अपने कर्तव्य से कतराकर मैं किस चीज से बच रहा था
तुम्हें पता ही है, मैं कुछ समूह सभाओं का प्रभारी हुआ करता था। लगता था कि मैं इसी काम के लिए बना हूँ, जब भी भाई-बहनों को समस्याएँ होतीं, वे हमेशा मेरे पास मदद माँगने आते। कुछ तो यह भी कहते कि समस्याओं पर मेरी सटीक पकड़ है, और मैं स्पष्ट संगति करता हूँ, इसलिए वे मेरी संगति सुनने के लिए बहुत इच्छुक होते थे। इस काम में दूसरों से सम्मान और तारीफ पाकर बहुत अच्छा लगता, यह एहसास मुझे खूब गुदगुदाता था, इसलिए मैं यहाँ से नहीं जाना चाहता था। जब तुम पहली बार मुझसे मिलने आए तो मैं थोड़ा चौंक गया। मैंने सोचा कि पाठ्य-सामग्री के कार्य के लिए अच्छी काबिलियत, सत्य की समझ और अच्छा लेखन कौशल चाहिए। मैं केवल औसत रूप से काबिल था, पाठ्य-सामग्री के कार्य से वाकिफ नहीं था, इसलिए मैंने सवाल किया कि इसे कैसे अच्छा कर सकता हूँ। अगर मैंने ठीक से काम नहीं किया, किसी दूसरे काम में लगा दिया गया तो मेरे बारे में लोग क्या सोचेंगे? क्या यह साबित नहीं होगा कि मैं कैसा नाकाबिल हूँ? मुझे लगा कि बस अपने इसी काम से जुड़ा रहना चाहिए। इन समूहों में मुझे नतीजे भी अपेक्षाकृत अच्छे मिलते थे, मेरे साथ शायद ही कभी निपटा गया या काट-छाँट की गई और सभी भाई-बहन मेरी इज्जत करते, मुझे अच्छा मानते थे। इसलिए मैं पाठ्य-सामग्री के कार्य से बचने में लगा रहा। उस समय मैं सिर्फ अपने मौजूदा काम की तरह आराम और स्थिरता चाहता था। फिर मैं तब चौंक पड़ा जब दस दिन बाद ही तुमने दुबारा मेरे पास आकर बताया कि पाठ्य-सामग्री के कार्य में लोगों की कमी है और आत्म-संतुष्ट बनने के बजाय परमेश्वर की इच्छा पर ध्यान देने को लेकर मेरे साथ संगति की। उसने कहा कि मैं प्रार्थना कर मार्गदर्शन माँगूँ और इस अवसर को यूँ ही न ठुकरा दूँ। मुझे पता था कि तुम सही कह रहे हो, लेकिन तुम्हारी बात नहीं स्वीकार पाया। मुझे लगता था कि मेरी काबिलियत औसत है, लेखन कौशल अच्छा नहीं है, इसलिए मैं सबसे कमजोर कड़ी साबित होऊँगा। अगर थोड़ा-बहुत प्रशिक्षण लेकर भी अच्छा नहीं कर पाया और किसी दूसरे काम में लगा दिया गया तो बहुत शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी। मुझे लगा, मौजूदा काम करते रहना कहीं बेहतर रहेगा।
कुछ समय बाद मैंने अपनी स्थिति के बारे में एक भाई से खुलकर बात की। मेरी बात सुनकर उसने बेबाकी से जवाब दिया : “क्या तुम चीजें संभालने में थोड़े धूर्त नहीं बन रहे हो?” अपने लिए धूर्त शब्द सुनकर मेरे दिल को बहुत चोट लगी। मैंने सोचा : “मैं न तो आलस दिखा रहा हूँ, न ही आधे-अधूरे मन से काम करना चाहता हूँ। मैं वाकई इतना काबिल नहीं हूँ और लेखन में भी अच्छा नहीं हूँ। तो फिर मैं धूर्त कैसे हो सकता हूँ?” मैंने कहा कुछ नहीं, लेकिन मन ही मन अपना बचाव करता रहा और आलोचना बर्दाश्त नहीं कर सका। फिर भी, मैं जानता था कि भाई की चेतावनी से मैं कुछ सीख सकता हूँ। इसलिए मैंने परमेश्वर के वचनों में प्रासंगिक अंश ढूंढे। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “किस तरह का व्यक्ति जिम्मेदारी उठाने की हिम्मत करता है? किस प्रकार के इंसान में भारी बोझ वहन करने का साहस है? जो व्यक्ति अगुआई करते हुए परमेश्वर के घर के काम के महत्वपूर्ण पलों में बहादुरी से आगे बढ़ता है, जो अहम और अति महत्वपूर्ण कार्य देखकर बड़ी जिम्मेदारी उठाने और मुश्किलें सहने से नहीं डरता। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के प्रति वफादार होता है, मसीह का अच्छा सैनिक होता है। क्या बात ऐसी है कि लोग कर्तव्य की जिम्मेदारी लेने से इसलिए डरते हैं, क्योंकि उन्हें सत्य की समझ नहीं होती? नहीं; समस्या उनकी मानवता में होती है। उनमें न्याय या जिम्मेदारी की भावना नहीं होती। वे स्वार्थी और नीच लोग होते हैं, वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी नहीं होते। वे सत्य जरा भी नहीं स्वीकारते और इन कारणों से उन्हें बचाया नहीं जा सकता। परमेश्वर के विश्वासियों को सत्य हासिल करने के लिए बहुत भारी कीमत चुकानी ही होगी, उसे अभ्यास में लाने के लिए उन्हें बहुत-सी कठिनाइयों से गुजरना होगा। उन्हें बहुत-सी चीजों का त्याग करना होगा, दैहिक-सुखों को छोड़ना होगा और कष्ट उठाने पड़ेंगे। तब जाकर वे सत्य का अभ्यास करने योग्य बन पाएंगे। तो, क्या जिम्मेदारी लेने से डरने वाला इंसान सत्य का अभ्यास कर सकता है? यकीनन नहीं कर सकता, सत्य हासिल करना तो दूर की बात है। वह सत्य का अभ्यास करने और अपने हितों को होने वाले नुकसान से डरता है; उसे अपमानित और उपेक्षित होने का डर होता है, उसे आलोचना का डर होता है। वह सत्य का अभ्यास करने की हिम्मत नहीं कर पाता, इसलिए उसे सत्य हासिल नहीं होता। परमेश्वर में उसका विश्वास चाहे जितना पुराना हो, वह उसका उद्धार प्राप्त नहीं कर सकता। परमेश्वर के घर में कर्तव्य करने वाले लोग ऐसे होने चाहिए जो कलीसिया के काम को अपना दायित्व समझें, जो जिम्मेदारी लें, सत्य के सिद्धांत कायम रखें और कष्ट सहकर कीमत चुकाएँ। अगर कोई इन क्षेत्रों में कम होता है, तो वह कर्तव्य करने के अयोग्य होता है, और कर्तव्य करने की शर्तों को पूरा नहीं करता है। ... अगर कोई समस्या आने पर तुम अपनी रक्षा करते हो और अपने लिए बचने का रास्ता रखते हो, पिछले दरवाजे से निकलना चाहते हो, तो क्या ऐसा करके तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो? यह सत्य का अभ्यास करना नहीं है—यह धूर्त होना है। अब तुम परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभा रहे हो। कोई कर्तव्य निभाने का पहला सिद्धांत क्या है? वह यह है कि पहले तुम्हें भरसक प्रयास करते हुए अपने पूरे दिल से वह कर्तव्य निभाना चाहिए, ताकि तुम परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा कर सको। यह सत्य का एक सिद्धांत है, जिसे तुम्हें अभ्यास में लाना चाहिए। अपने लिए बचाव का रास्ता छोड़ना, पिछला दरवाजा रखना, अविश्वासियों द्वारा किए जाए जाने वाले अभ्यास का सिद्धांत है, और उनका सबसे ऊँचा दर्शन है। सभी मामलों में सबसे पहले अपने बारे में सोचना और अपने हित बाकी सब चीजों से ऊपर रखना, दूसरों के बारे में न सोचना, परमेश्वर के घर के हितों और दूसरों के हितों के साथ कोई संबंध न रखना, अपने हितों के बारे में पहले सोचना और फिर बचाव के रास्ते के बारे में सोचना—क्या यह वह सब नहीं है जो एक अविश्वासी करता है? एक अविश्वासी ठीक ऐसा ही होता है। इस तरह का व्यक्ति कोई कर्तव्य निभाने के योग्य नहीं है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों पर सोच-विचार कर मैंने महसूस किया कि जो परमेश्वर पर सच्चा विश्वास करते हैं और अच्छी मानवता वाले हैं, वे अपने काम में जिम्मेदार होकर कलीसिया के कार्य की सुरक्षा करते हैं। काम जितना अधिक महत्वपूर्ण होता है, वे उतनी ही ज्यादा काबिलियत दिखाते हैं। वे परमेश्वर की इच्छा पर ध्यान देकर भारी बोझ उठा सकते हैं। ऐसे ही लोग कलीसिया के स्तंभ होते हैं और परमेश्वर की मेहरबानी हासिल करते हैं। जो लोग अपने काम में कोताही दिखाते हैं—जरा-सा भी कष्ट या कोई जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहते, कठिनाइयाँ देखते ही पीछे हटने लगते हैं, अपने ही हितों के बारे में सोचते हुए कलीसिया के कार्य की बिल्कुल भी रक्षा नहीं करते—ऐसे लोग परमेश्वर की नजरों में गैर-विश्वासी हैं। वे परमेश्वर के घर के नहीं होते, वह उन्हें बचाएगा भी नहीं। परमेश्वर के वचनों की रोशनी में अपने कर्मों के बारे में सोचते हुए मैंने देखा कि भले ही मैं काम करता दिख रहा था, अपना कर्तव्य निभाने में हर दिन व्यस्त रहता था, मगर मुझे कोई परवाह थी तो सिर्फ अपनी पद-प्रतिष्ठा की। मेरा दिल परमेश्वर में नहीं रमा था, मैं उसकी इच्छा पर ध्यान नहीं देता था। मैं उसी आसान काम से संतुष्ट रहता था जिसे मैं अच्छे से कर पाता था, क्योंकि इसमें ज्यादा प्रयास न करके भी अच्छे नतीजे