बंधनों को खोलना
परमेश्वर के वचन कहते है, "अपनी नियति के लिए, तुम लोगों को परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त करना चाहिए। कहने का अर्थ है, चूँकि तुम लोग यह मानते हो कि तुम परमेश्वर के घर के एक सदस्य हो, तो तुम्हें परमेश्वर के मन को शांति प्रदान करनी चाहिए और सभी बातों में उसे संतुष्ट करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, तुम लोगों को अपने कार्यों में सिद्धांतवादी और सत्य के अनुरूप होना चाहिए। यदि यह तुम्हारी क्षमता के परे है, तो परमेश्वर तुमसे घृणा करेगा और तुम्हें अस्वीकृत कर देगा, और हर इंसान तुम्हें ठुकरा देगा। अगर एक बार तुम ऐसी दुर्दशा में पड़ गए, तो तुम्हारी गिनती परमेश्वर के घर में नहीं की जा सकती। परमेश्वर द्वारा अनुमोदित नहीं किए जाने का यही अर्थ है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ)। परमेश्वर के वचनों से हम देखते हैं कि वह हमसे क्या उम्मीद करता है : अपने काम सिद्धांतों के अनुसार करना और सत्य पर डटे रहना ताकि हम उसकी मंजूरी हासिल कर सकें और सभी बातों में उसे संतुष्ट कर सकें। मैं यह पहले नहीं कर पाई थी ज़्यादातर इसलिए कि मुझपर मेरी भावनाएँ हावी थीं। मैं हमेशा अपनी ही भावनाओं से जीती और काम करती थी। हालाँकि ऐसा कभी नहीं लगा कि मैं कुछ गलत कर रही हूँ, लेकिन मेरी हरकतें सत्य के सिद्धांतों के खिलाफ़ थीं और इससे कलीसिया के काम में दिक्कत होती थी। लेकिन जब परमेश्वर ने अपने वचनों से मेरा न्याय किया और मुझे ताड़ना दी, तो मैंने इस तरह काम करने की प्रकृति और उसके परिणामों को समझना शुरू किया। तब से मैं अपनी भावनाओं पर भरोसा करने के बजाय हर बात को सही मंशा के साथ संभालने लगी, और मैं परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में ला सकी।
पिछले नवम्बर में, जब मेरी ड्यूटी एक कलीसिया की अगुआ के रूप में थी, तो एक मतदान हुआ था कि हर सभा स्थल के समूह अगुआ का कामकाज कैसा था। जवाबों से मैंने देखा कि समूह अगुआ, बहन ली अपने काम में हमेशा लापरवाही करती थी और अगर उसकी कोई भूल बताई जाती थी, तो वह न सिर्फ़ सच्चाई को मानने से इन्कार कर देती थी, बल्कि बहस करती थी। जब दूसरों को दिक्कतें होती थीं, वह उनके साथ सत्य पर सहभागिता के द्वारा उनकी मदद नहीं करती थी, बल्कि उन्हें नीचा दिखाते हुए भाषण दिया करती थी और उन्हें विवश किया करती थी। ... यह सब पढने के बाद, मैंने जाना कि सिद्धांतों के आधार पर, उसका पद किसी और को देना होगा। पर हम दोनों एक ही शहर के थे और पहले कर्तव्य निर्वहन के दौरान हमने साथ-साथ काम किया था। हम हमेशा काफ़ी क़रीब रहे थे और उसने मेरा बहुत ख्याल रखा था। अगर मैंने उसे हटा दिया, तो क्या वह सोचेगी कि मैं पत्थरदिल हूँ? दो साल पहले उसे कलीसिया की अगुआ के पद से हटाया गया था, और वह मुश्किल से अपने आप को इस नकारात्मकता से बाहर निकाल पाई थी। अगर एक और पद उससे छीन लिया जाता है, तो क्या यह उससे भी बड़ा झटका न होगा? क्या वह इसका सामना कर पाएगी? मुझे लगा कि मुझे तुरंत उसके साथ सहभागिता करनी होगी ताकि वह समझ सके