मुझे बस अभी एहसास हुआ कि मुझमें सत्य वास्तविकता की कमी है

28 नवम्बर, 2024

अगस्त 2022 में, मैंने एक अनुभवात्मक गवाही का लेख लिखा था, उसका वीडियो बनाया गया और ऑनलाइन अपलोड कर दिया गया। मैं बहुत हैरान थी और उत्साहित भी और इस बारे में फौरन उस बहन को बताने गई जिसे मैं काफी अच्छे से जानती थी। उस समय मैंने ज्यादा लोगों को नहीं बताया, क्योंकि मुझे पता था कि यह परमेश्वर के प्रबोधन और मार्गदर्शन के कारण हुआ है और इसका दिखावा करना ठीक नहीं। कई महीनों बाद, मेरे लिखे दो और अनुभवात्मक गवाही लेखों पर वीडियो बनाकर अपलोड कर दिया गया। इस बार मैं अपना उत्साह रोक नहीं पाई और सोचा, “अनुभवात्मक गवाही पर आधारित मेरे तीन लेखों को वीडियो बनाने के लिए चुना गया है। इतने वीडियो हमारी कलीसिया में किसी के भी नहीं बने हैं, इससे साबित होता है कि मेरे अंदर कुछ वास्तविक अनुभव है, मैं जान गई हूँ कि खुद को कैसे जानना है और अनुभवात्मक गवाही साझा कर सकती हूँ। लगता है अब मैं उद्धार पाने से बहुत दूर नहीं हूँ।” उस समय मेरे साथ और भी कई बहनें थीं। मैंने सोचा, “अगर इन्हें पता हो कि मेरे अनुभवात्मक गवाही के लेखों के वीडियो बनाकर उन्हें ऑनलाइन डाला गया है, तो पक्का ये मुझसे जलेंगी और मेरे बारे में ऊँची राय बनाएँगी। इन्हें लगेगा कि मैं सत्य का अनुसरण करती हूँ और जीवन प्रवेश प्राप्त कर चुकी हूँ।” मुझे याद आया कि कुछ दिन पहले ही बहन शियाओशियाओ ने अपनी स्थिति के बारे में बात करते हुए क्या कहा था। उसके मन में अपने काम की निगरानी और जाँच करने वाले प्रभारी व्यक्ति के प्रति एक विरोध का भाव था, उसे समझ नहीं आ रहा था कि उस स्थिति को कैसे सुलझाया जाए। तो मैंने कहा, “अनुभवात्मक गवाही पर मैंने जो लेख लिखा है, उसमें शियाओशियाओ की जैसी स्थिति पर ही चर्चा की गई है। यह अपना काम करते समय अपने अगुआ के पर्यवेक्षण को स्वीकार न करने के बारे में है। हम सब मिलकर इसे देख सकते हैं।” फिर मैंने वह वीडियो भाई-बहनों को भेज दिया, और विस्तार से उसका विश्लेषण किया कि इस अनुभव के दौरान कैसे मैं अपनी स्थिति को लक्ष्य करते हुए विश्लेषण कर उसे पहचान पाई। शियाओशियाओ ने जब वीडियो देखा तो उसके चेहरे पर ईर्ष्या के भाव दिखे। एक और बहन ली की ने कहा, “समझ नहीं आ रहा कि मुझमें जो भ्रष्टता प्रकट हो रही है, उस पर अंकुश लगाकर तुम्हारी तरह आत्म-चिंतन कैसे करूँऔर खुद को कैसे जानूँ या उन्हें दूर करने के लिए प्रासंगिक सत्य की खोज कैसे करूँ। मुझे अपनी स्थिति के बारे में केवल एक मोटा-मोटा-सा ज्ञान है। इस तरह संगति करके अब मैं जीवन प्रवेश के मार्ग के बारे में थोड़ा-बहुत समझ गई हूँ। मेरे अंदर सच में बहुत-सी कमियां हैं।” मैं बहुत खुश थी, मैंने सोचा, “मैं सत्य समझती हूँ, मेरे पास जीवन प्रवेश है, मैं तुम्हारी स्थितियों का समाधान कर सकती हूँ। मैं अभ्यास के मार्गों पर भी बात कर सकती हूँ।” मुझे लगा कि मैं वहाँ मौजूद सभी लोगों से बेहतर हूँ। मैं आत्मविश्वास से लबालब थी। इससे पहले ली की एक नकारात्मक स्थिति में जी रही थी और बाहर सभा में आने को तैयार नहीं थी, इसलिए मैंने जानबूझकर उससे पूछा, “तुम अगली सभा में भाग लेने को तैयार हो?” ली की ने खुशी से जवाब दिया, “हां, मैं तैयार हूँ; अगर तुम वहां रहोगी, तो मैं हिस्सा लूँगी। पहले मुझे नहीं पता था कि जीवन प्रवेश पर कैसे ध्यान देना है, लेकिन अब थोड़ा समझ गई हूँ। सभाओं में भाग लेने से बहुत फायदा होता है!” ली की के चेहरे पर संतुष्टि के भाव देखकर मुझे बड़ी उपलब्धि का एहसास हुआ, और मुझे लगा कि मैं एक बेहतरीन अगुआ हूँ। मैं काम से संबंधित समस्याएँ दूर करने के साथ-साथ, भाई-बहनों को जीवन प्रवेश का अनुसरण करने में भी राह दिखा सकती हूँ। उस दौरान मैं अक्सर खुद ही अपनी पीठ थपथपाती रहती थी। मुझे लगता कि मैं अद्भुत हूँ, मैं जहाँ कहीं भी जाती, मुझे यही लगता कि मैं ही सबसे अनुभवी, सबसे अधिक जीवन प्रवेश और सबसे अधिक सत्य वास्तविकता वाली इंसान हूँ।

एक सभा में बहन यी रैन ने मुझसे पूछा कि मैं अपना काम कैसे करती हूँ। यह सुनकर मुझे मन ही मन थोड़ी खुशी हुई। मैंने सोचा, “मैं देख रही हूँ कि तुम लोगों को तो काम करना आता ही नहीं। जरा रुको, बताती हूँ कि मैं अपना काम कैसे करती हूँ और तुम्हें अपनी कार्यक्षमता दिखाती हूँ।” शुरुआत में मैंने विनम्रता से कहा, “जब मैंने पहली बार यह काम करना शुरू किया, तो मुझे भी नहीं पता था कि काम कैसे करना है और न ही मुझे अपनी प्राथमिकताओं को व्यवस्थित करना आता था।” फिर तो मैं लगातार अपने काम के बारे में खुलकर बोलने लगी। मैंने देखा कि सारे भाई-बहन बड़े ध्यान से मेरी संगति सुन रहे हैं, और मुझे ईर्ष्या-भरी नजरों से देख रहे हैं। मुझे लगा मेरी संगति काफी अच्छी रही, मैं बेहद खुश थी। उसके बाद मैं एक और समूह की सभा में गई। जब मैं संगति कर रही थी तो सोचा, “मैं कैसे संगति करूँ ताकि भाई-बहन मेरी कार्यक्षमताएँ देख सकें?” मुझे लगा कि जिस सुसमाचार कार्य की मैं प्रभारी हूँ, उसने कुछ परिणाम दिए हैं, तो मैंने उसी बात पर जोर देते हुए कहा कि मैंने उस सुसमाचार कार्य का प्रभार कैसे संभाला। मैंने कहा, “सबसे पहले, व्यक्ति को अपने कर्मचारियों को ठीक से व्यवस्थित करना चाहिए। मैंने भाई-बहनों के कामों को उनकी योग्यताओं और विशेषताओं के अनुसार व्यवस्थित किया। इसके अलावा, मैं सुसमाचार फैलाने वाले कर्मचारियों की स्थिति और मुद्दों को हल करने पर अपेक्षाकृत अधिक ध्यान देती थी। जब मैंने पूरे दिल से सुसमाचार का कार्य किया, तो हर महीने प्राप्त होने वाले लोगों की संख्या बढ़ती गई। भाई-बहनों ने मेरी प्रशंसा करते हुए कहा कि मुझमें बहुत काबिलियत और कार्यक्षमता है।” यह देखकर कि सारे लोग बड़े ध्यान से सुन रहे हैं, मुझे खुशी भी हुई और अफसोस भी। क्योंकि उस समय केवल तीन लोग मेरी संगति सुन रहे थे। मैंने सोचा, “कितना अच्छा होता अगर और भी लोग मेरी कार्यक्षमताओं के बारे में सुन रहे होते।” सभा के बाद मेरा मन बेचैन हो गया। मुझे हल्का-सा एहसास हुआ कि मैं शायद अपने आपको बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रही हूँ और खुद की गवाही दे रही हूँ। लेकिन फिर मैंने इस बात पर दोबारा विचार किया, और सोचा कि यह सिर्फ मेरा अनुभव है और मैंने जो कुछ भी कहा वह एक तथ्य है। मैंने खुद को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने