दूसरों को बेबस करने पर सोच-विचार
कुछ साल पहले, मैं कलीसिया में गीत लिखने का अभ्यास कर रही थी। इस काम पर और सिद्धांतों पर मेरी पकड़ बढ़ने से बेहतर नतीजे मिलने लगे। समय बीतने के साथ लोग मेरे बारे में अच्छा सोचने लगे। गीत लिखने में दिक्कत होते ही वे मुझसे राय लेने आ जाते। अमूमन हर कोई मेरी राय से सहमत रहता था, इसलिए मैं खुद को शाबाशी देती रहती। मुझे लगता था कि मैं उनसे बेहतर हूँ, जीनियस हूँ और मेरे बिना टीम का काम नहीं चलेगा। मेरे सिर पर हमेशा श्रेष्ठ होने का नशा सवार रहता। फिर बहन शीला हमारे पास गीत लिखने आई। सुपरवाइजर ने उसे मेरे साथ जोड़कर मुझे उसकी मदद और मार्गदर्शन करने को कहा। शुरुआत में मैंने उसे सिखाने की वाकई कोशिश की। अपने अनुभवों का सार देकर उसे बताया कि हमें किन चीजों पर निगाह रखनी चाहिए, लेकिन मेरी बताई कुछ बातों पर वह अब भी गड़बड़ कर देती थी। मैं यह सोचकर उससे कुछ नाराज-सी हो गई कि मैंने जो बातें बता दीं, उनमें भी वह गलतियाँ कर रही है। क्या वह इसमें दिल लगा भी रही है? उसके बाद गलतियाँ बताते हुए मैं उसे जोर से डाँटती, “मैं पहले ही यह दिक्कत समझा चुकी हूँ। तुम वही गलतियाँ क्यों दोहरा रही हो? क्या तुम कोशिश भी करती हो?” एक बार सभा के दौरान, शीला ने कहा कि वह अपने काम में गलतियाँ करने और निपटे जाने से डरती है। यह सुनकर मैं परेशान हो गई। हाल-फिलहाल मैं उसके काम में बहुत गलतियाँ निकालकर उसे डाँट-फटकार भी रही थी। क्या मैं उसे बेबस कर रही थी? लेकिन फिर मैंने सोचा, वह हमेशा गलतियाँ करती रहती है, इसलिए इनके बारे में बताना गलत तो नहीं है। अगर मैं चुप रही तो क्या वह इन्हें जान पाएगी और तेजी से बदल भी पाएगी? मेरी नीयत बुरी नहीं है। मैं तो बस यह चाहती थी कि वह माहिर हो जाए और काम से समझौता न करे। धीरे-धीरे मैंने देखा कि शीला को जब काम में दिक्कतें आतीं या उसे कोई विचार नहीं सूझते, तो वह मुझे नहीं बताती थी। ऊपर से, वह नकारात्मक भी हो गई, उसे कभी नहीं लगा कि यह काम कर सकती है। दरअसल, मैंने अकेले शीला के साथ ही इस तरह काम नहीं किया था। दूसरे भाई-बहनों से भी मैं ऐसे ही पेश आती थी। मैं अपना सारा समय और सारी मेहनत काम में लगा देती थी, कभी-कभी तो देर रात तक काम करती थी, ताकि उसे बेहतर ढंग से कर सकूँ। मुझे लगता था कि मैं दायित्व का बोझ उठाती हूँ और अपने काम के लिए समर्पित हूँ। जब मैं अपने आस-पास दूसरे लोगों को जल्दी सोते देखती, तो यह सोचकर कि वे अपने काम में बोझ नहीं उठाते, मैं उन्हें डाँटती थी, “तुम्हें दायित्व का बोझ उठाना चाहिए, कीमत चुकानी चाहिए, आराम के पीछे मत भागो!” जब बहनें थक जातीं और अपनी टाँगें सीधी करने के लिए उठ जातीं या थोड़ा-सा बतियाने लगतीं, तो मुझे लगता कि उनका ध्यान अपने काम में नहीं है। मैं नाक-भौंह सिकोड़कर उन्हें डाँटने लगती, “यह काम का वक्त है, उस पर अपना ध्यान लगाओ। क्या इस तरह गप्पें मारकर काम लटकेगा नहीं?” दूसरे भाई-बहन भी धीरे-धीरे मुझसे कटने लगे, कोई दिक्कत या कठिनाई होने पर मेरे पास आना बंद कर दिया। मैंने खुद को बहुत अलग-थलग पाया, दूसरों से कोई तालमेल नहीं रहा। मुझे बहुत अजीब लग रहा था, लेकिन पता नहीं था कि यह समस्या क्यों हो रही है।
