केवल सत्य को समझने के द्वारा ही वास्तव में खुद को जानना
मेरी राय में, मैं हमेशा सोचता था कि अगर बाहरी अभ्यास उचित प्रतीत होते जिनमें लोग किसी भ्रष्टता को नहीं देख सकते थे, तो इसे बदलाव माना जाता था। इसीलिए, मैं जो कुछ भी करता था उसमे बाहरी अभ्यास पर विशेष ध्यान देता था। मैं केवल इस बात की चिंता करता था कि मेरे अभ्यास सही हैं या नहीं, और अगर मेरे बाहरी व्यवहार और अभ्यास उचित थे, तो मैं ठीक था। काट-छाँट किए जाने से सामना होते समय, मैं केवल इस बात की चिंता करता था कि क्या मेरे व्यवहार में कुछ ग़लत था। मैं केवल तभी राजी होता था जब मुझे मेरे अभ्यासों में असत्य ठहराया जाता था। अपने भ्रष्ट स्वभाव को पहचानने के बारे में आगे किसी भी संवाद को स्वीकार नहीं करता था। बाद में, भाइयों और बहनों ने मुझे बताया कि व्यक्ति केवल अपनी प्रकृति को जानने के द्वारा ही अपना स्वभाव बदलता है, और यह कि मैंने अपनी प्रकृति को नहीं जाना था। भाइयों और बहनों के वचनों को सुनने के बाद, मैंने अपनी प्रकृति को पहचानना सीखना शुरू किया। जब कोई कहता कि, "इस दिखावा करने के प्रदर्शन पर तुम्हारी अहंकारी प्रवृत्ति हावी है," तो मैं कहता, "ओह, मैं अहंकारी हूँ, अहंकारी होना मेरी प्रकृति है!" कोई अन्य कहता, "यह अपरंपरागत और असंयमित व्यवहार तुम्हारी दुष्ट मानवीय प्रकृति के प्रभुत्व में है।" तब मैं कहता, "ओह, मेरी दुष्ट प्रकृति।" मुझे नहीं लगता था कि अपनी प्रकृति को जानना मुश्किल था अगर मैं इसी बात को दोहराता रहता कि कौन से प्रकारों की प्रकृति क्रमशः इन व्यवहारों पर हावी हैं। जब कोई मुझसे कहता, "कौन सी प्रकृति के प्रभुत्व में यह व्यवहार है?" तो मैं कहता, "यह अहंकार, दुष्टता, क्रूरता, धूर्तता है।..." इस प्रकार के प्रश्न करना और उत्तर देना रिक्त स्थान भरने जैसा होता था, जो काफी आसान लगता था। पता चला कि बहनों और भाइयों ने मुझे बताया था कि मैं अपनी प्रकृति को सतही स्तर पर जानता था। इसलिए, खुद को जानने के बारे में बाद की बातचीत में, मैं कहता था, "मैं बहुत अहंकारी हूँ, और बिना सीमाओं के हूँ। मैं बहुत दुष्ट हूँ, और बहुत पतित हूँ।" मैं सोचता था कि अपनी पिछली पहचान में "बहुत" जोड़ने से मेरी समझ और गहरी हो जाएगी। लोगों के अपनी प्रकृतियों को पहचानने के बारे में परमेश्वर की अपेक्षाओं के अर्थ मुझे स्पष्ट नहीं थे, इसलिए, जब मैं भ्रष्टता को प्रकट करता था या जब मैं मानवीय प्रकृति के बारे में परमेश्वर के प्रकट किए हुए वचनों को देखता था, तो मुझे यह केवल निम्नलिखित नियमों के परिप्रेक्ष्य में समझ में आता था; मैं काफी हद तक एक तोते जैसा था जो अपने ह्रदय से समझने और जानने के बजाय अपने आप को पहचानने के बारे में शब्दों को दोहराता रहता था। मैं अपने आप से घृणा नहीं करता था, न ही मैं महसूस करता था कि यह कितना ख़तरनाक है। यहाँ तक कि परमेश्वर से कठोर वचन सुनने के बाद भी, मुझे झटका महसूस नहीं हुआ था। इसके बजाय, इसने मुझे परेशान नहीं किया, जिसके परिणामस्वरूप मेरे स्वभाव में थोड़ा सा ही बदलाव आया। यद्यपि मैं मूर्ख, जड़ और गुणवत्ता में घटिया हूँ, फिर भी परमेश्वर मुझे छोड़ता नहीं है, बल्कि इसके बजाय, वह मुझे मेरी प्रकृति और सार को जानने में मेरी मेरी अगुवाई करते हुए वह हमेशा मेरा मार्गदर्शन और मुझे प्रबुद्ध करता है, और अपना स्वभाव बदल पाने की राह दिखाता है।
