विफलता से मैंने क्या सीखा
2014 में, मैंने कलीसिया के लिए वीडियो निर्माता के रूप में प्रशिक्षण लिया। उस समय, एक नए वीडियो का निर्माण शुरू हुआ। तैयारी के चरण के दौरान, कुछ कार्य और तकनीकें ऐसी भी थीं जिनसे मैं अब तक ज्यादा परिचित नहीं था। कठिनाइयाँ आने पर, मैं सिद्धांतों पर दूसरों के साथ संगति करता और समाधान ढूँढने की कोशिश करता। कुछ समय बाद, मैं धीरे-धीरे इन तकनीकों को और ज्यादा जान गया और मैं इनमें माहिर हो गया। जब दूसरों के सामने मुश्किलें आतीं, तो वे सब मुझसे चर्चा करते। उसके बाद, मुझे समूह अगुआ चुन लिया गया, और समूह के कुछ मसले मैं हल करने लगा। मुझे लगा कि मैं वाकई अपने काम में सक्षम था। वरना, समूह अगुआ के रूप में मुझे क्यों चुना जाता? जब समूह में किसी काम पर चर्चा होती, तो मैं हमेशा केंद्रीय भूमिका निभाता। चर्चा के दौरान जब कभी मतभेद होता, तो मैं समूह के साथ अपना पिछला कार्य अनुभव साझा करता, ताकि सब ये जान लें कि मेरे नजरिए के पीछे अनुभव था, और अंत में, हम सब-कुछ मेरे तरीके से ही करते।
बाद में, कलीसिया ने दो नए सुपरवाइजर चुने। मैंने देखा कि वे दोनों मेरी पुरानी सहयोगी, बहन क्लेर और बहन लिली थीं। मुझे झटका लगा, "उन दोनों का कौशल औसत दर्जे का था, उनके पास ज्यादा अनुभव भी नहीं था। क्या वे दोनों सुपरवाइजर का काम सँभाल सकती हैं? मेरा कौशल उनसे कहीं बेहतर था। किसके काम का निर्देशन किसे करना चाहिए?" आगे जाकर, सुपरवाइजर ने जब हमारे काम की खोज-खबर ली, तो मैंने उसे तिरस्कार की नजर से देखा। एक बार, क्लेर मुझसे यह कहने आई कि मेरे प्रभार वाले समूह के वीडियो में कुछ समस्याएँ थीं, और उसने कुछ फेर-बदल सुझाए। यह सुनकर मैंने अपमानित महसूस किया, और बेसब्री से बोला, "आपने जो फेर-बदल सुझाए, वे ठीक नहीं हैं। अगर हम आपके प्रस्ताव पर चलें, तो आरंभ और अंत में कोई तालमेल नहीं होगा। मसले उठाते समय आपको सबसे पहले समस्त विचारों के प्रवाह को समझना चाहिए, न कि केवल इस एक भाग को। आपको इस काम के बारे में और अधिक जानने और अक्सर अध्ययन करने की जरूरत है।" इस बात पर बहन का चेहरा गुस्से से लाल हो गया और वह इतनी शर्मिंदा हुई कि कुछ बोल नहीं पाई। दो अन्य भाइयों ने भी मेरे समर्थन में हामी भरी। सबको मेरी बात से सहमत देख मुझे बहुत अच्छा लगा। "देखो, शुरू से ही हमारी विचार प्रक्रिया तुमसे बेहतर थी। जहाँ तक वीडियो निर्माण की बात है, मेरा कौशल निश्चित रूप से आप दोनों से बेहतर है!" उसके बाद, जब उन्होंने मेरे बनाए वीडियो के बारे में सुझाव दिए, तो मैं उन्हें स्वीकारना नहीं चाहता था, और यह सोचकर उन्हें नीची नजर से देखा, "तुम्हारा कौशल मुझसे कमतर है। बेहतर होगा कि तुम अपने सुझाव देकर मेरे काम को खराब न करो।" दोनों सुपरवाइजर आखिर मेरी वजह से लाचार हो गईं। एक बार एक सुपरवाइजर मेरे साथ संगति करने आई और बोली, "आपके साथ साझेदारी करने से हम काफी लाचार हैं। हम जानते हैं कि हमारे पास कार्य कौशल की कमी है, तो जब आप हममें कोई कमी देखें, तो बताकर कृपया हमारी मदद करें। तब, हम एक साथ मिल-जुलकर काम कर सकते हैं। साथ ही, मैं आशा करती हूँ कि आप हमेशा अपने विचारों पर ही अड़े नहीं रहेंगे। अगर आप