कुछ महीनों बाद एक दिन अचानक अगुआ ने मेरे पास आकर सख्ती से कहा, “दूसरे लोग कह रहे हैं कि तुम उन्हें डाँटती-फटकारती और बेबस करती हो। भाई-बहनों का तुमसे बहुत दम घुटता है, वे खुलकर काम नहीं कर पाते। यह खराब मानवता है।” अगुआ से यह सुनकर लगा जैसे मेरे मुँह पर तमाचा पड़ा हो, और मेरा सिर घूमने लगा। खास कर “लोगों को बेबस करना” और “खराब मानवता” जैसे शब्द दिल में छुरी की तरह चुभे। मन में तूफान लोटने गया। मैं ऐसी कैसे बन गई, जिसकी मानवता खराब है, जो दूसरों को बेबस करती है? मैं उनका दम कैसे घोंट रही थी? मैं उस रात बिल्कुल सो नहीं पाई। हर बात दिमाग में गूँज रही थी, मैं बहुत परेशान हो गई। मैंने सोचा कि मैं सहज रूप से साफगोह हूँ—सीधे-सपाट कह देती हूँ। लेकिन जो कुछ कहती हूँ सच कहती हूँ। जब मैं किसी में दिक्कत देखती हूँ तो मुझमें सीधे बताने की हिम्मत है; मैं दूसरों की नाराजगी मोल लेने से नहीं डरती। मुझे लगा कि यह धार्मिक है। इससे दूसरे बेबस कैसे हो सकते हैं, यह खराब मानवता कैसे हुई? लेकिन अगुआ ने कहा कि मैं दूसरों को बेबस कर रही हूँ, तो अब बदलने पर ध्यान दूँगी और सबको अपना नया रूप दिखाऊँगी। तब कोई नहीं कहेगा कि मैं उन्हें बेबस कर रही हूँ या मुझमें खराब मानवता है। उसके बाद, मैं अपने लहजे पर ध्यान देने लगी, बोलने के अंदाज को भी ठीक किया। हमेशा यही सोचा कि चीजों को कैसे थोड़ी और चतुराई से पेश करूँ ताकि लोगों के अहं को चोट न पहुँचे, उन्हें बुरा न लगे। कभी-कभी मैं कोई समस्या देखकर इस डर से खुद नहीं बताती कि कोई कहेगा कि मैं उसे बेबस कर रही हूँ। इसके बजाय मैं सुपरवाइजर से संगति करवाती। धीरे-धीरे मैंने पहले जैसी डाँट-फटकार बंद कर दी तो लोग कहने लगे कि मुझमें कुछ बदलाव दिखने लगा है। लेकिन मुझे सुकून नहीं था, न ही मैं सहज थी। मैं काफी उदास थी और बंधन महसूस कर रही थी। मैं तलवार की धार पर चल रही थी और हर शब्द नाप-तौल कर बोलती थी। उस वक्त मैं खुद से पूछती : “क्या इस व्यवहार से सच्चा पश्चात्ताप और बदलाव झलक रहा है? जब मैं दूसरों से बात करती हूँ तो कोई बेबस नहीं होता, लेकिन मुझे क्यों बेबसी महसूस होती है?” इस पीड़ा और उलझन की हालत में मैंने सत्य खोजने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की, उससे प्रबोधन और मार्गदर्शन माँगा ताकि मैं अपनी दशा पर आत्म-चिंतन कर इसे समझ सकूँ।
एक बार भक्ति में मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा। “पश्चात्ताप करते समय सबसे पहले की जाने वाली चीज यह समझना है कि तुमने क्या गलत किया है; यह देखना है कि तुम्हारी गलती कहाँ है, समस्या का सार क्या है, और तुमने कैसा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया है; तुम्हें इन बातों पर विचार करना चाहिए और सत्य स्वीकारना चाहिए, फिर सत्य के अनुसार अभ्यास करना चाहिए। सिर्फ यही पश्चात्ताप का रवैया है। दूसरी ओर, यदि तुम व्यापक रूप से शातिर तरीकों पर विचार करते हो, तुम पहले की तुलना में अधिक धूर्त बन जाते हो, तुम्हारी तरकीबें और भी अधिक चालाकी भरी और गुप्त होती हैं, और तुम्हारे पास चीजों से निपटने के और भी तरीके होते हैं, तो समस्या सिर्फ धोखेबाज होने जितनी सरल नहीं है। तुम छलपूर्ण साधनों का उपयोग कर रहे हो और तुम्हारे पास ऐसे रहस्य हैं जिन्हें तुम प्रकट नहीं कर सकते। यह बुराई है। न सिर्फ तुमने पश्चात्ताप नहीं किया है, बल्कि तुम और ज्यादा धूर्त और धोखेबाज बन गए हो। परमेश्वर देखता है कि तुम हठी और दुष्ट हो, एक ऐसा व्यक्ति जो सतही तौर पर यह मानता है कि वह गलत था, और निपटे जाने और काट-छाँट किए जाने को स्वीकारता है, लेकिन वास्तव में जिसमें पश्चात्ताप का रवैया लेशमात्र भी नहीं होता। हम ऐसा क्यों कहते हैं? क्योंकि जब यह घटना हो रही थी या उसके बाद, तुमने सत्य बिल्कुल नहीं खोजा, तुमने चिंतन करने और खुद को जानने का प्रयास नहीं किया और तुमने सत्य के अनुसार अभ्यास नहीं किया। तुम्हारा रवैया समस्या हल करने के लिए शैतान के फलसफे, तर्क और तरीकों का उपयोग करने का है। वास्तव में तुम समस्या से बचकर निकल रहे हो और उसे साफ-सुथरे पैकेज में लपेट रहे हो, ताकि दूसरे समस्या का कोई नामोनिशान न देख पाएँ, उन्हें कोई सुराग न मिले। अंत में, तुम्हें लगता है कि तुम बहुत सयाने हो। ये वे चीज़ें हैं जो परमेश्वर को नज़र आती हैं, बजाय