कर्तव्य अच्छे से निभाने के लिए आलोचना जरूरी है

04 फ़रवरी, 2022

कुछ समय पहले मुझे एक पत्र मिला, जिसमें एक बहन ने एक अगुआ और दो उपयाजिकाओं की रिपोर्ट की थी। उसने लिखा कि अगुआ बहन शिन व्यावहारिक कार्य नहीं करतीं, बस सभाओं में बेमन से काम करती हैं, उन्हें दूसरों की हालत या मुश्किलों की परवाह नहीं है। दो अन्य उपयाजिकाओं की भी कुछ समस्याएँ थीं। मुझे ध्यान आया कि जिक्र की गई समस्याओं पर मैं पहले ही उनके साथ संगति और उनका निपटान कर चुकी थी। उन्होंने थोड़ा आत्मबोध हासिल किया था, बहन शिन तो खेद जताते हुए रोई भी थीं। मुझे लगा कि मैं उनकी और मदद कर सकती हूँ, उन्हें बर्खास्त करने की जरूरत नहीं है। मुझे पूरा यकीन था कि वे व्यावहारिक कार्य कर सकती हैं। साथ ही, रिपोर्ट करने वाली बहन ने अपने पत्र पर जिनके दस्तखत लिए थे वे जिज्ञासु खोजी नहीं थे, और कुछ तो कलीसिया से बाहर निकाले जाने की कगार पर थे। उन्होंने जिन बहुत-सी समस्याओं की रिपोर्ट की, वो इस बारे में थीं कि ये तीनों अपने काम में कैसा बर्ताव करती हैं। रिपोर्ट का कुछ अंश पूरी तरह से स्पष्ट या सही नहीं था। मुझे लगा, जिस बहन ने पत्र लिखा, वह शायद घमंडी है। वह क्या जानती थी? थोड़ी-सी छोटी-छोटी चीजों के लिए एक अगुआ और दो उपयाजिकाओं की एक साथ रिपोर्ट—अगर उन्हें बर्खास्त कर दिया गया, तो कलीसिया का कार्य कौन करेगा? वह बहन कलीसिया के कार्य की रक्षा कर रही थी या उसे नष्ट कर रही थी? मैंने सोचा, "मैं उनके काम की प्रभारी हूँ। किसी समस्या या उनके व्यावहारिक कार्य न कर पाने के बारे में, मुझसे बेहतर किसे मालूम होगा? उनके साथ समस्याएँ जरूर हैं, मगर हममें से किसी को भी पूर्ण नहीं किया गया है, गलतियाँ कौन नहीं करता? समस्या आते ही अगर हम उनकी रिपोर्ट कर उन्हें बर्खास्त कर दें, तो अगुआओं के लिए यह बहुत ऊंचा मानक होगा।" इस बारे में जितना सोचा, उतना ही लगा कि समस्या रिपोर्ट करने वाली बहन में है, तो मैंने उस पत्र को ज्यादा महत्व नहीं दिया। मैं ये समस्याएँ अगुआ और उपयाजिकाओं के सामने उठाकर, उनका थोड़ा निपटान करके, उनकी मदद करना चाहती थी बस।

दो-तीन दिन बाद, उच्च अगुआ ने एकाएक उस रिपोर्ट का मुद्दा उठाया। यह देखकर कि मैंने उस पर कोई कार्यवाही नहीं की है, उन्होंने खुली चर्चा के लिए उसे कलीसिया में लाने को कहा। मैंने ऊपर से हामी भर दी, मगर मैंने ऐसा किया नहीं। मुझे लगा कि वे लोग काम में काफी सक्षम हैं, अगर हम उनकी समस्याओं को सबके सामने खुली चर्चा के लिए रख दें, तो क्या यह सही होगा? क्या सभी लोग उनकी समस्याओं को सही ढंग से देखेंगे? अगर उन्हें भी लगा कि उनकी समस्याएँ बहुत ज्यादा हैं, और उनकी अगुआई स्वीकार न की तो क्या होगा? क्या मुझे उनके कार्य की रक्षा नहीं करनी चाहिए? मैं एकांत में उनकी मदद कर सकती हूँ, उन्हें बदलने को कह सकती हूँ, फिर वे अपना काम सही ढंग से कर सकेंगी। परमेश्वर जानता था कि मैं विद्रोही और अड़ियल हो रही हूँ, अगुआ की बात मानने को तैयार नहीं हूँ। उन्होंने फिर से मुझे बुलाया, और मेरी गलत धारणाओं और स्वभाव के बारे में विस्तार से संगति की। उन्होंने मुझसे फिर एक सवाल पूछा : "परमेश्वर के घर में सत्य का शासन है, और हमें सबके साथ निष्पक्ष होना चाहिए। आप उन अगुआओं और उपयाजिकाओं को क्यों बचाना चाहती हैं जिनमें समस्याएँ हैं? परमेश्वर का साथ क्यों नहीं देतीं? अपना एक गुट बनाकर उनकी रक्षा करना—यह मसीह-विरोधी का रास्ता है! दूसरों के साथ पेश आते समय सिद्धांतों का पालन क्यों नहीं करतीं? क्या आपको परमेश्वर के चुने हुए लोगों पर विश्वास नहीं है? क्या आप नहीं मानतीं कि परमेश्वर के घर में सत्य का राज है?" फिर अंत में, उन्होंने जोर देकर कहा, "आप झूठे अगुआओं को उजागर नहीं करना चाहतीं, बल्कि आप उनको ढँकती हैं, आप सत्य का साथ नहीं देतीं।" उस वक्त मैं यह बात पूरी तरह से स्वीकार नहीं कर पाई। मैं अभी भी मन में बहस और तर्क कर रही थी। पहले झूठे अगुआओं ने मेरा दमन किया था, ऐसे लोगों के हाथ में कमान होने पर, कलीसिया के कार्य और उसके सदस्यों को नुकसान होते देखा था। उनका व्यवहार मुझे सचमुच गुस्सा दिलाता था। जो भी झूठे अगुआ पाए जाते उन्हें मैं फौरन बर्खास्त कर देती थी। मैं झूठे अगुआओं का बचाव कैसे कर सकती थी? वे मेरे कामों की प्रकृति का विश्लेषण करती रहीं, उन्होंने मुझे ऐसी झूठी अगुआ बताया, जो सत्य का अभ्यास नहीं बल्कि शैतानी फलसफों का प्रयोग करती है। उन्होंने कहा कि मैं उन अगुआओं को ऐसे बचा रही हूँ जैसे कम्युनिस्ट पार्टी के अधिकारी एक-दूसरे को बचाते हैं, अगर सत्ता मिली, तो मैं मसीह-विरोधी बन जाऊंगी। "झूठी अगुआ" और "मसीह-विरोधी" : जब भी उन्होंने ये शब्द कहे, मुझे बहुत बुरा लगा। मैं बहुत बेचैन थी, लगा मेरे साथ बहुत गलत हो रहा है। मैं रोती ही जा रही थी। रोते हुए ही मैंने प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मुझे पता है कि अगुआ मेरी असली समस्या उजागर कर रही हैं, मगर मैं इसे नहीं समझ पा रही। मुझे प्रबुद्ध कर रास्ता दिखाओ, ताकि मैं खुद को जान सकूं और जरूरी सबक सीख सकूं।"

