तुम्हारा कर्तव्य तुम्हारा करियर नहीं है
2020 में, मैं दो कलीसियाओं के काम के लिए जिम्मेदार थी। कभी-कभी लोगों का अपनी कलीसियाओं से दूसरी जगह कर्तव्य निभाने के लिए तबादला करना जरूरी होता है। पहले तो मुझे सहयोग करने में खुशी होती थी और मैं लोगों को फौरन उपलब्ध करा देती थी। लेकिन कुछ समय बाद मुझे एहसास हुआ कि अच्छे लोगों का तबादला किए जाने से अपना काम ठीक से करना मुश्किल हो जाता है। मुझे चिंता हुई कि मेरा प्रदर्शन खराब हो सकता है, और अपने काम में अच्छे नतीजे न देने पर अगुआ मुझे बरखास्त कर देंगे, और फिर मेरी गरिमा और रुतबा खतरे में पड़ जाएगा। बाद में, मैं लोगों को दूसरी जगह भेजने के लिए बिलकुल तैयार और इच्छुक नहीं रही।
कुछ समय पहले ही, मैंने देखा कि एक नई विश्वासी, बहन रन्ना में अच्छी काबिलियत है और वो अपने अनुसरण में तत्पर है। वो अक्सर परमेश्वर के वचन पढ़ती, कलीसिया के वीडियो देखती और हमेशा मुझसे सत्य का अभ्यास करने और सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने के बारे में सवाल पूछा करती। मैंने सोचा कि कैसे हमारी कलीसिया को सिंचन करने वाले की जरूरत है, और मुझे फौरन उसे इस जिम्मेदारी के लिए तैयार करना चाहिए। इस तरह, मैं न सिर्फ नए विश्वासियों का सिंचन कर पाऊँगी, बल्कि यह ये भी दिखाएगा कि मैं अपने कर्तव्य में अच्छे नतीजे हासिल कर रही हूँ, और अगुआओं को लगेगा कि मैं सचमुच काबिल हूँ—यह सभी के लिए अच्छा होगा। इस कारण से, मैंने उसकी काफी मदद की, ताकि वह और अधिक सत्य समझ सके और सिंचन-कार्य सँभालने में सक्षम हो सके। मुझे उम्मीद नहीं थी कि एक दिन एक अगुआ मुझसे कहेंगी कि एक दूसरी कलीसिया को अपना सिंचन-कार्य सँभालने के लिए किसी की जरूरत है, और वह चाहती थीं कि बहन रन्ना वहाँ वह कर्तव्य सँभाले। यह सुनकर मैं बहुत क्रोधित हो गई और बहुत विरोध महसूस करने लगी, और सोचने लगी कि दूसरी कलीसिया अकेली तो ऐसी कलीसिया नहीं है जिसे लोगों की जरूरत हो। कुछ दिनों बाद अगुआ ने दोबारा बहन रन्ना के तबादले की बात उठाई, और कहा कि उसमें अच्छी काबिलियत है और उसे ज्यादा जिम्मेदारी लेने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है। जितना ज्यादा मैंने यह सुना, उतना ही ज्यादा मेरा प्रतिरोध बढ़ गया, और मैंने सोचा, “आप उसे ऐसे ही ले लेना चाहती हैं? अगर हमारी कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचता रहा, तो मुझे बरखास्त कर दिया जाएगा।” यह विचार आते ही मैं बिफर पड़ी, “मैं सोच रही थी कि उसे यहीं रखकर अगुआ के पद के लिए तैयार करना चाहिए।” असल में, मैं जानती थी कि दूसरी कलीसिया में काफी नए सदस्य हैं, और उन्हें सिंचन की कहीं ज्यादा जरूरत है। मुझे सीधे-सीधे यह कहने की हिम्मत तो नहीं हुई कि मैं उसे नहीं जाने दूँगी, लेकिन मैं दबे हुए गुस्से से भरी थी और मुझे बहुत बुरा लग रहा था, मैं इसे बिलकुल भी स्वीकार नहीं कर पाई। कुछ ही दिन पहले अगुआ ने हमारी कलीसिया से दो समूह-अगुआओं को दूसरी जगह भेज दिया था, इसलिए मैं लगातार नए लोगों को तैयार करने और खाली पद भरने में जुटी हुई थी, और सबसे महत्वपूर्ण बात, अच्छे उम्मीदवार ढूँढ़ना इतना आसान नहीं था। अगर मैंने अपने कार्य में अच्छे नतीजे हासिल नहीं किए, तो मुझे दूसरों से अलग दिखने और यह दिखाने का मौका कभी नहीं मिलेगा कि मैं क्या कर सकती हूँ। मुझे लगा, जैसे मैं वो कर्तव्य नहीं सकती, और मैं ज्यादा से ज्यादा दुखी रहने लगी। मुझे लगा, मेरे साथ अन्याय हुआ है, और मैं अपने आँसू नहीं रोक पाई। मेरी ऐसी हालत देखकर अगुआ ने मेरे साथ परमेश्वर की इच्छा और कर्तव्यों की व्यवस्था के लिए कलीसिया के सिद्धांतों पर सहभागिता की, लेकिन मैंने एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दिया। बाद में, उन्होंने कहा कि इस तरह बरताव करके मैं कलीसिया के काम में रुकावट डाल रही हूँ, लेकिन मैं इसे बिलकुल