रास्ता भूल जाने के बाद आत्मचिंतन
अगस्त 2019 में एक दिन, अगुआ ने एक पत्र भेजकर मुझसे कहा कि बाहर गाँव की एक बहन को जाकर ले आऊँ। मैंने देखा बहन के घर का पता पड़ोसी कलीसिया के इलाके का था। सोचा, "उसका तबादला हमारी कलीसिया में क्यों किया जा रहा है? पास वाली कलीसिया में क्यों नहीं?" मगर दोबारा सोचने पर लगा, हमारी कलीसिया को तरह-तरह के कामों के लिए ज्यादा लोगों की जरूरत थी, तो मैंने उसे लाकर देखने का फैसला किया। उसका कर्तव्य चाहे जो भी रहा हो, हमें अतिरिक्त मदद मिल सकती थी। फिर मैंने देखा कि पत्र में बहन का नाम झू युन लिखा था, मुझे एकाएक याद आया, "कुछ साल पहले मैं झू युन से मिली थी। वह करीब चालीस साल की है और चीजें ठीक से समझ लेती है। अगर यह वही है, तो हमारी कलीसिया में अगुआ या कार्यकर्ता भी बन सकती है। इससे मुझे एक अतिरिक्त सहायिका मिल जाएगी।" इस विचार से मैं बहुत खुश हो गई। अब मुझे कोई परवाह नहीं थी कि वह बहुत दूर रहती है, मैं बस उसे फौरन कलीसिया में ले आना चाहती थी!
मैंने पत्र में दिए पते का इस्तेमाल कर बहन झू युन का घर ढूंढ़ा, और दरवाजे पर दस्तक दी, मगर दरवाजा खोलने वाली महिला बहुत बूढ़ी थी। वह मेरी यादों वाली झू युन नहीं थी। मैंने जल्दी से कहा, "माफ कीजिए, मैंने गलत दरवाजे पर दस्तक दे दी!" मैं जाने के लिए मुड़ी, लेकिन उसने मेरे पीछे आकर उत्सुकता से पूछा, "आप किसे ढूँढ़ रही हैं?" मैंने कहा, मैं झू युन को ढूँढ़ रही थी। उसने तुरंत कहा, "मैं ही हूँ।" मैं उसके पीछे-पीछे घर में चली गई। हमारी बातचीत में मुझे पता चला कि सीसीपी द्वारा गिरफ्तार होकर वह तीन साल से ज्यादा जेल काट चुकी थी। रिहा होने के बाद भी पुलिस उसकी निगरानी करती थी, इसलिए वह अपने गाँव में सभाओं में भाग नहीं ले सकती थी। कलीसिया जीवन फिर से शुरू करने के लिए उसके पास अपने बेटे के घर आने के सिवाय कोई विकल्प नहीं था। उसकी हालत के बारे में जानकर, मैं सच में निराश हो गई। सोचा, "अगर यही मेरी पहचान की झू युन होती, तो इसके कलीसिया में शामिल होने से, मुझे एक बढ़िया सहायिका मिल जाती। इस झू युन का गिरफ्तार होने का रेकॉर्ड है, पुलिस अभी भी इसकी निगरानी करती है। यानी यह कलीसिया में कोई भी काम नहीं कर सकेगी। हमारी कलीसिया में वैसे ही कार्यकर्ता कम हैं, और अब किसी को उसके साथ अकेले बैठना होगा। अगर उसके संपर्क में आए भाई-बहनों को भी पुलिस ने निशाना बनाया, तो बहुत भयानक नुकसान होगा! नहीं, मैं उसे हमारी कलीसिया में नहीं आने दे सकती। वापस जाने के बाद, मैं अगुआ को पत्र लिखकर कहूँगी कि पास वाली कलीसिया में उसका तबादला कर दें।" उसकी हालत के बारे में जानने के बाद, मैं जाने के लिए उठ गई। मैंने उससे उसकी समस्याओं या मुश्किलों के बारे में नहीं पूछा। उसने मुझसे तुरंत पूछा, "आप वापस कब आ रही हैं?" मैंने यूँ ही कह दिया, "इंतजार कीजिए। वहाँ चर्चा करने के बाद मैं आपको बताऊँगी।"
