अगुआओं के साथ सिद्धांत के अनुसार व्यवहार करना

24 जनवरी, 2022

क्षीयोकिंग, चीन

2016 की गर्मियों में, मुझे कलीसिया में अगुआ बने थोड़ा ही समय हुआ था। एक दिन बड़ी अगुआ, बहन वांग हमारी एक सभा में आईं। मैं जानना चाहती थी कि एक भाई अच्छा अगुआ साबित होगा या नहीं, इसके लिए मैंने उनसे मदद माँगी। यह सुनकर, उन्होंने उस भाई के बारे में और जानकारी इकट्ठा नहीं की, न लोगों को आगे बढ़ाने के सिद्धांतों पर बात की, बस इतना कहा कि पद देकर उस पर नज़र रखूँ और ज़रूरत पड़ने पर उसे बदल दूँ। मुझे डर था कि गलत इंसान को चुनने से कलीसिया के काम में रुकावट आ सकती है, इसलिए मैंने अपनी दुविधा बताई ताकि वे कुछ खास सिद्धांतों पर सहभागिता करें। उन्होंने सहभागिता करने के बजाय, बेसब्र होकर मुझे अहंकारी कहा और सत्य ना स्वीकारने की बात कहकर मेरी आलोचना की, और काफी देर तक मुझे भाषण देती रहीं। इस तरह के व्यवहार से मैंने बेबसी महसूस की, सोचने लगी, "क्या हमें समस्याओं को हल करने के लिए सत्य पर सहभागिता नहीं करनी चाहिए? जब भी हमें कोई समस्या होती है, तो आप सहभागिता करके मदद करने के बजाय, घमंड में हमें डाँटने लगती हैं। ये सत्य समझने और सिद्धांतों का पालन करने में हमारी अगुआई करना नहीं है।" मैं अपनी उलझन उन्हें बताना चाहती थी, मगर यह सोचकर कि वो पिछली बार सबके सामने मुझसे कितना नाराज़ हुई थीं, मुझे डर लगा कि वो फिर से मुझे डांटने लगेंगी, कहेंगी कि मैं अहंकारी हूँ और सत्य को स्वीकार नहीं करती। इसलिए मैंने उनसे कुछ नहीं कहा।

अगली कुछ सभाओं में, मैंने देखा कि परमेश्वर के वचनों पर बहन वांग की सहभागिता प्रबुद्ध करने वाली या व्यवहारिक नहीं थी, बल्कि वे सिर्फ शाब्दिक सिद्धांत थे जिनसे वास्तविक समस्याओं का हल नहीं हो सकता था। पता नहीं उनके पास सचमुच पवित्र आत्मा का कार्य है भी या नहीं। मगर फिर मैंने सोचा, शायद उनकी मनोदशा अभी अच्छी न हो, ऐसे में पवित्र आत्मा का कार्य ज़ाहिर न होना कोई बड़ी बात नहीं। मैंने इन बातों पर ध्यान नहीं दिया। बाद में, हर कलीसिया से तीन अगुआ चुनने की व्यवस्था की गई ताकि वे मिल-जुलकर कलीसिया के काम की ज़िम्मेदारी उठाएँ। बहन वांग ने हमसे कहा कि अगुआ का चयन करना बहुत ज़रूरी है, हमें जल्द से जल्द ये काम पूरा करना होगा। लेकिन जब इंतजाम करने का समय आया, तो सब कुछ योजना के मुताबिक नहीं हुआ। तब मैं अकेली अगुआ थी और कभी-कभार सारा काम अकेले संभाल नहीं पाती था। मैंने उन्हें कई चीज़ें समझाईं, इस उम्मीद में कि वो जल्द से जल्द अगुआ का चुनाव करवाएँगी। उन्होंने मुझे भरोसा तो दिया, मगर कुछ समय बीतने के बाद भी कुछ नहीं किया। मैंने उनसे आग्रह करते हुए दोबारा चिट्ठी लिखी, फिर भी कुछ नहीं हुआ। मुझे ये ठीक नहीं लगा। वो जानती थीं कि अगुआ का चुनाव करना कितना ज़रूरी है और उनकी सहभागिता भी कमाल की थी, मगर जब कोई काम करने की बात आती तो वो आलस करने लगतीं। क्या वो व्यावहारिक काम करने के बजाय केवल सिद्धांत नहीं झाड़ रही थीं? बाद में मुझे पता चला कि उन्होंने इसी तरह दूसरी कलीसियाओं में भी चुनाव कराने में देरी कर दी है, इसलिए समय रहते सही अगुआओं का चयन नहीं हो सका, जिससे कलीसिया के जीवन और इसके काम पर बुरा असर पड़ा।

