कर्तव्य निभाने का प्रतिफल

17 अक्टूबर, 2020

यांग मिंगझेंग, कनाडा

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण असली और सही अर्थों में वास्तविक होना चाहिए। सतही तौर पर समर्पण करके परमेश्वर की प्रशंसा नहीं पायी जा सकती, अपने स्वभाव में बदलाव का प्रयास किए बिना परमेश्वर के वचन के मात्र सतही पहलू का पालन करके परमेश्वर के हृदय को प्रसन्न नहीं किया जा सकता। परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता और परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण एक ही बात है। जो लोग केवल परमेश्वर के प्रति समर्पित होते हैं लेकिन उसके कार्य के प्रति समर्पित नहीं होते, उन्हें आज्ञाकारी नहीं माना जा सकता, और उन्हें तो बिल्कुल नहीं माना जा सकता जो सचमुच समर्पण न करके, सतही तौर पर चापलूस होते हैं। जो लोग सचमुच परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं वे सभी कार्य से लाभ प्राप्त करने और परमेश्वर के स्वभाव और कार्य की समझ प्राप्त करने में समर्थ होते हैं। ऐसे ही लोग वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं। ऐसे लोग नए कार्य से नया ज्ञान प्राप्त करते हैं और नए कार्य से उनमें बदलाव आता है। ऐसे लोग ही परमेश्वर की प्रशंसा पाते हैं, पूर्ण बनते हैं, और उनके स्वभाव का रूपांतरण होता है। जो लोग खुशी से परमेश्वर के प्रति, उसके वचन और कार्य के प्रति समर्पित होते हैं, वही परमेश्वर की प्रशंसा पाते हैं। ऐसे लोग ही सही मार्ग पर हैं; ऐसे लोग ही ईमानदारी से परमेश्वर की कामना करते हैं और ईमानदारी से परमेश्वर की खोज करते हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सच्चे हृदय से परमेश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं वे निश्चित रूप से परमेश्वर द्वारा हासिल किए जाएँगे)। इन वचनों को पढ़कर, मुझे परमेश्वर के प्रति अपने समर्पण के अनुभव की याद आ गयी।

यह सब मार्च 2016 में शुरू हुआ जब सीसीपी द्वारा गिरफ़्तारी और उत्पीड़न से बचने के लिए मैं चीन से भाग निकली, ताकि मैं अपनी आस्था पर आज़ादी से अमल कर सकूं। कुछ वक्त बाद, कलीसिया की अगुआ बहन झांग ने मेरे पास आकर पूछा, "क्या तुम सिंचन का काम संभालना चाहती हो?" बहुत खुश होकर मैंने कहा, "ये तो बहुत बढ़िया रहेगा! सत्य को समझने और सही तरीके से एक नींव स्थापित करने में, मैं भाई-बहनों की मदद कर सकूंगी। मैं ऐसे अच्छे कर्म करूंगी!" अगर मेरे परिचित भाई-बहनों को पता चला कि मैं सिंचन का कार्य कर रही हूँ, तो वे सच में मेरी तारीफ़ और मेरा आदर करेंगे। इससे मैं एक बहुत अच्छी इंसान दिखाई दूंगी। मैं उम्मीदों के पुल बाँध ही रही थी कि अगुआ मुझसे बात करने के लिए दोबारा आयीं। उन्होंने बताया कि किसी आपात स्थिति के कारण कुछ बहनों को वहां से जाना पड़ रहा है, मगर उन्हें उचित स्थान नहीं मिल पाया है। फिर कहा कि उनके लिए मेरा घर ठीक रहेगा, और पूछा कि क्या मैं मेहमाननवाज़ी का काम कर सकूंगी। उनकी बात सुनकर मेरे अंदर उथल-पुथल मच गयी। मैंने सोचा था कि मैं सिंचन का कार्य करूंगी, मगर अब मुझे मेहमाननवाज़ी का काम करना है? क्या मैं अपना सारा वक्त सिर्फ रसोई में नहीं बिताऊंगी? कड़ी मेहनत करनी होगी, मगर उससे भी ज़्यादा ये मेरे लिए शर्म की बात होगी! बाहर, मैं बड़ा व्यवसाय चलाती थी और मेरा अपना कारखाना था। दोस्त और रिश्तेदार, सब मुझे सुपरवूमन कहते थे। घर पर कपड़े धोने, खाना बनाने और सफाई करने के लिए नैनी थी। अब मुझे वह भूमिका निभानी होगी और दूसरों के लिए खाना बनाना पड़ेगा। मैं यह काम बिल्कुल भी नहीं करना चाहती थी। मगर तब मैंने सोचा कि बहनों के रहने के लिए कोई जगह नहीं है और वे शांति से अपना कर्तव्य नहीं निभा सकती हैं, इसके अलावा मेरा घर मेहमाननवाज़ी के लिए उपयुक्त था, तो मैं इच्छा न होने पर भी मान गयी।