वापस लौटते समय, चलते-चलते मैंने खुद को उलाहना दी, "अगुआ नहीं जानतीं, वे क्या कर रही हैं। झू युन पड़ोसी कलीसिया के बहुत पास रहती है। उस कलीसिया से कोई जाकर उसे वहाँ क्यों नहीं ले गई? हमारे लिए तो यह बहुत दूर है। आगे से, उससे मिलने जाने के लिए हमें बहुत समय बरबाद करना पड़ेगा...।" मैं उत्तर दिशा में चलते हुए मन-ही-मन भुनभुनाई, चलते हुए महसूस किया कि मैं रास्ता भूल गई थी। रास्ता पूछने पर पता चला कि मैं उल्टी दिशा में शहर से बाहर निकल गई थी। मुझे भी अचरज हुआ था, "मैं पहले इस रास्ते पर चल चुकी हूँ। मैं रास्ता कैसे भूल गई?" तब, मैंने इस बात को ज्यादा तूल नहीं दी। घर पहुँचकर, मैंने पत्र लिखकर अगुआ को सुझाया कि झू युन का तबादला पास की कलीसिया में कर दें।
पत्र भेजने के कुछ दिनों बाद तक मैं बेचैन रही, मानो कुछ तो गलत हुआ था। परमेश्वर के वचन पढ़कर भी मैं मन को शांत नहीं कर पाई, न ही उपदेशों या संगति पर ध्यान दे पाई। मुझे एहसास हुआ कि मैंने शायद ऐसा कुछ किया था, जो परमेश्वर की इच्छा के विरुद्ध था, मैंने तुरंत प्रार्थना कर परमेश्वर को पुकारा, मुझे प्रबुद्ध करने और खुद को जानने में मेरा मार्गदर्शन करने की विनती की। प्रार्थना के बाद, एकाएक मुझे उस दिन रास्ता भूल जाने की बात याद आ गई। मुझे एहसास हुआ कि झू युन को कलीसिया में लाने की बात पर, मैंने बस निजी हितों की परवाह की। अपने लिए ठीक होने पर मैं यह काम कर देती, पर ठीक न होने पर, मैंने प्रतिरोध किया, इनकार किया और शिकायत की। मैंने उस बहन के जीवन की जरा भी परवाह नहीं की। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद ही, मैं अपनी समस्या की थोड़ी समझ हासिल कर पाई। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "व्यक्ति के हितों से संबंधित मामले उसे सबसे ज्यादा प्रकट करते हैं। हित प्रत्येक व्यक्ति के जीवन से घनिष्ठ रूप से जुड़े होते हैं, और व्यक्ति रोजाना जिस भी चीज के संपर्क में आता है, वह उसके हित से जुड़ा होता है। उदाहरण के लिए, जब तुम कुछ कहते हो या किसी मामले के बारे में बात करते हो, तो इसमें कौन-से हित शामिल होते हैं? जब दो लोग किसी चीज पर चर्चा करते हैं, तो हित इस बात को छूते हैं कि कौन वाक्पटुता से बोल सकता है और कौन नहीं, साथ ही, किसकी प्रशंसा की जाती है और किसका तिरस्कार। ... इसके अलावा, किसी का हितों के पीछे भागना किससे संबंधित है? जब लोग कुछ करते हैं, तो वे लगातार इस बात को लेकर निरंतर नापते, तोलते, मथते और दिमाग दौड़ाते हैं कि उन्हें किससे फायदा होगा और किससे नहीं, क्या चीज उनके हितों को बढ़ाएगी या कम से कम उनके हितों का नुकसान होने से रोकेगी, क्या चीज उन्हें सबसे बड़े सम्मान और सर्वोत्तम भौतिक चीजें दिलवाएगी, और क्या चीज उन्हें किसी भी मामले का सबसे बड़ा लाभार्थी बनाएगी" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग एक)')। "जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को समझ नहीं लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। वह प्रकृति विशिष्ट रूप से किस चीज़ को अपरिहार्य बनाती है? उदाहरण के लिए, तुम स्वार्थी क्यों हो? तुम अपने पद की रक्षा क्यों करते हो? तुम्हारी भावनाएँ इतनी प्रबल क्यों हैं? तुम उन अधार्मिक चीज़ों से प्यार क्यों करते हो? ऐसी बुरी चीज़ें तुम्हें अच्छी क्यों लगती हैं? ऐसी चीजों को पसंद करने का आधार क्या है? ये चीज़ें कहाँ से आती हैं? तुम इन्हें स्वीकारकर इतने खुश क्यों हो? अब तक, तुम सब लोगों ने समझ लिया है कि