समस्या की रिपोर्ट करने को लेकर आशंकाएँ
सितंबर 2021 में, मैं कलीसिया में सुसमाचार साझा कर रहा था। थोड़े समय बाद, मुझे एहसास हुआ कि सुसमाचार-कार्य की निरीक्षक अपने कर्तव्य में कोई दायित्व नहीं उठा रही, और उसने काफी समय से हमसे यह नहीं पूछा कि हमारा काम कैसा चल रहा है। हर बार जब वह आती थी, तो बस बेमन से काम करती थी और कभी कोई असली समस्या हल नहीं करती थी। हमारे कामों में उससे कोई मदद या लाभ नहीं मिलता था। शुरू में, मुझे लगता था कि सुसमाचार-कार्य का निरीक्षण अभी-अभी शुरू करने के कारण यह इससे परिचित नहीं है, तो इसका कुछ समय के लिए उलझन में रहना सामान्य बात है, और कुछ समय तक अभ्यास करने के बाद यह काम करना सीख जाएगी। लेकिन थोड़े समय बाद, मैंने पाया कि बात वैसी नहीं है, जैसी मैंने सोची थी।
एक बार, हमारे सुसमाचार-कार्य में एक समस्या आ गई, तो हमने निरीक्षक को पत्र भेजकर समाधान माँगा। लेकिन उसके उत्तर में कोई स्पष्ट दृष्टिकोण या सुझाव नहीं थे। उसने बस हमें परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ने के लिए भेज दिया, जिसका हमारी समस्या से कोई लेना-देना नहीं था। मुझे यह बिल्कुल अविश्वसनीय लगा। यह निरीक्षक अपने कर्तव्य में इतनी लापरवाह कैसे हो सकती है? काम की जानकारी लेते समय वह आम तौर पर किसी समस्या का पता नहीं लगा पाती थी, और जब हम उसके पास जाकर पूछने की पहल करते थे, तो उसके पास कोई स्पष्ट दृष्टिकोण या सुझाव नहीं होते थे। यह बहुत गैर-जिम्मेदाराना रवैया था। शुरू में, मैंने एक सभा में इस मसले को उसके सामने उठाना चाहा, लेकिन मेरी कुछ आशंकाएँ थी। कहीं वह ऐसा तो नहीं कहेगी कि मैं अहंकारी हूँ? बहुत ज्यादा पूछ रहा हूँ? उसकी कमजोरी का फायदा उठाना चाहता हूँ? अगर वह मेरी बात मानने के बजाय मेरी ही जिम्मेदारियों की जाँच करने लगी, तो क्या यह मुसीबत मोल लेना नहीं होगा? इस विचार से, उसके सामने मसले को उठाने का मेरा साहस जाता रहा। बाद में मिलने पर मैंने मामले को उतना महत्व नहीं दिया, और बस उसे याद दिलाया, "हो सके तो हमारे काम के लिए भी थोड़ा समय निकालकर देख लेना कि कोई समस्या तो नहीं।" लेकिन मैं हैरान रह गया, जब उसने कहा, "आप सभी इतने लंबे समय से सुसमाचार-कार्य कर रहे हैं और सारे सिद्धांत मुझसे बेहतर समझते हैं। आपको अच्छे परिणाम भी मिल रहे हैं। मैं तो बस आपसे सीख रही हूँ।" इसके बाद जब भी मैं उसे हमारे काम पर ज्यादा ध्यान देने की याद दिलाता, तो वह हमेशा ऐसा ही कुछ कह देती। मैंने मन में सोचा, "यह कोई असली काम नहीं करती और हमेशा बहाने बना देती है। यह सत्य स्वीकारना नहीं है।" निरीक्षक का मुख्य कार्य भाई-बहनों के काम में आने वाली असली समस्याओं और कठिनाइयों का पता लगाकर उन्हें हल करना और उसकी प्रगति पर नजर रखना है। लेकिन वह किसी समस्या का पता लगाकर उसे हल नहीं कर पाई, वह कोई व्यावहारिक कार्य करने में सक्षम नहीं थी। अगर चीजें इसी तरह चलती रहीं, तो इससे सुसमाचार-कार्य निश्चित रूप से प्रभावित होगा। बाद में, मैंने इस समस्या को फिर से उसके साथ उठाना चाहा, ताकि वह अपनी समस्या जानकर उसे जल्दी से ठीक कर सके। मगर फिर मैंने फिर सोचा, "मैं