निपटान के बाद आत्मचिंतन
इस साल जून में मैंने एक अगुआ के रूप में सेवा शुरू की। मैं परमेश्वर के घर द्वारा बनाई गई कुछ कार्य व्यवस्थाओं के अनुसार दुष्कर्मियों, गैर-विश्वासियों, और मसीह-विरोधियों को कलीसिया से निकालने का काम कर रही थी, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोगों को अपना कर्तव्य निभाने, उसके कार्य का अनुभव करने और सत्य खोजने का बेहतर माहौल मिल सके। इसके लिए मैं कलीसिया के दूसरे अगुआओं के साथ काम करने लगी। एक कलीसिया में एक विशेष रूप से गंभीर समस्या थी। कुछ गैर-विश्वासियों ने कलीसिया में पूरी गड़बड़ कर रखी थी, एक उच्च अगुआ ने मुझे इस मामले से फ़ौरन निपटने को कहा। जल्दी ही वे इस बारे में मुझसे जानकारी मांगने लगे, मैंने हालात का पूरा जायजा नहीं लिया था, इसलिए पक्के तौर पर कुछ नहीं कह सकी। मामले का शीघ्र निपटान न होते देखकर अगुआ बेचैन हो गए, और उन्होंने मुझसे बड़ी सख्ती से बात की। मुझे यह देखकर चिंता हुई कि मैंने जितना काम किया उससे वे ज्यादा खुश नहीं थे। क्या उन्हें लगेगा कि मुझमें वह काम करने की काबिलियत नहीं थी? मुझे लगा कि समय गँवाए बिना मुझे समस्या से निपटना होगा ताकि मैं उन्हें निराश न करूँ। मैं तुरंत काम खत्म करना चाहती थी, मगर कलीसिया की हालत जटिल थी। उसके अगुआ अभी हाल में चुने गए थे, और मैं कलीसिया के सभी लोगों को ठीक से नहीं जानती थी, इसलिए जांच धीमी चल रही थी। फिर उच्च अगुआ ने जांच के बारे में फिर से पूछा, जब उन्हें पता चला कि काम नहीं हुआ, तो उन्होंने मेरी आलोचना की। कलीसिया का जीवन अभी भी अव्यवस्थित था, क्योंकि गैर-विश्वासी हटाये नहीं गए थे, इसलिए उन्होंने इसे निपटाने का मुझसे फिर आग्रह किया। इसके बाद, मैंने अपनी समस्या पर गंभीरता से आत्मचिंतन नहीं किया, सिर्फ इतना सोचा कि कैसे चीजों को ठीक किया जाए। मैंने देखा कि अगुआ का ध्यान उस कलीसिया की समस्या पर लगा था, सब ठीक करने में ज्यादा देर हुई, तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे सोचेंगे कि मैं छोटा-सा काम भी नहीं कर पाई, मुझमें काबिलियत नहीं और मैं व्यावहारिक कार्य नहीं कर पाती? मैं उनके सामने बढ़िया प्रदर्शन करके ये जताना चाहती थी कि मैं वास्तविक काम कर सकती हूँ। मैं पूरे जोश के साथ अपना सारा समय उस काम में लगाने लगी, उसके अगुआओं से काम की जानकारी लेने लगी, उन्हें काम सिखाने लगी, हालात से परिचित कलीसिया के सदस्यों से मैंने खुद बात की। लेकिन मैंने लोगों को हटाने के दूसरी कलीसियाओं के प्रयासों पर ध्यान देना बंद कर दिया, बस उनसे यूं ही थोड़ी-सी पूछताछ कर लेती।
एक दिन मुझे बहन झांग का एक पत्र मिला, जिसमें लिखा था कि कलीसिया में ऐसे कुछ लोग हैं जिन्हें हटाना होगा। मैंने पत्र को सरसरी नजर से देखा और ज्यादा ध्यान नहीं दिया। मुझे लगा, वे आपस में बातचीत कर इसे संभाल लेंगे और मुझे सूचना दे देंगे। मैं उस समस्याग्रस्त कलीसिया और इस बात को लेकर ज्यादा चिंतित थी, कि मैं अगुआ से ये नहीं कह पा रही कि मैंने काम पूरा कर लिया है। बहन झांग ने मुझे फिर पत्र लिखा कि उन्होंने कुछ सहकर्मियों से बात करके ये तय कर लिया है कि किन्हें हटाना है, उन्होंने मुझे कुछ नाम भेजे। मैं सूची में शामिल किसी को भी नहीं जानती थी, मैंने हालत पर बारीकी से गौर किये बिना अपनी मंजूरी दे दी। मैं बस उस दूसरी कलीसिया को लेकर व्यस्त रही। एक दिन उच्च अगुआ आ पहुँचे और उन्होंने मुझसे पूछा कि भाई वांग को क्यों निकाला गया। उन्हें न्याय की समझ है, उन्होंने परमेश्वर के घर का कार्य बनाए रखा, वे एक अच्छे व्यक्ति हैं। उन्होंने अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाया है। फिर उन्हें कलीसिया से क्यों निकाला गया? मैं सच में समझ नहीं पाई कि क्या कहूं। मैं न तो भाई वांग को जानती थी, न ही उनके आचरण को। मुझे बस इतना याद था कि बहन झांग की सूची में उनका नाम था। फिर अगुआ ने मुझसे निकाले गए कुछ और लोगों के बर्ताव के बारे में पूछा, मुझे कुछ भी पता नहीं था। मुझे उनके नाम तक मालूम नहीं थे, इसलिए मैंने कहा मुझे नहीं पता और मैं