इन सभी चीजों के पीछे मुख्य कारण यह है कि मनुष्य के भीतर शैतान का जहर है। तो शैतान का जहर क्या है? इसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है? उदाहरण के लिए, यदि तुम पूछते हो, 'लोगों को कैसे जीना चाहिए? लोगों को किसके लिए जीना चाहिए?' तो लोग जवाब देंगे, 'हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये।' यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का फलसफा और तर्क लोगों का जीवन बन गया है। लोग चाहे जिसका भी अनुसरण करें, वे उसे बस अपने लिए करते हैं, और इसलिए वे केवल अपने लिए जीते हैं। 'हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये'—यही मनुष्य का जीवन और फ़लसफ़ा है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। ये शब्द पहले ही भ्रष्ट इंसान की प्रकृति, भ्रष्ट इंसान की शैतानी प्रकृति की सच्ची तस्वीर बन गए हैं, और यह शैतानी प्रकृति पहले ही भ्रष्ट इंसान के अस्तित्व का आधार बन चुकी है; कई हजार सालों से वर्तमान दिन तक भ्रष्ट इंसान शैतान के इस जहर से जिया है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'पतरस के मार्ग पर कैसे चलें')। परमेश्वर के वचन ने मेरी हालत का खुलासा कर दिया। मैं समझ गई कि मैं खास तौर पर स्वार्थी और घिनौनी थी। हर चीज में, सिर्फ निजी हितों के बारे में सोचती थी, और सिर्फ अपना फायदा बढ़ाने के तरीके ही ढूँढ़ना चाहती थी। कलीसिया के कार्य की बात तो दूर रही, मैं भाई-बहनों के बारे में भी नहीं सोचती थी। जब अगुआ ने मुझे बहन झू युन को लाने के लिए कहा, तो मुझे लगा वह कलीसिया के लिए काम कर सकेगी, अपने काम का बोझ कम करने और उसे ज्यादा प्रभावी बनाने के लिए, मेरी एक और सहायिका होगी, जिससे मैं बेहतर दिखाई दूँगी, तो मैं उसे लाने का इंतजार नहीं कर सकी। लेकिन जब मैंने देखा कि वह मेरी पहचान वाली बहन नहीं थी, और एक सुरक्षा जोखिम भी थी, तो मैं समझ गई कि वह न सिर्फ कोई कर्तव्य नहीं निभा सकेगी, बल्कि उसके साथ किसी को अकेले में ही बैठक करनी होगी। मुझे लगा वह न तो हमारी उत्पादकता बढ़ा सकेगी, न ही मुझे बेहतर दिखा सकेगी, बल्कि वह हमारी सुरक्षा के लिए भी खतरा पैदा कर सकती है। मैं इसके खिलाफ थी, मैंने शिकायत कर दी कि अगुआ की व्यवस्था अनुचित थी, इसलिए मैंने जल्दी से उसे एक पड़ोसी कलीसिया में भेज देने की कोशिश की। मैंने देखा कि "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये" जैसे शैतानी जहर के अनुसार जीकर, मैं ज्यादा-से-ज्यादा स्वार्थी और घिनौनी हो गई थी। मेरे दिल में सिर्फ निजी हित थे, और मैं सिर्फ अपनी ही परवाह करती थी। परमेश्वर देखता है कि हमारे दिलों में क्या है। परमेश्वर मेरी सोच से घृणा कैसे नहीं करता? जब मैंने सोचा कि बहन झू युन का तबादला पड़ोसी कलीसिया में कैसे हुआ था, तो लगा मैं उसकी ऋणी थी, और जानती थी कि मुझे परमेश्वर के वचन पर अमल करना था, अब मैं निजी हितों का ध्यान नहीं रख सकती।
कुछ समय बाद, मुझे अगुआ का एक और पत्र मिला। कुछ भाई-बहन सीसीपी से बचते फिर रहे थे, और हमें उन्हें अपनी कलीसिया में लाने की व्यवस्था करनी थी। इस बार, मैं अब निजी हितों के बारे में नहीं सोच सकती थी। वे कर्तव्य निभा पाएँ या नहीं, मैं उन्हें स्वीकारने को तैयार थी, ताकि वे कलीसिया जीवन जी सकें। मैं अगुआ द्वारा दिए हुए पतों पर गई, हमारी कलीसिया में उनका स्वागत किया, और जरूरी व्यवस्थाएं कीं। इस तरह अभ्यास करके, मैंने बहुत शांति और सुकून महसूस किया।