अगले कुछ दिन तक मैं मेहमाननवाज़ी का काम ऊपर-ऊपर से करती रही, लेकिन मेरे अंदर तूफ़ान उमड़ा हुआ था, तब मुझे संदेह होने लगा। क्या मेरे भाई-बहन समझते हैं कि मैं सिंचन-कार्य के लिए उपयुक्त नहीं हूँ? वरना वे मुझसे मेहमाननवाज़ी क्यों करवाते? जब मेरे परिचित भाई-बहनों को पता चलेगा, तो क्या वे कहेंगे कि मुझमें सत्य की वास्तविकता की कमी है, और मैं दूसरे कर्तव्य नहीं निभा सकती, बस सिर्फ मेहमाननवाज़ी ही कर सकती हूँ? इस ख्याल ने मुझे और भी ज़्यादा परेशान कर दिया। तब मैंने परमेश्वर के सामने किये अपने संकल्प को याद किया, कि मुझे कोई भी काम दिया जाए, जब तक उससे कलीसिया के काम को फ़ायदा पहुंचता है, मैं उसे शत-प्रतिशत करूंगी, और भले ही वो काम मुझे पसंद न हो, मैं परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अवश्य समर्पण करूंगी। फिर आज जब मुझसे मेहमाननवाज़ी का काम करने को कहा जा रहा है, तो मैं समर्पण क्यों नहीं कर पा रही हूँ? मैंने परमेश्वर से एक मौन प्रार्थना की। मैंने कहा, "हे परमेश्वर, तुमने आदेश देकर व्यवस्था की है कि मुझे मेहमाननवाज़ी का काम करना है। लेकिन मुझे हमेशा विद्रोह करने का मन होता है और इस तरह मैं कभी समर्पण नहीं कर पाऊँगी। हे परमेश्वर, मुझे प्रबुद्ध करो और रास्ता दिखाओ, ताकि मैं तुम्हारी इच्छा को समझ सकूं।"

बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े : "यह मापने में कि लोग परमेश्वर की आज्ञा का पालन कर सकते हैं या नहीं, मुख्य बात यह देखना है कि वे परमेश्वर से असाधारण माँगें कर रहे हैं या नहीं, और उनके गुप्त अभिप्राय हैं या नहीं। अगर लोग हमेशा परमेश्वर से माँगें करते हैं, तो यह साबित करता है कि वे उसके आज्ञाकारी नहीं हैं। तुम्हारे साथ चाहे जो भी हो, यदि तुम इसे परमेश्वर से प्राप्त नहीं कर सकते, सत्य की तलाश नहीं कर सकते, हमेशा अपने व्यक्तिपरक तर्क से बात करते हो और हमेशा यह महसूस करते हो कि केवल तुम ही सही हो, और यहाँ तक कि अभी भी परमेश्वर पर संदेह करने में सक्षम हो, तो तुम मुश्किल में रहोगे। ऐसे लोग सबसे घमंडी एवं परमेश्वर के प्रति विद्रोही होते हैं। जो लोग हमेशा परमेश्वर से माँगते रहते हैं, वे कभी सच में आज्ञापालन नहीं कर सकते। अगर तुम परमेश्वर से माँग करते हो, तो इससे साबित होता है कि तुम उससे सौदा कर रहे हो, तुम अपने ही विचार चुन रहे हो, और अपने विचारों के अनुसार ही कार्य कर रहे हो। इसमें तुम परमेश्वर को धोखा देते हो, और तुममें आज्ञाकारिता नहीं है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं')। "सच्चा समर्पण क्या है? जब कभी भी परमेश्वर ऐसी चीज़ें करता है जो तुम्हारे अनुरूप चली जाती हैं, और तुम्हें ऐसा महसूस होता है कि सब कुछ संतोषजनक और उचित है, और तुम्हें भीड़ से अलग खड़े होने दिया गया है, तुम्हें यह