आलोचना से सीखना

04 फ़रवरी, 2022

सोंग यू, नीदरलैंड

इस साल मई में, एक बहन ने मुझे बताया कि बहन लू के मुताबिक कलीसिया में कम से कम तीन ऐसे झूठे अगुआ हैं जो व्यावहारिक कार्य नहीं करते, और भाई-बहन उन्हें पहचान नहीं पा रहे हैं। उनकी बात सुनकर, मैंने मन-ही-मन सोचा, बहन लू कितनी अहंकारी हैं। अगर कलीसिया के इन तीन अगुआओं में वाकई कोई समस्या होती, तो क्या उन्हें पहले ही नहीं हटा दिया जाता? बहन लू इन अगुआओं के पीठ पीछे उन्हें झूठा अगुआ कह रही हैं। क्या वो अगुआओं की आलोचना नहीं कर रहीं? मेरे मन में बहन लू की अलग-सी छवि बनने लगी। मुझे लगा कि उनमें अच्छी इंसानियत नहीं है। इसके बाद, मैं बहन लू के सामान्य बर्ताव और इंसानियत के बारे में छानबीन करने लगी, कहीं उन्हें दूसरों के पीठ पीछे कमियां निकालने में आनंद तो नहीं आता। छानबीन शुरू करने पर, मुझे पता चला कि बहन लू ने भाई-बहनों से कहा था कि एक अगुआ में समझ नहीं है, वे व्यावहारिक काम नहीं करते। इससे मेरा शक और भी बढ़ गया कि बहन लू की मंशाएं गलत थीं और वे खुद ही अगुआ बनना चाहती थीं, इसलिए वो हमेशा भाई-बहनों के सामने अगुआओं की आलोचना करती थीं, वे उनके खिलाफ पक्षपात भरी बातें भी फैलाया करती थीं ताकि कलीसिया की व्यवस्था बिगड़े, अगुआओं और कर्मियों के काम में रुकावट आये। अगर बहन लू वाकई में कलीसिया के काम की रक्षा करना चाहती थीं, तो कलीसिया में उन्हें अपने बड़े अगुआओं से इसकी रिपोर्ट करनी चाहिए थी, जिसके बाद उनके बड़े अगुआ इस मामले की जांच-पड़ताल और पुष्टि करके अन्य विश्वासियों की राय लेते, और वाकई किसी झूठे अगुआ के होने का पता लगने पर वे सही तरीके से मामले को संभाल लेते। मगर बहन लू ने बड़े अगुआओं से इसकी रिपोर्ट नहीं की। इसके बजाय, वे उन अगुआओं की समस्याओं के बारे में भाई-बहनों के बीच चर्चा करती रहीं। ऐसा करके वे अगुआओं की आलोचना कर रही थीं। इसलिए, मैं बहन लू से सहभागिता करने के लिए गई। मैंने उनसे कहा, "अगर आपको लगता है अगुआओं और कर्मियों में कोई समस्या है, तो आपको रिपोर्ट करनी चाहिए, भाई-बहनों के बीच लापरवाही से इस बारे में चर्चा नहीं करनी चाहिए। आपके कारण वे अगुआओं के खिलाफ हो जाएंगे, उनके काम में सहयोग करना बंद कर देंगे। ऐसा बर्ताव कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचाता है, पीठ पीछे अगुआओं की समस्याओं के बारे में बात करके आप उनकी आलोचना कर रही हैं।" मैंने उन्हें अपनी मंशाओं और लक्ष्यों पर विचार करने को कहा, और आखिर में आगाह भी किया, "अगर आप इसी तरह अगुआओं के पीठ पीछे उनकी आलोचना करती रहीं, कलीसिया के काम में परेशानी और रुकावट पैदा करती रहीं, तो आप अपना कर्तव्य निभाने का मौका गँवा सकती हैं।" बहन लू की बात संभाल लेने के बाद, मुझे लगा मैंने एक अगुआ की जिम्मेदारी निभाई है, ऐसा करके मैंने कलीसिया के काम की रक्षा की है।

अचानक, एक दिन सभा में, एक बड़े अगुआ ने मुझसे पूछा, "आपने बहन लू को बर्खास्त क्यों किया? उनकी क्या गलती थी?" अचानक किये गए इस सवाल से मैं थोड़ी घबरा गई। मैंने सोचा, "मैंने तो बहन लू को बर्खास्त नहीं किया। अगर उन्हें हटाया गया है, तो मुझे कुछ पता नहीं।" फिर मेरे अगुआ ने मुझे बताया कि बहन लू ने जिन समस्याओं की रिपोर्ट की थी वे सही थीं, जिन अगुआओं के बारे में रिपोर्ट की गई थी, वे दरअसल झूठे अगुआ थे, जिन्हें हटाना ज़रूरी था। फिर मेरे अगुआ ने बहन लू के मामले में ऐसी लापरवाही करने के कारण मेरा निपटान किया। उन्होंने कहा कि बहन लू ने कुछ अगुआओं की रिपोर्ट क्या कर दी, मैंने मान लिया कि वे मनमाने ढंग से अगुआओं की आलोचना कर रही हैं और बुरी इंसान हैं। मेरे काम परमेश्वर के चुने हुए लोगों को दबाने और उनकी निंदा करने वाले थे। मैंने सीसीपी की तरह ही "भय और आतंक" का ऐसा माहौल बना दिया जिसमें सच का साथ देने वालों को दबाया और दंड दिया जाता है। अपने अगुआ द्वारा निपटाए जाने के बाद, इसे स्वीकारना मुश्किल था। मैंने कभी सोचा नहीं था कि मैं डर का माहौल बना रही थी, मैं तो बहन लू को दंड भी नहीं देना चाहती थी। बहन लू को मैंने नहीं बल्कि उनकी ही कलीसिया के अगुआ ने हटाया था। मैं तो इसमें शामिल भी नहीं थी। फिर मैं सीसीपी जैसी कैसे बन गई?