बाद में, पुलिस मुझ पर भी नजर रख रही थी, तो मैं भी सुरक्षा जोखिम बन गई, और दूसरों के साथ संपर्क नहीं रख पाई। मैं सभाओं में भाग नहीं ले सकती थी, अपने कर्तव्य नहीं निभा सकती थी। वह मेरे लिए बड़ा कठिन समय था। मैं अक्सर वो दिन याद करती जब मैं भाई-बहनों के साथ मिलकर अपना कर्तव्य निभा सकती थी। मैं भाई-बहनों से फिर से मिलने, साथ में सत्य पर संगति करने और अपने मन की बात कहने की आस लगाए रहती। कलीसिया जीवन और भाई-बहनों से मिलने की लालसा ने मुझे बहुत रुलाया। तब जाकर मैं समझ पाई कि सीसीपी द्वारा पीछा किए जा रहे भाई-बहन कैसा महसूस करते हैं, जब वे कलीसिया जीवन नहीं जी पाते या भाई-बहनों के साथ संपर्क नहीं कर पाते। मैंने बहन झू युन के बारे में सोचा जिसे मैंने पड़ोसी कलीसिया में भेज दिया था। तब, मैंने सोचा था, कर्तव्य न निभा सकने के कारण, वह कलीसिया के कार्य में कोई मदद नहीं कर सकेगी। लेकिन मैंने बिल्कुल नहीं सोचा था कि तीन साल से भी ज्यादा समय तक सीसीपी द्वारा जेल में बंद रखे जाने, और रिहाई के बाद अभी भी निगरानी में रहने, भाई-बहनों से संपर्क न कर पाने और कलीसिया जीवन न जी पाने से वह कितनी दुखी और पीड़ित होगी। सभाओं में भाग लेने के लिए, उसे अपने गाँव से हमारी कलीसिया आना पड़ रहा था। उसने ऐसा भाई-बहनों के साथ संपर्क में बने रहने के लिए किया, लेकिन मैंने सहानुभूति या सुकून पहुँचाने का एक भी शब्द बोले बिना उसे ठुकरा दिया। इस बारे में मैंने जितना ज्यादा सोचा, उतना ही दोषी महसूस किया। मैं इतनी ज्यादा निष्ठुर और निर्दयी कैसे थी? मुझमें इंसानियत थी ही नहीं!
बाद में, मैंने परमेश्वर के वे वचन पढ़े, जो मसीह-विरोधियों का खुलासा करते हैं, जिससे मुझे अपनी समस्या को ज्यादा स्पष्ट रूप से समझने में मदद मिली। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "मसीह-विरोधियों के कपट और विषैलेपन की प्राथमिक अभिव्यक्तियाँ ये हैं कि वे जो कुछ भी करते हैं, उसका कोई उद्देश्य होता है। वे सबसे पहले अपने हितों के बारे में सोचते हैं; और उनके तरीके घिनौने, भोंडे, अनैतिक, निंदनीय और संदेहास्पद होते हैं। वे जिस तरह से काम करते हैं, जिस तरह से लोगों के साथ बरताव करते हैं और जिन सिद्धांतों के अनुसार बरताव करते हैं, उनमें कोई ईमानदारी नहीं होती। लोगों के साथ उनके बरताव का तरीका उनका फायदा उठाने और उनके साथ चालबाजी करने वाला होता है, और जब लोग उनके काम के नहीं रह जाते, तो वे उन्हें फेंक देते हैं। अगर तुम उनके किसी काम के होते हो, तो वे तुम्हारी परवाह करने का दिखावा करते हैं : 'कैसा चल रहा है? तुम्हें कोई कठिनाई तो नहीं हुई? मैं तुम्हारी कठिनाइयाँ हल करने में मदद कर सकता हूँ। कोई दिक्कत हो तो बताओ। मैं तुम्हारे लिए हाजिर हूँ। हम कितने खुशकिस्मत हैं कि हमारे बीच इतना अच्छा रिश्ता है!' वे बहुत सजग लगते हैं। लेकिन अगर किसी दिन तुम उनके किसी काम के नहीं रहते, तो वे तुम्हें छोड़ देंगे, वे तुम्हें