मिलते थे और मेरी पद-प्रतिष्ठा की जरूरत पूरी हो जाती थी। मैं पाठ्य-सामग्री के कार्य से कम वाकिफ था और इसमें इतना काबिल भी नहीं था, इसलिए अगर कोशिश भी करता तो मुझे शायद अच्छे नतीजे नहीं मिलते। अगर ठीक से कर्तव्य न निभाने पर मुझसे निपटा जाता, काट-छाँट की जाती और दूसरे मुझे नीची निगाह से देखते, तो बहुत शर्मिंदगी होती। लिहाजा, अपनी पद-प्रतिष्ठा बचाने के लिए मैं लगातार प्रस्ताव ठुकराता रहा, कम काबिल, कम हुनर और काम से वाकिफ न होने जैसे बहाने बनाकर कर्तव्य निभाने से इनकार करता रहा। बाहरी तौर पर लगता था कि मैं बहुत ठोस और तार्किक दलील दे रहा हूँ, लेकिन भीतर से मैं बहुत ही स्वार्थी और घिनौना था। एक काम की जगह दूसरा चुनने का आधार यह नहीं था कि मैं कलीसिया की जरूरतें देख रहा था या परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित था। बल्कि, इसकी वजह मेरे अपने हित और पद-प्रतिष्ठा बचाने की इच्छा थी। मैं जो कुछ भी करता या सोचता था, उससे पहले अपनी पद-प्रतिष्ठा का फायदा देख लेता था। अपने काम को लेकर मेरा नजरिया ईमानदार नहीं था, और जैसा मेरे भाई ने कहा, मैं “धूर्त” बन गया था। दरअसल, कलीसिया को जहाँ मेरी जरूरत पड़ती, मुझे वहीं सेवा देनी चाहिए थी, बिना कोई बहस किए या माँगें रखे स्वीकार और समर्पण करना चाहिए था। हर किसी में यही तार्किकता होनी चाहिए। लेकिन इसके बजाय, जब मुझे काम सौंपा गया तो मैंने समर्पण नहीं किया, बल्कि मैं छोटी सोच दिखाकर इस काम में नफा-नुकसान का हिसाब लगाने लगा। मुझमें जिम्मेदारी का जरा-सा भी एहसास नहीं था। परमेश्वर कहता है कि ऐसे लोग न कर्तव्य निभाने लायक होते हैं, न परमेश्वर के घर के होते हैं और न बचाए ही जाएंगे।
इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : “जो लोग सत्य को व्यवहार में लाने में सक्षम हैं, वे अपने कार्यों में परमेश्वर की जाँच को स्वीकार कर सकते हैं। जब तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार करते हो, तो तुम्हारा हृदय निष्कपट हो जाता है। यदि तुम हमेशा दूसरों को दिखाने के लिए ही काम करते हो, हमेशा दूसरों की प्रशंसा और सराहना प्राप्त करना चाहते हो, लेकिन परमेश्वर की जाँच स्वीकार नहीं करते, तो क्या तुम्हारे हृदय में परमेश्वर है? ऐसे लोगों के हृदय में परमेश्वर के प्रति श्रद्धा नहीं होती। हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, इंसान के हितों पर ध्यान मत दे, और अपने गौरव, प्रतिष्ठा या हैसियत पर विचार मत कर। तुझे सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उसे अपनी पहली प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुझे परमेश्वर की इच्छा की परवाह करनी चाहिए, इस पर चिंतन करने के द्वारा आरंभ कर कि तू अपने कर्तव्य को पूरा करने में अशुद्ध रहा है या नहीं, तू वफादार रहा है या नहीं, तूने अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हैं या नहीं, और अपना सर्वस्व दिया है या नहीं, साथ ही क्या तूने अपने कर्तव्य, और कलीसिया के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार किया है। तुझे इन चीज़ों के बारे में विचार करने की आवश्यकता है। इन पर बार-बार विचार कर और इन्हें समझ, और तू आसानी से अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभा पाएगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचकर मुझे एहसास हुआ कि अपनी आस्था में, अगर हम अपने कर्तव्य को लेकर सही सोच रखते हैं, परमेश्वर की जाँच को स्वीकारते हैं, कलीसिया के कार्य को बाकी सब चीजों पर तरजीह देते हैं, अपने काम में सब कुछ झोंककर भरसक सहयोग करते हैं, तो यह परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होगा। मुझे लगा कि उस स्थिति में, जब मुझे पाठ्य-सामग्री का कार्य करने को कहा गया था, परमेश्वर मेरे रवैये की जाँच कर रहा था—क्या मैं सक्रिय रूप से सहयोग करूँगा या कामचोरी कर बचना चाहूँगा? मुझे इस