कठिनाइयों में समर्पण करना सीखना
मुझे याद है 2008 में, जब मेरा बेटा छह साल का था तो एक दिन, मेरी नज़र उसके कान के पीछे बनी गाँठ पर पड़ी। जब जाँच के लिए उसे अस्पताल ले गयी तो डॉक्टर ने बताया कि ये ट्यूमर है, एक खास तरह का ट्यूमर जो हड्डियों को खराब कर देता है। उस वक्त ये मेरे बेटे की जान के लिए खतरा नहीं था मगर इसका कोई असरदार इलाज भी नहीं था, उन्होंने बताया कि ये काफ़ी तकलीफ़ देगा क्योंकि हर बार सूजन बढ़ने पर, खराब हुई हड्डी को निकालने के लिए मेरे बेटे को सर्जरी की ज़रूरत पड़ेगी। वरना, ये उसके लिए जानलेवा बन सकता है। डॉक्टर की बात सुनकर मैं हैरान रह गयी। मैं टूट गयी थी। मैं तब हाल ही में विश्वासी बनी थी और मुझे लगा कि अब चूँकि मैं परमेश्वर में विश्वास करती हूँ, तो उसे मेरा सहारा बनना चाहिए। मैंने कोशिश की कि मैं अपनी आस्था में दृढ़ रहूँ। मेरा मानना था कि जब तक परमेश्वर पर मेरा विश्वास बना रहेगा, मेरा बेटा ज़रूर ठीक होगा। मेरे बेटे की सर्जरी कामयाब रही और वो काफ़ी जल्दी ठीक भी हो गया। ऑपरेशन के तीन दिन बाद ही वह फिर से दौड़ने लगा और फ़िर एक हफ्ते बाद उसे अस्पताल से छुट्टी मिल गयी। इससे मुझे अपनी आस्था पर दृढ़ रहने की प्रेरणा मिली। मैंने खुशी-खुशी कलीसिया का हर काम स्वीकार किया, चाहे धूप हो या बरसात, मैंने हमेशा अपना कर्तव्य निभाया। मेरे परिवार को मुझसे शिकायत तो थी ही, मेरे करीबी भी मेरे पीठ पीछे बातें करते थे, मगर मैंने उनकी बातें दिल पर नहीं लीं। मुझे लगता था कि जब तक मैं कड़ी मेहनत करूँगी और खुद को खपाती रहूँगी, परमेश्वर यकीनन मुझे आशीष देगा।
फ़िर एक दिन, मेरा बेटा मेरे पास आकर कहने लगा, उसकी कमर में दर्द हो रहा है। उसके चेहरे पर तकलीफ़ देखकर मुझे कुछ बुरे की आशंका हुई। जैसे ही मैंने उसकी शर्ट ऊपर की, मैंने देखा कि जहाँ उसे दर्द था वहाँ एक गाँठ बन रहा था। उसे छूते ही वो दर्द से रोने लगा मैं समझ गयी कि उसकी हालत फिर से बिगड़ रही है। मैं फ़ौरन उसे लेकर अस्पताल पहुँची। जाँच से पता चला कि उसकी बीमारी वापस आ गयी है। मुझे वो पल याद आने लगा जब पहली बार उसकी सर्जरी हुई थी और उसके शरीर में ट्यूब लगे थे। वो कमज़ोर लग रहा था और मैं बहुत दुखी थी। मुझे ये सोचकर ही डर लग रहा था कि इस बार उसे कितना दर्द सहना पड़ेगा। इतनी कम उम्र में बेटे की इस तकलीफ़ के बारे में सोचकर मैं बहुत परेशान हो जाती, मेरा खाना-पीना या सोना तक मुश्किल हो गया था। दिल चाहता था कि उसकी बीमारी मुझे हो जाये और सारी तकलीफ़ मुझे सहनी पड़े। मैं समझ ही नहीं पा रही थी कि विश्वासी बनने से लेकर अब तक परमेश्वर के लिए इतनी मेहनत करने के बावजूद, आखिर उसने मेरे परिवार की रक्षा क्यों नहीं की। उसी दिन हमारी गाँव की एक बहन मुझसे मिलने आयी और उसकी सहभागिता से मुझे एहसास हुआ कि मेरे बेटे का बीमार पड़ना परमेश्वर