और अपनी गवाही देने जैसा कुछ नहीं किया। मैं अपनी खुशी का आनंद ले ही रही थी कि तभी मुझे एक बहन का पत्र मिला। अपने पत्र में उसने मेरी समस्या को उजागर किया : “जब तुम सभाओं में संगति करती हो, तो हमेशा दिखावा करती हो और अपने काम के बारे में बात करती हो, कि अंत में तुमने क्या परिणाम प्राप्त किए और दूसरे तुम्हारा कितना सम्मान करते हैं। तुम इन बातों पर बहुत विस्तार से चर्चा करती हो, लेकिन मैंने कभी नहीं सुना कि तुम परमेश्वर की गवाही कैसे देती हो। तुम्हारी संगति सुनकर मैंने भी तुम्हारे बारे में ऊँची राय बना ली थी, सोचा कि इतनी युवा होकर भी तुम काम में कितनी अच्छी हो और सत्य का अनुसरण कर रही हो। तुमने तुरंत मेरे दिल में अपनी जगह बना ली, दूसरे भाई-बहन भी तुम्हारे बारे में बहुत अच्छी राय रखते हैं। तुम सभी को अपने सामने लेकर आई जिससे सब तुम्हें बहुत अच्छा समझने और पूजने लगे। लेकिन अगर ऐसे ही चलता रहा, तो यह खतरनाक है; यह मसीह विरोधियों का रास्ता है।” जब मैंने पत्र पढ़ा, तो मुझे बहुत बुरा लगा। मैंने केवल इतना माना कि मैं गलत रास्ते पर चल रही थी, लेकिन मैंने इस पर गंभीरता से चिंतन नहीं किया।

उसके बाद मेरे मन में एक अंधेरा-सा छा गया। जब मेरे साथ कुछ घटित होता था, तो मैं आत्मचिंतन नहीं करती थी और जब कुछ ऐसा दिखता जो मुझे नापसंद होता, तो मुझे गुस्सा आ जाता था। हर मामले में मुझे लगता था कि मैं सही हूँ और भाई-बहन गलत हैं। जैसे, जिस काम की मैं प्रभारी थी, जब उसके नतीजे खराब आए, तो मैंने इस पर विचार नहीं किया कि क्या मैंने वास्तविक कार्य किया है, बल्कि यह कहकर उसकी जिम्मेदारी भाई-बहनों पर डाल दी कि भाई-बहन ही काबिल नहीं हैं जिसके कारण ऐसे खराब परिणाम आए। जिन लोगों को मैंने चुना था वे भी उपयुक्त नहीं थे, और मेरी साथी बहन ने मुझे सिद्धांतों के अनुसार लोगों को चुनने की याद दिलाई। लेकिन मैंने उसका विरोध किया और इस बात को दिल से स्वीकार नहीं किया। मैं नकारात्मक और लड़ने को तैयार थी, मैंने कहा कि मुझमें काम करने की काबिलियत नहीं है और मैं वास्तविक काम नहीं कर सकती। जब बहन यांग टिंग और मैंने सुसमाचार के काम की समीक्षा की, तो मैंने देखा कि कोई सुधार नहीं हुआ है, मैंने अकारण ही यह कहते हुए उसकी काट-छाँट की कि उसके पास वहन करने को कोई भार ही नहीं था और उसने कोई वास्तविक कार्य नहीं किया। यांग टिंग पर इस बात का काफी असर हुआ। मुझे पता चला कि मैं एक बुरी स्थिति में हूँ और लगा कि मुझमें पवित्र आत्मा का कार्य नहीं है। इन सभी मामलों में जो कुछ मेरे साथ हुआ, मैंने एक बार भी खुद को जानने की कोशिश नहीं की और मैंने बिना सिद्धांतों के काम किया। मैंने भाई-बहनों को बेबस करने और नुकसान पहुँचाने के अलावा कुछ नहीं किया। यह सोचकर मैं घबरा गई। मैं प्रसिद्धि और रुतबे के पीछे भाग रही थी, मैंने अक्सर खुद को ऊँचा उठाया और अपनी गवाही दी। जब मेरे साथ कुछ हुआ, तो मैंने सत्य स्वीकार नहीं किया और किसी को कोई लाभ नहीं पहुँचाया। कुछ समय बाद मुझे हटा दिया गया। उस समय मुझे लगा कि आपदा निकट ही है। मैं अच्छी तरह से जान गई थी कि मुझ पर परमेश्वर का न्याय और ताड़ना आ चुके हैं। मुझे बहुत बुरा लगा और पछतावा हुआ कि मैंने समय रहते प्रायश्चित नहीं किया। मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मैंने अपना कर्तव्य निभाते हुए अपने आपको ऊँचा उठाया और खुद की गवाही दी और मुझे हटा दिया गया। मैं जानती हूँ कि यह तेरा मुझे प्रेम करने और सुरक्षा देने का तरीका है। हे परमेश्वर! मुझे प्रबुद्ध कर, मेरा मार्गदर्शन कर ताकि मैं सच में खुद को जान सकूँ।”

इसके बाद मैंने भाई-बहनों द्वारा बताए गए मुद्दों पर चिंतन किया और उनके आधार पर खुद को जानने की कोशिश की, एक आध्यात्मिक भक्ति में, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “अपना उन्नयन करना और अपनी गवाही देना, स्वयं पर इतराना, दूसरों की अपने बारे में बहुत अच्छी राय बनवाने और उनसे अपनी आराधना करवाने की कोशिश करना—भ्रष्‍ट मनुष्‍यजाति इन चीज़ों में माहिर है। जब लोग अपनी शैता‍नी प्रकृतियों से शासित होते हैं, तब वे सहज और स्‍वाभाविक ढंग से इसी तरह प्रतिक्रिया करते हैं, और यह भ्रष्‍ट मनुष्यजाति के सभी लोगों में है। लोग सामान्यतः कैसे अपना उन्नयन करते हैं और अपनी गवाही देते हैं? वे दूसरों की अपने बारे में बहुत अच्छी राय बनवाने और उनसे अपनी आराधना करवाने के इस लक्ष्‍य को कैसे हासिल करते हैं? वे इस बात की गवाही देते हैं कि उन्‍होंने कितना कार्य किया है, कितना अधिक दुःख भोगा है, स्वयं को कितना अधिक खपाया है, और क्या कीमत चुकाई है। वे अपनी पूँजी के बारे में बातें करके अपना उत्कर्ष करते हैं, जो उन्‍हें लोगों के दिमाग़ में अधिक ऊँचा, अधिक मजबूत, अधिक सुरक्षित स्थान देता है, ताकि अधिक से अधिक लोग उन्हें मान दें, उनकी सराहना करें, उनकी अराधना करें, उनकी प्रशंसा करें, और उनका अनुसरण करें। यह लक्ष्य हासिल करने के लिए लोग कई ऐसे काम करते हैं, जो सतही तौर पर परमेश्वर की गवाही देते हैं, लेकिन वास्तव में वे उन लोगों का उत्कर्ष करते हैं और उनकी गवाही देते हैं। क्या इस तरह से कार्य करना उचित है? वे तार्किकता के दायरे से बाहर हैं और उन्हें कोई शर्म नहीं है: अर्थात्, वे निर्लज्‍ज ढंग से गवाही देते हैं कि उन्‍होंने परमेश्वर के लिए क्‍या-क्‍या किया है और उसके लिए कितना अधिक दुःख झेला है। वे तो अपनी योग्‍यताओं, प्रतिभाओं, अनुभव, विशेष कौशलों पर, दुनियावी व्यवहार के लिए अपने आचरण की चतुर तकनीकों पर, लोगों के साथ खिलवाड़ के लिए प्रयुक्त अपने तौर-तरीक़ों पर इतराते तक हैं। अपना उन्नयन करने और अपनी गवाही देने का उनका तरीक़ा स्वयं पर इतराने और दूसरों को नीचा दिखाने के लिए है। वे छद्मावरणों और पाखंड का सहारा भी लेते हैं, जिनके द्वारा वे लोगों से अपनी कमज़ोरियाँ, कमियाँ और त्रुटियाँ छिपाते हैं, ताकि लोग हमेशा सिर्फ़ उनकी चमक-दमक ही देखें। जब वे नकारात्‍मक महसूस करते हैं तब दूसरे लोगों को यह बताने का साहस तक नहीं करते; उनमें लोगों के साथ खुलने और संगति करने का साहस नहीं होता, और जब वे कुछ ग़लत करते हैं, तो वे उसे छिपाने और उस पर लीपा-पोती करने में अपनी जी-जान लगा देते हैं। अपना कर्तव्‍य निभाने के दौरान उन्‍होंने कलीसिया के कार्य को जो नुक़सान पहुँचाया होता