अब मैं अपराध के बंधन में नहीं हूँ

16 जून, 2024

जुलाई 2006 में एक दिन, जब मैं अपने सहकर्मियों के साथ बैठक में जा रही थी तभी अचानक मुझे गिरफ्तार कर लिया गया। उस रात, मुझे पूछताछ के लिए किसी अनजान जगह पर ले जाया गया। पुलिस को मेरे पास से कलीसिया के पैसों की रसीद मिली, तो उन्होंने एक-एक करके मुझसे भी पूछताछ की, कलीसिया के पैसों की सुरक्षा करने वालों और वरिष्ठ अगुआओं का नाम बताने के लिए मुझ पर दबाव बनाया। मैंने कोई जवाब नहीं दिया, तो उन्होंने मुझे चमड़े की बेल्ट से मारा, हथकड़ियाँ पहनाकर लोहे की जंजीर से लटका दिया। उन्होंने एक हफ्ते तक मुझे इसी तरह यातना दी। मैं भूखी-प्यासी थी, मुझमें जरा भी ताकत नहीं बची थी। आखिरकार मैं बेहोश हो गई। जब उठी, तो पता नहीं उन्होंने मुझे क्या पीने को दिया, पर मेरे मुँह में अजीब सा स्वाद था; मेरा दम घुट रहा था, और मेरे पूरे शरीर में तेज दर्द होने लगा। उस वक्त मेरे शरीर की तकलीफ बर्दाश्त के बाहर हो गई थी, और मैं नहीं जानती थी कि आगे वो मेरे साथ क्या करेंगे। मैं बहुत डरी हुई थी; मुझे डर था कि मैं यातना सह नहीं पाऊँगी और यहूदा बन जाऊँगी, तो मैंने सच्चे दिल से परमेश्वर से प्रार्थना की, अपनी गवाही में अडिग रहने के लिए मेरी मदद करने को कहा। यह देखकर कि इतनी यातना सहने के बाद भी मैंने कलीसिया के अगुआओं या पैसों का अता-पता नहीं बताया, पुलिस ने अपना रुख बदला और मुझे लुभाने के लिए पारिवारिक संबंधों का इस्तेमाल करते हुए कहा, “तुम कुछ सालों से घर नहीं गई हो। तुम्हारा परिवार और बच्चे तुम्हें बहुत याद करते होंगे। कलीसिया का पैसा कहाँ है? अगर तुम हमें सब बता दो, तो हम तुम्हें घर जाने देंगे।” उन्होंने मुझे कुछ पैसे दिखाते हुए यह भी कहा कि उन्हें कलीसिया के पैसे रखने वालों का पता चल चुका है। यह सुनकर, मैंने मन में सोचा, “क्योंकि उन्होंने पहले ही पैसे जब्त कर लिए हैं, तो अब उन्हें नाम बताने या न बताने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। अगर मैंने उन्हें कुछ जानकारी दे दी, तो शायद मुझे और सताया न जाए।” मैंने उन्हें कलीसिया के पैसों की सुरक्षा करने वाले एक परिवार के बारे में बता दिया, और पुलिस वो पैसा जब्त करने के लिए मुझे अपने साथ ले जाना चाहती थी। तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि मैं उनके जाल में फँस गई थी। तब तक, मुझसे जितना हो सकता था मैं उतना कष्ट सह चुकी थी। मैंने मन में सोचा, “मैं पैसों की सुरक्षा करने वाले परिवार को धोखा दे चुकी हूँ। अब अगर उन्हें वहाँ नहीं ले गई, तो वो निश्चित ही मुझ पर अत्याचार करते रहेंगे। और फिर, मुझे गिरफ्तार हुए एक हफ्ता हो गया है, और शायद कलीसिया के पैसों की जगह बदल दी गई हो।” इस गलत फैसले से मैंने पुलिस को पैसों की सुरक्षा करने वाले के घर पहुँचा दिया। मेरी गिरफ्तारी की खबर सुनकर कलीसिया ने तुरंत पैसों की जगह बदल दी थी। पैसों की सुरक्षा करने वाले परिवार का भाई गिरफ्तार होते-होते बचा, परमेश्वर की सुरक्षा से, वह पुलिस के छापे से बच निकला। क्योंकि पुलिस को कलीसिया के पैसे नहीं मिले, तो उसने मुझे मनमाने ढंग से एक साल नौ महीने के लिए जेल भेज दिया।

जेल में बिताया हरेक दिन कष्ट और पीड़ा से भरपूर था, खासकर तब जब मैं परमेश्वर के इन वचनों को याद करती : “मैं उन लोगों पर अब और दया नहीं करूँगा, जिन्होंने गहरी पीड़ा के समय में मेरे प्रति रत्ती भर भी निष्ठा नहीं दिखाई, क्योंकि मेरी दया का विस्तार केवल इतनी दूर तक ही है। इसके अतिरिक्त, मुझे ऐसा कोई इंसान पसंद नहीं, जिसने कभी मेरे साथ विश्वासघात किया हो, और ऐसे लोगों के साथ जुड़ना तो मुझे बिलकुल भी पसंद नहीं, जो अपने मित्रों के हितों को बेच देते हैं। चाहे जो भी व्यक्ति हो, मेरा यही स्वभाव है(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। मैं अच्छी तरह जानती थी कि उन्हें भाई का नाम बताकर मैं यहूदा बन गई थी। मैंने परमेश्वर के स्वभाव को नाराज किया था; मैंने ऐसा पाप किया था जिसे माफ नहीं किया जा सकता। यह सोचकर, मेरे दिल में बहुत पीड़ा हुई। मैंने परमेश्वर को धोखा दिया; निश्चित है कि वो मुझे नहीं बचाएगा। परमेश्वर में विश्वास करने का मेरा समय शायद पूरी तरह खत्म हो चुका था। तब से, मैं बहुत निराश हो गई और अपना हर दिन पीड़ा में बिताया। मेरा दिल दुखी था, लगा कि बेहतर होगा मैं मर ही जाऊँ। मैं बस मरने का इंतजार कर रही थी क्योंकि उस दिन मैं आजाद हो जाती। भले ही मैं अब भी परमेश्वर से प्रार्थना करती थी, पर जब भी अपने अपराध को याद करती, तो लगता कि परमेश्वर अब मुझे नहीं चाहता, और सोचती कि मैं उसके समक्ष आने लायक नहीं हूँ। जेल से छूटने के दो साल बाद, भाई-बहनों ने मुझे ढूँढ लिया, और यह देखते हुए कि मुझे थोड़ा आत्म-ज्ञान है, उन्होंने मुझे फिर से कलीसियाई जीवन शुरू करने दिया और मेरे लिए एक कर्तव्य की व्यवस्था की। मैं बहुत प्रभावित हुई और लगा कि परमेश्वर मुझे पश्चात्ताप का मौका