सब काफी गौरवशाली लगता है और तुम कहते हो, 'परमेश्वर को धन्यवाद' और उसके आयोजनों एवं व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित हो पाते हो। हालांकि, जब कभी भी तुम्हें मामूली जगह पर तैनात कर दिया जता है, जहाँ तुम दूसरों से अलग दिखने में अक्षम होते हो, और जिसमें कोई भी कभी तुम्हें अभिस्वीकृत नहीं करता, तो तुम खुश नहीं रहते और समर्पण करना तुम्हें कठिन लगता है। ... जब परिस्थितियां अनुकूल हों, तब समर्पण करना आम तौर पर आसान होता है। अगर तुम प्रतिकूल परिस्थितियों में भी समर्पण दिखा सकते हो—उन मामलों में जहां चीज़ें तुम्हारे अनुकूल नहीं हो रही हैं और जब तुम्हारी भावनाओं को ठेस पहुँचती है, जो तुम्हें कमजोर करते हैं, जो तुम्हें शारीरिक रूप से तकलीफ़ देते हैं और तुम्हारी प्रतिष्ठा को आघात पहुंचाते हैं, जो तुम्हारे मिथ्याभिमान और गौरव को संतुष्ट नहीं कर पाते है, और जो तुम्हें मानसिक रूप से कष्ट पहुंचाते हैं—तब सही मायनों में तुम्हारे पास आध्यात्मिक कद है। क्या यह वही लक्ष्य नहीं है जिसका तुम्हें अनुसरण करना चाहिये? अगर तुम्हारे पास ऐसी प्रेरणा, ऐसा लक्ष्य है, तो उम्मीद बाकी है" (परमेश्‍वर की संगति)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे दिखाया कि सच्चा समर्पण एक सौदा नहीं है और इसमें निजी पसंद का कोई स्थान नहीं होता। मुझे पसंद हो या न हो, मुझे फ़ायदा हो या न हो, अगर यह परमेश्वर का आदेश है और कलीसिया के काम में मददगार है, तो मुझे पूरे दिल से समर्पण करना चाहिए। लेकिन ऐसा न करके, मैं क्या कर रही थी? जब मुझे मेहमाननवाज़ी का कर्तव्य निभाने को कहा गया, तो मेरे मन में परमेश्वर की इच्छा का ख्याल या कलीसिया के कार्य का मान रखने की बात नहीं थी, बल्कि इसके बदले मैं बस यही सोच रही थी कि दूसरों से आदर पाने के लिए, मैं दिखावा कर पाऊँगी या नहीं, और मेरे अभिमान को संतुष्टि मिलेगी या नहीं। यह परमेश्वर के प्रति समर्पण कैसे हो सकता था? मैंने उन दिनों को याद किया जब मैं एक समूह की अगुआ थी। कलीसिया की अगुआ कलीसिया के कार्य के बारे में हमेशा सबसे पहले मुझसे संगति करती थीं। मैं सोचा करती थी कि अगुआ मेरे बारे में ऊंची राय रखती हैं, और मेरे भाई-बहन मुझे आदर से देखते हैं। मेरे कर्तव्य में कोई भी प्रयास बहुत बड़ा नहीं लगता था, और काम कितना भी मुश्किल और थकाने वाला क्यों न हो, उसे करने में मुझे खुशी होती थी। लेकिन मेहमाननवाज़ी का काम सामने देख कर मैं नकारात्मक हो गयी, यह सोच कर कि ये निचले दर्जे का काम है। इससे भी अहम यह था कि चाहे जितनी मेहनत करूं, मेरा प्रयास दूसरों को नज़र ही नहीं आयेगा। इसी वजह से मुझे यह काम पसंद नहीं था और मैं इसे नहीं करना चाहती थी। इसी मोड़ पर मैंने देखा कि मैं अपने पिछले काम में सिर्फ़ इसलिए इतनी ज़्यादा मेहनत करती थी क्योंकि मैं दिखावा कर सकती थी और दूसरों से आदर पा सकती थी। लेकिन मेहमाननवाज़ी का काम, मेरी महत्वाकांक्षा को किसी भी तरह से संतुष्ट नहीं कर पाता, इसलिए मैं समर्पण नहीं कर पा रही थी। तब मैंने महसूस किया कि मैं हमेशा से अपने कर्तव्य में निजी पसंद और विकल्पों को तरजीह देती थी, अपनी शोहरत, रुतबे और मुझे उससे होने वाले फायदे के सिवाय कुछ नहीं सोचती थी। मैं न तो सत्य का अनुसरण कर रही थी और न ही परमेश्वर के प्रति समर्पण!

फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "जो लोग सत्य को व्यवहार में लाने में सक्षम हैं, वे अपने कार्यों में परमेश्वर की जाँच को स्वीकार कर सकते हैं। जब तुम परमेश्वर की जाँच को स्वीकार करते हो, तो तुम्हें गलती का एहसास होता है। यदि तुम हमेशा दूसरों को दिखाने के लिए ही काम करते हो और परमेश्वर की जाँच को स्वीकार नहीं करते, तो क्या तुम्हारे हृदय में परमेश्वर है? इस तरह के लोगों के हृदय में परमेश्वर के प्रति श्रद्धा नहीं होती। हमेशा अपने लिए कार्य मत कर, हमेशा अपने हितों की मत सोच, और अपनी स्वयं की हैसियत, प्रतिष्ठा और साख पर विचार मत कर। इंसान के हितों पर गौर मत कर। तुझे सबसे पहले परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना चाहिए और उसे अपनी पहली प्राथमिकता बनाना चाहिए। तुझे परमेश्वर की इच्छा के बारे में मननशील होना चाहिए, इस पर चिंतन करने के द्वारा आरंभ कर कि तू अपने कर्तव्य को पूरा करने में अशुद्ध रहा है या नहीं, क्या तूने वफादार होने के लिए अपना अधिकतम किया है, क्या अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करने के लिए अपना सर्वोत्तम प्रयास किया है और अपना सर्वस्व दिया है, साथ ही क्या तूने अपने कर्तव्य, और परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति पूरे दिल से विचार किया है। तुझे इन चीज़ों के बारे में विचार करने की आवश्यकता है। इन चीज़ों पर बार-बार विचार कर, और तू आसानी से अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभा पाएगा"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों में मुझे अभ्यास का एक रास्ता मिला। मुझे अपने कर्तव्य में परमेश्वर की जांच-पड़ताल को स्वीकार करना होगा, और परमेश्वर का भय मानने वाला दिल रखना होगा, निजी लाभ को छोड़ने के काबिल बनना होगा और वह सब करना होगा जिससे कलीसिया को लाभ पहुंचे। परमेश्वर की इच्छा को समझने के बाद, मैंने यह प्रार्थना की : "हे परमेश्वर, मैं तुम्हारी जांच-पड़ताल को स्वीकार करने के लिए तैयार हूँ। अब मैं इस पर ध्यान नहीं दूंगी कि दूसरे मेरे बारे में क्या सोचते हैं। मैं तुम्हारी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होकर अपना मेहमाननवाज़ी का काम ठीक तरह से करना चाहती हूँ।" फिर कुछ दिनों में, कलीसिया की मेरी बहनों को पता चल गया कि मैं इस परदेस में अभी-अभी आयी हूँ और यहाँ चीज़ें खरीदना मेरे लिए मुश्किल है, तो ज़रूरी चीज़ें खरीदने के लिए उन्होंने मेरे साथ बाज़ार जाने का वक्त निकाला। वे अपने कर्तव्यों में सचमुच व्यस्त रहती थीं, मगर मौक़ा मिलने पर वे घर के काम में मेरा हाथ बंटाती थीं। जब कभी मुझे कोई दिक्कत पेश आती, वे परमेश्वर के वचनों के बारे में मुझसे संगति करतीं, मेरी मदद और सहायता करने के लिए खुद के अनुभवों के बारे में भी संगति करतीं। मेहमाननवाज़ी करने वाली होने के कारण कोई भी बहन मुझे नीची नज़र से नहीं देखती या मुझसे दूरी नहीं रखती थी। मैं यह समझ पायी कि भाई-बहनों के बीच कर्तव्य को लेकर ऊंच-नीच, छोटा-बड़ा जैसा कुछ भी नहीं है। हम बस परमेश्वर के आगे अपने कर्तव्य और दायित्व निभाते हैं। इस अनुभव के बाद, मुझे लगा कि मैं अपने कर्तव्य में थोड़ा समर्पण कर पा रही हूँ, मगर अपनी प्रकृति और सार की वास्तविक समझ न होने के कारण, मैं अभी भी शोहरत और रुतबे के पीछे भागने की इच्छा को छोड़ नहीं पायी थी। जब एक ऐसी स्थिति आयी जो मुझे नापसंद थी, तो मैं फिर से बेनकाब हो गयी।