अगले दिन मैंने रिपोर्ट की गई अगुआ और उपयाजिकाओं के बारे में खुली चर्चा के लिए एक सभा आयोजित की। मेरी सोच के विपरीत, भाई-बहन उनकी समस्याओं पर टूट नहीं पड़े, बल्कि उन्होंने रिपोर्ट में लिखी समस्याओं पर उदाहरणों के साथ, निष्पक्षता के साथ संगति की, ताकि उनके काम करने के तरीकों पर चर्चा की जा सके। बहन शिन के बारे में हमारी चर्चा से मैंने उसका जो आकलन किया था वो उलट गया। बहुत-से लोगों ने कहा कि वे व्यावहारिक कार्य नहीं करतीं, वे सभाओं में सिर्फ बेमन से काम करती हैं। वे असली समस्याओं को नहीं सुलाझातीं, न ही काम का जायजा लेती हैं। सभी लोग अपने काम में मुश्किलें झेल रहे थे, मगर उन्हें कोई फिक्र नहीं थी। वे काम की व्यवस्था या लोगों का काम बदलते समय, सत्य पर संगति नहीं करतीं, इसलिए मुश्किलें आने पर उन्हें चीजों को खुद ही समझना होता था, या एक-दूसरे की मदद करनी होती थी। अगुआ कहीं भी नजर नहीं आती थीं। भाई-बहनों के लिए बहन शिन का व्यवहार सचमुच निराशाजनक था। प्रत्येक आकलन में बहन शिन की बेपरवाही और व्यावहारिक कार्य के न होने की शिकायत थी। ये मुझ पर भी अभियोग थे। सब लोगों को बोलते सुनकर, मुझे जो महसूस हुआ उसे बयान नहीं कर सकती। मैं दोषी और शर्मिंदा महसूस कर रही थी, ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरे मुँह पर कसकर तमाचा जड़ दिया हो। मैं जिस कलीसिया की प्रभारी थी, वहाँ एक झूठी अगुआ थी जो व्यवहारिक कार्य नहीं करती थी, और मुझे इसकी भनक तक नहीं थी। मैं बहुत आश्वस्त थी, सोचती थी कि वह सत्य का अनुसरण करती है, एक अगुआ के रूप में असल काम करती है। जब उसकी समस्याओं की रिपोर्ट की गई, तो मैंने उन पर गौर नहीं किया, कार्यवाही नहीं की, बल्कि एकांत में उसकी मदद करनी चाही। मैं बहन शिन से अलग कैसे थी? मैं दूसरों की जरूरतों पर ध्यान नहीं दे रही थी, या उनकी समस्याओं और मुश्किलों को हल नहीं कर रही थी। मैं सत्ता के पद पर एक झूठी अगुआ थी, जो असल काम नहीं करती थी। फिर भाई-बहनों ने दोनों उपयाजिकाओं की समस्याओं का मुद्दा उठाया, कहा कि बहन वांग अपने काम में भावुकता दिखाती थीं और बिना सिद्धांतों के काम करती थीं। वे घमंडी थीं और अपने पद द्वारा लोगों को बेबस कर उनका दमन करती थीं। वे बहुत मुखर थीं, इससे भाई-बहनों को बहुत नुकसान हुआ, और उनके काम में रुकावट पैदा हुई। ये वैसी छोटी-छोटी समस्याएं नहीं थीं, जैसा मैंने सोचा था, जिन्हें थोड़ी-से संगति से सुलझाया जा सके। मैं उन सबकी बातें सुनकर शर्मिंदा हो गई। कोई भी असल काम न करने वाली झूठी अगुआ और कर्मचारी होने के उनके तौर-तरीके, एक के बाद एक मेरे सामने रख दिए गए, मैं चकित रह गई। उनमें दूसरों का गुस्सा उकसाने की कगार तक समस्याएँ भरी हुई थीं, लेकिन मुझे बिल्कुल पता नहीं था। मैं अपने काम में क्या कर रही थी? क्या यह एक अगुआ की भूमिका में मेरी गंभीर विफलता नहीं थी? फिर, मैंने खुद को शांत करके प्रार्थना की, अपनी समस्या पर आत्मचिंतन किया।

परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "नकली अगुआ असली काम नहीं करते। वे न तो कभी जाकर विभिन्न कार्य-विशेषज्ञताओं का निरीक्षण, पर्यवेक्षण या निर्देशन करते हैं, न ही यह पता लगाने के लिए कि क्या हो रहा है, समय पर विभिन्न समूहों का दौरा करते हैं, न निरीक्षण करते हैं कि कार्य कैसे आगे बढ़ रहा है, अभी भी कौन-सी समस्याएँ हैं, समूह-पर्यवेक्षक अपना कार्य करने में सक्षम है या नहीं; भाई-बहन पर्यवेक्षक को कैसी प्रतिक्रिया रहे हैं, वे उसके बारे में क्या सोचते हैं, समूह के अगुआ या पर्यवेक्षक द्वारा किसी की प्रगति को रोका तो नहीं जा रहा; किसी प्रतिभाशाली या सत्य का अनुसरण कर रहे व्यक्ति को दूसरों द्वारा नीचा तो नहीं दिखाया जा रहा या अलग-थलग तो नहीं किया जा रहा, किसी निष्कपट व्यक्ति को धमकाया तो नहीं जा रहा; जिन लोगों ने नकली अगुआओं को उजागर कर उनकी रिपोर्ट की है, उन्हें दबाया और नियंत्रित तो नहीं किया जा रहा, या जब लोग सही सुझाव देते हैं, तो उन सुझावों को अपनाया जाता है या नहीं; और कोई समूह-अगुआ या पर्यवेक्षक दुष्ट व्यक्ति तो नहीं है या वह लोगों को परेशान तो नहीं करता। अगर नकली अगुआ इनमें से कोई भी काम नहीं करते, तो उन्हें बदल देना चाहिए। उदाहरण के लिए मान लो, कोई व्यक्ति नकली अगुआ को रिपोर्ट करता है कि एक पर्यवेक्षक अकसर लोगों को नीचा दिखाता है और उनकी प्रगति रोकता है; भाई-बहनों की राय भी उसके बारे में अच्छी नहीं है, लेकिन वे बोलने की हिम्मत नहीं करते; पर्यवेक्षक खुद को निर्दोष और सही साबित करने के लिए तरह-तरह के बहाने ढूँढ़ता है और कभी अपनी गलती नहीं मानता। ऐसे पर्यवेक्षक को तुरंत क्यों नहीं बदला गया? लेकिन नकली अगुआ कहता है, 'यह लोगों के जीवन में प्रवेश की समस्या है। वह बहुत अहंकारी है—थोड़ी क्षमता से युक्त हर व्यक्ति अहंकारी होता है। यह कोई बड़ी बात नहीं है, मुझे बस उसके साथ थोड़ी संगति करनी पड़ेगी।' संगति के दौरान पर्यवेक्षक कहता है, 'मैं मानता हूँ कि मैं अहंकारी हूँ, मैं स्वीकार करता हूँ कि कई बार मैं अपने दंभ और रुतबे की चिंता करने लगता हूँ, लेकिन बाकी लोग इस कार्य-क्षेत्र में उतने अच्छे नहीं हैं, वे अकसर बेकार के सुझाव देते हैं, इसलिए इस बात की वजह है कि मैं उनकी बात नहीं सुनता।' नकली अगुआ पूरी स्थिति समझने