भी स्वीकार नहीं कर पाई। मैंने सोचा, “लेकिन क्या मैंने ऐसा हमारी कलीसिया के काम को ध्यान में रखकर नहीं किया? अगर आपको लगता है मैं रुकावट बन रही हूँ, तो इसे आप कर लें। मुझे बरखास्त कर दें, ताकि मैं कोई और समस्या खड़ी न करूँ।” इस बारे में इस तरह सोचने पर मुझे बुरा लगा, इसलिए मैंने यह कहते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, अभी जो कुछ हो रहा है, मैं उसके प्रति समर्पित नहीं हो सकती। मुझे लगता है, मेरे साथ बहुत अन्याय हुआ है। कृपया मुझे राह दिखाओ, ताकि मैं समझ सकूँ कि मेरी क्या गलती है।”
प्रार्थना के बाद, मैंने इस पर विचार किया कि क्यों जब अगुआ को सामान्य बदलाव करने की जरूरत थी, तब दूसरे लोगों को इससे कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन मुझे थी। मुझे इससे लड़ना और इसे रोकना था, मैं अंदर से इसका बहुत प्रतिरोध कर रही थी। ऐसा एक या दो बार नहीं हुआ कि मैंने इस तरह का बरताव किया हो। मेरे लिए समर्पण कर पाना इतना मुश्किल क्यों था? फिर मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : “कोई भी कर्तव्य तुम्हारा अपना अभियान, अपना करियर या अपना कार्य नहीं है; यह परमेश्वर का कार्य है। परमेश्वर के कार्य को तुम्हारे सहयोग की जरूरत होती है, जो तुम्हारे कर्तव्य को जन्म देता है। परमेश्वर के कार्य का वह हिस्सा जिसमें मनुष्य को सहयोग करना चाहिए, वही उसका कर्तव्य है। कर्तव्य परमेश्वर के कार्य का हिस्सा है—यह तुम्हारा करियर नहीं है, न तुम्हारा घरेलू मामला है, न जीवन में तुम्हारा व्यक्तिगत मामला है। तुम्हारा कर्तव्य चाहे आंतरिक या बाहरी कार्यों से निपटना हो, चाहे इसमें मानसिक या शारीरिक श्रम शामिल हो, यह ऐसा कर्तव्य है जिसे तुम्हें निभाना ही चाहिए, यह कलीसिया का कार्य है, यह परमेश्वर की प्रबंधन योजना का हिस्सा है, और यह वो आदेश है जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है। यह तुम्हारा व्यक्तिगत मामला नहीं है। तो फिर, तुम्हें अपने कर्तव्य को किस रूप में लेना चाहिए? कम से कम, तुम्हें अपना कर्तव्य मनमाने ढंग से नहीं निभाना चाहिए, तुम्हें लापरवाही से कार्य नहीं करना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य सिद्धांत खोजकर ही कोई अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकता है)। “कर्तव्य आखिर है क्या? यह परमेश्वर द्वारा लोगों को सौंपा गया कार्य होता है, यह परमेश्वर के घर के कार्य का हिस्सा होता है, यह एक जिम्मेदारी और दायित्व है जिसे परमेश्वर के चुने हुए प्रत्येक व्यक्ति को वहन करना चाहिए। क्या कर्तव्य तुम्हारी आजीविका है? क्या यह व्यक्तिगत पारिवारिक मामला होता है? क्या यह कहना उचित है कि जब तुम्हें कोई कर्तव्य दे दिया जाता है, तो वह कर्तव्य तुम्हारा व्यक्तिगत व्यवसाय बन जाता है? ऐसा बिल्कुल नहीं है। तो तुम्हें अपना कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए? परमेश्वर की अपेक्षाओं, वचनों और मानकों के अनुसार कार्य करके, अपने व्यवहार को मानवीय व्यक्तिपरक इच्छाओं के बजाय सत्य सिद्धांतों पर आधारित करके। कुछ लोग कहते हैं, ‘जब मुझे कोई कर्तव्य दे दिया गया है, तो क्या वह मेरा अपना व्यवसाय नहीं बन गया है? मेरा कर्तव्य मेरा प्रभार है, और जिसका प्रभार मुझे दिया गया है, क्या वह मेरा निजी व्यवसाय नहीं है? यदि मैं अपने कर्तव्य को अपने व्यवसाय की तरह करता हूँ, तो क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं उसे ठीक से करूँगा? अगर मैं उसे अपना व्यवसाय न समझूँ, तो क्या मैं उसे अच्छी तरह से करूँगा?’ ये बातें सही हैं या गलत? ये गलत हैं; ये सत्य के विपरीत हैं। कर्तव्य तुम्हारा निजी काम नहीं है, वह परमेश्वर से संबंधित है, यह परमेश्वर के कार्य का हिस्सा है, और तुम्हें परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार ही काम करना चाहिए; केवल परमेश्वर की आज्ञा मानने वाले हृदय से अपने कर्तव्य का पालन करके ही तुम मानक के अनुरूप हो सकते हो। यदि तुम हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार और अपनी प्रवृत्ति के अनुसार कर्तव्य का निर्वहन करते हो, तो तुम कभी भी मानक के अनुसार कार्य नहीं कर पाओगे। हमेशा अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करना कर्तव्य-निर्वहन नहीं कहलाता, क्योंकि तुम जो कर रहे हो वह परमेश्वर के प्रबंधन के दायरे में नहीं आता, यह परमेश्वर के घर का कार्य नहीं हुआ; बल्कि तुम अपना कारोबार चला रहे हो, अपने काम कर रहे हो और परमेश्वर इन्हें याद नहीं रखता” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य सिद्धांत खोजकर ही कोई अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकता है)। मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया और महसूस किया कि मेरा कर्तव्य मेरा करियर नहीं है, और यह लोगों के लिए परमेश्वर का आदेश है। इसलिए इसे परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार किया जाना चाहिए। मुझे अपनी इच्छाओं और योजनाओं के आधार पर, मनमर्ज़ी नहीं करनी चाहिए। अगर मैंने ऐसा किया, तो देखने में ऐसा भले ही लगे कि मैं बहुत काम कर रही हूँ, लेकिन यह कर्तव्य निभाना नहीं होगा; यह अपना उद्यम चलाना और परमेश्वर का विरोध करना होगा। अपने बरताव के बारे में सोचने पर मैंने पाया कि जब भी मुझे लोगों को उपलब्ध कराने के लिए कहा गया, मुझे डर लगा कि अगर मैंने कलीसिया के उन सदस्यों को जाने दिया, जो अपने कर्तव्य पूरे करने में सबसे असरदार हैं, तो हमारी कलीसियाओं को अच्छे नतीजे नहीं मिलेंगे, और मैं अपना पद भी गँवा सकती हूँ। अपनी इज्जत और हैसियत बचाने के लिए मैं लोगों को उपलब्ध नहीं कराना चाहती थी। सिद्धांत-रूप में मैं जानती थी कि मेरा कर्तव्य परमेश्वर का दिया हुआ है और यह मेरी जिम्मेदारी है, लेकिन व्यवहार में मैंने उसे अपना कारोबार, अपनी नौकरी जैसा समझ लिया। चूँकि मुझे वह काम सौंपा गया था, इसलिए मुझे लगा, यह मेरा कारोबार है और इसमें मेरी ही चलेगी। मैं सिर्फ तभी लोगों को उपलब्ध कराने के लिए तैयार होती थी, जब उसका असर मेरे काम के नतीजों पर न पड़ता हो, लेकिन जब भी ऐसा हुआ, तो मैंने उसमें अपनी टाँग अड़ा दी और किसी को जाने नहीं दिया। इसलिए जब मुझे पता चला कि बहन रन्ना का तबादला होने जा रहा है, तो मेरा दिल टूट गया और मैंने उसे जाने देना नहीं चाहा। मुझे लगा, मेरे साथ बहुत अन्याय हुआ है, यहाँ तक कि मैं अपना कर्तव्य निभाना बंद करके अपनी नाराजगी भी दिखाना चाहती थी। यह कर्तव्य निभाना कैसे हुआ? मैं साफ तौर पर कलीसिया का काम बिगाड़ रही थी, उसमें रुकावट डाल रही थी। अपना कर्तव्य पूरा करते हुए मैंने संपूर्ण परिप्रेक्ष्य पर विचार नहीं किया, न ही मैं कलीसिया के हितों को कायम रख रही थी, बल्कि अपने कर्तव्य को अपनी इज्जत और रुतबे के लिए काम करने के मौके के तौर पर इस्तेमाल करते हुए खुद के लिए साजिश रच रही थी। क्या मैं अपना कारोबार नहीं चला रही थी? मैं चाहे कितना भी काम करूँ, परमेश्वर कभी ऐसे बरताव को याद नहीं करेगा। जब भी किसी कलीसिया को लोगों की जरूरत हो, तो मुझे उत्साहपूर्वक सहयोग करना चाहिए। मैं सिर्फ अपने निजी हितों की नहीं सोच सकती।
अगले दिन एक सभा में एक अगुआ ने जिक्र किया कि लोगों को तैयार करने के साथ-साथ भाई-बहनों का सिंचन करना भी कलीसिया-अगुआओं का काम है, ताकि हर कोई अपनी काबिलियत के हिसाब से कर्तव्य निभा सके। यह सुनकर ऐसा लगा, जैसे मैं किसी सपने से जाग गई हूँ। उनकी बात सही थी। भाई-बहनों का सिंचन करना और उन्हें सही कर्तव्य ढूँढ़ने में मदद करना मेरे काम का हिस्सा था। लेकिन जब अन्य कलीसिया को किसी की जरूरत हुई, तो ऊपर से तो मैंने मना करने की हिम्मत नहीं की, लेकिन अपने दिल में मैं उससे लड़ती रही, और उनका तबादला न