उन्हें नहीं जानती, यह बहन झांग का फैसला था। मैं इस मामले में नहीं जुड़ी मानो इसका मुझसे कोई सरोकार न हो। उन्होंने फिर से मेरा निपटान किया, पूछा कि भाई वांग के अच्छा काम करके परमेश्वर के घर के कार्य को बनाए रखने पर भी उन्हें क्यों निकाला गया, और क्या मेरे अपने कोई सिद्धांत है। "आप लोगों को बाहर निकालने वाले कलीसिया के अगुआओं पर नज़र क्यों नहीं रख रही थीं," उन्होंने पूछा। "आपने उन्हें अपनी मनमानी क्यों करने दी?" इतने सवालों का सामना करके मेरे कठोर दिल में थोड़ी हलचल मची। मैं उस प्रोजेक्ट के लिए जिम्मेदार थी, लेकिन मुझे बाहर निकाले गए लोगों के बारे में कुछ भी नहीं मालूम था। क्या यह जिम्मेदारी संभालना था? मैंने अपनी नाकामयाबी स्वीकारी, माना कि मैंने अच्छा काम नहीं किया, फिर उन्होंने मुझसे काम दोबारा करने को कहा।
लंबे समय तक मैं बेचैन रही। मैं जानती थी कि मेरी काट-छाँट और मेरा निपटान परमेश्वर करवा रहा था, फिर भी मुझे कुछ अजीब-सा महसूस हो रहा था—मैं दुखी थी। मैं अगुआ के इस सवाल के बारे में सोच रही थी, "आपने अच्छे लोगों को क्यों निकाल दिया? परमेश्वर के घर से किसे बाहर निकालना चाहिए? आपके कुछ सिद्धांत हैं भी?" ये बातें मेरे दिमाग में बार-बार गूँज रही थीं, और मैंने खुद से पूछा, "मैंने इतनी बड़ी बेवकूफी क्यों की? ऐसा नहीं है कि मैं सिद्धांत नहीं जानती, तो फिर मैंने इतनी बड़ी गलती कैसे की? मैंने पूछताछ क्यों नहीं की?" मैं अभी भी उलझन में थी, मैंने कलीसिया के उस अगुआ को खोजा ताकि भाई वांग और दूसरों के मामलों की जांच कर सकूँ। मैं वही गलती फिर से न करूँ, इसलिए मैंने निकाले जाने वालों की सूची का पूरा पुनरीक्षण किया। जल्दी ही, मुझे भाई वांग के बारे में भाई-बहनों के आकलन मिल गए, लिखा था कि कर्तव्य के प्रति उनका रवैया बहुत बढ़िया था और उन्हें न्याय की अच्छी समझ थी, वे परमेश्वर के घर के कार्य को बनाए रखते हैं। वे निकाले जाने के सिद्धांतों के अनुरूप नहीं थे। यह देखकर मुझे बहुत बुरा लगा, मैं बहुत अशांत हो गई। मैंने उन्हें निकाल दिया था, जो परमेश्वर में सचमुच विश्वास रखते थे, भले ही बहन झांग ने यह काम संभाला था, मगर अगुआ मैं थी, तो क्या उनके काम की निगरानी न करके, रक्षक का काम न करके, मैं गैरजिम्मेदार नहीं थी? हमने भाई वांग को उनका काम फिर से सौंप दिया। मैं जान गई थी कि इस मामले में मेरी काट-छाँट और निपटान सिर्फ एक छोटी-सी गलती के कारण नहीं हुआ था, बल्कि मुझे सच में आत्मचिंतन करना था। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, भाई-बहनों का मेरी रिपोर्ट करना और उच्च अगुआओं द्वारा मेरी काट-छाँट और निपटान तुम्हारा धार्मिक न्याय था, मुझे इससे सबक सीखना चाहिए, लेकिन मैं नहीं जानती ये सबक क्या है। मुझे प्रबुद्ध करो कि मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव की सच्ची समझ हासिल कर सकूँ।"
फिर एक दिन, मैंने कलीसिया के दूसरे सदस्यों के साथ अपना अनुभव साझा किया, उन्हें बताया कि अगुआ जिस कलीसिया के बारे में पूछ रहे थे उसमें मैं पूरे जोश से लगी हुई थी, और दूसरी कलीसियाओं की अनदेखी कर रही थी। यह कहते हुए मेरे दिल की धड़कन पल भर को रुक गई। सफाई के काम में इतनी बड़ी गलती करना मेरे काम की ज़रा-सी लापरवाही नहीं, बल्कि काम में गलत मंशा का होना था, सिर्फ शोहरत की परवाह करना था। उस मुकाम पर, मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव को थोड़ा-बहुत जानने लगी। बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक वीडियो पाठ देखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "मसीह-विरोधी की मानवता की एक और विशिष्ट पहचान—उनकी बेशर्मी के अलावा—उनकी असामान्य स्वार्थपरता और नीचता है। वे कितने स्वार्थी होते हैं? और इस स्वार्थपरता की शाब्दिक व्याख्या क्या है? अपने हितों से संबंधित किसी भी चीज पर उनका पूरा ध्यान रहता है : वे उसके लिए कष्ट उठाएँगे, कीमत चुकाएँगे, उसमें खुद को तल्लीन कर देंगे, समर्पित कर देंगे। जिस चीज से उनका संबंध नहीं होता, वे उसकी ओर से आँखें मूँद लेंगे और उस पर