अपने कर्तव्य में अपनी मंशाएँ सुधारना
मुझे पिछले जून में एक कलीसिया अगुआ के रूप में चुना गया था। उस समय, मैं रोमांचित थी और मुझे लगा कि भाई-बहन मेरे बारे में अच्छी राय रखते होंगे। इतने लोगों का मेरे लिए वोट करने का मतलब है कि मैं दूसरों से श्रेष्ठ हूँ। मैंने खुद से कहा कि मुझे इस कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने के लिए सच में कड़ी मेहनत करनी होगी, ताकि भाई-बहन यह देखें कि मैं कितनी सक्षम हूँ। जब मैंने काम करना शुरू किया, तो मुझे कलीसिया के कामकाज के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, इसलिए जिस बहन के साथ मेरी जोड़ी बनाई गई थी, उसके साथ मिलकर काम करते समय मैं हर बात को ध्यान से सुनती थी और याद रखती थी। वह बहन मुझसे ज़्यादा अच्छे से काम समझती थी। मैं लगातार यही सोचती रहती थी, "चूँकि अब मैं कलीसिया की अगुआ हूँ, इसलिए मुझे अच्छा काम करना है और कुछ करके दिखाना है, अपने पद की लाज रखनी है। मुझे ऐसे व्यक्ति की छवि नहीं बनानी है जो व्यावहारिक कार्य नहीं करता, जो रुतबे के आशीर्वाद का लालची हो। ऐसा हुआ तो मैं अपना मुँह कैसे दिखा पाऊँगी?" मैंने इस पर भी विचार किया कि मैं वास्तव में अपने कर्तव्य को अच्छे से कैसे निभाऊँ। मेरे सामने पूरी कलीसिया के भाई-बहन थे, कुछ तो ऐसे थे जो कई सालों से अपना काम कर रहे थे, वे मुझसे ज़्यादा सत्य के सिद्धांत समझते थे। अगर मैं उनकी समस्याओं को हल करने की कोशिश करते हुए उनकी समस्या के मूल को न समझ पाऊँ और अपनी संगति में अभ्यास का मार्ग साझा न कर पाऊँ, तो वे क्या सोचेंगे? क्या वे सोचेंगे कि मैं पूरी तरह से अक्षम हूँ, मैं अगुआ के कर्तव्यों के लिए उपयुक्त नहीं हूँ? मुझे लगा कि एक अगुआ के रूप में उनसे ऊँचे स्तर पर संगति करना महत्वपूर्ण है, इसलिए मुझे बिना समय गँवाए अपने आपको सत्य से युक्त करना होगा, ताकि जब भाई-बहनों को कोई समस्या आए, तो मैं उन्हें सुलझाने में उनकी मदद करने को तैयार रहूँ। तब वे देखेंगे कि मेरे अंदर थोड़ी-बहुत सत्य की वास्तविकता है, और मैं एक अगुआ के रूप में ठीक काम कर रही हूँ। इस तरह दिनभर कलीसिया के काम में व्यस्त रहने के बावजूद, अपने खाली समय में, मैं परमेश्वर के कुछ वचन पढ़ लेती थी। मेरा हर दिन का कार्यक्रम व्यस्तता से भरा रहता था। बहनें सोने से पहले मुझे याद भी दिलातीं, "बहुत देर हो गयी। थोड़ी देर सो लो," लेकिन मुझे ज़रा-भी नींद नहीं आती और मैं अक्सर देर रात तक काम करती रहती। हालाँकि मैं पूरी तैयारी करती, मगर फिर भी मुझे भाई-बहनों के साथ सभाओं में आत्मविश्वास की कमी महसूस होती।
एक शाम, जिस बहन के साथ मैं काम करती थी, उसने मुझसे कहा कि अगले दिन हमें सुसमाचार टीम के लिए एक सभा आयोजित करनी है। इससे मैं बहुत घबरा गयी। मैंने सोचा, "उस टीम के भाई-बहन काफी समय से विश्वासी हैं और मैं अगुआई के काम में नयी हूँ। मुझे नहीं पता कि उन्हें सुसमाचार के काम में किस तरह की समस्याओं और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। यदि उन्होंने कोई ऐसे मुद्दे उठा दिए, जिनका उत्तर मेरे पास न हुआ, तो क्या वे यह नहीं सोचेंगे कि मैं अपने काम में कुशल नहीं हूँ? क्या इससे एक अगुआ के रूप में मेरी छवि खराब नहीं हो जाएगी? यह ठीक नहीं रहेगा, कुछ नहीं से तो अंतिम समय की तैयारी बेहतर है, इस दौरान मुझे अपने आपको थोड़े-बहुत संबद्ध सत्यों से युक्त कर लेना चाहिए।" लेकिन, इतने कम समय में हर चीज़ की तैयारी न कर पाने के कारण मैं बेचैन थी। मैं अपना कंप्यूटर