की इच्छा का परिणाम था। मुझे परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए उसी पर आश्रित रहना था, मुझे परमेश्वर की गवाही देनी थी, अपनी आस्था पर भरोसा करना था और मजबूती से अपने कर्तव्य का निर्वहन करना था। मैंने सभाओं में जाना जारी रखा और मैं और भी अधिक निष्ठा से अपने कर्तव्य का निर्वहन करने लगी। सभाओं में मैंने इस अनुभव को भाई-बहनों के साथ साझा किया। उन्होंने मेरी निष्ठा की सराहना की। उनसे अपनी प्रशंसा सुनकर, मुझे इस बात का और ज्यादा विश्वास हो गया कि मैं परमेश्वर की गवाही दे रही हूँ और वह निश्चित रूप से मेरे बेटे को आशीष देगा।
मेरे बेटे की बीमारी पाँचवी बार उभरकर सामने आयी, तब डॉक्टर ने कहा कि उसके शरीर में बहुत सी गाँठें बन रही हैं, करीब हर छह महीने में एक बार, और अगर ऐसा जारी रहा तो ये उसके लिए जानलेवा होगा। उन्होंने मेरे बेटे के लिए कीमोथेरेपी और रेडिएशन लेने की सलाह दी ताकि कुछ मदद हो सके। ये सुनकर, मैं पूरी तरह से टूट गयी। मेरा दुख इतना बढ़ चुका था कि मैं परमेश्वर से तर्क करने लगी : "चाहे धूप हो या बरसात, मैंने हर दिन कड़ी मेहनत की, लोगों की किसी भी तरह की आलोचना या हमले के बावजूद, मैंने कभी तुम्हें को अस्वीकार नहीं किया। मैंने अपना कर्तव्य निभाना जारी रखा। फिर तुम मेरे बेटे की रक्षा क्यों नहीं कर रहे?" मेरा दुख बहुत बढ़ चुका था। मैंने सभा में जाकर अपना कर्तव्य निभाना जारी रखा, मगर मेरा मन परमेश्वर से दूर होता जा रहा था। मैं अक्सर परमेश्वर के वचनों की किताब को हाथ में पकड़े, आसमान की ओर टकटकी लगाये देखती रहती। मैं बहुत अधिक तकलीफ़ में थी। मैंने अपने मन की बात परमेश्वर से कही : "हे परमेश्वर, मैं अभी बहुत तकलीफ़ में हूँ। मैं जानती हूँ कि अपने बेटे के स्वास्थ्य की समस्याओं के लिए तुम्हें दोषी नहीं ठहराना चाहिए, मगर मैं न तो तुम्हारी इच्छा समझ पा रही हूँ और न ही मेरे पास इसका सामना करने का कोई तरीका है। परमेश्वर, मुझे राह दिखाओ ताकि मैं तुम्हारी इच्छा को समझ सकूँ।" प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के इन वचनों को याद किया: "मान लो कि अय्यूब द्वारा उसकी गवाही देने के बाद परमेश्वर अय्यूब को ख़त्म देता : तब भी परमेश्वर धार्मिक होता।" फिर मेरी नज़र फ़ौरन परमेश्वर के वचनों के इस भजन पर पड़ी: "धार्मिकता किसी भी तरह से न्यासंगत या तर्कसंगत नहीं होती; यह समतावाद नहीं है, या तुम्हारे द्वारा पूरे किए गए काम के अनुसार तुम्हें तुम्हारे हक़ का हिस्सा आवंटित करने, या तुमने जो भी काम किया हो उसके बदले भुगतान करने, या तुम्हारे किए प्रयास के अनुसार तुम्हारा देय चुकाने का मामला नहीं है। यह धार्मिकता नहीं है। मान लो कि अय्यूब द्वारा उसकी गवाही देने के बाद परमेश्वर अय्यूब को ख़त्म देता : तब भी परमेश्वर धार्मिक होता। इसे धार्मिकता क्यों कहा