कोई ध्यान नहीं देंगे; दूसरे लोग जो चाहें सो कर सकते हैं—उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं होती कि कोई विभाजनकारी या विघटनकारी तो नहीं हो रहा। युक्तिपूर्वक कहें तो, वे अपने काम से काम रखते हैं। लेकिन यह कहना ज्यादा सही है कि इस तरह का व्यक्ति नीच, घिनौना और निकम्मा होता है; हम उन्हें 'स्वार्थी और नीच' के रूप में परिभाषित करते हैं। मसीह-विरोधियों की मानवता की स्वार्थपरता और नीचता कैसे प्रकट होती हैं? जब कोई चीज उनकी हैसियत या प्रतिष्ठा से संबंधित होती है, तो वे अपना दिमाग इस बात पर लगा देते हैं कि क्या करना है या क्या कहना है, वे इधर-उधर दौड़ने-भागने से नहीं कतराते, बल्कि खुशी-खुशी बड़ी मुश्किल का सामना करते हैं। लेकिन जो चीज परमेश्वर के घर के कार्य और सिद्धांत से संबंधित होती है—यहाँ तक कि जब बुरे लोग बाधा डाल रहे होते हैं, हस्तक्षेप कर रहे होते हैं, सभी प्रकार की बुराई कर रहे होते हैं और कलीसिया के कार्य को बुरी तरह प्रभावित कर रहे होते हैं—तब भी वे उसके प्रति आवेगहीन और उदासीन बने रहते हैं, जैसे उनका उससे कोई लेना-देना ही न हो। और अगर कोई इस बारे में जान जाता है और इसे उजागर कर देता है, तो वे कहते हैं कि उन्होंने कुछ नहीं देखा, और अज्ञानता का ढोंग करने लगते हैं। जब लोग उनकी शिकायत करते हैं, उनकी सच्चाई उजागर करते हैं, तो वे आगबबूला हो जाते हैं : यह तय करने के लिए आनन-फानन में बैठकें बुलाई जाती हैं कि क्या उत्तर दिया जाए, इस बात की जाँच की जाती है कि किसने गुपचुप यह काम किया है, सरगना कौन है, कौन शामिल है। जब तक वे इसकी तह तक न पहुँच जाएँ और मामला शांत न हो जाए, तब तक उनका खाना-पीना हराम हो जाता है; कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि उन्हें तभी खुशी मिलती है जब आरोप लगाने वाले के सहयोगियों तक को हटा दिया जाता है। यह स्वार्थपरता और नीचता का प्रकटीकरण है, है न? क्या वे कलीसिया का काम कर रहे हैं? वे अपने सामर्थ्य और रुतबे के लिए कार्य कर रहे हैं, और कुछ नहीं। वे अपना कारोबार चला रहे हैं। मसीह-विरोधी व्यक्ति चाहे जो भी कार्य करें, वे कभी परमेश्वर के घर के हितों के बारे में विचार नहीं करते। वे केवल इस बात पर विचार करते हैं कि कहीं उनके अपने हित तो प्रभावित नहीं हो रहे, और केवल उन्हीं कामों के बारे में सोचते हैं जो उनके सामने होते हैं। परमेश्वर के घर और कलीसिया के काम ऐसी चीजें हैं जिन्हें वे अपने खाली समय में करते हैं, और उनसे हर काम कह-कहकर करवाना पड़ता है। अपने हितों की रक्षा करना ही उनका असली काम होता है, यही उनका मनपसंद असली धंधा होता है। उनकी नजर में परमेश्वर के घर द्वारा व्यवस्थित या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश से जुड़ी किसी भी चीज का कोई महत्व नहीं होता। अन्य लोगों को अपने काम में क्या कठिनाइयाँ आ रही हैं, वे किन मुद्दों की पहचान करते हैं, उनके शब्द कितने ईमानदार हैं, मसीह-विरोधी इन बातों पर कोई ध्यान नहीं देते, वे उनमें शामिल ही नहीं होते, मानो इन मामलों से उनका कोई लेना-देना ही न हो। वे कलीसिया के मामलों से पूरी तरह से उदासीन होते हैं, फिर चाहे वे मामले कितने भी गंभीर क्यों न हों। अगर समस्या उनके ठीक सामने भी हो, तब भी वे अनिच्छा से और लापरवाही से ही उसमें हाथ डालते हैं। जब ऊपर वाला सीधे उनसे निपटता है और उन्हें किसी समस्या को सुलझाने का आदेश देता है, तभी वे बेमन से थोड़ा-बहुत काम करके ऊपर वाले को दिखाते हैं; उसके तुरंत बाद वे फिर अपने धंधे में लग जाते हैं। कलीसिया के काम के प्रति, व्यापक संदर्भ की महत्वपूर्ण बातों के प्रति वे उदासीन और बेखबर बने रहते हैं। जिन समस्याओं का उन्हें पता लग लग जाता है, उन्हें भी वे नजरअंदाज कर देते हैं और पूछने पर टालमटोल करते हैं, और बहुत ही बेमन से उस समस्या की तरफ ध्यान देते हैं। यह स्वार्थ और नीचता का प्रकटीकरण है, है न? इसके अलावा, वे चाहे कोई भी काम कर रहे हों, वे केवल यही सोचते रहते हैं कि क्या इससे उनका प्रोफाइल उन्नत होगा; अगर उससे उनकी प्रतिष्ठा बढ़ती है, तो वे यह