दे रहा है, मैंने खुद को उसका और भी अधिक ऋणी पाया। मैं परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए फूट-फूट कर रोने लगी, “परमेश्वर! मैं सच में तुम्हारे समक्ष आने लायक नहीं हूँ। परिस्थितियों का सामना करते हुए, मैंने बिल्कुल भी गवाही नहीं दी। यहूदा बनकर मैंने अपने भाई को धोखा दे दिया, यह शर्म की बात है। आज, तुमने मुझे कलीसिया में वापस आकर अपना कर्तव्य निभाने का मौका दिया; मैं तुम्हारी दया देख सकती हूँ।” मैंने मन-ही-मन ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाने, अपने अपराध की भरपाई करने, और परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने का संकल्प लिया। बाद में, कलीसिया मुझे चाहे कोई भी कर्तव्य सौंपती, मैं हमेशा खुशी से सहयोग करती। मेरे सामने कितनी भी प्रतिकूल परिस्थितियाँ आईं, मैंने इन कठिनाइयों को मुझ पर हावी नहीं होने दिया। मैं अपने अपराध की भरपाई के लिए अपनी भरसक कोशिश करना चाहती थी।

एक दिन, मैंने सुना कि चेन हुआ ने गिरफ्तार होने के बाद यहूदा बनकर, कई अगुआओं, कर्मियों, और पैसों की सुरक्षा करने वाले परिवारों के बारे में बता दिया था, इसलिए उसे कलीसिया से हटा दिया गया। यह खबर सुनकर, मैं तुरंत अपने हालात के बारे में सोचने लगी। मैंने भी लोगों को धोखा दिया था, जिसके कारण पुलिस कलीसिया के पैसे जब्त करने ही वाली थी, और इसी वजह से, पैसों की सुरक्षा करने वाला भाई भी घर नहीं लौट सका। मैंने सोचा कि भाई को धोखा देने की मेरी प्रकृति चेन हुआ जैसी ही थी; यह बहुत बड़ा कलंक था। परमेश्वर मेरे अपराध को माफ नहीं करेगा। अब चेन हुआ को कलीसिया से हटा दिया गया है; शायद एक दिन मुझे भी हटाकर निकाल दिया जाए। यह सोचकर, मैं निराश बहुत हो गई। उसके बाद, कलीसिया जब भी मुझे कोई कर्तव्य सौंपती, तो मैं उसे निभाती तो थी, पर अब मेरे पास पहले की तरह परमेश्वर के लिए खुद को खपाने का जोश नहीं था। कभी-कभी, जब मुझे कीमत चुकाने और सत्य सिद्धांत खोजने की जरूरत होती, तो मैं उन्हें खोजती नहीं थी। मैं बस निर्धारित तरीके से काम पूरा करके और थोड़ी सी सेवा करके संतुष्ट हो जाती थी। मैंने इस पर भी विचार नहीं किया कि मेरे काम के परिणाम मिल रहे हैं या नहीं, मैं बस जरा सी अंतरात्मा पर निर्भर रहकर अपना कर्तव्य निभाती रही। मुझे याद है कि उस समय, एक बहन गिरफ्तारी के डर से अपना कर्तव्य निभाने की हिम्मत नहीं करती थी। मैं जानती थी कि मुझे उसकी मदद और सहयोग करना चाहिए, पर क्योंकि मैंने परमेश्वर को धोखा दिया था, तो मैं दूसरों के साथ संगति करने योग्य कैसे थी? परिणाम पाने के लिए संगति कैसे की जाए, इस बारे में चिंतन-मनन करने का मन बिल्कुल नहीं था, और मैंने बस यूँ ही सैद्धांतिक ज्ञान के बारे में थोड़ा-बहुत बोल दिया। मुझे पता था कि अपने कर्तव्य के प्रति ऐसा रवैया रखना परमेश्वर के इरादे के अनुरूप नहीं है, और मैं अपनी दशा बदलना चाहती थी, पर जैसे ही इस बारे में सोचती कि मैंने कितना बड़ा अपराध किया था, मैं बचाए जाने की सारी उम्मीद खो देती, मेरा दिल थका हुआ महसूस करता, और मेरा हर दिन निरुद्देश्य ही बीतता। जब मैंने अपने कर्तव्य निर्वहन में भ्रष्ट स्वभाव दिखाए, मैं जानती थी कि मुझे अपनी समस्या हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए और ऐसा करना मेरे काम और मेरे जीवन प्रवेश के लिए फायदेमंद रहेगा, मगर जैसे ही मैंने अपने अक्षम्य पाप के बारे में सोचा और यह भी कि मुझे भी निकाला जा सकता है, मैं यह नहीं कर पाई। मेरे लिए हर दिन अपना काम पूरा करना ही काफी था, और मैंने अपनी दशा ठीक करने के लिए सत्य खोजने पर ध्यान नहीं दिया। बाद में, अक्सर मुझे सिरदर्द रहने लगा, और बार-बार पेट खराब होने लगा। शुरुआत में, मैं अपनी दशा पर ठीक से ध्यान देती थी, पर समय के साथ, न सिर्फ मेरी बीमारी ठीक नहीं हुई, बल्कि यह और ज्यादा गंभीर हो गई। मैंने सोचा कि कहीं यह बीमारी परमेश्वर का दंड तो नहीं। पहले मैंने परमेश्वर को धोखा दिया था, जिससे वह मुझसे घृणा करने लगा था और अब मैं बीमार पड़ गई। निश्चित ही परमेश्वर मुझे नहीं चाहता था। कभी-कभी, मुझे अपने कर्तव्य में कोई परिणाम नहीं मिलते, तो लगता कि परमेश्वर मुझ पर काम नहीं कर रहा है। सत्य का अनुसरण करना और अपना कर्तव्य निभाते रहना मेरे लिए बेकार था। जब भी मन में ये विचार आते, तो मेरा दिल इतना बैठ जाता कि मैं बता नहीं सकती। तब मुझे सचमुच परमेश्वर को धोखा देने का पछतावा हुआ। अगर मैं थोड़ी देर और सह पाती, तो क्या मैं अपनी गवाही में अडिग नहीं रहती? मैंने भाई का नाम क्यों बताया? अपने देह-सुख की ज्यादा परवाह करने और परमेश्वर को चाहने वाला दिल न होने के कारण मुझे खुद से बेहद नफरत हुई। अगर मैं तब अपनी गवाही में अडिग रही होती, तो भी क्या मुझे यह आध्यात्मिक पीड़ा सहनी पड़ती? इस बारे में जितना सोचती, उतनी ही बेचैन होती, और मैं अक्सर नकारात्मकता की दशा में जीती थी।