जाता है? मानवीय दृष्टिकोण से, अगर कोई चीज़ लोगों की धारणाओं के अनुरूप होती है, तब उनके लिए यह कहना बहुत आसान हो जाता है कि परमेश्वर धार्मिक है; परंतु, अगर वे उस चीज़ को अपनी धारणाओं के अनुरूप नहीं पाते—अगर यह कुछ ऐसा है जिसे वे बूझ नहीं पाते—तो उनके लिए यह कहना मुश्किल होगा कि परमेश्वर धार्मिक है। परमेश्वर का सार धार्मिकता है। यद्यपि वह जो करता है उसे बूझना आसान नहीं है, तब भी वह जो कुछ भी करता है वह सब धार्मिक है; बात सिर्फ़ इतनी है कि लोग समझते नहीं हैं। जब परमेश्वर ने पतरस को शैतान के सुपुर्द कर दिया था, तब पतरस की प्रतिक्रिया क्या थी? 'तुम जो भी करते हो उसकी थाह तो मनुष्य नहीं पा सकता, लेकिन तुम जो भी करते हो उस सब में तुम्हारी सदिच्छा समाई है; उस सब में धार्मिकता है। यह कैसे सम्भव है कि मैं तुम्हारे बुद्धिमान कर्मों की सराहना न करूँ?' वह सब जो परमेश्वर करता है धार्मिक है। हालाँकि वह तुम्हारे लिए अज्ञेय हो सकता है, तब भी तुम्हें मनमाने ढंग से फ़ैसले नहीं करने चाहिए। अगर तुम्हें उसका कोई कृत्य अतर्कसंगत प्रतीत होता है, या उसके बारे में तुम्हारी कोई धारणाएँ हैं, और उसकी वजह से तुम कहते हो कि वह धार्मिक नहीं है, तब तुम सर्वाधिक अतर्कसंगत हो रहे हो। पतरस ने पाया कि कुछ चीज़ें अबूझ थीं, लेकिन उसे पक्का विश्वास था कि परमेश्वर की बुद्धिमता विद्यमान थी और उन चीजों में उसकी इच्छा थी। मनुष्य हर चीज़ की थाह नहीं पा सकते; इतनी सारी चीज़ें हैं जिन्हें वे समझ नहीं सकते। परमेश्वर के स्वभाव को जानना आसान बात नहीं है"("मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ" में 'परमेश्वर जो भी करता है वह धार्मिक होता है')। परमेश्वर के वचनों पर बार-बार विचार करने के बाद, मेरा दिल रोशन हो गया। परमेश्वर की धार्मिकता वैसी निष्पक्ष और न्यायसंगत या भेदभावहीन नहीं थी जैसी कि मैं सोचती थी, और न ही यह अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित होने या कड़ी मेहनत करने पर हमें होने वाली क्षतिपूर्ति पर आधारित थी। परमेश्वर के कर्म इंसान की सोच के परे हैं, परमेश्वर इंसान के साथ जो भी या जैसे भी करता है, वो सब कुछ धार्मिक है। इन सब में परमेश्वर की बुद्धि निहित है। ऐसा इसलिए क्योंकि उसका सार धार्मिक है। मुझे एहसास हुआ कि मैं परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को नहीं समझती। मेरी धारणा यह थी, क्योंकि मैं परमेश्वर में विश्वास करती हूँ, तो उसे मेरी रक्षा करनी चाहिए; क्योंकि मैंने परमेश्वर के लिए खुद को खपाया, तो उसे हर तरह से मुझे परिपूर्ण करना चाहिए और मेरे रास्ते की सभी रुकावटें हटा देनी चाहिए। मुझे लगा, क्योंकि मैं परमेश्वर में विश्वास करती हूँ, तो मेरे पूरे परिवार को आशीष मिलेगी। क्या मैं परमेश्वर के साथ सौदेबाज़ी करने की कोशिश नहीं कर रही थी?
