मूल्यांकन लिखने पर चिंतन
पिछले अप्रैल, मैं कलीसिया के पाठ्य सामग्री कार्य की प्रभारी थी। एक दिन मुझे उच्च अगुआ का पत्र मिला कि मैं अगुआ लियु ली का मूल्यांकन लिखकर तीन दिन में भेज दूँ। मैं अंदाजा लगाने लगी : मुझे लियु ली का मूल्यांकन लिखने को कहा गया है, तो शायद व्यावहारिक कार्य न करने के कारण उसे बर्खास्त करने की योजना है? या हो सकता है कि वह काबिल और विकसित करने लायक हो, लिहाजा उसे तरक्की दी जा रही हो? लियु ली अमूमन अपने कर्तव्य का बोझ उठाती है और समस्याओं को तुरंत प्रभावी तरीके से हल कर पाती है। इतना जरूर है कि वह बहुत निपुण नहीं है, और काम का दबाव बढ़ते ही घबराकर प्राथमिकता तय नहीं कर पाती है। मैं अंदाजा लगाती रही : अगर अगुआ लियु ली को तरक्की देकर विकसित करना चाहती है और मैंने उसकी कुछ ज्यादा ही कमियां गिना दीं, तो कहीं अगुआ यह न कहे कि मुझमें समझ नहीं है और मैं दूसरों के साथ ठीक से पेश नहीं आती? फिर वे मेरे बारे में क्या सोचेंगी? लेकिन अगर उन्होंने लियु ली को बर्खास्त करने की सोची हो और मैंने उसकी खूबियाँ गिना दीं, तो शायद उन्हें लगे कि मुझमें काबिलियत नहीं है, एक सही मूल्यांकन भी नहीं लिख सकती, फिर मैं पाठ्य सामग्री के काम की निगरानी कैसे जारी रख पाऊँगी? उनके मन में मेरी खराब छवि बन जाएगी। यह सोचकर, मैं कुछ भी लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाई।
अगले दिन लियु ली की साथी बहन वांग जी हमारी सभा में आई। मुझे एक उपाय सूझा—उसे टटोलकर थोड़ी जानकारी मिल सकती है। तो मैंने सुराग लेने के लिए पूछा : “इन दिनों तुम हमारे साथ काफी सभाएं कर रही हो। लियु ली क्यों नहीं दिखती? क्या वो बहुत व्यस्त है?” वांग जी ने कहा, “वह दूसरे काम में लगी है।” उसने बहुत धीमी आवाज में जवाब दिया, तो मैंने अनुमान लगाया कि शायद लियु ली को बर्खास्त किया जा रहा है, और उसकी मदद न करने के कारण वांग जी दोषी महसूस कर रही है। मगर मुझे अभी भी यकीन नहीं था, तो मैंने दूसरा सवाल किया : “क्या तुम दोनों अकेले कलीसिया के कार्य की निगरानी अच्छे से संभाल लेती हो?” मैंने उसके हाव-भाव और लहजे पर गौर किया, छोटे-मोटे सुराग पाने की कोशिश की, पर आखिर में कुछ हाथ नहीं लगा। मूल्यांकन की आखिरी तारीख करीब आते देखकर मैं चिंतित हो गई, पर तय नहीं कर पाई कि क्या लिखूँ। आखिर में मैंने कुछ नहीं लिखा, ताकि अगुआ को यह न लगे कि मुझमें समझ ही नहीं है। अगर उन्होंने पूछा, तो कह दूँगी कि उन दिनों मैं बहुत व्यस्त थी, वक्त ही नहीं मिला। इस तरह, मूल्यांकन न लिखकर मैंने मामला टाल दिया। बाद में जब भी मैंने उस बारे में सोचा, तो खुद को दोषी माना। अगुआ ने मुझे लियु ली का मूल्यांकन करने को कहा था, खासकर यह समझने के लिए कि क्या वह व्यावहारिक कार्य करती है, क्या उसका विकास किया जा सकता है। इसका सीधा संबंध कलीसिया के कार्य से था। जो कुछ मैं जानती थी उसके बारे में लिखना बहुत आसान था, तो फिर मैंने इसे क्यों टाला? मैं किस बात से बेबस थी? मैंने प्रार्थना की : “परमेश्वर! मैं उस मूल्यांकन को लेकर कुछ ज्यादा ही सतर्क और दुविधा में थी। मेरी बहुत-सी चिंताएं थीं और मैं सहयोग नहीं करना चाहती थी। मेरी इस समस्या को समझने में मेरा मार्गदर्शन करो।”