एक तरफ फेंक देंगे और तुम्हारे साथ ऐसा बरताव करेंगे, जैसे वे तुमसे कभी न मिले हों। जब तुम्हें वास्तव में कोई समस्या होती है और तुम मदद के लिए उन्हें खोजते हो, तो उनका रवैया अचानक बदल जाता है, उनके शब्द अब उतने अच्छे नहीं होते, जितने पहले तुम्हारी मदद करने का वादा करते समय थे—और ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि तुम उनके किसी काम के नहीं रहे, इसलिए वे तुम पर ध्यान देना बंद कर देते हैं। इतना ही नहीं : अगर उन्हें पता चलता है कि तुमने कुछ गलत किया है या कुछ ऐसा पता चलता है जिसका वे फायदा उठा सकते सकते हैं, तो वे रुखाई के साथ तुम्हारे निंदक बन जाते हैं, यहाँ तक कि तुम्हारी भर्त्सना भी कर सकते हैं। यह किस तरह की कार्यप्रणाली है? क्या यह दया और ईमानदारी की अभिव्यक्ति है? जब मसीह-विरोधी दूसरों के प्रति अपने बरताव में इस तरह का कपट और विषैलापन प्रकट करते हैं, तो क्या इसमें मानवता का कोई अंश होता है? क्या उनमें लोगों के प्रति थोड़ी-सी भी ईमानदारी होती है? बिलकुल नहीं। वे जो कुछ भी करते हैं, अपने लाभ, गौरव और प्रतिष्ठा के लिए करते हैं, दूसरों के बीच हैसियत और प्रतिष्ठा पाने के लिए करते हैं। अगर वे हर उस इंसान का लाभ उठा सकें, जिससे वे मिलते हैं, तो वे उठाएँगे। जिसका वे लाभ नहीं उठा सकते, उसका तिरस्कार करते हैं और उस पर कोई ध्यान नहीं देते; यहाँ तक कि अगर तुम उनसे खुद संपर्क करते हो, तो भी वे तुम्हें अनदेखा कर देते हैं, मानो तुम उनके लिए अदृश्य हो। लेकिन अगर कोई ऐसा दिन आता है जब उन्हें तुम्हारी जरूरत होती है, तो तुम्हारे प्रति उनका रवैया अचानक बदल जाता है, और वे अप्रत्याशित रूप से बहुत शिष्ट और मिलनसार हो जाते हैं। तुम्हारे प्रति उनका रवैया क्यों बदल जाता है? (तुम उनके काम के होते हो।) सही कहा : यह देखकर कि तुम उनके काम के हो, उनका रवैया बदल जाता है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'प्रकरण चार : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव के सार का सारांश (भाग एक)')। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मैंने खुद को बहुत दुखी और दोषी महसूस किया। मैंने जो किया था, वह मसीह-विरोधियों जैसा ही था। हर हालात में मेरी एक मंशा थी, मैं सिर्फ निजी हितों का ध्यान रखती थी। मैंने अपने मेलजोल में हमेशा हिसाब लगाकर लोगों का इस्तेमाल किया। भाई-बहनों के प्रति मेरे मन में प्रेम, ईमानदारी या दया नहीं थी। बहन झू युन बहुत लंबे समय से सीसीपी की निगरानी में थी और वह कलीसिया जीवन नहीं जी पाई थी। मुझे उसकी हालत समझनी चाहिए थी, प्रेम से सहारा देकर उसकी मदद करनी चाहिए थी, जल्द-से-जल्द सभाओं में उसके भाग लेने और उसके लायक कर्तव्य की व्यवस्था करनी चाहिए थी। लेकिन मैं उसके सुरक्षा जोखिमों को लेकर चिंतित थी। मुझे लगा उसे कलीसिया में स्वीकारने से कलीसिया के कार्य में कोई मदद नहीं मिलेगी, और हमें उसकी मदद के लिए और ऊर्जा खपानी पड़ेगी, कीमत चुकानी पड़ेगी। बुरा-से-बुरा, उससे भाई-बहनों की सुरक्षा को खतरा पैदा हो जाएगा, जिससे कलीसिया के कार्य पर बुरा असर पड़ेगा। इसलिए उसे कलीसिया जीवन मिले या न मिले, मैंने कोई परवाह नहीं की, और मैंने उसकी