ऐसा ख्याल आते ही, मैंने अपनी परमेश्वर के वचनों की किताब खोलकर ये अंश पढ़ा : "तुम परमेश्वर में विश्वास करने के बाद शांति प्राप्त करना चाहते हो—ताकि अपनी संतान को बीमारी से दूर रख सको, अपने पति के लिए एक अच्छी नौकरी पा सको, अपने बेटे के लिए एक अच्छी पत्नी और अपनी बेटी के लिए एक अच्छा पति पा सको, अपने बैल और घोड़े से जमीन की अच्छी जुताई कर पाने की क्षमता और अपनी फसलों के लिए साल भर अच्छा मौसम पा सको। तुम यही सब पाने की कामना करते हो। तुम्हारा लक्ष्य केवल सुखी जीवन बिताना है, तुम्हारे परिवार में कोई दुर्घटना न हो, आँधी-तूफान तुम्हारे पास से होकर गुजर जाएँ, धूल-मिट्टी तुम्हारे चेहरे को छू भी न पाए, तुम्हारे परिवार की फसलें बाढ़ में न बह जाएं, तुम किसी भी विपत्ति से प्रभावित न हो सको, तुम परमेश्वर के आलिंगन में रहो, एक आरामदायक घरौंदे में रहो। तुम जैसा डरपोक इंसान, जो हमेशा दैहिक सुख के पीछे भागता है—क्या तुम्हारे अंदर एक दिल है, क्या तुम्हारे अंदर एक आत्मा है? क्या तुम एक पशु नहीं हो? मैं बदले में बिना कुछ मांगे तुम्हें एक सत्य मार्ग देता हूँ, फिर भी तुम उसका अनुसरण नहीं करते। क्या तुम उनमें से एक हो जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं? मैं तुम्हें एक सच्चा मानवीय जीवन देता हूँ, फिर भी तुम अनुसरण नहीं करते। क्या तुम कुत्ते और सूअर से भिन्न नहीं हो? सूअर मनुष्य के जीवन की कामना नहीं करते, वे शुद्ध होने का प्रयास नहीं करते, और वे नहीं समझते कि जीवन क्या है। प्रतिदिन, उनका काम बस पेट भर खाना और सोना है। मैंने तुम्हें सच्चा मार्ग दिया है, फिर भी तुमने उसे प्राप्त नहीं किया है: तुम्हारे हाथ खाली हैं। क्या तुम इस जीवन में एक सूअर का जीवन जीते रहना चाहते हो? ऐसे लोगों के जिंदा रहने का क्या अर्थ है? तुम्हारा जीवन घृणित और ग्लानिपूर्ण है, तुम गंदगी और व्यभिचार में जीते हो और किसी लक्ष्य को पाने का प्रयास नहीं करते हो; क्या तुम्हारा जीवन अत्यंत निकृष्ट नहीं है? क्या तुम परमेश्वर की ओर देखने का साहस कर सकते हो? यदि तुम इसी तरह अनुभव करते रहे, तो क्या केवल शून्य ही तुम्हारे हाथ नहीं लगेगा?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी आस्था से जुड़ी सभी मंशाओं और अनावश्यक उम्मीदों को उजागर कर दिया। परमेश्वर के वचनों के हर सवाल ने मेरे लिए छिपने की कोई जगह न छोड़ी। देखा जाये तो, शुरुआत से ही मेरी आस्था सिर्फ़ आशीष पाने पर आधारित थी। मैंने सोचा कि अपनी आस्था में परमेश्वर के लिए खुद को खपाने से, परमेश्वर मुझे एक शांत घरेलू जीवन और मेरे बेटे की अच्छी सेहत की आशीष देगा। इसलिए मैंने अपने परिवार और दोस्तों के ताने सुनकर भी अपना कर्तव्य निभाती रही। जब मेरे बेटे की बीमारी दोबारा सामने आयी, तो मुझे लगा परमेश्वर मेरी परीक्षा ले रहा है कि मेरी आस्था सच्ची है या नहीं। मैंने सोचा अगर मैं इस तकलीफ़ का सामना करते हुए परमेश्वर के लिए गवाही देती रहूँगी, तो परमेश्वर ज़रूर मुझे आशीष देगा और मेरा बेटा ठीक हो जाएगा। मगर जब मेरे बेटे के दोबारा बीमार पड़ने से उसकी जिंदगी खतरे में पड़ गयी, तो आशीष और अनुग्रह पाने की मेरी उम्मीद एक झटके