पहले खुद निरीक्षक रहा हूँ, और व्यावहारिक काम न कर पाने पर मुझे बर्खास्त कर दिया गया था। अगर मैं राय देने उसके पास आता रहा, तो वह ऐसा तो नहीं सोचेगी कि मैं रुतबे को बहुत महत्व देता हूँ? मुझे निरीक्षक न बनाए जाने के कारण यह गलत लगता है, इसलिए मैं जानबूझकर मीन-मेख निकाल रहा हूँ? वह मेरे बारे में खराब राय बनाकर मुझे मेरे कर्तव्य से बर्खास्त तो नहीं कर देगी? इसे छोड़ देना ही बेहतर है। शायद उसे काम का पर्याप्त अनुभव नहीं है। काम से और अधिक परिचित होने पर शायद वह ठीक हो जाए।" इसलिए मैंने उसके साथ दोबारा मामले को नहीं उठाया।
कुछ समय बाद, हमारे सुसमाचार-कार्य में कुछ समस्याएँ आईं और हमने उससे मदद माँगी। पर उसने अब भी इसे नजरअंदाज कर दिया और हमें खुद मसले हल करने के लिए छोड़ दिया। एक अन्य अवसर पर, मैंने अचानक उसे यह कहते सुना कि चूँकि उसे हमारे द्वारा अनुयायी प्राप्त करने की खास बातों की अच्छी जानकारी नहीं है, इसलिए अगुआ के पूछने पर उसने ऐसे ही अंदाजे से कोई संख्या बता दी, जिससे उसमें और असली आँकड़ों में बहुत फर्क हो गया। यह सुनकर मैं आगबबूला हो गया। हम उसे हर महीने अपने सुसमाचार-कार्य की विशिष्ट स्थिति बताते थे, और हमारे कार्य की खोज-खबर लेकर ज्यादा मार्गदर्शन करने की याद भी दिलाई थी, पर उसे अभी तक यह भी नहीं पता कि एक महीने में कितने नए लोगों ने कलीसिया में प्रवेश किया है। वह किस प्रकार व्यावहारिक कार्य कर रही है? अपने कर्तव्य के प्रति इस तरह के रवैये से वह निरीक्षक के रूप में कार्य कैसे कर सकती है? कोई आश्चर्य नहीं कि वह किसी समस्या का पता नहीं लगा पाई। इन व्यवहारों को एक साथ देखकर मुझे लगा कि यह निरीक्षक व्यावहारिक कार्य करने में असमर्थ है, यह एक नकली कार्यकर्ता है, और यह सुसमाचार-कार्य की देखरेख के लिए उपयुक्त नहीं है। उस समय, मैं वाकई उसकी समस्याओं के बारे में एक रिपोर्ट लिखना चाहता था, लेकिन फिर मैंने सोचा, "अगर निरीक्षक को पता चला कि मैंने उसकी रिपोर्ट की है, तो क्या वह यह नहीं सोचेगी कि मैं जानबूझकर उसकी गलती निकालकर उसका जीना दूभर कर रहा हूँ? अगर उसने अगुआ से मेरे बारे में बुरा बोला, तो क्या अगुआ मेरा तबादला या मुझे बर्खास्त नहीं कर देगा?" यह सोचकर मैं एक बार फिर पीछे हट गया। कुछ दिनों बाद, मैंने एक अन्य समूह की बहन लियू शियांगी को कहते सुना कि कैसे इस निरीक्षक ने कभी उनकी कोई व्यावहारिक समस्या हल नहीं की। जब उन्होंने उसे समूह के एक ऐसे सदस्य के बारे में सूचित किया, जिसका स्वभाव अहंकारी था, जो हैसियत के पीछे भागता था, अक्सर दूसरों की कमजोरियों का फायदा उठाता था, उन पर हमला कर उन्हें बेबस करता था, और लोगों का कर्तव्य निभाना मुश्किल कर दिया था, तो निरीक्षक ने बस इसे नजरअंदाज कर दिया और मामले को महत्वपूर्ण नहीं माना। अंत में, समस्या हल करने का एकमात्र उपाय अगुआ को इसकी सूचना देना रहा। शियांगी को यह कहते सुनकर मुझे बहुत अपराध-बोध हुआ। मुझे बहुत पहले ही पता चल गया था कि इस निरीक्षक के साथ समस्याएँ हैं, लेकिन खुद को बचाने के लिए मैंने कुछ नहीं कहा था। मैं सत्य का अभ्यास और कलीसिया के कार्य की रक्षा क्यों नहीं कर सकता?
अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "कुछ नकली अगुआ ऐसे भी होते हैं, जिनमें थोड़ी क्षमता होती है और जो थोड़ा काम भी कर सकते हैं, जो हर तरह के इंसान को सँभालने के सिद्धांतों के बारे में थोड़ा-बहुत जानते हैं, लेकिन किसी को ठेस पहुँचाने से डरते हैं, इसलिए बुरे लोगों और मसीह-विरोधियों को रोकने की हिम्मत नहीं करते। वे शैतानी फलसफों से जीते हैं, ऐसे मामलों से अलग रहते हैं जिनसे उनका व्यक्तिगत सरोकार नहीं होता। वे इस बात की परवाह नहीं करते कि कलीसिया का कार्य प्रभावी है या नहीं, न ही इस बात की कि परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश को कितना बड़ा नुकसान हो सकता है; उन्हें लगता है कि ऐसी चीजों का उनसे कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए, ऐसे नकली अगुआ के कार्यकाल के दौरान कलीसियाई जीवन का सामान्य क्रम सही हालत में नहीं रहता, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के कर्तव्य और जीवन-प्रवेश सुनिश्चित नहीं रह जाते। इस समस्या की प्रकृति क्या है? ऐसा नहीं कि ऐसे नकली अगुआ इसलिए काम नहीं कर पाते क्योंकि उनकी क्षमता खराब होती है, तो फिर वे किस तरह से नकली होते हैं? वे नकली इसलिए होते हैं, क्योंकि उनकी मानवता के साथ समस्या होती है। अगुआओं के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान, दुष्ट लोगों और मसीह-विरोधियों द्वारा कलीसिया का कार्य बाधित और अव्यवस्थित किए जाने की समस्या का कोई समाधान नहीं हो सकता। कुछ भाई-बहनों को इससे बहुत नुकसान होता है, और यह कलीसिया के कार्य के लिए एक जबरदस्त आघात होता है। इस तरह के नकली अगुआओं का किसी समस्या पर ध्यान जाता है और वे किसी को बाधा और अव्यवस्था पैदा करते देखते हैं, और जानते हैं कि उनकी क्या जिम्मेदारी है, उन्हें क्या करना चाहिए और कैसे करना चाहिए, फिर भी वे कुछ नहीं करते। वे मूक-बधिर होने का ढोंग करते हुए न तो कुछ सुनते हैं और न ही सवाल करते हैं, और न ही अपने वरिष्ठों को मामले की रिपोर्ट करते हैं। वे दिखावा करते हैं कि वे कुछ नहीं जानते और कुछ नहीं देखते। क्या यह उनकी मानवता की समस्या नहीं है? उनकी अगुआई का क्या सिद्धांत होता है? 'मैं कोई व्यवधान या गड़बड़ी नहीं करता, लेकिन मैं ऐसा कुछ नहीं करूँगा जिससे किसी को ठेस पहुँचे, या जो दूसरों की गरिमा पर हमला करे। भले ही तुम मुझे एक नकली अगुआ के रूप में चित्रित करो, मैं फिर भी ऐसा कुछ नहीं करूँगा जिससे किसी को ठेस पहुँचे। मुझे अपने बचने का रास्ता छोड़ना होगा।' यह किस तरह का तर्क है? यह शैतान का तर्क है। और यह किस प्रकार का स्वभाव है? क्या यह बहुत कपटपूर्ण और छलने वाला नहीं है? ऐसा इंसान परमेश्वर के आदेश के प्रति अपने व्यवहार में जरा भी ईमानदार नहीं होता; वह अपने कर्तव्य के प्रदर्शन में हमेशा चालाक और धूर्त रहता है, कई ओछी गणनाएँ करते हुए वह सभी चीजों में अपने बारे में ही सोचता है। वह कलीसिया के कार्य पर जरा भी विचार नहीं करता और उसमें कोई जमीर या विवेक नहीं होता। ऐसे लोग अगुआई के काम के लिए काफी अनुपयुक्त होते हैं। ... मेरे विचार से, इस तरह का इंसान कितना भी निष्ठावान, या कितना भी सुनियंत्रित या अल्पभाषी, या मेहनती और सक्षम क्यों न दिखे, यह तथ्य कि वह सिद्धांतों के बिना कार्य करता है और कलीसिया के कार्य के लिए कोई जिम्मेदारी नहीं लेता, मुझे उसे, 'एक नई रोशनी में देखने के लिए' बाध्य करता है। निष्कर्ष के रूप में, मैं ऐसे लोगों को परिभाषित करूँगा। हो सकता है कि वे कोई बड़ी गलती न करें, पर वे बहुत कपटी और धोखेबाज होते हैं; वे बिलकुल भी कोई जिम्मेदारी नहीं लेते, न ही वे कलीसिया का कार्य बिलकुल भी कायम रखते हैं। उनमें कोई मानवता नहीं होती। मुझे लगता है कि वे किसी जानवर जैसे होते हैं—चालाकी में वे कुछ लोमड़ी की तरह होते हैं" (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। "एक बार जब सत्य तुम्हारा जीवन बन जाता है, तो जब तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जो ईशनिंदा