मैं सोचने लगी शायद बहन वांग उन झूठे अगुआओं में से है जो व्यावहारिक काम नहीं करते, ऐसे ही चलता रहा, तो कलीसिया के कामों का बहुत नुकसान हो जाएगा। मैंने उन्हें इन समस्याओं के बारे में बताने का फैसला किया। मैं उन्हें चिट्ठी लिखने ही वाली थी, कि मुझे ख्याल आया वो एक अगुआ हैं, अगर उन्होंने मेरी बात मान ली तो बहुत अच्छा होगा, लेकिन अगर नहीं मानी, तो मेरे लिए मुश्किलें खड़ी कर सकती हैं, और क्या पता मुझे हटाने का बहाना भी खोजने लगें। मैंने इन बातों को भुला देने का फैसला किया। मैंने पेन नीचे रखा और कुछ नहीं किया। मगर फिर मुझे बेचैनी होने लगी। मैं बिना कुछ कहे उनकी समस्याओं को अनदेखा करती जा रही थी—ये तो परमेश्वर की इच्छा नहीं थी। मैं जानती थी कि मुझे कुछ कहना चाहिए। मगर फिर भी कुछ नहीं लिख पाई। कोशिश करके भी मैं चिट्ठी नहीं लिख पाई। मैं बड़ी उलझन में पड़ गई थी। मैंने वो चिट्ठी नहीं लिखी। मैंने अपनी समस्या को लेकर परमेश्वर से प्रार्थना की। फिर, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े। "तुम सभी कहते हो कि तुम परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील हो और कलीसिया की गवाही की रक्षा करोगे, लेकिन वास्तव में तुम में से कौन परमेश्वर के बोझ के प्रति विचारशील रहा है? अपने आप से पूछो : क्या तुम उसके बोझ के प्रति विचारशील रहे हो? क्या तुम उसके लिए धार्मिकता का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुम मेरे लिए खड़े होकर बोल सकते हो? क्या तुम दृढ़ता से सत्य का अभ्यास कर सकते हो? क्या तुम में शैतान के सभी दुष्कर्मों के विरूद्ध लड़ने का साहस है? क्या तुम अपनी भावनाओं को किनारे रखकर मेरे सत्य की खातिर शैतान का पर्दाफ़ाश कर सकोगे? क्या तुम मेरी इच्छा को स्वयं में पूरा होने दोगे? सबसे महत्वपूर्ण क्षणों में क्या तुमने अपने दिल को समर्पित किया है? क्या तुम ऐसे व्यक्ति हो जो मेरी इच्छा पर चलता है? स्वयं से ये सवाल पूछो और अक्सर इनके बारे में सोचो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 13)। परमेश्वर का हर सवाल ऐसा लग रहा था मानो मेरे बारे में ही हो। इसलिए मैंने खुद से सवाल किया: क्या मुझे परमेश्वर के बोझ की परवाह है? क्या मैं परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा कर रही हूँ? मैंने सोचा कि कैसे बहन वांग सत्य पर सहभागिता करके समस्याओं को हल करने में नाकाम रहती हैं, और घमंड में चूर होकर दूसरों को डांटती और बेबस करती हैं। वो हमारे कार्य में आने वाली व्यावहारिक समस्याओं को हल किए बिना सिर्फ सिद्धांतों पर सहभागिता करती हैं। अगुआ के चुनाव के काम की गति बहुत धीमी थी। उनके व्यवहार से परमेश्वर के घर के काम में पहले ही रुकावट आ चुकी थी। मैं जानती थी कि मुझे उनसे बात करनी चाहिए ताकि उन्हें समस्या की गंभीरता का एहसास हो। मगर मुझे डर था कि ऐसा करने पर, कहीं वे इन बातों को ठुकरा कर मेरे लिए मुश्किलें खड़ी न कर दें, और कहीं उन्हें मुझे मेरे कर्तव्य से हटाने का बहाना न मिल जाए। मैं इन सबके खिलाफ़ आवाज़ उठाने के बजाय, मैंने सब अनदेखा कर रही थी, परमेश्वर के घर के काम की रक्षा बिल्कुल नहीं कर रही थी। मैंने सिर्फ अपने निजी फायदों के बारे में सोचा। मैं बेहद स्वार्थी थी, मुझमें इंसानियत नाम की चीज़ नहीं थी! कलीसिया की अगुआ होकर भी, मैं इसके काम में आने वाली रुकावट को दूर करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। क्या मैं इस तरह बहन वांग की दुष्टता को बढ़ावा नहीं दे रही थी? जब मैंने सबसे बुनियादी तरीके से भी परमेश्वर के घर के काम की रक्षा नहीं की, तो भला मैं अगुआ बनने के काबिल कैसे थी? मैंने इस बारे में जितना सोचा, खुद को उतना ही दोषी पाया, फिर मैंने परमेश्वर के सामने कसम खाई कि मैं अपनी दैहिक इच्छाओं का त्याग करके सत्य का अभ्यास करूंगी।