करने के लिए तमाम तरह के बहाने बनाती रही। यह तो अपना कर्तव्य निभाना नहीं है। मैं उस भूमिका में अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं कर रही थी, बल्कि अगुआ पर मुझे एक कठिन स्थिति में डालने का दोष मढ़ रही थी। मैंने आत्मचिंतन भी नहीं किया, बल्कि कलीसिया के काम के रास्ते में आकर खड़ी हो गई। क्या इस तरह का बरताव जानबूझकर चीजों के आड़े आना नहीं था, जैसा कि उस बहन ने कहा था? मुझे याद आया, जब मैंने पहली बार कर्तव्य सँभाला था, तो मैं बस विनम्रता से सुसमाचार के कार्य में अपनी भूमिका निभाना चाहती थी। लेकिन अब मैं एक अड़चन, एक रुकावट बन गई थी। इस पर मुझे थोड़ा पछतावा हुआ, और मैंने अपने आप से कहा कि अगली बार मुझे सत्य का अभ्यास करना होगा, मैं इतने स्वार्थी और घृणित तरीके से सिर्फ अपनी परवाह नहीं कर सकती।
कुछ दिनों बाद अगुआ ने एक संदेश भेजा, जिसमें मुझसे टीम के कुछ सदस्यों का दूसरी कलीसिया में तबादला करने के लिए कहा गया था। इस संदेश को पढ़कर मैं बिलकुल शांत रही, मैंने देखा कि मेरे लिए यह परिस्थिति इसलिए बनी ताकि मुझे सत्य पर अमल करने का मौका मिले। लेकिन जब मैं टीम के सदस्यों का मूल्यांकन कर रही थी, तो थोड़ी झिझक जरूर महसूस हुई, मैंने सोचा, क्या मुझे वाकई टीम की दो सबसे अच्छी बहनों को जाने देना होगा, या शायद मैं दो थोड़ी कम काबिल बहनों को भेज सकती हूँ। ऐसा सोचने पर, मुझे एहसास हुआ कि मैं स्वार्थी बनकर दोबारा वही गलती करने जा रही थी। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “दुष्ट और धोखेबाज लोगों के दिल हमेशा व्यक्तिगत आकांक्षाओं, योजनाओं और साजिशों से भरे रहते हैं। क्या इन चीजों को परे रखना सरल है? (नहीं।) अगर तुम फिर भी अपना कर्तव्य ठीक से निभाना चाहते हो लेकिन इन चीजों को परे नहीं रख सकते तो तुम्हें क्या करना चाहिए? इसका एक रास्ता है : तुम जो कर रहे हो उसकी प्रकृति तुम्हें स्पष्ट होनी चाहिए। अगर किसी चीज का संबंध परमेश्वर के घर के हितों से है, और यह अत्यंत महत्व की चीज है, तो फिर तुम्हें इसे टालना नहीं चाहिए, गलतियाँ नहीं करनी चाहिए, परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान नहीं पहुँचाना चाहिए या परमेश्वर के घर का कार्य नहीं बिगाड़ना चाहिए। अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम्हें इसी सिद्धांत का पालन करना चाहिए। अगर तुम परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाने से बचना चाहते हो, तो तुम्हें पहले अपनी आकांक्षाएँ और इच्छाएँ परे रखनी होंगी; तुम्हें अपने हितों से कुछ हद तक समझौता करना चाहिए, इन्हें परे रखना चाहिए, और तुम परमेश्वर के स्वभाव को नाराज करने के बजाय जल्द ही थोड़ी-सी कठिनाई झेलोगे, जो चेतावनी का संकेत होगा। अगर तुम अपनी बुरी आकांक्षाओं और घमंड की संतुष्टि के लिए परमेश्वर के घर का कार्य बिगाड़ते हो तो तुम्हारा हश्र क्या होगा? तुम्हें बदल दिया जाएगा, और शायद त्याग भी दिया जाए। तुम परमेश्वर के स्वभाव को भड़का चुके होगे और हो सकता है कि तुम्हारे पास बचाए जाने का कोई और मौका न रहे। परमेश्वर लोगों को जितने मौके देता है, उनकी भी एक सीमा होती है। लोगों को परमेश्वर से परखे जाने के कितने मौके मिलते हैं? यह उनके सार के अनुसार तय होता है। अगर तुम खुद को मिले मौकों का भरपूर लाभ उठाते हो, अगर तुम अपना गर्व और घमंड छोड़कर कलीसिया का कार्य अच्छे से करने को प्राथमिकता दे सकते हो, तो फिर तुम्हारी मानसिकता सही है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य सिद्धांत खोजकर ही कोई अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकता है)। इसे पढ़कर मुझे महसूस हुआ कि कम से कम, मैं कलीसिया के काम पर बुरा असर नहीं डाल सकती या रोक नहीं सकती, भले ही मेरी व्यक्तिगत गरिमा और फायदे के लिए ऐसा करना ठीक न हो। पहले, मुझे हमेशा यह चिंता रहती