कि वह कितनी नाजुक स्थिति में है। मैंने सोचा कि अगर वह चीज़ों को समय रहते संभाल ले, तो शायद अपना पद बचा सकेगी। इसलिए मैंने बहन ली के साथ उसके मामलों पर सहभागिता की पेशकश की पर मैंने पाया कि वह खुद को बिल्कुल नहीं जानती है। उस सहभागिता में मैंने जी-जान से कोशिश की और उसके बाद वह सोचने और बदलने के लिए तैयार हुई और अंततः मैंने चैन की एक सांस ली। मैंने सोचा, अगर मैं उसके सहकर्मियों से उसके बारे में चंद अच्छे शब्द कहूँ, तो हो सकता है वह अपना फ़र्ज़ निभाना जारी रख सके।
बाद में, काम के बारे में बातें करते समय, कुछ सहकर्मियों ने कहा कि बहन ली कभी भी सच्चाई को नहीं मानती और उन सबने उसके स्थान पर किसी और को लाने पर सहमति जताई। यह सुनकर मैं दुविधा में पड़ गई। मैंने सोचा, "बहन ली की कुछ समस्याएँ तो हैं, पर वह बदलने को तैयार है, तो क्या तुम लोग उसे एक और मौका नहीं दे सकते?" ठीक तभी, बहन झोउ ने कहा, "बहन ली कुछ समय से इसी स्थिति में है। वह सहभागिता तो अच्छी कर लेती है, पर वह ख़ुद उस पर अमल नहीं करती। उसमें ज़रा-भी बदलाव नहीं आया है। वह इस पद के योग्य नहीं है।" मैंने लपक कर अपनी बात रखी, "बहन ली को सच्चाई को मानने में दिक्कत तो होती है, पर वह अपने काम में बहुत ही सक्रिय और जिम्मेदार है। अभी हाल में ही कुछ भाई-बहन अपने काम में बहुत ढीले थे, और उसने उनका हौसला बढ़ाया था।" बहन बेई ने तुरंत प्रतिक्रिया दी, "बहन ली हमेशा भागती-दौड़ती और सक्रिय नज़र आती है, पर वह यह सब केवल दिखावे के लिए करती है, वह असली मुद्दों को सुलझा नहीं सकती।" उन्होंने जो कहा था वो सब सच था, और मैं जवाब में कुछ बोल नहीं पाई। एक अन्य कलीसियाई अगुआ, बहन झांग ने तब कहा, "यह सच है कि बहन ली किसी समूह की अगुआ बनने के योग्य नहीं है, लेकिन हमारे पास फ़िलहाल ऐसा कोई योग्य उम्मीदवार नहीं है जो उसकी जगह ले सके। चलो हम उसे तब तक उसकी जगह पर बनाए रखें जब तक कोई विकल्प नहीं मिल जाता।" मैं बिल्कुल यही चाहती थी, इसलिए मैंने तपाक से जोड़ा, "मैं सहमत हूँ। जब कोई मिल जाए तब उसे हटा देंगे।" मुझे आश्चर्य हुआ जब एक सप्ताह से भी कम समय में, जब हम कलीसिया के काम की बातें कर चुके थे, बहन झोउ ने फिर से उसी मुद्दे को छेड़ा। उसने कहा कि भाई चेन एक सही विकल्प है, और कुछ अन्य सहकर्मी सहमत हो गए। मेरा दिल उछल कर जैसे मेरे गले तक आ गया। यदि भाई चेन को एक समूह अगुआ के तौर पर चुना जाता है, तो बहन ली को निकाल दिया जाएगा। इसलिए मैंने भाई चेन की भ्रष्टताओं और कमियों के बारे में कुछ बातें बताईं, और कहा कि वह इस काम के लिए योग्य नहीं है। तब हर कोई हिचकिचाने लगा और मैंने कुछ असहज महसूस किया पर फिर भी मैंने सत्य की तलाश नहीं की।