करता है, परमेश्वर का भय नहीं मानता, कार्य करते समय लापरवाह और अनमना होता है या कलीसिया के काम में बाधा डालता और हस्तक्षेप करता है, तो तुम सत्य के सिद्धांतों के अनुसार प्रतिक्रिया दोगे, तुम आवश्यकतानुसार उसे पहचानकर उजागर कर पाओगे। अगर सत्य तुम्हारा जीवन नहीं बना है और तुम अभी भी अपने शैतानी स्वभाव के भीतर रहते हो, तो जब तुम्हें उन दुष्ट लोगों और शैतानों का पता चलता है जो कलीसिया के कार्य में रुकावट डालते हैं और बाधाएँ खड़ी करते हैं, तुम उन पर ध्यान नहीं दोगे और उन्हें अनसुना कर दोगे; अपने विवेक द्वारा धिक्कारे जाए बिना, तुम उन्हें नजरअंदाज कर दोगे। यहाँ तक कि तुम यह भी सोचोगे कि जो कोई कलीसिया के कार्य में बाधाएँ खड़ी कर रहा है, तुम्हारा उससे कोई लेना-देना नहीं है। कलीसिया के काम और परमेश्वर के घर के हितों को चाहे कितना भी नुकसान पहुँचे, तुम परवाह नहीं करते, हस्तक्षेप नहीं करते, या दोषी महसूस नहीं करते—जो तुम्हें एक विवेकहीन या नासमझ व्यक्ति, एक गैर-विश्वासी, एक सेवाकर्ता बनाता है। तुम जो खाते हो वह परमेश्वर का है, तुम जो पीते हो वह परमेश्वर का है, और तुम परमेश्वर से आने वाली हर चीज का आनंद लेते हो, फिर भी तुम महसूस करते हो कि परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान तुमसे संबंधित नहीं है—जो तुम्हें गद्दार बनाता है, जो उसी हाथ को काटता है जो उसे भोजन देता है। अगर तुम परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, तो क्या तुम इंसान भी हो? यह एक दानव है, जिसने कलीसिया में पैठ बना ली है। तुम परमेश्वर में विश्वास का दिखावा करते हो, चुने हुए होने का दिखावा करते हो, और तुम परमेश्वर के घर में मुफ्तखोरी करना चाहते हो। तुम एक इंसान का जीवन नहीं जी रहे, और स्पष्ट रूप से गैर-विश्वासियों में से एक हो" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल परमेश्वर के प्रति वास्तव में समर्पित होने वालों में ही उसका भय मानने वाला हृदय होता है)। परमेश्वर के वचन बहुत तकलीफदेह थे। खासकर जब मैंने ये वचन पढ़े, "उनमें कोई मानवता नहीं है," "धूर्तता में वे कुछ हद तक लोमड़ी जैसे हैं," "एक दानव जिसने कलीसिया में पैठ बना ली है," और "गैर-विश्वासी," तो मैंने महसूस किया कि परमेश्वर का स्वभाव अपराध सहन नहीं करता। परमेश्वर धोखेबाज लोगों से खास तौर पर घृणा करता है। परमेश्वर इन लोगों को दानव और गैर-विश्वासी कहता है। मुझे बहुत डर लगा और अपराध-बोध हुआ, मानो परमेश्वर मेरे सामने ही मुझे उजागर कर मेरी निंदा कर रहा हो। मुझे अपना पिछला व्यवहार याद आया, मैंने पहले ही स्पष्ट देख लिया था कि निरीक्षक अपने कर्तव्य में खानापूरी कर रही है और व्यावहारिक काम नहीं कर रही, और मैंने कई बार इस मसले को उसके साथ उठाना चाहा, लेकिन मैं हमेशा अत्यधिक सतर्क रहता था और डरता था कि वह मुझे घमंडी और अविवेकी कहेगी, इसलिए मैंने उससे बात करने की हिम्मत नहीं की। जब मैंने समस्याएं उसके साथ उठाईं भी, तो हमेशा उन्हें कम करके बताया और पूरी समस्या का जिक्र करने की हिम्मत नहीं की, अपने दृढ़ विश्वासों के बावजूद मैं उसे बढ़ावा देने की हद तक चला गया, ताकि मैं अपनी प्रतिष्ठा और उसके साथ अपने संबंध को बचा सकूँ। . मैंने बाद में तय किया कि वह एक नकली कार्यकर्ता है, जो वास्तविक कार्य करने में असमर्थ है, कि उसका तबादला या उसे बर्खास्त कर दिया जाना चाहिए, और कलीसिया के काम की रक्षा के लिए उसे उजागर कर उसकी रिपोर्ट की जानी चाहिए। लेकिन मुझे चिंता हुई कि कहीं निरीक्षक यह न कहे कि मैं हैसियत के लिए होड़ कर रहा हूँ और जानबूझकर उसका जीना दूभर कर रहा हूँ, और वह मुझे दबा न दे। अपनी सुरक्षा के लिए मैं नादान बन गया, और बस सुसमाचार-कार्य को बाधित होते देखता रहा, किसी समस्या की रिपोर्ट नहीं की। मैं सच में धोखेबाज, स्वार्थी और नीच था! परमेश्वर के प्रति मुझमें कोई ईमानदारी नहीं थी। मैंने परमेश्वर पर अपने विश्वास के तमाम वर्ष याद किए, परमेश्वर के इतने सारे वचनों के पोषण का आनंद लेते हुए मैं कलीसिया के काम का नुकसान कैसे देख पाया और कैसे सिर्फ अपनी रक्षा करनी चाही, कलीसिया के काम की रक्षा बिल्कुल नहीं की? अगर मैंने निरीक्षक की समस्या की रिपोर्ट पहले ही कर दी होती, तो वह कलीसिया के काम में देरी न कर पाती या उसमें बाधा न डालती।