अलग-अलग राय सुनकर, अधिक सत्य खोज पाएँ, तो हम सिद्धांतों पर एक साथ संगति कर सकते हैं, एक-दूसरे की कमियों के पूरक बन सकते हैं और अच्छे वीडियो बना सकते हैं।" यह सुनकर, सिर्फ दिखावे के लिए मैंने मान लिया कि मैंने अहंकारी स्वभाव दिखाया था, मगर दिल से मैंने इसे नहीं माना। मैंने सोचा,"मैं तुमसे ज्यादा सिद्धांत समझता हूं, तो जब तुम गलत होंगी, मुझे ही तुम्हें सही करना होगा। हाँ, मैंने थोड़ा अहंकारी स्वभाव दिखाया था, लेकिन यह अच्छे काम के लिए था। तुमने लाचार इसलिए महसूस किया, क्योंकि तुम बहुत खोखले हो।" इस मामले में, मैंने आत्मचिंतन नहीं किया, मगर गलत कदम उठा लिए।
एक शाम, समूह में एक वीडियो बनाने के विचारों पर चर्चा हो रही थी। वीडियो के विचार थोड़े जटिल और कठिन होने के कारण, घंटों चर्चा करने के बाद भी कुछ तय नहीं हो पाया। यह सोचकर मेरी बेसब्री बढ़ गई, "सुपरवाइजरो, आखिर चल क्या रहा है? अगर आप हमारे पेशेवर काम को निर्देशित नहीं कर सकतीं, तो कोई बात नहीं, लेकिन सिद्धांतों के अनुसार योजना पर आप निर्णय भी नहीं ले सकतीं?" इसलिए मैंने सुपरवाइजरों से कहा, "चल क्या रहा है? इतने घंटों से खींच रहे हैं, किसी एक विचार को मान क्यों नहीं सकते? आप निकम्मे सुपरवाइजर हैं!" मेरी शिकायत सुनकर, दूसरों ने भी सहमति जताई, "बिल्कुल, हम सब इंतजार कर रहे हैं। यहाँ बैठकर समय बर्बाद मत करो।" दूसरों ने कहा, "जल्दी करें और निर्णय लें। पहले ही देर हो चुकी है।" हमारी शिकायतों से सुपरवाइजर और अधिक घबरा गईं, और अपना भाषण छोटा कर दिया।
बाद में, कलीसिया अगुआ को मेरे बर्ताव के बारे में पता चला, तो उसने यह कहकर मेरा निपटान किया, "आपका स्वभाव बहुत अहंकारी है, आप दूसरों को लाचार करना पसंद करते हैं। आप दूसरों के साथ सामान्य रूप से सहयोग नहीं कर सकते। आप समूह अगुआ हैं, पर कलीसिया के कार्य की रक्षा नहीं करते। इसके बजाय, आप शिकायत करने और दूसरों की आलोचना करने में आगे रहते हैं, समूह के भीतर फूट डालते और सुपरवाइजरों को अपना काम करने से रोकते हैं, जिससे वीडियो बनाने में देर हो रही है। आपकी गतिविधियाँ कलीसिया के कार्य को बाधित और खराब कर रही हैं।" अगुआ द्वारा अपने निपटान के बाद, मैं बुरी तरह हिल गया, मैंने सोचा, "क्या? मैं कलीसिया के कार्य को बाधित और खराब कर रहा हूँ? इसके जिम्मेदार तो ऐसे सुपरवाइजर हैं, जिनका कौशल सही स्तर का नहीं हैं और जिनमें वास्तविक कार्य करने की क्षमता नहीं है। मेरी कार्य क्षमता उनसे बेहतर हैं, और मैं कई सिद्धांत समझ सकता हूँ। मैंने देखा कि वे गलत ढंग से काम कर रहे थे, इसलिए मैंने उन्हें सुधारा। क्या यह बाधा डालना और गड़बड़ी पैदा करना है?" अगुआ ने देखा कि मैं अड़ियल और प्रतिरोधी था, इसलिए उसने परमेश्वर के वचनों के कई अंश पढ़कर मुझे सुनाए। परमेश्वर कहते हैं, "अगर, अपने हृदय में, तुम वास्तव में सत्य को समझते हो, तो तुम्हें पता होगा कि सत्य का अभ्यास और परमेश्वर की आज्ञा का पालन कैसे करना है, तुम स्वाभाविक रूप से सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चलना शुरू कर दोगे। अगर तुम जिस मार्ग पर चल रहे हो वह सही है, और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है, तो पवित्र आत्मा का कार्य तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा—ऐसी स्थिति में तुम्हारे परमेश्वर को धोखा देने की संभावना कम से कम होगी। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जानबूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, उनके कारण तुम खुद को ऊँचा उठाओगे, निरंतर खुद का दिखावा करोगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हारे दिल से परमेश्वर का स्थान छीन लेंगे, और अंतत: तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुमसे अपने ही विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजा करवाएँगे। लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन इतनी बुराई करते हैं!" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)।
"कई प्रकार के भ्रष्ट स्वभाव हैं जो शैतान के स्वभाव में शामिल हैं, लेकिन जो सबसे स्पष्ट और सबसे अलग है, वह एक अहंकारी स्वभाव है। अहंकार मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव की जड़ है। लोग जितने ज़्यादा अहंकारी होते हैं, उतने ही ज्यादा अविवेकी होते हैं, और वे जितने ज्यादा अविवेकी होते हैं, उतनी ही ज्यादा उनके द्वारा परमेश्वर का प्रतिरोध किए जाने की संभावना होती है। यह समस्या कितनी गम्भीर है? अहंकारी स्वभाव के लोग न केवल बाकी सभी को अपने से नीचा मानते हैं, बल्कि, सबसे बुरा यह है कि वे परमेश्वर को भी हेय दृष्टि से देखते हैं, और उनके दिलों में परमेश्वर का कोई भय नहीं होता। भले ही लोग परमेश्वर में विश्वास करते और उसका अनुसरण करते दिखायी दें, तब भी वे उसे परमेश्वर क़तई नहीं मानते। उन्हें हमेशा लगता है कि उनके पास सत्य है और वे अपने बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं। यही अहंकारी स्वभाव का सार और जड़ है और इसका स्रोत शैतान में है। इसलिए, अहंकार की समस्या का समाधान अनिवार्य है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन सुनकर मेरे हृदय में हड़कंप मच गया। मैं समझ गया कि एक शैतानी प्रकृति वाला व्यक्ति अनजाने में ही भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार कार्य करेगा, और वह कलीसिया कार्य को बाधित और काम में गड़बड़ी पैदा कर सकता है। मेरा घमंडी स्वभाव बहुत उग्र था। में सोचता था कि मुझे वीडियो बनाने का अनुभव था, सिद्धांतों की समझ थी, इसलिए मैं खुद पर बहुत भरोसा करता था। मुझे लगता था कि हर चीज में मेरा फैसला ही आखिरी होना चाहिए और सबको सिर्फ मेरी ही बात सुननी चाहिए। जब मैंने सुपरवाइजरों के साथ साझेदारी की तो मैंने उनका कभी सम्मान नहीं किया, सोचता था कि हर मामले में, मैं ही उनसे बेहतर था। जब भी विचारों में मतभेद होता, मेरी पहली प्रतिक्रिया यह होती थी, "तुम नहीं समझतीं। मैं समझता हूँ," या "तुम योग्य नहीं हो," और उनके सुझावों का मखौल उड़ाता था। कभी-कभी तो मैं बिना सोचे-समझे, सत्य खोजने और स्वीकृति का रवैया दिखाए बिना ही जवाब दे देता था, जिससे सुपरवाइजर लाचार हो जातीं और मुझे सुझाव देने से डरतीं। दूसरे लोग भी सुपरवाइजरों के बारे में नकारात्मक दृष्टिकोण रखने में मेरा अनुसरण करते, इससे समूह