मेरी अगुआ ने तब मुझे समूह अगुआओं के बारे में उसे पूरी जानकारी देने के लिए कहा, और जब मैं बहन ली की बात पर आई, तो मैंने उसके बारे में भाई-बहनों के आकलन को सही-सही नहीं बताया। उसके जाने के बाद मुझे कुछ अजीब-सी परेशानी महसूस हुई। मैं हैरान थी कि आखिर क्यों मैं बहन ली की पैरवी कर रही थी, और हमेशा उसकी चिंता किया करती थी। क्या मैं तरफ़दारी नहीं कर रही थी? कौन-सा इरादा मुझे नियंत्रित कर रहा था? तब मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "भावुकता, मुख्यत: क्या है? यह भ्रष्ट स्वभाव है। अगर हम थोड़े-से शब्दों में भावुकता के व्यावहारिक पहलू का वर्णन करें, तो वे हैं कुछ ख़ास तरह के लोगों के प्रति पक्षपात और उनका बचाव करने की ओर झुकाव, शरीर के सम्बन्धों को क़ायम रखना, और न्यायसंगत न होना; यही भावुकता है। इस तरह, अपनी भावुकता को त्याग देने का मतलब महज़ किसी के बारे में सोचना बन्द कर देना नहीं है। साधारणत:, मुमकिन है कि तुम उनके बारे में पूरी तरह से सोचना बन्द कर दो, लेकिन फिर जैसे ही कोई तुम्हारे परिवार के सदस्यों की, तुम्हारे गृह-नगर की, या ऐसे किसी भी व्यक्ति की आलोचना करता है जिसके साथ तुम्हारा रिश्ता है, तो तुम फट पड़ते हो और उनके बचाव के लिए कमर कस लेते हो। उनके बारे में जो कुछ कहा गया होता है उसे पलट देने के लिए तुम खुद को पूरी तरह बाध्य महसूस करने लगते हो; तुम उन्हें किसी ऐसे अन्याय की दशा में नहीं छोड़ सकते जिसे सुधारा नहीं गया। तुम्हें ज़रूरत महसूस होती है कि तुम उनकी प्रतिष्ठा को बरकरार रखने, उनकी हर ग़लती को सही ठहराने, और उनके बारे में दूसरों को सच बोलने या उनकी कलई खोलने की छूट न देने के लिए भरसक प्रयास करो। यह अन्याय है, और इसी को भावुक होना कहते हैं"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'सत्य की वास्तविकता क्या है?')। "अगर लोगों में परमेश्वर के प्रति श्रद्धा का अभाव है, और अगर उनके हृदयों में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं है, तो वे चाहे जिन भी कर्तव्यों का पालन क्यों न कर रहे हों, या कितनी भी समस्याओं से क्यों न निपट रहे हों, वे कभी भी सिद्धान्त के अनुरूप आचरण नहीं कर सकते। अपने प्रयोजनों और स्वार्थपूर्ण आकांक्षाओं के भीतर जीवन जी रहे लोग सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने में अक्षम होते हैं। यही कारण है कि जब कभी उनका सामना किसी समस्या से होता है, तो वे अपने प्रयोजनों पर आलोचनात्मक निगाह नहीं डालते और इस बात को पहचान नहीं पाते कि उनके प्रयोजनों में कहाँ पर खोट है। इसकी बजाय वे अपने पक्ष में झूठ और बहाने गढ़ने के लिए तमाम तरह के औचित्यों का इस्तेमाल करते हैं। वे अपने हितों, प्रतिष्ठा, और अन्तर्वैयक्तिक सम्बन्धों की रक्षा के लिए काफी अच्छा उद्यम करते हैं, लेकिन, वस्तुत:, उन्होंने परमेश्वर के साथ कोई सम्बन्ध नहीं बनाया होता है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'परमेश्वर के प्रति जो प्रवृत्ति होनी चाहिए मनुष्य की')।