हालत या मुश्किलों के बारे में उससे एक भी सवाल नहीं पूछा। मैं सिर्फ उससे छुटकारा पाना चाहती थी, उसे कलीसिया में नहीं आने देना चाहती थी। मैं बहुत बेपरवाह और स्वार्थी थी। मुझमें सचमुच जरा भी इंसानियत नहीं थी! मैं खुद से पूछे बिना नहीं रह सकी, "मैं एक छोटे-से मामले में भी उस बहन के बारे में सोच नहीं सकी। मुझमें उसके लिए जरा भी प्रेम या दया नहीं थी। तो पहले मैं भाई-बहनों की जो मदद करती थी, वह सच्ची कैसे हो सकती थी?" आत्मचिंतन के जरिए, मैंने जाना कि कई बार मैं भाई-बहनों की मदद इसलिए करती थी, क्योंकि मैं कलीसिया अगुआ थी। मुझे लगता उन्हें सही सहारा देने और सबकी हालत सामान्य हो यह पक्का करने से, मैं अपने कर्तव्य में अच्छे नतीजे हासिल कर पाऊँगी और अच्छी छवि पेश कर पाऊँगी। अब जाकर एहसास हुआ कि अपने कर्मों में मैंने परमेश्वर की इच्छा का ध्यान नहीं रखा, और मैं एक अगुआ की अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रही थी। इसके बजाय, मैं अपनी शोहरत और रुतबे की रक्षा कर रही थी। ऊपर से तो मैं अपना कर्तव्य निभा रही थी, लेकिन दरअसल अपना कर्तव्य निभाने के बहाने मैं निजी हितों का ध्यान रख रही थी, मैंने शोहरत और रुतबे के पीछे भागने में, ऊपर चढ़ने की सीढियों के तौर पर, दूसरों का इस्तेमाल किया। मेरी करतूत परमेश्वर को नाराज करने वाली थी, और मैं परमेश्वर के प्रतिरोध के मार्ग पर चल रही थी। अगर मैंने कलीसिया जीवन न जी सकने की पीड़ा महसूस नहीं की होती, तो मैं कभी भी सभाओं और कलीसिया जीवन के बिना जी रहे भाई-बहनों की पीड़ा और कष्ट को नहीं जान पाई होती। मैं कभी भी अपने कुटिल और दुष्ट मसीह-विरोधी स्वभाव को पहचान नहीं पाई होती।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचन का एक और अंश पढ़ा। "अपने हितों के पीछे भागने वाले लोगों के साथ समस्या यह है कि वे जिन लक्ष्यों का अनुसरण करते हैं, वे शैतान के लक्ष्य हैं—वे ऐसे लक्ष्य हैं, जो दुष्टतापूर्ण और अन्यायपूर्ण हैं। जब लोग प्रतिष्ठा और हैसियत जैसे व्यक्तिगत हितों के पीछे भागते हैं, तो वे अनजाने ही शैतान का औजार बन जाते हैं, वे शैतान के लिए एक वाहक बन जाते हैं, और तो और, वे शैतान का मूर्त रूप बन जाते हैं। वे कलीसिया में एक नकारात्मक भूमिका निभाते हैं; कलीसिया के कार्य के प्रति, और सामान्य कलीसियाई जीवन और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के सामान्य लक्ष्य पर उनका प्रभाव परेशान करने और बिगाड़ने वाला होता है; उनका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग एक)')। परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मुझे एहसास हुआ कि अगर हम सत्य का अभ्यास किए बिना अपना कर्तव्य निभाएँ, अपनी शोहरत और रुतबे की रक्षा करें, तो हम चाहे जितनी भी बड़ी कीमत चुकाएँ, कलीसिया में हमेशा एक नकारात्मक भूमिका ही अदा करेंगे, और शैतान का अड्डा बन जाएंगे। हम सिर्फ कलीसिया के कार्य में बाधा और गड़बड़ी ही पैदा करते रहेंगे, और अपने भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को नुकसान पहुँचाएंगे। मैंने अपनी बहन के बारे में सोचा जिसे बस कलीसिया जीवन में भाग लेने के लिए अपने गाँव से हमारे पास आना पड़ रहा था। वह