अपनी भक्ति में मैंने यह अंश पढ़ा। “मसीह-विरोधी परमेश्वर के प्रति अंधे होते हैं, उनके हृदय में उसके लिए कोई स्थान नहीं होता। मसीह से सामना होने पर वे उसे एक साधारण व्यक्ति से अलग नहीं मानते, लगातार उसकी अभिव्यक्ति और स्वर से संकेत लेते रहते हैं, स्थिति के अनुरूप अपनी धुन बदल लेते हैं, कभी नहीं कहते कि वास्तव में क्या हो रहा है, कभी कुछ ईमानदारी से नहीं कहते, केवल खोखले शब्द और सिद्धांत बोलते हैं, अपनी आँखों के सामने खड़े वास्तविक परमेश्वर को धोखा देने और उसकी आँखों में धूल झोंकने की कोशिश करते हैं। वे परमेश्वर से जरा भी नहीं डरते। वे परमेश्वर के साथ दिल से बात करने, कुछ भी वास्तविक कहने में पूर्णतया असमर्थ रहते हैं। वे ऐसे बात करते हैं जैसे एक साँप रेंगता है, लहरदार और टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता चुनते हुए। उनके शब्दों का अंदाज और दिशा किसी खंभे पर चढ़ती खरबूजे की बेल की तरह होते हैं। उदाहरण के लिए, जब तुम कहते हो कि किसी में भरपूर योग्यता है और उसे आगे बढ़ाया जा सकता है, तो वे फौरन बताने लगते हैं कि वे कितने अच्छे हैं, और उनमें क्या अभिव्यक्त और उजागर होता है; और अगर तुम लोग कहते हो कि कोई बुरा है, तो वे यह कहने में देर नहीं लगाते कि वे कितने बुरे और दुष्ट हैं, और वे किस तरह कलीसिया में उत्पात मचाते और व्यवधान पैदा करते रहते हैं। जब तुम लोग किसी चीज के बारे में सच्चाई जानना चाहते हो, तो उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं होता; वे टालमटोल करते रहते हैं और इंतजार करते हैं कि तुम खुद ही कोई निष्कर्ष निकाल लो, वे तुम्हारे शब्दों का अर्थ टटोलते हैं, ताकि वे तुमसे वह कह सकें जो तुम सुनना चाहते हो। वे जो कुछ भी कहते हैं वह सिर्फ चापलूसी, चमचागीरी और निचले दर्जे की चाटुकारिता होती है; उनके मुंह से सत्य का एक शब्द भी नहीं निकलता। लोगों के साथ वे ऐसे बातचीत करते हैं और परमेश्वर के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं—इतने धोखेबाज हैं वे। यह मसीह-विरोधी का स्वभाव है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुले आम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग दो))। परमेश्वर के वचन खुलासा करते हैं कि मसीह का सामना होने पर मसीह-विरोधी चालें चलने लगते हैं। वे खुशामद और चिकनी-चुपड़ी बातें करते हैं और मसीह की हाव-भाव से संकेत लेते हैं। वे मसीह के सामने सच नहीं बोलते; धोखा देने और दिखावा करने में माहिर होते हैं। वे बेहद धूर्त और बुरे होते हैं, और परमेश्वर से घृणा करते हैं। हालांकि मैं मसीह का सामना नहीं कर रही थी, पर एक मसीह-विरोधी जैसा ही बर्ताव कर रही थी, वैसा ही स्वभाव दिखा रही थी। अगुआ ने कलीसिया कार्य की जरूरतों के मुताबिक मुझे लियु ली का मूल्यांकन लिखने को कहा था। वह कोई मुश्किल