सोच में नहीं पड़ना चाहिए था कि क्या मैं इस काम के काबिल हूँ या मैं कितने अच्छे से यह काम कर सकता हूँ। मुझे अपनी गलत दशा ठीक कर कर्तव्य के प्रति अपना रवैया सुधारना चाहिए था, समर्पित होकर अपने काम में भरसक प्रयास करना चाहिए था। एक सृजित प्राणी के रूप में मुझमें यही तार्किकता होनी चाहिए थी। अगर कुछ समय प्रशिक्षण के बाद भी मैं खरा नहीं उतरता और मुझे दूसरा काम सौंप दिया जाता, तो मुझे सही रवैया अपनाकर कलीसिया की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित रहना चाहिए था। इसलिए, मैंने तुमसे कहा कि मैं पाठ्य-सामग्री का कार्य करने का इच्छुक हूँ। तुम्हें यह बताकर मुझे काफी सुकून मिला। लेकिन मुझे अब भी लगता था कि अपने बारे में मेरी समझ बहुत सतही है, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर खुद को जानने के लिए प्रबोधन और मार्गदर्शन माँगना जारी रखा।
कुछ समय बाद मैंने यह अंश पढ़ा। “अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा के प्रति मसीह-विरोधियों का चाव सामान्य लोगों से कहीं ज्यादा होता है, और यह एक ऐसी चीज है जो उनके स्वभाव और सार के भीतर होती है; यह कोई अस्थायी रुचि या उनके परिवेश का क्षणिक प्रभाव नहीं होता—यह उनके जीवन, उनकी हड्डियों में समायी हुई चीज है, और इसलिए यह उनका सार है। कहने का तात्पर्य यह है कि मसीह-विरोधी जो कुछ भी करता है, उसमें उनका पहला विचार अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा का होता है, और कुछ नहीं। मसीह-विरोधी के लिए हैसियत और प्रतिष्ठा उनका जीवन और उनके जीवन भर का लक्ष्य होती हैं। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार यही होता है : ‘मेरी हैसियत का क्या होगा? और मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? क्या ऐसा करने से मुझे प्रतिष्ठा मिलेगी? क्या इससे लोगों के मन में मेरी हैसियत बढ़ेगी?’ यही वह पहली चीज है जिसके बारे में वे सोचते हैं, जो इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि उनमें मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार है; वे अन्यथा इन समस्याओं पर विचार नहीं करेंगे। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी के लिए हैसियत और प्रतिष्ठा कोई अतिरिक्त आवश्यकता नहीं है, कोई बाहरी चीज तो बिलकुल भी नहीं है जिसके बिना उनका काम चल सकता हो। ये मसीह-विरोधियों की प्रकृति का हिस्सा हैं, ये उनकी हड्डियों में हैं, उनके खून में हैं, ये उनमें जन्मजात हैं। मसीह-विरोधी इस बात के प्रति उदासीन नहीं होते कि उनके पास हैसियत और प्रतिष्ठा है या नहीं; यह उनका रवैया नहीं होता। फिर उनका रवैया क्या होता है? हैसियत और प्रतिष्ठा उनके दैनिक जीवन से, उनकी दैनिक स्थिति से, जिस चीज के लिए वे दैनिक आधार पर प्रयास करते हैं उससे, घनिष्ठ रूप से जुड़ी होती हैं। और इसलिए मसीह-विरोधियों के लिए हैसियत और प्रतिष्ठा उनका जीवन हैं। चाहे वे कैसे भी जीते हों, चाहे वे किसी भी वातावरण में रहते हों, चाहे वे कोई भी काम करते हों, चाहे वे किसी भी चीज के लिए प्रयास करते हों, उनके कोई भी लक्ष्य हों, उनके जीवन की कोई भी दिशा हो, यह सब अच्छी प्रतिष्ठा और उच्च पद पाने के इर्द-गिर्द घूमता है। और यह लक्ष्य बदलता नहीं; वे कभी ऐसी चीजों को दरकिनार नहीं कर सकते। यह मसीह-विरोधियों का असली चेहरा और उनका सार है। तुम उन्हें पहाड़ों की गहराई में किसी प्राचीन जंगल में छोड़ दो, फिर भी वे हैसियत और प्रतिष्ठा के पीछे दौड़ना नहीं छोड़ेंगे। तुम उन्हें लोगों के किसी भी समूह में रख दो, फिर भी वे सिर्फ हैसियत और प्रतिष्ठा के बारे में ही सोचेंगे। हालाँकि मसीह-विरोधी भी परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन वे अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा को परमेश्वर में आस्था के बराबर समझते हैं और उसे समान महत्व देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जब