इसके कि तुम वास्तव में आत्म-चिंतन करो, पाप स्वीकारो और पश्चात्ताप करो, उस मामले के सामने आते ही, जो आ पड़ा है, फिर सत्य की तलाश करो और सत्य के अनुसार अभ्यास करो। तुम्हारा रवैया सत्य की तलाश या उसका अभ्यास करने का नहीं है, न ही यह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के प्रति समर्पण करने का है, बल्कि समस्या को हल करने के लिए शैतान की तरकीबों और तरीकों का उपयोग करने का है। तुम दूसरों को अपने बारे में एक गलत धारणा देते हो और परमेश्वर द्वारा उजागर किए जाने का विरोध करते हो, और परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जिन परिस्थितियों का आयोजन किया है, उनके प्रति रक्षात्मक और टकरावपूर्ण होते हो। तुम्हारा दिल पहले से ज्यादा अवरुद्ध और परमेश्वर से अलग है। इस तरह, क्या इसमें से कोई अच्छा परिणाम आ सकता है? क्या तुम अभी भी शांति और आनंद का लाभ उठाते हुए प्रकाश में रह सकते हो? नहीं रह सकते। अगर तुम सत्य और परमेश्वर से दूर हो जाते हो, तो तुम निश्चित रूप से अँधेरे में गिरोगे और रोते हुए दाँत पीसोगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज से ही परमेश्वर के बारे में अपनी धारणाओं और गलतफ़हमियों को दूर किया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने सीखा कि सच्चे पश्चात्ताप और बदलाव के लिए सच्चा आत्म-चिंतन जरूरी है, साथ ही अपने भ्रष्ट स्वभाव और समस्याओं के सार की समझ भी होनी चाहिए। हमें जानना होगा कि हमारे दोष की जड़ कहाँ है, और अपनी भ्रष्टता दूर करने के लिए सत्य खोजना चाहिए। अपनी दशा पर नजर डालूँ तो जब अगुआ ने दूसरों को बेबस करने वाली मेरी दिक्कत सामने रखी, तो मैंने जरा भी सोच-विचार नहीं किया, न यह जानने के लिए सत्य खोजा कि असल में दूसरों को बेबस करने का मतलब क्या है, मेरा कौन-सा बर्ताव लोगों को बेबस करता है, इस समस्या पर परमेश्वर के वचन क्या प्रकाश डालते हैं, वैसे व्यक्ति को लेकर परमेश्वर का रुख क्या होता है, आदि। इसके बजाय मैंने अपनी इस कपोल कल्पना के अनुसार कदम बढ़ाया कि मैं बड़ी मुँहफट हूँ और मेरा लहजा ठीक नहीं है, इसलिए लोग बेबस होते हैं। सबको यह दिखाने के लिए कि मैं बदल चुकी हूँ, मैंने अपने लहजे और बर्ताव को ठीक किया। अब मैं कोई समस्या देखकर बेबाकी से नहीं बताती थी; बल्कि मैं शरीफ बनने लगी, वही कहती जिससे किसी को बुरा न लगे। कभी-कभी मैं दूसरों को सिद्धांतों का साफ उल्लंघन करते देखती, लेकिन बताने से डरती थी कि कहीं लोग यह न कहें कि मैं उन्हें बेबस कर रही हूँ, इसलिए मैं अनदेखा कर देती थी या सुपरवाइजर को बता देती ताकि वही इसे संभाले। कुछ समय तक इस तरह अभ्यास करने के बाद, भले ही लोग मानने लगे कि मैं उन्हें पहले जैसी बेबस नहीं करती, पर मैं सिर्फ अपना व्यवहार बदल रही थी, अपना जीवन स्वभाव नहीं। जब मुझसे निपटा गया तो मैंने अपना भ्रष्ट स्वभाव ठीक करने के लिए सत्य नहीं खोजा। मैंने सिर्फ संयम बरता और झूठ का मुखौटा ओढ़ लिया। मेरी उदासी बढ़ने और दम घुटने का यही कारण था। मैं संभल-संभल कर चल रही थी और अपने हर शब्द को लेकर कुछ ज्यादा ही सचेत थी। यह जीने का थकाऊ तरीका था। सत्य की खोज और नियमों का पालन न करके मैंने अपने लिए मुसीबत बुला ली। लिहाजा उस समय मैंने सोचा कि मैं आगे से ऐसा नहीं कर सकती। मुझे परमेश्वर की शरण में आना होगा ताकि सत्य खोज सकूँ, अपनी दिक्कतों पर आत्म-चिंतन करूँ और अपनी नकारात्मक दशा से निकल सकूँ।