से चूर-चूर हो गयी। मैं परमेश्वर से शिकायत और तर्क करने लगी, हमारे साथ गलत करने के लिए परमेश्वर को दोषी ठहराने लगी। मैंने अपना कर्तव्य निभाने की चाह भी खो दी। फिर परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन से ही मैं जान सकी कि मेरी सारी कड़ी मेहनत सिर्फ़ इसलिए थी कि मैं बदले में परमेश्वर से आशीष पा सकूँ। यह सिर्फ़ परमेश्वर से सौदेबाज़ी करने और उसे धोखा देने के लिए थी। वास्तविकता का सामना होने पर मैंने इस बात को स्वीकार किया और जाना कि परमेश्वर सचमुच पवित्र और धार्मिक है। परमेश्वर हमारे दिल और मन की बात जान सकता है। अगर एक के बाद एक आने वाली परिस्थितियों के ज़रिये मुझे यह नहीं दिखाया जाता कि मेरी आस्था दूषित और सत्य के अनुसरण को लेकर मेरी सोच गलत है, तो मैं आज भी अपने बाहरी अच्छे बर्ताव के कारण गुमराह होती रहती। मुझे आज भी यही लगता कि मैं बहुत समर्पित हूँ और परमेश्वर के लिए गवाही दे रही हूँ। मैंने जाना कि मैं तो खुद को पहचानती ही नहीं थी।
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों में ये पढ़ा : "मनुष्य की दशा और अपने प्रति मनुष्य का व्यवहार देखकर परमेश्वर ने नया कार्य किया है, जिससे मनुष्य उसके विषय में ज्ञान और उसके प्रति आज्ञाकारिता दोनों से युक्त हो सकता है, और प्रेम और गवाही दोनों रख सकता है। इसलिए मनुष्य को परमेश्वर के शुद्धिकरण, और साथ ही उसके न्याय, व्यवहार और काट-छाँट का अनुभव अवश्य करना चाहिए, जिसके बिना मनुष्य कभी परमेश्वर को नहीं जानेगा, और कभी वास्तव में परमेश्वर से प्रेम करने और उसकी गवाही देने में समर्थ नहीं होगा। परमेश्वर द्वारा मनुष्य का शुद्धिकरण केवल एकतरफा प्रभाव के लिए नहीं होता, बल्कि बहुआयामी प्रभाव के लिए होता है। केवल इसी तरह से परमेश्वर उन लोगों में शुद्धिकरण का कार्य करता है, जो सत्य को खोजने के लिए तैयार रहते हैं, ताकि उनका संकल्प और प्रेम परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाया जाए। जो लोग सत्य को खोजने के लिए तैयार रहते हैं और जो परमेश्वर को पाने की लालसा करते हैं, उनके लिए ऐसे शुद्धिकरण से अधिक अर्थपूर्ण या अधिक सहायक कुछ नहीं है। परमेश्वर का स्वभाव मनुष्य द्वारा सरलता से जाना या समझा नहीं जाता, क्योंकि परमेश्वर आखिरकार परमेश्वर है। अंततः, परमेश्वर के लिए मनुष्य के समान स्वभाव रखना असंभव है, और इसलिए मनुष्य के लिए परमेश्वर के स्वभाव को जानना सरल नहीं है। सत्य मनुष्य द्वारा अंतर्निहित रूप में धारण नहीं किया जाता, और वह उनके द्वारा सरलता से नहीं समझा जाता, जो शैतान द्वारा भ्रष्ट किए गए हैं; मनुष्य सत्य से और सत्य को अभ्यास में लाने के संकल्प से रहित है, और यदि वह पीड़ित नहीं होता और उसका शुद्धिकरण या न्याय नहीं किया जाता, तो उसका संकल्प कभी पूर्ण नहीं किया जाएगा। सभी लोगों के लिए शुद्धिकरण कष्टदायी होता है, और उसे स्वीकार करना बहुत कठिन होता है—परंतु शुद्धिकरण के दौरान ही परमेश्वर मनुष्य के समक्ष अपना धर्मी स्वभाव स्पष्ट करता है और मनुष्य से अपनी अपेक्षाएँ सार्वजनिक करता है, और अधिक प्रबुद्धता, अधिक वास्तविक काट-छाँट और व्यवहार प्रदान करता है; तथ्यों और