कुछ दिन पहले, मुझे एक भाई के साथ एक नए मेज़बान परिवार में हटा दिया गया। हमने वहाँ जाने के बाद जब संवाद किया, तो मेज़बान परिवार की वृद्ध बहन ने उल्लेख किया कि कैसे वे भाई-बहन जिनकी वह मेजबानी किया करती थी अपनी भ्रष्टता को प्रकट करते थे; वह उनके बारे में अपने विचारों की बात भी करती थी। सुनने के बाद, मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं की या उसे दिल में नहीं लिया, और मैंने वृद्ध बहन के साथ सत्य का संवाद नहीं किया। इस तरह समय बीतता गया। कई दिनों के बाद, अन्य दो भाई जो हमारे साथ कर्तव्यों को करते थे कुछ दिनों के लिए हमारे साथ रहने के लिए आए। उनके जाने के बाद, इस वृद्ध बहन ने उन दो भाइयों के बारे में अपनी राय की हमसे चर्चा करी, और उस समय, मेरे मन में प्रतिक्रिया हुई: जो भी तुमने कहा है उसमें से अधिकांश तथ्यों के अनुरूप नहीं है; यह सब तुम्हारा संदेह है। परमेश्वर की अपेक्षा है कि भाई-बहन आपस में प्रेम करें और एक दूसरे की सहायता करें। मुझे सत्य का अभ्यास करना चाहिए और तुम्हारे साथ ईमानदार होने के लिए तुम्हारे साथ सत्य का संवाद करना चाहिए। हमारे संवाद के दो दिन बाद, वह वृद्ध बहन मेरे पास आई और उसने मुझे बताया कि मेरे किस वाक्य ने उसे संयत किया, मेरे किए गए किन कार्यों ने उसे संयत किया था। उसने अपने सभी विचारों के बारे में बात की और वह रो पड़ी। यह देख कर, मैंने सोचा: तुम सभी के बारे में बहुत शक्की हो। इस बार तुम मेरे प्रति भी शंकित हो। यह ठीक नहीं है। मुझे तुम्हारे साथ स्पष्ट रूप से संवाद करने की आवश्यकता है ताकि तुम मेरे प्रति कोई पूर्वाग्रह न रखोगी। इसलिए, मैंने उसके साथ खुले दिल से बातचीत की, और उसके द्वारा प्रदर्शित प्रकृति और साथ ही संदेहों और आलोचनाओं के उसके व्यवहारों को सटीक रूप से बताया। वृद्ध बहन इसे स्वीकार करती हुई प्रतीत हुई, परन्तु वह भीतर से आश्वस्त नहीं थी। उसके बाद के दिनों में, वह किसी न किसी बीमारी के होने का दावा करती। यह देख कर, मैं सोचता था: तुम भीतर से आश्वस्त नहीं हैं, लेकिन इसके बजाय इसे स्वीकार करने का दिखावा करती हैं; क्या यह ढोंग और छल नहीं है? जब कोई बीमार होता है तो इसमें सीखने के लिए सबक होते हैं। आपको कुछ अंतरावलोकन करना चाहिए, क्योंकि तुम लगातार बीमारी में रही हो। यह सोचने पर, मुझ पर एक और "ज़िम्मेदारी" आ गई, जो मुझे उस वृद्ध बहन से फिर से बात करने का कारण बनी। मैंने उसे कुछ अंतरावलोकन करने और खुद को जानने के लिए कहा। हालाँकि, इस संवाद में, वृद्ध बहन ठीक नहीं लगी। उसने इसे स्वीकार करने का दिखावा भी नहीं किया। मैं हक्का-बक्का रह गया, और सोचने लगा: मैं तुम्हारी सहायता करने में इतना चिंतित था और मैं बार-बार तुमसे संवाद करता था, किन्तु तुम इसे स्वीकार करना तो दूर तुम मुझ पर संदेह करती रहीं। तुम बहुत ही बेईमान व्यक्ति हो! अगर