इन सबके बाद, मैं यही सोचती रही कि मेरे अगुआ इस तरह मुझसे क्यों निपटे। मेरी गलती क्या थी? मैं अपने अगुआ की बातें याद करने लगी, कि मैंने बहन लू के बर्ताव को "अगुआओं की आलोचना" बता दिया, जिसके फौरन बाद उन पर दबाव बनाकर उन्हें बर्खास्त कर दिया गया। अगर मैंने ऐसा नहीं कहा होता, तो क्या उन्हें बर्खास्त किया जाता? आत्मचिंतन करते हुए मैंने इस बात पर सोचा। मैंने सोचा, भले ही मैंने बहन लू को बर्खास्त नहीं किया, भले ही मैंने जानबूझकर उन्हें दंडित नहीं किया या उन्हें नहीं दबाया, मगर एक अगुआ होने के नाते, जब मैंने उन्हें "मनमाने ढंग से अगुआओं की आलोचना करने वाली" बताया, तो हमारे भाई-बहनों के सामने उनकी छवि खराब हो गई, इसलिए जब उनके कामों में कुछ समस्याएं आईं, तो उनकी कलीसिया के अगुआओं को लगा कि उन्हें आलोचना करना पसंद है, वो बुरी इंसान हैं, और वे अपना कर्तव्य भी अच्छे से नहीं निभातीं, इसलिए उन्हें बर्खास्त कर दिया गया। मेरी धारणा की वजह से ही ऐसे हालात पैदा हुए और उन्हें बर्खास्त कर दिया गया। मगर मैंने यह कैसे समझ लिया कि वे "अगुआओं की आलोचना" करती हैं? क्या उन्होंने वाकई लोगों की आलोचना की? इन सवालों पर विचार करके, मुझे पता चला कि मेरा नज़रिया काफी गलत था। अगुआओं की रिपोर्ट एक तय प्रक्रिया के अनुसार की जानी चाहिए। या तो आप उस इंसान को सीधे कोई सलाह दें या समस्या को उनके बड़े अगुआओं के सामने उठाएं, और छानबीन कर फैसला लेना उन पर छोड़ दें। मेरे हिसाब से बाकी सब पीठ पीछे अगुआओं की आलोचना करना था। बहन लू का कहना था कि चार अगुआओं में समस्या थी, मगर उन्होंने कभी अपने बड़े अगुआओं को नहीं बताया और न ही इसकी रिपोर्ट की। इसके बजाय, उन्होंने इस बारे में भाई-बहनों के साथ चर्चा करते हुए कहा कि वे व्यावहारिक काम नहीं करते, केवल सिद्धांत बोलते हैं, वे झूठे अगुआ हैं। मुझे लगा वे अगुआओं की आलोचना कर रही थीं, इसलिए मैंने उनके इस बर्ताव के आधार पर उनकी निंदा की, मैंने यह छानबीन भी नहीं की कि कहीं अगुआओं के बारे में बहन लू की बातें सच तो नहीं हैं। अगर बहन लू की बातें सही थीं, तो ये चार अगुआ वाकई झूठे थे, जिन्हें बहन लू उजागर करना चाहती थीं। वे सत्य के सिद्धांत अनुसार ईमानदारी से काम कर रही थीं, यानी वे ज़िम्मेदारी लेकर परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा कर रही थीं। जो इंसान झूठे अगुआओं के रुतबे और ताकत से डरे बिना सच्चाई से उनकी समस्याओं की रिपोर्ट करने और सच कहने की हिम्मत रखता है वह परमेश्वर के घर में एक नेक इंसान है, जिसे हमें बढ़ाना चाहिए। अगर रिपोर्ट की गई समस्याएँ तथ्यों से मेल न खाएं या अगुआओं और कर्मियों पर झूठे आरोप लगाए जाएं, तो इसे साजिश रचना, बदनाम करना, मनमानी से लोगों की आलोचना करना, और कलीसिया के काम में रुकावट डालना है, ऐसे बुरी इंसानियत वाले दुष्ट व्यक्ति से सिद्धांतों के अनुसार निबटना चाहिए। तथ्यों से यह साबित हो गया कि बहन लू ने जिनकी रिपोर्ट की थी वे झूठे अगुआ थे जो व्यावहारिक काम नहीं करते थे। उनकी सारी बातें सच थीं। उन्होंने अगुआओं की आलोचना बिल्कुल भी नहीं की। वे सच बोलकर झूठे अगुआओं को उजागर कर रही थीं। उनके जैसी न्याय की समझ रखने वाली ईमानदार इंसान को हमारा सहयोग मिलना चाहिए, हमें लापरवाही से आरोप लगाकर उनकी निंदा नहीं करनी चाहिए। उस वक्त मैं झूठे अगुआओं को उजागर करने और लोगों की आलोचना करने का मतलब नहीं जानती थी। जब मेरे साथ कुछ हुआ, तो सिद्धांतों की खोज करने या परमेश्वर का भय मानने के बजाय, मैंने मनमाने ढंग से नेक इंसान की निंदा की। अगर मेरे अगुआ को पता नहीं चलता कि बहन लू को सिद्धांतों के विपरीत बर्खास्त किया गया था और समय रहते नहीं रोका होता, तो मैं ज़रूर दुष्टता कर बैठती। इस पर विचार करके, जब मुझे अपनी गलती समझ आई तो मैं खुद को दोषी समझने लगी, इसलिए मैंने परमेश्वर के सामने जाकर प्रार्थना की, उसकी काट-छाँट और निपटान को स्वीकार करने की इच्छा जताई, और अपनी भ्रष्टता की समझ हासिल करने में मेरा मार्गदर्शन करने की विनती की।