परमेश्वर में ईमानदारी से विश्वास रखती थी, और परमेश्वर के वचनों के लिए तरस रही थी। अगर मुझमें जरा भी इंसानियत होती, तो मैं उसके साथ इस तरह पेश नहीं आई होती। मैं एक कलीसिया अगुआ थी, लेकिन जब बहन झू युन मुसीबत में थी, तो मैंने उसकी मदद नहीं की, मैंने बेपरवाही और निर्दयता से उसे किसी दूसरी कलीसिया में भेज देने की कोशिश की। मैंने अपनी करतूत के बारे में जितना ज्यादा सोचा, उतनी ही खुद से घृणा की। मुझे लगा मैं उस बहन की ऋणी थी, उससे भी ज्यादा परमेश्वर की ऋणी थी। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, "हे परमेश्वर! काम करते समय मैं सिर्फ निजी हितों का ध्यान रखती हूँ, और भाई-बहनों के लिए मेरे मन में जरा भी प्रेम नहीं है। मैं बहुत स्वार्थी और दुष्ट हूँ। हे परमेश्वर, मैं प्रायश्चित करना चाहती हूँ...।"
बाद में, परमेश्वर के वचन पढ़ते हुए, मैं मानवजाति के लिए परमेश्वर के निस्वार्थ पोषण और देखभाल को समझ पाई। मैंने अपने स्वार्थ और दुष्टता पर और भी ज्यादा शर्मिंदगी महसूस की। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "चाहे तुमने परमेश्वर के कितने भी वचन पढ़े हों, तुम कितना भी सत्य स्वीकार करने और समझने में सक्षम हो, तुमने कितनी भी वास्तविकता जी हो, या तुमने कितना भी परिणाम प्राप्त किया हो, एक तथ्य है जिसे तुम्हें समझना चाहिए : परमेश्वर का सत्य, मार्ग और जीवन प्रत्येक व्यक्ति को मुक्त रूप से प्रदान किया जाता है, और वह प्रत्येक व्यक्ति के लिए उचित है। परमेश्वर इस वजह से कभी एक व्यक्ति से ज्यादा दूसरे पर अनुग्रह नहीं करेगा कि उसने कितने समय से परमेश्वर पर विश्वास किया है या उसने कितना कष्ट सहा है, और इस वजह से कभी किसी व्यक्ति को अनुग्रह या आशीष नहीं देगा कि उसने कितने समय से परमेश्वर पर विश्वास किया है या उसने कितना कष्ट सहा है। न ही वह किसी की उम्र, रूप-रंग, लिंग, पारिवारिक पृष्ठभूमि आदि के कारण अलग तरह से बरताव करेगा। प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर से समान रूप से प्राप्त करता है। वह किसी को कम नहीं देता, न किसी को ज्यादा देता है। परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति के लिए निष्पक्ष और न्यायी है। वह मनुष्यों का समय पर और अनुपात में भरण-पोषण करता है, उन्हें भूखा, ठंडा या प्यासा नहीं रहने देता, और वह मनुष्य के हृदय की सभी जरूरतें पूरी करता है। जब परमेश्वर ये चीजें करता है, तो वह लोगों से क्या चाहता है? परमेश्वर ये चीजें लोगों को देता है, तो क्या इसमें परमेश्वर का कोई स्वार्थ है? (नहीं।) परमेश्वर का बिलकुल भी कोई स्वार्थ नहीं है। परमेश्वर के सभी वचन और कार्य मानवजाति के लिए हैं, मानवजाति की तमाम मुसीबतें और कठिनाइयाँ हल करने के लिए हैं, ताकि मानवजाति परमेश्वर से वास्तविक जीवन प्राप्त कर सके। यह तथ्य है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्वर की प्रबंधन योजना का सर्वाधिक लाभार्थी मनुष्य है')। परमेश्वर सबके लिए निस्वार्थ भाव से प्रावधान करता है। वह हम सभी में कड़ी मेहनत करता है, और कभी बदले में हमसे कुछ भी नहीं चाहता, सिर्फ उम्मीद करता है कि हम सत्य का अनुसरण करेंगे, अपना स्वभाव बदलेंगे, और सच्चे