मैंने कर्मियों और अगुआओं के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, इस पर कार्य-व्यवस्थाओं में लिखे सिद्धांत पढे मैंने देखा कि जो लोग सत्य की खोज करके व्यावहारिक काम कर सकते हैं, अगर उनके कर्तव्य में उनसे कोई अपराध हो जाता है या उन्हें ज़्यादा सफलता नहीं मिलती है, तो बिना सोचे-समझे उनकी निंदा करने या काम से हटा देने के बजाय स्नेह के साथ उनकी मदद करनी चाहिए या फिर डाँट लगा कर उनका निपटान किया जाना चाहिए। जो लोग व्यवहारिक काम नहीं करते या सत्य की खोज नहीं करते, अगर वे दुष्टता करने लगें और आलोचना किए जाने पर सत्य को स्वीकार न करें या पश्चाताप न करें, तो इससे साबित होता है कि वे झूठे अगुआ हैं और उन्हें काम से हटा दिया जाना चाहिए। मुझे उनके साथ काम करने का ज़्यादा अनुभव नहीं था। मगर मैंने उनके झूठा अगुआ होने के कई संकेत देखे थे, मगर मुझे इस बात पर पक्का यकीन नहीं था। मैं जानती थी कि पहले मुझे उनके साथ सहभागिता करनी चाहिए, यही मेरा कर्तव्य है। फिर मैं उनकी समस्याओं के बारे में लिखने लगी, और सच कहूँ तो, मुझे बहुत घबड़ाहट हो रही थी। फिर मैंने परमेश्वर से मुझे हिम्मत देने की विनती की, ताकि मैं खुद को त्याग करके कलीसिया के हितों की रक्षा कर सकूँ। इसके बाद मैंने खुद को उतना बेबस महसूस नहीं किया, मैंने एक-एक करके बहन वांग की सभी समस्याएँ लिख डालीं। मैंने जब चिट्ठी भेज दी तो मेरे मन को काफी सुकून मिला।

उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। कलीसिया के चुनाव अब भी रुके हुए थे, और कई कलीसियाओं में समय पर काम पूरे करने के लिए ज़रूरी कर्मियों और अगुआओं की कमी थी। इससे परमेश्वर के घर के काम में बहुत रुकावट आई। मैंने कई बार और उनसे विनती करते हुए चिट्ठी लिखी, मगर कोई फायदा नहीं हुआ। मैंने देखा वे केवल बातें बनाती हैं, कोई व्यावहारिक काम नहीं करतीं, बहुत समझाने पर भी वे नहीं बदलेंगी, उनके निरंतर व्यवहार से यह पक्का हो गया था कि वो झूठी अगुआ हैं जो व्यावहारिक काम नहीं करतीं। मैंने उनकी समस्याओं के बारे में ऊँचे पद के अगुआ को चिट्ठी लिखी। जल्द ही, परमेश्वर के घर में हुई एक छानबीन से यह साबित हो गया कि वो एक झूठी अगुआ थीं जो व्यावहारिक काम नहीं करती थीं, इसलिए उन्हें निकाल दिया गया। इस अनुभव से मैंने जाना कि परमेश्वर के घर में केवल सत्य और धार्मिकता का ही शासन है। झूठे अगुआओं के पास भले ही पद हो, मगर वो न सत्य खोजते, न वास्तविक काम करते हैं, इसलिए परमेश्वर के घर में जगह नहीं बना पाते। मुझे हमेशा डर लगा रहता था कहीं मैं किसी अगुआ को नाराज़ करने के कारण काम से न निकाल दी जाऊँ, इसलिए मैंने कभी उनकी समस्याओं को सामने लाने की हिम्मत नहीं की। फिर मुझे एहसास हुआ कि मैं तो परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के बारे में कुछ भी नहीं समझती। परमेश्वर के घर में