जानने के लिए अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाते हैं कि उस काम को कैसे करना है, कैसे अंजाम देना है; उन्हें केवल एक ही फिक्र रहती है कि क्या इससे वे औरों से अलग नजर आएँगे। वे चाहे कुछ भी करें या सोचें, वे उसमें सिर्फ अपना भला ही देखते हैं। समूह में वे चाहे कोई भी काम कर रहे हों, वे केवल इसी स्पर्धा में लगे रहते हैं कि कौन बड़ा है या कौन छोटा, कौन जीत रहा है और कौन हार रहा है, किसकी ज्यादा प्रतिष्ठा है। उन्हें केवल इसी बात की चिंता रहती है कि कितने लोग उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखते हैं और उनके अनुयायी कितने हैं। वे कभी सत्य पर संगति या वास्तविक समस्याओं का समाधान नहीं करते, वे कभी इस बारे में बात नहीं करते कि अपना कर्तव्य निभाते समय सिद्धांत के अनुसार कैसे काम करें, क्या वे वफादार रहे हैं, क्या उन्होंने अपने दायित्व पूरे किए हैं, कहीं वे भटक तो नहीं गए। वे इस बात पर जरा भी ध्यान नहीं देते कि परमेश्वर का घर क्या कहता है और परमेश्वर की इच्छा क्या है। वे केवल अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा के लिए कार्य करते हैं। यह स्वार्थपरता और नीचता की अभिव्यक्ति है, है न? उनकी मानवता अपनी ही जरूरतों, महत्वाकांक्षाओं और बेसिर-पैर की अपेक्षाओं से भरी होती है; उनका हर काम अपनी ही महत्वाकांक्षाओं और आवश्यकताओं से नियंत्रित होता है; वे चाहे कोई भी काम करें, उनकी अभिप्रेरणा और शुरुआत अपनी ही महत्वाकांक्षाओं, आवश्यकताओं और बेसिर-पैर की माँगों से होती है। क्या यह स्वार्थ और नीचता की विशिष्ट अभिव्यक्ति नहीं है?" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'प्रकरण चार : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव के सार का सारांश (भाग एक)')। यह मुझे आईना दिखाने जैसा था, वह सारी भ्रष्टता दिखा रहा था जिसे मैं अपने दिल में छुपाए बैठी थी। घिनौनापन, अनैतिकता, नीचता : ये वे तमाम अधम चीजें थीं, जो मैंने अपने काम में दिखाई थीं। सफाई के काम के दौरान, देखने में मैं व्यस्त लगती थी, मगर मैं किसके लिए कष्ट झेलूँगी, इसका चुनाव कर रही थी। मैं सच्चाई से बोझ नहीं उठा रही थी, जैसा परमेश्वर चाहता है। उच्च अगुआ बार-बार मुझसे उस एक कलीसिया में हो रही प्रगति के बारे में पूछते थे, इसलिए मुझे डर था कि काम ठीक से न संभालने पर, वे मेरा असली कद जान लेंगे और मेरी तरक्की करने पर पछताएंगे। उनके सामने अपनी अच्छी छवि बनाए रखने, और उन्हें जताने के लिए कि मैं अपने काम में सच्चे नतीजे पा सकती हूँ, मैंने बस उस एक कलीसिया पर ही ध्यान दिया, उस कलीसिया के अगुआओं से प्रगति की जानकारी लेकर उन्हें बस सिखाया नहीं, बल्कि कलीसिया के सदस्यों के बारे में खुद ही समझने की कोशिश भी की। मैं जल्द-से-जल्द अपने अगुआ को अच्छे परिणाम दिखाना चाहती थी, ताकि वे मुझे काबिल समझें। लेकिन मैंने दूसरी कलीसियाओं की प्रक्रियाओं में ज्यादा रूचि नहीं ली, बहन झांग से मिली लोगों की सूची देखकर भी, मैंने एक तक सवाल नहीं पूछा। मैं नहीं जानती थी कि वे कौन हैं, या वो उन्हें क्यों बाहर निकालना चाहती थी। मैं अगुआ से अपेक्षित सबसे बुनियादी निरीक्षण और निगरानी का काम भी नहीं कर पाई। परमेश्वर मसीह-विरोधियों को स्वार्थी और घिनौने होने और सिर्फ नाम और रुतबे के लिए काम करने के लिए उजागर करता है। वे वह सब करते हैं जिनसे उन्हें दिखावा करने का मौक़ा मिलता है, और ऐसी हर चीज की उपेक्षा करते हैं जिससे उनके नाम और रुतबे को लाभ नहीं मिलता। वे न परमेश्वर के घर के व्यापक कार्य के बारे में सोचते हैं, न ही उसकी इच्छा और अपेक्षाओं की परवाह करते हैं। काम में मेरी मंशा और बर्ताव को देखें, तो मैं किसी भी तरह से मसीह-विरोधियों से अलग कहाँ थी? यह सारा कलीसिया का कार्य था, इसलिए अगर किसी भी कलीसिया की सफाई का काम ठीक से नहीं हुआ, तो इससे परमेश्वर के घर के कार्य पर बुरा असर पड़ेगा। लेकिन मुझे इसकी चिंता नहीं थी, इसकी परवाह नहीं थी। बस यही सोच रही थी कि अगुआ को कैसे जल्दी से बताऊँ कि मैंने काम कर लिया, फिर उसकी