बाद में मैंने दूसरों को बेबस करने के बारे में परमेश्वर के वचन खोजे और आत्म-चिंतन के दौरान उन पर अमल किया। एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा। “अगर तुम केवल सिद्धांत की बातें दोहराते हो, और लोगों को व्याख्यान देते हो, उनसे निपटते हो, तो क्या तुम उन्हें सत्य समझा सकते हो और उसकी वास्तविकता में प्रवेश करा सकते हो? जिस सत्य की तुम संगति करते हो, अगर वह वास्तविक नहीं है, अगर वह सिद्धांत के शब्दों के अलावा कुछ नहीं है, तो तुम कितना भी उनसे निपटो और उन्हें व्याख्यान दो, उसका कोई लाभ नहीं होगा। क्या तुम्हें लगता है कि लोगों का तुमसे डरना और जो तुम उनसे कहते हो वह करना, और विरोध करने की हिम्मत न करना, उनके सत्य को समझने और आज्ञाकारी होने के समान है? यह एक बड़ी गलती है; जीवन में प्रवेश इतना आसान नहीं है। कुछ अगुआ एक मजबूत छाप छोड़ने की कोशिश करने वाले एक नए प्रबंधक की तरह होते हैं, वे अपने नए प्राप्त अधिकार को परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर थोपने की कोशिश करते हैं ताकि हर व्यक्ति उनके अधीन हो जाए, उन्हें लगता है कि इससे उनका काम आसान हो जाएगा। अगर तुममें सत्य की वास्तविकता का अभाव है, तो जल्दी ही तुम्हारा असली आध्यात्मिक कद उजागर हो जाएगा और तुम्हारे असली रंग सामने आ जाएँगे, और तुम्हें निकाला भी जा सकता है। कुछ प्रशासनिक कार्यों में थोड़ा निपटान, काट-छाँट और अनुशासन स्वीकार्य है। लेकिन अगर तुम सत्य की संगति करने में असमर्थ हो, तो अंत में, तुम समस्या हल करने में असमर्थ होगे, और कार्य के परिणामों को प्रभावित करोगे। अगर, कलीसिया में चाहे जो भी समस्याएँ आएँ, तुम लोगों को व्याख्यान और दोष देना जारी रखते हो—अगर तुम हमेशा बस अपना आपा खोते हो—तो यह तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव है जो प्रकट हो रहा है, और तुमने अपनी भ्रष्टता का बदसूरत चेहरा दिखा दिया है। अगर तुम हमेशा मंच पर खड़े होकर इसी तरह लोगों को व्याख्यान देते हो, तो जैसे-जैसे समय बीतेगा, लोग तुमसे जीवन का प्रावधान प्राप्त करने में असमर्थ हो जाएँगे, वे कुछ भी वास्तविक हासिल नहीं करेंगे, बल्कि तुमसे घृणा करेंगे और तुम्हें ठुकरा देंगे। इसके अलावा, कुछ लोग ऐसे होंगे, जो विवेक की कमी के कारण तुमसे प्रभावित होकर इसी तरह दूसरों को व्याख्यान देंगे, और उनसे निपटेंगे और उनकी काट-छाँट करेंगे। वे भी इसी तरह क्रोधित हो जाया करेंगे और अपना आपा खो दिया करेंगे। तुम न केवल लोगों की समस्याएँ हल करने में असमर्थ होगे—तुम उनके भ्रष्ट स्वभाव को भी बढ़ावा भी दोगे। और क्या यह उन्हें विनाश के मार्ग पर नहीं ले जा रहा? क्या यह दुष्कर्म नहीं है? अगुआ को मुख्य रूप से सत्य के बारे में संगति और जीवन का प्रावधान करते हुए अगुआई करनी चाहिए। अगर तुम हमेशा मंच पर खड़े होकर दूसरों को व्याख्यान देते हो, तो क्या वे सत्य समझ पाएँगे? अगर तुम कुछ समय तक इसी तरह से काम करते रहे, तो जब लोग तुम्हारी असलियत देख लेंगे, वे तुम्हें छोड़ देंगे। क्या तुम इस तरह से काम करके लोगों को परमेश्वर के सामने ला सकते हो? तुम निश्चित रूप से नहीं ला सकते; तुम सिर्फ कलीसिया का काम खराब कर सकते हो और परमेश्वर के सभी चुने हुए लोगों को तुमसे घृणा करने और तुम्हें छोड़ देने के लिए बाध्य कर सकते हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों पर सोच-विचार करते हुए मैंने जाना कि दूसरों की दिक्कतें देखकर भी उनकी मदद करने के लिए संगति न करना या अभ्यास का मार्ग न बताना, और इसके बजाय गलतियों के लिए उन्हें डाँटना-फटकारना और उन पर वह सब करने का दबाव डालना जो आप चाहते हैं, संकीर्ण व्यवहार है। परमेश्वर के वचनों की रोशनी में मैंने खुद को वैसा ही पाया। शीला जब पहली बार गीत लिखने का अभ्यास करने लगी, तो उसे काम के कई तौर-तरीके पता नहीं थे, उससे गलतियाँ होना लाजिमी था। सहयोगी होने के नाते मुझे प्यार से उसकी मदद कर सहारा देना चाहिए था, और मिल-बैठकर उसकी गलतियों के कारण जानने थे, फिर इन्हें दूर करना चाहिए था। लेकिन मैंने उसके असली आध्यात्मिक