एक बार, मैंने एक बहन को अपनी दशा के बारे में बताया, तो उसने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़कर सुनाया : “लोगों के अवसाद में डूबने का एक और कारण यह भी है कि वयस्क होने या सयाने होने से पहले ही लोगों के साथ कुछ चीजें हो जाती हैं, यानी वे कोई अपराध करते हैं, या कुछ बेवकूफी-भरे, उपहासपूर्ण और अज्ञानतापूर्ण काम करते हैं। इन अपराधों, उपहासपूर्ण और अज्ञानतापूर्ण करतूतों के कारण वे अवसाद में डूब जाते हैं। इस प्रकार का अवसाद अपनी ही निंदा है, और यह एक तरह से इसका निर्धारण भी है कि वे किस किस्म के इंसान हैं। ... जब भी वे सत्य पर कोई धर्मसंदेश या संगति सुनते हैं, यह अवसाद धीरे-धीरे उनके दिमाग, और उनके अंतरतम में पहुँच जाता है, और वे खुद से कई सवाल पूछते हैं, ‘क्या मैं यह कर सकता हूँ? क्या मैं सत्य का अनुसरण करने में समर्थ हूँ? क्या मैं उद्धार प्राप्त कर सकता हूँ? मैं किस किस्म का इंसान हूँ? मैंने पहले वह काम किया, मैं वैसा इंसान हुआ करता था। क्या मैं बचाए जाने से परे हूँ? क्या परमेश्वर अभी भी मुझे बचाएगा?’ कुछ लोग कभी-कभार अपनी अवसाद की भावना को जाने दे सकते हैं, उसे पीछे छोड़ सकते हैं। अपना कर्तव्य निभाने, दायित्व और जिम्मेदारियाँ पूरी करने में वे भरसक अपनी पूरी ईमानदारी और शक्ति लगा सकते हैं, सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करने में तन-मन लगा सकते हैं, और वे परमेश्वर के वचनों में अपने पूरे प्रयास उंडेल देते हैं। लेकिन जैसे ही कोई विशेष स्थिति या परिस्थिति सामने आती है, अवसाद की भावना उन पर फिर एक बार हावी हो जाती है, और उन्हें दिल की गहराई से दोषी महसूस करवाती है। वे मन-ही-मन सोचते हैं, ‘तुमने पहले वह करतूत की थी, तुम उस किस्म के इंसान थे। क्या तुम उद्धार पा सकते हो? सत्य पर अमल करने का क्या कोई तुक है? तुम्हारी करतूत के बारे में परमेश्वर क्या सोचता है? क्या परमेश्वर तुम्हारी करतूत के लिए तुम्हें माफ कर देगा? क्या अब इस तरह कीमत चुकाने से उस अपराध की भरपाई हो सकेगी?’ वे अक्सर खुद को फटकारते हैं, भीतर गहराई से दोषी महसूस करते हैं, और हमेशा शक्की बन कर खुद से कई सवाल पूछते हैं। अवसाद की इस भावना को वे कभी पीछे नहीं छोड़ पाते, त्याग नहीं पाते, और अपनी शर्मनाक करतूतों के लिए वे हमेशा बेचैनी महसूस करते रहते हैं। तो, अनेक वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी, ऐसा लगता है मानो उन्होंने कभी परमेश्वर के वचन सुने ही नहीं या उन्हें समझा ही नहीं। मानो वे नहीं जानते कि क्या उद्धार-प्राप्ति का उनके साथ कोई लेना-देना है, क्या उन्हें दोषमुक्त कर छुड़ाया जा सकता है, या क्या वे परमेश्वर का न्याय और ताड़ना और उसका उद्धार प्राप्त करने योग्य हैं। उन्हें इन सब चीजों का कोई अंदाजा नहीं है। कोई जवाब न मिलने और कोई सही फैसला न मिलने के कारण, वे निरंतर भीतर गहराई से अवसाद-ग्रस्त महसूस करते हैं। अपने अंतरतम में वे बार-बार अपनी करतूतें याद करते रहते हैं, वे उसे अपने दिमाग में बार-बार चलाते रहते हैं, शुरुआत से अंत तक याद करते हैं कि यह सब कैसे शुरू हुआ और कैसे खत्म। वे इसे कैसे भी याद करते हों, हमेशा पापी महसूस करते हैं और इसलिए वर्षों तक इस मामले को लेकर निरंतर अवसाद-ग्रस्त महसूस करते हैं। अपना कर्तव्य निभाते समय भी, किसी कार्य के प्रभारी होने पर भी, उन्हें लगता है कि उनके लिए बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं रही। इसलिए, वे कभी भी सत्य का अनुसरण करने के मामले का सीधे तौर पर सामना नहीं करते, और नहीं मानते कि यह सबसे सही और अहम चीज है। वे मानते हैं कि पहले जो गलती उन्होंने की या जो करतूतें उन्होंने कीं, उन्हें ज्यादातर लोग नीची नजर से देखते हैं, या शायद लोग उनकी निंदा कर उनसे घृणा करें, या परमेश्वर भी उनकी निंदा करे। परमेश्वर का कार्य जिस भी चरण में हो, या उसने जितने भी कथनों का उच्चारण किया हो, वे सत्य का अनुसरण करने के मामले का कभी भी सही ढंग से सामना नहीं करते। ऐसा क्यों है? उनमें अपने अवसाद को पीछे छोड़ने का हौसला नहीं होता। ऐसी चीज का अनुभव करके इस किस्म का इंसान यही अंतिम निष्कर्ष निकालता है, और चूँकि वह सही निष्कर्ष नहीं निकालता, इसलिए वह अपने अवसाद को पीछे छोड़ने में असमर्थ होता है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के ये वचन काफी हद तक मेरी दशा से जुड़े थे। दरअसल, पिछले कुछ सालों में, जब भी मैं यह सुनती कि किसी को यहूदा होने के कारण निष्काषित कर दिया गया, तो मैं इसे खुद से जोड़ने लगती थी, मानती थी कि मैंने यहूदा बनकर भाई को धोखा दिया और परमेश्वर के सामने अपराध किया; क्या परमेश्वर अब भी मुझे चाहेगा? क्या मेरे बचाए जाने की अभी भी कोई उम्मीद थी? जैसे ही यह ख्याल आता, मैं नकारात्मकता में जीने लगती। बाहर से तो मैं अपना कर्तव्य निभाती, पर अंदर से सच में कोई बोझ नहीं उठाती थी, मुझे और भी ज्यादा ऐसा लगने लगा कि सत्य का अनुसरण मेरे लिए नहीं