खंगालती रही, एक पल एक चीज़ देखती, तो दूसरे पल दूसरी। मेरे दिमाग में सब-कुछ गड्ड-मड्ड हो गया और मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था—सो जाने के अलावा कोई चारा न था। अगले दिन सभा में मैंने अपनी सहकर्मी बहन को उन सभी के साथ सत्य पर संगति करते देखा। वह सुसमाचार साझा करते समय भाई-बहनों के सामने आने वाली समस्याओं को सुलझाने में उनकी मदद कर रही थी। जिससे उन्हें उन समस्याओं को सुलझाने में मदद मिली, जिनका सामना वे सुसमाचार साझा करते समय करते थे, जबकि मैं वहाँ चुपचाप बैठी थी, मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या बोलूँ। मुझे वाकई अजीब-सा लगा। मैंने सोचा, "अगर मैं कुछ नहीं बोली, तो क्या उन्हें यह नहीं लगेगा कि मैं तो अगुआ के रूप में बस सजावट की चीज़ हूँ? मुझे बोलना चाहिए। इनमें से कुछ बहनें तो मुझे पहले से ही जानती हैं, और अब जबकि मैं अगुआ हूँ, तो क्या मुझे गहन संगति साझा करने में सक्षम नहीं होना चाहिए? वरना वे मेरे बारे में क्या सोचेंगी? क्या वे मुझे निकम्मा नहीं समझेंगी?" मैं अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाने लगी ताकि अपने कुछ अनुभव याद करके उनके साथ साझा कर सकूँ, लेकिन मैं जितना घबरा रही थी, मन में उतनी ही अधिक उथल-पुथल हो रही थी। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या बोलूँ। मैं अपनी सहकर्मी की संगति ध्यान से सुनने लगी ताकि कोई यह न देख पाए कि मेरे पास संगति करने को कुछ नहीं है, और जैसे ही उसने अपनी बात समाप्त की, मैं उछल कर खड़ी हो गयी और उसने जो कुछ कहा था, उसे मैंने संक्षेप में प्रस्तुत कर दिया। इससे उन्हें यह लगेगा कि मेरी संगति और समझ उससे बेहतर है, और सभी को यह लगेगा कि मैं अच्छा काम कर रही हूँ और अगुआ होने का दायित्व अच्छे से निभा रही हूँ। मुझे अच्छी तरह पता था कि मैं जो कुछ भी कह रही हूँ, वह सब मेरी सहकर्मी की समझ है और मैं उसी बात को घुमा-फिराकर अपने ढंग से कह रही हूँ। मैं जानती थी कि यह काम करने का बहुत ही तुच्छ तरीका है। सभा की समाप्ति के बाद मुझे अपने दिल में एक खालीपन का एहसास हुआ; मैं यह भी जानती थी कि सभी लोग, घटनाएँ और चीज़ें जिनका मैं हर दिन सामना करती हूँ, परमेश्वर द्वारा ही आयोजित की जाती हैं, लेकिन मुझे यह नहीं पता था कि उन्हें कैसे अनुभव करना है। मैंने कुछ नहीं सीखा था। इस विचार के आते ही मुझे बुरा लगने लगा, यहाँ तक कि मुझे उस कर्तव्य का भार लेने के कारण पछतावा भी हुआ। अगले कुछ दिनों तक, मुझे ऐसा लगता रहा जैसे मेरे सिर पर कोई भारी बोझ हो—एक कोहरा-सा महसूस हुआ, जैसे मैं पूरा साँस नहीं ले पा रही हूँ। कलीसिया के काम में समस्याओं का सामना करना और यह भी नहीं पता होना कि कहाँ से शुरू करना है, यह मेरे लिए वाकई काफी पीड़ादायी था। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मैं इस कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाना चाहती हूँ, लेकिन मुझे हमेशा ऐसा लगता है जैसे मैं इस कार्य के लिए तैयार नहीं हूँ। मुझे समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूँ। मेरा मार्गदर्शन कर ताकि मैं स्वयं को जान सकूँ और इस स्थिति से निकल सकूँ।"