परमेश्वर के वचन दर्शाते हैं, किस तरह समस्याओं का सामना करने पर, हम सत्य के सिद्धांतों के अनुसार निष्पक्षता के साथ नहीं चल पाते, और हम सही और ग़लत के बीच भेद नहीं कर पाते, हम उनका पक्ष लेते और उनको बचाते हैं जिनसे हम जुड़े हुए होते हैं या जिनसे हमें फ़ायदा होता है। यह भावनाओं से काम करनाहै। जब हम भावनाओं से शासित होते हैं, चाहे यह हमारे काम में हो या किसी समस्या से निपटते वक्त हो, हम सत्य का अभ्यास, या अपने कर्तव्य को ठीक से किए बिना केवल अपनी दैहिक भावनाओं और निजी स्वार्थों के बारे में ही सोचते हैं। मैं इसी स्थिति में थी। मैं बहन ली को निकालना नहीं चाहती थी क्योंकि मैं भावनाओं से चल रही थी। मैं अपने रिश्तों को बचा रही थी और डरती थी कि वह मुझसे नाराज़ हो जाएगी। इसलिए जब सहकर्मी सिद्धांतों पर अमल करते हुए उसे हटाना चाहते थे, तो मैंने उसे बचाने के लिए हर कोशिश की ताकि वह अपने पद पर बनी रह सके। जब मैंने अपने अगुआ को उसके बारे में अपना आकलन दिया तो मैंने सही स्थिति नहीं बतायी, और तरफ़दारी करते हुए उसकी कमियों को ढँकने की कोशिश की, उन पर पर्दा डाल दिया। उन बातों पर विचार कर मुझे समझ आ गया कि मेरे इरादे और मेरी सब मंशाएँ, भावनाओं से नियंत्रित थीं। मैं चालाकी और धोखाधड़ी के भ्रष्ट स्वभाव में जी रही थी, एक रिश्ते को बचाने के लिए परमेश्वर के घर के हितों से समझौता करने को तैयार थी, एक इंसान को नाराज़ करने की बजाय परमेश्वर को नाराज़ करने को राज़ी थी। मुझमें परमेश्वर के प्रति कोई श्रद्धा नहीं थी; मैं कितनी स्वार्थी और ओछी थी! मैंने इन सबके बारे में बहुत अपराध-बोध महसूस किया, इसलिए मैं फ़ौरन अपनी अगुआ के पास सच्चाई बताने के लिए चली गई। बाद में, मैंने प्रार्थना की और परमेश्वर को पुकारा : "मैं हमेशा भावनाओं से विवश क्यों होती हूँ, सच का अभ्यास क्यों नहीं कर पाती हूँ? इस समस्या की जड़ क्या है?"
एक दिन, अपनी भक्ति के दौरान, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "ऐसी गन्दी जगह में जन्म लेकर, मनुष्य समाज के द्वारा बुरी तरह संक्रमित किया गया है, वह सामंती नैतिकता से प्रभावित किया गया है, और उसे 'उच्च शिक्षा के संस्थानों' में सिखाया गया है। पिछड़ी सोच, भ्रष्ट नैतिकता, जीवन पर मतलबी दृष्टिकोण, जीने के लिए तिरस्कार-योग्य दर्शन, बिल्कुल बेकार अस्तित्व, पतित जीवन शैली और रिवाज—इन सभी चीज़ों ने मनुष्य के हृदय में गंभीर रूप से घुसपैठ कर ली है, और उसकी अंतरात्मा को बुरी तरह खोखला कर दिया है और उस पर गंभीर प्रहार किया है। फलस्वरूप, मनुष्य परमेश्वर से और अधिक दूर हो गया है, और परमेश्वर का और अधिक विरोधी हो गया है। दिन-प्रतिदिन मनुष्य का स्वभाव और अधिक शातिर बन रहा है, और एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो स्वेच्छा से परमेश्वर के लिए कुछ भी त्याग करे, एक भी व्यक्ति नहीं जो स्वेच्छा से परमेश्वर की आज्ञा का पालन करे, इसके अलावा, न ही एक भी व्यक्ति ऐसा है जो स्वेच्छा से परमेश्वर के प्रकटन की खोज करे। इसकी बजाय, इंसान शैतान की प्रभुता में रहकर, कीचड़ की धरती पर बस सुख-सुविधा में लगा रहता है और खुद को देह के भ्रष्टाचार को सौंप देता है। सत्य को सुनने के बाद भी, जो लोग अन्धकार में जीते हैं, इसे अभ्यास में लाने का कोई विचार नहीं करते, यदि वे परमेश्वर के प्रकटन को देख लेते हैं तो इसके बावजूद उसे खोजने की ओर उन्मुख नहीं होते हैं। इतनी पथभ्रष्ट मानवजाति को उद्धार का मौका कैसे मिल सकता है? इतनी पतित मानवजाति प्रकाश में कैसे जी