कद या परेशानियों को ध्यान में नहीं रखा। मैंने न तो उसे समझने की कोशिश की, न उसका लिहाज किया और न ही उसकी गलतियों के मूल कारण खोजे। मेरे मन में उसके लिए बस नफरत थी, मैंने उस पर कर्तव्य के प्रति समर्पित न होने का ठप्पा लगा दिया। मैं उसे हरदम जोर से डाँटती-फटकारती थी, जिससे वह बेबस हो जाती और इस बुरी स्थिति ने उसके काम पर असर डाला। मैं दूसरे भाई-बहनों के साथ बोल-चाल में भी बिल्कुल वैसी ही थी। अगर मैं देखती कि कोई दूसरा मुझसे पहले सोने चला गया है, काम से थोड़ी फुर्सत लेकर टहल रहा है, या कुछ गपशप कर रहा है, तो मैं सोचती थी कि वह अपने काम में लापरवाह है, दैहिक सुखों की परवाह करता है, और मैं उसे नीची निगाह से देखती थी। मैं हमेशा दूसरों को डाँटती थी, जिससे वे मेरा विरोध कर मुझसे कटने लगे। दूसरों के साथ इस तरह बातचीत और काम-काज करके उन्हें कोई सबक या फायदा तो मिला नहीं, उलटे वे डरकर बेबस हो गए। मुझमें न तो दूसरों के लिए प्यार था, न मानवता ही थी। हकीकत में, देर तक काम करने के बाद उठकर आस-पास टहलना या कुछ देर गपशप या आराम करना बहुत ही सामान्य बात है। लेकिन मैं इस पर जोर देती थी कि हर कोई मेरी तरह हो, देर से सोने जाए और बेवजह गपशप न करे। मैं इतनी घमंडी और पाखंडी थी। मैं भ्रष्टता के साथ दूसरों से पेश आती थी, परमेश्वर के वचनों या सत्य के सिद्धांतों के अनुसार नहीं चलती थी। इससे लोगों का दम घुटने लगा और वे बेबस हो गए। सोच-विचार के दौरान इस बात पर आत्मग्लानि होने से मैं परेशान हो गई। मैंने देखा कि मुझमें वाकई न तो विवेक है, न ही मानवता।
मैंने बाद में परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा जिससे मुझे इस समस्या की जड़ को जानने में मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं, “अगर, अपने हृदय में, तुम वास्तव में सत्य को समझते हो, तो तुम्हें पता होगा कि सत्य का अभ्यास और परमेश्वर की आज्ञा का पालन कैसे करना है, तुम स्वाभाविक रूप से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू कर दोगे। अगर तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह सही है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है, तो पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा—ऐसी स्थिति में तुम्हारे परमेश्वर को धोखा देने की संभावना कम से कम होगी। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जानबूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, उनके कारण तुम खुद को ऊँचा उठाओगे, निरंतर खुद का दिखावा करोगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हारे दिल से परमेश्वर का स्थान छीन लेंगे, और अंतत: तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुमसे अपने ही विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजा करवाएँगे। लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन इतनी बुराई करते हैं!” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से एहसास हुआ कि मैं अपनी अहंकारी शैतानी प्रकृति के कारण ही दूसरों के साथ इतने रौब-दाब से पेश आती थी। मैं लंबे अरसे से गाने लिख रही थी, इसलिए सिद्धांत और कौशल जानने के कारण सुपरवाइजर मुझसे दूसरों की खूब मदद और मार्गदर्शन कराना चाहता था। मैं इसे निजी पूँजी मानती थी, सोचती थी कि मैं वाकई कोई हस्ती हूँ, दूसरों से बेहतर हूँ। पहले मैं खुद को मुकम्मल मानती थी और सबको नीची निगाहों से देखती थी। जब शीला गीत लिखने में गलतियाँ करती रही, तो मैंने आपा खोकर उसे डाँटा, लेकिन दरअसल उसे कम आँककर मैं खुद को ऊपर उठा रही थी और चाहती थी कि हर कोई देख ले कि मैं उससे बेहतर हूँ। वह ऐसी गलतियाँ करके दिक्कतें खड़ी कर रही है, जो मैं नहीं करती; वह असावधान और