परमेश्वर के वचनों के जरिए लोगों को देखना ही सही है
इस साल मार्च में एक दिन, मैंने अचानक सुना कि कलीसिया ने मेरी बड़ी बहन को आत्मचिंतन के लिए अलग कर दिया है। मेरा दिल रुक-सा गया। मुझे विश्वास नहीं हुआ। जब से मैंने परमेश्वर में विश्वास रखा, तभी से मेरी बड़ी बहन मेरी आदर्श रही है, मैं उसकी प्रशंसा और सम्मान करती थी। मुझे लगता था, उसे परमेश्वर में विश्वास है, सत्य का अनुसरण करती है, उसे पक्का बचाया जाएगा। उसे आत्मचिंतन के लिए अलग करना मेरे लिए एक झटका था। ऐसा कैसे हो सकता है? वह सुसमाचार प्रचार करने में अच्छी थी। आस्था में आने के बाद से उसने कई लोगों का धर्म बदला था, कष्ट उठाए थे और कीमत चुकाई थी। अगर कलीसिया का कोई काम होता, तो वह दौड़कर करती, उसने कभी इंकार नहीं किया। सुबह से लेकर रात तक काम करती, सक्रिय रहती। वह अक्सर मुझसे प्रार्थना करने, परमेश्वर के करीब जाने को कहती, मैंने देखा कि वह इसी तरह अभ्यास करती थी। सुबह उठते ही पहले वह प्रार्थना करती, समय मिलने पर भजन सुनती सोने से पहले परमेश्वर के वचनों का पाठ सुनती। वह सत्य का अनुसरण करती थी, तो उसे आत्मचिंतन के लिए अलग क्यों किया गया? कहीं अगुआ ने गलती तो नहीं कर दी? मैं सोचती रही, "अगर उत्साहपूर्वक अनुसरण करने वाला इंसान परमेश्वर की दृष्टि में योग्य नहीं, तब तो यह उम्मीद बेकार है कि परमेश्वर मुझे बचाएगा। वह चाहता है कि लोग पूरे दिलो-दिमाग और शक्ति से काम करें, लेकिन ऐसा तो मैंने कभी नहीं किया है। क्या मुझे भी अलग कर आत्मचिंतन के लिए भेज दिया जाएगा? अगर ऐसा हुआ, तो उससे कैसे निपटूँगी? क्या परमेश्वर में मेरा विश्वास टिक पाएगा?" सोचकर मैं बेचैन हो रही थी, मानो किसी मुसीबत में फँस गई हूँ। मुझे लगने लगा कि एक दिन मुझे त्याग दिया जाएगा। उस वक्त मैं बहुत दुखी थी। मैं परमेश्वर से चौकन्नी रहने लगी, न काम में मन लगता, न सभाओं में संगति करने की इच्छा होती। बिना सिद्धांतों के सुसमाचार का प्रचार करने और मनमर्जी चलाने के लिए। उसने जिन्हें सुसमाचार सुनाया उनमें कुछ की मानवता बुरी थी, कुछ परमेश्वर में ईमानदारी से विश्वास नहीं रखते थे, मुफ्तखोर थे। उसके कार्यकलाप सिद्धांतों के अनुरूप नहीं थे। भाई-बहनों ने उसे कई बार चेताया, मदद की, लेकिन उसने इसे स्वीकारा नहीं। वह यह कहते हुए बहस करती, "आने वालों को मैं उपदेश क्यों न दूं?" कभी लगता वह बात मान रही है, लेकिन फिर भी सिद्धांतों का पालन न कर मनमानी करती रही, नतीजतन सुसमाचार कार्य बाधित हुआ। गड़बड़ होने पर उसने सबक नहीं सीखा, तर्क किया, नकारात्मकता और धारणाएं फैलाईं। एक बार, नवागतों की सभा में उसने कहा, "कर्तव्य-निर्वहन के लिए मैंने परिवार और कारोबार छोड़ दिया, कष्ट सहे, कीमत चुकाई, लेकिन अभी भी जीवन में बहुत-सी कठिनाइयाँ हैं। परमेश्वर मुझे कृपा और आशीष क्यों नहीं देता?" यह सुनकर कुछ नवागतों में धारणाएँ बन गई और वे परमेश्वर की शिकायत करने लगे। क्योंकि प्रचार में वह हमेशा सिद्धांतहीन और लापरवाह थी, लोगों को धोखा देने के लिए नकारात्मकता और धारणाएँ फैलाती, जिससे कलीसिया का कार्य बाधित होता, पश्चात्ताप न करती, इसलिए उसे आत्मचिंतन के लिए अलग किया गया।