थी कि अगर कलीसिया के सबसे अच्छे सदस्यों का तबादला कर दिया गया, तो हमारी कलीसियाओं के काम को नुकसान पहुँचेगा और मुझे बरखास्त कर दिया जाएगा। लेकिन कलीसिया के हितों को कायम रखने और परमेश्वर की इच्छा का खयाल रखने के लिए भला किसे बरखास्त किया जाता है? किसी को नहीं। दूसरी ओर, जो स्वार्थी और नीच है, जो कलीसिया के अच्छे सदस्यों को जाने देने से मना करता है, जिससे कलीसिया के कार्य और उसके हितों पर बुरा असर पड़ता है, उसे ही बरखास्त करके निकाला जाएगा। अगर मैंने उन बहनों को रोक भी लिया, तो भी इसका यह मतलब नहीं कि हमारी कलीसियाएँ अनिवार्य रूप से अच्छा काम करेंगी। अगर मेरी मंशाएँ गलत होंगी, और मैं अपना नाम और पद बचाने में लगी रहूँगी, तो मुझे पवित्र आत्मा का कार्य नहीं मिलेगा, फिर मैं परमेश्वर के मार्गदर्शन के बिना अपने कर्तव्य में अच्छे नतीजे कैसे दे सकूँगी? इन विचारों से मेरे मन को कुछ सुकून मिला और मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से कहा, “परमेश्वर, मैं सत्य का अभ्यास करके तुझे संतुष्ट करना और अपना नाम और रुतबा बचाना बंद करना चाहती हूँ।” इसके बाद, मैंने टीम में सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाली उन दो सदस्यों को दूसरी कलीसिया में भेज दिया। जब मैंने इस पर अमल किया, तो मुझे वास्तव में शांति का अनुभव हुआ। इस तरह का इंसान होना अच्छा लगा।
इस अनुभव के बाद मुझे लगा कि मैं थोड़ी बदल गई हूँ, लेकिन मुझे हैरानी हुई, जब कुछ ही दिनों बाद मैं पूरी तरह से उजागर हो गई। एक दिन एक अगुआ ने कहा, वो चाहती हैं कि मैं कुछ और सिंचन-कर्मी उपलब्ध कराऊँ, क्योंकि हमारी कलीसियाओं में बहुत-से नए दुभाषिया सदस्य मौजूद हैं। अगर ऐसा है, तो मुझे तकरीबन उन सभी को जाने देना होगा, जो दुभाषिया हैं और जिनकी काबिलियत अच्छी है। उस वक्त मुझे फिर से अपने पद और गरिमा की चिंता सताने लगी। मुझे डर था कि अगर वे लोग चले गए, तो हमारी कलीसियाओं के सुसमाचार के काम पर असर पड़ना तय है। उस दिन शाम को अगुआ ने हालात की जानकारी लेने के लिए मुझे संदेश भेजा। मुझे अपने अंदर बहुत प्रतिरोध महसूस हुआ। उनके द्वारा सुझाए गए हर नाम के लिए मैंने बस एक ही शब्द में जवाब दिया : “जरूर,” “ठीक है।” जब उन्होंने पूरी जानकारी माँगा, तो मैंने कुछ भी कहना नहीं चाहा। मैंने सोचा, “पहली बात तो ये कि मैं कभी इन लोगों को जाने देना नहीं चाहती थी, लेकिन आप सवाल पूछे जा रही हैं। आप अच्छे से कर्तव्य करने वालों को हमारी कलीसियाओं से निकालकर इन्हें संसाधन-विहीन बना रही हैं। मैं अपना काम कैसे कर पाऊँगी?” मेरा मन नहीं माना और मैं समर्पण नहीं कर पाई।
बाद में, एक सभा में मैंने परमेश्वर के वचनों के पाठ का एक वीडियो देखा, जिससे मुझे अपनी भ्रष्टता समझने में मदद मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “मसीह-विरोधियों के स्वार्थ और दुष्टता का सार स्पष्ट है; उनकी इस तरह की अभिव्यक्तियाँ विशेष रूप से प्रमुख हैं। कलीसिया उन्हें एक काम सौंपती है, और अगर वह प्रसिद्धि और लाभ लाता है, और उन्हें अपना चेहरा दिखाने देता है, तो वे उसमें बहुत रुचि लेते हैं और उसे स्वीकारने को तैयार रहते हैं। अगर वह ऐसा कार्य है, जिससे सराहना नहीं मिलती या जिसमें लोगों को अपमानित करना शामिल है, या जिसमें उन्हें लोगों के बीच जाने का मौका नहीं मिलता या जिससे उनकी हैसियत या प्रतिष्ठा को कोई लाभ नहीं पहुँचता, तो उसमें उनकी कोई रुचि नहीं होती, और वे उसे स्वीकार नहीं करते, मानो उस काम का उनसे कोई लेना-देना न हो, और वह ऐसा कार्य न हो जो उन्हें करना चाहिए। जब वे कठिनाइयों का सामना करते हैं, तो इस बात की कोई संभावना नहीं होती कि वे उन्हें हल करने के लिए सत्य की तलाश करेंगे, बड़ी तसवीर देखने की कोशिश करना और कलीसिया के काम पर ध्यान देना तो दूर की बात है। उदाहरण के लिए, परमेश्वर के घर के कार्य