वे परमेश्वर में विश्वास के मार्ग पर चलते हैं, तो वे अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा का अनुसरण भी करते हैं। कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी अपने दिलों में यह मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास और सत्य की खोज हैसियत और प्रतिष्ठा की खोज है; हैसियत और प्रतिष्ठा की खोज सत्य की खोज भी है, और हैसियत और प्रतिष्ठा प्राप्त करना सत्य और जीवन प्राप्त करना है। अगर उन्हें लगता है कि उनके पास कोई प्रतिष्ठा या हैसियत नहीं है, कि कोई उनकी प्रशंसा या आराधना या उनका अनुसरण नहीं करता, तो वे बहुत निराश हो जाते हैं, वे मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का कोई मतलब नहीं है, इसका कोई मूल्य नहीं है, और वे मन ही मन कहते हैं, ‘क्या परमेश्वर में ऐसा विश्वास असफलता है? क्या यह निराशाजनक है?’ वे अक्सर अपने दिलों में ऐसी बातों पर सोच-विचार करते हैं, वे सोचते हैं कि कैसे वे परमेश्वर के घर में अपने लिए जगह बना सकते हैं, कैसे वे कलीसिया में उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकते हैं, ताकि जब वे बात करें तो लोग उन्हें सुनें, और जब वे कार्य करें तो लोग उनका समर्थन करें, और जहाँ कहीं वे जाएँ, लोग उनका अनुसरण करें; ताकि कलीसिया में उनके पास शक्ति हो, प्रतिष्ठा हो, ताकि वे लाभ और हैसियत प्राप्त कर सकें—वे वास्तव में ऐसी चीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। ऐसे लोग इन्हीं चीजों के पीछे दौड़ते हैं। वे हमेशा ऐसी बातों के बारे में ही क्यों सोचते रहते हैं? परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, प्रवचन सुनने के बाद, क्या वे वाकई यह सब नहीं समझते, क्या वे वाकई यह सब नहीं जान पाते? क्या परमेश्वर के वचन और सत्य वास्तव में उनकी धारणाएँ, विचार और मत बदलने में सक्षम नहीं हैं? मामला ऐसा बिलकुल नहीं है। समस्या उनके साथ शुरू होती है, यह पूरी तरह से इसलिए है क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, क्योंकि अपने दिल में वे सत्य से ऊब चुके होते हैं, और परिणामस्वरूप, वे सत्य के प्रति बिल्कुल भी ग्रहणशील नहीं होते—जो उनके स्वभाव और सार से निर्धारित होता है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन))। परमेश्वर ने उजागर कर दिया कि कैसे मसीह-विरोधी खासकर पद-प्रतिष्ठा के पीछे पड़े रहते हैं। वे अगर कुछ पाना चाहते हैं तो वह है पद-प्रतिष्ठा। यही उनकी जिंदगी का लक्ष्य होता है। जैसे ही उन्हें दूसरों से मान-सम्मान और तारीफ मिलना बंद हो जाता है, जब वे लोगों के दिलों में अपनी जगह खो बैठते हैं, तो उनमें काम के लिए उत्साह नहीं बचता और उन्हें जिंदगी निरर्थक लगने लगती है। उनके लिए पद-प्रतिष्ठा उतनी ही महत्वपूर्ण है, जितनी जिंदगी। यही मसीह-विरोधी प्रकृति है। मुझे एहसास हुआ कि मैं जो पाना चाहता था, वह मसीह-विरोधी जैसा ही था। मैं चाहे जहाँ या जिसके साथ रहा, हमेशा अपनी पद-प्रतिष्ठा को तरजीह दी, दूसरों से मान-सम्मान और तारीफें बटोरने की फिक्र में लगा रहा। अगर किसी काम में दूसरों को प्रभावित करने और उनका मान-सम्मान पाने का मौका मिलता, तो मैं इसे करने के लिए तैयार रहता। लेकिन अगर इससे मेरी पद-प्रतिष्ठा नहीं बढ़ती, तो काम चाहे जितना महत्वपूर्ण हो, मैं इसे करना ही नहीं चाहता था, इससे बचने के बहाने ढूंढ लेता था, ठीक उसी तरह जैसे तुमने मुझसे साहित्य लेखन के लिए कहा था। जानता था कि यह काम महत्वपूर्ण है और यहाँ लोगों की सख्त जरूरत है, लेकिन तभी मैंने सोचा कि मैं औसत काबिल हूँ और खुद को अलग दिखा नहीं पाऊँगा, और अगर काम के नतीजे अच्छे न रहे तो शायद शर्मिंदगी भी उठानी पड़े। कुछ समूह सभाओं की निगरानी के दौरान, ऊँचा ओहदा न होने और साहित्य लेखन जैसा महत्वपूर्ण काम न करने के बावजूद, मुझे काम में अपेक्षाकृत अच्छे नतीजे मिले। मुझे अगुआ तो महत्व देते ही