स्वीकृति पा लूँ। मेरी नजर मेरे नाम और रुतबे पर ही थी। मैं उन प्रोजेक्टों में अपने प्रयास जोश के साथ लगा रही थी जिन पर अगुआ का ध्यान था, जिस काम पर उसने ख़ास ज़ोर नहीं दिया, उस पर मैंने ध्यान नहीं दिया। मैं परमेश्वर की इच्छा का ज़रा-भी विचार नहीं कर रही थी। मैं बहुत स्वार्थी और घिनौनी थी! अगर अगुआ मेरे काम की निगरानी नहीं करते, मेरा निपटान कर मुझे काबू नहीं करते, तो मैं काम में कुछ हासिल कर पाने वाले सच्चे विश्वासियों को निकालने देती। यह एक दुष्कर्म होता, मुझे व्यावहारिक काम न करने वाला बहुत खराब अगुआ बना देता! मैं समझ गई कि मुझमें हर आयाम में कमी थी। एक अगुआ के रूप में सेवा कर पाना, उन सारे कामों की जिम्मेदारी संभालना परमेश्वर की ओर से मेरा जबरदस्त उन्नयन और सुपुर्दगी थी। काम संभालते समय मैंने परमेश्वर के सामने शपथ ली थी कि मैं उसकी इच्छा का ध्यान रखूँगी, अपना कर्तव्य निभाऊंगी, लेकिन असलियत में, मैं परमेश्वर को धोखा दे रही थी। इस बारे में सोचकर मुझे पीड़ा हुई, मैंने खुद को दोषी महसूस किया, और मेरी आँखों से आँसू बहने लगे। इतनी स्वार्थी और घिनौनी होने के लिए मैं खुद से घृणा करने लगी, लगा कि मैंने परमेश्वर को निराश किया है। मैं खुद के बारे में जानना और सच में प्रायश्चित कर बदलना चाहती थी।
मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : "यदि कोई कहता है कि उसे सत्य से प्रेम है और वह सत्य का अनुसरण करता है, लेकिन उसका लक्ष्य हैसियत पाना, अपनी अलग पहचान बनाना, दिखावा करना, लोगों का सम्मान प्राप्त करना और अपने हित साधना है, और उसके लिए अपने कर्तव्य का पालन करने का अर्थ परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना या उसे संतुष्ट करना नहीं है बल्कि प्रतिष्ठा, लाभ और हैसियत प्राप्त करना है, तो फिर उसका अनुसरण अवैध है। तद्नुसार, जब परमेश्वर के कार्य, कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के कार्य की बात आती है, तो वे बाधा होते हैं या इन चीजों को आगे बढ़ाने में मददगार होते हैं? वे स्पष्ट रूप से बाधा होते हैं; वे इन चीजों को आगे नहीं बढ़ाते। जो लोग कलीसिया का कार्य करने का झंडा लहराते फिरते हैं, लेकिन अपने लाभ और प्रतिष्ठा के पीछे भागते हैं, अपनी दुकान चलाते हैं, अपना एक छोटा-सा समूह, अपना एक छोटा-सा साम्राज्य बना लेते हैं—क्या इस प्रकार के अगुआ या कार्यकर्ता अपना कर्तव्य निभा रहे हैं? वे जो भी कार्य करते हैं, वह अनिवार्य रूप से परमेश्वर के घर के कार्य को बाधित करता है, अस्त-व्यस्त करता है और बिगाड़ता है। तो लाभ और प्रतिष्ठा के पीछे भागने की लोगों की विभिन्न प्रकृतियों को देखते हुए, लोग चाहे कितने ही सहज रूप से लाभ और प्रतिष्ठा के पीछे भागें, और लाभ और प्रतिष्ठा के पीछे भागने की यह प्रवृत्ति मनुष्य को कितनी ही वैध लगे, और चाहे वे कितनी ही बड़ी कीमत चुकाएँ, अंतिम परिणाम परमेश्वर के कार्य को नष्ट करना, बाधित करना और बिगाड़ना ही होता है। उनका कर्तव्य-पालन न केवल परमेश्वर के घर के काम को बाधित करता है, बल्कि वह परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश को भी बरबाद कर देता है। इस तरह के काम की प्रकृति क्या होती है? वह है विघटन, रुकावट और हानि। क्या इसे मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलना नहीं कहा जा सकता? जब परमेश्वर कहता है कि लोग अपने हितों को अलग रखें, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह लोगों को स्वाधीनता के अधिकार से वंचित कर रहा है और नहीं चाहता कि वे परमेश्वर के हितों में हिस्सा बटाएँ; बल्कि यह इस कारण से है कि लोग अपना हित-साधन करते हुए परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान पहुँचाते हैं, वे भाई-बहनों के सामान्य प्रवेश को बाधित करते हैं, यहाँ तक कि लोगों को एक सामान्य कलीसियाई जीवन और सामान्य आध्यात्मिक जीवन जीने से भी रोकते हैं। इससे भी अधिक गंभीर बात यह है कि, जब लोग अपना नाम, धन-दौलत और रुतबे के पीछे भागते हैं, तो इस तरह के व्यवहार को परमेश्वर के कार्य की सामान्य प्रगति