तुम सत्य को स्वीकार नहीं करती हो, तो संभवतः और कौन तुम्हारी सहायता करेगा? इसे भूल जाओ, मैं कुछ नहीं कर सकता, यह आपके ऊपर है। मैंने सब दोष और उत्तरदायित्व वृद्ध बहन के ऊपर डाल दिया यह सोच कर कि वह काफी चालाक है; मैं मानता था कि मैं एक अच्छा भाई हूँ जिसने सत्य का अभ्यास किया है, जो अपनी बहनों और भाइयों की सहायता के लिए तत्पर है और जो परमेश्वर की इच्छा की परवाह करता है। इस प्रकार, मैं वृद्ध बहन के बारे में राय से भरा हुआ था, और वह मुझे अब और नहीं सुनना चाहती थी।
इस दुविधा का सामना करने पर, मुझे कुछ आत्म-अंतरावलोकन करना पड़ा: क्या मैं ग़लत हूँ? मैं वृद्ध बहन की कमियों को देखते समय दयाभाव से उनकी सहायता करने में ग़लत नहीं था। क्या यह इसीलिए है क्योंकि मैं परमेश्वर में भरोसा नहीं करता था? ज़रूरी नहीं, मैं वृद्ध बहन के साथ संवाद करने से पहले हमेशा प्रार्थना करता था। मैंने अपने अभ्यास में कुछ भी ग़लत नहीं किया है, और अतीत में, दूसरों की सहायता करते समय मैं ऐसी गंभीर परिस्थितियों में नहीं रहा हूँ। समस्या अवश्य वृद्ध बहन में ही है और ऐसा इसीलिए है क्योंकि वह निर्दोष नहीं है। हालाँकि, इस तरह से सोचने पर, मुझे परेशानी महसूस हुई। मैंने अपराधबोध महसूस किया विशेष रूप से जब मैंने वृद्ध बहन को उसकी बीमार से पीड़ित होते हुए देखा। मैं अपने ह्रदय की गहराई से उसकी सहायता करना चाहता था, हालाँकि, मुझे नहीं पता था कि मैं कैसे उसके साथ सहयोग करूँ। कोई विकल्प न होने पर, मैं परमेश्वर के पास गया और उसकी सहायता माँगी। मैंने परमेश्वर के वचनों को पढ़ा, "तुम्हारे होंठ कबूतरों से अधिक दयालु हैं, लेकिन तुम्हारा दिल पुराने साँप से ज्यादा भयानक है। तुम्हारे होंठ लेबनानी महिलाओं जितने सुंदर हैं, लेकिन तुम्हारा दिल उनकी तरह दयालु नहीं है, और कनानी लोगों की सुंदरता से तुलना तो वह निश्चित रूप से नहीं कर सकता। तुम्हारा दिल बहुत धोखेबाज़ है!" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम सभी कितने नीच चरित्र के हो!)। परमेश्वर के वचनों ने तुरंत मेरे ह्रदय को छू लिया। मैं अपने आप को उस बारे में अंतरावलोकन करने के नहीं रोक पाया जो मैंने उन दिनों किया था और जो उसके पीछे जो विचार थे। दूसरे भाई-बहनों के बारे में वृद्ध बहन की आलोचनाओं के बारे में उस वृद्ध बहन को बात करते हुए सुनते समय, मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं की थी क्योंकि मैं सोचता था कि इससे मुझे कुछ लेना-देना नहीं है और इससे मुझे कोई बाधा नहीं होगी; जब मैंने वृद्ध बहन को उन दो भाइयों के बारे में उसके पूर्वाग्रहों को कहते सुना, जिन्हें मैं जानता था, तो मैं यह सोच कर कि ऐसा न हो कि वह उन भाईयों को ग़लत समझ रही हो उसके साथ संवाद करने से नहीं रुक सका था; जब मैंने सुना कि मैंने जो कहा और किया था उसके बारे में वृद्ध बहन ने राय बना ली हैं, तो ये सोच कर कि ऐसा न हो मेरे बारे में उसकी कोई और भी राय हों, मैं उससे संवाद करने पर अधिक ध्यान देता था। मैं दावा करता था कि मैं अपने बहनों और भाइयों के लिए करुणा के कारण उनकी सहायता कर रहा था। तथ्य