प्रशासनिक आदेश, सिद्धांत और नियम हैं, इसलिए कोई अगुआ चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो, उन्हें परमेश्वर के वचनों और सत्य के सिद्धांतों के अनुसार ही काम करना होगा। जो कोई भी मनमानी करेगा उनके लिए यहां कोई जगह नहीं होगी। वैसे भी, कलीसिया में मेरा काम क्या होगा, यह सब परमेश्वर के हाथ में है। कोई अगुआ इसमें कुछ नहीं कर सकता। यह उनके हाथ में नहीं है। असल में मुझे चिंता करने की कोई ज़रूरत ही नहीं थी।

अक्टूबर 2019 में, मुझे किसी काम के लिए दूसरी कलीसिया में भेज दिया गया। कुछ समय बाद, मेरा ध्यान अपने से ऊँचे पद की अगुआ, बहन चेन पर गया जो लोगों की नियुक्ति सिद्धांतों के अनुसार नहीं कर रही थीं। हमारे सिंचन कार्य की उपयाजक, बहन झांग बेहद स्वार्थी और कपटी थी। लोगों को कलीसिया के काम में रुकावट डालते देख कर भी उन्हें नाराज़ करने के डर से कुछ नहीं करती थी। जब कोई उसे अपनी समस्याएं बताता, तो वो जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेती, इसलिए समय रहते इन समस्याओं से निपटा नहीं गया। इनकी जांच होने पर यह साफ़ हो गया कि बहन झांग का व्यवहार ऐसा ही था, वो कभी कलीसिया के काम को कायम नहीं रखती थी, न ही कोई व्यावहारिक काम करती थी, इसलिए उसका फौरन निकाला जाना बहुत ज़रूरी था। मगर जब बहन चेन उसे निकालने वाली थीं, तो बहन झांग ने अपने बारे में कुछ ऐसी बातें कहीं कि बहन चेन उसके झांसे में आ गईं और उसे निकालने में देरी कर दी। मैंने देखा कि बहन चेन अगुआओं और कर्मियों को निकालने के सिद्धांतों का पालन नहीं कर रही थीं, जो एक गंभीर समस्या थी। मैं उन्हें इस बारे में बताना चाहती थी। मगर फिर मैंने सोचा कि मैं इस काम में एकदम नई हूँ, और वो मुझे बहुत मानती भी हैं, ऐसे में अगर उन्होंने मेरे सुझावों को मान लिया तब तो बहुत अच्छा होगा, लेकिन अगर नहीं मानीं, तो वो मुझे अहंकारी इंसान समझ बैठेंगी जो पद मिलने के कुछ दिनों बाद ही शिकायतें करने लगी। अगर इसके कारण, उन्होंने मुझे आगे बढ़ाना बंद कर दिया तो क्या होगा? इस डर से मैं दोबारा चुप रह गई। हालाँकि मुझे इस बात का बुरा लग रहा था, फिर भी मैं कुछ न कर पाई।

एक बार जब बहन चेन हमारे समूह की सभा में आईं तो मैंने उन्हें यह सब बताना चाहा, मगर उनका कहना था कि वो अपने काम में नई हैं, उनके लिए सब बहुत मुश्किल है, अभी वो बहुत अच्छी स्थिति में नहीं हैं। मैंने सोचा, उन्हें अगुआई करने में पहले से दिक्कतें आ रही हैं, ऐसे में अगर मैंने उनकी समस्याएं बता दी, तो क्या उन्हें लगेगा कि मुझमें इंसानियत नहीं, मैं स्नेही नहीं? मैंने इस डर से अपना इरादा बदल दिया कि इससे समस्याएं हल नहीं होंगी, और वो नकारात्मक महसूस करने लगेंगी, और मेरे बारे में बुरा सोचेगी। इसलिए मैंने अपना मुँह नहीं खोला। सिंचन कार्य की उपयाजक को नहीं बदला गया, उसके काम की कई समस्याएँ भी हल नहीं हुईं, इससे भाई-बहनों के जीवन प्रवेश और परमेश्वर के घर के काम को बहुत नुकसान पहुँचा। मुझे इस बात को लेकर बहुत अपराध बोध होने लगा। अगर मैं समय रहते इस समस्या को सामने ले आई होती तो अंत में इसका परिणाम इतना बुरा न होता। एक सभा में हमने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े जो मेरे मन को छू गये। "ऐसे कई लोग कलीसिया में मौजूद हैं, जिनमें कोई विवेक