है। मैंने हमेशा खुद को सत्य का अनुसरण करने वालों की श्रेणी से बाहर रखा। मैंने परमेश्वर के मार्गदर्शन, प्रोत्साहन या उपदेश के वचनों को स्वीकारने की हिम्मत नहीं की, यह सोचकर कि वे वचन मेरे जैसे लोगों के लिए नहीं कहे गए हैं। परमेश्वर के सामने संकल्प लेते समय भी मुझे ऐसा महसूस हुआ कि मैं इस लायक नहीं हूँ, उसके वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकारने लायक तो और भी नहीं हूँ। खासकर जब मैंने सुना कि चेन हुआ यहूदा थी और उसे निकाल दिया गया था, तो मैंने सोचा कि चेन हुआ और मैं एक जैसे ही थे। मैंने खुद को बचाने के चक्कर में, कलीसिया के पैसों और भाई से धोखा किया, जिस वजह से भाई का पीछा किया गया और वह घर नहीं लौट सका। खुद को बचाने की खातिर, मैंने इस भाई के लिए इतनी बड़ी मुसीबत खड़ी कर दी। मैं वाकई बेहद स्वार्थी और मानवता से रहित थी! मेरी करनी की प्रकृति यहूदा जैसी थी। मैंने जो भी किया उसके लिए परमेश्वर मेरे साथ कुछ भी कर सकता था। अगर वह मुझे नरक में भेज दे, तो भी यह ज्यादती नहीं होगी। मगर परमेश्वर मेरे अपराध के आधार पर मेरे साथ बिल्कुल भी पेश नहीं आया, बल्कि मुझे कलीसियाई जीवन जीने और अपना कर्तव्य निभाने का मौका दिया। मैं आज जीवित रहकर अपना कर्तव्य निभा पा रही हूँ, यह परमेश्वर का अनुग्रह और उन्नयन ही है। मुझे सत्य का अनुसरण करके अपनी भ्रष्टता हल करनी चाहिए, पश्चात्ताप करके अच्छी तरह अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। मगर मैं अब भी अपने अपराध से बंधी हुई थी, जिसने मुझे अपनी संभावनाओं और मंजिल को लेकर बेचैन कर दिया। निराशा और नकारात्मकता की दशा में रहकर, अपना कर्तव्य निभाते समय मैं और भी ज्यादा निष्क्रिय हो गई, जिससे न सिर्फ मेरे काम में नुकसान हुआ, बल्कि मेरे जीवन प्रवेश में भी बाधा आई। मैंने सत्य प्राप्त करने के कई मौके गँवा दिए। परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़कर, ऐसा लगा जैसे वह आमने-सामने आकर मुझसे बात कर रहा हो। वह नहीं चाहता कि लोग अपराध करने के बाद निराशा में डूब जाएँ; वह चाहता है कि लोग आत्म-चिंतन करके अपने अनुसरण में आगे बढ़ने की कोशिश करते रहें। समय चाहे कैसा भी हो, व्यक्ति को सत्य का अनुसरण करना नहीं छोड़ना चाहिए। परमेश्वर का सच्चा प्रेम देखकर, मैंने सत्य खोजने और अपनी नकारात्मक दशा की बेड़ियों से मुक्त होने संकल्प लिया।

बाद में, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “लोग आशीष पाने, पुरस्कृत होने, ताज पहनने के लिए परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। क्या यह सबके दिलों में नहीं है? यह एक तथ्य है कि यह सबके दिलों में है। हालाँकि लोग अक्सर इसके बारे में बात नहीं करते, यहाँ तक कि वे आशीष प्राप्त करने का अपना मकसद और इच्छा छिपाते हैं, फिर भी यह इच्छा और मकसद लोगों के दिलों की गहराई में हमेशा अडिग रहा है। लोग चाहे कितना भी आध्यात्मिक सिद्धांत समझते हों, उनके पास जो भी अनुभव या ज्ञान हो, वे जो भी कर्तव्य निभा सकते हों, कितना भी कष्ट सहते हों, या कितनी भी कीमत चुकाते हों, वे अपने दिलों में गहरी छिपी आशीष पाने की प्रेरणा कभी नहीं छोड़ते, और हमेशा चुपचाप उसके लिए मेहनत करते हैं। क्या यह लोगों के दिल के अंदर सबसे गहरी दबी बात नहीं है? आशीष प्राप्त करने की इस प्रेरणा के बिना तुम लोग कैसा महसूस करोगे? तुम किस रवैये के साथ अपना कर्तव्य निभाओगे और परमेश्वर का अनुसरण करोगे? अगर लोगों के दिलों में छिपी आशीष प्राप्त करने की यह प्रेरणा खत्म हो जाए तो ऐसे लोगों का क्या होगा? संभव है कि बहुत-से लोग नकारात्मक हो जाएँगे, जबकि कुछ अपने कर्तव्यों के प्रति उदासीन हो जाएँगे। वे परमेश्वर में अपने विश्वास में रुचि खो देंगे, मानो उनकी आत्मा गायब हो गई हो। वे ऐसे प्रतीत होंगे, मानो उनका हृदय छीन लिया गया हो। इसीलिए मैं कहता हूँ कि आशीष पाने की प्रेरणा ऐसी चीज है जो लोगों के दिल में गहरी छिपी है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, जीवन संवृद्धि के छह संकेतक)। मैंने देखा कि परमेश्वर यह उजागर करता है कि कैसे उसके सभी विश्वासियों की अपनी निहित मंशाएँ होती हैं। वो सब बस आशीष पाने की खातिर ऐसा करते हैं, और एक बार जब उनकी संभावनाएँ और मंजिल इसमें शामिल हो जाती है और वो आशीष प्राप्त नहीं कर पाते, तो उन्हें परमेश्वर में विश्वास करना निरर्थक लगता है, वे निराशा की दशा में जीते हैं, और दिल से प्रयास नहीं करते। यह परमेश्वर में विश्वास के प्रति मनुष्य का गलत अनुसरण है। परमेश्वर के वचनों के आधार पर मैंने आत्म-चिंतन किया : जब मैंने परमेश्वर के कार्य के इस चरण को स्वीकारा ही था, तब मैं आशीष पाने के लिए किसी भी तरह से खुद को खपाती और कोशिश करती थी। गिरफ्तार होने के बाद, कष्ट सहने और मौत तक यातना झेलने के डर से मैंने भाई को धोखा दे दिया और अपराध कर बैठी। मैंने सोचा कि मुझे बचाए जाने का दूसरा मौका नहीं मिलेगा, इसलिए