मैंने कार्य के निरीक्षण की हिम्मत क्यों नहीं की
दो साल पहले, जब मैंने कलीसिया अगुआ के रूप में काम करना शुरू किया, उस समय मेरे कई साथी मुझसे भी पुराने विश्वासी थे। मुझे लगा वे मुझसे ज्यादा...
हम परमेश्वर के प्रकटन के लिए बेसब्र सभी साधकों का स्वागत करते हैं!
मार्च 1997 में, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार किया। प्रभु में कई सालों तक विश्वास करने के बाद, मैं आखिरकार उसके वापस आने का स्वागत करने के लिए बहुत उत्साहित था। खास तौर पर, जब मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर हमें पाप से छुटकारा दिलाने, पूरी तरह से शुद्ध करने और बचाने के लिए अंत के दिनों में सत्य व्यक्त करने लौटा है और उद्धार पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने की हमारी उम्मीदें पूरी होने वाली हैं, मैंने अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपने परिवार और पेशे को त्यागना शुरू कर दिया। इस दौरान, पेट की समस्याएँ और कमर दर्द जो मुझे कई सालों से परेशान कर रहे थे, बिना मेरे ध्यान दिए ही पूरी तरह से ठीक हो गए और मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए और भी ज्यादा प्रेरित हुआ। बाद में, अपना कर्तव्य निभाने के दौरान मुझे पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। पुलिस ने मुझे मरणासन्न होने तक प्रताड़ित किया। इसकी वजह से मुझे दिल की समस्या हो गई और मुझे ज्यादा उत्तेजित होने से बचना होता है। अगर मुझे अचानक कोई तेज आवाज सुनाई दे, तो मेरा दिल उसे सह नहीं पाता और मैं घबरा जाता हूँ। अपनी रिहाई के बाद, चाहे हालात कितने भी खतरनाक क्यों न हों, मैं हमेशा अपने कर्तव्य में लगा रहा। जून 2017 तक, मेरी सेहत में गड़बड़ियाँ होने लगीं। पहले, मुझे सीने में जकड़न, साँस लेने में तकलीफ और आम थकान महसूस हुई। सिर्फ नहाने भर से ही मैं इतना थक जाता था कि मुझे सामान्य होने के लिए थोड़ी देर लेटना पड़ता था। मेरे सिर के पिछले हिस्से में बुखार जैसा महसूस होता था और सिर इतना भारी लगता था कि मैं उसे उठा भी नहीं पाता था। मेरी पिंडलियाँ बुरी तरह सूज गईं और जब मैं उन्हें दबाता तो एक गड्ढा बन जाता था और शाम को मुझे हल्का बुखार भी रहता था। बाद में, मेरी सेहत और भी खराब होती गई। मेरा आधा शरीर सुन्न महसूस होता था और मैं स्थिर बैठ भी नहीं पाता था। कभी-कभी, मेरी सर्वाइकल स्पॉन्डिलाइटिस की समस्या बढ़ जाती थी, जिसमें नसें दब जाती थीं, गर्दन अकड़ जाती, दिमाग में खून की आपूर्ति कम हो जाती और चक्कर आने लगते थे। मैं पानी की एक बोतल भी नहीं उठा पाता था और छींकने भर से ही पसीने से तर हो जाता था। मैं जाँच के लिए अस्पताल गया और डॉक्टर ने मुझसे बहुत गंभीरता से कहा, “तुम्हारा सिस्टोलिक ब्लड प्रेशर 180 एमएमएचजी तक पहुँच गया है और तुम्हारा डायस्टोलिक ब्लड प्रेशर 115 एमएमएचजी है। तुम्हारे दिल की धड़कन 128 बीपीएम है। यह वाकई खतरनाक है। अगर तुम गिरे तो तुम्हारी तुरंत मौत हो सकती है और अगर तुम मरे नहीं भी, तो दिमाग की नस फटने से तुम्हें लकवा मार सकता है।” जब मैंने डॉक्टर को यह कहते सुना, तो मुझे तुरंत अपने पिता की याद आ गई। मेरी ही उम्र में उच्च रक्तचाप के कारण अचानक स्ट्रोक से उनकी मृत्यु हो गई थी। मेरी सास को भी दिल का दौरा पड़ा था और उन्हें लकवा मार गया था। वह अपनी देखभाल खुद नहीं कर पाती थीं और कई साल बिस्तर पर रहने के बाद उनका निधन हो गया। मैं थोड़ा घबरा गया और सोचने लगा, “मैं इतना गंभीर बीमार कैसे हो गया? मैं पचास के दशक में हूँ; क्या मैं भी अपने पिता और सास की तरह अचानक दिल का दौरा पड़ने से मर जाऊँगा?” लेकिन फिर मेरे मन में एक और विचार आया, “वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते थे और उन्हें उसका संरक्षण प्राप्त नहीं था। मैं एक विश्वासी हूँ, इसलिए अगर मैंने अभी तक अपना कर्तव्य पूरा नहीं किया है तो परमेश्वर मुझे मरने नहीं देगा। वह मेरी निगरानी और मेरी रक्षा करेगा।” बाद में, दवा लेने और व्यायाम करने से मेरी सेहत में धीरे-धीरे सुधार हुआ। मैंने अपने ब्लड प्रेशर को मूल रूप से नियंत्रण में कर लिया, लेकिन मेरे दिल की धड़कन अभी भी थोड़ी तेज थी।