अपनी प्रार्थना के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जो "धार्मिक सेवाओं का शुद्धिकरण अवश्य होना चाहिए" का दूसरा अंश है। "परमेश्वर की सेवा करना कोई सरल कार्य नहीं है। जिनका भ्रष्ट स्वभाव अपरिवर्तित रहता है, वे परमेश्वर की सेवा कभी नहीं कर सकते हैं। यदि परमेश्वर के वचनों के द्वारा तुम्हारे स्वभाव का न्याय नहीं हुआ है और उसे ताड़ित नहीं किया गया है, तो तुम्हारा स्वभाव अभी भी शैतान का प्रतिनिधित्व करता है जो प्रमाणित करता है कि तुम परमेश्वर की सेवा अपनी भलाई के लिए करते हो, तुम्हारी सेवा तुम्हारी शैतानी प्रकृति पर आधारित है। तुम परमेश्वर की सेवा अपने स्वाभाविक चरित्र से और अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के अनुसार करते हो। इसके अलावा, तुम हमेशा सोचते हो कि जो कुछ भी तुम करना चाहते हो, वो परमेश्वर को पसंद है, और जो कुछ भी तुम नहीं करना चाहते हो, उनसे परमेश्वर घृणा करता है, और तुम पूर्णतः अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार कार्य करते हो। क्या इसे परमेश्वर की सेवा करना कह सकते हैं? अंततः तुम्हारे जीवन स्वभाव में रत्ती भर भी परिवर्तन नहीं आएगा; बल्कि तुम्हारी सेवा तुम्हें और भी अधिक ज़िद्दी बना देगी और इससे तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव गहराई तक जड़ें जमा लेगा। इस तरह, तुम्हारे मन में परमेश्वर की सेवा के बारे में ऐसे नियम बन जाएँगे जो मुख्यतः तुम्हारे स्वयं के चरित्र पर और तुम्हारे अपने स्वभाव के अनुसार तुम्हारी सेवा से प्राप्त अनुभवों पर आधारित होंगे। ये मनुष्य के अनुभव और सबक हैं। यह दुनिया में जीने का मनुष्य का जीवन-दर्शन है। इस तरह के लोगों को फरीसियों और धार्मिक अधिकारियों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। यदि वे कभी भी जागते और पश्चाताप नहीं करते हैं, तो वे निश्चित रूप से झूठे मसीह और मसीह विरोधी बन जाएँगे जो अंत के दिनों में लोगों को धोखा देते हैं। झूठे मसीह और मसीह विरोधी, जिनके बारे में कहा गया था, इसी प्रकार के लोगों में से उठ खड़े होंगे। जो परमेश्वर की सेवा करते हैं, यदि वे अपने चरित्र का अनुसरण करते हैं और अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करते हैं, तब वे किसी भी समय बहिष्कृत कर दिए जाने के ख़तरे में होते हैं। जो दूसरों के दिलों को जीतने, उन्हें व्याख्यान देने और नियंत्रित करने तथा ऊंचाई पर खड़े होने के लिए परमेश्वर की सेवा के कई वर्षों के अपने अनुभव का प्रयोग करते हैं—और जो कभी पछतावा नहीं करते हैं, कभी भी अपने पापों को स्वीकार नहीं करते हैं, पद के लाभों को कभी नहीं त्यागते हैं—उनका परमेश्वर के सामने पतन हो जाएगा। ये अपनी वरिष्ठता का घमंड दिखाते और अपनी योग्यताओं पर इतराते पौलुस की ही तरह के लोग हैं। परमेश्वर इस तरह के लोगों को पूर्णता प्रदान नहीं करेगा। इस प्रकार की सेवा परमेश्वर के कार्य में विघ्न डालती है। लोग हमेशा पुराने से चिपके रहते हैं। वे अतीत की धारणाओं और अतीत की हर चीज़ से चिपके रहते हैं। यह उनकी सेवा में एक बड़ी बाधा है। यदि तुम उन्हें छोड़ नहीं सकते हो, तो ये चीज़ें तुम्हारे पूरे जीवन को विफल कर देंगी। परमेश्वर तुम्हारी प्रशंसा नहीं करेगा, थोड़ी-सी भी नहीं, भले ही तुम दौड़-भाग करके अपनी टाँगों को तोड़ लो या मेहनत करके अपनी कमर तोड़ लो, भले ही तुम परमेश्वर की 'सेवा' में शहीद हो जाओ। इसके विपरीत वह कहेगा कि तुम एक कुकर्मी हो" (वचन देह में प्रकट होता है)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी हालत का खुलासा कर दिया। लंबे समय से अगुआ रहने के कारण मुझे लगा मेरे पास काफी अनुभव है, मुझे