इंसान की तरह जीवन जियेंगे। लेकिन मैं भाई-बहनों से उनकी उपयोगिता के आधार पर पेश आती थी। अगर वे उपयोगी होते, तो मैं कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हो जाती। अगर नहीं, तो मैं उन पर जरा भी ध्यान नहीं देती। कोई फायदा न दिखने पर मैं परेशानी मोल नहीं लेना चाहती। मैं स्वार्थी और घिनौनी थी। प्रभु यीशु ने कहा था, "मैं तुम से सच कहता हूँ कि तुमने जो मेरे इन छोटे से छोटे भाइयों में से किसी एक के साथ किया, वह मेरे ही साथ किया" (मत्ती 25:40)। हाँ। यहाँ तक कि कलीसिया में सबसे कम नजर आने वाले मगर परमेश्वर में सच्चा विश्वास रखने वाले भाई-बहनों की भी मदद करनी चाहिए, अगर वे कुकर्मी, मसीह-विरोधी या गैरविश्वासी न हों। प्रेम से उनकी मदद करना परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखना है, और इसमें परमेश्वर की स्वीकृति होती है। खास तौर पर सीसीपी द्वारा पीछा कर तलाशे जा रहे भाई-बहनों के लिए, जो घर वापस नहीं लौट सकते, उनके साथ हमें ठीक से पेश आना चाहिए और उनकी सुरक्षा पक्की करनी चाहिए। यह एक नेक कार्य से भी बढ़कर है। भाई-बहनों के प्रति किसी इंसान का रवैया उसकी इंसानियत दिखाता है। मुझे गहरा पछतावा हुआ। अगर मेरे पास कर्तव्य निभाने का एक और मौका होता, तो मैं अब उतनी स्वार्थी और घिनौनी नहीं होती, या अपने भाई-बहनों के साथ मेलजोल में निजी हितों का ध्यान नहीं रखती। मुझे भाई-बहनों की भरसक मदद करनी चाहिए, और ऐसी बननी चाहिए जिसमें इंसानियत और समझ हो।
इस साल जनवरी में, मैंने आखिरकार एक और कर्तव्य संभाला। अगुआ ने मुझे सुरक्षा जोखिम वाली एक बहन को सहारा देने का काम सौंपा। मुझे लगा, "उन हालात से गुजरने के बाद, आखिरकार मेरे पास एक कर्तव्य है। इस बहन से मेरा संपर्क होने पर, अगर मुझे फँसा दिया गया तो क्या होगा?" इस मुकाम पर, मुझे एहसास हुआ कि मैं सही हालत में नहीं थी, मैंने फौरन परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना करते हुए कहा कि मैं अपनी इच्छाओं का त्याग कर सकती हूँ, मैं अपनी बहन की मदद करने, उसे सहारा देने का भरसक प्रयास करूंगी। उसके साथ मिलकर परमेश्वर के वचन पर संगति करने से, उसकी नकारात्मक हालत धीरे-धीरे सुधर गई, और उसने परमेश्वर की गवाही देने वाला एक लेख लिखना चाहा। उस बहन की मदद का भरसक प्रयास करके मुझे बहुत सुकून मिला।
पहले मुझे लगता था मैं मुश्किलें झेल सकती हूँ, अपने कर्तव्य में कड़ी मेहनत कर सकती हूँ, मुझमें अच्छी इंसानियत है, और भाई-बहनों के प्रति प्रेम भी है। फिर सच्चाई के आईने में देखकर, और परमेश्वर के वचन के न्याय और प्रकाशन से, आखिर मैं समझ सकी कि मैं सिर्फ फायदा चाहती थी। मैं स्वार्थी और बेपरवाह थी, मेरे दिल में कोई ईमानदारी और दया नहीं थी। शैतान ने मुझे अमानवीय होने की हद तक भ्रष्ट कर दिया था! परमेश्वर के वचन के न्याय और प्रकाशन से मैं समझ सकी कि इंसानियत और समझ से अपने भाई-बहनों के साथ कैसे पेश आना चाहिए। इससे मुझे हमेशा निजी हितों की परवाह किए बिना दूसरों के साथ मिल-जुलकर रहने और ईमानदारी से भाई-बहनों को सहारा देकर उनकी सहायता करने में मदद मिली। परमेश्वर का धन्यवाद!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?