के काम की खोज-खबर लेना उनके लिए बहुत मुश्किल हो जाता। यह कलीसिया के काम में बाधा डालना कैसे नहीं हुआ? जब सुपरवाइजर और मैं साझेदारी करते, तो वे चाहे कोई भी सुझाव देतीं, मैं कभी सिद्धांतों के अनुरूप उन्हें लागू करने का तरीका नहीं खोजता था। मैं सिर्फ अपने नजरिए से चिपका रहता था। मेरा नजरिया हमेशा सही कैसे हो सकता था? मेरे विचार से जो बातें सही थीं, क्या वे सब सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप हो सकती थीं? दरअसल, मैं सिर्फ अपने गुणों और अनुभव के आधार पर चीजों को देख रहा था। मेरे अधिकांश विचार सिद्धांतों के अनुरूप नहीं थे। और मैं जितना ज्यादा इन बातों के अनुसार जीता, उतना ही ज्यादा सोचता कि मुझमें मूल्य था, मैं सही था। लोगों के साथ साझेदारी करते समय, मैं लगातार उन्हें कम आंकता और दिखावा करता रहता। मैं सारी समझ खो देने की हद तक अहंकारी था! कर्तव्य निभाते समय मैं हमेशा सिर्फ मनमानी करता था। मैं अपने नजरिए और समझ के साथ यूँ चिपका रहता, मानो वे ही सत्य हों, दूसरों के सुझाव कभी नहीं स्वीकारता या उनके विचारों को अपने विचारों से अधिक महत्व कभी नहीं देता, जैसे कि सत्य की महारत सिर्फ मुझमें ही थी। यह किस प्रकार से परमेश्वर में विश्वास रखना हुआ? साफ तौर पर मैं सिर्फ खुद में विश्वास रखता था। इसका एहसास होने पर, मैं बहुत डर गया, पछतावे से भर गया। अपनी प्रकृति के अहंकारी होने के कारण, मैंने अनजाने ही ऐसे बुरे काम किए, जो परमेश्वर का विरोध करते थे। मैंने देखा कि घमंडी स्वभाव के साथ कर्तव्य निभाना मेरे लिए बेहद खतरनाक था।
कुछ समय बाद, वीडियो तैयार हो गया, लेकिन दूसरों के साथ सहयोग न कर पाने, लोगों को लाचार करने और वीडियो कार्य को बाधित करने के कारण, मुझे बर्खास्त कर दिया गया। बाद में, वीडियो का एक और बैच तैयार करना था, लेकिन मैं उसका हिस्सा नहीं था। मैं फिर से प्रतिरोधी महसूस करने लगा, मैंने सोचा, "पिछले अनुभव के बाद, मैं अपनी अहंकारी प्रकृति को थोड़ा समझ गया हूँ। वे मुझे भाग क्यों नहीं लेने देते?" इससे भी ज्यादा अनपेक्षित बात यह थी कि किसी अन्य वीडियो के निर्माताओं में भी मेरा नाम नहीं था। इसे सहन करना मेरे लिए बहुत कठिन था। यदि चीजें इसी तरह चलती रहीं, तो कहीं मैं कलीसिया के किसी काम का ही न रहूँ? एकाएक परमेश्वर के वचन का एक अंश मन में कौंधा। "अगर तुम अच्छी क्षमता के हो, लेकिन हमेशा अहंकारी और दंभी रहते हो, लगातार सोचा करते हो कि तुम जो कुछ भी कहते हो वह सही है और दूसरे जो कुछ भी कहते हैं वह गलत है, दूसरे जो भी सुझाव दें उसे अस्वीकार कर देते हो, यहाँ तक कि सत्य को भी नकार देते हो, चाहे उसके बारे जैसी भी संगति की जाए तुम हमेशा उसका विरोध करते हो, तो क्या तुम जैसा व्यक्ति परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त कर सकता है? क्या पवित्र आत्मा तुम जैसे व्यक्ति पर कार्य करेगा? वह नहीं करेगा। परमेश्वर कहेगा कि तुम्हारा स्वभाव बुरा है और तुम उसकी प्रबुद्धता प्राप्त करने के योग्य नहीं हो, और अगर तुम पश्चात्ताप नहीं करते, तो वह उसे भी वापस ले लेगा जो कभी तुम्हारे पास था। यही उजागर होना है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। मेरे