के दायरे में, कार्य की समग्र आवश्यकताओं के आधार पर, कुछ कर्मियों का तबादला हो सकता है। अगर किसी कलीसिया से कुछ लोगों का तबादला कर दिया जाता है, तो उस कलीसिया के अगुआओं को समझदारी के साथ इस मामले से कैसे निपटना चाहिए? अगर वे समग्र हितों के बजाय सिर्फ अपनी कलीसिया के हितों से ही सरोकार रखते हैं, और अगर वे लोगों को स्थानांतरित करने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं होते, तो इसमें क्या समस्या है? कलीसिया-अगुआ के रूप में, क्यों वे परमेश्वर के घर की समग्र व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने में असमर्थ रहते हैं? क्या ऐसा व्यक्ति परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील है? क्या वह कार्य की बड़ी तस्वीर के प्रति सचेत होता है? अगर वह परमेश्वर के घर के कार्य के बारे में समग्र रूप से नहीं सोचता, बल्कि सिर्फ अपनी कलीसिया के हितों के बारे में सोचता है, तो क्या वह बहुत स्वार्थी और घृणित नहीं है? कलीसिया-अगुआओं को परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं, और परमेश्वर के घर की केंद्रीकृत व्यवस्थाओं और समन्वय के प्रति बिना शर्त समर्पित होना चाहिए। यही सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है। जब परमेश्वर के घर के कार्य को आवश्यकता हो, तो चाहे वे कोई भी हों, सभी को परमेश्वर के घर के समन्वय और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए, और किसी एक अगुआ या कार्यकर्ता द्वारा नियंत्रित नहीं होना चाहिए, मानो वे उसके हों या उसके निर्णयों के अधीन हों। परमेश्वर के चुने हुए लोगों की परमेश्वर के घर की केंद्रीकृत व्यवस्थाओं के प्रति आज्ञाकारिता बिल्कुल स्वाभाविक और उचित है, जिसकी किसी के द्वारा अवहेलना नहीं की जा सकती। जब तक कोई अगुआ या कार्यकर्ता कोई गलत तबादला नहीं करता, जो सिद्धांत के अनुसार न हो—जिस मामले में उसकी अवज्ञा की जा सकती है—तब तक परमेश्वर के सभी चुने हुए लोगों को आज्ञापालन करना चाहिए, और किसी अगुआ या कार्यकर्ता को किसी को नियंत्रित करने का प्रयास करने का अधिकार या कोई कारण नहीं है। क्या तुम लोग कहोगे कि ऐसा भी कोई कार्य होता है जो परमेश्वर के घर का कार्य नहीं होता? क्या कोई ऐसा कार्य होता है जिसमें परमेश्वर के राज्य-सुसमाचार का विस्तार शामिल नहीं होता? यह सब परमेश्वर के घर का ही कार्य होता है, हर कार्य समान होता है, और उसमें कोई ‘तेरा’ और ‘मेरा’ नहीं होता। ... परमेश्वर के घर द्वारा परमेश्वर के चुने हुए लोगों को केंद्रीय रूप से आवंटित किया जाना चाहिए। इसका किसी अगुआ, टीम-प्रमुख या व्यक्ति से कोई लेना-देना नहीं है। सभी को सिद्धांत के अनुसार कार्य करना चाहिए; यह परमेश्वर के घर का नियम है। जब मसीह-विरोधी परमेश्वर के घर के सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं करते, जब वे लगातार अपनी हैसियत और हितों के लिए साजिशें रचते हैं, और अपनी शक्ति और हैसियत मजबूत करने के लिए अच्छी क्षमता वाले भाई-बहनों से अपनी सेवा करवाते हैं, तो क्या यह स्वार्थी और नीच होना नहीं है? बाहरी तौर पर, अच्छी क्षमता वाले लोगों को अपने पास रखना और परमेश्वर के घर द्वारा उनका तबादला न होने देना ऐसा प्रतीत होता है, मानो वे कलीसिया के काम के बारे में सोच रहे हों, लेकिन वास्तव में वे सिर्फ अपनी शक्ति और हैसियत के बारे में सोच रहे होते हैं, कलीसिया के काम के बारे में बिल्कुल नहीं सोचते। वे डरते हैं कि वे कलीसिया का काम खराब तरह से करेंगे, बदल दिए जाएँगे, और अपनी हैसियत खो देंगे। जब मसीह-विरोधी परमेश्वर के घर के व्यापक कार्य के बारे में कोई विचार नहीं करते, सिर्फ अपनी हैसियत के बारे में सोचते हैं, परमेश्वर के घर के हितों को होने वाले नुकसान के लिए जरा भी खेद न करके अपनी हैसियत की रक्षा करते हैं, और कलीसिया के कार्य को हानि पहुँचाकर अपनी हैसियत और हितों की रक्षा करते हैं, तो यह स्वार्थी और नीच होना है। जब ऐसी स्थिति आए, तो कम से कम व्यक्ति को अपने विवेक से सोचना चाहिए : ‘ये सभी परमेश्वर के घर के लोग हैं, ये कोई मेरी निजी संपत्ति नहीं हैं। मैं भी परमेश्वर के घर का सदस्य हूँ। मुझे परमेश्वर के घर को लोगों को स्थानांतरित करने से रोकने का क्या अधिकार है? मुझे केवल अपनी जिम्मेदारियों के दायरे में आने वाले काम पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय परमेश्वर के घर के समग्र हितों पर विचार करना चाहिए।’ जिन लोगों में विवेक और समझ होती है, उन लोगों के विचार ऐसे ही होने चाहिए, और जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, उनके अंदर ऐसी ही समझ होनी चाहिए। परमेश्वर का घर समग्र के कार्य में संलग्न है और कलीसियाएँ हिस्सों के कार्य में संलग्न हैं। इसलिए, जब परमेश्वर के घर को कलीसिया से कोई विशेष आवश्यकता हो, तो अगुआओं और कार्यकर्ताओं के लिए परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं का पालन करना सबसे महत्वपूर्ण है। नकली अगुआओं और मसीह-विरोधियों में ऐसा अंतःकरण और समझ नहीं होती। वे सब स्वार्थी होते हैं, वे सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं, और वे कलीसिया के कार्य के बारे में नहीं सोचते। वे सिर्फ अपनी आँखों के सामने के लाभों पर विचार करते हैं, वे परमेश्वर के घर के व्यापक कार्य पर विचार नहीं करते, इसलिए वे परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं का पालन करने में बिल्कुल अक्षम रहते हैं। वे बेहद स्वार्थी और नीच होते हैं! परमेश्वर के घर में उनकी हिम्मत इतनी बढ़ जाती है कि वे विनाशकारी हो जाते हैं, यहाँ तक कि वे अपने मनसूबों से बाज नहीं आते; ऐसे लोग मानवता से बिल्कुल शून्य होते हैं, दुष्ट होते हैं। मसीह-विरोधी इसी प्रकार के लोग हुआ करते हैं। वे हमेशा कलीसिया के काम को, भाइयों और बहनों को, यहाँ तक कि परमेश्वर के घर की सारी संपत्ति को जो उनकी जिम्मेदारी के दायरे में आती है, निजी संपत्ति के रूप में ही देखते हैं। यह उन पर होता है कि इन चीजों को कैसे वितरित करें, स्थानांतरित करें और उपयोग में लें, और परमेश्वर के घर को हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं होती। जब वे चीजें उनके हाथों में आ जाती हैं, तो ऐसा लगता है कि वे शैतान के कब्जे में हैं, किसी को भी उन्हें छूने की अनुमति नहीं होती। वे बड़ी तोप चीज होते हैं, वे ही सबसे बड़े होते हैं, और जो कोई भी उनके क्षेत्र में जाता है, उसे उनके आदेशों और व्यवस्थाओं का पालन करना होता है, और उनसे इशारा लेना होता है। यह मसीह-विरोधी के चरित्र के स्वार्थ और नीचता का प्रकटन होता है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण चार : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव के सार का सारांश (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों ने मेरी मनोदशा उजागर कर दी। भाई-बहनों को अपने काबू में रखने और उन्हें अन्य कलीसियाओं को न सौंपने की मेरी चाह स्वार्थी और घिनौनी थी, मैं एक मसीह-विरोधी का स्वभाव दिखा रही थी। उस दौरान, जब भी अगुआ हमारी कलीसियाओं से किसी का तबादला करना चाहतीं, तो मैं बहुत प्रतिरोधी और अनिच्छुक महसूस करती थी। मैं गुस्से से बरस पड़ती; मुझे लगता मेरे साथ बहुत अन्याय हो रहा है, मेरी आँखों से आँसू छलक पड़ते। मैं इससे तब तक सहमत न हो पाती, जब तक कि अगुआ मेरे साथ सहभागिता करके मेरी सोच बदलने में मदद न करतीं, और मुझसे कुछ अच्छी बातें न करते। मैं उस अगुआ की तरह थी, जिसे परमेश्वर ने बेनकाब कर दिया हो, मैं अपनी जिम्मेदारी वाली कलीसियाओं से लोगों के तबादले में अपनी मनमर्जी चलाना चाहती थी। जब लोगों की जरूरत होती, तो वे मेरे हाँ कहने पर ही जा सकते थे, मेरी अनुमति के बिना कोई उन्हें छू नहीं सकता था। मेरी