में असमर्थ रहता है, वह यह नहीं देखता कि पर्यवेक्षक अपना काम कितनी अच्छी तरह करता है, उसकी मानवता, स्वभाव और लक्ष्य को समझने की तो बात ही अलग है। वह बस खुश होकर यह कहता है, 'मुझे इसकी रिपोर्ट की गई थी, इसलिए मैं तुम पर नजर रख रहा हूँ। मैं तुम्हें एक मौका दे रहा हूँ।' बातचीत के बाद पर्यवेक्षक कहता है कि वह पश्चात्ताप करना चाहता है, लेकिन क्या वह बाद में सच में पश्चात्ताप करता है या सिर्फ झूठ बोलकर धोखा देता है और पहले की तरह ही काम करता रहता है और उसका काम आखिर किस तरह का है, नकली अगुआ इन बातों पर ध्यान नहीं देता, न ही जानने का प्रयास करता है। ... वह यह नहीं जान पाता कि पर्यवेक्षक उसे कहीं अपनी मीठी-मीठी बातों से बरगला तो नहीं रहा। वह इस बात पर कोई ध्यान नहीं देता कि उसके अधीनस्थ लोग पर्यवेक्षक के बारे में क्या रिपोर्ट करते हैं, वह वास्तव में यह जाकर नहीं देखता कि उस व्यक्ति की समस्या कितनी गंभीर है, उसके अधीनस्थ लोगों द्वारा बताई जा रही समस्या का कोई अस्तित्व है भी या नहीं, वह वास्तविक भी है या नहीं, उस व्यक्ति को बदला जाना चाहिए या नहीं; वह इन समस्याओं पर कोई ध्यान नहीं देता, बस चीजों को टालता रहता है। इन समस्याओं के प्रति नकली अगुआ की प्रतिक्रिया बड़ी ही ढीली-ढाली होती है, वह बहुत सुस्त गति से चलता और कार्य करता है, टालमटोल करता रहता है, लोगों को और मौका देता रहता है, मानो वे मौके जो वह लोगों को देता है, बहुत कीमती और महत्वपूर्ण हों, मानो वे मौके उनकी नियति बदल सकते हों। लोगों में जो कुछ अभिव्यक्त हो रहा होता है, उसके जरिए उनकी प्रकृति और सार को देखना, उनकी प्रकृति और सार के आधार पर यह आँकना कि वे किस मार्ग पर चल रहे हैं, और उनके द्वारा अपनाए गए मार्ग के आधार पर यह समझना कि वे पर्यवेक्षक बनने लायक हैं या नहीं, उसके लिए संभव नहीं होता। वह इसे इस तरह नहीं देख पाता। उसके पास केवल दो ही युक्तियाँ होती हैं : लोगों को बातचीत के लिए बुलाना और उन्हें एक और मौका देना। क्या इसे काम करना कहते हैं? नकली अगुआ लोगों के साथ जो बातचीत करते हैं, उनसे जो तुच्छ बातें कहते हैं, जो खोखले शब्द बोलते हैं, सिद्धांत की जो बातें करते हैं, उन्हें बहुत कीमती और महत्वपूर्ण समझते हैं। वे इस बात से अनजान होते हैं कि परमेश्वर का कार्य केवल बात करना ही नहीं है, बल्कि लोगों से निपटना और उनकी काट-छाँट करना, उन्हें उजागर करना, परखना, गंभीर मामलों में उनका परीक्षण और शोधन करना, उन्हें ताड़ना देकर अनुशासित करना भी है; यह सिर्फ एक दृष्टिकोण नहीं है। तो वे खुद के बारे में इतने आश्वस्त क्यों होते हैं? क्या उनका थोड़ा-सा सिद्धांत के बारे में बोलना और कुछ लच्छेदार जुमले दोहराना लोगों को आश्वस्त कर बदल सकता है? वे इतने अज्ञानी और भोले कैसे हो सकते हैं? क्या किसी व्यक्ति के काम करने के गलत तरीके और भ्रष्ट व्यवहार को ठीक करना इतना आसान हो सकता है? क्या लोगों के भ्रष्ट स्वभाव की समस्या का समाधान करना इतना आसान है? नकली अगुआ बहुत ही मूर्ख और सतही होते हैं! परमेश्वर लोगों की भ्रष्टता दूर करने के लिए केवल एक ही तरीके का उपयोग न करके, कई तरीके उपयोग में लाता है; वह लोगों को उजागर करने और पूर्ण बनाने के लिए विभिन्न वातावरण तैयार करता है। नकली अगुआओं के काम करने का तरीका बहुत सरल होता है : वे लोगों को बातचीत के लिए बुलाते हैं, थोड़ा वैचारिक काम करते हैं, लोगों को थोड़ी सलाह देते हैं, और सोचते हैं कि यही काम करना है। यह सतही तरीका है, है न? और इस सतहीपन के पीछे कौन-सा मुद्दा छिपा होता है? क्या वह भोलापन है? वे बेहद भोले होते हैं, लोगों के प्रति अपने दृष्टिकोण में बहुत ही भोले। लोगों का भ्रष्ट स्वभाव दूर करने से मुश्क्किल काम और कोई नहीं है। जैसा कि एक कहावत है, 'कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं होती।' नकली अगुआओं को इन समस्याओं का कोई बोध नहीं होता। जब कलीसिया में उस तरह के पर्यवेक्षकों की बात आती है, जो लोगों के लिए मुश्किलें खड़ी करते हैं, कलीसिया के काम को बाधित करते हैं, हमेशा लोगों की प्रगति रोकते हैं, तो नकली अगुआ बातें बनाने के अलावा कुछ नहीं करते; निपटारे और काट-छाँट के कुछ शब्द कहे और बस। वे न तो तुरंत काम किसी और को सौंपते हैं और न ही लोगों को बदलते हैं। इसी तरह, नकली अगुआओं के काम करने का तरीका भी कलीसिया के काम को भारी नुकसान पहुँचाता है, और अकसर उस काम को सामान्य रूप से, सफलतापूर्वक, प्रभावी ढंग से करने से रोकता है, और अकसर दुष्टों द्वारा व्यवधान के कारण काम में देरी और नुकसान होता है और काम अटक जाता है—नकली अगुआओं द्वारा लोगों का ठीक से उपयोग न कर पाने के ये सारे दुष्परिणाम होते हैं। देखने में तो ये नकली अगुआ मसीह-विरोधियों की तरह जानबूझकर बुराई नहीं करते, जानबूझकर अपनी जागीर स्थापित नहीं करते और अपनी मनमर्जी नहीं चलाते। लेकिन अपने कार्य के दायरे में नकली अगुआ पर्यवेक्षकों के कारण होने वाली विभिन्न समस्याओं का शीघ्रता से समाधान नहीं कर पाते, वे घटिया पर्यवेक्षकों का काम तुरंत किसी और को सौंपने और उन्हें बदलने में सक्षम नहीं होते, जिससे कलीसिया के काम को गंभीर रूप से हानि पहुँचती है, और