है उसका तो वे ज़ि‍क्र तक नहीं करते। जब उन्‍होंने कोई छोटा-मोटा योगदान किया होता है या कोई छोटी-सी कामयाबी हासिल की होती है, तो वे उसका दिखावा करने को तत्पर रहते हैं। वे सारी दुनिया को यह जानने देने का इंतज़ार नहीं कर सकते कि वे कितने समर्थ हैं, उनमें कितनी अधिक क्षमता है, वे कितने असाधारण हैं, और सामान्‍य लोगों से कितने बेहतर हैं। क्‍या यह अपना उन्नयन करने और अपनी गवाही देने का ही तरीक़ा नहीं है? क्‍या अपना उन्नयन करना और अपनी गवाही देना ऐसी चीज है, जिसे कोई जमीर और विवेक वाला व्यक्ति करता है? नहीं। इसलिए जब लोग यह करते हैं, तो सामान्यतः कौन-सा स्‍वभाव प्रगट होता है? अहंकार। यह प्रकट होने वाले मुख्य स्वभावों में से एक है, जिसके बाद छल-कपट आता है, जिसमें यथासंभव वह सब करना शामिल है जिससे दूसरे उनके प्रति अत्यधिक सम्‍मान का भाव रखें। उनके शब्द पूरी तरह अकाट्य होते हैं और उनमें अभिप्रेरणाएँ और कुचक्र स्पष्ट रूप से होते हैं, वे अपनी खूबियों का प्रदर्शन करते हैं, फिर भी वे इस तथ्‍य को छिपाना चाहते हैं। वे जो कुछ कहते हैं, उसका परिणाम यह होता है कि लोगों को यह महसूस करवाया जाता है कि वे दूसरों से बेहतर हैं, कि उनके बराबर कोई नहीं है, कि हर कोई उनसे हीनतर है। और क्‍या यह परिणाम चालाकीपूर्ण साधनों से हासिल नहीं किया गया है? ऐसे साधनों के पीछे कौन-सा स्‍वभाव है? और क्‍या उसमें दुष्‍टता के कोई तत्त्व हैं? (हाँ, हैं।) यह एक प्रकार का दुष्‍ट स्‍वभाव है। देखा जा सकता है कि उनके द्वारा प्रयुक्‍त ये साधन कपटपूर्ण स्‍वभाव से निर्देशित होते हैं—तो मैं क्‍यों कहता हूँ कि यह दुष्‍टतापूर्ण है? दुष्‍टता के साथ इसका क्‍या संबंध है? आप लोग क्‍या सोचते हो: स्वयं का उन्नयन करने तथा गवाही देने के अपने लक्ष्‍यों के बारे में क्या वे निष्कपट हो सकते हैं? नहीं हो सकते। लेकिन उनके दिलों की गहराइयों में हमेशा एक आकांक्षा होती है, और जो कुछ भी वे कहते और करते हैं वह उस आकांक्षा को बल प्रदान करता है, और वे जो कुछ कहते और करते हैं, उसके लक्ष्‍य और प्रयोजन बहुत गुप्त रखे जाते हैं। उदाहरण के लिए, इन लक्ष्‍यों को हासिल करने के लिए वे गुमराह करने वाली या किन्‍हीं संदिग्ध चालों का इस्‍तेमाल करेंगे। क्‍या इस तरह का दुराव-छिपाव अपनी प्रकृति में ही धूर्ततापूर्ण नहीं है? और क्‍या इस तरह की धूर्तता को दुष्‍टता नहीं कहा जा सकता? (हाँ।) इसे निश्‍चय ही दुष्टता कहा जा सकता है, और इसकी जड़ें छल-कपट से कहीं ज्‍़यादा गहराई तक फैली होती हैं(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद चार : वे अपनी बड़ाई करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं)परमेश्वर के वचन बिल्कुल सटीक बैठते हैं, उन्होंने खुद को ऊँचा उठाने और अपनी गवाही देने के हमारे इरादों और उद्देश्यों को उजागर कर दिया। यह सब इसलिए है ताकि लोग हमारे बारे में ऊँची राय रखें, हमारी पूजा करें और उनके दिलों में हमारे लिए जगह बन जाए। मैंने जब विचार किया तो जाना कि मेरा खुद को ऊँचा उठाना और दिखावा करना इसलिए था ताकि लोग मेरे बारे में अच्छी राय बनाएँ और मुझे सम्मान दें। जब मैंने देखा कि मेरे लेखों के वीडियो बन गए हैं और ऑनलाइन अपलोड कर दिए गए हैं, तो मैं उन परिणामों की गवाही नहीं दे रही थी जो परमेश्वर ने मुझ पर काम करके हासिल किए थे, बल्कि मैं उनका इस्तेमाल इतराने और दूसरों के मन में अपनी अच्छी राय बनाने के लिए पूंजी के रूप में कर रही थी। उस सभा में जब मैंने सुना कि शियाओशियाओ की स्थिति मेरे अनुभव के समान है, तो मैंने अपने अनुभव के आधार पर परमेश्वर के वचनों के अपने ज्ञान पर संगति नहीं की ताकि सत्य समझने और अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानने के प्रयास में उसे मदद मिले, बल्कि मैंने दिखावा किया और जानबूझकर अपने लेखों का काफी विस्तार से विश्लेषण किया जिससे मैं भाई-बहनों को बेहतर ढंग से दिखा सकूँ कि मुझमें काफी काबिलियत है और मुझे जीवन प्रवेश मिल चुका है, और मैं ऐसी इंसान हूँ जिसने सत्य का अनुसरण किया है। तब वे लोग मेरे बारे में अच्छी राय बनाएँगे और मेरी पूजा करेंगे। खासकर जब बहन यी रैन ने मुझसे पूछा कि मैंने अपना काम कैसे किया, तो मैंने इस बारे में संगति नहीं की कि काम करने के सिद्धांतों में महारत कैसे हासिल की जाए, बल्कि यह बात करती रही कि मैं काम की व्यवस्था करने में कितनी अच्छी हूँ ताकि हर कोई यह सोचे कि मुझमें काम करने की काबिलियत है और फिर वे मेरी प्रशंसा करें और मुझे पूजें। जब मैं दूसरे समूह में मिलने गई तो वहाँ भी यही हुआ। जब मैंने संगति की तो दिखावा करने के लिए विशेष रूप से अपना सबसे सफल अनुभव चुना और यह प्रदर्शित किया कि मैं साधारण नहीं हूँ, ताकि मैं उन पर एक अच्छी छाप छोड़ सकूँ। दरअसल, जब मैंने पहली बार काम करना शुरू किया, तो ऐसी कई चीजें थीं जो मुझे समझ नहीं आईं, और काफी असफलताएँ मिलीं। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन, भाई-बहनों की संगति और सहायता से मैं कुछ सिद्धांत समझ पाने योग्य बनी। लेकिन मैंने अपनी भ्रष्टता या अपनी कमियों के बारे में बात नहीं की, और विशेष रूप से अपना सबसे उज्ज्वल और चमकदार पक्ष प्रदर्शित किया ताकि भाई-बहनों को दिखा सकूँ कि मुझमें काबिलियत है, मैं सत्य का अनुसरण करती हूँ, मुझमें कार्यक्षमता है, मैं प्रतिभाशाली हूँ, और हर कोई मुझे एक नई रोशनी में देखे। सभाओं के दौरान संगति करने का मेरा एकमात्र उद्देश्य दिखावा करना था, लोगों को यह दिखाना था कि मैं जानती हूँ कि अनुभव और काम कैसे करना है, ताकि वे मेरे बारे में ऊँची राय बनाएँ और मेरा सम्मान करें। मैं खुद की गवाही दे रही थी, दिखावा कर रही थी और लोगों को गुमराह कर रही थी। इन इरादों को लेकर भाई-बहनों के साथ संगति करना दिखाता है, मैं सच में बेहद घृणित और दुष्ट थी! मुझे उन दस प्रशासनिक आदेशों का ख्याल आया जिनका पालन परमेश्वर के चुने हुए लोगों को करना चाहिए : “1. मनुष्य को स्वयं को बड़ा नहीं दिखाना चाहिए, न अपनी बड़ाई करनी चाहिए। उसे परमेश्वर की आराधना और बड़ाई करनी चाहिए(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, दस प्रशासनिक आदेश जो राज्य के युग में परमेश्वर के चुने लोगों द्वारा पालन किए जाने चाहिए)। और परमेश्वर के वचन कहते हैं : “मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने वाला हर व्यक्ति अपनी बड़ाई करता है और अपने लिए गवाही देता है, खुद को बढ़ावा देता है और हर मोड़ पर अपना दिखावा करता है, और बिल्कुल भी परमेश्वर की परवाह नहीं करता है। मैं जिन चीजों के बारे में बता रहा हूँ, क्या तुमने इनका अनुभव किया है? कई लोग लगातार अपने लिए गवाही देते हैं, बताते फिरते हैं कि उन्होंने कैसे ये-वो कष्ट सहे, वे कैसे काम करते हैं, परमेश्वर कैसे उन्हें महत्व देता है और ऐसे कुछ काम सौंपता है, और वे किस किस्म के हैं, वे जानबूझकर खास स्वर में बोलते हैं, और कुछ खास शिष्टाचार दिखाते हैं, जब तक कि आखिरकार कुछ लोग यह न सोचने लगें कि शायद वे परमेश्वर हैं। जो लोग इस स्तर तक पहुँच चुके हैं, पवित्र आत्मा बहुत पहले ही उन्हें त्याग चुका है और हालाँकि उन्हें अभी तक भगाया या निष्कासित नहीं किया गया है, बल्कि उन्हें सेवा करने के लिए रख छोड़ा गया है, उनका भाग्य पहले ही सील-बंद हो चुका है और वे अपनी सजा का इंतजार भर कर रहे हैं(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे लगा कि उसके धार्मिक स्वभाव का अपमान नहीं किया जाना चाहिए। परमेश्वर को सबसे ज़्यादा घृणा तब होती है जब लोग अपना उत्कर्ष और दिखावा करते हैं और ऐसा करने वाले लोग सहज ही पवित्र आत्मा का कार्य गँवा सकते हैं। अगर वे प्रायश्चित नहीं करेंगे तो उन्हें अंत में सजा मिलेगी। परमेश्वर के वचन पढ़कर आखिरकार मैं वास्तविकता से रूबरू हुई। मैंने विचार किया कि कैसे इतने समय तक लोगों पर अपनी धाक जमाने के लिए, मैं उन्हें यह बताने को उत्सुक थी कि मैंने अनुभवात्मक गवाही के कुछ लेख लिखे हैं। मैंने पवित्र आत्मा के कार्य और मार्गदर्शन के परिणामों को अपनी महान उपलब्धि के रूप में पेश किया और हर जगह उसका प्रचार किया। चाहे मैं भाई-बहनों के साथ सभा करती या काम पर चर्चा करती, या किसी से मिलती, मैं बड़ी ही बेशर्मी से उन्हें अपने अनुभव बताती ताकि भाई-बहन देखें कि मुझमें काबिलियत और कार्यक्षमता है, और मैं सत्य का अनुसरण करने वाली इंसान हूँ, जिससे कि वे मेरे बारे में ऊँची राय बनाएँ और मुझे पूजें। मैं बड़ी ही बेशर्मी से दिखावा कर रही थी और दूसरों के मन को अपनी ओर खींच रही थी। यह परमेश्वर के स्वभाव का अपमान था। इसका एहसास मुझे तब हुआ जब मैंने पवित्र आत्मा का कार्य खो दिया, मैं अंधकार में जा गिरी और अंततः मुझे हटा दिया गया, लगा कि यह परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव है जो मुझ पर आ रहा है। परमेश्वर ने मेरे कामों से इतनी घृणा की कि उसने मुझसे अपना चेहरा छिपा लिया। परमेश्वर धार्मिक और पवित्र है और उसके स्वभाव का अपमान नहीं होना चाहिए, लेकिन मुझमें शर्म नाम की कोई चीज नहीं थी, मैंने बेहयाई से परमेश्वर की महिमा चुरा ली थी। मैंने परमेश्वर के काम के परिणामों का श्रेय खुद को दिया और अपनी खूबियों के बारे में डींगें मारीं। मुझमें वाकई परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं था और मैं मसीह-विरोधियों के रास्ते पर चल रही थी। मैं दुष्टता कर रही थी। इतना सब सोचकर मेरा दिल पीड़ा से कराह उठा। यह देखकर कि भले ही मैंने खुद को ऊँचा उठाकर और अपनी गवाही देकर रुतबा पाने की अपनी इच्छा को संतुष्ट किया था, लेकिन बदले में मुझे क्या मिला, परमेश्वर की घृणा और पवित्र आत्मा के कार्य को खोना। अगर मैंने यही सब हरकतें जारी रखीं, तो मैं उद्धार पाने का मौका गँवा बैठूँगी। मुझे हटा दिया गया था, जो परमेश्वर की ओर से एक चेतावनी थी। मुझे सही ढंग से आत्म-चिंतन और प्रायश्चित करना था।

मैंने विचार किया, “मैंने क्यों खुद को ऊँचा उठाया और अपने लिए गवाही दी और इस गलत रास्ते पर चल पड़ी? कौन-सा भ्रष्ट स्वभाव मुझे नियंत्रित कर रहा था?” मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे प्रबुद्ध कर मेरा मार्गदर्शन करे। आध्यात्मिक भक्ति में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जानबूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, उनके कारण तुम खुद को ऊँचा उठाओगे, निरंतर खुद का दिखावा करोगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हारे दिल से परमेश्वर का स्थान छीन लेंगे, और अंततः तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुमसे अपने ही विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजा करवाएँगे। लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन इतनी बुराई करते हैं!(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। “अहंकारी प्रकृति के लोग परमेश्वर के प्रति विद्रोह करने, उसका प्रतिरोध करने, ऐसे कार्य करने जिनसे परमेश्वर की आलोचना हो और उसे धोखा देने, और ऐसे काम करने में सक्षम होते हैं जिससे उनका उत्‍कर्ष हो और जो स्‍वतंत्र राज्य स्थापित करने का एक प्रयास रहें। मान लो, किसी देश में परमेश्वर का कार्य स्वीकारने वाले हजारों लोग हों, और परमेश्वर का घर तुम्हें वहाँ परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुआई और चरवाही करने के लिए भेजे। और मान लो, परमेश्वर का घर तुम्‍हें अधिकार सौंपकर, मेरी या किसी भी अन्‍य व्‍यक्ति की निगरानी के बिना अधिकारपूर्वक कार्य करने की अनुमति दे दे। कुछ महीनों बाद तुम एक संप्रभु शासक के समान बन जाओगे, सारी शक्ति तुम्हारे हाथों में होगी, तुम्हीं सारे निर्णय लोगे, सभी चुने हुए लोग तुम्‍हारे प्रति श्रद्धा रखेंगे, तुम्हारी आराधना करेंगे, तुम्हारे प्रति समर्पण करेंगे मानो तुम ही परमेश्वर हो; उनका प्रत्येक शब्द तुम्हारी प्रशंसा में होगा, कहेंगे कि तुम्हारे उपदेशों में अंतर्दृष्टि है, और लगातार इस बात का दावा करेंगे कि उन्‍हें तुम्हारे कथनों की ही आवश्यकता थी, तुम उनके लिए प्रावधान कर सकते हो और उनकी अगुआई कर सकते हो और उनके हृदयों में परमेश्वर के लिए कोई स्‍थान नहीं होगा। क्‍या इस तरह का कार्य समस्‍यात्मक नहीं है? तुमने यह कैसे किया होगा? उन लोगों की ऐसी प्रतिक्रिया से सिद्ध होता है कि तुम जो काम कर रहे थे, उसमें परमेश्वर के लिए गवाही देना शामिल नहीं था; बल्कि इसमें केवल तुम्हारी अपनी गवाही और तुम्हारा अपना दिखावा शामिल था। तुम ऐसा परिणाम कैसे प्राप्त कर पाए? कुछ लोग कहते हैं, ‘मैं सत्य की संगति करता हूँ; मैंने निश्चित रूप से अपनी गवाही कभी नहीं दी है!’ तुम्हारा वही रवैया, वही तरीका, परमेश्वर के स्थान से लोगों के साथ संगति करने के प्रयास जैसा है, न कि एक भ्रष्ट इंसान के स्थान पर स्‍थि‍त होने जैसा। तुम्हारी हर बात में बड़बोलापन है और तुम लोगों से माँगें करते हो; इसका तुमसे कुछ लेना-देना नहीं। इसलिए, तुम जो परिणाम हासिल करोगे, वो लोगों से अपनी पूजा करवाना और उनकी ईर्ष्‍या पाना होगा, जब तक कि अंत में वे सभी तुम्‍हारे प्रति समर्पण नहीं कर देते, तुम्हारी गवाही नहीं दे देते, तुम्हें ऊँचा नहीं उठा देते, तुम्‍हारी चाटुकारिता कर-करके तुम्‍हें आसमान पर नहीं बैठा देते। और जब ऐसा होगा तो तुम खत्‍म हो जाओगे; तुम असफल हो चुके होंगे! क्‍या तुम सभी इस समय इसी रास्‍ते पर नहीं हो? अगर तुम्हें कुछ हज़ार या हज़ारों लोगों की अगुआई करने के लिए कह दिया जाए, तो तुम फूलकर कुप्‍पा हो जाओगे। तुम्हारे अंदर अहंकार आ जाएगा और तुम परमेश्वर का स्थान हथियाने का प्रयास करने लगोगे, बतियाने और भाव-भंगिमाएँ दिखाने लगोगे तुम्हें पता नहीं होता कि क्या पहनना है, क्या खाना है और कैसे चलना है। तुम जीवन की सुख-सुविधाओं का आनंद उठाओगे, स्‍वयं को ऊँचा रखोगे और तुम्‍हारी सामान्‍य भाई-बहनों से मिलने की इच्‍छा नहीं होगी। तुम पूरी तरह से पतित हो जाओगे और तुम्हारा खुलासा कर तुम्हें हटा दिया जाएगा, प्रधान दूत की तरह मार गिराए जाओगे। तुम लोग ऐसा करने में सक्षम हो, है न? तो, तुम लोगों को क्या करना चाहिए? अगर किसी दिन तुम लोगों को हर देश में सुसमाचार के कार्य के लिए उत्‍तरदायी बनाने की व्‍यवस्‍था कर दी जाए, और तुम मसीह-विरोधी रास्‍ते पर चल सके, तो कार्य का विस्तार कैसे होगा? क्या समस्या पैदा नहीं हो जाएगी? फिर कौन तुम लोगों को बाहर जाने देने की हिम्मत दिखाएगा? वहाँ भेजे जाने के बाद, तुमकभी नहीं लौटोगे; तुम परमेश्वर की किसी बात पर ध्यान नहीं दोगे, तुम बसदिखावा करते रहोगे और अपनी ही गवाही देते रहोगे, जैसे कि तुम लोगों का उद्धार कर रहे हो, परमेश्वर का कार्य कर रहे हो, लोगों को यह महसूस कराओगे मानो वहाँ परमेश्वर प्रकट होकर कार्य कर रहा हो और जब लोग तुम्‍हारी पूजा करेंगे तो तुम आनंदित हो जाओगे, और जब लोग तुम्हें परमेश्वर का दर्जा देंगे, तो उसमें तुम्हारी मौन स्वीकृति होगी। उस अवस्था में पहुँचने पर तुम खत्म हो जाओगे; तुम्हें रद्दी की टोकरी में फेंक दिया जाएगा। तुम्हारी अहंकारी प्रकृति ने कब तुम्हारा विनाश कर दिया, तुम्हें पता भी नहीं चलेगा। यह मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति का उदाहरण है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध की जड़ में अहंकारी स्वभाव है)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई जब मैं खुद को ऊँचा उठा रही थी और अपनी गवाही दे रही थी तो उस समय मैं अहंकारी प्रकृति के वश में थी। मेरे तीन लेखों पर वीडियो बनकर ऑनलाइन अपलोड होते ही, मैं अपने आपको बहुत ऊँचा समझने लगी, और सोचने लगी कि मैं एक ऐसी इंसान हूँ जिसमें सत्य वास्तविकता है और मैं बचा ली जाऊँगी। मैं अपनी प्रशंसा करने लगी कि मैं भाई-बहनों की समस्याओं को हल करने की योग्यता रखती हूँ और सबसे उपयुक्त अगुआ हूँ। चाहे भाई-बहन अपनी स्थितियों पर चर्चा कर रहे हों या हम काम के बारे में बातचीत कर रहे हों, मैं हर अवसर का उपयोग उन्हें अपने अनुभवात्मक गवाही लेख दिखाने के लिए करती और विश्लेषण करती कि कैसे मैंने ज्ञान और अनुभव प्राप्त किया, ताकि वे देख सकें कि मुझमें सत्य वास्तविकता है और वे मेरे बारे में ऊँची राय बनाएँ और मेरी पूजा करें। मैं इतनी घमंडी हो गई थी कि मेरा सारा विवेक जाता रहा और मैं भूल गई कि धरती पर मेरी औकात क्या है। जिस व्यक्ति के पास थोड़ा-सा भी विवेक और परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होगा जब वह उसके कार्य से प्राप्त परिणाम देखेगा तो सारी महिमा परमेश्वर को देगा। लेकिन मेरे अंदर तो विवेक नाम की कोई चीज बची ही नहीं थी। मैंने अनुभवात्मक गवाही के कई लेख लिखे और सोचा था कि मुझमें सत्य वास्तविकता है और इस तरह मैंने खुद की गवाही देनी शुरू कर दी। मेरे अंदर जरा-सी भी शर्म नहीं बची थी। मुझे पौलुस का ख्याल आया जिसकी प्रकृति बेहद घमंडी और दंभी थी। उसे लगा वह दूसरों से अधिक जानता है और प्रेरितों की भीड़ से ऊपर है। उसने कभी अपना विश्लेषण नहीं किया या स्वयं को जानने की कोशिश नहीं की, न ही उसने परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकारा। जब पौलुस ने अपने काम में कुछ नतीजे देखे, तो वह हर जगह यह दिखाते हुए अपना बखान करने लगा कि वह काम और प्रचार करने में अच्छा है। वह इस बात की गवाही देता कि उसने कितनी पीड़ा सही और कितनी बड़ी कीमत चुकाई, उसने बहुत से विश्वासियों को गुमराह किया। उसने लोगों को झूठा विश्वास दिलाया कि उसके पास सत्य वास्तविकता है और उसके शब्दों को परमेश्वर के वचन माना जाए। अंततः उसने परमेश्वर के स्वभाव का अपमान किया और परमेश्वर द्वारा दंडित किया गया। मैंने जो स्वभाव प्रकट किया था, वह भी पौलुस के स्वभाव से अलग नहीं था। मैं भी बहुत घमंडी और दंभी थी। मैंने अनुभवात्मक गवाही के कई लेख लिखे और खुद को सत्य वास्तविकता वाले इंसान के रूप में पेश किया। मैंने इन लेखों का इस्तेमाल हमेशा दिखावा करने के लिए किया, जिसके कारण भाई-बहन मेरी पूजा करने लगे। मैं भी पौलुस की तरह लोगों को गुमराह कर रही थी। केवल परमेश्वर ही सत्य है और उसी के वचन लोगों की स्थिति और कठिनाइयों को हल कर सकते हैं। केवल परमेश्वर के वचन ही सभी लोगों तक फैलाने योग्य हैं। केवल परमेश्वर ही लोगों की पूजा और स्तुति के योग्य है। मैं एक भ्रष्ट इंसान हूँ, लेकिन मैंने हमेशा प्रयास किया कि लोग मेरे बारे में ऊँची राय बनाएँ और मेरी पूजा करें। मैं परमेश्वर का विरोध करने के मार्ग पर चल रही थी। अगर मैंने प्रायश्चित न किया होता तो मैं उसके स्वभाव का अपमान कर नष्ट हो जाती। अंदर ही अंदर मैं डर से काँप रही थी; ऐसा लग रहा था मानो परमेश्वर का क्रोध किसी भी समय मुझ पर टूट सकता है। मन ही मन मैं लगातार परमेश्वर से कह रही थी, “हे परमेश्वर! मैं गलत थी। मैं एक भ्रष्ट इंसान से ज्यादा कुछ नहीं हूँ। मेरा स्वभाव अहंकारी है, मैंने तेरी महिमा चुराई है और मैं पवित्र आत्मा के कार्य से वंचित हो गई हूँ। यह तेरी धार्मिकता है। मैं एकदम गलत हूँ और मुझे दंडित किया जाना चाहिए। हे परमेश्वर! मुझे डर है कि तू मुझे छोड़ देगा, मैं तेरे सामने आकर प्रायश्चित करने को तैयार हूँ।”