नहीं है। और जब कुछ कपटपूर्ण घटित होता है, तो वे अप्रत्याशित रूप से शैतान के पक्ष में जा खड़े होते हैं। जब उन्हें शैतान का अनुचर कहा जाता है तो उन्हें लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है। यद्यपि लोग कह सकते हैं कि उनमें विवेक नहीं है, वे हमेशा उस पक्ष में खड़े होते हैं जहाँ सत्य नहीं होता है, वे संकटपूर्ण समय में कभी भी सत्य के पक्ष में खड़े नहीं होते हैं, वे कभी भी सत्य के पक्ष में खड़े होकर दलील पेश नहीं करते हैं। क्या उनमें सच में विवेक का अभाव है? वे अनपेक्षित ढंग से शैतान का पक्ष क्यों लेते हैं? वे कभी भी एक भी शब्द ऐसा क्यों नहीं बोलते हैं जो निष्पक्ष हो या सत्य के समर्थन में तार्किक हो? क्या ऐसी स्थिति वाकई उनके क्षणिक भ्रम के परिणामस्वरूप पैदा हुई है? लोगों में विवेक की जितनी कमी होगी, वे सत्य के पक्ष में उतना ही कम खड़ा हो पाएँगे। इससे क्या ज़ाहिर होता है? क्या इससे यह ज़ाहिर नहीं होता कि विवेकशून्य लोग बुराई से प्रेम करते हैं? क्या इससे यह ज़ाहिर नहीं होता कि वे शैतान की निष्ठावान संतान हैं? ऐसा क्यों है कि वे हमेशा शैतान के पक्ष में खड़े होकर उसी की भाषा बोलते हैं? उनका हर शब्द और कर्म, और उनके चेहरे के हाव-भाव, यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं कि वे सत्य के किसी भी प्रकार के प्रेमी नहीं हैं; बल्कि, वे ऐसे लोग हैं जो सत्य से घृणा करते हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। इन्हें पढ़ कर मेरी अंतरात्मा दोषी महसूस करने लगी। मैंने बहन चेन को अगुआओं और कर्मियों के तबादले की प्रक्रिया में सिद्धांतों के ख़िलाफ़ जाते देखा था। उन्होंने उजागर हुए झूठे कर्मी को समय रहते नहीं निकाला, जिससे कलीसिया के काम पर बुरा असर पड़ा। मैं जानती थी कि मुझे सहभागिता करके परमेश्वर के घर के काम की रक्षा करनी चाहिए। मगर मुझे उन्हें नाराज़ करने और अपनी छवि के बिगड़ने का डर था, इसलिए मैं चुप रही और सिद्धांतों को कायम नहीं रखा। जिसके कारण परमेश्वर के घर पर असर हुआ और इसमें मेरा भी दोष था। मुझे एहसास हुआ कि मैं सत्य से प्रेम नहीं करती और मुझे धार्मिकता की कोई समझ भी नहीं है, मैं शैतान के साथ खड़ी ऐसी नीच इंसान थी जिसे सिर्फ अपने हितों से मतलब था। परमेश्वर ने मेरी प्रगति के लिए मुझे इतना बड़ा कर्तव्य सौंपकर मुझे ऊँचा उठाया और बहुत-से सत्य पर ईमानदारी से सहभागिता की ताकि मैं सत्य जानकर विवेकशील बन सकूँ। उसने इन समस्याओं को समझने में मेरा मार्गदर्शन भी किया, इस उम्मीद में कि मैं सिद्धांतों को कायम रखूंगी और परमेश्वर के घर के लिए अपना पक्ष रखूंगी। मगर मैं स्वार्थी थी, जिस थाली में खाया उसी में छेद किया। अपने फायदों के लिए, मैं आत्मा के मार्गदर्शन से मुँह मोड़ती रही, परमेश्वर के घर के काम को नुकसान पहुँचाती, उसमें रुकावट डालती और परमेश्वर के सामने अपराध करती रही। मैं अंधकार में जी रही थी, परमेश्वर को घृणा करने पर माजबूर कर रही थी।