काम नहीं था। मुझे बस सच्चाई से वही सब लिखना था जो मैं जानती थी, और जो भी समझती थी उसे ठीक से और निष्पक्ष ढंग से बताना था। मगर मैंने अगुआ के इरादों के बारे में अंदाजा लगाकर चीजों को मुश्किल बना दिया, इस डर से कि अगर मैंने ठीक से न लिखा तो उन्हें लगेगा कि मुझे समझ नहीं है, और वे मुझे नीची नजर से देखेंगी। अपनी छवि बचाने और उनके दिल में अपनी जगह बनाये रखने के लिए, मैंने अपनी बहनों की फिक्र करने की आड़ में उनके इरादे भाँपने को चाल चली। अगर वे लियु ली को तरक्की देना चाहती थीं, तो मैं खूबियाँ ज्यादा गिना देती। अगर वे उसे बर्खास्त करना चाहती थीं, तो मैं अगुआ की नजरों में चढ़ने के लिए लियु ली की कमियों के बारे में ज्यादा लिखती। मैं तथ्यों या सिद्धांतों के आधार पर मूल्यांकन करने की कोशिश नहीं कर रही थी, मैं अगुआ के इरादे भाँपने के लिए वांग जी की प्रतिक्रिया देख रही थी। मैं किसी मसीह-विरोधी जैसा धूर्त और कपटी स्वभाव दिखा रही थी! अगुआ के इरादे जानने के लिए, मैंने वांग जी से कुछ सवाल पूछकर सुराग लेना चाहा। मैं किसी गरिमा या चरित्र के बिना एक नीच इंसान जैसी थी। दरअसल, हर किसी में खूबियाँ और कमियाँ होती हैं, और हमें तथ्यों के अनुसार निष्पक्ष और सही मूल्यांकन लिखना चाहिए। अगर मैंने किसी बुरे इंसान के बारे में सकारात्मक मूल्यांकन लिखा, और फिर अगुआ ने गलत निर्णय ले लिया, तो मैं कलीसिया के कार्य में बाधा बनकर कुकर्म करूंगी, परमेश्वर का विरोध करूंगी। अगर मैंने किसी ऐसे इंसान के बारे में खराब मूल्यांकन लिखा जो सत्य का अनुसरण करता है, तो यह अनुचित होगा और उसे भारी नुकसान हो सकता है। अगर मेरे गलत मूल्यांकन के कारण लियु ली का तबादला होता है या उसे बर्खास्त किया जाता है, तो मैं कुकर्म करूंगी और यकीनन परमेश्वर को नाराज करूंगी। मैंने परमेश्वर के वचनों को याद किया : “ईमानदारी का अर्थ है अपना हृदय परमेश्वर को अर्पित करना; हर बात में उसके साथ सच्चाई से पेश आना; हर बात में उसके साथ खुलापन रखना, कभी तथ्यों को न छुपाना; अपने से ऊपर और नीचे वालों को कभी भी धोखा न देना, और मात्र परमेश्वर की चापलूसी करने के लिए चीज़ें न करना। संक्षेप में, ईमानदार होने का अर्थ है अपने कार्यों और शब्दों में शुद्धता रखना, न तो परमेश्वर को और न ही इंसान को धोखा देना” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ)। परमेश्वर हमसे बहुत ज्यादा अपेक्षा नहीं रखता है। वह बस यही चाहता है कि हम अपनी कथनी-करनी में बेबाक रहें, सीधी-सच्ची बात कहें, और ऐसे निष्पक्ष और ईमानदार लोग बनें जो न धोखा देते हों, न चीजें छिपाते हों। मूल्यांकन में हमें बस साफदिल होना चाहिए, जो पता हो वही लिखना चाहिए, और लोगों से निष्पक्ष ढंग से पेश आना चाहिए। मगर मैं वह भी नहीं कर पाई। अगुआ को यह जानना था कि मैं किसी के बारे में क्या सोचती हूँ, पर उन्हें मैंने एक भी सच्ची बात नहीं बताई। हमेशा चालें चलना और कपट करना ईमानदार इंसान का बर्ताव हरगिज नहीं है। यह एहसास होने पर मुझे खुद से नफरत हो गई।