दिल की धड़कन थम गई। परमेश्वर के वचन सीधे मेरी दशा की बात कर रहे थे। परमेश्वर में विश्वास के इतने वर्षों में, मैंने हमेशा अपना कर्तव्य घमंडी स्वभाव के साथ निभाया। तब कई-कई बार मेरी काट-छाँट हुई थी, निपटान हुआ था। लेकिन मैंने कभी सत्य की खोज नहीं की थी, और मेरा स्वभाव नहीं बदला था। अब, मैंने कलीसिया के कार्य को बाधित कर एक गंभीर अपराध किया। क्या परमेश्वर मुझे उजागर कर निकाल देगा? जब मैंने अपने व्यवहार के बारे में सोचा, तो याद आया कि मैं कहीं भी जाता, हमेशा असाधारण दिखना चाहता था। दूसरों से ज्यादा काबिल होने पर, मैं आत्मतुष्ट महसूस करता, और भाई-बहनों का तिरस्कार करता था। जब दूसरे मुझसे ज्यादा काबिल होते, तो हमेशा सोचता था कि मैं उन्हें कैसे पीछे छोड़ूँ। जब मेरे सुझाव लागू नहीं होते, तो मैं इसे स्वीकार नहीं कर पाता, और मेरा दिमाग प्रतिवाद के तरीके ढूँढता, ताकि सब सिर्फ मेरे सुझावों का उपयोग करें। जब दूसरे मेरी कमियाँ बताते, तो मैं कुछ कहता नहीं, बल्कि मन-ही-मन प्रतिरोधी महसूस करता। यही समझता कि उनकी कोई हैसियत नहीं थी, और उनमें कोई योग्यता नहीं थी, मानो मैं ही सबसे खास था। इस बारे में जितना अधिक सोचा, उतना ही अधिक डर लगा। उन वर्षों में मैंने घमंडी स्वभाव के साथ ही अपना कर्तव्य निभाया था। कभी सत्य को नहीं स्वीकारा, कभी आत्मचिंतन नहीं किया या खुद को नहीं जाना, जिससे मेरा भ्रष्ट स्वभाव बद से बदतर हो गया। बर्खास्त किया जाना परमेश्वर की धार्मिकता का प्रकटीकरण था! अपनी पीड़ा में मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : "हे परमेश्वर! मैं जानता हूं कि इतने वर्षों से तुममें विश्वास रखकर भी, मैंने सत्य को नहीं खोजा। जब काट-छाँटकर मेरा निपटान किया गया, तब मैंने न आत्मचिंतन किया और न ही खुद को जाना। परिणाम स्वरूप, मैंने वो बुरे काम किए जिससे कलीसिया का कार्य बाधित हुआ। हे परमेश्वर, अपनी भ्रष्टता को समझने, सत्य खोजने के मार्ग पर चलने में मेरी अगुवाई करो, मेरे अपराधों और ऋणों का प्रायश्चित करने दो।"
अपनी भक्ति में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। "यदि लोगों का स्वयं के बारे में ज्ञान बहुत उथला है, तो समस्याओं को हल करना उनके लिए असंभव होगा, और उसका जीवन स्वभाव नहीं बदलेगा। स्वयं को एक गहरे स्तर पर जानना आवश्यक है, जिसका अर्थ है कि अपनी स्वयं की प्रकृति को जानना : उस प्रकृति में कौन से तत्व शामिल हैं, ये कैसे पैदा हुए और वे कहाँ से आये। इसके अलावा, क्या तुम इन चीजों से वास्तव में घृणा कर पाते हो? क्या तुमने अपनी स्वयं की कुरूप आत्मा और अपनी बुरी प्रकृति को देखा है? यदि तुम सच में सही अर्थों में स्वयं के बारे में सत्य को देख पाओगे, तो तुम स्वयं से घृणा करोगे। जब तुम स्वयं से घृणा करते हो और फिर परमेश्वर के वचन का अभ्यास करते हो, तो तुम देह को त्यागने में सक्षम हो जाओगे और इसे श्रमसाध्य समझे बिना तुम्हारे अंदर सत्य को कार्यान्वित करने की शक्ति होगी। क्यों कई लोग अपनी दैहिक प्राथमिकताओं का अनुसरण करते हैं? क्योंकि वे स्वयं को बहुत अच्छा मानते हैं, उन्हें लगता है कि उनके कार्यकलाप सही और न्यायोचित