फिर मैं इस पर विचार करने लगी कि कोई समस्या होने पर अपने बारे में ही क्यों सोचने लगती हूँ। मैं किस तरह की भ्रष्ट प्रकृति के काबू में हूँ? फिर मुझे परमेश्वर के वचनों के पाठ के इस वीडियो में सारी समस्याओं की जड़ का पता चला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को प्राप्त नहीं कर लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। वह प्रकृति विशिष्ट रूप से किस चीज़ को अपरिहार्य बनाती है? उदाहरण के लिए, तुम स्वार्थी क्यों हो? तुम अपने पद की रक्षा क्यों करते हो? तुम्हारी भावनाएँ इतनी प्रबल क्यों हैं? तुम उन अधार्मिक चीज़ों से प्यार क्यों करते हो? ऐसी बुरी चीज़ें तुम्हें अच्छी क्यों लगती हैं? ऐसी चीजों को पसंद करने का आधार क्या है? ये चीज़ें कहाँ से आती हैं? तुम इन्हें स्वीकारकर इतने खुश क्यों हो? अब तक, तुम सब लोगों ने समझ लिया है कि इन सभी चीजों के पीछे मुख्य कारण यह है कि वे शैतान के जहर से युक्त हैं। जहाँ तक इस बात का प्रश्न है कि शैतान का जहर क्या है, इसे वचनों के माध्यम से पूरी तरह से व्यक्त किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि तुम पूछते हो, 'लोगों को कैसे जीना चाहिए? लोगों को किसके लिए जीना चाहिए?' तो लोग जवाब देंगे, 'हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये।' यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का तर्क लोगों का जीवन बन गया है। कुछ भी हो, लोग बस अपने लिए ही काम करते हैं। इसलिए वे केवल अपने लिए ही जीते हैं। 'हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये'—यही मनुष्य का जीवन और फ़लसफ़ा है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। यह कथन वास्तव में शैतान का जहर है और जब इसे मनुष्य के द्वारा आत्मसात कर लिया जाता है तो यह उनकी प्रकृति बन जाता है। इन वचनों के माध्यम से शैतान की प्रकृति उजागर होती है; ये पूरी तरह से इसका प्रतिनिधित्व करते हैं। और यही ज़हर मनुष्य के अस्तित्व की नींव बन जाता है और उसका जीवन भी, यह भ्रष्ट मानवजाति पर लगातार हजारों सालों से इस ज़हर के द्वारा हावी रहा है" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'पतरस के मार्ग पर कैसे चलें')। इस वीडियो से मैंने यह जाना कि मैं हमेशा अपने फायदों के बारे में ही सोचती रहती थी क्योंकि मैं शैतान के इन विषों के काबू में थी। "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये" "ज्ञानी लोग आत्म-रक्षा में अच्छे होते हैं वे बस गलतियाँ करने से बचते हैं" "जब पता हो कि कुछ गड़बड़ है, तो चुप रहना ही बेहतर है।" मैं इतने लंबे समय से इन शैतानी विषों के प्रभाव में थी कि यही मेरी प्रकृति बन गई। मैं इनके हिसाब से जी रही थी इसलिए मैंने हर हालात में अपने हितों की ही रक्षा की। भाई-बहनों के बीच मैंने परमेश्वर के घर के काम के बारे में न सोचकर, केवल अपनी इज्ज़त और रुतबे के बारे में सोचा। मैंने लोगों का तबादले करने में एक अगुआ को साफ तौर पर सिद्धांतों के ख़िलाफ़ जाते देखा, मगर मुझे डर था कि कुछ कहने से मेरे लिए परेशानी हो जायेगी, इसलिए मैं अपने पद और भविष्य को बचाने के लिए सब अनदेखा कर दिया। मैंने समय रहते सहभागिता करके मदद नहीं की, दूसरों के जीवन प्रवेश और कलीसिया के काम को नुकसान पहुँचते देखती रही, मगर अपने फायदों को नहीं छोड़ा। मैं अपने स्वार्थ और नीचता को स्पष्ट देख पा रही थी। मैं इन शैतानी विषों के प्रभाव में जी रही थी, अधिक स्वार्थी और कपटी बनती जा रही थी, मुझमें इंसानियत नाम की चीज़ नहीं थी। मैंने खुद को नुकसान पहुँचाने के साथ-साथ परमेश्वर के घर के काम में देरी की और