को हद दर्जे तक नुकसान पहुँचाने और बाधित करने, और लोगों के बीच परमेश्वर की इच्छा को सामान्य रूप से पूरा होने से रोकने के लिए शैतान के साथ सहयोग करने के रूप में वर्णित किया जा सकता है। लोगों के अपने हित-साधन की प्रकृति यही है। अर्थात्, अपने हितों के पीछे भागने वाले लोगों के साथ समस्या यह है कि वे जिन लक्ष्यों का अनुसरण करते हैं, वे शैतान के लक्ष्य हैं—वे ऐसे लक्ष्य हैं, जो दुष्टतापूर्ण और अन्यायपूर्ण हैं। जब लोग इन हितों के पीछे भागते हैं, तो वे अनजाने ही शैतान का औजार बन जाते हैं, वे शैतान के लिए एक वाहक बन जाते हैं, और तो और, वे शैतान का मूर्त रूप बन जाते हैं। परमेश्वर के घर और कलीसिया में वे एक नकारात्मक भूमिका निभाते हैं; परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति, और सामान्य कलीसियाई जीवन और कलीसिया में भाई-बहनों के सामान्य लक्ष्य पर उनका प्रभाव परेशान करने और बिगाड़ने वाला होता है; उनका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग एक)')। इनसे मुझे समझ आया कि अपने नाम और रुतबे के लिए काम करना, खुद के लिए उद्यम करना, अनिवार्य रूप से शैतान का नौकर बनना, परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा डालकर उसे बिगाड़ना और परमेश्वर की इच्छा पूरी करने के मार्ग के आड़े आना था। अपनी करतूतों पर आत्मचिंतन करके मैं समझ गई कि परमेश्वर ने मेरे व्यवहार के सार को उजागर किया है। अंत के दिनों में, परमेश्वर लोगों को उनकी किस्म के अनुसार अलग कर रहा है, भलों को इनाम और दुष्टों को दंड दे रहा है। कलीसिया की सफाई, परमेश्वर के घर में गैर-विश्वासी और दुष्कर्मी घुसपैठियों को निकालने के लिए की जाती है। वे परमेश्वर में सच्चा विश्वास नहीं रखते, न सत्य का अनुसरण करते हैं, न ही अपना कर्तव्य ठीक से निभाते हैं, इसलिए अगर वे कलीसिया में टिके रहे, तो वे भाई-बहनों के परमेश्वर के वचनों का अनुभव पाने और जीवन प्रवेश के मार्ग में आड़े आएँगे, या ऐसे दुष्कर्म करेंगे जिनसे परमेश्वर के घर का कार्य बाधित होगा। सफाई का काम कलीसिया को स्वच्छ करने के लिए है, सच्चे विश्वासियों को अच्छा माहौल देने के लिए है कि वे सत्य का अनुसरण कर सकें, सत्य को जल्द सीख सकें और आस्था के सही राह पर चल सकें। परमेश्वर उन्हें बचाता है जो सत्य का अनुसरण करते हैं, खुशी-खुशी उसके लिए खपते हैं, लेकिन परमेश्वर के घर में घुसपैठ करने वाले, जो शैतान के साथी होकर भी आशीष चाहते हैं, उन्हें उजागर कर हटा दिया जाता है। यही परमेश्वर की धार्मिकता है। सफाई का काम, वास्तव में कलीसिया के लोगों से पेश आने के सिद्धांतों और परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को दर्शाता है। मैं समझ गई कि मैंने परमेश्वर की इच्छा का ध्यान नहीं रखा, बल्कि हमेशा अपने नाम और रुतबे की रक्षा करने की सोचती थी। मैं ऐसे कामों को लेकर ढीली-ढाली, और उदासीन थी जो मेरे उद्देश्य में मददगार नहीं थे, परमेश्वर के घर के कार्य को बनाए रखने और अपना कर्तव्य निभाने वाले न्यायसंगत लोगों को, यूं ही बाहर निकाल दिया। यह कर्तव्य का निर्वाह करना कैसे हुआ? क्या यह परमेश्वर के विरुद्ध काम करना नहीं था? मैं अपने काम में गैर-जिम्मेदार थी, बहन झांग को अपनी मर्जी से लोगों को निकालने, और कुछ दुष्कर्मियों को कलीसिया में रहने दिया, पर दिल से काम कर रहे परमेश्वर के घर के कार्य को बनाएरखने वाले, परमेश्वर के कुछ चुने लोगों को निकाल दिया। क्या मैं शैतान की नौकर की तरह काम करते हुए परमेश्वर के घर के कार्य को बाधित नहीं कर रही थी? क्या मैं लोगों को नुकसान नहीं पहुँचा रही थी? एक बार इसका एहसास होने के बाद, मैं समझ गई कि मैं शैतान द्वारा इतनी भ्रष्ट हो गई थी कि मुझमें इंसानियत बची ही नहीं थी। मैंने न तो भाई-बहनों की, न परमेश्वर के आदेश की जिम्मेदारी संभाली। अपने दिल में, मैं परमेश्वर, उसके घर या भाई-बहनों के हितों का ध्यान नहीं रख रही थी। मैं खुद को बेहतर दिखाने के तरीकों के बारे में सोचती थी, ताकि अगुआ की स्वीकृति मिले। ऐसी घिनौनी मंशा के साथ भी, मैं दूसरों से प्रशंसा