हैं, कि उनमें कोई दोष नहीं है, और यहाँ तक कि वे पूरी तरह से सही हैं, इसलिए वे इस धारणा के साथ कार्य करने में समर्थ हैं कि न्याय उनके पक्ष में है। जब कोई यह जान लेता है कि उसकी असली प्रकृति क्या है—कितना कुरूप, कितना घृणित और कितना दयनीय है—तो फिर वह स्वयं पर बहुत गर्व नहीं करता है, उतना बेतहाशा अहंकारी नहीं होता है, और स्वयं से उतना प्रसन्न नहीं होता है जितना वह पहले होता था। ऐसा व्यक्ति महसूस करता है, कि 'मुझे ईमानदार और व्यवहारिक बनकर परमेश्वर के कुछ वचनों का अभ्यास करना चाहिए। यदि नहीं, तो मैं इंसान होने के स्तर के बराबर नहीं होऊँगा, और परमेश्वर की उपस्थिति में रहने में शर्मिंदा होऊँगा।' तब कोई वास्तव में अपने आपको क्षुद्र के रूप में, वास्तव में महत्वहीन के रूप में देखता है। इस समय, उसके लिए सच्चाई का पालन करना आसान होता है, और वह थोड़ा-थोड़ा ऐसा दिखाई देता है जैसा कि किसी इंसान को होना चाहिए। जब लोग वास्तव में स्वयं से घृणा करते हैं केवल तभी वे शरीर को त्याग पाते हैं। यदि वे स्वयं से घृणा नहीं करते हैं, तो वे देह को नहीं त्याग पाएँगे। स्वयं से घृणा करना कोई मामूली बात नहीं है। उसमें बहुत-सी बातें होनी अनिवार्य हैं : सबसे पहले, अपने स्वयं के स्वभाव को जानना; और दूसरा, स्वयं को अभावग्रस्त और दयनीय के रूप में समझना, स्वयं को अति तुच्छ और महत्वहीन समझना, और स्वयं की दयनीय और गंदी आत्मा को समझना। जब कोई पूरी तरह से देखता है कि वह वास्तव में क्या है, और यह परिणाम प्राप्त हो जाता है, तब वह स्वयं के बारे में वास्तव में ज्ञान प्राप्त करता है, और ऐसा कहा जा सकता है कि किसी ने अपने आपको पूरी तरह से जान लिया है। केवल तभी कोई स्वयं से वास्तव में घृणा कर सकता है, इतना कि स्वयं को शाप दे, और वास्तव में महसूस करे कि उसे शैतान के द्वारा अत्यधिक गहराई तक भ्रष्ट किया गया है इस तरह से कि वह अब इंसान के समान नहीं है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई। परमेश्वर ने कहा कि केवल अपनी प्रकृति को पहचानकार, स्पष्ट रूप से यह देखकर कि तुम कितने असहाय और दयनीय हो, तुम खुद से त्रस्त होकर घृणा कर सकोगे, और परमेश्वर से प्रायश्चित कर सकोगे। तब, मैंने आत्मचिंतन शुरू किया, मैं इतना अहंकारी क्यों था। मैंने सोचा कि वीडियो समूह में शामिल होने के बाद, मैंने कैसे कई महत्वपूर्ण वीडियो बनाए थे, कैसे लोगों से सम्मान और प्रशंसा पाई थी, मुझे लगा था मेरे पास अनुभव और कई सिद्धांतों की समझ थी। मैंने यह भी सोचा कि मुझमें अच्छी काबिलियत है, जल्द ही सब-कुछ सीख लेता हूँ, और मैं कलीसिया में एक दुर्लभ प्रतिभा हूँ। इस वजह से मेरा अहंकारी स्वभाव और भी बदतर होता गया। मैंने सोचा कि जब मैंने पहली बार वीडियो बनाना शुरू किया था तब मैं कितना कम जानता था, और कैसे भाई-बहनों ने मेरा हाथ पकड़कर मुझे रास्ता दिखाया था। कभी-कभी उनके स्पष्ट रूप से समझाने के बावजूद मैं उसे ठीक से नहीं कर पाता था, और ठीक से वीडियो बना सकने से पहले मुझे बार-बार मार्गदर्शन की जरूरत पड़ती थी। इससे एक सच्चाई सामने आ गई कि न तो मैं इतना बुद्धिमान था और न ही मुझमें ऊँची काबिलियत थी, बस इतना ही था कि