रुकावट डाली। ये विष सिर्फ इंसान को भ्रष्ट करते और नुकसान पहुंचाते हैं, इसलिए हम परमेश्वर का विरोध करने और उसे ठुकराने से खुद को नहीं रोक पाते। मैं जानती थी अगर इन समस्याओं को सुलझाने के लिए मैंने पश्चाताप करके सत्य की खोज नहीं की, तो परमेश्वर मुझे भी अलग करके हटा देगा और मैं अपने उद्धार का मौका खो बैठूँगी। मैंने अपने लिए परमेश्वर की क्षमाशीलता और उद्धार को भी देखा। मेरे इतना विद्रोही होने पर भी परमेश्वर बार-बार मेरे सामने परिस्थितियां खड़ी कर, मुझे मेरी भ्रष्टता दिखाते हुए अपने वचनों से मुझे राह दिखाता रहा। मैं जानती थी मुझे परमेश्वर की बात माननी होगी, अपनी दैहिक इच्छाओं का त्याग करके सत्य का अभ्यास करना होगा।

फिर मैंने वचनों का एक और अंश पढ़ा। "किसी को उन्नत और विकसित करने का यह मतलब नहीं कि वह पहले से ही सत्य को समझता है, और न ही इसका अर्थ यह है कि वह पहले से ही अपना कर्तव्य संतोषजनक ढंग से करने में सक्षम है। ... जिन्हें उन्नत और विकसित किया जाता है, लोगों को उनसे उच्च अपेक्षाएँ या अवास्तविक उम्मीदें नहीं करनी चाहिए; यह अनुचित होगा, और उनके साथ अन्याय होगा। तुम लोग उन पर नजर रख सकते हो, और उनके उन कामों की शिकायत कर सकते हो, जिन्हें तुम लोग समस्या पैदा करने वाले मानते हो, लेकिन वे महज विकसित किए जाने की अवधि में हैं, और उन्हें ऐसे लोगों के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए जिन्हें पूर्ण बना दिया गया है, निर्दोष या ऐसे लोगों के रूप में तो बिलकुल भी नहीं, जो सत्य-वास्तविकता से युक्त हैं। वे तुम लोगों जैसे ही हैं : यह वह समय है, जब उन्हें प्रशिक्षित किया जा रहा है। ... मेरे यह कहने का क्या मतलब है? सभी को यह बताना कि उन्हें परमेश्वर के घर के द्वारा विभिन्न प्रकार की प्रतिभाओं की उन्नति और विकास की गलत व्याख्या नहीं करनी चाहिए, और इन लोगों से अपनी अपेक्षाओं में कठोर नहीं होना चाहिए। स्वाभाविक रूप से, लोगों को उनके बारे में अपनी राय में अयथार्थवादी भी नहीं होना चाहिए। उनकी अत्यधिक सराहना या सम्मान करना मूर्खता है, तो उनके प्रति अपनी अपेक्षाओं में अत्यधिक कठोर होना भी मानवीय या यथार्थवादी नहीं है। तो उनके साथ व्यवहार कार्य करने का सबसे तर्कसंगत तरीका क्या है? उन्हें सामान्य लोगों की तरह ही समझना, और जब कोई ऐसी समस्या आए जिसे खोजने की आवश्यकता हो, तो उनके साथ संगति करना और एक-दूसरे की क्षमताओं से सीखना और एक-दूसरे का पूरक होना। इसके अतिरिक्त, यह निगरानी रखना सभी की जिम्मेदारी है कि अगुआ और कार्यकर्ता वास्तविक कार्य कर रहे हैं या नहीं, और वे अपने कर्तव्यों का पालन करने में सक्षम हैं या नहीं। यदि वे सक्षम न हों, और तुम लोगों ने उनकी असलियत देख ली हो, तो उनकी शिकायत करने या उन्हें हटाने में समय नष्ट न करो; किसी दूसरे को चुन लो, और परमेश्वर के घर के काम में देरी न करो। परमेश्वर के घर के काम में देरी करना खुद को और दूसरों को चोट पहुँचाना है, इसमें किसी का भला नहीं है" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'नकली अगुआओं की पहचान करना (5)')। इस अंश ने मुझे वो सिद्धांत सिखाए जिनके अनुसार हमें अगुआओं और कर्मियों से पेश आना चाहिए। उन्हें शुरुआत में सत्य की समझ नहीं होती और वो पद के उतने काबिल नहीं होते। वे अभ्यास की अवधि