारे लिए न तो किसी प्रकार की दुर्भावना होती है, न यह निंदा करके हमें निकालने के लिए है—इसका हमारे भविष्य और किस्मत से लेना-देना नहीं है। मगर मुझे गलतफहमी थी कि निपटाया जाना निंदा किया जाना है, और मुझे बर्खास्त करके निकाल दिया जाएगा। इस तरह परमेश्वर को गलत समझना, उसकी धार्मिकता को ठुकराना और उसका तिरस्कार करना था! अगुआ का मेरी काट-छाँट और निपटारा करना मुख्य रूप से मेरे अहंकारी और मनमौजी बर्ताव के लिए था, जिससे कलीसिया के काम में बाधा आई थी, यह गुस्सा दिलाने वाली बात थी। कलीसिया कार्य की रक्षा के लिए अगुआ चाहती थी कि मैं जल्द-से-जल्द बदलाव करूँ। सख्त लहजे में बात करना बहुत ही सामान्य बात थी, वह मुझे बर्खास्त नहीं कर रही थी। उन आलोचना भरे शब्दों ने सीधे मेरी समस्याओं और भ्रष्टता की जड़ पर चोट किया और मैं इस समस्या की गंभीरता समझ पाई। मेरा दिल एकदम सुन्न और कठोर था, उनके बिना, मैं अच्छी सलाह को भी पूरी तरह से अनदेखा कर देती और वही गलती दोहराती रहती। फिर मैं अपने कर्तव्य में कभी प्रगति नहीं कर पाती। मैं बुरे काम करके कलीसिया कार्य में बाधा डालती रहती। जब भी मेरा निपटारा होता, मेरी कमियाँ और गलतियाँ तुरंत ठीक हो जातीं, मेरे बुरे काम बीच में रोक दिए जाते। यही मेरे लिए सबसे मददगार था। देखा जाए तो मैंने सत्य में सबसे ज्यादा प्रगति तभी की थी जब मैं लड़खड़ाकर गिर गई थी, और मेरा निपटारा किया गया था। मुझे एहसास हुआ कि निपटाया जाना हमारे न्याय और शुद्धिकरण के लिए परमेश्वर का बेहतरीन और सबसे असरदार तरीका है। इसका अनुभव कर पाना परमेश्वर का अनुग्रह और आशीष है, और मुझ पर उसकी विशेष कृपा है। मगर मैंने न सत्य खोजा, न आत्म-चिंतन किया। बस परमेश्वर को गलत समझकर, अपने भविष्य और किस्मत की चिंता में जीती रही। मैं कितनी नासमझ थी, अच्छे-बुरे का कुछ पता ही नहीं था।

एक सभा में मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा, जिसका मुझ पर गहरा असर पड़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “अगर कोई अपना कर्तव्य निभाते हुए हमेशा अपने खुद के हितों और बेहतर संभावनाओं के लिए योजना बनाता रहता है, और कलीसिया के काम या परमेश्वर के घर के हितों का ध्यान नहीं रखता, तो यह कर्तव्य निभाना नहीं है। यह अवसरवादिता है, अपने फायदे और खुद के लिए आशीष पाने की खातिर काम करना है। इस प्रकार, उनके कर्तव्य पालन के पीछे की प्रकृति बदल जाती है। यह सिर्फ परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने और अपना लक्ष्य साधने के लिए अपने कर्तव्य-निर्वहन का उपयोग करने की इच्छा के बारे में है। इस तरह कार्य करने से परमेश्वर के घर का काम बहुत आसानी से बाधित हो जाता है। अगर इससे कलीसिया के काम को मामूली नुकसान होता है, तब तो फिर भी छुटकारा पाने की गुंजाइश है, उन्हें निकालने के बजाय कर्तव्य-निर्वहन का अवसर दिया जा सकता है; लेकिन अगर इससे कलीसिया के काम को भारी नुकसान होता है और यह परमेश्वर तथा लोगों के क्रोध का कारण बनता है, तो उन्हें उजागर कर निष्कासित कर दिया जाएगा, फिर उनके पास कर्तव्य-निर्वहन का कोई और अवसर नहीं होगा। कुछ लोगों को इस तरह से बर्खास्त कर निष्कासित किया जाता है। उन्हें निष्कासित क्यों किया जाता है? क्या तुम लोगों ने इसका मूल कारण पता किया है? इसका मूल कारण यह है कि वे हमेशा अपने लाभ-हानि के बारे में सोचते हैं, केवल अपने हितों की सोचते हैं, देहसुख का त्याग नहीं कर पाते और परमेश्वर के प्रति उनका रवैया जरा-सा भी आज्ञाकारी नहीं होता, इसलिए वे लापरवाही से व्यवहार करते हैं। वे केवल लाभ, अनुग्रह और आशीष प्राप्त करने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, न कि रंच-मात्र भी सत्य पाने के लिए, इसलिए परमेश्वर में उनका विश्वास विफल हो जाता है। यही समस्या की जड़ है। क्या तुम लोगों को लगता है कि उन्हें उजागर कर निष्कासित करना अन्यायपूर्ण है? यह जरा-सा भी अन्यायपूर्ण नहीं है, यह पूरी तरह से उनकी प्रकृति से निर्धारित होता है। जो इंसान सत्य से प्रेम नहीं करता या सत्य का अनुसरण नहीं करता, उसे अंततः उजागर कर निष्कासित कर दिया जाएगा(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के सिद्धांतों की खोज करके ही व्यक्ति अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकता है)। परमेश्वर कहता है, कर्तव्य में अगर तुम सिर्फ अपने हितों और भविष्य के बारे में सोचते और योजना बनाते हो, तो तुम्हारे काम की प्रकृति बदल चुकी है, यह अब कर्तव्य निभाना नहीं रहा। तुम बुरे काम करोगे, कलीसिया कार्य में बाधा डालोगे, फिर तुम्हारा बर्खास्त होना और निकाला जाना तय है। मैं पहली बार अगुआ बनी थी और मुझे सिद्धांतों का पता नहीं था। मुझे जो मन करता वही करती थी। निपटाए जाने के बाद भी मैंने पश्चाताप नहीं किया, बल्कि अपनी किस्मत के बारे में सोचती रही, तबादले से डरती रही। मैं समस्याएँ साफ देख पा रही थी, पर गलतियाँ करने से बचने के लिए, मैंने समस्याएँ बताने के बजाय काम रोकना सही समझा। यह कर्तव्य निभाना नहीं था; यह कलीसिया-कार्य का नुकसान कर कुकर्म करना था। जिन लोगों को मैंने बर्खास्त करके निकाले जाते देखा था उनमें से कुछ कर्तव्य में हमेशा अपने फायदों की सोचते थे। समस्याएँ आने पर जब उनका निपटारा किया गया, तो उन्होंने सत्य के सिद्धांत समझने की कोशिश नहीं की, बल्कि खुद को छुपाते रहे, परमेश्वर और अगुआओं के खिलाफ सतर्कता बरती। उन्हें हमेशा बर्खास्त होने और निकाले जाने की चिंता सताती रहती थी, वे हमेशा इसी दुष्चक्र में जी रहे थे। परमेश्वर के साथ उनका रिश्ता सामान्य नहीं था और उन्हें अपने कर्तव्य में कभी नतीजे नहीं मिले। कुछ लोगों ने कुकर्म करके कलीसिया-कार्य में बाधा डाली, जिस कारण उन्हें उजागर करके निकाल दिया गया। उनकी नाकामियों से मैंने जाना कि आस्था और कर्तव्य में किसी की मंशा, उसके प्रारंभिक बिंदु और उसके द्वारा चुना मार्ग, सबसे अहम हैं। उसके परिणाम और मंजिल पर इनका सीधा प्रभाव पड़ता है। मेरी स्थिति, मेरा बर्ताव और मेरा चुना हुआ मार्ग, सब उनके जैसा ही था। मैं हमेशा गलतियाँ करने और फटकार खाने से डरती थी, मैं परमेश्वर से डरती और सावधान रहती थी, अड़ियल बनकर अपने फायदों और भविष्य की सोचती रहती थी, अगुआ ने मेरी जो भी समस्या बताई, उसे हल करने