मुझे अभ्यास करने और थोड़ा अनुभव इकट्ठा करने के कई मौके मिले। लेकिन मैंने इसे पूँजी की तरह देखा, और जमीन से जुड़कर अपना कर्तव्य नहीं निभाया। विशेष रूप से जब मैं अपने कर्तव्य में कुछ हद तक प्रभावी होता, तो सोचने लगता कि अपना काम बखूबी जानता हूँ, इसलिए मैं हमेशा दूसरों को अहंकार के साथ नीची नजर से देखता और उनके साथ सहयोग करने को तैयार नहीं होता था। उस वक्त मेरी इंसानियत और समझ कहाँ थी? जिन दो सुपरवाइजरों के साथ मैंने साझेदारी की, मैंने हमेशा उन्हें नीचा दिखाया, वास्तव में उनके साथ मेलजोल में मैंने पाया कि उनमें भी कई खूबियां थीं। हालांकि उनके पास वीडियो निर्माण कौशल और अनुभव की कमी थी, मगर उनकी भावनाएं सही थीं और वे अपनी मुश्किलें दूर करने में सक्रिय थीं। वे तेज दिमाग की भी थीं और नियमों से चिपकी नहीं रहती थीं। वे कुछ नया करने का साहस जुटा सकती थीं और नई चीजें सीखने को तैयार थीं। जब भी किसी मुश्किल या समस्या से उनका सामना होता, वे खुद को किनारे रखकर दूसरों से सलाह लेतीं। पर मेरा स्वभाव बेहद अहंकारी था और कोई भी मेरे बराबर का नहीं था। मैं दूसरों की खूबियां कभी देखता ही नहीं था। मैंने याद किया कि पौलुस भी कितना अहंकारी था। वह सोचता था कि उसमें काबिलियत थी, खूबियां थीं, वह किसी के सामने नहीं झुका। वह हमेशा गवाही देता था कि वह अन्य अनुयायियों से बढ़कर था, ऐसी घटिया बात भी कहता था कि उसके लिए जीना यानी मसीह होना था। वह इस हद तक अहंकारी था कि अपनी समझ खो चुका था। आत्मचिंतन से मैं समझ गया कि मेरी प्रकृति भी पौलुस जैसी ही है। मैंने सुपरवाइजरों को हमेशा नीची नजर से देखा, और सबको मेरा कहा मानने पर मजबूर किया। मैं पौलुस के पथ पर ही चल रहा था। इस बात का एहसास होने पर, मुझे बहुत पछतावा हुआ। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर! अब जाकर मैं अपनी प्रकृति और सार को कुछ हद तक समझ पाया हूँ। परमेश्वर में विश्वास के इन वर्षों में परमेश्वर के घर ने हमेशा मेरा सिंचन किया और सत्य की आपूर्ति की। मगर तुम्हारी गहन चिंता की अनदेखी कर मैं सत्य को खोजे बिना ही मसीह-विरोधी मार्ग पर चल पड़ा। मुझे यह याद दिलाने के लिए तुमने कई काम किए, लोगों और घटनाओं का आयोजन किया। पर मैं ढीठ था और प्रायश्चित करना नहीं जानता था। मैं अपनी अहंकारी प्रकृति के गलत मार्ग पर चलता रहा, इस हद तक कि तुम मुझसे घृणा करने लगे। हे परमेश्वर, मैं प्रायश्चित करने को तैयार हूँ। इसके बाद कलीसिया चाहे जैसी भी व्यवस्था करे, मैं उसका पालन करूंगा।"
इसका एहसास हो जाने पर, मुझे आश्चर्य हुआ जब अगले दिन एक बहन ने मुझे खबर दी, समूह के कुछ नए सदस्यों का काम स्तर का नहीं था, और उन्हें आशा थी कि मैं उन्हें प्रशिक्षण दूँगा। उसने मुझसे पूछा कि क्या मैं तैयार हूँ। मेरा हृदय परमेश्वर का बहुत आभारी था। जब मैं प्रायश्चित करना चाहता था, तभी कलीसिया ने मुझे कर्तव्य निभाने का एक मौका दिया। मुझे इस पल को संजोना था, तो मैंने इसे सहर्ष स्वीकार लिया। सबसे अनपेक्षित बात तो यह थी कि कुछ दिनों के बाद, हमारे अगुआ ने एक नये वीडियो के निर्माण में मेरे शामिल होने की व्यवस्था की। मैं वाकई परमेश्वर का बहुत आभारी था!