यह था कि मैं औरों को यकीन दिलाना और हराना, उनके मुँह बंद करना, और दूसरों को मेरी आलोचना करने और मेरे हितों का उल्लंघन करने से रोकना चाहता था। अपने आचरण के बारे में सोचते हुए, मुझे एहसास हुआ कि वह बेपरवाह था। वहाँ प्रेम का सार कैसे हो सकता था? अतीत में देखने पर, मैंने शुरू से ही वृद्ध बहन के प्रति कोई करुणा नहीं दिखायी थी, ना ही मैंने इसे कोई महत्त्व दिया था। मेरी प्रकृति वास्तव में कितनी बुरी थी! वृद्ध बहन ने तब से मेजबानी शुरू की थी जब वह परमेश्वर के परिवार में आई थी। उसने शिकायत का एक शब्द भी मुँह से नहीं निकाला था। क्योंकि वह सामान्यतः सभाओं और संगतियों में भाग नहीं लेती थी, इसलिए उसने जीवन में अपने अनुभव को गहरा नहीं किया था। हालाँकि, जब वह खाली होती थी तो वह परमेश्वर के वचनों की खोज करने और पढ़ने की इच्छुक रहती थी। चूँकि वह पूर्णतया स्पष्ट नहीं थी, इसलिए वह बहनों और भाइयों की पीठ पीछे उनकी आलोचना करना और उनकी कमियों के बारे में बात करना उनके लिए बोझ के रूप में मानती थी है; उसने बहनों और भाइयों के बारे में अपने संदेह को ग़लती से स्पष्ट रूप से बोलना मान लिया था। उसे कोई जानकारी नहीं थी कि उनमें से कौन सा संशय है और कौन सी अतिशयोक्ति है, और मैं उस पर कोई ध्यान नहीं देता था। उसकी कद-काठी की परवाह किए बिना, मैं बिना विचार किए तब तक लड़ता था जब तक मेरे हित इसमें शामिल होते थे, और मैं उसे खुद को जानने पर मज़बूर करता था। मुझमें विवेक की कितनी कमी है! किस कारण से मैं दूसरों को अपनी आलोचना नहीं करने दूँ? यहाँ तक कि अगर दूसरे लोग नहीं भी बोलते हैं, तो भी क्या जिन तरीके से मैं रहा हूँ वह शैतान के तरीकों जैसा नहीं है? जो कुछ भी मैंने किया था वह सब मेरे लिए था, और अपने आप को बचाने के लिए था। जब तक मेरे हितों का उल्लंघन नहीं होता था, तब तक मैं दूसरों की परवाह नहीं करता था। मैं दूसरों की कमज़ोरी के लिए अपनी चिन्ता नहीं दर्शाता था, ना ही मैं इस बात पर विचार करता था कि क्या दूसरे लोग मेरे संवादों को सह सकते हैं या कि क्या मेरे संवाद कोई नकारात्मक प्रभाव लाते हैं। जिस तरह से मैं रहता था वह शैतान के भ्रष्ट स्वभाव से प्रभावित था। मैं लोगों के लिए जो लाया था वह नुकसान और हमला ही था। अन्य लोग इसे कैसे सहन कर सकते थे? मैंने जो भी कहा और किया था उसने परमेश्वर को घृणा महसूस करवा दी, और इसके कारण पवित्र आत्मा ने मेरे ऊपर कार्य नहीं किया। मेरे संवाद कैसे प्रभावी हो सकते थे?
परमेश्वर ने कहा था, "कोई भी अपना सच्चा चेहरा दर्शाने के लिए अपने स्वयं के शब्दों और क्रियाओं का उपयोग कर सकता है। यह सच्चा चेहरा निश्चित रूप से उसकी प्रकृति है। यदि तुम बहुत कुटिल ढंग से बोलने वाले व्यक्ति हो, तो तुम कुटिल प्रकृति के हो। यदि तुम्हारी प्रकृति धूर्त है, तो तुम कपटी ढंग से काम करते हो, और इससे तुम बहुत आसानी से लोगों को धोखा दे देते हो। यदि तुम्हारी प्रकृति अत्यंत कुटिल है, तो हो सकता है कि तुम्हारे वचन सुनने में सुखद हों, लेकिन तुम्हारे कार्य तुम्हारी कुटिल चालों को छिपा नहीं सकते हैं। यदि तुम्हारी