आत्म-निंदा की कसक में, मैंने देखा कि परमेश्वर के वचन कहते हैं, "बहुत सालों से, जिन विचारों पर लोगों ने अपने अस्तित्व के लिए भरोसा रखा था, वे उनके हृदय को इस स्थिति तक दूषित कर रहे हैं कि वे विश्वासघाती, डरपोक और नीच हो गए हैं। उनमें न केवल इच्छा-शक्ति और संकल्प का अभाव है, बल्कि वे लालची, अभिमानी और स्वेच्छाचारी भी बन गए हैं। उनमें ऐसे किसी भी संकल्प का सर्वथा अभाव है जो स्वयं को ऊँचा उठाता हो, बल्कि, उनमें इन अंधेरे प्रभावों की बाध्यताओं से पीछा छुड़ाने की लेश-मात्र भी हिम्मत नहीं है। लोगों के विचार और जीवन इतने सड़े हुए हैं कि परमेश्वर पर विश्वास करने के बारे में उनके दृष्टिकोण अभी भी बेहद वीभत्स हैं। यहाँ तक कि जब लोग परमेश्वर में विश्वास के बारे में अपना दृष्टिकोण बताते हैं तो इसे सुनना मात्र ही असहनीय होता है। सभी लोग कायर, अक्षम, नीच और दुर्बल हैं। उन्हें अंधेरे की शक्तियों के प्रति क्रोध नहीं आता, उनके अंदर प्रकाश और सत्य के लिए प्रेम पैदा नहीं होता; बल्कि, वे उन्हें बाहर निकालने का पूरा प्रयास करते हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विषमता होने के अनिच्छुक क्यों हो?)। परमेश्वर के वचनों पर विचार कर मैंने महसूस किया कि मुझे शैतान ने गहराई से भ्रष्ट कर दिया है और शैतान के जहर मेरे दिल की गहराई में पहले ही जड़ जमा चुके हैं। शैतानी फलसफे, जैसे "खुद को बचाओ, केवल आरोप से बचने का रास्ता सोचो," "जितनी कम परेशानी, उतना ही बेहतर," "सबसे बाहर निकली कील ही हथौड़ी से ठोकी जाती है," और "पछताने से सुरक्षित रहना बेहतर है," मेरी प्रकृति और जीने के नियम बन गए थे, जिन्होंने मुझे दृढ़ता से काबू में कर लिया था, जिसके कारण बोलते और काम करते हुए मैं केवल अपने हितों पर विचार करता था। मैंने एक निरीक्षक को व्यावहारिक कार्य न करके कलीसिया के काम में देरी करते और उस पर बुरा असर डालते हुए भी देखा। मगर मैं नादान बन गया, चुप रहा, और कलीसिया के काम की बिल्कुल भी रक्षा नहीं की। मैं अनजाने ही शैतान का पक्ष लेकर उसके साथी के रूप में काम कर रहा था। मैं सच में परमेश्वर के लिए घृणास्पद था! मैंने देखा कि ये सांसारिक फलसफे भ्रांतियाँ और झूठ हैं, जिनका इस्तेमाल शैतान लोगों को गुमराह और भ्रष्ट करने के लिए करता है। इन चीजों के अनुसार जीकर मैं और ज्यादा धोखेबाज, दुष्ट, स्वार्थी और नीच ही बन सकता था। अपने हितों की रक्षा के लिए मैं खुद को परमेश्वर और लोगों से बचाता रहा, और कलीसिया में चाहे जो भी व्यवधान या गड़बड़ी हुई, मैं बेपरवाह, उदासीन और अलग ही रहा। मैं वे सत्य अमल में नहीं लाया जिन्हें लाना चाहिए था, मैंने वे कर्तव्य पूरे नहीं किए जो करने चाहिए थे, मुझमें जमीर, विवेक, मानवता या गरिमा का नामो-निशान नहीं था। पश्चात्ताप न करने पर अंततः परमेश्वर मुझसे घृणा कर मुझे निकाल देगा। जितना ज्यादा मैंने सोचा, मुझे उतना ही ज्यादा पछतावा हुआ। मुझे लगा कि मुझे शैतान ने इतनी गहराई से भ्रष्ट कर दिया है कि मुझमें किसी भी तरह की मानवता नहीं रही। मुझे खुद से बहुत नफरत हुई। लेकिन साथ ही, मैंने सत्य का अभ्यास करने का संकल्प भी लिया। मैं इतना अविवेकी नहीं बना रह सकता। मुझे परमेश्वर की इच्छा पर ध्यान देना है, सत्य का अभ्यास करना है, और जल्दी से जल्दी अगुआ को निरीक्षक की समस्या की रिपोर्ट करनी है। बाद में, मैंने निरीक्षक के व्यावहारिक कार्य न करने के मामले की रिपोर्ट अगुआ को कर दी।