सिद्धांतों की समझ है, मैंने अनुभवों से बहुत कुछ सीखा है, मुझे लोगों और चीज़ों को परखने के साथ-साथ समस्याओं से निपटना भी आता है। धीरे-धीरे, मैं बहुत अहंकारी हो गई, मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं बची, कोई समस्या आने पर लगता, मैं सब जानती हूँ कि क्या चल रहा है, तो मैं हमेशा अपने मन की सुनती थी, खुद को सही मानकर सोचती कि हर काम की एक प्रक्रिया है। मैं सिद्धांत खोजने के लिए प्रार्थना करने के बजाय, बस अपने हिसाब से अभ्यास कर रही थी। बहन लू की समस्याओं के बारे में पता चलने पर, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करने, इस मामले में सत्य का अभ्यास करने या सिद्धांतों के अनुसार चलने की कोशिश नहीं की। पहले तो मुझे यही लगा कि उनकी इंसानियत और दूसरों की आलोचना करना उनकी समस्या है, इसलिए मैं खुद इस बात का पता लगाने चली गई, कि कहीं वे अक्सर अगुआओं और कर्मियों की समस्याओं पर दूसरों से चर्चा तो नहीं करती रहती हैं। यह पता चलने पर कि बहन लू दूसरी अगुआ की समस्याओं के बारे में भी बात कर रही थीं, मैंने उन्हें "लोगों की आलोचना करने वाली" और "कलीसिया का काम बिगाड़ने वाली" बता दिया। सिद्धांत के अनुसार, मुझे इससे जुड़े लोगों से मिलकर छानबीन करनी चाहिए थी कि उन्होंने अगुआओं के बारे क्या कहा था, यह जानने की कोशिश करनी चाहिए थी कि वे व्यावहारिक कार्य न करने वाले झूठे अगुआ थे या नहीं। इस मामले को अच्छे से संभालने के लिए, मुझे यह पुष्टि करनी चाहिए थी कि बहन लू की बात सच है या नहीं। मगर अपने अहंकारी, दंभी, और बुरे बर्ताव के कारण, मैंने इस मामले में सिद्धांतों की खोज नहीं की, मेरे दिल में परमेश्वर का भय नहीं था, मैंने आँखें मूंदकर और मनमाने ढंग से उनके बारे में ऐसी बातें कहीं, जिसके कारण उन्हें हटा दिया गया, दबाव बनाकर अलग कर दिया गया। मैंने एक नेक इंसान को बर्बाद ही कर दिया था। परमेश्वर का घर बार-बार जोर देता है कि समस्याओं की रिपोर्ट करने में हमें परमेश्वर के चुने लोगों का साथ देना चाहिए, अगुआओं और कर्मियों को अपनी राय बताने वालों की रक्षा करनी चाहिए, जब वे अगुआओं और कर्मियों को उजागर करें या उनकी रिपोर्ट करें, तो हमें अच्छे से छानबीन करके, सिद्धांत के अनुसार मामले को संभालना चाहिए। इन सबके बावजूद, क्योंकि मैं अपनी अहंकारी प्रकृति के काबू में थी, इसलिए मैंने सिद्धांत के अनुसार व्यवहार न करके, मनमाने ढंग से आरोप लगाया, एक नेक इंसान पर दबाव बनाया, झूठे अगुआओं को बचाकर उनका साथ दिया, और परमेश्वर के घर के कार्य-व्यवस्थाओं का उल्लंघन किया। झूठे अगुआ व्यावहारिक कार्य न करके कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुंचा रहे थे, मगर उनसे निपटने के बजाय, मैं रिपोर्ट करने वाली इंसान की ही निंदा करने लगी। क्या ऐसा करके मैं इन झूठे अगुआओं नहीं बचा रही थी? मैंने झूठे अगुआओं की दुष्टता में उनका साथ दिया। मैं शैतान की साथी बन गई थी। इन सब बातों के बारे में सोचकर, मुझे एहसास हुआ मैं अहंकारी स्वभाव के आधार पर अपना कर्तव्य निभा रही थी, ये दुष्टता और परमेश्वर का विरोध करना है। ऐसा ही चलता रहा, तो परमेश्वर मुझसे नफ़रत करेगा, मुझे ठुकरा देगा। यह मामला मेरे लिए एक चेतावनी जैसा है। आगे से, मैं इतनी आसानी से खुद पर भरोसा नहीं करूँगी। परमेश्वर की इच्छा अनुरूप होने के लिए मुझे सत्य खोजना और सिद्धांतों के अनुसार काम करना होगा।