में होते हैं, उनमें कई कमजोरियां और कमियां होती हैं, इसलिए हमें उनके साथ न्यायपूर्ण और उचित होना चाहिए, उनसे बहुत-सी अपेक्षाएं नहीं रखनी चाहिए। वहीं दूसरी ओर, उनके काम पर नज़र रखने की ज़िम्मेदारी भी हमारी ही है। उनका काम सत्य के अनुरूप है, तो हमें उसे स्वीकार करना चाहिए, अगर नहीं है तो हमें उसे बताते हुए सहभागिता करके उनकी मदद करनी चाहिए ताकि वे अपने काम में होने वाली गलतियों को समझ कर उन्हें जल्द से जल्द ठीक कर सकें। यह उनके जीवन प्रवेश और परमेश्वर के घर के काम, दोनों के लिए अच्छा है। अगर यह स्पष्ट हो जाता है कि वे उन झूठे अगुआओं में से हैं जो व्यावहारिक काम नहीं करते या काबिल नहीं हैं, तो फौरन उनकी रिपोर्ट करनी चाहिए। मैं जानती थी कि बहन चेन अपने काम में नई हैं, इसलिए उनसे गलतियां होना तय था। उनकी समस्याएं देखकर इनके बारे में बताते हुए सहभागिता करने की ज़िम्मेदारी मेरी थी। अगर वो इसे ठुकरा देती तो मैं उनकी रिपोर्ट करने उन्हें उजागर कर सकती थी। मैं चुपचाप रहकर परमेश्वर के घर के काम को नुकसान पहुँचते नहीं देख सकती थी। तब मैं अपने हितों की रक्षा नहीं करना चाहती थी, परमेश्वर के घर के काम की रक्षा करने के लिए मैं अपनी मंशाएं बदलने को तैयार थी। कुछ दिनों बाद बहन चेन हमारा काम देखने आई, तब मैंने उन्हें बताया कि कैसे उन्होंने सिद्धांतों का उल्लंघन किया, मैंने हाल में जो स्वार्थ और कपट दिखाया था, वो भी बताया। उन्होंने परमेश्वर के वचनों की मदद से आत्मचिंतन किया तब उन्हें उन मामलों को हल करने में अपनी गलतियों और भ्रष्टता का पता चला और उन्होंने खुद को बदलने की इच्छा ज़ाहिर की।

उसके बाद, हमने लोगों के कामों में बदलाव करने के विशेष सिद्धांतों के बारे में और बातें की। सहभागिता के बाद हमारी समझ और भी स्पष्ट हो गई, हमने परमेश्वर के मार्गदर्शन और आशीष को भी महसूस किया। उसके बाद, सिद्धांतों के अनुसार उन्होंने बहन झांग को दूसरा काम सौंप दिया। इस अनुभव से मुझे यह सीख मिली कि किसी अगुआ की समस्याओं को देखते ही उन्हें इस बारे में बताकर उनकी मदद करना अच्छी बात है। यह सही है और इससे परमेश्वर के घर के काम की रक्षा होती है। मैंने यह भी देखा कि परमेश्वर का घर सत्य के सिद्धांतों के अनुसार ही सबके साथ व्यवहार करता है। छोटे-मोटे अपराध करने और थोड़ी सी भ्रष्टता प्रकट करने से किसी को उसके काम से नहीं निकाला जाता, बल्कि उनके मार्ग, उनकी प्रकृति, उनके सार, और सत्य के प्रति उनके रवैये को ध्यान में रखकर ही उनके साथ बर्ताव किया जाता है। यही सही और तर्कपूर्ण है। अगुआओं और कर्मियों के साथ सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करने से ही परमेश्वर के घर के काम के साथ-साथ दूसरों को भी फायदा होगा, यही परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है। इन अनुभवों ने मुझे अगुआओं और कर्मियों के प्रति सही रवैया समझाया, और उनकी समस्याएं हल करने के सिद्धांतों के बारे में बताया। मुझे अपने स्वार्थी, कपटी भ्रष्ट स्वभाव की भी थोड़ी समझ हासिल हुई, और मैं अपना स्वार्थ त्याग कर जीना चाहती थी। आखिरकार मैंने सिद्धांतों को कायम रखा और मुझे न्याय की थोड़ी समझ आई। मैंने जो हासिल किया उसके लिए मैं परमेश्वर की आभारी हूँ।

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