2022 के मध्य में, सीसीपी ने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के विश्वासियों पर एक बड़ी एकीकृत कार्रवाई शुरू की और मेरे इलाके में, 30 से ज्यादा अगुआओं, कार्यकर्ताओं, भाइयों और बहनों को गिरफ्तार कर लिया गया। कलीसिया का सारा कार्य ठप्प हो गया। एक दिन, ऊपरी अगुआ, बहन शिन यी, मुझसे मिलने आई और उसने कहा कि भाई-बहनों ने मुझे एक उपदेशक के रूप में चुना है। मैंने मन में सोचा, “मेरा दिल ज्यादा उत्तेजना नहीं सह सकता और मुझे उच्च रक्तचाप हो गया है। मेरी सेहत बद से बदतर होती जा रही है। इन सालों से, मैं हमेशा एक ही काम करता रहा हूँ और वह काम अपेक्षाकृत आरामदायक रहा है, इसलिए मेरा शरीर उसे सह पाया है। एक उपदेशक को बहुत ज्यादा काम करना होता है। इसके अलावा, कलीसिया पर अभी-अभी बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियों की मार पड़ी है, इसलिए बहुत सारा काम किया जाना है। मुझे चिंता करनी होगी और कीमत चुकानी होगी और मैं देर रात तक जागने से नहीं बच पाऊँगा। अगर मेरी हालत बिगड़ गई और एक दिन अचानक मुझे अपने पिता की तरह दिल का दौरा पड़ा और मैं मर गया तो? तो क्या मेरे इतने सालों का त्याग और खपना व्यर्थ नहीं चला जाएगा? भले ही मैं न मरूँ, अगर मुझे कोई स्थायी समस्या हो गई, मैं अपनी सास की तरह बिस्तर पर पड़ गया और मुझे लकवा मार गया और मैं अपना कर्तव्य नहीं कर सका, तो क्या मैं तब भी उद्धार पाने और राज्य में प्रवेश करने का अपना मौका नहीं खो दूँगा?” इन परिणामों के बारे में सोचकर, मैंने अपने कर्तव्य से बचने के लिए बहाने ढूँढ़े, यह कहते हुए, “मुझे सत्य की सतही समझ है और मैं असली काम नहीं कर सकता। मुझे उच्च रक्तचाप और दिल की बीमारी भी है, इसलिए मैं इस कर्तव्य के लिए उपयुक्त नहीं हूँ। तुम्हें किसी और को ढूँढ़ना चाहिए।” यह देखकर कि मैं लगातार अपने कर्तव्य से बचने की कोशिश कर रहा हूँ, शिन यी ने धैर्यपूर्वक मेरे साथ संगति की, यह कहते हुए कि उसे तुरंत कोई उपयुक्त व्यक्ति नहीं मिल पा रहा है। यह सुनकर मेरा जमीर बेचैन हो गया। मैंने सोचा कि हालाँकि मेरी सेहत बहुत अच्छी नहीं थी, लेकिन इतनी भी खराब नहीं थी कि मैं अपना कर्तव्य न कर सकूँ और अगर मैं समय पर अपनी दवा ली, अपनी दिनचर्या को ठीक रखा और उचित व्यायाम किया, मैं फिर भी कुछ काम कर सकता था। अगुआओं और कार्यकर्ताओं के गिरफ्तार हो जाने और कलीसिया का काम करने के लिए कोई उपयुक्त व्यक्ति उपलब्ध न होने पर, इस नाजुक मोड़ पर, मैंने परमेश्वर के इरादे का कोई ख्याल नहीं रखा। मैं पूरी तरह से स्वार्थी और नीच था! इसलिए मैंने यह कर्तव्य स्वीकार कर लिया। गंभीर स्थिति के कारण, हम काम करने के लिए कलीसियाओं में नहीं जा सकते थे और लगभग सारा काम पत्रों के माध्यम से लागू करना और उस पर नजर रखनी पड़ती थी। सौभाग्य से, मेरे साथ सहयोग करने के लिए भाई सू मिंग था। वह जवान और अच्छी काबिलियत वाला था और अकेले ही कई कामों के लिए जिम्मेदार था। मैं मुख्य रूप से पाठ आधारित कार्य के लिए जिम्मेदार था, जो मेरे लिए कम तनावपूर्ण था। साथ ही, समय पर दवा लेने से मेरी दिल की बीमारी और उच्च रक्तचाप नियंत्रण में रहते थे और मैं धीरे-धीरे इस कर्तव्य का आदी हो गया।
जुलाई 2024 में एक दिन, ऊपरी अगुआओं ने एक पत्र भेजा जिसमें कहा गया था कि वे सू मिंग का कहीं और काम करने के लिए तबादला करना चाहते हैं। जब मैंने पत्र पढ़ा, तो मेरा सिर भन्ना गया। मैंने सोचा, “सू मिंग के चले जाने पर, मैं आने वाले सारे काम को कैसे सँभाल पाऊँगा? मैं बूढ़ा हूँ और मेरी कार्यक्षमता सीमित है। क्या सू मिंग को भेजना मुझे मुश्किल में डालना नहीं है?” लेकिन फिर मैंने सोचा, “ऊपरी अगुआओं ने निश्चित रूप से यह व्यवस्था कलीसिया के समग्र कार्य को ध्यान में रखकर की है।” फिर भी, मैं इस बात को लेकर चिंतित था कि सू मिंग के जाने के बाद मेरा काम का बोझ कैसे बढ़ेगा। मुझे कितनी चिंता करनी होगी और कितनी ऊर्जा खर्च करनी होगी? मुझे उच्च रक्तचाप और दिल की बीमारी थी, अगर देर रात तक जागने से मेरा ब्लड प्रेशर बढ़ा, दिमाग की नस फट गई और मैं दिल का दौरा पड़ने से मर गया तो? तो क्या परमेश्वर में मेरे विश्वास का सफर खत्म नहीं हो जाएगा? भले ही मैं बच गया, अगर मुझे कोई स्थायी समस्या हो गई और लकवा मार गया, तो भी मैं अपना कर्तव्य नहीं कर पाऊँगा। तो क्या मुझे निकाल नहीं दिया जाएगा? मैं इतना चिंतित हो गया कि न खा पाता था और न ही सो पाता था। सू मिंग के जाने के बाद के दिनों में, बहुत सारा काम था जिसका जायजा लेना था और जिसे लागू करना था और मुझे हमेशा प्रतिरोध महसूस होता था। इसके अलावा, गर्म मौसम के कारण मुझे साँस लेने में तकलीफ और थोड़ा चक्कर जैसा महसूस होता था। थोड़ी देर आराम करने के लिए लेटने पर ही, मुझे अपने दिल की धड़कन तेज और सिर घूमता हुआ महसूस हुआ। मैं जल्दी से उठा और बिस्तर के सहारे टिक गया, मुझे इतनी बेचैनी हो रही थी कि