बाद में मैं आत्म-चिंतन भी कर रही थी, मुझे एहसास हुआ कि मैं हमेशा यही सोचती थी कि अनुभवात्मक गवाही के लेख लिखने का मतलब है कि मेरे पास सत्य वास्तविकता है और मैं महान हूँ। क्या ऐसा दृष्टिकोण सत्य के अनुरूप था? मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े और मुझे इसका जवाब मिल गया। परमेश्वर कहते हैं : “लोगों का जीवन बहुत धीरे-धीरे आगे बढ़ता है, क्योंकि लोग जो सत्य समझते हैं, उसमें लोगों का प्रकृति सार, लोगों का अस्तित्व और वे चीजें शामिल होती हैं जिनके अनुसार लोग जीवन जीते हैं, और इसमें व्यक्ति के स्वभाव में बदलाव के साथ-साथ उसके जीवन में होने वाले बदलाव भी शामिल हैं। तुम्हारे जीवन का किसी दूसरे जीवन में बदलना इतना आसान कैसे हो सकता है? एक ओर, इसके लिए परमेश्वर के कार्य की जरूरत होती है, और साथ ही, इसमें लोगों के सक्रिय सहयोग की भी जरूरत होती है; इसके अलावा, बाहरी परिवेश के परीक्षण और साथ ही तुम्हारा अपना अनुसरण भी होता है; इसके अलावा, तुममें पर्याप्त काबिलियत और समझदारी होनी चाहिए, तभी परमेश्वर तुम्हें अतिरिक्त ज्ञान और मार्गदर्शन देगा; इतना ही नहीं, परमेश्वर तुम्हें कुछ ताड़नाएँ देगा, तुम्हारा न्याय और काट-छाँट करेगा, और तुम्हारे भाई-बहन तुम्हारी आलोचना करेंगे, मगर फिर भी तुम्हें आगे बढ़ते रहना होगा, ताकि शैतान से संबंधित चीजों को हटाया जा सके—केवल तभी सत्य से संबंधित सकारात्मक चीजें धीरे-धीरे प्रवेश कर सकती हैं। ... ऐसा मत सोचो कि तुमने बहुत सारे धर्मोपदेश सुने हैं, तो सत्य तुम्हारा जीवन बन गया है, और तुमने सत्य प्राप्त कर लिया है। तुम अभी भी उससे बहुत दूर हो! यह मत सोचो कि सिर्फ इसलिए कि तुमने एक गवाही लेख लिखा है या उस तरह का अनुभव किया है, तो तुम पहले से ही बचा लिए गए हो। तुम अभी वहाँ नहीं पहुँचे हो! यह तुम्हारे लंबे जीवन के अनुभव का एक छोटा सा हिस्सा है। यह हिस्सा सिर्फ एक क्षणिक मनोदशा, क्षणिक भावना, क्षणिक इच्छा या महत्वाकांक्षा हो सकती है, और कुछ नहीं। जब एक दिन तुम कमजोर होगे और पीछे मुड़कर देखोगे, और उन गवाहियों को सुनोगे जो तुमने कभी दी थी, जो शपथ तुमने कभी ली थी, और जिन चीजों को तुम कभी समझते थे, वे तुम्हें अपरिचित लगेंगी, और तुम कहोगे, “क्या वह मैं था? क्या मेरे पास इतना बड़ा आध्यात्मिक कद था? मुझे कैसे नहीं पता? वह मैं नहीं था, है न?” तब तुम्हें एहसास होगा कि तुम्हारा जीवन अभी भी नहीं बदला है। अगर तुम्हारा जीवन नहीं बदला है तो इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि तुम्हारा स्वभाव अभी भी नहीं बदला है। तुम्हें कैसा लगेगा जब तुम्हें पता चलेगा कि—गवाहियाँ देने और उस समय यह सोच होने के बाद भी कि तुम्हारे पास पहले से ही बड़ा आध्यात्मिक कद है—तुम अभी भी इतने नकारात्मक हो सकते हो? क्या तुम्हें नहीं लगेगा कि किसी के स्वभाव को बदलना बहुत मुश्किल है? सत्य कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे लोगों में रातों-रात ढाला जा सके। अगर लोग वास्तव में सत्य को अपने जीवन के रूप में प्राप्त करते हैं, तो वे धन्य हो जाएँगे, और उनका जीवन अलग होगा। वे अब जैसे हैं और अक्सर भ्रष्ट स्वभाव दिखाते हैं, वैसे नहीं रहेंगे, बल्कि पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पित हो पाएँगे, निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य निभा पाएँगे, और पूरी तरह से बदल जाएँगे(वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग एक))। “ज्यादातर लोगों के अनुभवजन्य गवाहियों के लेख एक ऐसे परिवेश का अनुभव करने के बारे में होते हैं जिसने उन्हें एक खास तरीके से काम करने और अपने क्रियाकलापों में ‘परमेश्वर के प्रति समर्पण’ हासिल करने को मजबूर किया। वे यह सोचकर अपने आप में काफी खुश महसूस करते हैं कि उनके पास सत्य वास्तविकता है। भले ही तुमने गवाही का एक लेख लिखा हो, यह वास्तव में तुम्हारे अपने बारे में बढ़ा-चढ़ाकर बातें करने, अपने लिए गवाही देने और खुद को स्थापित करने के लिए है : ‘देखो, मेरे पास एक गवाही है। मैंने परमेश्वर को नीचा नहीं दिखाया। मैंने इस परिवेश में अपना कर्तव्य निभाया!’ कुछ अन्य लोगों ने काट-छाँट किए जाने के बाद आत्मचिंतन करके यह महसूस किया कि वे अनमने थे और उन्होंने परमेश्वर को संतुष्ट नहीं किया, और वे पश्चात्ताप करने के लिए तैयार हैं। हालाँकि पश्चात्ताप करने का एक दौर आता है जिसमें लगता है कि वे अब अनमने नहीं हैं, मगर क्या उनका भ्रष्ट स्वभाव बदल गया है? नहीं; परदे के पीछे वे अभी भी बेहद अहंकारी और ढीठ हैं। वे जिस नजरिये, परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण से लोगों और चीजों को देखते हैं और उनसे निपटते हैं वे बुनियादी तौर पर परमेश्वर के वचनों पर आधारित नहीं होते, इसलिए उनका भ्रष्ट स्वभाव बिल्कुल भी बदलना शुरू नहीं हुआ है! तो, तुम किस बदलाव के बारे में बात करते हो? यह मात्र व्यवहार, जीवनशैली और शायद उस लहजे, अभिव्यक्ति के तरीके और शैली में बदलाव है जिसमें तुम दूसरों से बातचीत करते हो और मामलों को संभालते हो। तुम्हारी आस्था भी मजबूत हुई है; तुम विभिन्न परिवेशों में काट-छाँट किए जाने के अनेकों मामलों से गुजरने के बाद सत्य की खोज करने में सक्षम हो, और अब बहुत से सत्य समझते हो, और परमेश्वर के अनुसार चलने का तुम्हारा संकल्प पहले से अधिक दृढ़ हुआ है—ये सभी पहलू बदल गए हैं। ये बदलाव लोगों को उद्धार पाने में अधिक आश्वस्त बनाते हैं, सत्य का अनुसरण करने के लिए अधिक इच्छुक बनाते हैं, और परमेश्वर का अनुसरण करने के प्रति अधिक आशावान और अधिक आशावादी बनाते हैं। जब भी परीक्षण या कष्ट उनके रास्ते में आते हैं, वे निराश नहीं होते और अपनी आस्था का परित्याग नहीं करते। ... लेकिन बुरी खबर क्या है? यह कि तुम लोग जो भी बदलाव प्रकट और प्रदर्शित करते हो, वे मात्र व्यवहार, सोच और विचारधारा में बदलाव हैं, जिनमें तुम्हारे अवचेतन के जागृत होने के कुछ अपेक्षाकृत सकारात्मक, अग्रसक्रिय, आशावादी तत्वों के संकेत दिखते हैं। लेकिन, इन संकेतों का अर्थ यह नहीं है कि तुम लोगों का भ्रष्ट स्वभाव बदलने लगा है(वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में II, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं बहुत अपमानित और शर्मिंदा हुई। पहले मैं सोचती थी कि अगर मैं अनुभवात्मक गवाही के कई लेख लिखूँ, जिन पर वीडियो बनाकर ऑनलाइन अपलोड किया जाए, तो मेरे पास सत्य वास्तविकता होगी और मैं दूसरों से बेहतर हो जाऊँगी और मेरा उद्धार भी नजदीक होगा। परमेश्वर के वचनों के अनुसार, मेरा दृष्टिकोण भ्रामक था और सत्य के अनुरूप नहीं था। भले ही मैं आत्म-चिंतनशील थी, मुझे एक मामले का ज्ञान था और इसलिए मैंने अनुभवात्मक गवाही का एक लेख लिखा, लेकिन इसका मतलब केवल इतना ही था कि मैंने इस स्तर पर कुछ पुरस्कार और ज्ञान प्राप्त किया था, न कि मैं अपना भ्रष्ट स्वभाव त्यागकर कोई ऐसी इंसान बन गई थी जिसके पास वास्तविकता और जीवन है। दरअसल, मैं शैतान द्वारा बुरी तरह भ्रष्ट हो चुकी थी; शैतानी स्वभाव मुझमें गहराई तक समाया हुआ था और मेरे अंदर कई शैतानी जहर भी थे। ऐसा बिल्कुल नहीं था कि अगर मैंने थोड़ा-बहुत सत्य समझ लिया है या किसी मामले विशेष के संबंध में एक बार सत्य का अभ्यास कर लिया है, तो मेरा शैतानी स्वभाव पूरी तरह से बदल जाएगा। इस दौरान मैं यह सोचकर अपने अहंकारी स्वभाव में जी रही थी, कि मैं सबसे श्रेष्ठ और बेहतर हूँ, मैं बेशर्मी से खुद को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहा थी और दिखावा कर रही थी। इसके अलावा, मैं अपने अहंकारी स्वभाव और चिड़चिड़ेपन के कारण बिना सोचे-समझे भाई-बहनों की काट-छाँट कर रही थी। मेरे अंदर अभी भी कई भ्रष्ट स्वभाव थे जिन्हें मैंने दूर नहीं किया था और मेरे जीवन में परमेश्वर के वचन बिल्कुल भी नहीं थे। मैंने यह भी जाना मैंने जो अनुभवात्मक गवाही के लेख लिखे थे, उनका मतलब सिर्फ इतना था कि मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव या गलत विचारों के एक निश्चित पहलू की थोड़ी-बहुत समझ है और अस्थायी रूप से सत्य का थोड़ा-सा अंश अपने व्यवहार में ला पाई थी, लेकिन मैं अपनी प्रकृति सार से पूरी तरह से घृणा और विद्रोह करने को तैयार नहीं थी। जब इसी तरह का एक मामला सामने आया, तो मैं अभी भी अपने भ्रष्ट स्वभाव से बंधी थी और सत्य को व्यवहार में नहीं ला पाई थी। ठीक पहले की तरह, जब मैंने एक खुशामदी इंसान के तौर पर अपने अनुभव के बारे में लिखा तो पहचाना कि मैं इस विचार से नियंत्रित हूँ “अगर तुम दूसरों पर वार करते हो, तो उनके चेहरे पर वार मत करो; अगर तुम दूसरों की आलोचना करते हो, तो उनकी कमियों की आलोचना मत करो,” स्वार्थी हूँ, नीच हूँ और केवल अपने हितों की रक्षा कर रही हूँ। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं इस तरह के दृष्टिकोण के प्रति थोड़ा और समझदार हो गई, लेकिन बाद में जब उसी तरह का मामला सामने आया, तो मैं फिर से अपने स्वार्थी, कपटी स्वभाव के चंगुल में थी और सत्य का अभ्यास पूरी तरह से नहीं कर पाई। मेरे लिए अभी भी जरूरी था कि मैं परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को और अधिक स्वीकारूँ और धीरे-धीरे अपने भ्रष्ट स्वभाव का त्याग करूँ। जिन लोगों के स्वभाव में सच में बदलाव आता है और जिनमें सत्य वास्तविकता होती है, वे हर परिस्थिति में परमेश्वर के वचनों के आधार पर चीजों को देखते हैं, अपने शैतानी भ्रष्ट स्वभाव और शैतानी दृष्टिकोण के अनुसार नहीं जीते। वे सृजित प्राणियों के रूप में अडिग बने रह सकते हैं, परमेश्वर के लिए गवाही दे सकते हैं, और एक सामान्य इंसान की तरह जीवन जी सकते हैं। लेकिन मैं अभी भी अक्सर अपने भ्रष्ट स्वभावों के चंगुल में थी, मैं जो जीवन जी रही थी उसमें परमेश्वर के लिए गवाही देने का तत्व नहीं था। मैं बेशर्मी से खुद को ऊँचा उठाकर अपनी ही गवाही दे रही थी और शैतान की छवि में जी रही थी। मैं परमेश्वर को अपमानित कर रही थी; मेरे पास कौन-सा सत्य था? मैं बचाए जाने से कोसों दूर थी। लेकिन इस बार मुझे अपनी वास्तविक स्थिति का साफ-साफ पता चल गया : मैं एक भ्रष्ट इंसान थी, जो दूसरों की ऊँची राय और प्रशंसा के योग्य नहीं थी। जब मुझे अपने कर्तव्य निर्वहन में कुछ परिणाम हासिल हुए, तो वह परमेश्वर के वचनों, कार्य, पवित्र आत्मा के प्रबोधन और मार्गदर्शन से प्राप्त हुए थे। अगर मुझे परमेश्वर का प्रबोधन और मार्गदर्शन न मिला होता, तो मैं एक नितांत मूर्ख इंसान होती जिसमें कोई समझ न होती, किसी काबिल न होती और दूसरों से बेहतर न होती। इस चीज को पहचानकर, मैं अपने आपसे थोड़ी मायूस हो गई। मेरे अंदर अभी भी बहुत सारी भ्रष्टताएँ और कमियाँ थीं, मैं खुद को बिल्कुल नहीं जानती थी और फिर भी सोचती थी कि मेरे पास सत्य वास्तविकता है। मैं बहुत घमंडी और विवेकशून्य थी और परमेश्वर को सच में मुझसे घृणा थी।

करीब महीने भर बाद, मुझे एक दिन अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए नियुक्त कर दिया गया। मुझे बहुत डर था कि मैं कहीं वही गलतियाँ न दोहराऊँ, मैं अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करती थी कि मुझे सत्य का अभ्यास करने के लिए मार्गदर्शन दे। एक बार, मैं कुछ अगुआओं के साथ सभा में थी, मैंने झांग यिंग को यह कहते हुए सुना कि उसने भाई-बहनों की समस्याओं को देख तो लिया, लेकिन उन्हें निर्देश देने की हिम्मत नहीं जुटा पाई, मुझे लगा कि यह खुशामदी लोगों की अभिव्यक्ति है। मैंने सोचा, “यहाँ काफी लोग हैं; मैं क्यों न उन्हें इस बारे में अपनी अनुभवात्मक गवाही का लेख दिखाऊँ? इस तरह यकीनन मेरे बारे में उनकी राय अच्छी बनेगी, और भाई-बहनों के बीच भी मेरी छवि स्थापित हो जाएगी।” तभी मुझे एहसास हुआ कि एक बार फिर मैं दिखावा करना चाहती हूँ। मैंने परमेश्वर के वचनों पर विचार किया : “इसे रोकने के लिए लोगों को पहले इससे अवगत होना चाहिए कि उन्होंने अभी तक सत्य प्राप्त नहीं किया है, कि उनके जीवन-स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया है, और यह कि भले ही वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, पर वे अभी भी शैतान की सत्ता में रह रहे हैं, और उन्हें बचाया नहीं गया है; वे किसी भी समय परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं और उससे दूर भटक सकते हैं। यदि उनके हृदय में संकट का यह भाव हो—यदि, जैसा कि लोग अक्सर कहते हैं, वे शांति के समय खतरे के लिए तैयार रहें—तो वे कुछ हद तक अपने आपको काबू में रख पाएँगे, और अगर उनके साथ कोई बात हो भी जाए, तो वे परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे और उस पर निर्भर रहेंगे, और वही पुरानी गलतियाँ करने से बच पाएँगे। ... तीन सबसे महत्वपूर्ण बातें हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए : पहली, तुम अभी भी परमेश्वर को नहीं जानते; दूसरी, तुम्हारे स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया है; और तीसरी, तुम्हें अभी भी मनुष्य की सच्ची छवि को जीना है। ये तीनों चीजें तथ्यों के अनुरूप हैं, ये वास्तविक हैं, और तुम्हें इनके बारे में स्पष्ट होना चाहिए। तुम्हें आत्म-जागरूक होना चाहिए। यदि तुम्हारे पास इस समस्या को ठीक करने का संकल्प है, तो तुम्हें अपना नीति-वाक्य चुनना चाहिए : उदाहरण के लिए, ‘मैं जमीन पर पड़ा गोबर हूँ,’ या ‘मैं शैतान हूँ,’ या ‘मैं अकसर पुराने ढर्रे पर चल पड़ता हूँ,’ या ‘मैं हमेशा खतरे में हूँ।’ इनमें से कोई भी तुम्हारा व्यक्तिगत नीति-वाक्य बनने के लिए उपयुक्त है, और यदि तुम हर समय इसे याद करोगे, तो यह तुम्हारी मदद करेगा। इसे मन में दोहराते रहो, इस पर चिंतन करो, और तुम कम गलतियाँ करोगे या गलतियाँ करना बंद कर दोगे। बहरहाल, सबसे महत्वपूर्ण बात है परमेश्वर के वचन पढ़ने में अधिक समय बिताना, सत्य को समझना, अपनी प्रकृति को जानना और अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागना। तभी तुम सुरक्षित रहोगे। दूसरी चीज यह है कि कभी भी ‘परमेश्वर के किसी गवाह’ का स्थान न लो, और कभी खुद को परमेश्वर के गवाह मत कहो। तुम केवल निजी अनुभव के बारे में बात कर सकते हो। तुम इस बारे में बात कर सकते हो कि परमेश्वर ने तुम लोगों को कैसे बचाया, इस बारे में संगति कर सकते हो कि परमेश्वर ने तुम लोगों को कैसे जीता, और यह बता सकते हो कि उसने तुम लोगों पर कौन-सा अनुग्रह किया। यह कभी मत भूलो कि तुम लोग सबसे अधिक भ्रष्ट हो, तुम गोबर की खाद और कचरा हो। अब तुम अंत के दिनों का परमेश्वर का कार्य स्वीकार कर पा रहे हो तो इसका सारा श्रेय उसके हाथों तुम्हारे उत्थान को जाता है। इसकी वजह केवल यही है कि तुम लोग सबसे भ्रष्ट और सबसे गंदे हो, इसलिए तुम्हें देहधारी परमेश्वर ने बचाया है, और उसने तुम पर इतना बड़ा अनुग्रह किया है। इसलिए तुम लोगों में शेखी बघारने के लायक कुछ भी नहीं है और तुम केवल परमेश्वर की प्रशंसा कर सकते हो और उसे धन्यवाद दे सकते हो। तुम लोगों का उद्धार विशुद्ध रूप से परमेश्वर के अनुग्रह के कारण हुआ है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। मन में तो मैं साफ तौर पर जानती ही थी कि मैं लगातार लोगों के पीछे पड़ी नहीं रह सकती थी कि वे मेरे बारे में ऊँची राय बनाएँ; मुझे अपनी इस गलत मंशा से पिंड छुड़ाना होगा। परमेश्वर सत्य का स्रोत है और केवल परमेश्वर के वचन ही लोगों की स्थितियों को हल कर सकते हैं। मुझे भाई-बहनों के साथ और अधिक संगति करनी होगी और परमेश्वर के वचनों की गवाही देनी थी और उन्हें यह सीखने में मदद करनी होगी कि कैसे आत्मचिंतन करें, परमेश्वर के वचनों के जरिए खुद को कैसे जानें और कैसे अभ्यास का मार्ग खोजें। मैंने इस दौरान अपनी विफलता के बारे में भी सोचा, तो मुझे एहसास हुआ कि मैं पहले की तरह दिखावा करती नहीं रह सकती, मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर! मैं जानती हूँ कि मेरे इरादे गलत हैं, मैं फिर से दिखावा करना चाहती हूँ और चाहती हूँ कि लोग मेरे बारे में ऊँची राय बनाएँ। हे परमेश्वर! मैं अपने अंदरूनी इरादों और इच्छाओं को छोड़ने को तैयार हूँ; अब मैं असफलता के मार्ग पर और नहीं चलना चाहती। मैं बस अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहती हूँ; मुझे सत्य का अभ्यास करने के लिए मार्गदर्शन दो।” प्रार्थना करने के बाद, मैंने शांतचित्त होकर झांग यिंग की समस्या को विस्तार से सुना और सोचा कि परिणाम प्राप्त करने के लिए मुझे सत्य के किस पहलू पर संगति करनी चाहिए। जब मैंने ध्यान से सुना तो मुझे पता चला कि उसकी स्थिति और विचार मेरे अनुभव से अलग हैं। इसके बाद, मुझे परमेश्वर के कुछ वचन मिले जो झांग यिंग की स्थिति को दर्शाते थे, मैंने उन पर संगति की और परमेश्वर के वचनों के अनुसार झांग यिंग को उसकी समस्याएँ बताईं। संगति के बाद, झांग यिंग को अपनी स्थिति की थोड़ी-बहुत जानकारी मिली वह परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने और कलीसिया के हितों की रक्षा करने को तैयार थी। यह देखकर कि वह थोड़ा-बहुत आत्म-चिंतन और ज्ञान प्राप्त कर सकती है, मुझे बहुत खुशी हुई। मैंने प्रत्यक्ष रूप से मन की शांति का अनुभव किया जो परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने से आती है। एक सभा में, मैंने भाई-बहनों के सामने अपनी असफलता के पिछले अनुभव पर खुलकर बात की। अपना विश्लेषण किया, अपने भ्रष्ट स्वभाव के ज्ञान पर संगति की और मैंने गवाही दी कि परमेश्वर के वचनों के न्याय और खुलासे से मुझे अपने अहंकारी स्वभाव के बारे में थोड़ा-बहुत ज्ञान प्राप्त हुआ। और मैं यह भी मानती हूँ कि चाहे हम अपने अनुभव पर चर्चा कर रहे हों या भाई-बहनों की कठिनाइयों और समस्याओं का समाधान कर रहे हों, हमें अपना विश्लेषण और अधिक करना चाहिए, अपनी भ्रष्टता और कमियों को बेहतर ढंग से समझना चाहिए, परमेश्वर के वचनों, उसके कार्य और मार्गदर्शन की और अधिक गवाही देनी चाहिए। तभी हम परमेश्वर का गुणगान कर उसकी गवाही दे सकते हैं।

जब मुझे हटा दिया गया, तो उसके बाद मैंने जाना कि ऐसा करके परमेश्वर मुझे बचा रहा है। मेरी प्रकृति बहुत अहंकारी थी, भले ही मेरा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट हो रहा था, तब भी मैंने अनजाने में खुद को ऊँचा उठाया और अपनी गवाही दी। मैं मसीह विरोधियों के मार्ग पर चल रही थी और पीछे नहीं हट सकती थी। मुझे हटाने से मेरे दुष्ट कर्म बंद हो गए, मुझे गहराई से चिंतन करने और खुद को जानने का मौका मिला जिससे मैं प्रायश्चित कर बदलने को तैयार हो गई। मैं परमेश्वर को धन्यवाद देती हूँ कि उसने मुझे अपने कार्य का अनुभव करने का यह बहुमूल्य अवसर दिया, ताकि मैं सिर झुकाऊँ और चिंतन कर स्वयं को जानने का प्रयास करूँ और अभ्यास का मार्ग ढूँढ़ूँ। मैं जान गई हूँ कि मुझे अपने कर्तव्य निर्वहन में परमेश्वर की स्तुति कैसे करनी चाहिए कैसे उसकी गवाही देनी चाहिए।

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