इन सबके बारे में विचार करते हुए, मुझे याद आया मेरे अगुआ ने कहा था कि मैं सीसीपी की तरह "भय और आतंक" का माहौल बना रही थी, मैंने जितना इस बारे में सोचा उतना ही मुझे यह सही लगा। बहन लू पर लोगों की आलोचना करने का आरोप लगाने के बाद, मैंने उनसे कहा कि अगुआओं और कर्मियों के प्रति अपने असंतोष के बारे में लापरवाही से बात न करें, फिर मैंने उन्हें आगाह किया कि अगर वे ऐसा करती रहीं तो अपना कर्तव्य निभाने का मौका भी गँवा सकती हैं। मेरे और बड़े लाल अजगर की सोच में भला फ़र्क ही क्या था? चीन में अपनी बात कहने की, और सरकारी अधिकारियों के बारे में बात करने की आज़ादी नहीं है। ऐसा करते ही, लोग पार्टी के दुश्मन बन जाते हैं, जिसके बाद उन्हें गिरफ्तार करके हर तरह से सताया और यातना दी जाती है ताकि वे समर्पण कर दें, और दोबारा कभी अपना मुँह न खोलें। अगर कोई पार्टी को उजागर करने की कोशिश करे तो उसे "राष्ट्र की सत्ता को कमज़ोर करने" का दोषी ठहराकर जेल में डाल दिया जाता है। बड़े लाल अजगर के देश में हुई किसी भी आपदा की या सीसीपी के खिलाफ कोई भी खबर देने की अनुमति नहीं है, जो ऐसा करता है, उसे "राष्ट्र की गुप्त जानकारी बाहर लाने" के जुर्म में जेल भेज दिया जाता है। अगर कोई अधिकारी अपने काम में लापरवाह या सुस्त पाया गया, तो जनता को इसे उजागर करने या इस बारे में टिप्पणी करने की अनुमति नहीं है। अगर कोई ऑनलाइन टिप्पणी पोस्ट करता है, तो छोटे-मोटे मामलों में, पुलिस उन्हें डरा-धमका कर छोड़ देती है, मगर गंभीर मामलों में उन्हें अपराधी साबित करके जेल भेज दिया जाता है। यह सब सिर्फ लोगों का मुँह बंद कराने और सच बोलने से रोकने के लिए है। अगर आप नाराज़ हैं, तो आपको ये सब सहना पड़ेगा। लोग कायरता और भय के माहौल में जीकर, अपनी बात कहने का अधिकार खो बैठते हैं। मैंने जो किया उस बारे में सोचकर, लगता है मैंने वाकई सीसीपी की तरह "भय और आतंक" का माहौल बना दिया था। अगर कोई किसी अगुआ के बारे में कुछ बुरा कहता, तो मैं मनमाने ढंग से उन पर आलोचना करने का आरोप लगा कर उनका मुँह बंद कर देती और डर का माहौल बना देती थी, ताकि परमेश्वर के चुने हुए लोग कायरता और भय में जियें, और इस डर से कि अगुआ उनका जीना मुश्किल कर देंगे, वे झूठे अगुआओं को उजागर कर उनकी रिपोर्ट नहीं करते। बहन लू ने झूठे अगुआओं को उजागर करके उनकी शिकायत की, मगर मैंने उनको दबाया और उनकी निंदा की। अगर कभी मेरे काम में कोई समस्या आई या कोई भटकाव आया और इसकी रिपोर्ट मेरे बड़े अगुआ से करने के बजाय, भाई-बहन आपस में चर्चा करके मुझे उजागर करने लगे, और मैं ये जान जाती, तो क्या मैं उन्हें मेरी आलोचना करने के कारण दंडित करती या अपने रास्ते से हटाने के लिए उन्हें निकाल देती? मेरी प्रकृति के हिसाब से मैं पक्के तौर पर ऐसा कर सकती हूँ। अगर मैं पश्चाताप किए बिना इसी मार्ग पर चलती रहती, तो मैं मसीह-विरोधी बन जाती, परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करती और वह मुझे हटा देता। इन सबके बारे में सोचकर, जब मुझे अपने किये का एहसास हुआ तो मैं बहुत डर गई। मुझे अगुआ बने दो साल से ज़्यादा हो चुके थे। मैं कभी परमेश्वर के चुने हुए लोगों को दबाना या दंड देना नहीं चाहती थी, मगर फिर भी मनमाने ढंग से भाई-बहनों की निंदा करती रही। मैं पहले ही एक इंसान को दबा चुकी थी। मैं एक दुष्टता कर चुकी थी। मुझे बहुत पछतावा हुआ, फिर मैंने परमेश्वर के सामने प्रार्थना करते हुए कहा मैं सचमुच पश्चाताप करना चाहती हूँ, आगे से कोई समस्या आने पर मैं परमेश्वर का भय मानकर, सत्य की खोज करूंगी और सिद्धांतों के अनुसार काम करूंगी।

इस काट-छाँट और निपटान से मैंने यह भी जाना कि मेरी सोच गलत थी। मुझे लगता था कि अगुआ बनने पर, हम कलीसिया में सामान्य भाई-बहनों से बेहतर बन जाते हैं, हमें अपनी बात कहने का हक है, और क्योंकि हम कलीसिया का काम करते हैं, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को हमारा सहयोग करना चाहिए। किसी समस्या के बारे में पता चलने पर भी, लापरवाही से भाई-बहनों से इसकी चर्चा नहीं करनी चाहिए। फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसने मेरी सोच बदल दी और मुझे कलीसिया में अगुआओं और कर्मियों की भूमिका और मकसद की सीख दी। परमेश्वर कहते हैं, "जब कोई व्यक्ति भाई-बहनों