उसके बाद, मैंने अपनी सहकर्मी से खुलकर बात की और उसे अपनी स्थिति के बारे में बताया। उसने मुझे पढ़ने के लिए परमेश्वर के वचनों का एक अंश दिया, जिसे "अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने के लिए होना ही चाहिए अभ्यास का सुनिश्चित मार्ग" से लिया गया था। इसमें कहा गया है : "सभी भ्रष्ट मनुष्यों में यह समस्या देखी जाती है : जब वे बिना किसी ओहदे के साधारण भाई-बहन होते हैं, तो वे किसी के साथ परस्पर संपर्क के समय या बातचीत करते समय शेखी नहीं बघारते, न ही वे अपनी बोल-चाल में किसी निश्चित शैली या लहजे को अपनाते हैं; वे बस साधारण और सामान्य होते हैं, और उन्हें खुद को आकर्षक ढंग से पेश करने की आवश्यकता नहीं होती है। वे किसी मनोवैज्ञानिक दबाव को महसूस नहीं करते, और वे खुलकर, दिल से सहभागिता कर सकते हैं। वे सुलभ होते हैं और उनके साथ बातचीत करना आसान होता है; दूसरों को यह महसूस होता है कि वे बहुत अच्छे लोग हैं। लेकिन जैसे ही उन्हें कोई रुतबा प्राप्त होता है, वे ऊँचे और शक्तिशाली बन जाते हैं, मानो उन तक कोई नहीं पहुँच सकता; उन्हें लगता है कि वे इज्ज़तदार हैं, और आम लोग तो किसी और ही मिट्टी के बने हुए हैं। वे आम इंसान को नीची नज़रों से देखते हैं और उनके साथ खुलकर सहभागिता करना बंद कर देते हैं। वे अब खुले तौर पर सहभागिता क्यों नहीं करते हैं? उन्हें लगता है कि अब उनके पास ओहदा है, और वे अगुआ हैं। उन्हें लगता है कि अगुआओं की एक निश्चित छवि होनी चाहिए, उन्हें आम लोगों की तुलना में थोड़ा ऊँचा होना चाहिए, उनका क़द बड़ा और उन्हें अधिक जिम्मेदारी संभालने के योग्य होना चाहिए; उनका यह मानना होता है कि आम लोगों की तुलना में, अगुआओं में अधिक धैर्य होना चाहिए, उन्हें अधिक कष्ट उठाने और खपने में समर्थ होना चाहिए, और किसी भी प्रलोभन का सामना करने में सक्षम होना चाहिए। वे सोचते हैं कि अगुआ रो नहीं सकते, भले ही उनके परिवार के सदस्यों में से कितनों की भी मृत्यु हो जाए, और अगर उन्हें रोना ही है, तो उन्हें अपने बिस्तर में मुँह छुपाकर रोना चाहिए, ताकि किसी को भी उनमें कोई कमी, दोष या कमज़ोरी न देख सके। उन्हें यहाँ तक लगता है कि अगुआ किसी को यह जानने नहीं दे सकते कि वे नकारात्मक हो गए हैं; इसके बजाय, उन्हें ऐसी सभी बातों को छिपाना चाहिए। उनका मानना है कि ओहदे वाले वाले व्यक्ति को ऐसा ही करना चाहिए" (अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख)। इसे पढ़ना मेरे लिए बहुत बड़ा झटका था—परमेश्वर के वचनों ने मेरी सही स्थिति उजागर कर दी थी! मुझे हर सभा में इतना डर क्यों लगता था? मुझे इतना तनाव क्यों महसूस होता था? ऐसा इसलिए होता था क्योंकि मैं खुद को ऊँचा उठाने की कोशिश कर रही थी। अगुआ बनने के बाद से ही, मुझे लग रहा था कि मेरे पास एक पद और रुतबा है, इसलिए मैं पहले से अलग हूँ। अब एक अगुआ के रूप में, मुझे लगा कि मुझे अगुआ की छवि को बनाए रखना है, मुझे दूसरों से ऊँचे स्तर पर होना चाहिए और उनसे अधिक सक्षम होना चाहिए। मेरी संगति में अधिक अंतर्दृष्टि होनी चाहिए, मुझे समस्याओं के सार को बेहतर ढंग से देखना चाहिए, और भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश में आने वाली किसी भी समस्या को सुलझाने में सक्षम होना चाहिए। मुझे लगता था कि मैं चाहे जिस टीम के साथ रहूँ, मुझे सभाओं में भीड़ से अलग दिखना चाहिए, उस पद के योग्य होने का एकमात्र यही तरीका है। इसलिए, उस आदेश को स्वीकारने के बाद से, मैं हर काम में अपनी स्थिति को बनाए रखने के लिए ही बोल रही थी और कार्य कर रही थी। दरअसल, हर पहलू से मेरे अंदर कमी थी, लेकिन मैं खुद को छिपाए रखना चाहती थी, ऊँचा होने का नाटक करती थी, बल्कि कपटपूर्ण व्यवहार में लिप्त रहती थी, मैं अपनी सहकर्मी की संगति के यश को छीनने का प्रयास कर रही थी ताकि लोग मेरा