उसके व्यवहार से मैं हैरान रह गई। मुझे विश्वास नहीं हुआ कि यह सच है। क्या पहले का उसका सारा अच्छा बर्ताव सिर्फ एक भ्रम था? बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। "कुछ लोग पूछते हैं, 'अगर व्यक्ति प्रतिदिन परमेश्वर के वचन खाता-पीता और सत्य के बारे में संगति करता है, और सामान्य रूप से अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम है, तो क्या यह सत्य की खोज प्रदर्शित करता है? अगर व्यक्ति वह सब करता है जिसकी परमेश्वर का घर व्यवस्था करता है, कभी विघ्न या व्यवधान उत्पन्न नहीं करता, हालाँकि वह कभी-कभी सत्य के सिद्धांतों का उल्लंघन कर देता है लेकिन जानबूझकर या इरादतन ऐसा नहीं करता, तो क्या यह सत्य की खोज प्रदर्शित करता है?' यह अच्छा प्रश्न है। ऐसा विचार ज्यादातर लोगों के मन में होता है। सबसे पहले, तुम्हें यह समझना चाहिए कि क्या व्यक्ति लगातार इस तरह का अभ्यास करके सत्य और उसकी समझ हासिल करने में सक्षम होगा। क्या वह सक्षम होगा? तुम लोग क्या कहते हो? (इस तरह का अभ्यास सही तो है, पर यह धार्मिक अनुष्ठान के समान ज्यादा लगता है। यह नियम-पालन है। इससे सत्य की समझ या सत्य की प्राप्ति नहीं हो सकती।) तो, असल में ये किस तरह के व्यवहार हैं? (ये एक तरह के सतही रूप से अच्छे व्यवहार हैं।) मुझे यह उत्तर पसंद आया। ये केवल ऐसे अच्छे व्यवहार हैं, जो व्यक्ति द्वारा सकारात्मक शिक्षा प्राप्त किए जाने के परिणामस्वरूप उसके अंतःकरण और बुद्धि की नींव से उत्पन्न होते हैं। लेकिन ये अच्छे व्यवहारों से ज्यादा कुछ नहीं हैं, और सत्य का अनुसरण तो बिल्कुल नहीं हैं। तो फिर, इन व्यवहारों का मूल कारण क्या है? उन्हें क्या चीज जन्म देती है? ये मनुष्य के अंतःकरण और बुद्धि, उसके नैतिक दृष्टिकोण, परमेश्वर में विश्वास के प्रति उसकी अनुकूल भावनाओं और उसके आत्म-संयम से उत्पन्न होते हैं। उन अच्छे व्यवहारों का सत्य से कोई संबंध नहीं है; वे किसी भी तरह से समान नहीं हैं। अच्छा व्यवहार सत्य का अभ्यास करने के समान नहीं है, और जो व्यक्ति अच्छा व्यवहार करता है, उसका परमेश्वर द्वारा अनुमोदित होना आवश्यक नहीं है। अच्छा व्यवहार और सत्य का अभ्यास दो अलग-अलग चीजें हैं, और उनका एक-दूसरे पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। सत्य का अभ्यास करना परमेश्वर की अपेक्षा और पूरी तरह से उसकी इच्छा के अनुरूप है; अच्छा व्यवहार मनुष्य की इच्छा से उपजता है और उसमें मनुष्य के इरादे और उद्देश्य निहित होते हैं। यह ऐसी चीज है, जिसे मनुष्य अच्छा समझता है। हालाँकि अच्छा व्यवहार कोई दुष्कर्म नहीं है, फिर भी वह सत्य के सिद्धांतों के विपरीत है और उसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। अच्छे व्यवहार का सत्य से कोई संबंध नहीं है, चाहे वह किसी भी तरह से अच्छा या मनुष्य की धारणाओं और कल्पनाओं के कितना भी अनुरूप क्यों न हो, इसलिए व्यवहार कितना भी अच्छा हो, उसे परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिलेगी। चूँकि अच्छे व्यवहार को इस प्रकार परिभाषित किया जाता है, इसलिए जाहिर है, इसमें सत्य का अभ्यास करना शामिल नहीं है। ... ये व्यवहार मनुष्य के व्यक्तिपरक प्रयासों, उसकी धारणाओं, उसकी प्राथमिकताओं और उसकी इच्छा-शक्ति से उपजते हैं; ये पश्चात्ताप की अभिव्यक्तियाँ नहीं हैं जो सत्य और परमेश्वर के वचनों का न्याय और ताड़ना स्वीकारने से उत्पन्न मनुष्य के सच्चे आत्म-ज्ञान का अनुसरण करते हैं, न ही ये सत्य के अभ्यास के व्यवहार या कार्य हैं, जो परमेश्वर के प्रति समर्पित होने का प्रयास करने से उत्पन्न होते हैं। क्या तुम इसे समझते हो? कहने का तात्पर्य यह है कि इन व्यवहारों में व्यक्ति के स्वभाव में परिवर्तन, या परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना से गुजरने का परिणाम, या व्यक्ति द्वारा अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानने से उत्पन्न होने वाला सच्चा पश्चात्ताप शामिल नहीं है। इसमें निश्चित रूप से परमेश्वर और सत्य के प्रति मनुष्य का सच्चा समर्पण शामिल नहीं है, और न ही परमेश्वर के प्रति श्रद्धा और प्रेम से भरा हृदय शामिल है। अच्छे व्यवहार का इन चीजों से बिलकुल भी लेना-देना नहीं है; यह केवल ऐसी चीज है, जो मनुष्य से आती है और जिसे मनुष्य अच्छा समझता है। फिर भी ऐसे बहुत-से लोग हैं, जो इन अच्छे व्यवहारों को सत्य के अभ्यास का संकेत समझते हैं। यह एक गंभीर गलती है, एक बेतुका और भ्रामक दृष्टिकोण और समझ है। ये अच्छे व्यवहार सिर्फ धार्मिक अनुष्ठान करना है, यंत्रवत काम करने का तरीका है। इनका सत्य का अभ्यास करने से जरा-सा भी संबंध नहीं है। परमेश्वर शायद सीधे इनकी निंदा न करे, पर वह इन्हें स्वीकृति नहीं देता—इस पर तुम यकीन कर सकते हो" (वचन, खंड 6, सत्य की खोज के बारे में, सत्य की खोज करना क्या है (1))। मैंने परमेश्वर के वचनों से जाना कि किसी के त्याग करने, खुद को खपाने, कष्ट उठाने और कीमत चुकाने, कुछ अच्छे कर्म करने, का मतलब यह नहीं है कि वह सत्य का अनुसरण और अभ्यास करता है। इन अभिव्यक्तियों का अर्थ स्वभाव में बदलाव आना नहीं है। ये अभ्यास-मात्र हैं जो लोगों के निजी प्रयास, धारणाओं और पसंद पर आधारित होते हैं। मैंने तो अपनी बहन को प्रतिदिन परमेश्वर के वचन पढ़ते, प्रार्थना करते, कष्ट सहते, कर्तव्य-निर्वहन करते और कीमत चुकाते देखा था, उसके कष्ट और खुद को खपाने के पीछे के इरादे या यह नहीं देखा कि क्या उसमें बदलाव आया है क्या उसने काम में कुछ अच्छे परिणाम प्राप्त किए हैं। मेरी कल्पना थी कि वह ईमानदारी से परमेश्वर में विश्वास रखकर सत्य का अनुसरण करती है। मैं कितनी मूर्ख थी! यूँ तो वह हर दिन अपने काम में व्यस्त दिखती थी कलीसिया द्वारा दिया गया हर काम करती थी, लेकिन बिना सिद्धांतों के, वह अहंकारी थी और मनमाने ढंग से पेश आती थी। कितनी ही बार भाई-बहनों ने उसे चेताया और मदद की, लेकिन वह कतई स्वीकार न करती, न ही आत्मचिंतन करती, कलीसिया में धारणाएँ फैलाकर वहाँ के जीवन को अस्त-व्यस्त करती। यह कर्तव्य-निर्वहन कैसे हुआ? यह तो साफ तौर पर दुष्टता है। पहले मुझे न तो सत्य की समझ थी और न ही विवेक था, तो मैं उसी को अपना आदर्श मानती थी। लेकिन अब परमेश्वर के वचन लागू कर मैंने जाना कि उसकी दिखावे की मेहनत, त्याग और खुद को खपाना अच्छा व्यवहार-मात्र था। इसका सत्य के अभ्यास से कोई लेना-देना नहीं था। वर्षों से विश्वासी होकर भी सत्य का अभ्यास नहीं किया, नकारात्मक विचार फैलाए, कलीसिया का काम बाधित किया। वह सत्य खोजने या सत्य स्वीकारने वाली इंसान नहीं थी।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा और बहन के स्वभाव को जान पाई, सत्य से ऊबने के उसके सार को समझी। परमेश्वर के वचन कहते है, "सत्य से उकता जाना जिन मुख्य तरीकों से अभिव्यक्त होता है, वे मात्र सत्य सुनकर उसके प्रति घृणा की भावनाएँ नहीं होतीं; उनमें सत्य का अभ्यास करने की अनिच्छा भी शामिल होती है। जब सत्य को व्यवहार में लाने का समय आता है, तो ऐसा व्यक्ति पीछे हट जाता है और सत्य का उससे कोई लेना-देना नहीं होता। जब कुछ लोग सभाओं में संगति करते हैं, तो उनमें बड़ा जोश दिखता है, वे लोगों को धोखा देने और उनका दिल जीतने के लिए