कुछ वक्त बाद, कलीसिया की अगुआ ने मुझे यह कह कर बुलाया कि बहन झाऊ सुसमाचार के प्रचार में बहुत व्यस्त है, और मुझसे पूछा कि क्या हर शनिवार बहन झाऊ की नन्ही बेटी की देखभाल के लिए मैं आधा दिन दे सकती हूँ। मेरे मन में शिशुओं की देखभाल के इस ख्याल को लेकर विरोध पैदा हो गया। मैं अपने व्यवसाय में इतनी व्यस्त रहती थी कि अपने खुद के बच्चों की देखभाल भी नहीं कर पाती थी। दूसरों के बच्चों की देखभाल का काम करूंगी तो मैं नैनी जैसी बन जाऊंगी। मेरे परिचित भाई-बहनों को अगर पता चल गया तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? मैं अपनी शक्ल कैसे दिखाऊंगी? लेकिन मैंने बहन झाऊ की असल दिक्कतों के बारे में सोचा, और मुझे लगा कि मैंने मदद नहीं की, तो मेरी अंतरात्मा मुझे कोसेगी। मैंने कुछ देर इस बारे में सोचा और फिर राज़ी हो गयी। उस शनिवार की दोपहर, मैं बहन झाऊ के घर गयी। अभी शाम हुई भी नहीं थी कि बच्चे ने अपनी माँ के लिए रोना-चिल्लाना शुरू कर दिया, और मैं उसे चुप नहीं करा सकी। मैं उसे खुश करने की कोशिश में चारों तरफ बिस्कुट-चॉकलेट ढूँढ़ने लगी, मैंने उसे कहानियाँ सुनायीं और उसके लिए कार्टून फ़िल्में लगायीं, फिर किसी तरह उसने रोना बंद किया। लौटते वक्त मैं चलते हुए सोचने लगी : "बच्चों की देखभाल करना बड़ा मुश्किल काम है। यह थकाऊ ही नहीं, निहायत निचले दर्जे का काम है और इस पर किसी का ध्यान तक नहीं जाता।" मैंने जितना ज़्यादा सोचा, उतनी ही तक़लीफ़ हुई। घर पहुँचने के बाद, मैंने देखा कि बहनें अपने कर्तव्यों से मिले प्रतिफलों और अनुभवों के बारे में खुशी-खुशी चर्चा कर रही थीं। मुझे ईर्ष्या हुई और निराशा भी। मैंने सोचा, "अपनी इन बहनों की तरह मैं कब सिंचन का कर्तव्य निभा पाऊँगी? अभी जो काम मैं कर रही हूँ, उसमें या तो मैं बर्तन माँज रही हूँ या नन्हे शिशुओं की देखभाल कर रही हूँ। यह काम करके मैं कौन-सा सत्य पा सकती हूँ? क्या लोग ये कहेंगे कि मुझमें सत्य की वास्तविकता नहीं है, इसलिए मैं ऐसे निचले दर्जे के काम के ही काबिल हूँ?" इस सोच ने मुझे और ज़्यादा परेशान कर दिया। उस रात, मैं बिस्तर पर पड़ी करवट बदलती रही, आँखों में नींद ही नहीं थी, तो मैं परमेश्वर के आगे प्रार्थना करने चली गयी। मैंने कहा, "हे परमेश्वर, इस वक्त मैं बहुत परेशान हूँ। मैं हमेशा ऐसा कर्तव्य करना चाहती हूँ जिससे मैं अलग दिखूं, दूसरे मेरा आदर करें। हे परमेश्वर, मुझे मालूम है कि यह लक्ष्य तुम्हारी इच्छा के विपरीत है, लेकिन समर्पण करना मेरे लिए बहुत मुश्किल है। हे परमेश्वर, मेरा मार्गदर्शन करो, मेरी अगुआई करो, और खुद को जानने में मेरी मदद करो, ताकि मैं इस गलत सोच को पीछे छोड़ सकूं।"