प्रकृति आलसी है, तो तुम जो कुछ भी कहते हो, उस सबका उद्देश्य तुम्हारी लापरवाही और अकर्मण्यता के लिए उत्तरदायित्व से बचना है, और तुम्हारे कार्य बहुत धीमे और लापरवाह होंगे, और सच्चाई को छिपाने में बहुत माहिर होंगे। यदि तुम्हारी प्रकृति सहानुभूतिपूर्ण है, तो तुम्हारे वचन तर्कसंगत होंगे और तुम्हारे कार्य भी सत्य के अत्यधिक अनुरूप होंगे। यदि तुम्हारी प्रकृति निष्ठावान है, तो तुम्हारे वचन निश्चय ही खरे होंगे और जिस तरीके से तुम कार्य करते हो, वह भी व्यावहारिक और यथार्थवादी होगा, जिसमें ऐसा कुछ न होगा जिससे तुम्हारे मालिक को असहजता महसूस हो। यदि तुम्हारी प्रकृति कामुक या धन लोलुप है, तो तुम्हारा हृदय प्रायः इन चीजों से भरा होगा और तुम बेइरादा कुछ विकृत, अनैतिक काम करोगे, जिन्हें भूलना लोगों के लिए कठिन होगा और वे काम उनमें घृणा पैदा करेंगे" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (1))। परमेश्वर के वचनों में, मैंने जाना कि जिस प्रकार लोग अपने आप को प्रकट करते हैं और अपना जीवन जीते हैं, उन पर उनकी प्रकृतियों का प्रभुत्व होता है। भीतर की प्रकृति का प्रकार अपरिहार्य रूप से निर्धारित करेगा कि कौन सा स्वभाव बाहर प्रकट किया जाता है। अगर भीतर कुछ बुरा है, तो व्यवहार पर बुरी प्रकृति का प्रभुत्व होगा, और कभी भी उदारता नहीं दिखाएगा। जब वृद्ध बहन के साथ संवाद करने की मेरी प्रेरणा ग़लत थी, तो मेरे भीतर जिसका प्रभुत्व था वह परमेश्वर, सत्य या सकारात्मक चीज़ें नहीं थीं, बल्कि यह शैतान था। जिस तरीके से मैं रहता था वह शैतान की छवि थी। इसलिए, मेरे संवाद से दूसरों को लाभ नहीं मिल सका था। अगर मैंने इस तरीके की चीज़ का अतीत में सामना किया होता, तो मैंने बाहरी अभ्यासों पर ध्यान केन्द्रित किया होता; मैं सोचता कि मैंने कलीसिया की अगुआई नहीं की थी, यह कि मैं दूसरों के साथ संवाद करने में अच्छा नहीं हूँ, और अपने आप को दोषमुक्त करने के लिए असंख्य कारण ढूँढ लिए होते। आज के पहले मैं यह नहीं जानता था कि बाहरी अभ्यास निर्णायक भूमिका नहीं निभाते हैं, बल्कि जो बात निर्णायक भूमिका निभाती है वह है हृदय सही है या नहीं। भीतर के सार को देखना महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए, अगर कोई किसी दूसरे व्यक्ति को सच में प्रेम करता है, तो वह दिल से इस बात का निरीक्षण करेगा और ध्यान रखेगा कि उसे क्या पसंद है, और अंततः उसके प्रति अपने प्रेम को व्यक्त करेगा और उसको इसे महसूस करवाएगा। अगर मैं अंदर से अपने भाई-बहनों से प्रेम करता था, तो मैंने उनकी कठिनाइयों के प्रति विशेष ध्यान दिया होता और अधिक संवेदना दिखाई होती तथा उनकी भावनाओं के प्रति चिंता दिखाई होती, और फिर उपयुक्त कार्रवाई की होती और उनके साथ संवाद करने के लिए उचित भाषा और लहज़े का उपयोग किया होता। यद्यपि मैंने दूसरों की समस्याओं का निवारण नहीं किया होता, तब भी मैंने उन्हें कोई हानि नहीं पहुँचाई होती। क्योंकि मेरे भीतर कोई प्रेम नहीं है, इसलिए मैं जो प्रकट करता हूँ, वह बुराई है, भले ही मेरे बाहरी अभ्यास अच्छे और सही हों। क्योंकि परमेश्वर मानव