सकती है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है)। मैंने तब समझा कि भावनाओं से चलना अधिकतर शैतान के द्वारा भ्रमित और भ्रष्ट किए जाने के कारण होता है। विद्यालय की पढाई और सामाजिक प्रभावों के माध्यम से, दुष्ट शैतान लोगों को सभी तरह के सांसारिक दर्शनों और जिंदा रहने के नियमों में डुबो देता है, जैसे कि "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये", "खून के रिश्ते सबसे मजबूत होते हैं" और "मनुष्य निर्जीव नहीं है; वह भावनाओं से मुक्त कैसे हो सकता है?" मैं इन दर्शनों के अनुसार जीती रही हूँ, और अपने करीबियों की रक्षा करने को सकारात्मक मानती आई हूँ, और सहानुभूति और दया दिखाने को प्रेम करना समझती आई हूँ। जहाँ तक बहन ली को हटाने का प्रश्न है, मैं यही सोचते रही कि हम एक ही स्थान से हैं और उसने हमेशा मेरा ख़याल रखा है, इसलिए जब उसके सामने बर्ख़ास्त किए जाने की चुनौती थी, तो मुझे लगा मुझे उसकी तरफ़दारी करनी और उसके पक्ष में बोलना चाहिए। मुझे लगा, ऐसा करना सही होगा। मुझे पता था वह समूह अगुआ के रूप में अपने कर्तव्य के लिए वह ज़िम्मेदारी नहीं उठा रही थी बल्कि दूसरों को भाषण देती और उन्हें नियंत्रित करती थी। उसे न हटाना भाई-बहनों को नुकसान पहुँचा सकता था, और कलीसिया के कार्य पर बुरा असर डाल सकता था। लेकिन मैं सत्य के सिद्धांतों के खिलाफ़ गई और परमेश्वर के घर के हितों को मैंने नज़रअंदाज़ किया, उसे बचाने और उसे उसके पद पर बनाए रखने के लिए मैंने हर कोशिश की। अपने रिश्ते को बनाए रखने के लिए मैंने अपने कर्तव्य का दुरुपयोग किया, और उसकी मेहरबानी की कीमत मैंने कलीसिया के काम से चुकाई। मैं निजी लाभ के लिए अपनी ताक़त और काम का दुरुपयोग कर रही थी। एक अगुआ होने के नाते, मुझे कलीसिया के काम और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश के बारे में सोचना चाहिए था, और अपने कर्तव्य के निर्वहन में मुझे सत्य के सिद्धांतों पर चलना चाहिए था। लेकिन मैं भावनाओं को सर्वोपरि रख रही थी, सत्य को समझती तो थी लेकिन उस पर अमल नहीं कर रही थी। क्या यह सत्य और सिद्धांतों को धोखा देना और कलीसिया के काम को लापरवाही से लेना नहीं था? मैं जिस थाली में खाती थी उसी में छेद कर रही थी। तब मैंने समझा कि सांसारिक फ़लसफ़े वो भुलावे हैं जिनका उपयोग शैतान लोगों को भ्रष्ट करने और धोखा देने के लिए करता है। उस तरह बोलना और काम करना इंसाफ़ और न्याय से बिलकुल ही रहित है और वास्तव में इसमें सत्य के कोई सिद्धांत नहीं होते। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अधिकारियों का भी बिलकुल यही जीवन-दर्शन है : "जब कोई व्यक्ति ताओ को प्राप्त करता है, तो उसके पालतू जानवर भी स्वर्ग में आरोहण करते हैं" जब कोई एक अधिकारी बन जाता है, तो उसके दूर-दूर के रिश्तेदारों को भी लाभ होता है, और वे लोग बेहिचक कुछ भी कर सकते हैं। सीसीपी से नियंत्रित समाज बहुत अंधकारमय और बुरा है, इंसाफ़ और न्याय से बिलकुल ही रहित है। बतौर एक कलीसिया की अगुआ, सिद्धांतों पर पर चलने के बजाय उन शैतानी दर्शनों के सहारे