यह सब नकली अगुआओं की लापरवाही के कारण होता है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'नकली अगुआओं की पहचान करना (3)')। इसे पढ़कर लगा जैसे परमेश्वर के वचन व्यक्तिगत रूप से मेरा न्याय कर मुझे उजागर कर रहे हैं। जब मुझे उस अगुआ और उपयाजिकाओं की रिपोर्ट मिली, तो इसको लेकर मेरा रवैया ढुलमुल था। मैंने न तो चीजों की जाँच करना चाहा, न ही उसे तुरंत संभाला। मुझे लगा कि भले ही उनके साथ कुछ समस्याएँ थीं, पर वे वास्तविक कार्य कर सकती हैं, इसलिए मैं उनकी मदद कर सकती हूँ। मैंने हालात की पूरी जानकारी नहीं रखी, फिर जब उन्होंने रिपोर्ट की, तो मैं बहुत आश्वस्त होकर अपनी बात पर अड़ी रही। मैं सिर्फ अपने फैसले पर विश्वास करती थी, दूसरों की बातों पर कोई ध्यान नहीं देती थी। मैंने यह भी सोचा कि पत्र लिखने वाले राई का पहाड़ बना रहे हैं और अन्याय कर रहे हैं। मैंने देखा कि मैं न सिर्फ व्यावहारिक कार्य नहीं कर रही, और आँखें फेर रही हूँ, बल्कि अज्ञानी और घमंडी भी हूँ। मैंने दो महीने पहले बहन शिन के साथ व्यावहारिक कार्य न करने के बारे में संगति की थी, और उसने पछतावा जताया था। मुझे लगा जैसे मेरा काम हो गया, समस्या सुलझ गई है। लेकिन दरअसल, सबकी बातें सुनकर मैं समझ सकी कि कोई बदलाव नहीं हुआ था। उसके आँसू नकली थे, लेकिन मैं समझ नहीं पाई थी। मैं दया दिखाना चाहती थी और उसे और मौके देते हुए उसकी मदद करते रहना चाहती थी। और फिर बहन वांग थी—वह निरंतर घमंडी और तुनकमिजाज थी, कोई-न-कोई समय-समय पर उसकी रिपोर्ट करता ही रहता था। मगर मुझे लगा कि यह अस्थायी भ्रष्टता है, और मैंने उस पर ध्यान नहीं दिया। कभी-कभार उसके साथ कुछ बातें करके मुझे लगा मेरा काम हो गया, वह बाद में बदल जाएगी। इन चीजों के आधार पर मैंने उसके सार को नहीं समझा, या सिद्धांत के आधार पर इससे निपटने की कोशिश नहीं की। मुझमें सत्य की कमी थी और मैं चीजों को स्पष्टता से नहीं समझती थी। परमेश्वर ने चीजों को यूं व्यवस्थित किया कि भाई-बहनों की रिपोर्ट से मुझे समझने का एक मौका मिले, मगर मैंने इन सबकी अनदेखी की, परमेश्वर के कार्य से अनजान रही और दूसरों पर भरोसा नहीं किया। अड़ियल बनकर सिर्फ अपनी आँखों पर भरोसा किया। जब मैंने इसे ठीक से नहीं संभाला, तो एक अगुआ ने मेरी मदद की, जिन चीजों की मुझमें कमी थी, दूसरों के साथ मिलकर उनकी भरपाई करने को कहा। मगर मैंने इस डर से ऐसा नहीं किया कि यह ठीक नहीं रहेगा। मैं समझ गई कि मैं बहुत ज्यादा घमंडी थी। अगुआ और उपयाजिकाएं बरसों से अपना काम कर रही थीं, लेकिन बहुत ज्यादा आलोचना और अनुशासन के बावजूद वे नहीं बदली थीं। इसका अर्थ था कि वे सत्य को स्वीकार नहीं करेंगी। और संगतियाँ और मदद करने से क्या लाभ होगा? मैंने अनाड़ी की तरह सोचा कि थोड़ी-सी और संगति से सब ठीक हो जाएगा। मुझे मन में लग रहा था कि मेरी मदद और संगति परमेश्वर के वचनों से कहीं ज्यादा, परमेश्वर के वचनों के न्याय, ताड़ना और अनुशासन से कहीं ज्यादा कर दिखाएंगी। मैं हद से ज्यादा बेतुकी और और घमंडी थी। इससे घृणा होती है। उस मुकाम पर, मुझे लगा, भले ही रिपोर्ट दूसरे लोगों की समस्याओं के बारे में थी, यह मेरी समस्या को भी उजागर कर रही थी। झूठे अगुआ और कर्मचारी ठीक मेरे सामने थे, लेकिन मैंने उन्हें नहीं देखा न ही हालात को संभाला। इससे भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में देर हो गई और परमेश्वर के घर का कार्य रुक गया। मैं व्यावहारिक कार्य न करने वाली वैसी झूठी अगुआ थी, जिसे परमेश्वर उजागर करता है। धीरे-धीरे मैंने खुद को श्रेष्ठ समझना छोड़ दिया।

उनके कामकाज के आधार पर, हमने तय किया कि वे झूठी अगुआ और कर्मचारी हैं, जो व्यावहारिक कार्य नहीं करतीं, फिर उन्हें बर्खास्त कर दिया। मैंने रिपोर्ट को निपटा दिया था, मगर वह अनुभव मेरे दिल में छप गया था। यह याद करके कि अगुआ ने मुझे कैसे फटकारा था, कि मैं उन लोगों को बचा रही थी, झूठे अगुआओं और कर्मचारियों को उजागर नहीं कर रही थी, मुझे इतना बुरा लगा कि मैं बयान नहीं कर सकती। मुझे सच में खुद से घृणा हुई। मैंने ऐसा काम कैसे कर दिया? मैंने परमेश्वर के सामने आकर यह कहते हुए प्रार्थना और खोज की, "हे परमेश्वर, मैं बहुत भ्रष्ट हूँ। मैं तुम्हारी अपेक्षा के अनुसार अपना काम करने में सक्षम नहीं हूँ। मैं गड़बड़ी करने से खुद को रोक नहीं पाती। हे परमेश्वर, मैं गहराई से आत्मचिंतन करना चाहती हूँ, सत्य द्वारा अपनी समस्याएँ सुलझाना चाहती हूँ, ताकि मैं भ्रष्टता से मुक्त होकर अपना काम ठीक ढंग से कर सकूँ। मेरा मार्गदर्शन करो और मुझे प्रबुद्ध करो।" प्रार्थना के बाद, मैंने याद किया कि पत्र पाकर मैंने क्या सोच था, उस बारे में मेरा रवैया और नजरिया क्या था। मुझे याद आने लगा कि उस वक्त मैं कितनी अधिक अहंकारी, दंभी और घमंडी थी। मैंने हर फैसला और निर्णय बिना प्रार्थना किए और खोजे यूं किया जैसे मेरी आँखें सब देख सकती हों, मैंने मामले को जिस तरह संभाला, उसे लेकर मुझे जरा-भी शक नहीं था, मैंने अगुआ के निर्देशों का पालन नहीं किया। मुझे लगा, जैसे मैं काम सही ढंग से कर रही हूँ। इस विचार से मैं सिहर उठी। मैं इतनी ज्यादा आश्वस्त और दंभी कैसे हो सकती थी?

परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश मेरे मन में कौंध गए। परमेश्वर कहते हैं, "अगर तुम्हारे भीतर वाकई सत्य है, तो जिस मार्ग पर तुम चलते हो वह स्वाभाविक रूप से सही मार्ग होगा। सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जानबूझ कर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, वे तुमसे स्वयं की प्रशंसा करवाने की वजह होंगे, निरंतर तुमको दिखावे में रखवाएंगे और अंततः परमेश्वर के स्थान पर बैठाएंगे और स्वयं के लिए गवाही दिलवाएंगे। तुम आराधना किए जाने हेतु सत्य में अपने स्वयं के विचार, अपनी सोच, और अपनी स्वयं की धारणाएँ बदल लोगे। देखो लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन कितनी बुराई करते हैं!" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है')। "मानवीय अभिप्राय आमतौर पर लोगों को अच्छे और सही लगते हैं, और वे ऐसे दिखते हैं मानो कि वे सत्य का बहुत अधिक उल्लंघन नहीं करते हैं। लोगों को लगता है कि चीज़ों को इस तरह से करना सत्य को अभ्यास में लाना है; उन्हें लगता है कि चीज़ों को उस तरह से करना परमेश्वर के प्रति समर्पण करना है। दरअसल, वे वास्तव में परमेश्वर की तलाश नहीं कर रहे हैं, और वे परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार, उसकी इच्छा को संतुष्ट करने के लिए, इसे अच्छी तरह से करने का प्रयास नहीं कर रहे हैं। उनके पास यह सच्ची अवस्था नहीं है, न ही उनकी ऐसी अभिलाषा है। यही वह सबसे बड़ी ग़लती है, जो लोग अपने अभ्यास में करते हैं। तुम परमेश्वर पर विश्वास तो करते हो, परन्तु तुम परमेश्वर को अपने दिल में नहीं रखते हो। यह पाप कैसे नहीं है? क्या तुम अपने आप को धोखा नहीं दे रहे हो? यदि तुम इसी तरीके से विश्वास करते रहो तो तुम किस प्रकार के प्रभावों को पाओगे? इसके अलावा, विश्वास के महत्व को कैसे अभिव्यक्त किया जा सकता है?" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्वर की इच्छा को खोजना सत्य के अभ्यास के लिए है')। मैंने पहले ये अंश पढ़े थे, मगर उस वक्त इन अंशों ने मेरे दिल को छू लिया। परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन के जरिए मैंने अपनी कुरूपता बहुत साफ ढंग से देखी। भाई-बहनों ने अगुआ और उपयाजिकाओं की रिपोर्ट की, लेकिन मैंने उपेक्षा की। मुझे लगा, मैं उन्हें और काम में उनकी काबिलियत को जानती हूँ, दूसरों का नजरिया बहुत छोटा है, पर मैं हर पहलू देखती हूँ। मुझे लगा कि काम के लिए मेरा तरीका ही सबसे अच्छा है। अगुआ ने मुझसे खुले तौर पर रिपोर्ट की जाँच करने को कहा, मगर मुझे लगा कि खुले तौर पर जाँच करने से दूसरे पक्षपाती हो जाएंगे, और इससे कलीसिया के कार्य को नुकसान होगा। मुझे लगा कि मेरी परदे के पीछे की संगति और मदद ही सबसे बुद्धिमत्तापूर्ण तरीका है। मैंने उस पूरे मामले के दौरान ऐसा आत्मविश्वास बनाए रखा। मुझे विश्वास था कि अपने ढंग से काम करना ही सबसे अच्छा है। मैंने न तो परमेश्वर की इच्छा जानने की कोशिश की, न ही प्रार्थना की, ये भी नहीं जान पाई कि परमेश्वर ने मुझे याद दिलाने के लिए यह माहौल बनाया था। मेरे दिल में उसके लिए कोई जगह नहीं थी। मुझे लगा, मैं सब समझती हूँ और मुझे सत्य हासिल है, मानो मेरी निजी राय परमेश्वर की राय का प्रतिनिधित्व कर सकती है। क्या मैं परमेश्वर की अनदेखी करते हुए खुद को उसके स्थान पर नहीं बिठा रही थी? अगुआई का पद संभाले मुझे कुछ ही महीने हुए थे, और मैं बहुत-से सत्य नहीं समझती थी। रिपोर्ट से निपटने का यह मेरा पहला मौका था। फिर भी, मुझे अपनी सोच और नजरिए पर सबसे ज्यादा भरोसा था। मैंने झूठे अगुआओं के आकलन के बारे में कलीसिया के स्पष्ट सिद्धांतों की अनदेखी की, बस अपनी मर्जी से फैसले करती रही, अपने मन में उनकी छवि और कुछ सतही काम के आधार पर उन पर विचार किया। मैंने अपनी निजी कल्पनाओं को सत्य मान लिया और परमेश्वर के वचनों को अनसुना कर दिया। मेरे दिल में परमेश्वर नहीं था—मैं विवेक से परे बेहद घमंडी थी। मुझे लगा, मैं उन लोगों को अच्छी तरह जानती हूँ, उनके साथ मेरे संगति करने, उनकी मदद करने के बाद उन्होंने कुछ समझ हासिल कर ली है, इसलिए हम उन्हें रहने दे सकते हैं। लेकिन उनकी समस्याओं का विश्लेषण किया जा चुका था, ये पहले भी दिखी थीं, इसलिए फिर से ऐसे उजागर होना मतलब कि उन्होंने प्रायश्चित नहीं किया, वे नहीं बदलीं, वे सच में सत्य स्वीकार नहीं करतीं। परमेश्वर ने तथ्यों द्वारा मेरी कल्पनाओं पर वार किया। मैं यह भी नहीं जानती थी कि सच्चा आत्मज्ञान, या प्रायश्चित और बदलाव क्या होते हैं। मुझे लगा, मैंने चीजों को सही ढंग से समझ लिया है, सब साफ-साफ देख सकती हूँ। अपने घमंड के बारे में सोचने से घृणा और शर्मिंदगी होती है। परमेश्वर सृजन का प्रभु है, सत्य का मूर्तरूप है। वह सभी पर शासन करता है, हमारे दिलो-दिमाग में झांकता है, मगर वह जरा-भी घमंडी नहीं है। वह विनम्र और मनोहर है। लेकिन शैतान ने मुझे इतना भ्रष्ट कर दिया था कि मुझमें जरा-भी इंसानियत और उचित समझ नहीं थी। यह बिल्कुल साफ है कि मैं तुच्छ हूँ, फिर भी बेहद घमंडी थी। मैं एक जोकर की तरह बर्ताव करते हुए अपने शैतानी स्वभाव के भीतर जी रही थी। तब मुझे खुद पर दिल से गुस्सा आया, घृणा हुई, और मैं यह भी समझ सकी कि परमेश्वर कितना पवित्र है। परमेश्वर ने बहुत पहले ही मेरी हर सोच और करतूत देख ली थी, मेरे अहंकार पर रोशनी डालने के लिए उस रिपोर्ट पत्र का इस्तेमाल किया, ताकि यह दिखा सके कि मुझमें कितनी कमियां हैं, मैं कितनी सिद्धांतहीन और काम करने में असमर्थ हूँ। मैं परमेश्वर के न्याय और ताड़ना के लिए सच में उसकी आभारी थी, जिससे खुद को जान पाई। अगर अगुआ मुझे उजागर नहीं करतीं, तो किसे पता मैं गलत रास्ते पर कितना आगे बढ़ गई होती, सिद्धांत के खिलाफ जाकर कलीसिया के कार्य को बाधित करने के लिए कितना कुछ कर डाला होता। परमेश्वर मुझे प्रायश्चित करके बदलने का मौका दे रहा था, यह उसकी विशेष कृपा थी। मैंने ठान ली कि अपने काम में अपना त्याग कर खुद को नकारूँगी, ज्यादा खोजते हुए, परमेश्वर के सामने आऊँगी और सिद्धांत के अनुसार काम करूँगी।

मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, जिससे मैं रिपोर्ट को उस तरह से संभालने के नतीजों, और समस्याओं से निपटने के कुछ सिद्धांत समझ पाई। परमेश्वर कहते हैं, "तुम एक अगुआ हो। अगुआ होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है लोगों का अपने सबक सीखने, लोगों, घटनाओं और अपने दैनिक जीवन में आने वाली चीजों से वास्तव में सीखने, परमेश्वर के वचनों का वास्तव में अनुभव करने, और चीजों और लोगों को उनके वास्तविक रूप में देखने में मार्गदर्शन करना। अगर तुम्हें लगे कि तुममें अगुआ या कर्मी बनने की क्षमता है, तुममें वह क्षमता या वे स्थितियाँ हैं जिनसे परमेश्वर के घर द्वारा लोग पोषित किए जाते हैं, तो तुम्हें अगुआई शुरू कर देनी चाहिए, और भाई-बहनों का यह सीखने में मार्गदर्शन करना चाहिए कि वे अपने दैनिक जीवन में आने वाले लोगों, घटनाओं और चीजों की असलियत कैसे बताएँ, ताकि उन्हें सत्य की समझ प्राप्त हो, वे जान सकें कि उन विभिन्न प्रकार के लोगों से कैसे पेश आएँ जो कलीसिया के कार्य में बाधा डालते और गड़बड़ी करते हैं, यह जान सकें कि सत्य को अमल में कैसे लाएँ और विभिन्न प्रकार के लोगों के प्रति सिद्धांत से कैसे कार्य करें। यह सब तुम्हारी जिम्मेदारी है। ... इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि एक अगुआ या कर्मी के रूप में तुम्हें परमेश्वर का आभार मानना चाहिए कि उसने तुम्हें ऐसा अवसर दिया, जिससे तुम भाई-बहनों का इन लोगों, घटनाओं और चीजों को एक साथ संभालने और यह समझने में मार्गदर्शन करने योग्य बने, कि जब ये लोग, घटनाएँ और चीजें सामने आएँ, तो वे उन्हें कैसे पहचानें, उन्हें क्या सबक सीखने चाहिए, इन चीजों के घटित होने से पहले विभिन्न प्रकार के लोगों के प्रति उनकी क्या धारणाएँ, कल्पनाएँ और गलत दृष्टिकोण थे, और कुछ चीजों का अनुभव करने के बाद उन्होंने क्या सबक सीखे, कौन-सी गलत धारणाएँ और दृष्टिकोण सही करके परमेश्वर के वचनों की शुद्ध समझ प्राप्त की, और यह देखा कि केवल परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं और कैसे ये वचन साकार होते हैं। वे जो सबक सीखते हैं, उन्हें परमेश्वर के वचनों को लोगों के प्रति अपने व्यवहार में बेहतर ढंग से लागू करने में सक्षम होना चाहिए, बाहरी दिखावों और अपनी कल्पनाओं पर भरोसा करने के बजाय लोगों के प्रति अपने दृष्टिकोण में अधिक निष्पक्ष होना चाहिए। वे लोगों और चीजों को परमेश्वर के वचनों के माध्यम से देखेंगे, वे किसी व्यक्ति की मानवता को मापने और यह जानने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग करेंगे कि क्या वह व्यक्ति सच में सत्य का अनुसरण करता है; वे परमेश्वर के वचनों का उपयोग उस मानक के रूप में करेंगे जिसके द्वारा वे हर चीज को मापते हैं, बजाय इसके कि वे जो देखते, महसूस करते, सोचते या कल्पना करते हैं, उस पर भरोसा करें। ये सबक सीखने के बाद ही अगुआ या कर्मी का कार्य सही समझा जाएगा और यह दायित्व पूरा हो पाएगा। जब तुम अपना दायित्व पूरा कर लोगे, तो भाई-बहन ये लाभ प्राप्त करेंगे। यदि तुम मुश्किल अनुभवों से गुजर चुके हो, लेकिन सबक सीखने में भाई-बहनों का मार्गदर्शन करने और विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों का वास्तविक रूप बताने में सक्षम नहीं हो, तो तुम अंधे, सुन्न और मूर्ख हो। जब तुम्हारे साथ ये चीजें हुईं, तो तुमने न केवल उनसे निपटने के लिए संघर्ष किया और तुम इस कार्य को करने में असमर्थ रहे, बल्कि तुमने इसे भी प्रभावित किया कि भाई-बहनों ने इन चीजों को कैसे अनुभव किया। यदि तुम सिर्फ इस बात को प्रभावित करते हो कि भाई-बहन इन चीजों को कैसे अनुभव करते हैं, तो समस्या बहुत गंभीर नहीं है; लेकिन अगर तुम इसे ठीक से नहीं संभालते, यदि तुम अपने काम में असफल होते हो, वह नहीं कहते जो तुम्हें कहना चाहिए, सत्य के एक शब्द की भी संगति नहीं करते जो की जानी चाहिए, ऐसी कोई बात नहीं कहते जिससे लोगों को कोई लाभ हो या शिक्षा प्राप्त हो; यदि, जब ये बाधक और विघटनकारी लोग, घटनाएँ और चीजें प्रकट होती हैं, तो बहुत-से लोग न केवल परमेश्वर से समझ प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं, न केवल इन चीजों पर सक्रिय रूप से प्रतिक्रिया देने और उनसे सबक सीखने में असमर्थ होते हैं, बल्कि परमेश्वर के बारे में अधिकाधिक धारणाएँ बना लेते हैं, परमेश्वर से अधिकाधिक सावधान हो जाते हैं, परमेश्वर के प्रति अधिकाधिक अविश्वासी और शंकालु हो जाते हैं, तो इसमें क्या तुम एक अगुआ या कर्मी के रूप में अपनी जिम्मेदारी पूरी करने में असफल नहीं हुए हो? तुमने कलीसिया का काम ठीक से नहीं किया है, तुमने परमेश्वर द्वारा सौंपा गया आदेश पूरा नहीं किया है, तुमने एक अगुआ या कर्मी का दायित्व पूरा नहीं किया है, तुमने शैतान की शक्ति से भाई-बहनों को बाहर नहीं ले गए हो; वे अभी भी भ्रष्ट स्वभाव में, शैतान के प्रलोभनों में जी रहे हैं। क्या तुम लोगों को नुकसान नहीं पहुँचा रहे हो? जब तुम्हें अगुआ या कर्मी बनाया जाता है, तो तुम्हें उस जिम्मेदारी को पूरा करना होता है जो परमेश्वर ने तुम्हें सौंपी है, तुम्हें भाई-बहनों को परमेश्वर के सामने ले जाना होता है, ताकि वे खुद को परमेश्वर के वचनों और सत्य के सिद्धांतों से युक्त कर सकें, और परमेश्वर में उनका विश्वास और ज्यादा बढ़े। यदि तुमने ये काम नहीं किए हैं—यदि अपने साथ कुछ घटित होने पर भाई-बहन परमेश्वर से और भी अधिक सावधान हो जाते हैं, परमेश्वर के बारे में और भी अधिक गलतफहमियाँ पाल लेते हैं, और परमेश्वर के साथ उनका संबंध और भी तनावपूर्ण और विरोधात्मक हो जाता है—तो क्या तुमने बुराई को सुगम नहीं बना दिया है? क्या यह दुष्कर्म नहीं है? तुम न केवल भाई-बहनों को सकारात्मक प्रवेश पाने और सबक सीखने में मदद करने में विफल रहे हो, बल्कि उन्हें परमेश्वर से और भी दूर ले गए हो। क्या यह एक गंभीर समस्या है? (हाँ।)" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'नकली अगुआओं की पहचान करना (20)')। परमेश्वर के वचन सीधे दिल में उतर गए, मानो वह मुझे आमने-सामने उजागर कर मेरा विश्लेषण कर रहा हो। मैं अंधी, सुन्न और बुद्धिहीन थी। भाई-बहनों द्वारा अगुआओं और उपयाजिकों की निगरानी जरूरी होती है, ताकि जब कोई उनकी रिपोर्ट करे, तो एक अगुआ के नाते, मैं दूसरों को रास्ता दिखाऊँ कि सभी मिलकर सबक सीखने के लिए खोज करें, और जानूँ कि सैद्धांतिक तरीके से कैसे पेश आना है। लेकिन उस रिपोर्ट के प्रति मेरा रवैया क्या था? उपेक्षा और निष्क्रियता का। सत्य खोजने का मेरा कोई इरादा नहीं था। मेरा ध्यान बस इस पर था कि मैं इसे कैसे संभालूँगी परमेश्वर की इच्छा क्या है, सही मायनों में कर्तव्य निभाना क्या है, ये सब नहीं सोचा। "तुम एक अगुआ हो," "तुम्हारी जिम्मेदारी," "लोगों को नुकसान पहुँचाना," और "बुराई को आसान बनाना" शब्दों ने, मुझे गहराई तक भेदा था। मुझे खुद से पूछना पड़ा : एक अगुआ के नाते, मैंने क्या किया? मैंने उस रिपोर्ट का इस्तेमाल दूसरों के साथ सत्य जानने, समझ हासिल करने, और सबक सीखने के लिए नहीं किया, मैं यह भी नहीं चाहती थी कि दूसरे इस बारे में जानें। मुझे लगा कि उनकी समस्याएँ इतनी ज्यादा थीं कि सबके सामने नहीं रखी जा सकतीं। अब कोई भी उनकी बात नहीं सुनेगा, तो हम काम कैसे करवाएंगे? अब उस बारे में सोचकर, मैं समझ सकती हूँ कि मेरा नजरिया बिल्कुल बेतुका था। अगुआओं की किन समस्याओं को खुली चर्चा के लिए, सबके सामने नहीं रखा जा सकता? वे वर्तमान में उस पद पर हों या उन्हें बर्खास्त किया जा चुका हो, उनके जो भी मसले हों, वे अगुआ या उपयाजक के रूप में सेवा करते रहने लायक हैं या नहीं, ये ऐसी बातें हैं जिनके लिए परमेश्वर के घर में सिद्धांत हैं। अगर हम इस बारे में स्पष्ट रूप से संगति करें, तो भाई-बहन स्वाभाविक रूप से एक निष्कर्ष पर पहुँचेंगे। उनकी रक्षा करने से मुझे क्या मिलेगा? क्या मैं जानबूझकर उनकी निजी समस्याओं को दबा नहीं रही थी, ताकि दूसरों को पता न चले? दरअसल, मैं अगुआओं और उपयाजिकाओं की खुशामद और बचाव कर रही थी। उस रिपोर्ट को खुली चर्चा के लिए सबके सामने लाने से, मेरी कमियों की भरपाई होगी, ताकि मैं और ज्यादा सत्य और विवेक पा सकूँ, अपने काम के सिद्धांतों को समझ सकूँ। पहले मैं नहीं समझी कि मुझे ऐसा करने की क्या जरूरत है, मैं इसे मान ही नहीं पाई। अगुआ की इस अपेक्षा को नहीं समझ सकी। आखिरकार अब मैं समझ सकी कि ऐसा अभ्यास कितना महत्वपूर्ण है। हम सभी के लिए सत्य को समझना और समझ हासिल करना बहुत जरूरी है। आत्मचिंतन करके मैंने जाना कि जब दूसरों ने समस्याओं की रिपोर्ट की, तो एक अगुआ के रूप में, मैंने अगुआओं और उपयाजिकाओं के कार्य की जाँच करने, या समस्याओं का पता लगाकर उन्हें निपटाने की पहल नहीं की। मैं मसले को दबाकर, अपनी धारणाओं और अहंकार के आधार पर काम कर रही थी। यह व्यावहारिक कार्य करना तो था नहीं, बल्कि मैं वास्तव में झूठे अगुआओं और कर्मचारियों को बचा रही थी। भाई-बहनों ने सत्य का अभ्यास करने और वह रिपोर्ट लिखने की हिम्मत दिखाई थी, मगर मैंने एक भी शब्द बोले बिना उसे बस दबा दिया। उन्होंने देखा कि अगुआओं और उपयाजिकाओं की समस्याओं पर उनकी रिपोर्ट से कुछ नहीं हुआ, समस्या वाली अगुआ और उपयाजिकाएं अपने पदों पर रहकर दुष्टता कर सकती थीं, ऐसे तो वे भविष्य में समस्याओं की रिपोर्ट करने की हिम्मत नहीं करेंगे। यकीनन वे सोचेंगे कि तथाकथित अगुआ एक-दूसरे की पीठ बचाते अफसरों जैसे हैं, और सोचेंगे कि परमेश्वर के घर में सत्य का राज नहीं है। मैं धार्मिकता को दबा रही थी, लोगों को सत्य का अभ्यास करने और कलीसिया के कार्य को बनाए रखने से रोक रही थी। मैं सत्य में प्रवेश करने, सत्य का अभ्यास करने, या उन्हें परमेश्वर के सामने लाने में, दूसरों की अगुआई नहीं कर रही थी, बल्कि मैं धार्मिकता का दमन कर रही थी, सत्य का अभ्यास करने के उनके उत्साह को कुचल रही थी, उन्हें सत्य का अभ्यास करने, या अगुआओं की समस्याएँ उजागर करने से डरा रही थी। इससे लोग परमेश्वर और उसके घर को गलत समझने लगे। क्या मैं लोगों को परमेश्वर से दूर और परमेश्वर का त्याग करने के बुरे रास्ते पर नहीं ले जा रही थी? मैंने जितना सोचा, उतना ही लगा कि मैं बाधा पैदा कर, तबाही मचा रही थी। मैं इतनी मूर्ख कैसे हो सकती थी? क्या ऐसा काम एक वास्तविक झूठी अगुआ नहीं करती? अगुआ ने मेरी जो आलोचना की उससे मेरा दिल जान गया कि, मुझे झूठी अगुआ, मसीह-विरोधी कहना, मेरी प्रकृति और सार को, मेरे शैतानी स्वभाव को प्रकाशित करना था। मैं घमंडी थी और मेरे काम में सिद्धांत नहीं थे। मैं झूठे अगुआओं और कर्मचारियों का बचा रही थी, भाई-बहनों के जीवन प्रवेश को रोककर परमेश्वर के घर के कार्य का नुकसान कर रही थी। अगर अगुआ ने समय रहते मुझे उजागर न किया होता, तो मैं दूसरों की रिपोर्ट दबाए रखती, व्यावहारिक कार्य न करने वाले अगुआओं और उपयाजिकाओं को बचाती। परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित माहौल के बारे में सोचकर लगा कि मुझे उस तरह से उजागर करना असल में मुझे बचाना था। यह मेरी भ्रष्टता को शुद्ध कर मुझे बदलने के लिए था। अगर मेरा इस तरह निपटान न किया गया होता, तो मैं समझ नहीं पाती कि मेरा अहंकार कितना गंभीर था। अगर हम अपनी मर्जी से काम करें, अपने काम में सत्य के सिद्धांतों को न खोजें, या परमेश्वर के प्रति श्रद्धापूर्ण दिल न रखें, तो हम लड़खड़ाकर गिर पड़ेंगे। ये समझकर, मैंने न्याय और प्रकाशन के लिए, परमेश्वर का दिल से धन्यवाद किया, मन-ही-मन प्रार्थना की, और प्रायश्चित करने, सत्य का अभ्यास और काम में सिद्धांतों का पालन करने को खुद को छोड़ने के लिए तैयार हो गयी।