सम्मान करें। मैं दिन-रात इसी में लगी रहती थी कि कैसे अपनी स्थिति को बनाए रखूँ, न कि इसमें कि कैसे अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाऊँ, कैसे अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करूँ। मैंने वास्तविक और उचित कार्य पर ज़रा-सा भी ध्यान नहीं दिया था। यह सत्य का अनुसरण करना और अपने कर्तव्य का निर्वहन करना कैसे हुआ? यह तो रुतबे के पीछे भागना और उसके कब्जे में होना है—यह रुतबे का दास होना था। भले ही मुझे अगुआ के रूप में चुन लिया गया था, लेकिन मेरा आध्यात्मिक कद तुरंत ही नहीं बढ़ गया था या मेरे अंदर सत्य की वास्तविकता नहीं आ गयी थी, बल्कि मैं अभी भी वही व्यक्ति थी। अंतर केवल मेरे कर्तव्य में आया था। परमेश्वर चाहता था कि मैं एक अगुआ के रूप में अपने कर्तव्य के माध्यम से और अधिक प्रशिक्षण प्राप्त करूँ, समस्याओं का समाधान करने और व्यावहारिक कार्य करने के लिए सत्य की खोज करूँ। यह मुझे रुतबा देने के लिए बिल्कुल भी नहीं था। लेकिन, मैंने खुद को एक अगुआ के रुतबे जितना ऊँचा कर लिया था, यहाँ तक कि गलत ढंग से यह भी सोचती रही कि एक अगुआ होना किसी सरकारी अधिकारी होने जैसा है, अगुआ होने का मतलब रुतबा होना है। क्या यह एक अविश्वासी का दृष्टिकोण नहीं है? यह बेतुका था!
इन सब बातों का एहसास होने पर, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : "परमेश्वर, मैं इस बात के लिए तेरा धन्यवाद करती हूँ कि तूने मुझे प्रबुद्ध किया और मेरा मार्गदर्शन किया, जिससे मैंने यह समझा कि मेरी गलत स्थिति के पीछे का कारण मेरा रुतबे के पीछे भागना था। मैं गलत रास्ते पर थी। परमेश्वर, मैं अपनी इस स्थिति को सुधारने के लिए प्रायश्चित करने और सत्य की खोज करने को तैयार हूँ। मेरा मार्गदर्शन कर।" उसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिसमें सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है, "लोग स्वयं सृष्टि की वस्तु हैं। क्या सृष्टि की वस्तुएँ सर्वशक्तिमान हो सकती हैं? क्या वे पूर्णता और निष्कलंकता हासिल कर सकती हैं? क्या वे हर चीज़ में दक्षता हासिल कर सकती हैं, हर चीज़ को समझ सकती हैं, और हर चीज़ को पूरा कर सकती हैं? वे ऐसा नहीं कर सकतीं। हालांकि, मनुष्यों में एक कमजोरी है। जैसे ही लोग किसी कौशल या पेशे को सीख लेते हैं, वे यह महसूस करने लगते हैं कि वे सक्षम हो गये हैं, वे रुतबे और हैसियत वाले लोग हैं, और वे पेशेवर हैं। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वे खुद को कितना 'सक्षम' समझते हैं, वे सभी अपने तुमको एक आकर्षक रूप में पेश करना चाहते हैं, अपने तुमको बड़े व्यक्तित्वों के छद्म वेश में छिपा लेते हैं, दिखने में पूर्ण और निष्कलंक लगते हैं, जिसमें एक भी दोष नहीं है; दूसरों की नज़रों में, वे महान, शक्तिशाली, पूरी तरह से सक्षम, और कुछ भी कर सकने वाला समझा जाना चाहते हैं। ... वे आम आदमी होना, सामान्य व्यक्ति होना, या केवल नश्वर जीव बनना नहीं चाहते। वे बस अतिमानव, या विशेष क्षमताओं या शक्तियों वाला व्यक्ति बनना चाहते हैं। यह बहुत बड़ी समस्या है! जहाँ तक कमजोरी, कमी, अज्ञानता, मूर्खता या सामान्य मानवता की समझ की कमी होने की बात है, वे इन्हें छिपा लेते हैं, ढक लेते हैं, दूसरे लोगों को उन्हें देखने नहीं देते, और फिर खुद को छद्म वेश में छिपाए रहते हैं। ... वे नहीं जानते कि वे स्वयं क्या हैं, न ही वे सामान्य मानवता को जीने का तरीका जानते हैं। उन्होंने एक बार भी व्यावहारिक मनुष्यों की तरह