गैर-जिम्मेदार है, जबकि मैं अपने काम में गंभीर और जिम्मेदार हूँ। लेकिन अब लगता है कि शीला में कई खूबियाँ भी थीं। वह खूब काबिल थी, तेजी से गाने लिखना सीख जाती और बहुत-से अच्छे सुझाव देती थी। लेकिन मेरी निगाह कमियों पर ही जमी रही और उसकी खूबियाँ नहीं देख पाई। उसके लिए मैंने ऊँचे मापदंड और कड़ी शर्तें तय कर दी थीं। एक बार मैंने उसकी जो गलती बता दी, उसे दोहराते मैं देख नहीं सकती थी। कभी-कभी जब मैं दूसरों को गपशप करते या जल्दी सोने जाते देखती, तो उन्हें भी झाड़ पिला देती थी। मैंने अपनी निजी अपेक्षाओं और मानकों को सत्य के सिद्धांत जैसा माना और दूसरों को इनका पालन करने को कहा, और जब वे पीछे रह गए तो डाँटा-फटकारा। मैं ऐसे पेश आती थी मानो मेरे बराबर कोई है ही नहीं, मुझमें कोई दोष नहीं, मैं परिपूर्ण हूँ। मैं बहुत घमंडी और विवेकहीन थी। सच तो यह है कि मैं अक्सर अपने काम में गलतियाँ करती थी। कभी-कभी मेरी असावधानी और लापरवाही के कारण हमारे काम पर बुरा असर पड़ा। जब काम में चुनौतियाँ पेश आईं तो मैं भी अनमनी और खिन्न होकर पीछे हट गई; मैंने कीमत अदा नहीं करना चाहा। मैं दूसरों से कोई बेहतर नहीं थी, लेकिन मैंने न अपने दोष देखे, न ही दिक्कतें। खुद को हमेशा दूसरों से श्रेष्ठ समझा। मैं वाकई खुद की समझ नहीं थी। इसका एहसास होने पर मैं बहुत शर्मिंदा हुई। यह सोचकर भी कोफ्त हुई कि मैं कितनी घोर घमंडी हूँ और मानवता के साथ नहीं जीती हूँ।
उसके बाद सत्य खोजने के दौरान मुझे एहसास हुआ, मैं यही सोचता था कि समस्याएँ देखकर दूसरों को बता सकने और सिर्फ सही बातें कहने का अर्थ यह है कि मुझमें खुलकर बोलने और दूसरों की नाराजगी मोल लेने की हिम्मत है, और यह धार्मिकता का बोध होना दिखाता है। लेकिन दरअसल मैं धार्मिकता और अहंकार में फर्क नहीं कर सकी। मैंने प्रार्थना करने और सत्य खोजने के दौरान परमेश्वर के सामने यह समस्या रखी। एक बार एक सभा में कलीसिया अगुआ ने इस बारे में अपनी समझ पर संगति की। उसने असल में कहा यह कि धार्मिकता का मतलब सत्य को सर्वोपरि रखना और परमेश्वर के कार्य की रक्षा करना है। अगर आप वाकई सत्य समझते हैं, जानते हैं कि सत्य और परमेश्वर के वचनों के अनुरूप क्या है, तो इसे सर्वोपरि रखना चाहिए। लेकिन परमेश्वर के वचनों या सत्य को सर्वोपरि रखने की हिम्मत न करना धार्मिकता बोध की कमी है। अहंकारी और दंभी होने का मतलब है ऐसा शैतानी स्वभाव जो परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और प्रतिरोध करता है। परमेश्वर के वचनों, कार्यों और अपेक्षाओं की अनदेखी कर अपने बारे में ही सोचते रहना, अपने ही विचारों और धारणाओं से चिपके रहना, यह सोचना कि हम सब कुछ जानते हैं—यही अहंकारी और दंभी होना है। अहंकार पूरी तरह धार्मिकता और सिद्धांतों का पालन करने के उलट है। वे बिल्कुल भी मेल नहीं खाते। अगुआ की संगति सुनकर मैंने अहंकार और धार्मिकता का कुछ अंतर समझा। धार्मिकता वाला व्यक्ति ही सत्य के सिद्धांत सर्वोपरि रखकर कलीसिया के कार्य की रक्षा कर सकता है। कलीसिया के हितों को चोट पहुँचते देखकर वे उचित फैसले ले सकते हैं, संगति के जरिए इसे रोक सकते हैं, और दूसरों की समस्या बता सकते हैं। कभी-कभी वे कठोर बातें भी कह सकते हैं, लेकिन उनकी बात निष्पक्ष, व्यावहारिक और कलीसिया के कार्य के हित में होती है। यह दूसरों के जीवन प्रवेश में लाभकारी होता है, इसमें निजी हित साधने के इरादे नहीं होते। यही धार्मिकता की अभिव्यक्ति है। मैंने सोचा कि जब अगुआ किसी को गैर-जिम्मेदार होते और काम बिगाड़ते देखे, तो कभी-कभी उसकी काट-छाँट और निपटान कर सकता है। उसका लहजा कठोर और मुँहफट भले ही हो, लेकिन वह समस्या की प्रकृति और परिणाम बताता है, ताकि लोग फौरन आत्म-चिंतन और पश्चात्ताप करें, और इससे काम के