सहमति के बिना कोई आगे नहीं बढ़ सकता था। मैं कलीसियाओं को मजबूती से अपने काबू में रखे हुए थी, हर चीज पर अपना हुक्म चलाती थी। मसीह कलीसियाओं का प्रभारी नहीं था—मैं थी। मानो मेरे द्वारा तैयार किए गए नए सदस्य मेरी संपत्ति हों। उनके द्वारा अपने कर्तव्य में हासिल की गई उपलब्धियों का इस्तेमाल मैं अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए करना चाहती थी। यह मेरे लिए कितनी शर्मनाक बात थी! क्या मैं परमेश्वर का विरोध करने वाले मसीह-विरोधी मार्ग पर नहीं चल रही थी? इस स्थिति ने मुझे धार्मिक जगत के पादरियों और एल्डरों के बारे में सोचने पर भी मजबूर किया। उन्हें पता है कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया गवाही देती है कि प्रभु लौट आया है और उसने बहुत-से सत्य व्यक्त किए हैं, लेकिन उन्हें डर है कि इन सत्यों को जानने के बाद उनसे जुड़े लोग सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अनुसरण करने लगेंगे, जिससे उनका रुतबा, इज्जत और आजीविका खत्म हो जाएगी, इसलिए वे विश्वासियों को सच्चे मार्ग से दूर रखने का भरसक प्रयास करते हैं। वे सीधे दावा करते हैं कि भेड़ें उनकी हैं और वे उन्हें परमेश्वर की वाणी सुनने और उसका अनुसरण करने नहीं देंगे। वे विश्वासियों को अपनी निजी संपत्ति समझते हैं, उन्हें कसकर अपने काबू में रखते हैं और उनके लिए परमेश्वर से लड़ते हैं। वे पादरी और एल्डर दुष्ट सेवक हैं, अंत के दिनों में उजागर किए गए मसीह-विरोधी हैं। मेरे कार्य सार में उन पादरियों और एल्डरों के कार्यों से भला कैसे अलग थे? मैं अपनी गरिमा और पद बचाए रखने के लिए दूसरों को काबू में कर रही थी। मैं जानती थी, अगर मैंने पश्चात्ताप नहीं किया, तो परमेश्वर मसीह-विरोधियों के साथ मुझे भी धिक्कारेगा और दंड देगा। परमेश्वर के चुने हुए लोग परमेश्वर के होते हैं, किसी इंसान के नहीं। जिस किसी की भी अन्य कलीसियाओं में कोई कर्तव्य निभाने के लिए जरूरत होती है, उसका जरूरत के मुताबिक तबादला किया जा सकता है। मुझे किसी को अपने प्रबंधन वाली कलीसियाओं में रोककर रखने का कोई अधिकार नहीं था। जब अगुआ कार्य की व्यवस्था कर रहे होते हैं और लोगों का तबादला कर रहे होते हैं, तो सम्मान और बेहतर सहयोग की भावना के साथ वे मेरी राय माँगते हैं। वास्तव में, मेरी सहमति के बिना सीधे किसी का तबादला कर देना भी उचित होगा। मुझे लोगों को अपने काबू में रखने का कोई अधिकार नहीं है। मैं जानती थी कि मैं इतनी स्वार्थी होकर नहीं जी सकती। परमेश्वर ने मुझे मेरी साँसें दी हैं, तो मैं अपने लिए क्यों लड़ रही हूँ? हो सकता है, मैं कलीसिया में कोई बड़ा योगदान न कर सकूँ, लेकिन कम से कम मुझे इसमें दखल नहीं देना चाहिए। मुझे कलीसिया के काम को फायदा पहुँचाने के लिए और मेहनत करनी होगी। इसके बाद जब भी जरूरत पड़ी, मैंने तबादलों में सक्रिय रूप से मदद की; और अपने नाम और पद के बारे में सोचना बंद कर दिया।
बाद में, एक बहन ने, जिसका मैंने दूसरी कलीसिया में तबादला कर दिया था, मुझे एक संदेश भेजा, जिसमें कहा गया था कि उसने और अन्य भाई-बहनों ने वहाँ सुसमाचार फ़ैलाने के अपने काम से बहुत-कुछ हासिल किया है। मुझे अत्यधिक खुशी के साथ-साथ शर्मिंदगी भी महसूस हुई। अत्यधिक खुशी मुझे इसलिए हुई कि वे राज्य का सुसमाचार फैलाने में अपनी भूमिका निभा पाए। लेकिन शर्मिंदगी मुझे इसलिए हुई कि अगर मैंने कोई रुकावट पैदा किए बिना लोगों को उपलब्ध करा दिया होता, तो उन्हें पहले ही प्रशिक्षित किया जा सकता था। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा कि अब मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव के साथ नहीं जीना चाहती, बल्कि अच्छे उम्मीदवार उपलब्ध कराना, सुसमाचार के काम में अपनी भूमिका निभाना और अपना कर्तव्य पूरा करना चाहती हूँ।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?