रिपोर्ट भेजने के बाद मुझे अपने कंधों से एक बड़ा भार उतरा महसूस हुआ। लेकिन दो-तीन दिन बाद भी अगुआ ने कोई जवाब नहीं दिया, तो मेरी शंकाएँ लौटे बिना नहीं रहीं। अगुआ ने रिपोर्ट पढ़कर यह तो नहीं सोचा होगा कि मैं हैसियत के लिए होड़ कर रहा हूँ, या मैं जानबूझकर गलती निकाल रहा हूँ? वह कुकर्मी होने का आरोप लगाकर मुझे निकाल तो नहीं देगा? यह सोचकर मेरा दिल दहल उठा। मैंने शियांगी से अपनी हालत के बारे में खुलकर बात की। उसने कहा, "क्या आप परमेश्वर की धार्मिकता और इस तथ्य से इनकार नहीं कर रहे कि परमेश्वर के घर में सत्य का शासन चलता है? ..." यह कहकर उसने परमेश्वर के वचनों का एक अंश निकाला और मुझे पढ़कर सुनाया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "मसीह-विरोधियों जैसे लोग हमेशा परमेश्वर की धार्मिकता और स्वभाव को लेकर धारणाओं, प्रश्नों और प्रतिरोध के साथ पेश आते हैं। वे सोचते हैं, 'यह केवल एक सिद्धांत है कि परमेश्वर धार्मिक है। क्या वास्तव में इस दुनिया में धार्मिकता जैसी कोई चीज होती है? अपने जीवन के तमाम वर्षों में मैंने उसे एक बार भी न पाया है, न देखा है। दुनिया बहुत अँधेरी और दुष्ट है, यहाँ बुरे लोग और दानव काफी सफल हैं, संतोष से जी रहे हैं। मैंने उन्हें वह मिलते हुए नहीं देखा, जिसके वे हकदार हैं। मैं नहीं देख पाता कि इसमें परमेश्वर की धार्मिकता कहाँ है; मैं सोचता हूँ, क्या परमेश्वर की धार्मिकता असल में मौजूद भी है? उसे किसने देखा है? उसे किसी ने नहीं देखा और न ही कोई उसे प्रमाणित कर सकता है।' अपने मन में वे यही सोचते हैं। वे परमेश्वर के सारे कार्य, उसके सारे वचन और उसके सारे आयोजन इस विश्वास की नींव पर नहीं स्वीकारते कि वह धार्मिक है, बल्कि हमेशा संदेह और आलोचना करते रहते हैं, हमेशा धारणाओं से भरे रहते हैं, जिनके समाधान के लिए वे कभी सत्य की तलाश नहीं करते। मसीह-विरोधी हमेशा इसी तरह से परमेश्वर पर विश्वास करते हैं। क्या उन्हें परमेश्वर पर सच्ची आस्था होती है? नहीं होती। जब भी परमेश्वर की धार्मिकता की बात आती है, मसीह-विरोधी हमेशा संदेह की स्थिति में रहते हैं। ... उदाहरण के लिए, जब कलीसिया के कार्य में कोई समस्या उत्पन्न होती है, तो चाहे दोष कितना भी गंभीर हो और उसके कुछ भी परिणाम हों, मसीह-विरोधी की पहली प्रतिक्रिया खुद को दोषमुक्त करने और किसी और पर दोष मढ़ने की होती है। जिम्मेदार न ठहराए जाने के लिए, वह मामले की सच्चाई छिपाने के लिए खुद से ध्यान भी हटा सकता है, कुछ सही, अच्छी-अच्छी बातें कहते हुए सतही भाग-दौड़ भी कर सकता है। सामान्य समय में लोग इसे नहीं देख पाते, लेकिन जब उन पर कुछ विपत्ति आती है, तो मसीह-विरोधी की कुरूपता प्रकट होती है। अपने सारे काँटे खड़े किए किसी साही की तरह, वह कोई भी जिम्मेदारी न लेने की इच्छा रखते हुए, अपनी पूरी ताकत से अपनी रक्षा करता है। यह कैसा रवैया है? क्या यह इस बात पर विश्वास न करने वाला रवैया नहीं है कि परमेश्वर धार्मिक है? मसीह-विरोधी यह नहीं मानते कि परमेश्वर सबकी जाँच करता है या कि वह धार्मिक है; वे खुद को बचाने के लिए अपने तरीके इस्तेमाल करना चाहते हैं। उनका मानना है, 'अगर मैं अपनी रक्षा नहीं करूँगा, तो कोई नहीं करेगा। परमेश्वर भी मेरी रक्षा नहीं कर सकता। लोग कहते हैं कि वह धार्मिक है, लेकिन जब लोग मुसीबत में पड़ते हैं, तो क्या वह वास्तव में उनके साथ उचित व्यवहार करता है? बिलकुल नहीं—परमेश्वर ऐसा नहीं करता।' मुसीबत या उत्पीड़न का सामना करने पर वे असहाय महसूस करते हैं और सोचते हैं, 'तो, परमेश्वर कहाँ है? लोग उसे देख या छू नहीं सकते। कोई मेरी मदद नहीं कर सकता; कोई मुझे न्याय नहीं दे सकता और उसका होना सुनिश्चित नहीं कर सकता।' उन्हें लगता है कि अपनी रक्षा करने का एकमात्र उपाय अपने तरीकों से अपनी रक्षा करना है, वरना उन्हें नुकसान उठाना पड़ेगा, उन्हें धमकाया और सताया जाएगा—परमेश्वर का घर भी इसका अपवाद नहीं है। ... वे केवल प्रतिष्ठा और हैसियत के पीछे भागने की परवाह करते हैं, और कलीसिया के कार्य को बनाए रखने के लिए कुछ नहीं करते। जो कोई कुछ बुरा करता है और परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाता है, वे उसे उजागर या उसकी रिपोर्ट नहीं करते, बल्कि ऐसा जताते हैं मानो उन्होंने इसे देखा ही न हो। चीजें सँभालने के उनके सिद्धांतों, और उनके आसपास जो