थे, भाई-बहनों का भी सम्मान मिलता था, जिससे मेरे अहं तो बहुत तुष्टि मिलती थी। नफा-नुकसान तौलने के बाद, मैं अब भी दुनिया के उस छोटे से कोने में सिमटकर काम करना चाहता था और पाठ्य सामग्री का कार्य हाथ में नहीं लेना चाहता था। मैंने देखा कि मैं उन विचारों की कैद में और बेबस हूँ जो शैतान ने मेरे दिमाग में बैठा दिए हैं, जैसे, “जैसे एक पेड़ अपनी छाल के लिए जीता है, उसी तरह एक मनुष्य अपनी इज्जत के लिए जीता है,” “इंसान की विरासत उसके जीवन की प्रतिध्वनि है” और “छोटे तालाब की बड़ी मछली बनना बेहतर है।” ये शैतानी विष पहले ही मेरे दिल में जड़ें जमा चुके थे। मैं ऐसे ही विषों के साथ जी रहा था और पद-प्रतिष्ठा को सबसे अधिक महत्व देता था। दूसरों का सम्मान पाने और अपने अहं को तुष्ट करने के लिए, मैंने कर्तव्य ठुकराकर बहाने बनाये। मैं ऐसा अवज्ञाकारी था! उस समय मुझे बहुत ग्लानि और बेचैनी महसूस हुई। यह तो कोई कर्तव्य निभाना नहीं हुआ। मैं अपने कर्तव्य का इस्तेमाल सिर्फ पद-प्रतिष्ठा पाने के लिए कर रहा था। मैं मसीह-विरोधी रास्ते पर चल रहा था। यह एहसास होने पर मैं थोड़ा डर गया। अगर मैं ऐसी ही गलत सोच के अनुसार चलता रहा और इसे सुधारा नहीं, तो आखिरकार परमेश्वर मुझसे घृणा करने लगेगा।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा जिसने मुझ पर गहरा असर डाला। परमेश्वर कहते हैं, “आरंभ से लेकर आज तक, केवल मनुष्य ही परमेश्वर के साथ बातचीत करने में समर्थ रहा है। अर्थात्, परमेश्वर के सभी जीवित जीव-जंतुओं और प्राणियों में, मनुष्य के अलावा कोई भी परमेश्वर से बातचीत करने में समर्थ नहीं रहा है। मनुष्य के पास कान हैं जो उसे सुनने में समर्थ बनाते हैं, और उसके पास आँखें हैं जो उसे देखने देती हैं; उसके पास भाषा, अपने स्वयं के विचार, और स्वतंत्र इच्छा है। वह उस सबसे युक्त है जो परमेश्वर को बोलते हुए सुनने, और परमेश्वर की इच्छा को समझने, और परमेश्वर के आदेश को स्वीकार करने के लिए आवश्यक है, और इसलिए परमेश्वर अपनी सारी इच्छाएँ मनुष्य को प्रदान करता है, मनुष्य को ऐसा साथी बनाना चाहता है जो उसके साथ एक मन हो और जो उसके साथ चल सके। जब से परमेश्वर ने प्रबंधन करना प्रारंभ किया है, तभी से वह प्रतीक्षा करता रहा है कि मनुष्य अपना हृदय उसे दे, परमेश्वर को उसे शुद्ध और सुसज्जित करने दे, उसे परमेश्वर के लिए संतोषप्रद और परमेश्वर द्वारा प्रेममय बनाने दे, उसे परमेश्वर का आदर करने और बुराई से दूर रहने वाला बनाने दे। परमेश्वर ने सदा ही इस परिणाम की प्रत्याशा और प्रतीक्षा की है” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। परमेश्वर ने इतने सारे जीव बनाए हैं, लेकिन इन सब जीवों में, परमेश्वर केवल मानवजाति से बात करता है और केवल मनुष्यों से उम्मीदें और अपेक्षाएं रखता है। वह ऐसे लोगों का समूह बनाना चाहता है जो उसकी इच्छा के अनुसार चलें, जो उसकी इच्छा पर ध्यान दें और उसके लिए बोझ उठा सकें। मानवजाति से परमेश्वर की यही उम्मीद है। मैंने सोचा कि इतने साल परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद, परमेश्वर के वचनों का इतना सिंचन सुख भोगकर और कलीसिया से पोषण और प्रशिक्षण के अवसर पाकर मैं कुछ सत्य समझने लगा था, अपने पेशे और जीवन प्रवेश, दोनों में विकसित हो चुका था। यह सब परमेश्वर के अनुग्रह के कारण था। लेकिन परमेश्वर और कलीसिया के कार्य के प्रति मेरा रवैया कैसा था? मैंने काम को लेकर कोई खास चिंता नहीं जताई या कोई जिम्मेदारी नहीं ली और अपनी पद-प्रतिष्ठा बचाने के लिए कर्तव्य को ठुकरा दिया। ऊपरी तौर पर मैं आस्थावान था, अपना कर्तव्य निभा रहा था, लेकिन दिल में न तो परमेश्वर के लिए कोई प्यार था, न मैं उसकी इच्छा पर ध्यान दे रहा था। मैंने परमेश्वर के अनुग्रह के बदले अवज्ञा दिखाई और धोखा दिया। परमेश्वर की उम्मीदों और अपेक्षाओं का सामना करते हुए, मुझे शर्मिंदगी और पछतावा हुआ। मुझे लगा कि मैं बहुत अवज्ञाकारी हूँ और मुझमें जरा भी अंतरात्मा या विवेक नहीं है, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर अपनी मौजूदा दशा सुधारनी चाही, अब मैं ऐसा स्वार्थी और घृणित जीवन नहीं जीना चाहता था। मैं परमेश्वर की इच्छा पर ध्यान देकर खुद को सुधारने के लिए तैयार था।