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा। “परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना क्या है? उदाहरण के लिए, जब तुम किसी का मूल्यांकन करते हो—यह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने से संबंधित है। तुम उनका मूल्यांकन कैसे करते हो? (हमें ईमानदार, न्यायपूर्ण और निष्पक्ष होना चाहिए और हमारे शब्द भावनाओं पर आधारित नहीं होने चाहिए।) जब तुम ठीक वही कहते हो जो तुम सोचते हो, और ठीक वही कहते हो जो तुमने देखा है, तो तुम ईमानदार होते हो। और सबसे बढ़कर, ईमानदार होने के अभ्यास का अर्थ है परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करना। परमेश्वर लोगों को यही सिखाता है; यह परमेश्वर का मार्ग है। परमेश्वर का मार्ग क्या है? परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना। क्या ईमानदार होना परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का हिस्सा है? और क्या यह परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करना है? (हाँ।) अगर तुम ईमानदार नहीं हो, तो तुमने जो देखा है और जो तुम सोचते हो, वह वो नहीं होता जो तुम्हारे मुँह से निकलता है। कोई तुमसे पूछता है, ‘उस व्यक्ति के बारे में तुम्हारी क्या राय है? क्या वह कलीसिया के कार्य की जिम्मेदारी लेता है?’ और तुम उत्तर देते हो, ‘वह बहुत अच्छा है, वह मुझसे भी अधिक जिम्मेदारी लेता है, उसकी क्षमता मुझसे भी बेहतर है, और वह परिपक्व और स्थिर है।’ लेकिन तुम अपने दिल में क्या सोच रहे होते हो? तुम वास्तव में यह सोच रहे होते हो कि भले ही उस व्यक्ति में क्षमता है, लेकिन वह भरोसे के लायक नहीं है, और चालाक और बहुत हिसाब-किताब करने वाला है। अपने मन में तुम वास्तव में यही सोच रहे होते हो, लेकिन जब बोलने का समय आता है, तो तुम्हारे मन में आता है कि, ‘मैं सच नहीं बोल सकता, मुझे किसी को ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए,’ इसलिए तुम जल्दी से कुछ और कह देते हो, तुम उसके बारे में कहने के लिए अच्छी बातें चुनते हो, और तुम जो कुछ भी कहते हो, वह वास्तव में वह नहीं होता जो तुम सोचते हो, वह सब झूठ और पाखंड होता है। क्या यह दर्शाता है कि तुम परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करते हो? नहीं। तुमने शैतान का मार्ग अपनाया है, राक्षसों का मार्ग अपनाया है। परमेश्वर का मार्ग क्या है? यह सत्य है, लोगों के व्यवहार का आधार है, परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का तरीका है। हालाँकि तुम किसी अन्य व्यक्ति से बात कर रहे हो, लेकिन परमेश्वर भी सुनता है, तुम्हारा दिल देख रहा है, और तुम्हारे दिल की जाँच करता है। लोग वह सुनते हैं जो तुम कहते हो, पर परमेश्वर तुम्हारा दिल जाँचता है। क्या लोग इंसान के दिल की जाँच करने में सक्षम हैं? ज्यादा से ज्यादा, लोग यह देख सकते हैं कि तुम सच नहीं बोल रहे। वे वही देख सकते हैं, जो सतह पर होता है। केवल परमेश्वर ही तुम्हारे दिल की गहराई में देख सकता है, केवल परमेश्वर