तब मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : "मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव उसके हर कार्य के पीछे के इरादों के भीतर, उसके हर सोच-विचार के भीतर छुपा होता है; यह हर उस दृष्टिकोण में छिपा होता है जो मनुष्य किसी चीज़ के बारे में रखता है, यह उस हर राय, समझ, दृष्टिकोण और इच्छा के भीतर छिपा होता है जो वह परमेश्वर के हर कार्य के प्रति रखता है। यह इन बातों के भीतर छिपा है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'केवल वास्तव में आज्ञाकारी होना ही एक यथार्थ विश्वास है')। "भ्रष्ट शैतानी स्वभाव लोगों में बहुत गहराई तक जड़ जमाए हुए है; यह उनका जीवन बन जाता है। लोग ठीक-ठीक क्या खोजते और पाना चाहते हैं? भ्रष्ट शैतानी स्वभाव की संचालक शक्ति के प्रभाव में लोगों के आदर्श, आशाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, जीवन-लक्ष्य और दिशाएँ क्या हैं? क्या वे सकारात्मक चीज़ों के विपरीत नहीं चलते? अव्वल तो लोग हमेशा प्रसिद्धि पाना चाहते हैं या मशहूर हस्तियाँ बनना चाहते हैं; वे बहुत प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा पाना चाहते हैं, और अपने पूर्वजों का सम्मान बढ़ाना चाहते हैं। क्या ये सकारात्मक चीज़ें हैं? ये सकारात्मक चीज़ों के अनुरूप बिलकुल भी नहीं हैं; यही नहीं, ये मनुष्यजाति की नियति पर परमेश्वर का प्रभुत्व रखने वाली व्यवस्था के विरुद्ध हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? परमेश्वर किस प्रकार का व्यक्ति चाहता है? क्या वह ऐसा व्यक्ति चाहता है, जो महान हो, मशहूर हो, अभिजात हो, या संसार को हिला देने वाला हो? (नहीं।) तो फिर परमेश्वर को किस प्रकार का व्यक्ति चाहिए? उसे ऐसा व्यक्ति चाहिए, जिसके पैर दृढ़ता से ज़मीन पर रखे हों, जो परमेश्वर का एक योग्य प्राणी बनना चाहता हो, जो एक प्राणी का कर्तव्य निभा सकता हो, और जो इंसान बना रह सकता हो। ... तो एक भ्रष्ट शैतानी स्वभाव लोगों के लिए क्या ले आता है? (परमेश्वर का विरोध।) जो लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं, उन्हें क्या होती है? (पीड़ा।) पीड़ा? नहीं पीड़ा नहीं बल्कि उनका विनाश होता है! पीड़ा तो इसकी आधी भी नहीं है। जो तुम अपनी आँखों के सामने देखते हो वो पीड़ा, नकारात्मकता, और दुर्बलता है, और यह विरोध और कष्ट है—ये चीज़ें क्या परिणाम लेकर आएँगी? सर्वनाश! यह कोई तुच्छ बात नहीं और यह कोई खिलवाड़ नहीं है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'सत्‍य की खोज करके और परमेश्‍वर पर निर्भर रहकर ही भ्रष्‍ट स्‍वभावों से मुक्त हुआ जा सकता है')। परमेश्वर के न्याय और प्रकाशन के वचनों को पढ़ने के बाद मैंने बड़ी शर्मिंदगी महसूस की। मैंने आत्मचिंतन शुरू किया : "परमेश्वर जिन हालात की व्यवस्था करता है, मैं उनके प्रति कभी समर्पण क्यों नहीं कर पाती? मैं ऐसे मामूली लगने वाले काम करने को कभी तैयार क्यों नहीं हो पाती? मुझे लगता है कि ये काम करने पर दूसरे मुझे नीची नज़रों से देखते हैं, मानो मैं हीन हूँ। मैं अपना सिर ऊंचा नहीं रख सकती और निकम्मा बेकार महसूस करती हूँ। मुझे लगता है कि सिर्फ वे अहम कार्य जिनमें मैं अलग दिख सकूं, दूसरों से तारीफ़ और इज़्ज़त पा सकूं, असल में करने लायक हैं।" इस सोच पर आत्मचिंतन करते हुए मैंने जाना कि मैं अब भी शोहरत और रुतबे की आकांक्षा के काबू में हूँ। मैं ऐसे शैतानी ज़हर के मुताबिक़ जी रही हूँ, "जैसे एक पेड़ अपनी छाल के लिए जीता है, उसी तरह एक मनुष्य अपनी इज्ज़त के लिए जीता है," "एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है" और "आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है।" इस तरह के ज़हर बहुत पहले ही मेरे अंदर घर कर गये थे