सत्य के बीच की तुलना के माध्यम से वह मनुष्य को अपने और सत्य के बारे में बृहत्तर ज्ञान देता है, और उसे परमेश्वर की इच्छा की और अधिक समझ प्रदान करता है, और इस प्रकार उसे परमेश्वर के प्रति सच्चा और शुद्ध प्रेम प्राप्त करने देता है। शुद्धिकरण का कार्य करने में परमेश्वर के ये लक्ष्य हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल शुद्धिकरण का अनुभव करके ही मनुष्य सच्चे प्रेम से युक्त हो सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि परमेश्वर हमारी परीक्षा लेता है और हमारा परिशोधन करता है, वह हमें उजागर और शुद्ध करने के लिए परिस्थितियों और मुश्किलों की व्यवस्था करता है ताकि हम शैतान द्वारा हमें भ्रष्ट किये जाने के सच को समझ सकें, अपनी आस्था में मिलावट और अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में जान सकें। तब हम सत्य की खोज कर सकेंगे, शुद्ध होकर खुद को बदल सकेंगे, परमेश्वर में सच्ची आस्था रख सकेंगे और उसके प्रति समर्पित हो पाएंगे। अंत में, परमेश्वर हमें बचा सकेगा। मेरे बेटे के बार-बार बीमार पड़ने से मेरी आशीष पाने की इच्छा का पूरी तरह से ख़ुलासा हो गया। आत्मचिंतन करने पर, मुझे एहसास हुआ कि मैं परमेश्वर से आशीष पाने के लिए जोकुछ कर सकती थी, उन सबके बारे में सोच रही थी। मैं अपने अनुसरण को लेकर बहुत उत्साहित और ध्यानमग्न थी, मगर इन सबके पीछे सिर्फ मेरी नीच मंशाएँ थीं। मैं इस शैतानी ज़हर के काबू में थी "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये"। मैं हर काम में सबसे पहले अपना फायदा ही देखती थी और जब मेरी उम्मीदें टूट गयीं, तो मैं परमेश्वर का विरोध करते हुए उसके साथ हिसाब-किताब करने लगी। मेरी हर तरह की बुराई उभर कर दिखने लगी। मैं बहुत स्वार्थी और नीच हूँ! यह परमेश्वर में आस्था रखना कैसे हो सकता था? मैं तो बस उसका विरोध करने और उसे धोखा देने की कोशिश में थी। ये एहसास होते ही, मैं परमेश्वर के सामने दंडवत होकर प्रार्थना करने लगी, मैंने कहा, "हे परमेश्वर, मैं इतने सालों से तुम्हें धोखा दे रही थी, मेरी मंशा बस तुमसे आशीष पाने की थी। मैंने हर मोड़ पर तुमसे सौदा करना चाहा, मुझमें ज़रा-सी भी ईमानदारी नहीं थी। मैं बहुत स्वार्थी और नीच हूँ, मुझमें इंसानियत का लेशमात्र भी अंश नहीं है। मैं आशीष पाने की अपनी मंशाओं का त्याग करना चाहती हूँ, अपने बेटे को तुम्हारे हवाले करती हूँ, तुम्हारे आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहती हूँ। मैं कभी शिकायत नहीं करूँगी!" प्रार्थना के बाद मुझे बहुत सुकून और शांति मिली।
एक बार जब मैं अपने काम के सिलसिले में शहर से बाहर थी, मेरे पति ने मुझे कॉल करके बताया कि हमारे बेटे की बीमारी काफ़ी फ़ैल चुकी है। उसके सिर, पीठ और गले पर कई ट्यूमर हो गये थे। इसे काबू करने की कोई उम्मीद नहीं बची थी। अपने पति की बात सुनकर मैं बिलकुल सन्न रह गयी। मुझे अपने बेटे की हालत के बारे में सोचकर ही डर लग रहा था, इन हालातों का सामना करना बहुत मुश्किल हो गया था। मैं बार-बार परमेश्वर का नाम लेती रही, "हे परमेश्वर, मैं अभी बहुत कमज़ोर हूँ। कृपा करके मुझे प्रबुद्ध करो, मेरी मदद