के लिए सत्य के सिद्धांत खोजने की कोशिश नहीं की। अगर यह चलता रहता, तो न सिर्फ मैं अपने कर्तव्य में प्रगति करने में पीछे रह जाती, बल्कि इससे काम का नुकसान होता और मैं अपराध कर चुकी होती। इसकी प्रकृति और नतीजे बहुत गंभीर हैं। यह परमेश्वर का मुझे उजागर करके निकालना नहीं, बल्कि अपने हाथों से अपना भविष्य खराब करना होगा। इससे एहसास हुआ कि बर्खास्त होने और निकाले जाने की चिंता करने के बजाय जरूरी था अगुआ की बताई समस्याओं पर अच्छे से चिंतन करना, सत्य के सिद्धांत खोजकर उस पर मनन करने की कोशिश करना, और सिद्धांतों का पालन करना। हर मुमकिन कोशिश करने के बाद भी अगर मैं अच्छा नहीं कर पाई और बर्खास्त कर दी गई, तो परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए।

फिर मुझे अभ्यास और सत्य में प्रवेश के लिए परमेश्वर के कुछ और वचन मिले। परमेश्वर के वचन कहते हैं, “तुम्हारा गंतव्य और तुम्हारी नियति तुम लोगों के लिए बहुत अहम हैं—वे गंभीर चिंता के विषय हैं। तुम मानते हो कि अगर तुम अत्यंत सावधानी से कार्य नहीं करते, तो इसका अर्थ यह होगा कि तुम्हारा कोई गंतव्य नहीं होगा, कि तुमने अपना भाग्य बिगाड़ लिया है। लेकिन क्या तुम लोगों ने कभी सोचा है कि अगर कोई मात्र अपने गंतव्य के लिए प्रयास करता है, तो वह व्यर्थ ही परिश्रम करता है? ऐसे प्रयास सच्चे नहीं हैं—वे नकली और कपटपूर्ण हैं। यदि ऐसा है, तो जो लोग केवल अपने गंतव्य के लिए कार्य करते हैं, वे अपनी अंतिम पराजय की दहलीज पर हैं, क्योंकि परमेश्वर में व्यक्ति के विश्वास की विफलता धोखे के कारण होती है। मैं पहले कह चुका हूँ कि मुझे चाटुकारिता या खुशामद या अपने साथ उत्साह के साथ व्यवहार किया जाना पसंद नहीं है। मुझे ऐसे ईमानदार लोग पसंद हैं, जो मेरे सत्य और अपेक्षाओं का सामना कर सकें। इससे भी अधिक मुझे तब अच्छा लगता है, जब लोग मेरे हृदय के प्रति अत्यधिक चिंता या आदर का भाव दिखाते हैं, और जब वे मेरी खातिर सब-कुछ छोड़ देने में सक्षम होते हैं। केवल इसी तरह से मेरे हृदय को सुकून मिल सकता है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, गंतव्य के बारे में)। “परमेश्वर के प्रति, और अपने कर्तव्य के प्रति, लोगों को एक ईमानदार दिल रखना चाहिए। अगर वे ऐसा करते हैं, तो वे परमेश्वर का भय मानने वाले लोग होंगे। ईमानदार दिल वाले लोगों का परमेश्वर के प्रति कैसा रवैया होता है? कम-से-कम उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होता है, ऐसा दिल जो सब मामलों में परमेश्वर का आज्ञापालन करता है, वे आशीषों या दुर्भाग्यों को लेकर कोई पूछताछ नहीं करते, परिस्थितियों की बात नहीं करते, और खुद को परमेश्वर की दया पर छोड़ देते हैं—ऐसे लोग ईमानदार दिल वाले होते हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के सिद्धांतों की खोज करके ही व्यक्ति अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकता है)। परमेश्वर कहता है, जो लोग कर्तव्य में सिर्फ अपने भविष्य और मंजिल की परवाह करते हैं और अपने फायदों की सोचते हैं, वे परमेश्वर के प्रति सच्चे नहीं होते, बल्कि उसका इस्तेमाल कर उसे