नुकसान से बचा जा सकता है और लोगों को अपने बारे में सोचने और जानने में मदद मिलती है। इसका सकारात्मक परिणाम मिलता है। लेकिन दूसरों को बेबस करना अहंकार दिखाना है। यह तो अपने मानकों और विचारों के हिसाब से काम करवाने के लिए लोगों पर दबाव बनाना हुआ। आपकी नीयत खुद को श्रेष्ठ दिखाने की होती है। नतीजतन, आप लोगों पर बहुत-से नियम थोपकर उन्हें भयभीत कर देते हैं और बेबस, बंधक और नकारात्मक महसूस कराते हैं। शीला के साथ काम करते हुए जब मैंने उसे काफी गलतियाँ करते देखा, मैंने न तो यह खोजा कि वह गलतियाँ क्यों कर रही है, न ही सकारात्मक संगति या मदद की। बल्कि, उसकी समस्याओं पर उसे डाँटा-फटकारा, जिससे वह बहुत बेबस हो गई। मेरा अहंकारी स्वभाव साफ दिख रहा था, मैं कलीसिया के कार्य को धार्मिकता से सर्वोपरि नहीं रख रही थी। अगर कोई नेकनीयत, सिद्धांत प्रिय है और कलीसिया के कार्य को सर्वोपरि रखता है, समस्याएँ देखकर निष्पक्ष होकर बता सकता है, तो भले ही वह कठोर बातें करे, वह अहंकारी नहीं होता। ऐसा अभ्यास दूसरों को सबक देने वाला और काम के हित में होता है। इसे ही सत्य का अभ्यास और धार्मिकता दिखाना कहते हैं। लिहाजा अगर आप अहंकारी होने और दूसरों को बेबस करने की समस्या दूर करना चाहते हैं, तो आपका ध्यान सिर्फ चतुराई से बातें करने या दिक्कतें देखकर भी चुप्पी साधने पर नहीं होना चाहिए। आपका ध्यान आत्म-चिंतन करने और अपना अहंकारी स्वभाव बदलने पर रहना चाहिए, आप अपने शब्दों के पीछे के इरादे जाँचें, अपने उचित स्थान पर टिके रहें, अपनी प्राथमिकताओं और धारणाओं के हिसाब से न तो दूसरों से अपेक्षाएँ रखें, न इस आधार पर उनकी आलोचना ही करें।
मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा जिससे मुझे अभ्यास के मार्ग की और स्पष्ट समझ मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं, “परमेश्वर के चुने हुए लोगों में कम से कम अंतःकरण और समझ होनी चाहिए और उन्हें सामान्य मानवता के मानकों के अनुसार लोगों से जुड़ना, बातचीत करना और चीजें सँभालनी चाहिए। स्वाभाविक रूप से, परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सत्य के सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना सबसे अच्छा है, यह परमेश्वर को संतुष्ट करता है। तो परमेश्वर द्वारा अपेक्षित सत्य के सिद्धांत क्या हैं? सिद्धांत यह है कि जब दूसरे कमजोर और नकारात्मक हों तो लोग उनकी कमजोरी और नकारात्मकता समझें, लोग दूसरों के दर्द और कठिनाइयों के प्रति विचारशील रहें, और इन चीजों के बारे में पूछताछ करें, और सहायता और समर्थन की पेशकश करें, समस्याएँ हल करने में उनकी मदद करने के लिए उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़कर सुनाएँ, ताकि वे कमजोर न रहें और वे परमेश्वर के सामने लाए जाएँ। क्या अभ्यास करने का यह तरीका सिद्धांत के अनुरूप है? इस प्रकार अभ्यास करना सत्य के सिद्धांत के अनुरूप है। स्वाभाविक रूप से, इस प्रकार के संबंध भी सिद्धांत के अनुरूप होते हैं। जब लोग जानबूझकर हस्तक्षेप करने वाले और विघटनकारी होते हैं, या अपना कर्तव्य निभाते समय जानबूझकर लापरवाह और अनमने रहते हैं, अगर तुम इसे देखते हो और सिद्धांत के अनुसार मामले सँभालने में सक्षम हो, और उन्हें इन चीजों के बारे में बताकर उन्हें फटकार लगा सकते हो, और उनकी मदद कर सकते हो, तो यह सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप है। अगर तुम आँखें मूँद लेते हो, या उनके प्रति सहिष्णु होकर उनके दोष ढकते हो, यहाँ तक कि उनसे अच्छी-अच्छी बातें कहते, उनकी प्रशंसा और वाहवाही करते हो, नकली वचनों से उन्हें बहकाते भी हो, तो ऐसे व्यवहार, लोगों के साथ बातचीत करने, मुद्दों से निपटने और समस्याएँ सँभालने के ऐसे तरीके स्पष्ट रूप से सत्य के