जाति से प्रेम करता है, चाहे वह कुछ भी क्यों न करे, यह प्रेम का एक प्रकाशन और अभिव्यक्ति है। परमेश्वर ने कहा था, "परमेश्वर के यह सब कहने का उद्देश्य लोगों को बदलना और बचाना है। केवल इस तरह से बोलने से ही वह सबसे मूल्यवान परिणाम प्राप्त कर पाता है। तुम्हें यह देखना चाहिए कि परमेश्वर के उदार इरादे पूरी तरह से लोगों को बचाने के लिए अभिकल्पित किए गए हैं और वे सभी परमेश्वर के प्रेम को साकार करते हैं। चाहे आप इसे परमेश्वर के कार्य में बुद्धि के परिप्रेक्ष्य से, परमेश्वर के कार्य में चरणों और विधियों के परिप्रेक्ष्य से, या कार्य की अवधि के परिप्रेक्ष्य से या उनकी सटीक व्यवस्थाओं और योजनाओं के नज़रिए से देखें, इन सब में उसका प्रेम निहित है। उदाहरण के लिए, सभी लोगों में अपने बेटों और बेटियों के लिए प्रेम होता है; ताकि उनके बच्चे सही रास्ते पर चल सकें, उन सभी ने बहुत बड़ी मात्रा में प्रयास किए हैं। जब उन्हें अपने बच्चों की कमज़ोरियों का पता चलता है, तो माता-पिता चिंता करते हैं कि यदि वे नरमी से बोलते हैं, तो उनके बच्चे नहीं सुनेंगे, और बदल नहीं पाएँगे, और उन्हें यह भी चिंता होती है कि यदि वे बहुत कड़ाई से बोलते हैं, तो वे अपने बच्चों के आत्म-सम्मान को चोट पहुँचाएँगे, और उनके बच्चे इसे सहन नहीं कर पाएँगे। यह सब प्रेमवश किया जाता है, और वे इसमें बहुत प्रयास लगाते हैं। स्वयं बेटे और बेटियां होने के नाते, तुमने अपने माता-पिता के प्रेम का अनुभव किया होगा। प्रेम में केवल नम्रता और विचारशीलता ही शामिल नहीं होती है, इसमें कड़ी ताड़ना भी बड़ी मात्रा में शामिल होती है। इस सबसे ऊपर, परमेश्वर जो कुछ भी मानवजाति के लिए करता है वह प्रेमवश किया जाता है। वह प्रेम की पूर्व-शर्त के तहत संचालन करता है, यही कारण है कि वह भ्रष्ट मानवजाति के लिए उद्धार लाने हेतु अपनी पूरी कोशिश करता है। वह लोगों के साथ लापरवाही से नहीं निपटता है; वह सटीक योजनाएँ बनाता है और कदम दर कदम उन पर आगे बढ़ता है। कब, कहाँ, वाणी के किस लहजे के साथ, बोलने की किस विधि के साथ, और वह कितना प्रयास लगाता है इस संबंध में..., ऐसा कहा जा सकता है कि यह सब उसके प्रेम को प्रकट करता है, और यह सब पूरी तरह से समझाता है कि मनुष्यजाति के लिए उसका प्रेम असीम और अगाध है। कई लोग जब परीक्षणों के बीच होते हैं तो विद्रोही बातें कहते हैं; वे शिकायत करते हैं। लेकिन परमेश्वर इन बातों को लेकर कोई कलह नहीं करता है और वह निश्चित रूप से इसके लिए लोगों को दंडित नहीं करता है। क्योंकि वह लोगों से प्रेम करता है, इसलिए वह सब कुछ क्षमा कर देता है। यदि उसके पास प्रेम की बजाए केवल नफ़रत ही होती, तो वह लोगों को पहले ही दंडित कर चुका होता। चूँकि परमेश्वर के पास प्रेम है, इसलिए वह कलह नहीं करता है, बल्कि वह सहन करता है, और वह लोगों की कठिनाइयों का अवलोकन कर पाता है। सब कुछ पूरी तरह से प्रेम के प्रभाव में करना है यही है" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'क्या तुम मनुष्यजाति के प्रति परमेश्वर का प्रेम जानते हो?')