करो, ताकि मैं तुम्हारी इच्छा को समझ सकूँ।" प्रार्थना करने के बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "मनुष्य के लिए, परमेश्वर बहुत-से ऐसे काम करता है जो अबूझ और यहाँ तक कि अविश्वसनीय भी होते हैं। जब परमेश्वर किसी को आयोजित करना चाहता है, तो यह आयोजन प्रायः मनुष्य की धारणाओं के विपरीत और उसके लिए अबूझ होता है, फिर भी ठीक यही असंगति और अबूझता ही है जो परमेश्वर द्वारा मनुष्य का परीक्षण और परीक्षा हैं। इस बीच, अब्राहम अपने भीतर परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता प्रदर्शित कर पाया, जो परमेश्वर की अपेक्षा को संतुष्ट करने में उसके समर्थ होने की सबसे आधारभूत शर्त थी। ... यद्यपि, भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में, परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति की परीक्षा लेने के लिए भिन्न-भिन्न तरीक़ों का प्रयोग करता है, किंतु अब्राहम में परमेश्वर ने वह देखा जो वह चाहता था, उसने देखा कि अब्राहम का हृदय सच्चा था, और यह कि उसकी आज्ञाकारिता बेशर्त थी। ठीक यही 'बेशर्त' ही था जिसकी परमेश्वर ने आकांक्षा की थी। लोग प्रायः कहते हैं, 'मैंने पहले ही यह चढ़ा दिया है, मैंने पहले ही उसका त्याग कर दिया है—फिर भी परमेश्वर मुझसे संतुष्ट क्यों नहीं है? वह मुझे परीक्षाओं के लिए विवश क्यों करता रहता है? वह मुझे परखता क्यों रहता है?' यह एक तथ्य दर्शाता है : परमेश्वर ने तुम्हारा हृदय नहीं देखा है, और तुम्हारा हृदय प्राप्त नहीं किया है। कहने का तात्पर्य है कि उसने ऐसी शुद्ध हृदयता नहीं देखी है जैसी तब देखी थी जब अब्राहम अपने ही हाथ से अपने पुत्र को मारने के लिए और परमेश्वर को भेंट चढ़ाने के लिए छुरी उठा पाया था। उसने तुम्हारी बेशर्त आज्ञाकारिता नहीं देखी है, और उसे तुम्हारे द्वारा आराम नहीं पहुँचाया गया है। ऐसे में, यह स्वाभाविक है कि परमेश्वर तुम्हारी परीक्षा लेता रहे" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। मैं बार-बार इन वचनों पर विचार करती रही। जब अब्राहम ने अपने इकलौते बेटे को परमेश्वर के हवाले कर दिया था, तब न तो उसने अपने लिए कुछ माँगा, और न ही परमेश्वर से तर्क किया। वो अच्छी तरह जानता था कि उसका बेटा परमेश्वर की ही देन है और परमेश्वर की इच्छा के अनुसार उसे वापस करना भी सही है। हर सृजित प्राणी में ऐसा ही विवेक और समझ होना चाहिए। हालांकि ये उसके लिए बहुत मुश्किल था, फ़िर भी वो परमेश्वर की अपेक्षाओं के प्रति समर्पित होने में कामयाब रहा। आखिरकार, उसने सचमुच अपने बेटे को मारने के लिए चाकू उठा लिया, जिससे पता चलता है कि वो अपनी आस्था और परमेश्वर की आज्ञा का पालन करने में ईमानदार था और वो इस परीक्षा का सामना कर सका। मगर अब मुझे देखो। मैंने कहा था कि मैं परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने और अपने बेटे को परमेश्वर के हवाले करने के लिए तैयार हूँ, मगर दिल से तो मैं अपनी मांगों पर ही अड़ी थी। खासकर जब मुझे पता चला कि उसकी हालत पहले से ज़्यादा बिगड़ चुकी है और अब कुछ नहीं हो सकता, तो उसे खोने के दुख का सामना करते हुए मुझे एहसास हुआ कि मेरी बहुत-सी मांगें