और मेरी प्रकृति बन गए थे। इसने मुझे बहुत अहंकारी और दंभी बना दिया था। दूसरों को अपना आदर करते देख मुझे खुशी होती थी। शोहरत और रुतबा पाना मुझे बहुत अच्छा लगता था, और इन चीज़ों को अपने जीवन का लक्ष्य मान कर उनके पीछे भाग रही थी। मैंने महसूस किया कि ठीक इन्हीं लक्ष्यों के पीछे दुनिया के तमाम लोग भाग रहे हैं। परमेश्वर में विश्वास करने से पहले, मैं होड़ में लगी रहती थी। सुबह से शाम तक काम करती और अपने कारखाने को ठीक से चलाने की कोशिश में काम से थक कर चूर हो जाती। जब कभी मैं अपने गाँव जाती, मेरे दोस्त और रिश्तेदार गर्मजोशी से मेरा स्वागत करते और मुझे सुपरवूमन बुलाते, तो मेरा अभिमान तृप्त होता, और मैं इसके लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार रहती। आस्था पाने के बाद भी मैं इसी सोच में जी रही थी। शोहरत और पद के लिए अपना कर्तव्य करने से मुझे नफा-नुकसान की फ़िक्र होने लगी। जिस ओहदे का लोग आदर करें, उससे मैं खुश होती। उस ओहदे के बगैर, जब मैं सब से अलग नहीं दिख पाती तो नकारात्मक और नाखुश हो जाती, परमेश्वर का विरोध करती, और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित हालात का विरोध करती। मैं इस बारे में जितना सोचती, उतना ही ज़्यादा महसूस करती कि इस शैतानी ज़हर ने मुझे बस दुख ही दिया है, परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने और खुद की बजाय उसकी अवज्ञा करने को उकसाया है। अगर मैं ऐसे लक्ष्य के साथ चलती रही, तो यकीनन परमेश्वर मुझसे घृणा करेगा और मुझे हटा देगा। इस बारे में मैंने जितना ज़्यादा सोचा, मुझे उतना ही डर उस रास्ते के बारे में लगा जिस पर मैं चल रही थी। मैं फ़ौरन परमेश्वर से प्रार्थना करने और प्रायश्चित करने पहुँच गयी। अब मैं न तो शोहरत और रुतबे के पीछे भागना चाहती थी और न ही चाहती थी कि दूसरे मुझे आदर से देखें, बल्कि मैं चाहती थी कि परमेश्वर के वचनों के अनुरूप एक सच्चा सृजित प्राणी बनने का प्रयास करूं। प्रार्थना करने के बाद मेरे दिल को सुकून मिला।

अगले दिन अपनी धर्मिक सेवा में, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो और परमेश्वर का अनुसरण करते हो, और इसलिए अपने ह्रदय में तुम्हें परमेश्वर से प्रेम करना ही चाहिए। तुम्हें अपना भ्रष्ट स्वभाव जरूर छोड़ देना चाहिए, तुम्हें परमेश्वर की इच्छा की पूर्ति की खोज अवश्य करनी चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर के सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना ही चाहिए। चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास और परमेश्वर का अनुसरण करते हो, तुम्हें अपना सर्वस्व उसे अर्पित कर देना चाहिए, और व्यक्तिगत चुनाव या माँगें नहीं करनी चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर की इच्छा की पूर्ति करनी चाहिए। चूँकि तुम्हें सृजित किया गया था, इसलिए तुम्हें उस प्रभु का आज्ञापालन करना चाहिए जिसने तुम्हें सृजित किया, क्योंकि तुम्हारा स्वयं अपने ऊपर स्वाभाविक कोई प्रभुत्व नहीं है, और स्वयं अपनी नियति को नियंत्रित करने की क्षमता नहीं है। चूँकि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर में विश्वास करता है, इसलिए तुम्हें पवित्रता और परिवर्तन की खोज करनी चाहिए। चूँकि तुम परमेश्वर के सृजित