जीकर, मैं किसी सीसीपी अधिकारी से किस तरह भिन्न थी? बहन ली को हटाना न चाहना, किसी सच्चे प्रेम या उसकी मदद करने की इच्छा के कारण न था, मैं केवल इस बात से डरती थी कि कहीं वो मुझे रूखी और भावनाहीन न कहे और कहीं वो मुझे अलग नज़रों से न देखने लगे। मुझे उसके जीवन का कोई ख़याल न था। परमेश्वर के घर में किसी को हटाना आत्म-चिंतन को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है, ताकि वे पश्चाताप कर सकें और समय के साथ बदल सकें। परमेश्वर द्वारा लोगों को बचाने और सुरक्षित रखने का यह एक तरीक़ा होता है। मैं भी अपनी काम से बर्खास्त हुई हूँ, और जब मैंने अपनी नाकामयाबी से सीख ले ली, तो कलीसिया ने मेरे लिए एक अन्य योग्य काम नियोजित कर दिया। केवल ठोकर खाने और गिरने के कारण ही मैंने आत्म-चिंतन किया, और मुझे कुछ आत्म-बोध हुआ। मनुष्य को बचाने की परमेश्वर की इच्छा को भी मैंने बेहतर ढंग से समझा, और मैंने देखा कि उसके प्रेम में दया और धार्मिकता दोनों ही हैं। परमेश्वर के प्रेम के कुछ सिद्धांत हैं; वो हमें लाड़ में बिगाड़ता नहीं है। लेकिन दूसरों के प्रति मेरा 'प्यार' शैतानी सांसारिक फ़लसफ़ों से भरा पड़ा था और निजी स्वार्थों पर आधारित था। यह संकीर्ण और स्वार्थपूर्ण था, परमेश्वर की नज़रों में घृणित और घिनौना था। तब जाकर मैंने समझा कि अपनी भावनाओं पर निर्भर करना दूसरों के लिए और खुद हमारे लिए हानिकारक है, और यही बात मेरे लिए सत्य का अभ्यास और कर्तव्य का निर्वहन करने में सबसे बड़ी अड़चन थी। परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार किए बिना, सच्चा पश्चाताप न करके, मैंने परमेश्वर के स्वभाव का अपमान कर दिया होता और परमेश्वर ने मुझे नकार दिया होता, मुझसे नफ़रत की होती और हटा दिया होता।
मैंने बाद में परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा : "यदि तुम परमेश्वर के साथ उचित संबंध बनाना चाहते हो, तो तुम्हारा हृदय उसकी तरफ़ मुड़ना चाहिए। इस बुनियाद पर, तुम दूसरे लोगों के साथ भी उचित संबंध रखोगे। यदि परमेश्वर के साथ तुम्हारा उचित संबंध नहीं है, तो चाहे तुम दूसरों के साथ संबंध बनाए रखने के लिए कुछ भी कर लो, चाहे तुम जितनी भी मेहनत कर लो या जितनी भी ऊर्जा लगा दो, वह मानव के जीवनदर्शन से संबंधित ही होगा। तुम दूसरे लोगों के बीच एक मानव-दृष्टिकोण और मानव-दर्शन के माध्यम से अपनी स्थिति बनाकर रख रहे हो, ताकि वे तुम्हारी प्रशंसा करे, लेकिन तुम लोगों के साथ उचित संबंध स्थापित करने के लिए परमेश्वर के वचनों का अनुसरण नहीं कर रहे। अगर तुम लोगों के साथ अपने संबंधों पर ध्यान केंद्रित नहीं करते, लेकिन परमेश्वर के साथ एक उचित संबंध बनाए रखते हो, अगर तुम अपना हृदय परमेश्वर को देने और उसकी आज्ञा का पालने करने के लिए तैयार हो, तो स्वाभाविक रूप से सभी लोगों के साथ तुम्हारे संबंध सही हो जाएँगे। इस तरह से, ये संबंध शरीर के स्तर पर स्थापित नहीं होते, बल्कि परमेश्वर के प्रेम की बुनियाद पर स्थापित होते हैं। इनमें शरीर के स्तर पर लगभग कोई अंत:क्रिया नहीं होती, लेकिन आत्मा में संगति, आपसी