हैं। मैंने कभी इनकी इच्छा ज़ाहिर नहीं की, मगर दिल से तो मैं परमेश्वर को इन्हें पूरा करने के लिए कहना चाहती थी। मुझे एहसास हुआ कि मैं विवेकहीन तो थी ही, मुझमें परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता का भी अभाव था। सच तो ये है कि मेरा बेटा वास्तव में मेरी निजी संपत्ति नहीं है। परमेश्वर ने उसे जीवन दिया है। मेरा शरीर तो सिर्फ़ उसे इस दुनिया में लाने का एक ज़रिया बना। परमेश्वर बहुत पहले ही उसकी नियति तय करके उसके लिए व्यवस्था कर चुका है। परमेश्वर पहले ही निश्चित कर चुका है कि वह अपने जीवन में कितनी पीड़ा सहेगा, कितनी तकलीफ़ों का सामना करेगा। मुझे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना पड़ेगा। फ़िर, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मेरा बेटा मेरा नहीं है। मैं जानती हूँ कि उसे जीवनदान देना या न देना तुम्हारी दयालु इच्छा पर निर्भर है। मैं समर्पित होकर अपने बेटे की जिंदगी तुम्हारे हवाले करना चाहती हूँ। अब चाहे तुम जो भी करो, मैं कोई शिकायत नहीं करूँगी।" प्रार्थना करने के बाद मेरा दुख कम हो गया। पलक झपकते ही एक महीना बीत गया। एक दिन सभा से घर लौटने के बाद, मेरे पति ने मुझे कॉल किया और खुश होकर बताया कि हमारे बेटे के सभी ट्यूमर गायब हो गये। अस्पताल में कराये गए सीटी स्कैन से इसकी पुष्टि हो चुकी है। इस खबर का पता चलते ही मेरी आँखों में ख़ुशी के आँसू छलक आये। मैं मन-ही-मन खुशी से चिल्लाने लगी, "परमेश्वर का धन्यवाद!" इस विशेष अनुभव से मैं परमेश्वर की महान सामर्थ्य को देख पायी और उसके इन वचनों का अनुभव कर सकी : "कोई भी और सभी चीज़ें, चाहे जीवित हों या मृत, परमेश्वर के विचारों के अनुसार ही जगह बदलेंगी, परिवर्तित, नवीनीकृत और गायब होंगी। परमेश्वर सभी चीज़ों को इसी तरीके से संचालित करता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है)। इन वचनों से मैं परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और प्रभुता को देख पायी, यह जान पायी कि परमेश्वर नामुमकिन को मुमकिन और मुमकिन को नामुमकिन कर सकता है। हर चीज़ परमेश्वर के हाथों द्वारा आयोजित है। मैंने परमेश्वर का दिल से धन्यवाद किया!
एक साल बाद अचानक मेरे पति का मैसेज आया कि हमारे बेटे की बीमारी वापस आ चुकी है और वो कीमोथेरेपी के लिए अस्पताल में भर्ती है। ये सुनकर मुझे थोड़ा दुख तो हुआ मगर मैंने अपने पिछले अनुभव को याद किया। मैं परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहती थी। मुझे हैरानी हुई, कि मेरे बेटे को दो हफ़्तों के बाद ही अस्पताल से छुट्टी मिल गयी और वो अब तक स्वस्थ है। हालाँकि अपने बेटे की बीमारी के लिए, मैंने परमेश्वर को दोषी ठहराया और उसे गलत समझा, लेकिन उसने मेरी नादानी पर ध्यान नहीं दिया, बल्कि अपने वचनों से मुझे प्रबुद्ध बनाया और मेरा मार्गदर्शन किया ताकि मैं परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और प्रभुता को समझ सकूँ, सिर्फ़ आशीष पाने के लिए आस्था रखने की अपनी गलत सोच को बदल सकूँ। ये सचमुच मेरे लिए परमेश्वर का अनुग्रह और आशीष था! सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?