धोखा दे रहे हैं। उसे ऐसे लोगों से घृणा और नफरत है। परमेश्वर को ईमानदार लोग पसंद हैं जो आशीष या शाप से बेपरवाह होते और शर्त नहीं रखते, अपने कर्तव्य में सच्चे होते हैं। सिर्फ ऐसे इंसान को ही परमेश्वर की स्वीकृति मिलती है। परमेश्वर की इच्छा समझकर, मुझे अभ्यास का मार्ग मिल गया। अपने कर्तव्य में, मुझे ईमानदार इंसान बनने पर ध्यान देना होगा, परमेश्वर को सब बताना और निजी फायदे-नुकसान को भूलना होगा। निपटारा होने पर, अगुआ का रवैया मेरे प्रति चाहे जैसा भी हो, मुझे बर्खास्त किया जाये या नहीं, मुझे अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए सत्य खोजना चाहिए—यही मुख्य है। उस वक्त अगुआ मेरे अहंकारी और अति-आत्मविश्वासी होने और मनमर्जी से काम करने के कारण मेरा निपटारा कर रही थी। अगर यह समस्या हल नहीं की जाती, तो शायद मैं वही सब करती रहती। इसलिए जो भी समस्याएँ सामने आई थीं, मैंने उनका सारांश तैयार किया और एक-एक करके सिद्धांतों से उनकी तुलना की। जब मुझे कोई बात समझ नहीं आती, तो मैं दूसरों से संगति कर लेती। इसके बाद मेरे सामने जब कुछ ऐसा आता जिस पर मैं आश्वस्त नहीं होती, तो मैं तुरंत खुद पर भरोसा नहीं करती, मनमर्जी से काम न करती। मैं परमेश्वर से प्रार्थना करके शांति से सिद्धांत खोजती थी। सबके सहमत होने तक, मैं सहकर्मियों से चर्चा करती। कुछ समय तक यह सब करने से गलतियाँ काफी कम हो गईं। जब कोई ऐसी चुनौती आती जिसे मैं हल नहीं कर पाती, तो मैं बड़े अगुआओं से मदद मांगती। एक बार छानबीन करते समय, एक बड़ी अगुआ के साथ संगति के बाद मैं पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो पाई। लगा जैसे मेरे मन में अब भी सवाल थे, मैं उन्हें सामने रखना चाहती थी, पर मुझे डर था कि अगर वे सवाल अच्छे नहीं हुए, तो शायद अगुआ कहे कि मैं नाकाबिल हूँ, मुझमें समझ नहीं है। जब मुझे संकोच हो रहा था, तभी एहसास हुआ कि मैं फिर से फायदे-नुकसान की सोच रही हूँ। मैं सत्य का अभ्यास करने और ईमानदार इंसान बनने को तैयार होकर बार-बार परमेश्वर से प्रार्थना करने लगी। मैं समस्या को सही तरीके से समझ पाऊँ या नहीं, मैं अपनी मंशाएँ ठीक करने और सत्य के इस पहलू पर स्पष्टता पाने को तैयार थी। आखिर, मैंने अपने सवाल पूछने की हिम्मत जुटाई। मेरी बात सुनकर अगुआ ने कहा कि ये वाकई समस्याएँ थीं। उसने संगति भी की, “अगर अब भी कुछ समस्या हो, जिसे पूरी तरह हल नहीं किया गया है, तो तुम्हें तुरंत उसके बारे में बताना चाहिए। इससे कलीसिया कार्य में मदद मिलेगी।” अगुआ की बात सुनकर मैंने परमेश्वर का बहुत आभार व्यक्त किया, मुझे ऐसी आंतरिक शांति महसूस हुई जो निजी हितों को त्यागकर ईमानदार इंसान बनने से होता है।

इन अनुभवों से मैंने सीखा कि निपटाया जाना हमारे लिए कितना अच्छा है। निपटाया जाना कुछ पल के लिए मुश्किल भरा हो सकता है, पर अब मैं उसे सही ढंग से संभाल पाती हूँ, मैं समर्पित होकर सत्य के सिद्धांत खोज कर अपनी समस्या हल कर सकती हूँ। इससे मुझे काफी सुकून मिला है।

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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