ही देख सकता है कि तुम क्या सोच रहे हो, क्या योजना बना रहे हो, तुम्हारे दिल में कौन-सी छोटी योजनाएँ, कौन-से कपटी तरीके, कौन-से कुटिल विचार हैं। और यह देखकर कि तुम सच नहीं बोल रहे, परमेश्वर तुम्हारे बारे में क्या राय बनाता है, वह तुम्हारा क्या मूल्यांकन करता है? यही कि ऐसा करके तुमने परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण नहीं किया, क्योंकि तुमने सच नहीं बोला” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि मूल्यांकन लिखते समय हम परमेश्वर का भय मानना और उसकी जांच को स्वीकारना चाहिए। इस तरह हम सतर्क रहेंगे और ऐसा करते हुए परमेश्वर का सामना करेंगे, इस डर से कि अगर हमारा इरादा गलत होगा तो हम गलत और पक्षपातपूर्ण मूल्यांकन लिखेंगे और परमेश्वर को नाराज करेंगे। मूल्यांकन लिखते समय हमें प्रार्थना करके सत्य के सिद्धांत खोजने पर ध्यान देना चाहिए, कोई मंशा रखे बिना उस व्यक्ति के बारे में सही तरीके से अपनी सच्ची समझ और नजरिया साझा करना चाहिए। हमें हर बात बिना लीपापोती किए कहनी चाहिए। यह परमेश्वर का भय मानने का संकेत है। मगर जो परमेश्वर का भय नहीं मानते, वे मनमाने ढंग से बोलते और काम करते हैं, कभी-कभी वही कहते हैं जिससे उन्हें फायदा मिलता हो, या हकीकत को घुमा-फिराकर तथ्यों को तोड़-मरोड़ते हैं। वे बहुत कपटी स्वभाव वाले होते हैं। वे अविश्वासियों जैसा बर्ताव करते हैं और भरोसे लायक नहीं होते हैं। उस मूल्यांकन से मैं उजागर हो गई। बरसों की आस्था के बाद भी, मेरे इरादे धूर्त थे, मैं देखना चाहती थी कि हवा का रुख किधर है, सिर्फ अपने फायदे की बात कहना चाहती थी। परमेश्वर का भय बिल्कुल नहीं मानती थी। मैं बहुत धूर्त थी, जिससे परमेश्वर को नफरत है। यह एहसास होने पर मुझे लगा कि इस तरह काम करते रहना खतरनाक है, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करके खुद को जानने और रास्ता दिखाने में मदद करने को कहा।
उसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। “असली बुराई क्या है? प्रकट होने पर कौन-सी अवस्थाएँ बुरी होती हैं? जब लोग अपने दिल की गहराइयों में छिपे बुरे और शर्मनाक इरादे छिपाने के लिए प्रभावशाली लगने वाले कथनों का उपयोग करते हैं और फिर दूसरों को यह विश्वास दिलाते हैं कि ये कथन बहुत अच्छे, ईमानदार और वैध हैं, और अंततः अपने गुप्त मकसद हासिल कर लेते हैं, तो क्या यह एक बुरा स्वभाव है? इसे बुरा क्यों कहा जाता है और कपट करना क्यों नहीं कहा जाता? स्वभाव और सार के अनुसार कपट उतना बुरा नहीं होता। बुरा होना कपटी होने से ज्यादा गंभीर है, यह एक ऐसा व्यवहार है जो कपट से ज्यादा घातक और खराब है, और औसत व्यक्ति के लिए इसे समझना मुश्किल है। उदाहरण के लिए, साँप ने हव्वा को लुभाने के लिए किस तरह के शब्दों का इस्तेमाल किया? दिखावटी शब्द, जो सुनने में सही लगते हैं और तुम्हारी भलाई के लिए कहे गए प्रतीत होते हैं। तुम नहीं जानते कि इन शब्दों में कुछ गलत है या इनके पीछे कोई द्वेषपूर्ण मंशा है, और साथ ही, तुम शैतान द्वारा