इसके बाद जल्दी ही, कलीसिया में एक बहन ने अचानक एक अगुआ बहन शाओ की कुछ समस्याएँ साझा कीं। वह दूसरों से चर्चा किए बिना, सिद्धांतों का पालन किए बिना काम करती थी। जब मैंने इस प्रकार के व्यवहार के बारे में सुना, तो मुझे लगा कि मैंने उसे हाल में पदोन्नत कर अगुआ बनाया था, उसे अभ्यास करते सिर्फ दो महीने हुए थे, दूसरे भाई-बहन उसके बारे में ऊंची राय रखते थे। उन्होंने कहा था कि वह अपने काम में ईमानदार है, मुझे लगा कि वह अपना काम ठीक से करती है, व्यावाहारिक कार्य करती है। क्या बहन शाओ की समस्या कोई ठोस समस्या थी? क्या उसे ज्यादा सहिष्णुता और मदद की जरूरत थी? मेरे लिए यकीन करना बड़ा मुश्किल था कि बहन शाओ इतनी जल्दी एक झूठी अगुआ के रूप में उजागर हो जाएगी। फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। परमेश्वर कहते हैं, "तुम्हारे जीवन अनुभव में, हर मामले की जाँच होनी चाहिए। सभी मामलों पर परमेश्वर के वचन और सत्य के अनुसार पूरी तरह से चिंतन किया जाना चाहिए ताकि तुम यह जान सको कि कैसे उन्हें इस तरह से करना है कि वो परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप हो। अपनी इच्छा से उत्पन्न होने वाली चीज़ें फिर त्यागी जा सकती हैं। तुम जानोगे कि परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चीज़ों को कैसे करें, और फिर तुम जाकर उन्हें करोगे; ऐसा लगेगा कि जैसे हर चीज़ अपना स्वाभाविक रूप ले रही है, और यह अत्यंत आसान प्रतीत होगा। सत्य से युक्त लोग चीज़ों को ऐसे करते हैं। तब तुम वास्तव में दूसरों को दिखा सकोगे कि तुम्हारा स्वभाव बदल गया है, और वे देखेंगे कि तुमने वाकई कुछ अच्छे काम किए हैं, तुम सिद्धांतों के अनुसार काम करते हो, और तुम हर काम सही ढंग से करते हो। ऐसा व्यक्ति वो होता है जो सत्य को समझता है और जिसके पास वास्तव में कुछ मानवीय सदृशता है। निश्चित रूप से, परमेश्वर के वचन ने लोगों में परिणाम हासिल किये हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है')। अभ्यास के सिद्धांतों के बारे में परमेश्वर के वचन बहुत स्पष्ट हैं। हमें अपनी इच्छा के अनुसार काम नहीं करना चाहिए, बल्कि सत्य खोजना चाहिए, चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखना चाहिए, सिद्धांतों के अनुसार चीजों का प्रबंध कर समस्याएँ सुलझानी चाहिए। यह है परमेश्वर की इच्छा का पालन करना। मैंने बहन शाओ का आकलन देखा था, कभी-कभार उसके काम की उससे चर्चा की थी, लेकिन उसके साथ मेरा संपर्क ज्यादा नहीं था, मैं उसे अच्छे से नहीं जानती थी। उसकी रिपोर्ट हुई है, तो मुझे उसे गंभीरता से लेकर उसकी गहरी समझ पानी चाहिए, परमेश्वर के वचनों से उसकी समझ पाकर मामले को सिद्धांत के अनुसार निपटाना चाहिए। मैं आँखें बंद करके अपने फैसले पर नहीं चल सकती। मैंने बहन शाओ को अच्छी तरह जानने वाले कुछ भाई-बहनों से उसका आकलन करने को कहा, जब मैंने देखा कि हर पंक्ति में उसके व्यावहारिक कार्य न करने का जिक्र था, तो मैं फिर एक बार शर्मिंदा हो गई। उसे देखकर हमेशा लगता था कि वह काफी व्यावहारिक है, दरअसल, कर्तव्य के दौरान लोगों पर रौब झाड़ती थी। न वह व्यावहारिक थी, न व्यावहारिक समस्याओं से निपटती थी, वह सिर्फ अपनी सफलताओं की चर्चा करती थी। मुझे लगा था कि वह व्यावहारिक कार्य कर सकती है, मगर तथ्यों ने मेरी आँखें खोल दीं, मुझे लगा जैसे मुझे धोखा दिया गया है। उस पल मैं समझ गई कि मैं असल में किस चीज की बनी थी। मुझमें सत्य की वास्तविकता या दूसरों की समझ नहीं थी। पता भी नहीं चला और मेरा अहंकार सिमट गया। परमेश्वर के ये वचन याद आए : "... भाई-बहनों का यह सीखने में मार्गदर्शन करना चाहिए कि वे अपने दैनिक जीवन में आने वाले लोगों, घटनाओं और चीजों की असलियत कैसे बताएँ, ताकि उन्हें सत्य की समझ प्राप्त हो, वे जान सकें कि उन विभिन्न प्रकार के लोगों से कैसे पेश आएँ जो कलीसिया के कार्य में बाधा डालते और गड़बड़ी करते हैं, यह जान सकें कि सत्य को अमल में कैसे लाएँ और विभिन्न प्रकार के लोगों के प्रति सिद्धांत से कैसे कार्य करें। यह सब तुम्हारी जिम्मेदारी है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'नकली अगुआओं की पहचान करना (20)')। मैंने उन सकारात्मक परिणामों को याद किया जो मुझे पिछली बार इस पर अमल करने पर मिले थे। मुझे पता था किसी समस्या का सामना करने पर हम भाई-बहनों को साथ मिलकर सत्य खोजना, और असल सबक सीखना चाहिए। बाद में, पूरी कलीसिया की एक सभा में, हमने बहन शाओ के व्यवहार की चर्चा की, और सभी लोग परमेश्वर के वचनों के आधार पर मान गए कि वह एक झूठी अगुआ है, जो व्यावहारिक कार्य नहीं करती। कुछ भाई-बहनों को पहले लगा था कि वह थोड़ी काबिल है, लेकिन उन्होंने संगति के जरिए एक अगुआ का काम करने की योग्यता को जाँचने का तरीका जान लिया। उन्होंने समझ लिया कि उत्साही और व्यस्त होना, अगुआ को परखने का मानक नहीं है, मानक यह है कि क्या वह व्यावहारिक कार्य करता है और कलीसिया की असल समस्याएँ सुलझाता है। हमने उसके वास्तविक व्यवहार पर भी थोड़ी चर्चा की, और उसके स्वभाव, सार और उसके मार्ग पर संगति के लिए परमेश्वर के वचनों को जोड़ा। विवेक बढ़ाते समय, सभी इसे एक चेतावनी के रूप में भी ले सकते थे। ऐसा करने से मेरे दिल को बड़ा सुकून मिला, मुझे गहरी समझ मिली कि किसी अगुआ को किस तरह का काम करना चाहिए, ताकि वह सही मायनों में अगुआई कर भाई-बहनों की मदद करे।

पिछले कुछ समय से भाई-बहन, मुझसे अगुआओं की तरह-तरह की समस्याओं की रिपोर्ट कर रहे हैं। इनमें से कुछ वे लोग हैं, जिन्हें मैं कुछ हद तक जानती हूँ, लेकिन मैं अपनी तथाकथित समझ पर भरोसा करके मनमाने ढंग से उनको आंकने, पहले की तरह, अहंकारी होकर अपनी ही बात पर अड़े रहने की हिम्मत नहीं करती। अब मेरा रवैया बहुत बेहतर और मद्धम है। समस्याएँ सामने आने पर अब मैं पहले की तरह बेपरवाह और आश्वस्त नहीं रहती, अब मैं व्यावहारिक समझ हासिल करके इस पर दूसरों से चर्चा कर पाती हूँ, परमेश्वर के वचनों और सिद्धांतों के अनुसार सचेत होकर काम कर पाती हूँ। अगुआ द्वारा निपटान और परमेश्वर के वचनों के न्याय के बिना, मैं कभी भी अपने अहंकार को नहीं समझ पाती, कभी भी खुद को नकार नहीं पाती। एक अगुआ के नाते, न सत्य खोजने के और न हर चीज में सिद्धांतों का पालन करने के महत्व को समझ पाती। इस तरह से हुए मेरे निपटान से मेरे जीवन को बहुत बड़ा लाभ मिला है। परमेश्वर का धन्यवाद!

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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