यह सोचकर कि किस तरह मैं दूसरों के साथ साझेदारी करूंगा, मैंने सबके साथ सहयोग करने का मार्ग खोजा। मैंने देखा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं, "जब तुम लोग अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए दूसरों के साथ सहयोग करते हो, तो क्या तुम अलग-अलग राय स्वीकार करने के लिए तैयार रहते हो? क्या तुम दूसरों को बोलने देते हो? (हाँ, थोड़ा-सा। पहले मैं भाई-बहनों की बात नहीं सुनता था और इसी बात पर जोर देता था कि काम मेरे ही तरीके से किए जाएँगे। लेकिन फिर जब तथ्यों से साबित हुआ कि मैं गलत हूँ, तब मुझे एहसास हुआ कि उनके अधिकाँश सुझाव सही थे, परिणाम पर ही सब लोग चर्चा करते जो दरअसल उपयुक्त था, मेरे विचार गलत और दोषपूर्ण थे। इस अनुभव के बाद, मुझे एहसास हुआ कि सामंजस्यपूर्ण सहयोग कितना अहम होता है।) तो इससे हमें क्या सीख मिलती है? इसका अनुभव करने पर, क्या तुम्हें कोई लाभ हुआ और क्या सत्य समझ में आया? क्या तुम लोगों को लगता है कि कोई भी पूर्ण है? लोग चाहे जितने शक्तिशाली हों, या चाहे जितने सक्षम और प्रतिभाशाली हों, फिर भी वे पूर्ण नहीं हैं। लोगों को यह मानना चाहिए, यह तथ्य है। अपनी शक्तियों और फायदों या दोषों के प्रति लोगों का यही रवैया भी होना चाहिए; यह वह तार्किकता है जो लोगों के पास होनी चाहिए। ऐसी तार्किकता के साथ तुम अपनी शक्तियों और कमज़ोरियों के साथ-साथ दूसरों की शक्तियों और कमज़ोरियों से भी उचित ढंग से निपट सकते हो, और इसके बल पर तुम उनके साथ सौहार्दपूर्वक कार्य कर पाओगे। यदि तुम सत्य के इस पहलू को समझ गए हो और सत्य की वास्तविकता के इस पहलू में प्रवेश कर सकते हो, तो तुम अपने भाइयों और बहनों के साथ सौहार्दपूर्वक रह सकते हो, एक-दूसरे की खूबियों का लाभ उठाकर अपनी किसी भी कमज़ोरी की भरपाई कर सकते हो। इस प्रकार, तुम चाहे जिस कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हो या चाहे जो कार्य कर रहे हो, तुम सदैव उसमें श्रेष्ठतर होते जाओगे और परमेश्वर का आशीष प्राप्त करोगे" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ पाया कि कोई भी परिपूर्ण नहीं है। सभी में कुछ कमियाँ और खामियाँ होती ही हैं। किसी के पास कितने ही गुण या अनुभव हों, इनके होने का यह अर्थ नहीं है कि उन्हें सत्य हासिल है, या उनके कर्म हमेशा सत्य के अनुरूप होते हैं। सभी को मिल-जुलकर सहयोग करना चाहिए, एक-दूसरे की कमियों को पूरा करना चाहिए। विशेष रूप से जब भी कहीं मतभेद हो तो अपना अहंकार भूलकर एक दूसरे के साथ संगति करके सत्य खोजने के रवैये से मिल-जुलकर समस्या की जांच करनी चाहिए। इंसानियत और समझ हासिल करने, और पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त करने, अपने कार्यों में चूकों को कम करने, और अपने कर्तव्यों को अच्छे ढंग से निभाने का यही एकमात्र मार्ग है। हम सत्य को नहीं समझते। इसलिए जरूरी है कि हम मिल-जुलकर काम करें और एक-दूसरे की कमजोरियाँ दूर करें। यथोचित बर्ताव का यही एकमात्र मार्ग है। इसे समझने के बाद, मैं अब इसी मार्ग पर चलने का अभ्यास करता रहूंगा। जब कभी, दूसरों के साथ जाँच-पड़ताल के वक्त मतभेद हों, तो मैं दूसरों की राय सुनने के लिए सजगता से अपने नजरिए को नकार दूंगा। असहमति होने पर, सबके साथ लागू सिद्धांतों पर संगति करूंगा, और अंत में सिद्धांतों के अनुरूप ही अभ्यास करूंगा। कुछ समय बाद, दूसरों के साथ मेरे सबंधों में काफी सुधार हुआ, और मैं समझ गया कि अपने अहम को त्याग कर और सबके साथ मिल-जुलकर सहयोग करने से ही, मैं पवित्र आत्मा का कार्य और मार्गदर्शन आसानी से पा सकता हूँ, और अपना कार्य निभाते हुए प्रभावी हो सकता हूँ।
ऐसे हालात का अनुभव करके, मैंने अपने अहंकारी स्वभाव की थोड़ी समझ हासिल की, और कुछ बदलाव किये। यह परिणाम परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और उसे जीने के कारण मिला है। मैं परमेश्वर का बहुत आभारी हूँ!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?