प्रेम, आपसी सुविधा और एक-दूसरे के लिए प्रावधान की भावना रहती है। यह सब ऐसे हृदय की बुनियाद पर होता है, जो परमेश्वर को संतुष्ट करता हो। ये संबंध मानव जीवन-दर्शन के आधार पर नहीं बनाए रखे जाते, बल्कि परमेश्वर के लिए दायित्व वहन करने के माध्यम से बहुत ही स्वाभाविक रूप से बनते हैं। इसके लिए मानव-निर्मित प्रयास की आवश्यकता नहीं होती। तुम्हें बस परमेश्वर के वचन के सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करने की आवश्यकता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के साथ सामान्य संबंध स्थापित करना बहुत महत्वपूर्ण है)।
परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मैंने समझा कि भाई-बहनों के साथ हमारे रिश्ते-नाते मुख्यतः परमेश्वर के प्रेम पर आधारित होते हैं, वे शैतान के सांसारिक दर्शनों के अनुसार नहीं निभाए जाते। सत्य का अभ्यास करना ही इसकी कुंजी है। खासकर जब बात परमेश्वर के घर के काम की हो, जब हम किसी को सत्य के सिद्धांतों के विपरीत काम करते देखें, तो उनकी मदद करने के लिए हमें सत्य पर सहभागिता करनी चाहिए। अगर कई सहभागिताओं के बाद भी वे पश्चाताप नहीं करते, तो आवश्यकता अनुसार उनके साथ काट-छाँट करने और निपटने की आवश्यकता होती है। परिवार और मित्रों के साथ भी, हम अपनी भावनाओं पर निर्भर नहीं रह सकते, न ही सांसारिक दर्शनों के हिसाब से चल सकते हैं। हमें परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों के अनुसार काम करना चाहिए : जब भी ज़रूरी हो, सहभागिता करो, और अगर उससे काम न बने, तो उसे हटा दो। कलीसिया के काम और परमेश्वर के घर के हित सर्वोपरि रहने चाहिए। केवल यही परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है। मैंने बाद में कुछ सहकर्मियों के साथ इस पर चर्चा की और सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप बहन ली को बर्ख़ास्त कर दिया। उसके काम का विश्लेषण करने के लिए परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में मैंने उसके साथ सहभागिता भी की और भाई चेन को समूह अगुआ के रूप में पदोन्नत कर दिया। तभी जाकर मेरे दिल को चैन मिला। कुछ समय बाद, मैंने बहन ली को परमेश्वर के कुछ वचन पढ़कर सुनाए और उससे पूछा कि उसके क्या हाल हैं। उसने कहा, "परमेश्वर का धन्यवाद! वो जो भी करता है, अच्छा करता है। शुरू में मैं निराश और दुखी हुई, लेकिन परमेश्वर के वचनों को पढ़कर और प्रार्थना करके मैंने समझा कि परमेश्वर ऐसा मुझे बदलने के लिए कर रहा है, और यदि मुझे बर्ख़ास्त नहीं किया गया होता और मेरी ग़लतियों को बताया न गया होता, तो मैं खुद को नहीं जान पाती, न ही मैं बदलती और पश्चाताप करती, जैसा कि मैंने अब किया है।" यह सुनकर, मैंने महसूस किया कि देहासक्ति को त्याग देना और सत्य का अभ्यास करना कितना मधुर होता है। मैंने यह भी अनुभव किया कि सिर्फ सत्य का अभ्यास करना और सिद्धांतों पर चलना ही परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होता है। केवल वही प्रतिष्ठित मार्ग है।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?