उल्टी करने का मन कर रहा था। अपने पिता की मृत्यु का दृश्य मेरे दिमाग में कौंध गया और मुझे और भी चिंता होने लगी कि कहीं मेरी हालत और न बिगड़ जाए और मैं अचानक दिल का दौरा पड़ने और गिरकर मर जाने से भयभीत था। उसके बाद, जब भी मुझे तबीयत खराब लगती, मैं परेशान और चिंतित हो जाता था, लगातार इस बात की चिंता करता था कि कहीं मेरी बीमारी और न बढ़ जाए। खास तौर पर, मैंने सोचा कि चूँकि मेरा पुलिस रिकॉर्ड था और पुलिस अभी भी मुझे गिरफ्तार करने की कोशिश कर रही थी, अगर मेरी बीमारी बढ़ गई, तो मैं डॉक्टर के पास नहीं जा सकता। तब मैं क्या करूँगा? कभी-कभी, मुझे पता चलता कि भाई-बहनों की अवस्था खराब है और पाठ आधारित कार्य के नतीजे गिर रहे हैं और मैं उनके साथ संगति करने के लिए एक पत्र लिखना चाहता था, लेकिन फिर मैं सोचता कि इसमें कितना समय और मानसिक मेहनत लगेगी और इसका मतलब था देर से सोना। अगर मैं अक्सर देर रात तक जागता रहा, तो देर-सबेर मैं थकान से ढह जाऊँगा। इसलिए मैं तय कर लेता कि अपनी सेहत की रक्षा करना ज्यादा जरूरी है। अगर मैं थकान से ढह गया, तो मैं एक छोटा-सा कर्तव्य भी नहीं कर पाऊँगा। तो क्या मुझे तब निकाल नहीं दिया जाएगा? इसलिए जब कार्य-पत्रों का ढेर लग जाता, तो मैं उन्हें निपटाने में जल्दबाजी नहीं करता था। अगुआ जानते थे कि मेरी अवस्था ठीक नहीं है और उन्होंने मुझे पत्र लिखा। उन्होंने मेरी मदद के लिए मुझे परमेश्वर के वचन भी भेजे। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना भी की कि वह इस मामले से सबक सीखने में मेरा मार्गदर्शन करे।
एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जो मेरी अवस्था के लिए वास्तव में प्रासंगिक था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “फिर ऐसे लोग होते हैं जिनकी सेहत ठीक नहीं है, जिनका शारीरिक गठन कमजोर और ऊर्जाहीन है, जिन्हें अक्सर छोटी-बड़ी बीमारियाँ पकड़ लेती हैं, जो दैनिक जीवन में जरूरी बुनियादी काम भी नहीं कर पाते, और जो न सामान्य लोगों की तरह जी पाते हैं, न तरह-तरह के काम कर पाते हैं। ऐसे लोग अपने कर्तव्य निभाते समय अक्सर बेआराम और बीमार महसूस करते हैं; कुछ लोग शारीरिक रूप से कमजोर होते हैं, कुछ को वास्तविक बीमारियाँ होती हैं, और बेशक कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें किसी-न-किसी प्रकार के ज्ञात और संभाव्य रोग हैं। ऐसी व्यावहारिक शारीरिक मुश्किलों के कारण ऐसे लोग अक्सर संताप, व्याकुलता और चिंता की नकारात्मक भावनाओं में डूब जाते हैं। वे किस बात को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव करते हैं? उन्हें चिंता होती है कि अगर वे अपना कर्तव्य इसी तरह निभाते रहे, परमेश्वर के लिए खुद को इसी तरह खपाते रहे, भाग-दौड़ करते रहे, हमेशा थका हुआ महसूस करते रहे, तो कहीं उनकी सेहत और ज्यादा न बिगड़ जाए? 40 या 50 के होने पर क्या वे बिस्तर से लग जाएँगे? क्या ये चिंताएँ सही हैं? अगर हाँ तो क्या कोई इससे निपटने का ठोस तरीका बताएगा? इसकी जिम्मेदारी कौन उठाएगा? जवाबदेह कौन होगा? कमजोर सेहत वाले और शारीरिक तौर पर अयोग्य लोग ऐसी बातों को लेकर संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव करते हैं। बीमार लोग अक्सर सोचते हैं, ‘ओह, मुझमें अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने का संकल्प है, मुझे यह बीमारी है, और मैं परमेश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि वह मेरी रक्षा करे। परमेश्वर की सुरक्षा के चलते मुझे डरने की जरूरत नहीं है, लेकिन अपना कर्तव्य निभाते समय अगर मैं थक गया तो क्या मेरी हालत बिगड़ जाएगी? अगर मेरी हालत बिगड़ गई तो मैं क्या करूँगा? अगर किसी ऑपरेशन के लिए मुझे अस्पताल में दाखिल होना पड़ा और मेरे पास वहाँ देने को पैसे न हों, तो अगर मैं अपने इलाज के लिए पैसे उधार न लूँ, तो कहीं मेरी हालत और ज्यादा न बिगड़ जाए? और अगर ज्यादा बिगड़ गई, तो कहीं मैं मर न जाऊँ? क्या ऐसी मृत्यु को सामान्य मृत्यु माना जा सकेगा? अगर मैं सच में मर गया, तो क्या परमेश्वर मेरे निभाए कर्तव्य याद रखेगा? क्या माना जाएगा कि मैंने अच्छे कर्म किए थे? क्या मुझे उद्धार मिलेगा?’ ऐसे भी कुछ लोग हैं जो जानते हैं कि वे बीमार हैं, यानी वे जानते हैं कि उन्हें वास्तव में कोई-न-कोई बीमारी है, मिसाल के तौर पर, पेट की बीमारियाँ, निचली पीठ और टाँगों का दर्द, गठिया, संधिवात, साथ ही त्वचा रोग, स्त्री रोग, यकृत रोग, उच्च रक्तचाप, दिल की बीमारी, वगैरह-वगैरह। वे सोचते हैं, ‘अगर मैं अपना कर्तव्य निभाता रहा, तो क्या परमेश्वर का घर मेरी बीमारी के इलाज का खर्च उठाएगा? अगर मेरी बीमारी बदतर हो गई और इससे मेरा कर्तव्य-निर्वहन प्रभावित हुआ, तो क्या परमेश्वर मुझे चंगा करेगा? परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद दूसरे लोग ठीक हो गए हैं, तो क्या मैं भी ठीक हो जाऊँगा? क्या परमेश्वर मुझे ठीक कर देगा, उसी तरह जैसे वह दूसरों को दयालुता दिखाता है? अगर मैंने निष्ठा से अपना कर्तव्य निभाया, तो परमेश्वर को मुझे चंगा कर देना चाहिए, लेकिन अगर मैं सिर्फ यह कामना करूँ कि परमेश्वर मुझे चंगा कर दे और वह न करे, तो फिर मैं क्या करूँगा?’ जब भी वे इन चीजों के बारे में सोचते हैं, उनके दिलों में व्याकुलता की तीव्र भावना उफनती है। हालाँकि वे अपना कर्तव्य-निर्वाह कभी नहीं रोकते, और हमेशा वह करते हैं जो उन्हें करना चाहिए, फिर भी वे अपनी बीमारी, अपनी सेहत, अपने भविष्य और अपने जीवन-मृत्यु के बारे में निरंतर सोचते रहते हैं। अंत में, वे खयाली पुलाव वाले इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं, ‘परमेश्वर मुझे चंगा कर देगा, परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा। परमेश्वर मेरा परित्याग नहीं करेगा, और अगर वह मुझे बीमार पड़ता देखेगा, तो कुछ किए बिना अलग खड़ा नहीं रहेगा।’ ऐसी सोच का बिल्कुल कोई आधार नहीं है, और कहा जा सकता है कि यह एक प्रकार की धारणा है। ऐसी धारणाओं और कल्पनाओं के साथ लोग कभी अपनी व्यावहारिक मुश्किलों को दूर नहीं कर पाएँगे, और अपनी सेहत और बीमारियों को लेकर अपने अंतरतम में वे अस्पष्ट रूप से संतप्त, व्याकुल और चिंतित महसूस करेंगे; उन्हें कोई अंदाजा नहीं होता कि इन चीजों की जिम्मेदारी कौन उठाएगा, या क्या कोई इनकी जिम्मेदारी उठाएगा भी” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों ने हूबहू मेरी ही अवस्था को उजागर कर दिया। मैं अपनी बीमारी के बारे में चिंतित होकर एक हताश अवस्था में जी रहा था। जब भाई-बहनों ने मुझे एक उपदेशक के रूप में चुना, तो मुझे चिंता हुई कि काम मुझे व्यस्त रखने और मानसिक रूप से थका देने वाला होगा, जो मेरी सेहत के लिए बुरा होगा और इसलिए मैं अपने कर्तव्य से बचता रहा। हालाँकि बाद में मैंने इसे स्वीकार कर लिया, जब ऊपरी अगुआओं ने सू मिंग का तबादला कर दिया और काम का बोझ बढ़ गया, तो मुझे प्रतिरोध महसूस हुआ। मैं अक्सर चिंता करता था कि मेरा कर्तव्य बहुत थका देने वाला है और सोचता था कि अगर मेरी बीमारी बढ़ गई और मुझे अचानक दिल का दौरा पड़ा, मैं मर गया या कोई स्थायी समस्या हो गई और मैं अपना कर्तव्य नहीं कर सका और नतीजतन उद्धार नहीं पा सका तो क्या होगा। मेरे विचार पूरी तरह से मेरी बीमारी में डूबे हुए थे। हालाँकि मैं अपना कर्तव्य करता हुआ दिख रहा था, लेकिन मेरा रवैया पहले जैसा सकारात्मक नहीं था। जब मैंने देखा कि भाई-बहनों की अवस्था खराब है और पाठ आधारित कार्य के नतीजे गिर रहे हैं, तो मैंने इसका जायजा लेने या इसे हल करने के लिए नहीं लिखा, बल्कि मैंने अपने कर्तव्य को लापरवाही से निभाया। जब मैं बीमार था, तो मैंने परमेश्वर का इरादा खोजने के लिए प्रार्थना नहीं की, बल्कि अपने भविष्य और मंजिल से जुड़े लाभ और हानि के बारे में लगातार चिंता करता रहा। मैं परेशानी और चिंता में जीता रहा, कोई मुक्ति नहीं पा सका और मैंने अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभाया। मुझे एहसास हुआ कि मैं सत्य का बिल्कुल भी अनुसरण नहीं कर रहा था।
अपनी खोज में, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : “अपने विश्वास में मसीह-विरोधी सिर्फ आशीष पाना चाहते हैं और दुःख नहीं भोगना चाहते। जब वे यह देखते हैं कि किसी व्यक्ति को आशीष मिला है, उसे लाभ मिला है, अनुग्रह मिला है और उसे अधिक भौतिक सुख और बड़े लाभ मिले हैं, तो उन्हें लगता है कि यह परमेश्वर ने किया है; और अगर उसे ऐसे भौतिक आशीष नहीं मिले हैं तो फिर यह परमेश्वर का कार्य नहीं है। इसका तात्पर्य है, ‘अगर तुम सचमुच परमेश्वर हो तो फिर तुम लोगों को सिर्फ आशीष दे सकते हो; तुम्हें लोगों का दुःख टालना चाहिए और उन्हें पीड़ा नहीं होने देनी चाहिए। केवल तभी लोगों के लिए तुममें विश्वास करने का मूल्य और अर्थ है। अगर तुममें विश्वास करने के बाद भी लोग दुःख से घिरे हैं, अभी भी पीड़ा में हैं, तो फिर तुममें विश्वास करने का क्या औचित्य है?’ वे यह स्वीकार नहीं करते कि सभी चीजें और घटनाएँ परमेश्वर के हाथ में हैं, कि परमेश्वर समस्त चीजों का संप्रभु है। और वे ऐसा क्यों नहीं स्वीकारते? क्योंकि मसीह-विरोधी दुःख भोगने से घबराते हैं। वे सिर्फ लाभ उठाना चाहते हैं, फायदे में रहना चाहते हैं, आशीषों का आनंद लेना चाहते हैं; वे परमेश्वर की संप्रभुता या आयोजन नहीं स्वीकारना चाहते, बल्कि परमेश्वर से सिर्फ लाभ पाना चाहते हैं। मसीह-विरोधियों का यही स्वार्थी और घृणित दृष्टिकोण होता है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य का तिरस्कार करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग छह))। “सभी भ्रष्ट लोग स्वयं के लिए जीते हैं। हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए—यह मानव प्रकृति का निचोड़ है। लोग अपनी खातिर परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; जब वे चीजें त्यागते हैं और परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते हैं, तो यह धन्य होने के लिए होता है और जब वे परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हैं, तो यह भी पुरस्कार पाने के लिए ही होता है। संक्षेप में, यह सब धन्य होने, पुरस्कार पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने के उद्देश्य से किया जाता है। समाज में लोग अपने लाभ के लिए काम करते हैं, और परमेश्वर के घर में वे धन्य होने के लिए कोई कर्तव्य करते हैं। आशीष प्राप्त करने के लिए ही लोग सब कुछ छोड़ते हैं और काफी दुःख सहन कर पाते हैं। मनुष्य की शैतानी प्रकृति का इससे बेहतर प्रमाण नहीं है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर उजागर करता है कि मसीह-विरोधी “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” के शैतानी नियम से जीते हैं। वे मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने के लिए उन्हें आशीष और लाभ मिलने चाहिए। जब कोई लाभ होना होता है या आशीष मिलनी होती है, तो वे त्याग करेंगे और खुद को खपाएँगे, लेकिन जैसे ही उन्हें लगता है कि वे कोई आशीष या लाभ नहीं पा सकते और इसके बजाय उन्हें दुर्भाग्य सहना पड़ेगा, वे खुद को खपाने के लिए अनिच्छुक हो जाते हैं और यहाँ तक कि यह भी सोचते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करना निरर्थक है। मैंने देखा कि मेरा व्यवहार एक मसीह-विरोधी जैसा ही है। जब से मैंने प्रभु को स्वीकार किया था, मैं आशीष पाने और स्वर्ग जाने की कोशिश कर रहा था। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार करने के बाद, जब मैंने देखा कि आशीष पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने की मेरी उम्मीदें पूरी होने वाली हैं, तो मैंने अपना कर्तव्य निभाने के लिए सब कुछ छोड़ दिया। इस दौरान, पेट और कमर का दर्द जिससे मैं कई सालों से पीड़ित था, ठीक हो गया और अपना कर्तव्य निभाने की मेरी प्रेरणा दोगुनी हो गई। हालाँकि मुझे गिरफ्तार कर प्रताड़ित किया गया, फिर भी रिहा होने के बाद मैं अपने कर्तव्य में लगा रहा। लेकिन जैसे-जैसे मेरी उम्र बढ़ती गई, मुझे उच्च रक्तचाप और दिल की बीमारी हो गई और इसलिए मुझे चिंता होने लगी कि कहीं मुझे अचानक स्ट्रोक न आ जाए और मैं मर न जाऊँ या मुझे लकवा न मार जाए और मैं अपना कर्तव्य न निभा सकूँ और इस तरह उद्धार पाने और स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने का मौका न गँवा दूँ। इसलिए मैं कोई हल्का कर्तव्य लेना चाहता था। जब मेरे उस समय के सहयोगी, सू मिंग का तबादला हो गया, तो मेरा काम का बोझ अचानक बढ़ गया और मुझे चिंता हुई कि अगर मैंने बहुत ज्यादा चिंता की और बहुत ज्यादा थक गया, तो मेरी हालत और खराब हो जाएगी। इसलिए मैं अपने कर्तव्य में लापरवाही बरतता था। जब मुझे पता चला कि भाई-बहनों की अवस्था खराब है, तो मैंने उनकी समस्याओं को हल करने में जल्दबाजी नहीं की, न ही मैंने उस काम को लागू करने में जल्दबाजी की जिसे लागू करने की जरूरत थी। यहाँ तक कि जब मैं कुछ काम करता भी था, तो बेमन से करता था, इस चिंता में कि मुझे स्वास्थ्य समस्याएँ हो जाएँगी। असल में, सू मिंग का कहीं और अपना कर्तव्य करने के लिए तबादला होना कलीसिया के काम के लिए फायदेमंद था। जमीर और विवेक वाला कोई भी व्यक्ति अपने व्यक्तिगत हितों को छोड़ देता और कलीसिया के हितों को पहले रखता, कलीसिया की व्यवस्थाओं को स्वीकार करता और उनके प्रति समर्पण करता, लेकिन अपने हितों के लिए, मैं सू मिंग को जाने नहीं देना चाहता था और यहाँ तक कि ऊपरी अगुआओं के उसके तबादले के फैसले के प्रति भी मुझे प्रतिरोध महसूस हुआ। मैंने सोचा कि अगुआ मेरे लिए मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं और मैं बेसब्री से उम्मीद कर रहा था