और परमेश्वर से पुरस्कार चाहती थी। क्या यह बेशर्मी नहीं है? मैं समझ गई कि मैं स्वार्थी और घिनौनी हूँ, सिर्फ अपनी सेवा करती हूँ। परमेश्वर धार्मिक और पवित्र है, और हमारे दिलों के भीतर देखता है। उसे कोई भी मूर्ख नहीं बना सकता। दिखावा करने की कोशिश से मेरा मूल्य नहीं बदल सकता, बल्कि मुझे दिल से काम करना होगा, चालबाजी नहीं करनी होगी। ऐसी चालबाजी से लोग थोड़े समय के लिए बेवकूफ बन भी जाएँ लेकिन देर-सवेर मैं उजागर हो जाऊँगी। अगर परमेश्वर के सामने ईमानदार दिल से मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया, तो परमेश्वर ज़रूर उन विफल झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों की तरह मेरा मुखौटा उतारकर मुझे हटा देगा। इसका एहसास करके मैं समझ सकी कि काट-छाँट और निपटान से मुझे कितना लाभ पहुँचा है। परमेश्वर अगर मेरी काट-छाँट और निपटान नहीं करता, तो मैं कभी नहीं समझती। मैं सीधे अंधकार में जाने वाले मार्ग पर चलते हुए परमेश्वर द्वारा अलग कर दी जाती। मैं समझ गई कि मैं कितनी स्वार्थी और घिनौनी थी, अपने काम में परमेश्वर के प्रति बिल्कुल सच्ची नहीं थी, मगर परमेश्वर मुझे बचाना चाहता था, इसलिए उसने मेरे अपराधों और दुष्कर्मों को दूसरों के निरीक्षण और अगुआ की जांच के जरिये प्रकट कर दिया। इसने मुझे आत्मचिंतन और प्रायश्चित करके बदलने का मौक़ा दिया। इस विचार से मैं पछतावे और ग्लानि में डूब गई, मैंने परमेश्वर के प्रति बहुत ऋणी और आभारी महसूस किया। मैंने मन-ही-मन प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मेरी भ्रष्टता बहुत गहरी है, मैं तुम्हारी इच्छा का ध्यान भी नहीं रखती। मैंने परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा पहुँचाई। अब से मैं तुम्हें संतुष्ट करने के लिए सच में प्रायश्चित करके अपने काम में सत्य का अभ्यास करना चाहती हूँ!"
फिर अपने धार्मिक कार्यों में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "जो लोग सत्य को व्यवहार में लाने में सक्षम हैं, वे अपने कार्यों में परमेश्वर की जाँच को स्वीकार कर सकते हैं। जब तुम परमेश्वर की जाँच को स्वीकार करते हो, तो तुम्हें गलती का एहसास होता है। यदि तुम हमेशा दूसरों को दिखाने के लिए ही काम करते हो और परमेश्वर की जाँच को स्वीकार नहीं करते, तो क्या तुम्हारे हृदय में परमेश्वर है? इस तरह के लोगों के हृदय में परमेश्वर के प्रति श्रद्धा नहीं होती। हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, और अपनी स्वयं की हैसियत, प्रतिष्ठा और साख पर विचार मत कर। इंसान के हितों पर गौर मत कर। तुझे सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उसे अपनी पहली प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुझे परमेश्वर की इच्छा की परवाह करनी चाहिए, इस पर चिंतन करने के द्वारा आरंभ कर कि तू अपने कर्तव्य को पूरा करने में अशुद्ध रहा है या नहीं, क्या तूने वफादार होने के लिए अपना अधिकतम किया है, क्या अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए अपना सर्वोत्तम प्रयास किया है और अपना सर्वस्व दिया है, साथ ही क्या तूने अपने कर्तव्य, और परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार किया है। तुझे इन चीज़ों के बारे में विचार करने की आवश्यकता है। इन चीज़ों पर बार-बार विचार कर, और तू आसानी से अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभा पाएगा। जब तेरी क्षमता कमज़ोर होती है, तेरा अनुभव उथला होता है, या जब तू अपने पेशे में दक्ष नहीं होता है, तब सारी ताकत लगा देने के बावजूद तेरे कार्य में कुछ गलतियाँ या कमियाँ हो सकती हैं, और परिणाम बहुत अच्छे नहीं हो सकते हैं। जब तू कार्यों को करते हुए अपनी स्वयं की स्वार्थी इच्छाओं या अपने स्वयं के हितों के बारे में विचार नहीं करता है, और इसके बजाय हर समय परमेश्वर के घर के कार्य पर विचार करता है, परमेश्वर के घर के हितों के बारे में लगातार सोचता रहता है, और अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाते हो, तब तुम परमेश्वर के समक्ष अच्छे कर्मों