मैं निराशा की दशा में जीने लगी और अपना फैसला खुद ही सुना दिया। जेल से बाहर आने के बाद, मैं जो भी कर्तव्य निभाती उसे स्वीकारने और समर्पण करने की मेरी इच्छा सिर्फ मेरे पापों का पश्चात्ताप करने और आशीष पाने के लिए थी, यह सच्चा पश्चात्ताप नहीं था। जब मैंने सोच लिया कि मुझे बचाया नहीं जा सकता और मुझे आशीष नहीं मिलेगी, मैं इतनी नकारात्मक हो गई कि अपना कर्तव्य निभाना ही नहीं चाहती थी। मैंने देखा कि मैं बस आशीष पाने के लिए अपना कर्तव्य निभा रही थी, मैं तो परमेश्वर से लेनदेन कर रही थी। मैं ठीक पौलुस जैसी थी। पौलुस ने प्रभु यीशु का विरोध करने के लिए वह सब किया जो वह कर सकता था, उसने प्रभु के शिष्यों को बंदी बनाकर उन पर अत्याचार किया, और अंत में, एक तेज रोशनी की वजह से ठोकर खाकर गिर पड़ा। तब उसने सिर्फ अपने पाप कबूल किए, और बाद में, जब उसने प्रभु के लिए सुसमाचार फैलाया, तो यह सिर्फ क्षतिपूर्ति की खातिर था; इनमें से कुछ भी सच्चा पश्चात्ताप या बदलाव नहीं था। वह परमेश्वर का विरोध करने के अपने सार को नहीं जानता था, और जब उसके काम के कुछ परिणाम निकले, तो उसे लगा कि उसके पास पूंजी है, इतनी कि उसने खुले तौर पर परमेश्वर से लेनदेन किया, कहा, “मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:8)। उसने परमेश्वर के स्वभाव को नाराज किया, इसलिए परमेश्वर ने उसे शापित और दंडित किया। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके, मुझे खुद से और ज्यादा नफरत हुई। मैंने इतनी बड़ी बुराई की थी और फिर भी परमेश्वर से लेनदेन कर रही थी; मेरे पास जरा सा भी विवेक नहीं था! भले ही भविष्य में मुझे अच्छा परिणाम और मंजिल न मिले, यह परमेश्वर की धार्मिकता होगी। यह मेरे अपने कुकर्मों और परमेश्वर से विश्वासघात का नतीजा होगा। मेरे पैरों में छाले उस रास्ते से आए हैं जिस पर मैं चली; जो मैंने बोया है, वही मुझे काटना है। चाहे मेरा परिणाम कुछ भी हो, मुझे सृजित प्राणी के रूप में अपना स्थान ग्रहण करके अच्छी तरह अपना कर्तव्य निभाना चाहिए; मेरे पास यही विवेक होना और मुझे इसी तरह अभ्यास करना चाहिए। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, “परमेश्वर! मैंने आशीष और इनाम पाने के लिए तुम पर विश्वास किया, और त्याग करके और खुद को खपाकर मैं तुम्हारे साथ लेनदेन कर रही थी। मुझमें जरा सा भी विवेक नहीं है! कुत्ता भी अपने मालिक का वफादार होता है और घर की रखवाली करना जानता है। मगर मैं... तुमने इतने सारे सत्यों से मेरा सिंचन और पोषण किया, मेरे प्रति दया और सहनशीलता दिखाई, मगर मैंने तुम्हारे साथ लेनदेन किया। जब मैंने सोचा कि शायद मुझे अच्छी मंजिल नहीं मिलेगी, तो मैं लगन से अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहती थी। मैं तो कुत्ते से भी बदतर हूँ! परमेश्वर, मैं पश्चात्ताप करना चाहती हूँ। भविष्य में मेरा परिणाम चाहे जो भी रहे, मैं निष्ठापूर्वक से अपना कर्तव्य निभाऊँगी और सिर्फ आशीष पाने की खातिर तुम पर विश्वास नहीं करूँगी।”

इसके बाद, मैंने परमेश्वर के कुछ और वचन पढ़े जिससे मुझे उसके धार्मिक स्वभाव का थोड़ा और ज्ञान मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “ज्यादातर लोगों ने कुछ तरीकों से अपराध कर अपनी प्रतिष्ठा घटाई है। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों ने परमेश्वर का विरोध किया है और ईशनिंदा की बातें कही हैं; कुछ लोगों ने परमेश्वर का आदेश नकारकर अपना कर्तव्य नहीं निभाया है, और परमेश्वर द्वारा ठुकरा दिए गए हैं; कुछ लोगों ने प्रलोभन सामने आने पर परमेश्वर को धोखा दिया है; कुछ लोगों ने गिरफ्तार होने पर ‘तीन पत्रों’ पर हस्ताक्षर करके परमेश्वर को धोखा दिया है; कुछ ने भेंटें चुरा ली हैं; कुछ ने भेंटें बरबाद कर दी हैं; कुछ ने अक्सर कलीसियाई जीवन को अस्त-व्यस्त कर परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाया है; कुछ ने गुट बनाकर दूसरों के साथ अशिष्ट व्यवहार किया है, जिससे कलीसिया अस्त-व्यस्त हो गई है; कुछ ने अक्सर धारणाएँ और मृत्यु फैलाकर भाई-बहनों को नुकसान पहुँचाया है; और कुछ ने व्यभिचार और भोग-विलास में लिप्त रहे हैं और उनका भयानक प्रभाव पड़ा है। जाहिर है, हर किसी के अपने अपराध और दाग हैं। लेकिन कुछ लोग सत्य स्वीकार कर पश्चात्ताप कर पाते हैं, जबकि दूसरे नहीं कर पाते और पश्चात्ताप करने से पहले ही मर जाते हैं। इसलिए लोगों के साथ उनके प्रकृति-सार और उनके निरंतर व्यवहार के अनुसार बर्ताव किया जाना चाहिए। जो पश्चात्ताप कर सकते हैं, वे वो लोग होते हैं जो वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; लेकिन जो वास्तव में पश्चात्ताप न करने वाले होते हैं, जिन्हें हटाकर निकाल दिया जाना चाहिए, उन्हें हटाकर निकाल दिया जाएगा। ... प्रत्येक व्यक्ति के साथ परमेश्वर का व्यवहार उस व्यक्ति के हालात की वास्तविक परिस्थितियों और उस समय की पृष्ठभूमि के साथ-साथ उस व्यक्ति के