काम नहीं किया है। अपने व्यवहार में, अगर लोग इस तरह का मार्ग चुनते हैं—अपने पैर जमीन पर रखने के बजाय हमेशा अपना सिर आसमान में रखते हैं, हमेशा उड़ना चाहते हैं—तो फिर उनके सामने समस्याएँ आना निश्चित है। सच तो यह है कि अगर तुम ऐसा करते हो, तो फिर चाहे तुम जैसे भी परमेश्वर में विश्वास करते हो, तुम सत्य को नहीं समझोगे, न ही तुम सत्य को हासिल करने में सक्षम होगे, क्योंकि तुम्हारा प्रारंभिक बिंदु ही गलत है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपनी आस्था में सही पथ पर होने के लिए आवश्यक पाँच अवस्थाएँ')। इन्हें पढ़ना ऐसा था जैसे मैं परमेश्वर के रूबरू हूँ और वह मेरा न्याय कर रहा है। यह सचमुच पीड़ादायी और मुझे बेचैन कर देने वाला था, विशेषकर यह पढ़ना "अगर तुम ऐसा करते हो, तो फिर चाहे तुम जैसे भी परमेश्वर में विश्वास करते हो, तुम सत्य को नहीं समझोगे, न ही तुम सत्य को हासिल करने में सक्षम होगे, क्योंकि तुम्हारा प्रारंभिक बिंदु ही गलत है।" मुझे एहसास हुआ कि किसी व्यक्ति के कर्तव्य में, उसकी मंशा और उसके द्वारा अपनाया गया मार्ग कितने महत्वपूर्ण होते हैं, यही सीधे तौर पर निर्धारित करते हैं कि वह सत्य हासिल कर सकता है या नहीं। यदि हम अपने कर्तव्य में सत्य का पालन नहीं करते हैं, यदि हम परमेश्वर की इच्छा पर विचार नहीं करते हैं, बल्कि अपने रुतबे को बनाए रखते हैं, तो हम कितनी ही मेहनत क्यों न कर लें, हम कितने कष्ट क्यों न झेल लें और कोई भी कीमत क्यों न अदा करें—हम कभी भी परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त नहीं कर सकते, बल्कि हम परमेश्वर द्वारा अस्वीकृत और निंदित किए जाएँगे। परमेश्वर पवित्र है, वह हमारे दिलो-दिमाग की गहराई में झाँक सकता है। जब से मैं अगुआ बनी थी, मैं केवल लोगों के मन में अपनी छवि और रुतबे को लेकर ही विचार करती रहती थी। अपने अगुआ-पद को बचाए रखने के लिए, मैं हमेशा अपने दोषों और कमियों को छिपाए रहती थी, ताकि लोग मेरा सम्मान और मेरी सराहना करें। मेरे मन में परमेश्वर का आदेश नहीं था—मैं तो रुतबे के पीछे भाग रही थी, परमेश्वर के विरोध की राह पर चल रही थी। ऐसा करके मैं पवित्र आत्मा का कार्य कैसे प्राप्त कर सकती थी? उस समय मेरा अंधकारपूर्ण स्थिति में चले जाना, मुझ पर परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का आना था। अगर मैं अब भी प्रायश्चित न करती, तो निश्चित रूप से परमेश्वर मुझसे घृणा करता। मुझे उन मसीह-विरोधियों का ख्याल आया जिन्हें परमेश्वर के घर से निकाल दिया गया था। उनके पास रुतबा था, उन्हें हमेशा यही लगता था कि वे दूसरों जैसे नहीं हैं; वे रुतबे के लालची हो गए, वे अपने आप को ऊंचा उठाने लगे, दिखावा करने लगे, परमेश्वर के लोगों को खींच-खींचकर उससे दूर करने के लिए संघर्ष करने लगे। वे दुष्टता और परमेश्वर का विरोध करते थे। आखिरकार, उनका अंत यह हुआ कि उन्हें बहिष्कृत करके हटा दिया गया। इन चीज़ों का एहसास होने पर, मैंने विचार किया कि अगुआई का पद संभालने के समय से ही मैं किस तरह अपने रुतबे के कब्जे में हूँ। मैं कर्तव्यों को अलग-अलग वर्गों में देख रही हूँ, खुद को एक उपाधि देकर स्वयं को ऊपर उठा रही हूँ। मैंने सोचा था कि मुझे रुतबा मिल गया है, मैं लोगों की समस्याओं को सुलझाकर दिखावा करना चाहती थी ताकि वे मेरा सम्मान करें। मैं निर्लज्ज थी! यह सोचकर शर्मिंदगी से मेरा चेहरा जलने लगा; मुझे तुच्छ होने का एहसास हुआ, और यह महसूस हुआ कि इस तरह लोगों की नज़रों में अपने रुतबे को बचाना निश्चित रूप से रुतबे के लिए परमेश्वर से होड़ लगाना है। यह तो मसीह-विरोधी का मार्ग है। तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि मैं कितनी खतरनाक स्थिति में फँस गयी हूँ, और अगर मैंने पश्चाताप नहीं किया, तो मुझे अंततः किसी मसीह-विरोधी की तरह ही दंडित किया जाएगा।