प्राणी हो, इसलिए तुम्हें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए, और अपनी स्थिति के अनुरूप व्यवहार करना चाहिए, और तुम्हें अपने कर्तव्य का अतिक्रमण कदापि नहीं करना चाहिए। यह तुम्हें सिद्धांत के माध्यम से बाध्य करने, या तुम्हें दबाने के लिए नहीं है, बल्कि इसके बजाय यह वह पथ है जिसके माध्यम तुम अपने कर्तव्य का निर्वहन कर सकते हो, और यह उन सभी के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है—और प्राप्त किया जाना चाहिए—जो धार्मिकता का पालन करते हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है)। परमेश्वर के वचनों को पढ़ कर मैं समझ पायी कि एक सृजित प्राणी के रूप में मुझे परमेश्वर के शासन और व्यवस्थाओं के आगे समर्पण करना चाहिए। मुझे सत्य का अनुसरण करने और अपने स्वभाव में परिवर्तन लाने की कोशिश करनी चाहिए। यही मेरा कर्तव्य है और मुझे इसी का अनुसरण करना चाहिए। मुझे परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित किये गए हालात पसंद नहीं थे, लेकिन इसके पीछे परमेश्वर के नेक इरादे थे। उसने मुझे शुद्ध कर परिवर्तित करने के लिए सोच-समझ कर इस तरह की व्यवस्था की थी। मैं अब शोहरत और ओहदे के पीछे नहीं भाग सकती थी, या अपने कर्तव्य में मीन-मेख नहीं निकाल सकती थी। मुझे सत्य के अनुसरण पर ध्यान देना चाहिए, अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करने के लिए परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना चाहिए। मुझे अपने कर्तव्य को ठीक ढंग से निभाने की भरसक कोशिश करनी चाहिए।

इसके बाद के दिनों में, मैंने इस पर ध्यान नहीं दिया कि लोग मेरे बारे में क्या सोचते हैं, बल्कि परमेश्वर के सामने अपना कर्तव्य निभाया। कभी-कभार जब भाई-बहन अपने कर्तव्यों में व्यस्त होते और उनके पास बच्चों की देखभाल के लिए वक्त न होता, तो मैं मदद का हाथ बढ़ाती। जब मैंने भाई-बहनों को सुसमाचार का प्रचार करते और ज़्यादा लोगों को परमेश्वर के सामने लाते देखा, तो दिल में खुशी महसूस की। हालांकि मैं अपने कर्तव्य में अलग नहीं दिख पा रही थी, मगर मैं भाई-बहनों को सुख-चैन दे रही थी और राज्य के सुसमाचार के विस्तार में शांति से अपनी भूमिका अदा कर रही थी। यह सार्थक भी था। मेहमाननवाज़ी का काम करते और बच्चों की देखभाल में मदद करते वक्त, भले ही मान और प्रतिष्ठा की आकांक्षा संतुष्ट नहीं हो पायी, मुझे इसका बहुत अच्छा प्रतिफल मिला। मैं जान गयी कि शोहरत और ओहदे के पीछे भागना सही नहीं है। परमेश्वर के शासन और व्यवस्थाओं के आगे समर्पण करना और अपने कर्तव्य में भरसक मेहनत करना ही मेरा लक्ष्य होना चाहिए। मैंने वाकई यह समझ लिया कि परमेश्वर के घर के कर्तव्यों में सच में कुछ भी ऊंचा या नीचा नहीं होता। मैं चाहे जो भी कर्तव्य निभाऊं, हमेशा कुछ न कुछ सीखने को होता है, अभ्यास और प्रवेश के लिए सत्य होता है। अगर मैं समर्पण कर सत्य का अनुसरण करूंगी तो मुझे इसका प्रतिफल अवश्य मिलेगा। इससे मुझे समझ आया कि परमेश्वर कितना धार्मिक है और कैसे वह किसी का पक्ष नहीं लेता। इस छोटी-सी समझ और बदलाव का आना मेरे जीवन में परमेश्वर का एक बड़ा वरदान है। परमेश्वर का धन्यवाद!

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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