क्रियाकलापों और व्यवहार और उसके प्रकृति-सार पर आधारित होता है। परमेश्वर कभी किसी के साथ अन्याय नहीं करेगा। यह परमेश्वर की धार्मिकता का एक पक्ष है। ... मनुष्य के साथ परमेश्वर का व्यवहार उतना सरल नहीं है, जितना लोग कल्पना करते हैं। जब किसी व्यक्ति के प्रति उसका रवैया घृणा या अरुचि का होता है, या जब यह बात आती है कि वह व्यक्ति किसी दिए गए संदर्भ में क्या कहता है, तो परमेश्वर को उसकी अवस्थाओं की अच्छी समझ होती है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के हृदय और सार की जाँच करता है। लोग हमेशा सोचते रहते हैं, ‘परमेश्वर में सिर्फ उसकी दिव्यता है। वह धार्मिक है और मनुष्य का कोई अपराध सहन नहीं करता। वह मनुष्य की कठिनाइयों पर विचार नहीं करता या खुद को लोगों के स्थान पर रखकर नहीं देखता। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर का विरोध करता है, तो वह उसे दंड देगा।’ ऐसा बिलकुल नहीं है। अगर कोई उसकी धार्मिकता, उसके कार्य और लोगों के प्रति उसके व्यवहार को ऐसा समझता है, तो वह गंभीर रूप से गलत है। परमेश्वर द्वारा प्रत्येक व्यक्ति के परिणाम का निर्धारण मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं पर आधारित नहीं होता, बल्कि परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव पर आधारित होता है। वह प्रत्येक इंसान को उसकी करनी के अनुसार प्रतिफल देगा। परमेश्वर धार्मिक है, और देर-सबेर वह यह सुनिश्चित करेगा कि सभी लोग हर तरह से आश्वस्त हों(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैंने समझा कि वह सिद्धांतों के आधार पर ही लोगों से व्यवहार करता है। वह किसी क्षणिक अपराध के आधार पर लोगों का परिणाम निर्धारित नहीं करता, बल्कि लोगों के क्रियाकलापों के संदर्भ और प्रकृति के आधार पर, और इस आधार पर करता है कि व्यक्ति सत्य स्वीकारने और सच्चा पश्चात्ताप करने में सक्षम है या नहीं; यह परमेश्वर की धार्मिकता है। इस पर विचार करते हुए, मुझे अचानक रोशनी दिखी। मैंने देखा कि मनुष्य के प्रति परमेश्वर के व्यवहार में न सिर्फ धार्मिक न्याय, बल्कि दया भी है। उसने सभी लोगों को एक ही नजरिये से नहीं देखा। जब मैंने अपनी कमजोर देह के कारण परमेश्वर को धोखा दिया था, तब मेरा मानना था कि ऐसा करने के कारण मेरी निंदा की जाएगी और मुझे निकाल दिया जाएगा, और भले ही मैं कितना भी पश्चात्ताप करूँ, मेरे बचने का कोई रास्ता नहीं होगा। अब ऐसा लग रहा है जैसे मैं परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव समझ ही नहीं पाई। चेन हुआ और मैंने, दोनों ने ही परमेश्वर के घर के हितों के साथ धोखा किया था। कलीसिया ने मुझे अपना कर्तव्य निभाने का एक और मौका दिया, और यह मुख्य रूप से मेरे विश्वासघात के संदर्भ और प्रकृति पर आधारित था, जिसमें अपना कर्तव्य निभाते समय मेरे निरंतर व्यवहार को परखा गया। तब पुलिस ने सात दिन और सात रात मुझे यातना दी थी, मेरा शरीर अब और बर्दाश्त नहीं कर सकता था। मैं शैतान की धूर्त चाल समझ नहीं पाई, और कमजोरी के एक पल में परमेश्वर को धोखा दे दिया। मैंने कोई बड़ा नुकसान नहीं किया था, और उसके बाद मुझे पछतावा और खुद से नफरत भी हुई। यह गंभीर अपराध था पर परमेश्वर के घर ने मुझे पश्चात्ताप करने का एक मौका दिया। जबकि, चेन हुआ के गिरफ्तार होने के बाद, पुलिस ने उससे कुछ ही सवाल पूछे थे जब उसने बड़े लाल अजगर की बुरी ताकत के आगे घुटने टेक दिए और कई अगुआओं, कर्मियों, और किताबों की सुरक्षा करने वालों के घरों का पता-ठिकाना बता दिया, जिससे कई भाई-बहन गिरफ्तार कर लिए गए और कलीसिया के कार्य को बड़ा भारी नुकसान हुआ। चेन हुआ का अपराध उसकी क्षणिक कमजोरी के कारण नहीं हुआ था; उसमें एक यहूदा का सार था। कलीसिया ने उसके कार्यों की प्रकृति और उनके परिणामों के आधार पर उसे निकाल दिया। यह पूरी तरह से परमेश्वर की धार्मिकता थी। इतना समझने के बाद, मुझे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का थोड़ा ज्ञान हुआ, और मैंने देखा कि उसका स्वभाव खूबसूरत और नेक है। पहले मैं परमेश्वर से सावधान रहती और उस पर संदेह करती थी, अब मैंने खुद को उसका और अधिक ऋणी महसूस किया। मैंने पश्चात्ताप करके बदलने का संकल्प लिया, और अगर मुझे दोबारा कभी गिरफ्तार करके सताया गया, तो मेरी देह को कितनी भी पीड़ा सहनी पड़े, और अगर मैं मर भी जाऊँ, पर मैं परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में अडिग रहकर शैतान को नीचा दिखाऊँगी, और परमेश्वर को धोखा नहीं दूँगी।