बाद में खोज और आत्म-चिंतन करते हुए मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "जब तुम्हारे पास कोई ओहदा नहीं होता है, तो तुम अक्सर स्वयं का विश्लेषण कर सकते हो और स्वयं को जान सकते हो। दूसरे इससे लाभान्वित हो सकते हैं। जब तुम्हारे पास ओहदा हो, तो तुम फिर भी अक्सर स्वयं का विश्लेषण कर सकते हो और स्वयं को जान सकते हो, दूसरों को सत्य की वास्तविकता को समझने और तुम्हारे अनुभवों से परमेश्वर की इच्छा को समझने का अवसर दे सकते हो। लोग इससे भी लाभान्वित हो सकते हैं, क्या वे नहीं हो सकते? यदि तुम इसका अभ्यास करते हो, तो चाहे तुम्हारे पास ओहदा हो या न हो, दूसरों को इससे लाभ होगा ही। तो, ओहदे का तुम्हारे लिए क्या अर्थ है? यह वास्तव में, एक अधिक, अतिरिक्त चीज़ है, जैसे कपड़े का कोई टुकड़ा या टोपी; जब तक तुम इसे कोई बहुत बड़ी बात नहीं मानते, यह तुम्हें बाधित नहीं कर सकता। यदि तुम ओहदे का मोह रखते हो और इस पर विशेष ज़ोर देते हो, हमेशा इसे एक महत्व का मुद्दा मानते हो, तो यह तुम्हें अपने नियंत्रण में ले लेगा; उसके बाद, तुम अब स्वयं को जानना नहीं चाहोगे, और न ही तुम अपने आप को खुलकर प्रकट करने के लिए, या अपनी नेतृत्व की भूमिका को किनारे रखकर दूसरों के साथ बातचीत करने और अपना कर्तव्य निभाने के लिए, तैयार होगे। यह किस तरह की समस्या है? क्या तुमने स्वयं के लिए यह दर्जा नहीं अपना लिया है? और क्या तुम तब, बस उसी पद पर कब्ज़ा करना जारी नहीं रखते और इसे छोड़ देने के लिए अनिच्छुक नहीं होते हो, और यहाँ तक कि दूसरों के साथ अपने ओहदे की रक्षा करने के लिए स्पर्धा भी नहीं करते हो? क्या तुम सिर्फ खुद को सता नहीं रहे हो? यदि तुम खुद को हद से ज़्यादा सताते हो, तो तुम किसे दोष दोगे? जब तुम्हारे पास ओहदा हो, तब अगर तुम दूसरों पर रौब जमाने से इन्कार कर देते हो, बजाय इसके यदि तुम अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से करने पर ध्यान केंद्रित करते हो, जो कुछ भी करना चाहिए उसे करते हो और अपने सभी कर्तव्यों को पूरा करते हो, और यदि तुम स्वयं को एक साधारण भाई या बहन के रूप में देखते हो, तब क्या तुमने ओहदे के बंधन से मुक्ति प्राप्त न कर ली होगी?"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने के लिए होना ही चाहिए अभ्यास का सुनिश्चित मार्ग')। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास करने और प्रवेश करने का मार्ग प्रदान किया। मेरा कोई रुतबा हो या न हो, मुझे अपना कर्तव्य ठीक से निभाना है, जो कुछ भी मैं समझती हूँ, उस पर मुझे संगति करनी है, और अगर ऐसी कोई समस्या आती है, जिसे मैं न समझ पाऊँ, तो उसे मिलकर दूर करने के लिए मुझे भाई-बहनों के साथ खुलकर संगति करनी चाहिए। मेरा कर्तव्य दूसरों से अलग था, लेकिन कोई किसी से छोटा-बड़ा नहीं था। मेरे अगुआ के रूप में सेवा करने का अर्थ यह बिल्कुल नहीं था कि मैं उनसे बेहतर थी या उनसे अधिक सक्षम थी। लेकिन मैं मूर्खों की तरह पेश आई, मेरे अंदर ज़रा-सी भी आत्म-जागरूकता नहीं थी। मेरे अंदर सभी प्रकार की कमियाँ भी थीं और मुझे भाई-बहनों की मदद की ज़रूरत थी, लेकिन उस स्थिति में भी मुझे लगता था कि मुझे उनसे बेहतर होना चाहिए। यह मेरा कितना बड़ा अहंकार और अज्ञान था! मुझे ऐसा लगा जैसे मेरा अपने आपको लज्जाजनक ढंग से ऊँचाई पर रखना हास्यास्पद है। इस स्थिति के माध्यम से मुझे उजागर करने के लिए मैंने दिल से परमेश्वर का धन्यवाद किया, जिसने मुझे यह बताया कि मैं गलत मार्ग पर जा रही हूँ। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर, मुझे उजागर करने के लिए तेरा धन्यवाद, जिससे मैं देख पायी कि मैं रुतबे से कितनी चिपक गयी थी और तेरा विरोध करने के मार्ग पर चल रही थी। मैं गलत मार्ग पर चलते रहना नहीं चाहती। मैं पश्चाताप करना चाहती हूँ, रुतबे के विचार को मन से निकाल देना चाहती हूँ, अपने कर्तव्य के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलना चाहती हूँ और सत्य के सिद्धांतों के अनुसार अपने कर्तव्य का निर्वहन करना चाहती हूँ।"
एक बार मैं एक समूह की सभा में गयी, जहाँ तीन ऐसे भाई-बहन थे जो मुझसे ज़्यादा समय से अपने कर्तव्य का निर्वहन करते रहे थे, उनमें से कुछ तो पहले अगुआ भी रह चुके थे। वे मेरे साथ सत्य पर संगति साझा कर चुके थे और समस्याएँ सुलझा चुके थे, इसलिए मैंने सभा में खुद को बँधा हुआ महसूस किया। मुझे लगा अगर मेरी संगति बहुत अच्छी नहीं रही और मैं उनकी समस्याएँ दूर नहीं कर पायी, तो उन्हें लगेगा कि मेरे अंदर सत्य की वास्तविकता का पूरी तरह से अभाव है और मैं अगुआ के लिए उपयुक्त नहीं हूँ। मैं उनसे यह नहीं पूछ पायी कि उनकी स्थिति क्या है, मुझे डर था कि वे ऐसा कुछ न कह दें जिससे मैं निपट न सकूँ। उस समय मुझे एहसास हुआ कि मैं अपने आपको और अपने रुतबे को फिर से बचाने की कोशिश कर रही हूँ, और इसलिए मैंने स्वयं का त्याग कर पाने के लिए प्रार्थना की। तब परमेश्वर के ये वचन दिमाग में आए : "जब तुम्हारे पास ओहदा हो, तब अगर तुम दूसरों पर रौब जमाने से इन्कार कर देते हो, बजाय इसके यदि तुम अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से करने पर ध्यान केंद्रित करते हो, जो कुछ भी करना चाहिए उसे करते हो और अपने सभी कर्तव्यों को पूरा करते हो, और यदि तुम स्वयं को एक साधारण भाई या बहन के रूप में देखते हो, तब क्या तुमने ओहदे के बंधन से मुक्ति प्राप्त न कर ली होगी?"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने के लिए होना ही चाहिए अभ्यास का सुनिश्चित मार्ग')। मुझे पता था कि मुझे अपने अभ्यास को परमेश्वर की आवश्यकताओं के अनुरूप बनाना होगा, भले ही मेरी समझ उथली हो, लेकिन मैं परमेश्वर को समर्पित होने और अपनी क्षमता के अनुसार अपना कर्तव्य निभाने को तैयार थी। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन में, मुझे बड़ी राहत मिली और मैंने यह परवाह करनी छोड़ दी कि लोग मेरे बारे में क्या सोचते हैं। मैंने अपनी समझ के अनुसार संगति साझा करने का फैसला कर लिया। मेरी बातें सुनकर, भाई-बहनों ने मुझे हिकारत की नजर से नहीं देखा, बल्कि उन्होंने कहा कि उन्होंने मेरी संगति से कुछ हासिल किया है।
सभा में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जो "व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत" में दर्ज है। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "व्यक्ति चाहे जो भी कर्तव्य करे, परमेश्वर को संतुष्ट करने और उसका अनुमोदन प्राप्त करने के लिए परिणाम प्राप्त करना और अपना कर्तव्य उपयुक्त रूप से निभाना परमेश्वर के कार्यों पर निर्भर करता है। अगर तुम अपनी जिम्मेदारियाँ निभाते हो, अगर तुम अपना कर्तव्य करते हो, किंतु परमेश्वर कार्य नहीं करता और तुम्हें यह नहीं बताता कि तुम्हें क्या करना है, तो तुम अपना मार्ग, अपनी दिशा या अपने लक्ष्य नहीं जान पाओगे। अंतत: इसका क्या परिणाम होता है? यह निष्फल श्रम होगा। इस प्रकार, अपना कर्तव्य उपयुक्त रूप से करना और परमेश्वर के घर के भीतर मजबूती से खड़े रह पाना, भाइयों और बहनों को सुशिक्षा उपलब्ध कराना और परमेश्वर का अनुमोदन प्राप्त करना पूरी तरह से परमेश्वर पर निर्भर करता है! लोग केवल वही चीजें कर सकते हैं, जिन्हें करने में वे व्यक्तिगत रूप से सक्षम होते हैं, जिन्हें उन्हें करना चाहिए और जो उनकी अंतर्निहित क्षमताओं के भीतर होती हैं—इससे ज्यादा कुछ नहीं। इसलिए, अंतत: तुम्हारे कर्तव्य से प्राप्त होने वाले परिणाम परमेश्वर के मार्गदर्शन से निर्धारित होते हैं; वे परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए मार्ग, लक्ष्यों, दिशा और सिद्धांतों द्वारा निर्धारित होते हैं" (अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख)। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मेरा दिल रोशन हो गया। मैंने देखा कि परमेश्वर के घर का काम वास्तव में परमेश्वर द्वारा ही किया और कायम रखा जाता है, और इंसान के रूप में, हम यथासंभव अपना कर्तव्य निभाते हैं। लेकिन पवित्र आत्मा के कार्य के बिना, परमेश्वर के प्रबोधन और मार्गदर्शन के बिना, हम अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं कर पाएँगे, फिर चाहे हम कितनी भी मेहनत क्यों न करें। हमें अपने कर्तव्य में, यह समझना होगा कि परमेश्वर की क्या अपेक्षाएँ हैं, उसके लिए हमें अपने दिल में बोझ धारण करना होगा, सभी चीज़ों में सत्य की खोज और अभ्यास करना होगा और सिद्धांतों के अनुसार काम करना होगा। पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त करने और परमेश्वर की स्वीकृति पाने का यही एकमात्र तरीका है। एक अगुआ के रूप में मेरा एकमात्र कर्तव्य भाई-बहनों के काम में आने वाली परेशानियों को और उनके जीवन-प्रवेश की कठिनाइयों को दूर करने के लिए सत्य पर संगति करना था। हालांकि कई बार मैं उनकी समस्या को उसी समय दूर नहीं कर पायी, लेकिन मैं उसे लिख लिया करती और फिर बाद में उसे दूर करने के लिए अधिक खोज करती थी। और इस तरह, मैं बहुत स्वाभाविक रूप से उनसे पूछ लेती थी कि उनकी स्थिति कैसी चल रही है और उन्हें अपने काम में क्या कठिनाइयाँ आ रही हैं। जब वे अपने काम को लेकर संगति साझा करते थे, तो मैं परमेश्वर के सामने अपने दिल को शांत रखकर, उस पर चिंतन-मनन करती थी। इस तरह मैं उनकी कमियों और दोषों का पता लगा लेती थी और उनकी समस्याओं को दूर करने और प्रवेश करने की खातिर मार्ग खोजने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग करती थी। मैं जानती थी कि यह पूरी तरह से परमेश्वर का मार्गदर्शन है। मैं रोमांचित थी, मुझे इस बात का अनुभव हुआ कि रुतबे से मुक्त होना कितनी स्वतंत्रता देता है। उस अनुभव ने मुझे व्यक्तिगत रूप से इस बात का एहसास कराया कि अपने कर्तव्य में अपना दृष्टिकोण सुधारने, परमेश्वर द्वारा आदेशित कार्य को करने में मन लगाने, अपने कर्तव्य का निर्वहन अच्छी तरह से करने और सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त करने के लिए आत्मचिंतन और खोज करने से, अनजाने में ही, मैं रुतबे के बंधनों और बाध्यताओं से मुक्त हो गयी थी। मैं अगुआई भी कर सकती थी और परमेश्वर का आशीर्वाद भी प्राप्त कर सकती थी!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?