द्वारा अगुआ के रूप में चुना जाता है, या परमेश्वर के घर द्वारा कोई निश्चित कार्य करने या कोई निश्चित कर्तव्य निभाने के लिए उन्नत किया जाता है, तो इसका यह मतलब नहीं कि उसकी कोई विशेष हैसियत या पहचान है, या वह जिन सत्यों को समझता है, वे अन्य लोगों की तुलना में अधिक गहरे और संख्या में अधिक हैं—तो ऐसा बिलकुल भी नहीं है कि यह व्यक्ति परमेश्वर के प्रति समर्पण करने में सक्षम है और उसे धोखा नहीं देगा। इसका यह मतलब भी नहीं है कि ऐसे लोग परमेश्वर को जानते हैं और परमेश्वर का भय मानते हैं। वास्तव में उन्होंने इसमें से कुछ भी हासिल नहीं किया है; उन्नति और विकास का सीधे-सीधे अर्थ केवल उन्नति और विकास ही है। उनकी उन्नति और विकास का सीधा-सा अर्थ है कि उन्हें उन्नत किया गया है, और वे विकसित किए जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। और इस विकसित किए जाने का अंतिम परिणाम इस बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति किस रास्ते पर चलता है और किस चीज का अनुसरण करता है। इस प्रकार, जब कलीसिया में किसी को अगुआ बनने के लिए उन्नत और विकसित किया जाता है, तो उसे सीधे अर्थ में उन्नत और विकसित किया जाता है; इसका यह मतलब नहीं कि वह पहले से ही योग्य अगुआ है, या सक्षम अगुआ है, कि वह पहले से ही अगुआ का काम करने में सक्षम है, और वास्तविक कार्य कर सकता है—ऐसा नहीं है। जब किसी को अगुआ के रूप में उन्नत और विकसित किया जाता है, तो क्या उसमें सत्य की वास्तविकता होती है? क्या वह सत्य केसिद्धांतों को समझता है? क्या वह व्यक्ति परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं को साकार करने में सक्षम है? क्या उसमें जिम्मेदारी की भावना है? क्या उसमें प्रतिबद्धता है? क्या वह परमेश्वर के प्रति समर्पित है? जब उसके सामने कोई समस्या आती है, तो क्या वह सत्य की खोज करता है? यह सब अज्ञात है। क्या उस व्यक्ति के अंदर परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है? और परमेश्वर से उसका भय आखिर कितना बड़ा है? क्या काम करते समय उसके द्वारा अपनी इच्छा का पालन करने की संभावना रहती है? क्या वह परमेश्वर की खोज करता है? अगुआ का कार्य करने के दौरान क्या वह लोग परमेश्वर की इच्छा की खोज करने के लिए नियमित रूप से और अकसर परमेश्वर के सामने आता है? क्या वह लोगों का सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए मार्गदर्शन करने में सक्षम है? यह और इसके अलावा बहुत-कुछ, विकसित किए जाने और खोजे जाने की प्रतीक्षा कर रहा है; यह सब अज्ञात रहता है। किसी को उन्नत और विकसित करने का यह मतलब नहीं कि वह पहले से ही सत्य को समझता है, और न ही इसका अर्थ यह है कि वह पहले से ही अपना कर्तव्य संतोषजनक ढंग से करने में सक्षम है। तो किसी को उन्नत और विकसित करने का क्या उद्देश्य और मायने हैं? वह यह है कि ऐसे व्यक्ति को, एक व्यक्ति के रूप में, प्रशिक्षित किए जाने, विशेष रूप से सिंचित और निर्देशित करने के लिए उन्नत किया जाता है, जिससे वह सत्य के सिद्धांतों, और विभिन्न कामों को करने के सिद्धांतों, और विभिन्न समस्याओं को हल करने के सिद्धांतों, साधनों और तरीकों को समझने में सक्षम हो जाए, साथ ही यह भी, कि जब वह विभिन्न प्रकार के परिवेश और लोगों का सामना करे, तो परमेश्वर की इच्छा के अनुसार और उस रूप में, जिससे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा हो सके, उन्हें कैसे सँभालना और उनके साथ कैसे व्यवस्थित होना है। क्या यह इंगित करता है कि परमेश्वर के घर द्वारा उन्नत और विकसित की गई प्रतिभा उन्नत और विकसित किए जाने की अवधि के दौरान या उन्नत और विकसित किए जाने से पहले अपना काम करने और अपना कर्तव्य निभाने में पर्याप्त सक्षम है? बेशक नहीं। इस प्रकार, यह अपरिहार्य है कि विकसित किए जाने की अवधि के दौरान ये लोग निपटे जाने, काट-छाँट