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचन का एक और अंश पढ़ा और जाना कि अपने अपराध को लेकर कैसा रवैया अपनाना चाहिए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “परमेश्वर तुम्हें किस तरह से क्षमादान देकर दोष-मुक्त कर सकता है? यह तम्हारे दिल पर निर्भर करता है। अगर तुम सचमुच पाप-स्वीकार करते हो, सच में अपनी गलती और समस्या को पहचान लेते हो और तुमने अपराध किया हो या पाप, तुम सच्चे पाप-स्वीकार का रवैया अपना लेते हो, तुम अपनी करतूत के लिए सच्ची घृणा महसूस करते हो और सच में सुधर जाते हो, ताकि तुम वह गलत काम दोबारा न करो, तो फिर एक दिन तुम्हें परमेश्वर से क्षमादान और दोष-मुक्ति मिल जाएगी, यानी परमेश्वर तुम्हारी की हुई अज्ञानतापूर्ण, मूर्खतापूर्ण और गंदी करतूतों के आधार पर तुम्हारा अंत तय नहीं करेगा। ... कुछ लोग पूछते हैं, ‘परमेश्वर ने मुझे क्षमा कर दिया है, यह जानने के लिए मुझे कितनी प्रार्थना करनी चाहिए?’ जब तुम इस मामले में खुद को दोषी न मानो, जब इस मामले की वजह से तुम अवसाद में न डूबो, तब जाकर तुम्हें परिणाम मिल जाएँगे और यह पता लग जाएगा कि परमेश्वर ने तुम्हें क्षमादान दे दिया है। जब कोई व्यक्ति, कोई ताकत, कोई बाहरी शक्ति तुम्हें विचलित न कर पाए, जब तुम किसी व्यक्ति, घटना या चीज से बाध्य न हो, उस समय तुम्हें परिणाम मिल चुके होंगे। यह पहला कदम है जो तुम्हें उठाना होगा। दूसरा कदम यह है कि क्षमादान के लिए परमेश्वर से निरंतर विनती करते हुए तुम्हें सक्रियता से उन सिद्धांतों को खोजना होगा जिनका तुम्हें अपना कर्तव्य निभाते समय अनुसरण करना चाहिए—ऐसा करके ही तुम अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा सकोगे। बेशक, यह भी एक व्यावहारिक कार्य है, एक व्यावहारिक अभिव्यक्ति और रवैया है जो तुम्हारे अपराध की भरपाई करेगा और जो साबित करेगा कि तुम प्रायश्चित्त कर रहे हो और तुमने खुद को सुधार लिया है; यह तुम्हें जरूर करना होगा। तुम परमेश्वर की आज्ञा यानी अपना कर्तव्य कितने अच्छे ढंग से निभाते हो? क्या तुम इसे अवसाद-ग्रस्त होकर निभाते हो या उन सिद्धांतों का अनुसरण करते हुए निभाते हो जिनकी अपेक्षा परमेश्वर तुमसे करता है? क्या तुम निष्ठा दिखाते हो? परमेश्वर को किस आधार पर तुम्हें क्षमादान देना चाहिए? क्या तुमने प्रायश्चित्त किया है? तुम परमेश्वर को क्या दिखा रहे हो? अगर तुम परमेश्वर से क्षमादान पाना चाहते हो, तो तुम्हें पहले ईमानदार बनना पड़ेगा : एक ओर तो तुम्हें ईमानदारी से पाप-स्वीकार करना पड़ेगा और ईमानदारी सेअपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाना होगा, वरना सब निरर्थक है। अगर तुम ये दो चीजें कर सको, अगर तुम ईमानदार और आस्थावान बनकर परमेश्वर का मन जीत सको और परमेश्वर के हाथों अपने पापों से मुक्ति पा सको, तो तुम ठीक दूसरे लोगों जैसे ही बन जाओगे। परमेश्वर तुम्हें भी उसी नजर से देखेगा जिससे वह दूसरों को देखता है, वह तुमसे भी वैसे ही पेश आएगा जैसे वह दूसरों से पेश आता है, और वह तुम्हें भी उसी तरह न्याय और ताड़ना देगा, परीक्षा लेकर शुद्ध करेगा, जैसे वह दूसरे लोगों को करता है—तुमसे कोई अलग बर्ताव नहीं होगा। इस प्रकार तुममें न सिर्फ सत्य का अनुसरण करने का दृढ़संकल्प और आकांक्षा होगी, बल्कि परमेश्वर सत्य के अनुसरण में तुम्हें भी उसी तरह प्रबुद्ध करेगा, मार्गदर्शन और पोषण देगा। बेशक, अब चूँकि तुममें ईमानदार और सच्ची आकांक्षा और एक ईमानदार रवैया है, इसलिए परमेश्वर तुमसे कोई अलग बर्ताव नहीं करेगा और ठीक दूसरे लोगों की ही तरह तुम्हें उद्धार का मौका मिलेगा। तुमने यह समझा लिया है, है न? (हाँ।)” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (2))। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके मैं समझ गई कि भले ही किसी ने अतीत में कितने भी अपराध किए हों, परमेश्वर उससे बस सच्चा पश्चात्ताप और बदलाव चाहता है। अगर कोई गलती करता है, तो उसे परमेश्वर के समक्ष आकर ईमानदारी से अपने पापों को कबूल करना चाहिए। इसके बाद, उसे अपने अपराधों की भरपाई के लिए व्यावहारिक कार्य करते हुए पूरी निष्ठा से अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। यह ठीक दाऊद जैसा है, जिससे बात करने के लिए परमेश्वर ने एक नबी को भेजा था, क्योंकि उसने उरिय्याह की पत्नी के साथ सोकर व्यभिचार किया था। दाऊद जानता था कि उसने पाप किया है, उसने इसे कबूल भी किया और वह परमेश्वर के सामने पछताया। वह इतना रोया कि आँसुओं से उसके कमरे के बिस्तर भीग गए, और जब बूढ़ा हुआ, तो उसने अपना कंबल गर्म रखने वाली लड़की को हाथ तक नहीं लगाया। इसके अलावा, गहरा पश्चात्ताप करने के साथ-साथ, उसने अपना कर्तव्य निभाने के लिए व्यावहारिक कार्य भी किया, एक पवित्र मंदिर बनाया और इस्राएलियों को यहोवा परमेश्वर की आराधना करने के लिए प्रेरित किया। अपने अपराध के प्रति दाऊद का रवैया निराशा होने का नहीं, बल्कि सकारात्मक होकर आगे बढ़ने का था। उसने सच्चा पश्चात्ताप करके खुद को बदला। पतरस भी था, उसने तीन बार प्रभु को ठुकराया और गवाही का मौका गँवा दिया। पतरस ने भी निराशा का रवैया नहीं अपनाया। बल्कि, उसने परमेश्वर के सामने ईमानदारी से अपने अपराध स्वीकार किए, और सच्चा पश्चात्ताप किया। अंत में, परमेश्वर के प्रति उसके प्रेम की गवाही के रूप में उसे प्रभु के लिए क्रूस पर उल्टा लटका दिया गया। मुझे दाऊद और पतरस की मिसाल पर चलकर, सकारात्मकता के साथ अपने अपराध का सामना करना, और अपनी निराशा की दशा से आजाद होना था, परमेश्वर के सामने सच्चा पश्चात्ताप करके बदलाव दिखाना था। मुझे इसी तरह अभ्यास करना और यही रवैया अपनाना चाहिए।