दिए गए इन सुझावों को छोड़ने में असमर्थ रहते हो। यह प्रलोभन है। जब तुम प्रलोभन में पड़ते हो और इस तरह के शब्द सुनते हो, तो तुम प्रलोभन में आए बिना नहीं रह पाते और तुम्हारे जाल में फँसने की संभावना है, जिससे शैतान का लक्ष्य पूरा हो जाएगा। इसे ही बुराई कहा जाता है। साँप ने हव्वा को लुभाने के लिए इसी तरीके का इस्तेमाल किया था। क्या यह एक प्रकार का स्वभाव है? (हाँ।) इस प्रकार का स्वभाव कहाँ से आता है? यह साँप और शैतान से आता है। इस प्रकार का बुरा स्वभाव मनुष्य की प्रकृति के भीतर मौजूद है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य के अनुसरण में केवल आत्म-ज्ञान ही सहायक है)। परमेश्वर कहता है कि जब लोग समझदार दिखते हैं, पर दिल में कपट रखते हैं और अपने छिपे मंसूबे पूरे करने के लिए चिकनी-चुपड़ी बातें करते हैं, तो यह सिर्फ कपटी होना नहीं, बल्कि दुष्ट स्वभाव है। ऐसे इंसान से परमेश्वर सबसे अधिक घृणा करता है। अगुआ की स्वीकृति और सम्मान पाने के लिए मैंने मूल्यांकन लिखते समय उनके इरादे का अंदाजा लगाया, उनके साथ तालमेल बिठाकर चलना चाहा, उनकी टोह लेने के लिए लियु ली के लिए झूठी चिंता जाहिर की, पूछा कि कहीं वह काम में व्यस्त तो नहीं, क्योंकि मैंने कुछ दिनों से उसे नहीं देखा था, उनका काम ठीक-ठाक चल रहा है या नहीं, वगैरह। मैंने यह भी जानने की कोशिश की कि वहां क्या कुछ चल रहा है, वह कलीसिया में रहेगी या जाएगी। ऊपर से लगता था कि मैं उसके बारे में सोच रही हूँ, उसकी परवाह कर रही हूँ, पर मेरे शब्द कपट से भरे थे और मैं बिल्कुल भी सच्ची नहीं थी। मैं बहुत कपटी और बुरी थी। मेरे बोलने की प्रकृति उस साँप के जैसी थी जिसने चिकनी-चुपड़ी और गुमराह करने वाली बातों से हव्वा को ज्ञान का फल खाने के लिए ललचाया। मैं अपनी कथनी और करनी में धूर्त थी, दूसरों को धोखा देती और खिलवाड़ करती थी। मैं बहुत दुष्ट थी। अगर मैं नहीं बदली, तो अपनी बातों से पाप करूंगी, परमेश्वर को नाराज कर उसके स्वभाव का अपमान करूंगी। इसका एहसास होने पर मैंने प्रार्थना की, पश्चात्ताप कर बदलना चाहा, दुष्ट स्वभाव से न जीने की कामना की।
बाद में, मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े जिनसे मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “मेरे राज्य को उन लोगों की ज़रूरत है जो ईमानदार हैं, उन लोगों की जो पाखंडी और धोखेबाज़ नहीं हैं। क्या सच्चे और ईमानदार लोग दुनिया में अलोकप्रिय नहीं हैं? मैं ठीक विपरीत हूँ। ईमानदार लोगों का मेरे पास आना स्वीकार्य है; इस तरह के व्यक्ति से मुझे प्रसन्नता होती है, और मुझे इस तरह के व्यक्ति की ज़रूरत भी है। ठीक यही तो मेरी धार्मिकता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 33)। “ईमानदार व्यक्ति होना मनुष्य से परमेश्वर की एक अपेक्षा है। यह एक सत्य है, जिसका मनुष्य को अभ्यास करना चाहिए। तो, वे कौन-से सिद्धांत हैं जिनका मनुष्य को परमेश्वर के साथ व्यवहार करते समय पालन करना चाहिए? ईमानदार रहो : यही वह सिद्धांत है, जिसका