बाद में सोच-विचार के बाद, मैंने अपनी एक और समस्या देखी। मेरा भ्रष्ट स्वभाव होने के अलावा कर्तव्य ठुकराने का एक और कारण मेरा एक खास विचार था। मैं सोचता था कि अपना कर्तव्य ठीक से निभाने के लिए खूब काबिल और खास हुनर होना सबसे महत्वपूर्ण है, इसलिए जब कलीसिया ने मुझे नया काम सौंपा और मुझे लगा कि इस क्षेत्र में मैं इतना योग्य नहीं हूँ या मुझमें इतनी काबिलियत नहीं है, तो मैंने कोशिश करने की भी जहमत नहीं उठाई, अपनी काबिलियत और हुनर की कमी का हवाला देकर सीधे काम ठुकरा दिया। लेकिन क्या यह सही विचार था? परमेश्वर की इच्छा क्या थी? मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश मिला जिससे इस सवाल के बारे में मुझे उसकी इच्छा समझने में मदद मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजनाएँ क्या होती हैं? पहली, यह कि परमेश्वर के वचनों पर कोई संदेह न करना, यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजना है। इसी तरह हर मामले में सत्य खोजना और उसका अभ्यास करना—यह ईमानदार व्यक्ति की सबसे महत्वपूर्ण अभिव्यंजना है और यह सबसे अहम भी। तुम कहते हो कि तुम ईमानदार हो, लेकिन तुम हमेशा परमेश्वर के वचनों को अपने दिमाग के कोने में धकेल देते हो और वही करते हो जो तुम चाहते हो। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजना है? तुम कहते हो, ‘भले ही मेरी क्षमता खराब है, लेकिन मेरे पास एक ईमानदार दिल है।’ फिर भी, जब तुम्हें कोई कर्तव्य मिलता है, तो तुम इस बात से डरते हो कि अगर तुमने इसे अच्छी तरह से नहीं किया तो तुम्हें पीड़ा सहनी और इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी, इसलिये तुम उस कर्तव्य से बचने के लिये बहाने बनाते हो या फिर सुझाते कि कोई और उसे करे। क्या यह एक ईमानदार व्यक्ति की अभिव्यंजना है? स्पष्ट रूप से, नहीं है। तो फिर, एक ईमानदार व्यक्ति को कैसे व्यवहार करना चाहिए? उसे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए, जो कर्तव्य उसे निभाना है उसके प्रति सेवानिष्ठ होना चाहिए और परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने का प्रयास करना चाहिए। यह कई तरीकों से व्यक्त होता है। एक तरीका है अपने कर्तव्य को ईमानदार हृदय के साथ स्वीकार करना, अपने दैहिक हितों के बारे में न सोचना, और इसके प्रति अधूरे मन का न होना या अपने लाभ के लिये जाल न बिछाना। यह ईमानदारी की अभिव्यंजना है। दूसरा है अपना कर्तव्य पूरे दिल और पूरे सामर्थ्य के साथ अच्छी तरह निभाना, चीजों को ठीक से करना, और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने कर्तव्य में अपना हृदय और प्रेम लगा देना। अपना कर्तव्य निभाते हुए एक ईमानदार व्यक्ति की ये अभिव्यंजनाएँ होनी चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर सच्चे लोगों से प्रेम करता है। वह चाहता है कि हम सब उसके साथ और अपने काम के प्रति सच्चे दिल और ईमानदार नजरिये से पेश आएं। वह चाहता है कि हम अपने काम में सिर्फ उसे संतुष्ट करने की सोचेंगे, न कि अपने हित देखेंगे। एक ईमानदार व्यक्ति अपना कर्तव्य ठीक से निभाने के लिए भरसक प्रयास करता है और काम में दिल लगाता है। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि काम के लिए उनमें खास हुनर है या नहीं, या वे असल में कितना हासिल कर पाते हैं। कलीसिया में अलग-अलग काम के लिए अलग स्तर की काबिलियत और पेशेवर हुनर चाहिए। जो खूब काबिल और पेशेवर हुनर वाले होते हैं वे जल्दी पकड़ बनाकर बेहतर नतीजे निकाल लेंगे, और जो कम काबिल या औसत हुनर वाले हैं, उन्हें उतने अच्छे नतीजे नहीं मिलेंगे। चीजें इसी तरह चलती हैं। लेकिन अपना कर्तव्य ठीक से निभाने के लिए सिर्फ काबिलियत और पेशेवर हुनर ही मायने नहीं रखते। कर्तव्य के प्रति हमारा रवैया, हमारा दायित्व बोध और सत्य खोजकर सिद्धांतों के अनुरूप काम करने की क्षमता हमारे काम में सबसे अहम चीजें हैं। कुछ लोग कुशल और खूब काबिल दिखते हैं, लेकिन उनमें मानवता नहीं होती, वे अपना काम ढीले-ढाले बनकर और आधे-अधूरे मन से करते हैं। वे चाहे जितने काबिल हों, फायदे की जगह नुकसान ही ज्यादा करेंगे। ये लोग आखिर में निकाल दिए जाएँगे। कुछ भाई-बहनों की काबिलियत और कार्य कौशल औसत होता है, लेकिन उनके दिल सही जगह पर लगते हैं। वे मेहनती और जिम्मेदार होते हैं, सत्य खोजने को तरजीह देते हैं और कष्ट उठाकर त्याग कर सकते हैं। ऐसे लोग अपने काम में हमेशा निखरते हैं। कभी-कभी जब लोग इतने काबिल नहीं होते, तो पवित्र आत्मा के प्रबोधन और मार्गदर्शन के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करने से उनकी कमियाँ पूरी हो सकती हैं। ऐसे लोग भी अपने काम में अच्छे नतीजे ला सकते हैं। पहले जब मुझमें सत्य की समझ नहीं थी, तो मैं काम ठुकराने और परेशानी से बचने के लिए हमेशा ही अपनी कम काबिलियत का बहाना बनाता था। ऐसा करके मैं खुद को बहुत समझदार भी मानता था। लिहाजा, मैं खुद को हमेशा कम आँकता था, सोचता था कि यह काम मैं नहीं संभाल पाऊँगा और मैं कोशिश करने का साहस भी नहीं करता था, और इन प्रस्तावों को अनदेखा कर देता था। फिर मैंने देखा कि यह सोच गलत है और मुझे अपने कर्तव्य निभाने से रोक सकती है। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मेरी समझ साफ हो गई और मुझे अभ्यास का मार्ग मिल गया। उसके बाद मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और समर्पण कर अपना काम ठीक से करने को तैयार हो गया।
अब जब मेरे सामने दिक्कतें आती हैं, तो अब भी खुद में कमियाँ महसूस होती हैं और शर्मिंदा होने का डर सताता है, लेकिन मैं पहले ही तरह अपनी कम काबिलियत का बहाना बनाकर पीछे नहीं हटता। उदाहरण के लिए, हाल ही में भाई-बहनों के साथ एक मसले पर चर्चा करते हुए मैं अपनी बात रख नहीं पाया और मेरे पुराने तौर-तरीके फिर से सिर उठाने लगे। मैंने सोचा, “मुझमें इतनी कम काबिलियत है। मुझे चुप रहकर दूसरों को सुनना चाहिए।” लेकिन तभी मुझे लगा कि यह सही दशा नहीं है, इसलिए मैंने सचेत होकर परमेश्वर से प्रार्थना की और पद-प्रतिष्ठा से ध्यान हटाने का मार्गदर्शन माँगा ताकि बेबस हुए बिना अपना कर्तव्य निभा सकूँ। तभी मैंने परमेश्वर के इन वचनों के बारे में सोचा : “हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, इंसान के हितों पर ध्यान मत दे, और अपने गौरव, प्रतिष्ठा या हैसियत पर विचार मत कर। तुझे सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उसे अपनी पहली प्राथमिकता बनाना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे हिम्मत दी। मुझे अपने इरादे दुरुस्त कर कलीसिया के हितों को ऊपर रखना था। यह सोचना बंद करना था कि दूसरे लोग मेरे बारे में क्या सोचते हैं, अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए कर्तव्य से कतराना छोड़कर यह सोचना शुरू करना था कि अपने कर्तव्य में बेहतर नतीजे कैसे ला सकूँ। मुझे यही करना था। इसलिए अपने दिल को शांत कर मैं इस सवाल पर चिंतन करने लगा। धीरे-धीरे मेरी सोच साफ होती गई। बाद में दूसरों की मदद से कुछ जानकारी लेकर मसला आखिरकार हल हो गया।
पाठ्य-सामग्री का कार्य मेरे पिछले काम से ज्यादा मेहनत का है, और यह ज्यादा तनावपूर्ण भी हो सकता है, लेकिन लगता है कि अगर मैं खुद को झोंक दूँ तो इसे कर सकता हूँ। साथ ही, प्रशिक्षण, सोच-विचार और खोज के साथ मुझे सत्य के कुछ ब्योरों और अभ्यास के सिद्धांतों की अधिक समझ हासिल हो चुकी है। इस सबके जरिए मैंने वाकई काफी कुछ सीखा है। परमेश्वर का धन्यवाद!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?