कि वे अपना मन बदल लेंगे और सू मिंग को नहीं जाने देंगे। मुझे एहसास हुआ कि मैं “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” के शैतानी विष के सहारे जी रहा था, कि मैंने जो कुछ भी किया था वह अपने लिए किया था और मैंने कलीसिया के काम की बिल्कुल भी परवाह नहीं की थी। मैं सचमुच स्वार्थी और नीच था! इससे मुझे परमेश्वर के वचन याद आए : “परमेश्वर हमेशा सर्वोच्च और हमेशा आदरणीय है, जबकि मनुष्य हमेशा नीच और हमेशा निकम्मा है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर हमेशा खुद को मनुष्यों के लिए समर्पित करता है और खपाता है, जबकि मनुष्य हमेशा सिर्फ अपने लिए माँगता और प्रयास करता है। परमेश्वर सदा से मानवजाति के अस्तित्व के लिए कष्ट उठा रहा है, लेकिन मनुष्य कभी भी न्याय या प्रकाश की खातिर कोई योगदान नहीं करता, और अगर मनुष्य कोई क्षणिक प्रयास करता भी है, तो भी वह हलके-से झटके का भी सामना नहीं कर सकता, क्योंकि मनुष्य का प्रयास केवल अपने लिए होता है, दूसरों के लिए नहीं; मनुष्य हमेशा स्वार्थी होता है, जबकि परमेश्वर हमेशा निस्स्वार्थ होता है। परमेश्वर उस सबका स्रोत है जो न्यायोचित, अच्छा और सुंदर है, जबकि मनुष्य वह है जो सारी कुरूपता और बुराई विरासत में पाता और अभिव्यक्त करता है। परमेश्वर अपने न्याय और सुंदरता का सार कभी नहीं बदलेगा, जबकि मनुष्य किसी भी समय और किसी भी स्थिति में न्याय से विश्वासघात कर सकता है और खुद को परमेश्वर से दूर कर सकता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के स्वभाव को समझना बहुत महत्वपूर्ण है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करते हुए, मैं बहुत भावुक हो गया। परमेश्वर का सार निस्वार्थ है और परमेश्वर जो कुछ भी करता है वह मानवजाति के लिए होता है। मानवजाति को पृथ्वी पर जीवित रखने के लिए, परमेश्वर ने वह सब कुछ बनाया जिसकी इंसानों को जीवित रहने के लिए जरूरत है—हवा, धूप, बारिश, सूरज, चाँद और तारे, साथ ही सभी फल और सब्जियाँ, वगैरह। मानवजाति को बचाने के लिए, वह हमारे लिए देहधारी हुआ और हमारे पापों को सहते हुए, हमारे लिए क्रूस पर चढ़ाया गया। अंत के दिनों में, परमेश्वर एक बार फिर मानवजाति को पूरी तरह से बचाने के लिए देहधारी होकर पृथ्वी पर आया, उसने हमारे उद्धार और शुद्धिकरण के लिए सभी सत्य व्यक्त किए। भले ही लोग परमेश्वर को नहीं जानते और वे उसे नकारते और उसका तिरस्कार करते हैं, लेकिन फिर भी परमेश्वर चुपचाप लोगों को बचाने का कार्य कर रहा है और वह अभी भी लोगों का भरण-पोषण करने के लिए सत्य व्यक्त कर रहा है। मैंने देखा कि परमेश्वर का सार वास्तव में सुंदर और दयालु है और परमेश्वर स्वार्थरहित है! दूसरी ओर, मैं हमेशा “हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए” और “बिना पुरस्कार के कभी कोई काम मत करो” के शैतानी विचारों और धारणाओं से जीता था। भले ही मैंने अपने कर्तव्य में कुछ हद तक त्याग किया, खुद को खपाया, कष्ट सहे और कीमत चुकाई, यह सब इसलिए था ताकि मैं आशीष और अनुग्रह पा सकूँ। जब मेरी सेहत खराब हुई और मैं बीमारी से पीड़ित हुआ, तो मैं अपने कर्तव्य में काम छाँट-छाँटकर करने लगा और मैं पीछे हटने लगा। मैं हर मोड़ पर अपने बारे में सोचता था, मैं अपने भविष्य और मंजिल को लेकर चिंतित था और मैंने अपना सब कुछ नहीं दिया। जब मैंने देखा कि भाई-बहनों की अवस्था खराब है और यह उनके कर्तव्यों को प्रभावित कर रहा है, तो मैंने इसे हल करने के तरीकों के बारे में सोचने की कोशिश नहीं की और मैंने कलीसिया के हितों पर बिल्कुल भी विचार नहीं किया। मैंने देखा कि मैं स्वभाव से स्वार्थी हूँ। मैं सोचता था कि मैं काफी अच्छा हूँ, क्योंकि परमेश्वर में विश्वास करने के इन सालों में, मैंने अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपना परिवार और पेशा छोड़ दिया था और भले ही मुझे सीसीपी द्वारा गिरफ्तार किया गया, सताया गया और प्रताड़ित किया गया, मैंने रिहा होने के बाद सुसमाचार का प्रचार करना और अपना कर्तव्य निभाना जारी रखा। मुझे लगा कि मैं कुछ हद तक बदल गया हूँ और मैं परमेश्वर के प्रति कुछ हद तक वफादार हूँ। अगर मुझे यह बीमारी नहीं हुई होती, तो मैं अपने विश्वास की अशुद्धियों को कभी न समझ पाता। अब, मैंने वास्तव में परमेश्वर के वचनों का अनुभव किया : “जब बीमारी आती है तो यह परमेश्वर का प्रेम है और इसमें उसके अच्छे इरादे निश्चित ही निहित हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 6)। पता चला कि मेरी बीमारी के पीछे परमेश्वर का प्रेम और उसका अच्छा इरादा था। परमेश्वर ने मेरे भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध करने और बदलने के लिए बीमारी का इस्तेमाल किया, ताकि मैं परमेश्वर से अपनी अनुचित माँगें छोड़ दूँ और अपनी असंयमित इच्छाओं को त्याग कर दूँ। यह परमेश्वर का इरादा और श्रमसाध्य देखभाल थी! जब मैंने यह समझा, तो मुझे शर्मिंदगी और पछतावा हुआ और अपने इतने स्वार्थी और नीच होने पर खुद से नफरत हुई। मैंने संकल्प लिया कि मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह से जरूर निभाऊँगा।