। परमेश्वर का सार प्रेम है, इसलिए परमेश्वर की अभिव्यक्ति भी प्रेम ही है। परमेश्वर का मनुष्यों के प्रति प्रेम मौखिक रूप से ही प्रतिबिंबित नहीं किया जाता है, बल्कि उसके कार्य में, उनके कार्य के हर कदम में, और उनके कार्य के तरीकों में यथार्थ रूप से साकार होता है। कैसे और कब परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति पर पर कार्य करता है, वह उसके लिए कौन से लोगों, वस्तुओं या घटनाओं को व्यवस्थित करता है और वह कब तक उसे शुद्ध करता है, यह सब परमेश्वर की सटीक योजना और श्रमसाध्य प्रयास को प्रतिबिंबित करता है। परमेश्वर के समस्त व्यवहारिक कार्य में मानवों के प्रति उसका पवित्र प्रेम बिना किसी अपवाद के व्याप्त है। परमेश्वर मनुष्यों को इस हद तक प्रेम करता है कि वह अपने सारे श्रमसाध्य प्रयास हमें बचाने में लगा देता है, हमारी गलतफहमी और उसके प्रति हमारे विरोध को सहता है और हमारी मूर्खता और अज्ञानता को बर्दाश्त करता और माफ़ करता है। ये सब मुझे परमेश्वर की महानता और कुलीनता को दिखाते हैं। इसकी तुलना में, मैंने शैतानी स्वभाव को जीया है जो कि बदसूरत और घिनौना है। इस सबको जानने पर, मैंने वृद्ध बहन के साथ अपने हृदय की इन दुष्ट चीज़ों को स्पष्ट रूप से साझा किया। हमारे बीच का मनमुटाव अनजाने में ही निकल गया। मैं अपने दिल की गहराई से परमेश्वर का धन्यवाद करता हूँ। परमेश्वर की महिमा हो।
पहले, स्वयं का मेरा ज्ञान शब्दों से ज़्यादा कुछ नहीं था। यह वो ज्ञान था जो मैंने रटकर अर्जित किया था, और मैं परमेश्वर के वचनों के खुलासे के अनुसार अपनी स्वयं की प्रकृति को नहीं जानता था। आज मैं अपने अनुभव के कारण इस बात को समझता हूँ। एक बार जब कोई व्यक्ति शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिया जाता है, तो उसकी प्रकृति शैतान की प्रकृति बन जाती है। भाषा, कार्य, या विचारों की परवाह किए बिना, वे सब मानवीय प्रकृति के प्रभुत्व में होते हैं। कोई केवल तभी अपने भ्रष्ट स्वभाव के साथ निपट सकता है और धीरे-धीरे उसे बदल सकता है, जब वह अपनी प्रवृत्ति को पहचानता हो। अगर किसी को अपनी प्रकृति के बारे में कोई ज्ञान नहीं है, तो वह सिर्फ अनजाने में शैतान की प्रकृति के प्रभुत्व से पीड़ित हो सकता है और परमेश्वर से विद्रोह और उसका विरोध ही कर सकता है—उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं कि वह अपने स्वभाव को नहीं बदल सकता है। अब से, मैं अतीत में मेरे द्वारा उपयोग कि गए बाहरी अभ्यासों पर अत्यधिक ध्यान देने के अपने ग़लत तरीकों को बदलूँगा। मैं बाहरी अभ्यासों के बारे में बतंगड़ नहीं बनाने का प्रयास करूँगा, और नियमों का पालन करने पर अपनी प्रकृति को जानना आधारित नहीं करूँगा। मैं परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को ईमानदारी और सत्यता से स्वीकार करूँगा, मैं अपनी प्रकृति को जानूँगा, और अपने स्वभाव को यथाशीघ्र बदलने, और परमेश्वर के द्वारा बचाए जाने के लिए, परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन के माध्यम से अपनी प्रकृति को सच में पहचानूँगा।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?