परमेश्वर के साथ बातचीत करते समय पालन किया जाना चाहिए। चापलूसी या खुशामद करने की अविश्वासियों की प्रथा में संलग्न न हो; परमेश्वर को मनुष्य की खुशामद या चापलूसी की आवश्यकता नहीं है। ईमानदार होना ही पर्याप्त है। और ईमानदार होने का क्या मतलब है? इसे अभ्यास में कैसे लाया जाना चाहिए? (बस कोई दिखावा किए बिना या कुछ छिपाए बिना या कोई रहस्य रखे बिना परमेश्वर के सामने खुलना, परमेश्वर से सच्चे दिल से मिलना, और बिना किसी छल या फरेब के स्पष्टवादी होना।) यह सही है। ईमानदार होने के लिए तुम लोगों को पहले अपनी निजी इच्छाओं को एक तरफ रखना होगा। यह ध्यान देने की बजाय कि परमेश्वर तुम्हारे साथ किस तरह का व्यवहार करता है, जो कुछ तुम्हारे दिल में है वह कह दो, और इस बात की चिंता या परवाह न करो कि तुम्हारे शब्दों का क्या परिणाम होगा; जो कुछ तुम सोच रहे हो वह कह दो, अपनी मंशाओं को एक तरफ रख दो, और बस किसी मकसद को हासिल करने के लिए शब्दों को मत कहो। जब तुम्हारे अनेक व्यक्तिगत इरादे और दूषणकारी विचार होते हैं, तो तुम हमेशा यह सोचते हुए तोलकर बातें करते हो कि ‘मुझे इस बारे में बात करनी चाहिए, उस बारे में नहीं, मैं जो कहता हूँ उसके बारे में सावधान रहना चाहिए। मैं इसे उस तरह कहूँगा जिससे मुझे फायदा हो और जो मेरी कमियाँ ढक दे, और परमेश्वर पर अच्छा प्रभाव छोड़े।’ क्या तुम्हारे पास प्रेरणाएँ नहीं हैं? मुँह खोलने से पहले तुम्हारा दिमाग कुटिल विचारों से भरा होता है, तुम जो कहना चाहते हो उसे कई बार संशोधित करते हो, जिससे जब शब्द तुम्हारे मुँह से निकलते हैं तो वे इतने शुद्ध नहीं होते, और जरा भी वास्तविक नहीं होते, और उनमें तुम्हारे अपने इरादे और शैतान के षड्यंत्र शामिल होते हैं। यह ईमानदार होना नहीं है; यह कुटिल मंशाएँ और बुरे इरादे रखना है। और तो और, जब तुम बात करते हो, तो तुम हमेशा परमेश्वर के चेहरे के भावों और उसकी आँखों के रुख से अपने संकेत लेते हो : अगर उसके चेहरे पर सकारात्मक अभिव्यक्ति होती है, तो तुम बात करते रहते हो; अगर नहीं, तो तुम बात दबा लेते हो और कुछ नहीं कहते; अगर परमेश्वर की आँखों का रुख खराब होता है, और अगर ऐसा लगता है कि उसे वह पसंद नहीं है जो वह सुन रहा है, तो तुम इसके बारे में सोचते हो और मन में कहते हो, ‘ठीक है, मैं कुछ ऐसा कहूँगा जो तुम्हें रुचिकर लगे, जो तुम्हें खुश कर दे, जिसे तुम पसंद करोगे, और जो तुम्हें मेरे अनुकूल बना दे।’ क्या यह ईमानदार होना है? यह ईमानदार होना नहीं है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुले आम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग दो))। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि उसे ईमानदार लोग पसंद हैं। ईमानदार लोग सरल-सहज बात करते हैं, वे परमेश्वर और अन्य लोगों के साथ छल-कपट के बिना बेबाकी से बोलते हैं। वे हर बात साफ-साफ और सीधे तौर पर बोलते हैं। एक सामान्य इंसान को ऐसा ही होना चाहिए। मैंने देखा कि बहुत-से भाई-बहन ईमानदार इंसान बनने का प्रयास कर रहे थे। जब वे किसी को सत्य के सिद्धांतों का उल्लंघन करते देखते, तो संगति कर उनकी मदद या काट-छांट करते थे। वे निष्कपट बनकर एक-दूसरे की मदद और सहयोग करते थे। वे सभाओं की संगति में खुलकर बोलते और काफी आजाद रहते थे। मैं उनकी प्रशंसा करती थी, खुद भी परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार ईमानदार इंसान बनना चाहती थी। भले ही मैं कुछ बातें न समझूँ और मेरे कुछ विचार गलत हों, पर कम से कम मन में कोई कपट नहीं होना चाहिए, और इरादे सही होने चाहिए। यही बात सबसे अहम है। इसे समझकर मेरा दिल रोशन हो गया और अभ्यास के मार्ग की साफ समझ मिल गई।
जल्दी ही, मैंने एक दूसरी अगुआ बहन चेन शाओ का मूल्यांकन लिखा। मैंने सोचा : “मैं उसे अच्छी तरह नहीं जानती। अगर मैंने उसका स्पष्ट मूल्यांकन नहीं किया, तो क्या उच्च अगुआ कहेंगे कि मुझमें समझ नहीं है और मुझे नीची नजर से देखेंगे? शायद मुझे उसकी खूबियों के बारे में ज्यादा लिखना चाहिए?” यह सोचने पर एहसास हुआ कि मैं फिर से चालबाजी की कोशिश कर रही हूँ। मूल्यांकन कोई मामूली चीज नहीं है—इनसे किसी की तरक्की और बर्खास्तगी पर असर होगा। इस बारे में झूठ बोलने से परमेश्वर नाराज होता है। मैं अपने निजी हितों के आधार पर नहीं लिख सकती, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना कर खुद की इच्छाओं का त्याग किया। मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा। “अपनी प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए तुम इतना घुमा-फिराकर बोलते हो और अपने हर शब्द पर बहुत सोच-विचार करते हो। तुम्हारा जीवन वास्तव में थका देने वाला है! अगर तुम इस तरह जीते हो, तो क्या परमेश्वर प्रसन्न होगा? धोखेबाज लोग वे होते हैं, जिनसे परमेश्वर सबसे ज्यादा नफरत करता है। अगर तुम शैतान का प्रभाव दूर करना और बचाए जाना चाहते हो, तो तुम्हें सत्य स्वीकारना चाहिए। तुम्हें ईमानदार व्यक्ति होने, सच्ची और वास्तविक बातें कहने, भावनाओं से विवश न होने, खुद को ढोंग और छल से मुक्त करने और सिद्धांतों के साथ बोलने और कार्य करने से शुरुआत करनी चाहिए। इस तरह जीना आजाद और सुखी होना है, और तुम परमेश्वर के सामने जीने में सक्षम होते हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य का अभ्यास करके ही व्यक्ति भ्रष्ट स्वभाव की बेड़ियाँ तोड़ सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। मैं अपनी इज्ज़त और रुतबे को बचाने के लिए बेईमान नहीं बन सकती। यह एक सच्चा इंसान बनना नहीं है। परमेश्वर हमसे ईमानदार बनने की अपेक्षा करता है, हमें सच्चा इंसान बनना चाहिए, सिर्फ अपनी इज्ज़त और रुतबे के बारे में नहीं सोचना चाहिए। मैं जो कुछ जानती थी, वही लिखना था, जिसकी समझ नहीं थी उसे छोड़ देना था, यह फिक्र नहीं करनी थी कि दूसरे क्या सोचेंगे। मैंने पूरी निष्पक्षता से, तथ्यों के अनुरूप चेन शाओ के बारे में अपनी समझ लिखी और उसे भेज दिया। ऐसा करके मुझे काफी सुकून और शांति मिली। उसके मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?