उसके बाद, मैंने सही तरीके से मृत्यु का सामना कैसे करें, इस पर खोज और विचार किया। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “सभी को इस जीवन में मृत्यु का सामना करना होगा, यानी अपनी जीवनयात्रा के अंत में सबको मृत्यु का सामना करना होगा। लेकिन मृत्यु की बहुत-सी तरह-तरह की खासियतें हैं। उनमें से एक यह है कि परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित समय पर तुम अपना उद्देश्य पूरा कर लेते हो, परमेश्वर तुम्हारे दैहिक जीवन के नीचे एक लकीर खींच देता है, और तुम्हारा दैहिक जीवन समाप्त हो जाता है, हालाँकि इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हारा जीवन खत्म हो गया है। जब कोई व्यक्ति बिना शरीर का हो, तो उसका जीवन समाप्त हो जाता है—क्या बात ऐसी ही है? (नहीं।) मृत्यु के बाद जिस रूप में तुम्हारे जीवन का अस्तित्व होता है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि जीवित रहते समय, तुमने परमेश्वर के कार्य और वचनों के साथ कैसा बर्ताव किया—यह बहुत महत्वपूर्ण है। मृत्यु के बाद तुम्हारा अस्तित्व जिस रूप में होता है, या तुम्हारा अस्तित्व होगा भी या नहीं, यह जीवित रहते समय परमेश्वर और सत्य के प्रति तुम्हारे रवैये पर निर्भर करेगा। अगर जीवित रहते हुए मृत्यु और हर तरह के रोगों का सामना करने पर सत्य के प्रति तुम्हारा रवैया विद्रोह, विरोध करने और सत्य से विमुख होने का हो, तो तुम्हारे दैहिक जीवन की समाप्ति का वक्त आने पर मृत्यु के बाद तुम किस रूप में अस्तित्व में रहोगे? तुम पक्के तौर पर किसी दूसरे रूप में रहोगे, और तुम्हारा जीवन निश्चित रूप से जारी नहीं रहेगा। इसके विपरीत, अगर जीवित रहते हुए, तुम्हारे शरीर में जागरूकता होने पर, सत्य और परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया समर्पण और वफादारी का हो और तुम सच्ची आस्था रखते हो, तो भले ही तुम्हारा दैहिक जीवन समाप्त हो जाए, तुम्हारा जीवन किसी और संसार में एक अलग रूप धारण कर अस्तित्व में बना रहेगा। मृत्यु का यह एक स्पष्टीकरण है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (4))। “लोग चाहे किसी भी मामले से निपट रहे हों, उन्हें इसे हमेशा सक्रिय और सकारात्मक रवैये के साथ देखना चाहिए, बात अगर मृत्यु की हो तो यह और भी ज्यादा सच है। सक्रिय, सकारात्मक रवैया होने का अर्थ मृत्यु के साथ जाना, मृत्यु की प्रतीक्षा करना या सकारात्मक और सक्रिय तरीके से मृत्यु का अनुसरण करने की कोशिश करना नहीं है। अगर इसका अर्थ मृत्यु का अनुसरण करना, मृत्यु के साथ जाना या मृत्यु की प्रतीक्षा करना नहीं है, तो फिर क्या है? (समर्पित होना।) समर्पण मृत्यु के विषय के प्रति एक तरह का रवैया है, और इससे निपटने का सबसे अच्छा तरीका मृत्यु को त्याग देना और उसके बारे में न सोचना है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (4))। परमेश्वर के वचनों से, मैं समझा कि परमेश्वर जन्म, बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु पर संप्रभु है और उन्हें पूर्वनियत करता है। हम इन चीजों को खुद नहीं चुन सकते। अगर तुम्हारे मरने का समय नहीं आया है, तो तुम चाहकर भी नहीं मर सकते; अगर तुम्हारे मरने का समय आ गया है, तो फिर तुम कितना भी चाहो, एक दिन भी और नहीं जी सकते। सृजित प्राणी के रूप में, हमें परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को विवेकपूर्वक स्वीकार करना चाहिए और उनके प्रति समर्पण करना चाहिए। मुझे अपनी पत्नी के एक सहकर्मी की याद आई। काम से घर लौटते समय, उसने देखा कि किसी का कार एक्सीडेंट हो गया है। वह यह देखने गया कि क्या हो रहा है और उसे एक इलेक्ट्रिक बाइक ने टक्कर मार दी, सिर जमीन पर लगते ही उसकी वहीं मौत हो गई। इसके अलावा, एक डॉक्टर जिसे मैं जानता था, वह आम तौर पर अपनी सेहत का खास ध्यान रखती थी और हर दिन व्यायाम करती थी। उसकी सेहत बहुत अच्छी थी, लेकिन एक दिन जब वह व्यायाम करने के लिए बाहर गई, तो उसे गलती से एक कार