का संचय करोगे। जो लोग ये अच्छे कर्म करते हैं, ये वे लोग हैं जिनमें सत्य की वास्तविकता होती है; इन्होंने गवाही दी है। यदि तू हमेशा देह के अनुसार जीता है, हमेशा अपनी स्वार्थी इच्छाओं को संतुष्ट करता है, तो ऐसे व्यक्ति में सत्य की वास्तविकता नहीं होती; यह परमेश्वर को लज्जित करने का चिह्न है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। इनसे मैं समझ सकी कि सत्य का अभ्यास करने के इच्छुक सच्चे विश्वासी परमेश्वर की जांच स्वीकार कर सकते हैं। वे दूसरों की प्रशंसा चाहने या दूसरों को खुश करने में नहीं लगे रहते, या नाम और रुतबे के पीछे नहीं भागते, बल्कि परमेश्वर के घर के कार्य को सबसे आगे रखते हैं, उसके हितों की रक्षा करते हैं, और उसके द्वारा सौंपा गया काम दिल से करते हैं। एक सृजित प्राणी को बस यही करना चाहिए। ये कर्तव्य में पवित्र आत्मा का कार्य हासिल करने, परमेश्वर का मार्गदर्शन और आशीष पाने का एकमात्र मार्ग है। मैं नाम और रुतबे के पीछे भागते हुए शैतानी प्रकृति के अनुसार जी रही थी, परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा पहुंचा रही थी, जिसका नतीजा हुआ कलंक और परमेश्वर के प्रति ऋण। मैं समझ गई कि मैं इतनी स्वार्थी थी कि अपने फायदे के लिए नाम और रुतबे के पीछे भाग रही थी, परमेश्वर के विरुद्ध एक मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही थी। अब मैं सच्चे मन से अनुसरण पर अपने गलत नजरिये को बदल कर परमेश्वर के सामने एक शुद्ध और सच्चे दिल से जीना चाहती हूँ। उच्च अगुआ या दूसरे लोग मेरे बारे में कुछ भी सोचें-समझें, मैं जो भी कर सकूँ, उसमें अपना पूरा दिल लगाने, अपना काम ईमानदारी से करने को तैयार हूँ।
उसके बाद से, काम में, चाहे कोई भी प्रोजेक्ट हो या कोई भी कलीसिया हो, मैं सिद्धांत अनुसार अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने के लिए काम करती हूँ, यह हिसाब करने के लिए नहीं कि किस प्रोजेक्ट में मेरी छवि अच्छी दिखेगी या अगुआ की प्रशंसा मिलेगी। अपने काम में अब मुझे बहुत आराम महसूस होता है, जब कभी मेरी भ्रष्टता प्रकट होती है, मैं सचेत होकर उसे त्याग देती हूँ। हाल ही में, अगुआ ने मुझे सिंचन के कार्य पर दोबारा ध्यान देने, और दूसरे कामों में कम समय लगाने को कहा। एक दिन, सिंचन कार्य को कैसे अच्छी तरह करूँ, ये सोचते हुए, मैंने किसी को एक कलीसिया की समस्या का जिक्र करते हुए सुना। मैं दुविधा में पड़ गई : “क्या मैं वहां जाकर इसकी जांच करूँ और इसे संभालूँ? इस समस्या को ठीक से समझने में थोड़ा वक्त लगेगा, तो वहाँ समय लगाने से कहीं मेरे सिंचन कार्य की उपेक्षा तो नहीं होगी? अगुआ ने मुझसे उस पर ध्यान देने को कहा, तो अगर कुछ समय उसमें कोई तरक्की न हुई, तो क्या मैं नाकाबिल लगूंगी? मैंने उस मामले को संभालने के लिए किसी और को भेजने का सोचा।” यह बात मन में आते ही मुझे बहुत बेचैनी हुई। यह सारा काम कलीसिया का था और यह मेरी जिम्मेदारी थी, इसलिए अगर मैं सिर्फ अगुआ द्वारा व्यवस्थित काम करूँ और दूसरे कामों की उपेक्षा करूँ, तो क्या यह एक मसीह-विरोधी या झूठे अगुआ की तरह बस नाम और रुतबे के पीछे भागना नहीं होगा? इसलिए मैंने जांच के लिए किसी ऐसे को खोजा जो उस हालत से परिचित हो। इस प्रयास से मैंने परमेश्वर का मार्गदर्शन पाया, मुझे पता चला कि जितना मैंने सुना था, उस कलीसिया की समस्याएँ उससे कहीं बदतर थीं। मैं वहाँ चीजों को संभालने के लिए एक और अगुआ के साथ गई। हमने गड़बड़ी पैदा करने वाले कुछ गैर-विश्वासियों को हटा दिया, कुछ गैर-जिम्मेदार झूठे अगुआओं को बर्खास्त कर दिया, जो लंबे समय से वास्तविक कार्य नहीं कर रहे थे। इन बाधाजनक दुष्कर्मियों को कलीसिया से निकला देखकर, और यह जानकर कि अब कलीसिया जीवन में गड़बड़ी नहीं होगी, मैंने सच में खुशी महसूस की। अब मैं नाम और रुतबे के पीछे भागे बिना, अपने काम में व्यावहारिक हो सकती हूँ। यह सब परमेश्वर द्वारा न्याय, ताड़ना, निपटान और काट-छाँट के कारण हो पाया। परमेश्वर के उद्धार का धन्यवाद!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?