बाद में, मैंने इस बात पर विचार किया कि अपनी गिरफ्तारी के वक्त मैंने परमेश्वर को धोखा क्यों दिया। ऐसा इसलिए था क्योंकि मुझे अपने देह-सुख की बहुत परवाह थी और मैं अपने जीवन को बहुत संजोती थी। मैंने प्रभु यीशु की कही बात को याद किया : “क्योंकि जो कोई अपना प्राण बचाना चाहेगा वह उसे खोएगा, परन्तु जो कोई मेरे लिये अपना प्राण खोएगा वही उसे बचाएगा(लूका 9:24)। दरअसल, मेरा जीना या मरना परमेश्वर द्वारा आयोजित और शासित है। भले ही पुलिस ने मुझे इतना सताया कि मैं मरने की कगार पर थी, अगर मैं परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में अडिग रहती, तो मेरी मौत मूल्यवान और सार्थक होती। अब, मैंने परमेश्वर को धोखा दिया था, और भले ही मेरा शरीर पीड़ा में नहीं था, मगर मेरा दिल पीड़ा में जरूर था। जब भी याद करती कि मैं भाई और कलीसिया के पैसों से कैसा धोखा किया, तो इतना दर्द होता मानो मेरे दिल में नश्तर चुभोया गया हो। यह हमेशा के लिए मेरा कलंक और कभी न खत्म होने वाली पीड़ा थी। वास्तव में, शारीरिक कष्ट अस्थायी है, और अगर तुम इसे सह लोगे तो यह गुजर जाएगा, पर दिल की पीड़ा सदा के लिए बनी रहती है। मैंने अपना शरीर तो बचा लिया, पर सारी शांति और आनंद खो दिया; मैं जिंदा लाश बनकर जी रही थी। मैंने जेल में बंद उन भाई-बहनों के बारे में सोचा जो अपनी गवाही पर अडिग रहे थे। भले ही उनके शरीर को बहुत कष्ट सहना पड़ा, और कुछ को पुलिस ने पीट-पीटकर मार डाला, पर वो न्याय के लिए मरे। ऐसी मौत मूल्यवान और सार्थक होती है, और इसे परमेश्वर स्वीकृत करता है और याद रखता है। मुझे एहसास हुआ कि मेरे कलीसिया से धोखा करने का एक और पहलू भी था, जो यह था कि मैं पुलिस की धूर्त चाल को समझ नहीं पाई। जब मैंने उन्हें यह कहते सुना कि उन्हें कलीसिया के पैसे मिल गए हैं, मैंने सोचा कि अब जब उन्होंने पैसे जब्त कर ही लिए हैं, तो मेरे कुछ कहने या न कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। अगर मैंने अपना मुँह खोला, तो मुझे और सताया नहीं जाएगा। नतीजतन, मैंने अपनी गवाही खो दी। वास्तव में, चाहे उन्हें कलीसिया के पैसे मिले होते या नहीं, मुझे अपना मुँह नहीं खोलना चाहिए था। परमेश्वर को मेरी वफादारी और गवाही चाहिए थी। अपनी नाकामी की वजह पता चलने के बाद, मैंने एक संकल्प लिया : भविष्य में, अगर मुझे दोबारा गिरफ्तार किया गया, तो मैं कलीसिया के हितों को दाँव पर नहीं लगाऊँगी, चाहे मुझे मौत ही क्यों न मिले। पिछले कुछ वर्षों को याद करूँ, तो मैं हमेशा इस समस्या से बचती आ रही थी। मैं वास्तविकता का सामना करके अपनी समस्या हल करने को तैयार नहीं थी। भले ही मैंने खुद से नफरत की, मैंने कभी खुद को अच्छी तरह पहचाना नहीं। मैं अपनी निराशा की दशा से उबरी नहीं थी। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन में, मैंने आखिरकार परमेश्वर और मेरे बीच के अलगाव और गलतफहमियों को दूर कर दिया। अब, परमेश्वर ने मुझ पर नए विश्वासियों के सिंचन का कर्तव्य सौंपने का अनुग्रह दिखाया, तो मुझे सिद्धांतों के अनुसार अपना सिंचन कार्य करना चाहिए, सत्य समझने में अपने भाई-बहनों का मार्गदर्शन करना चाहिए, सच्चे मार्ग पर जड़ें जमानी चाहिए और अच्छे कर्म करने चाहिए। अब, मैं अपने अपराध को सही ढंग से देख सकती हूँ, और अब परमेश्वर को गलत नहीं समझती या उससे सावधान नहीं रहती। मैंने भाई-बहनों के साथ भी विफलता के इस अनुभव के बारे में खुलकर बातचीत और संगति की, और परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की गवाही दी। जब हम छोटे समूहों में सभा करते, तो मैं सक्रियता से संगति करती, और जब मेरे कर्तव्य में समस्याएँ और कठिनाइयाँ आतीं, तो मैं सचेत होकर सत्य खोजने और आत्म-चिंतन करने में सक्षम थी। कुछ समय तक अभ्यास करके, मैंने पूरी तरह से अपनी दशा बदल दी, और परमेश्वर मेरे कर्तव्य निर्वहन में मेरा मार्गदर्शन कर रहा था। यह देखते हुए कि परमेश्वर ने मेरे अपराध के कारण मुझे अकेला नहीं छोड़ा और अभी भी मेरी अगुआई और मार्गदर्शन कर रहा है, मुझे एहसास हुआ कि अपराध करना कोई सबसे भयावह चीज नहीं थी। अगर कोई ईमानदारी से पश्चात्ताप करके सिद्धांतों के अनुसार सत्य का अभ्यास कर सकता है, तो उसे परमेश्वर की दया और मार्गदर्शन मिल सकता है। जैसे कि परमेश्वर कहता है : “परमेश्वर की करुणा और सहनशीलता दुर्लभ नहीं है—बल्कि मनुष्य का सच्चा पश्चात्ताप दुर्लभ है(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II)। परमेश्वर के मार्गदर्शन से ही आज मेरे पास यह ज्ञान और इतने निजी अनुभव हैं! परमेश्वर की महिमा बनी रहे!

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