ने टक्कर मार दी और उसकी मौके पर ही मौत हो गई। इन बातों से, मैंने देखा कि एक व्यक्ति कब पैदा होता है और कब मरता है, यह दोनों परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और शासित होता है और उसका जीवन और मृत्यु परमेश्वर पर निर्भर होता है। मैं इन बातों को समझ नहीं पाया था और मैं हमेशा अपनी दिल की बीमारी और उच्च रक्तचाप को लेकर चिंता करता था और यह भी कि थक जाने से मेरी हालत बिगड़ जाएगी और यहाँ तक कि मौत भी हो जाएगी। मैं कई सालों से परमेश्वर में विश्वास करता आ रहा था लेकिन यह विश्वास नहीं करता था कि मेरा जीवन और मृत्यु परमेश्वर के हाथों में और उसकी संप्रभुता के अधीन है। तो मुझमें परमेश्वर पर सच्ची आस्था थी ही कहाँ? अब मैं समझ गया था कि अगर परमेश्वर ने पूर्वनियत किया है कि मेरी उम्र पूरी हो गई है, तो मैं मर जाऊँगा, भले ही मैं स्वस्थ और बीमारी से मुक्त होऊँ। लेकिन अगर मेरी उम्र पूरी नहीं हुई है, तो मैं नहीं मरूँगा, भले ही मुझे उच्च रक्तचाप, दिल की बीमारी, या कैंसर जैसी गंभीर बीमारी ही क्यों न हो। जब एक दिन मेरा मिशन पूरा हो जाएगा और परमेश्वर द्वारा मेरे लिए पूर्वनियत किया गया दिन आएगा, मुझे उसका सकारात्मक रूप से सामना करना चाहिए और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकार करके उनके प्रति समर्पण करना चाहिए। मुझमें यह विवेक होना चाहिए। अभी, अपना कर्तव्य पूरा करना मेरी जिम्मेदारी है। जब मैं इन बातों को समझ गया, तो अपने कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया कुछ हद तक बदल गया और मैंने वास्तव में कलीसिया के विभिन्न कार्यों में भाग लिया। जब कोई समस्या आती, तो मैं समाधानों पर चर्चा करने के लिए सबके साथ सहयोग करता था।
बाद में, एक समय ऐसा आया जब कलीसिया में बहुत से भाई-बहनों को यहूदाओं ने धोखा दिया, जिन कई घरों में परमेश्वर के वचनों की किताबें रखी हुई थीं, उनकी सुरक्षा खतरे में पड़ गई और उन किताबों को जल्द से जल्द एक सुरक्षित स्थान पर स्थानांतरित करने की जरूरत थी। क्योंकि उसमें कई अलग-अलग कार्य शामिल थे, मुझे भाई-बहनों के साथ सिद्धांतों पर संगति करने और उन्हें उन बातों की याद दिलाने के लिए पत्र लिखने पड़े, जिन पर उन्हें ध्यान देना चाहिए था। उन दिनों मैं लगभग हर रात देर तक जागता था। इसके अलावा, यह एक जरूरी मामला था और कई बातों पर विचार करना था। जब मैं चिंतित हो जाता, तो देर रात तक जागने के साथ-साथ, मुझे सिरदर्द होता और कभी-कभी मेरी साँस फूलने लगती, तो फिर मुझे चिंता होने लगती कि अगर यह जारी रहा, तो मेरी सेहत को कुछ हो जाएगा। बाद में, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “चाहे तुम बीमार हो या पीड़ा में, जब तक तुम्हारी एक भी साँस बाकी है, जब तक तुम जिंदा हो, जब तक तुम बोल और चल-फिर सकते हो, तब तक तुममें अपना कर्तव्य निभाने की ऊर्जा है और तुम्हें अपने कर्तव्य निर्वहन में अपने पैरों को मजबूती से जमीन पर जमाए हुए सभ्य होना चाहिए। तुम्हें एक सृजित प्राणी के कर्तव्य, या सृष्टिकर्ता द्वारा तुम्हें दी गई जिम्मेदारी का परित्याग नहीं करना चाहिए। जब तक तुम अभी मरे नहीं हो, तुम्हें अपना कर्तव्य पूर्ण करना चाहिए, और इसे अच्छे से निभाना चाहिए” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे आस्था और शक्ति दी और मैं समझ गया कि कर्तव्य एक ऐसा मिशन है जिसे पूरा करना लोगों के लिए बिल्कुल स्वाभाविक और उचित है। एक सृजित प्राणी के रूप में, अपना कर्तव्य पूरा करना सबसे मूल्यवान और सार्थक चीज है और ऐसा किए बिना, मैं जीने के लायक नहीं हूँ। इसलिए मैंने पत्र लिखते समय प्रार्थना की। जिस भाई के साथ मैं सहयोग कर रहा था, उसने पत्रों की जाँच करने और उनमें सुधार करने में मेरी मदद की और हमने हर चीज की यथासंभव पूरी तरह से व्यवस्था की। कुछ समय की कड़ी मेहनत के बाद, परमेश्वर के वचनों की सभी किताबें सुरक्षित रूप से स्थानांतरित कर दी गईं। हम सबने अपने दिलों में परमेश्वर को धन्यवाद दिया और मुझमें अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए और अधिक आस्था आ गई।
इस बीमारी से प्रकट होने पर, मैंने परमेश्वर में अपने विश्वास की गलत धारणाओं के बारे में कुछ समझ हासिल की, मैं परमेश्वर के इरादों को थोड़ा और समझने लगा और, अब बीमारी और मृत्यु से बाधित हुए बिना, मैं सामान्य रूप से अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम था। यह सब परमेश्वर का अनुग्रह और आशीष था! परमेश्वर का धन्यवाद।
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