कुछ भी होता है उसके प्रति उनके व्यवहार को देखते हुए, क्या उन्हें परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का कोई ज्ञान है? क्या उनमें कोई आस्था है? नहीं है। यहाँ 'नहीं है' का अर्थ यह नहीं कि उन्हें इसके बारे में जानकारी नहीं होती, बल्कि यह है कि वे अपने हृदय में परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव पर सवाल उठाते हैं। वे न तो मानते हैं और न ही स्वीकारते हैं कि परमेश्वर धार्मिक है" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुले आम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग एक))। परमेश्वर प्रकट करता है कि मसीह-विरोधी का स्वभाव विशेष रूप से अस्थिर और कपटपूर्ण होता है। वे सभी चीजों और लोगों को अपनी अंतर्दृष्टि से देखते हैं, और संदेह के आभास के साथ समस्याओं का सामना करते हैं। वे परमेश्वर की संप्रभुता पर या इस बात पर विश्वास नहीं करते कि परमेश्वर सभी चीजों की जाँच करता है, इस पर तो बिल्कुल नहीं कि परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक है। इसलिए जब वे किसी को कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचाते देखते हैं, तो वे हमेशा अपनी और अपने निजी हितों की रक्षा करते हैं, और सत्य का अभ्यास बिल्कुल नहीं करते। मानो अगर उन्होंने सावधान रहकर अपनी रक्षा नहीं की, तो उन्हें दबाया, दंडित किया जाएगा। मैंने देखा कि मैं भी मसीह-विरोधी जैसा ही हूँ। मैंने परमेश्वर की धार्मिकता पर या इस बात पर विश्वास नहीं किया, कि परमेश्वर के घर में सत्य और धार्मिकता का राज चलता है। मैंने देखा कि निरीक्षक व्यावहारिक कार्य नहीं कर रही, लेकिन मैं हमेशा हद से ज्यादा चिंतित रहा और रिपोर्ट करने की हिम्मत नहीं की। यहाँ तक कि जब मैंने अंततः रिपोर्ट लिखने का साहस जुटाया भी, तब भी परमेश्वर की धार्मिकता की सच्ची समझ न होने के कारण, जब मैंने देखा कि अगुआ ने कई दिन बाद भी जवाब नहीं दिया, तो मुझे संदेह हुआ और मैं सतर्क हो गया। मुझे डर लगा कि अगुआ नकली कार्यकर्ता से नहीं निपटेगा, और मुझे ऐसे कुकर्मी के रूप में निकाल दिया जाएगा, जो लोगों की कमजोरियों का फायदा उठाता है। मैं सचमुच धोखेबाज था! मुझे परमेश्वर पर कोई विश्वास नहीं था। क्या मैं परमेश्वर की धार्मिकता और सभी चीजों पर उसकी संप्रभुता को नकार नहीं रहा था? मैं परमेश्वर द्वारा सभी चीजों के आयोजन को एक गैर-विश्वासी के नजरिये से देख रहा था, और मैं कलीसिया अगुआओं के प्रति आशंकित और सतर्क था। मुझे लगता था कि कलीसिया भी बाहरी दुनिया की तरह ही अन्यायी और अधार्मिक है। यह परमेश्वर पर विश्वास करना कैसे था? क्या यह परमेश्वर की बदनामी और निंदा नहीं थी?
मैंने तब परमेश्वर के वचनों पर विचार किया, "क्या सत्य के भी अपने चहेते होते हैं? क्या सत्य जानबूझकर लोगों का विरोध कर सकता है? यदि तुम सत्य का अनुसरण करते हो, तो क्या यह तुम पर हावी हो सकता है? यदि तुम न्याय के लिए मजबूती से खड़े रहते हो, तो क्या यह तुम्हें चित कर देगा? यदि जीवन की तलाश सच में तुम्हारी आकांक्षा है, तो क्या जीवन तुम्हें चकमा दे सकता है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। "जो सचमुच परमेश्वर को खोजते हैं, उनमें से कोई परमेश्वर द्वारा शापित कैसे किया जा सकता है? सही समझ और संवेदनशील अंत:करण रखने वाला कोई व्यक्ति परमेश्वर द्वारा शापित कैसे किया जा सकता है? जो सचमुच परमेश्वर की आराधना और सेवा करता है, उसे परमेश्वर के कोप की आग द्वारा कैसे भस्म किया जा सकता है? जो परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने में प्रसन्न रहता है, उसे परमेश्वर के घर से बाहर कैसे निकाला जा सकता है? जो परमेश्वर से पर्याप्त प्रेम करता है, वह परमेश्वर की सजा में कैसे रह सकता है? जो परमेश्वर के लिए सब-कुछ त्यागने के लिए तैयार है, उसके पास कुछ न बचे, ऐसा कैसे हो सकता है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है)। हाँ, परमेश्वर का सार धार्मिक और विश्वसनीय है। परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्य मनुष्य के अभ्यास करने और जीने के लिए हैं। सत्य का अनुसरण और अभ्यास करना और कलीसिया के कार्य की रक्षा करना बेशक एक सकारात्मक बात है, जिसे परमेश्वर की स्वीकृति मिलती है। खासकर मसीह-विरोधियों, कुकर्मियों, नकली अगुआओं और कार्यकर्ताओं की रिपोर्ट कर उन्हें उजागर करने को परमेश्वर की स्वीकृति जरूर मिलती है और यह एक अच्छा और उचित कर्म भी है। सोचो, क्या कोई ऐसा व्यक्ति, जो सत्य का अभ्यास करता है और जिसमें न्याय की भावना है, कभी कलीसिया से निकाला गया है? क्या सत्य का अनुसरण और उससे प्रेम करने वाले किसी व्यक्ति को परमेश्वर ने कभी त्यागा या निकाला है? इसके विपरीत, सत्य का अभ्यास करने वालों को न केवल दबाया या निकाला नहीं गया है, बल्कि उन्हें सुरक्षा और भाई-बहनों का अनुमोदन और सम्मान भी मिला है। अगर कुछ लोगों को सत्य का अभ्यास करने पर मसीह-विरोधियों और कुकर्मियों द्वारा दबाया और दंडित किया भी जाता है, तो यह केवल अस्थायी होता है, और वे सभी मसीह-विरोधी और कुकर्मी उजागर कर कलीसिया से निकाल या हटा दिए जाते हैं। इतना ही नहीं, मसीह-विरोधियों और कुकर्मियों द्वारा दबाए गए लोग परमेश्वर से प्रार्थना और सत्य की खोज के जरिये असली लाभ पाते हैं। वे न केवल कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों की पहचान हासिल करते हैं, बल्कि परमेश्वर की सर्वशक्तिमान संप्रभुता की कुछ समझ और अनुभव भी प्राप्त करते हैं। ये चीजें परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव और इस बात को पूरी तरह प्रकट करती हैं, कि परमेश्वर के घर में सत्य और धार्मिकता का शासन चलता है। परमेश्वर के घर में केवल मसीह-विरोधी और बुराई करने की मंशा रखने वाले लोग ही कलीसिया द्वारा हटाए या निकाले जाते हैं। निरीक्षक की समस्या की रिपोर्ट करने के पीछे मेरा कोई गलत इरादा नहीं था, न ही मैं उसकी कमजोरियों का जानबूझकर फायदा उठाना चाहता था। वह तो कलीसिया के काम को ध्यान में रखकर किया गया था। मेरे द्वारा रिपोर्ट की गई सभी बातें निष्पक्ष तथ्य थीं, वे उसे बदनाम करने का प्रयास नहीं थीं। मेरे कार्य निरीक्षक और कलीसिया के काम की भलाई के लिए थे, नुकसान पहुंचाने के लिए नहीं। अगर वह सत्य का अनुसरण करने और उसे स्वीकार सकने वाली इंसान होती, तो रिपोर्ट किए जाने के बाद वह आत्मचिंतन कर सबक सीख सकती थी। यह स्थिति उसे उसकी कमियाँ और भ्रष्टता स्पष्ट दिखाने में फायदेमंद होती, और उसके जीवन-प्रवेश को आगे बढ़ाती। अगर वह इस वजह से मुझसे नफरत करेगी, या मुझे दबाएगी या आवेश में आकर मुझे बर्खास्त तक कर देगी, तो पूरी तरह प्रकट हो जाएगा कि वह सत्य से प्रेम या उसे स्वीकार नहीं करती, और विकसित किए जाने या किसी महत्वपूर्ण पद को संभालने के लिए अनुपयुक्त है। इस एहसास से, मेरा दिल काफी उज्ज्वल हो गया और फिर मैंने विवश महसूस नहीं किया। असली काम न करने वाले नकली अगुआओं और कार्यकर्ताओं की रिपोर्ट करना मेरी जिम्मेदारी है, जिसे मुझे निभाना चाहिए। परिणाम चाहे जो भी हों, मुझे ऐसा करने पर कभी पछतावा नहीं होगा।
उस शाम, अगुआ का एक पत्र आया, जिसमें लिखा था कि निरीक्षक बर्खास्त कर दी गई है। अगुआ की चिट्ठी पढ़ना वाकई रोमांचक था। परमेश्वर के घर में वाकई सत्य और धार्मिकता का राज चलता है। मैंने दिल की गहराई से परमेश्वर की स्तुति की और उसे धन्यवाद दिया! इस अनुभव के जरिये, मैंने न सिर्फ नकली अगुआओं और कार्यकर्ताओं की कुछ पहचान हासिल की, बल्कि यह भी जाना कि मेरी प्रकृति कितनी धोखेबाज है, और परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के बारे में भी कुछ जागरूकता प्राप्त की। यह सब परमेश्वर के अनुग्रह से हुआ! भविष्य में, मेरे सामने जो भी परिस्थिति आए, मैं परमेश्वर की इच्छा पर ध्यान देने, सत्य का अभ्यास करने, कलीसिया के कार्य की रक्षा करने, और अपनी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य निभाने के लिए तैयार हूँ। परमेश्वर का धन्यवाद!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?