सिद्धांतों के विपरीत हैं, और उनका परमेश्वर के वचनों में कोई आधार नहीं है—इस स्थिति में ये व्यवहार और लोगों के साथ बातचीत करने और मुद्दे सँभालने के तरीके स्पष्ट रूप से अनुचित हैं” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचकर मुझे एहसास हुआ कि भाई-बहनों के साथ बोलचाल और काम-काज के दौरान हमें निष्पक्ष व्यवहार करना और उनकी खूबियाँ देखना आना चाहिए। हम लोगों को सिर्फ इसलिए नीचा न समझें कि उनमें कुछ कमियाँ और दिक्कतें हैं। यह तर्कसंगत नहीं है। हरेक के आध्यात्मिक कद, काबिलियत और समझ-बूझ का स्तर अलग-अलग होता है। हमें निजी पसंद के आधार पर न तो उनसे अपेक्षा रखनी चाहिए, न ही उनकी आलोचना करनी चाहिए। दूसरों की दिक्कतें दिखने पर हमें प्यार से उनकी मदद करनी चाहिए, सत्य पर संगति कर उन्हें सहारा देना चाहिए, ताकि वे सत्य के सिद्धांत समझकर अभ्यास का मार्ग पा सकें। समस्याएँ हल करने का यही सबसे अच्छा तरीका है। जहाँ तक अक्सर लापरवाह होकर अपना काम बिगाड़ने वालों की बात है, उन्हें उजागर कर निपटा जा सकता है। इसी को कलीसिया के कार्य में जिम्मेदारी के साथ पेश आना कहते हैं, न कि दूसरों को बेबस करना। यह सब समझ में आते ही, मैं परमेश्वर के वचनों पर अमल करने लगी। उसके बाद जब मैं दूसरों के कार्यों में दिक्कतें देखती हूँ, तो पहले मैं उनके साथ बातचीत करके समस्या का कारण खोजती हूँ कि कहीं यह लापरवाह होने या सिद्धांतों की समझ न होने का मामला तो नहीं है। फिर मैं संगति के लिए परमेश्वर के समुचित वचन खोजकर समाधान का मार्ग तलाशती हूँ। अगर एक ही बात पर कई बार संगति करने के बाद भी वे खुद को नहीं बदलते और कलीसिया के कार्य में देरी करके उसे प्रभावित करते हैं, तो मैं उनकी काट-छाँट कर उनके साथ उचित रूप से निपटती हूँ। अब मैं बेबस महसूस नहीं करती।
मैंने देखा कि हमारी टीम की सदस्य बहन क्लैरा न तो दायित्व का बोझ उठाती थी, न अपने काम में सब कुछ झोंकती थी। इससे गीत लेखन का काम पिछड़ गया और नतीजे अच्छे नहीं रहे। उसकी समस्याएँ मैंने उसे बता दीं, लेकिन उसने इन्हें कबूल नहीं किया और खुद को सही ठहराने के लिए हर तरह के बहाने बनाए। मुझे एहसास हुआ कि वह खतरनाक दशा में है, और अगर उसने खुद को बदलकर सत्य में प्रवेश नहीं किया, तो काम को नुकसान होकर रहेगा। अगर बात काफी गंभीर हो गई तो वह बर्खास्त भी की जा सकती है। लिहाजा, उसके बाद मैंने बेबाकी से उसकी समस्याएँ बताईं, उसके व्यवहार की प्रकृति को उजागर किया और इसके जारी रहने के दुष्परिणाम बताए। तब जाकर उसे अपनी समस्या की गंभीरता का बोध हुआ और वह पश्चात्ताप करने और खुद को बदलने को राजी हो गई। उसके बाद, अपने काम को लेकर क्लैरा का रवैया काफी बदल गया और वह कहीं ज्यादा काम करने लगी। अब जब मैं दूसरों को सिद्धांतों का उल्लंघन करते और कलीसिया के कार्य से समझौता करते देखती हूँ, तो अब भी अहंकार दिखाने की इच्छा जोर मारती है। लेकिन मैं फौरन परमेश्वर से प्रार्थना कर खुद को याद दिलाती हूँ कि दूसरों से निष्पक्ष व्यवहार करना है, उन्हें मदद और लाभ देने का सबसे अच्छा तरीका खोजना है। कुछ समय तक इस तरह अभ्यास करने से दूसरों के साथ मेरे रिश्ते धीरे-धीरे सामान्य होते गए। एक दिन मैंने एक बहन को कहते सुना कि मेरी संगति से उसे अपनी दशा थोड़ी बदलने में मदद मिली। इससे मैं फूली नहीं समाई।
पिछले कुछ वर्षों के बारे में सोचूँ तो निपटे जाने के अनुभव से मुझे अपने बेबस कर देने वाले बर्ताव के बारे में सोचने-समझने में मदद मिली है, भाई-बहनों के साथ बातचीत करने और सामान्य मानवता के साथ जीने के लिए कुछ अभ्यास के मार्ग मिले हैं। इस थोड़ी-सी समझदारी और बदलाव का श्रेय मेरे लिए परमेश्वर के उद्धार को जाता है!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?