किए जाने, न्याय किए जाने और ताड़ना दिए जाने, उजागर किए जाने, यहाँ तक कि बदले जाने का भी अनुभव करेंगे; यह सामान्य बात है, उन्हें प्रशिक्षित और विकसित किया जा रहा है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'नकली अगुआओं की पहचान करना (5)')। परमेश्वर के वचनों से मैंने सीखा कि परमेश्वर के घर का किसी को तरक्की और प्रशिक्षण देकर अगुआ बनाना, यानी उस इंसान में कुछ काबिलियत का होना है, वह सत्य को स्वीकार सकता है, अपने कर्तव्य के प्रति ज़िम्मेदार है या उसे अपना काम अच्छे से करना आता है। इससे उसे खुद सीखने का मौका मिलता है, इसका मतलब यह नहीं कि उसने भ्रष्टता से छुटकारा पा लिया है या वह सत्य को समझता है। न ही यह कि वो कोई काबिल अगुआ है, यह उसे एक असाधारण इंसान नहीं बनाता है और परमेश्वर के घर में कोई खास पहचान या रुतबा नहीं देता। अगुआ होने का कर्तव्य एक आज्ञा है, एक ज़िम्मेदारी है। इसका रुतबे से कोई लेना-देना नहीं। अगुआ बनना यानी फौरन परमेश्वर के घर में रुतबा और अपनी बात कहने की आज़ादी पाना नहीं, न ही इससे लोग हमारी इज्ज़त और प्रशंसा करेंगे, हमारे बारे में ऊँचा सोचेंगे, या फिर हमारी गलती पर कोई हमें टोकेगा नहीं। ये सब गलत सोच है। अगुआ बनने के लिए, हमें अपने भाई-बहनों की निगरानी और उनके सुझाव स्वीकारने होंगे, क्योंकि ऐसा करके ही हम अपने काम में आने वाली समस्याओं को समझकर समय रहते उन्हें हल कर सकते हैं। इसके अलावा, अगर भाई-बहनों को पता लगता है कि अगुआ व्यावहारिक कार्य नहीं कर रहे, तो उन्हें उजागर करके सत्य का अभ्यास करना और कलीसिया के कार्य की रक्षा करनी चाहिए। अगुआओं को लेकर हमें ऐसा ही बर्ताव रखना चाहिए। अगुआओं के साथ इस तरह पेश आना ही सिद्धांत के अनुरूप है। परमेश्वर के वचनों ने मेरी गलत सोच और धारणाओं को बदल दिया, और सिखाया कि अगुआई के कर्तव्य और परमेश्वर के चुने हुए लोगों की निगरानी से कैसे पेश आना चाहिए मैं अपने आस-पास सब कुछ बदल देना चाहती थी, इसलिए, अपने कर्तव्यों के दौरान, अगुआओं और कर्मियों की रिपोर्ट पर मैंने सावधानी से छानबीन करने की ठान ली। साथ ही, मैंने अपने भाई-बहनों की निगरानी को भी स्वीकार करना सीख लिया।

फिर, एक सभा में, हमारे अगुआ ने सहभागिता करते हुए कहा, "कुछ लोग दूसरों को अगुआओं की रिपोर्ट करते या उन्हें उजागर करते देख, उन पर हमला कर निंदा करने लगते हैं। भले ही ऐसे लोग अपने कामों को लेकर गंभीर दिखाई देते हों, मगर वे परमेश्वर के आज्ञाकारी बिल्कुल भी नहीं होते।" अपने अगुआ की ऐसी सहभागिता सुनकर मेरा दिल छलनी हो गया। मैं समझ गई कि इतने बरसों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी, मैं नहीं बदली। मैं तो अब भी परमेश्वर की आज्ञाकारी नहीं हूँ, परमेश्वर ज़रूर मुझसे असंतुष्ट होगा। अपने अगुआ की सहभागिता सुनकर, मैं समझ गई कि यह सब मेरी काट-छाँट और निपटान के लिए था, और मैं अपने आँसू नहीं रोक पाई। रोते-रोते, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर, मैं जानती हूँ कि इस तरह मेरा निपटान करने और उजागर करने के पीछे तुम्हारे नेक इरादे हैं। वरना, मुझे अब भी यही लगता कि मेरे स्वभाव में थोड़ा बदलाव आया है और मैं थोड़ी आज्ञाकारी बन गई हूँ। मगर अब मुझे एहसास हुआ कि मैं तुम्हारे प्रति सच्ची आज्ञाकारिता के मानक से कोसों दूर हूँ। मगर मैं तुम्हारे प्रति आज्ञाकारी बनना चाहती हूँ।" फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिससे मुझे उसकी इच्छा समझने में मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते है, "लोग अपना स्वभाव स्वयं परिवर्तित नहीं कर सकते; उन्हें परमेश्वर के वचनों के न्याय, ताड़ना, पीड़ा और शोधन से गुजरना होगा, या उसके वचनों द्वारा निपटाया, अनुशासित किया जाना और काँटा-छाँटा जाना होगा। इन सब के बाद ही वे परमेश्वर के प्रति विश्वसनीयता और आज्ञाकारिता प्राप्त कर सकते हैं और उसके प्रति बेपरवाह होना बंद कर सकते हैं। परमेश्वर के वचनों के शोधन के द्वारा ही मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तन आ सकता है। केवल उसके वचनों के संपर्क में आने से, उनके न्याय, अनुशासन और निपटारे से, वे कभी लापरवाह नहीं होंगे, बल्कि शांत और संयमित बनेंगे। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे परमेश्वर के मौजूदा वचनों और उसके कार्यों का पालन करने में सक्षम होते हैं, भले ही यह मनुष्य की धारणाओं से परे हो, वे इन धारणाओं को नज़रअंदाज करके अपनी इच्छा से पालन कर सकते हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिनके स्वभाव परिवर्तित हो चुके हैं, वे वही लोग हैं जो परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर चुके हैं)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी लोग उसके न्याय, काट-छाँट, निपटान, परीक्षण और शुद्धिकरण का अनुभव करने, स्वभाव में बदलाव लाने और सिद्धांतों के अनुसार काम करके ही उसकी आज्ञा मान पाते हैं। ऐसे लोग, परमेश्वर में विश्वास रखने और अपना कर्तव्य निभाने के दौरान, सत्य खोजने और सिद्धांतों के अनुसार काम करने में सक्षम होते हैं, जब भी उनके सामने कोई बुनियादी या अहम मामला आता है, या जब उन्हें अपने जीवन का मार्ग चुनना होता है, तो वे परमेश्वर के वचन और सत्य के आधार पर सही विकल्प चुन पाते हैं। अगर हम केवल छोटी-मोटी बातों या बाहरी बर्ताव में ही परमेश्वर की बात मानेंगे, मगर सिद्धांतों के मामले में या अहम मुद्दों में मनमानी करेंगे या अपने स्वाभाविक व्यक्तित्व के हिसाब से काम करेंगे, तो इससे साबित होता है कि हम परमेश्वर के विरुद्ध हैं। पहले मुझे लगता था कि मैं परमेश्वर की खातिर खुद को खपाने के लिए अपना परिवार और करियर त्याग सकती हूँ, परमेश्वर का घर चाहे मुझे कोई भी जिम्मेदारी सौंपे, मैं उसे स्वीकार सकती हूँ, कोई भी समस्या आने पर, परमेश्वर के वचन पढ़कर और प्रार्थना करके, मैं हमेशा अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने के बारे में सोचती हूँ, अपने कर्तव्य को लेकर मेरे इस रवैये का मतलब है कि मैं परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी हूँ। मगर बहन लू के मामले में, देखा कि मैं अब भी आँखें मूंदकर मनमर्ज़ी से काम करती हूँ, मैंने मनमाने ढंग से उसकी निंदा करके उसे दबाया, जिससे साबित होता है कि मेरा दिल अभी भी मेरे शैतानी स्वभाव के काबू में है। भले ही मैं अपने कर्तव्यों को लेकर ज़िम्मेदार और जागरूक थी, मगर जब सिद्धांतों और मुख्य समस्याओं की बात आती, तो मैं परमेश्वर का विरोध करते हुए उसकी बैरी बन जाती। मैंने देखा कि मुझे सत्य की समझ बिल्कुल नहीं थी, मेरे स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया था, मैं अब भी परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी नहीं थी। मेरे अगुआ की काट-छाँट और निपटान के साथ-साथ परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन के बिना, मैं कभी खुद को नहीं पहचान पाती।

अब, सत्य के सिद्धांतों से जुड़े कुछ अहम मुद्दों में, मैं सत्य की खोज करके सिद्धांतों के अनुसार काम कर पाती हूँ, अब मैं आँखें मूंदे अहंकारी स्वभाव से काम नहीं करती। मैं अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करती हूँ : मेरा स्वभाव अब भी बहुत भ्रष्ट और सोच खोटी है, अपने स्वभाव में बदलाव लाने के लिए मुझे निरंतर परमेश्वर के न्याय, ताड़ना, काट-छाँट, निपटान, दंड और अनुशासन का अनुभव करना होगा। मेरी प्रार्थना है कि परमेश्वर का न्याय और ताड़ना कभी मेरा साथ न छोड़े, ताकि मैं अपनी भ्रष्टता और विद्रोही स्वभाव को अधिक गहराई से समझ सकूँ और परमेश्वर के प्रति सच्ची आज्ञाकारिता हासिल कर सकूँ।

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