सिद्धांत के शब्द दोहराते रहते हैं और बड़ी-बड़ी बातें करते हैं; इससे वे अच्छे दिखते हैं और अच्छा महसूस करते हैं, उनके बोलने का सिलसिला खत्म ही नहीं होता। फिर कुछ लोग ऐसे होते हैं जो दिनभर विश्वास से जुड़े मामलों में व्यस्त रहते हैं : परमेश्वर के वचन पढ़ना, प्रार्थना करना, भजन सुनना, नोट्स लेना, मानो वे पल-भर के लिए भी परमेश्वर से अलग नहीं रह सकते। सुबह से लेकर देर रात तक अपने काम में लगे रहते हैं। तो क्या इन लोगों को सच में सत्य से प्रेम होता है? क्या उनके स्वभाव को इससे कभी ऊब नहीं होती? उनकी वास्तविक स्थिति कब दिखाई देती है? (जब सत्य का अभ्यास करने का समय आता है, तो वे इससे पीछे हट जाते हैं, जब उनके साथ निपटा जाता है और उनकी काट-छाँट की जाती है, तो वे इसे स्वीकारने को तैयार नहीं होते।) कहीं ऐसा तो नहीं कि वे लोग जो कुछ सुनते हैं, उसे समझ नहीं पाते या चूँकि उन्हें सत्य समझ नहीं आता इसलिए वे उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं होते? दोनों ही बातें सही नहीं हैं—वे अपनी प्रकृति के वश में होते हैं, यह एक स्वभावगत समस्या है। मन ही मन तो वे अच्छी तरह जानते हैं कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं और सकारात्मक बातें हैं, वे जानते हैं कि सत्य का अभ्यास करने से व्यक्ति के स्वभाव में बदलाव आ सकता है जिससे वह परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट कर सकता है, लेकिन वे बस इसे स्वीकार नहीं करते या उसका अभ्यास नहीं करते। इसी को सत्य से उकता जाना कहते हैं" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, छह प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान ही सच्चा आत्म-ज्ञान है)। मुझे हमेशा लगता था कि जो दैहिक-सुख त्यागता, खुद को खपाता और कर्तव्य करता है वो सत्य का अनुसरण कर रहा है। लेकिन अब जाना कि यह नजरिया सत्य के अनुरूप नहीं है। कोई व्यक्ति कितना भी कष्ट सहते और खुद को खपाते दिखे, अगर कुछ होने पर वह सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास न करे, हठपूर्वक मनमानी करे और सिद्धांतों के अनुसार कार्य न करे, तो वह सत्य से उकताया हुआ व्यक्ति है, फिर चाहे वह कितना भी पुराना विश्वासी हो, उसमें बदलाव नहीं आएगा। अपनी बहन के व्यवहार से इसकी तुलना करने पर देखती हूँ कि यूँ तो वह पवित्र लगती थी, अक्सर परमेश्वर के वचन पढ़ती थी, भजन सुनती, प्रार्थना करती थी, कष्ट सहती और अपने काम में कीमत चुकाती थी, सच में विश्वास रखते और सत्य का अनुसरण करते दिखती थी, जबकि सच यह है कि उसने कभी सत्य नहीं स्वीकारा। वह लगातार लापरवाही और मनमाने ढंग से काम करती रही। जब भाई-बहन उसकी समस्या बताते, तो बहस करती, तर्क देती, कभी आत्मचिंतन न करती, बरसों परमेश्वर में विश्वास रखकर भी उसका स्वभाव नहीं बदला था। वह गैर-विश्वासी थी, परमेश्वर द्वारा बताए गए सत्य से ऊबती थी। उसने दैहिक-सुख त्यागा, खुद को खपाया, कष्ट सहे और कीमत चुकाई, लेकिन उसने ये परमेश्वर के अनुग्रह और आशीष के लिए किया। जब परमेश्वर द्वारा निर्मित परिस्थिति उसके मन-मुताबिक नहीं थी, तो भुनभुनाकर उसने शिकायत की, नकारात्मकता फैलाई और भाई-बहनों को परेशान किया। यह साफ था कि उसमें परमेश्वर के प्रति जरा भी श्रद्धा नहीं है। परमेश्वर के लिए खुद को खपाकर, वह उसके साथ सौदेबाजी और कपट कर रही थी। हम लोगों का सिर्फ बाह्य रूप देखते हैं। लोगों को कष्ट सहते और अच्छे कर्म करते देख हम मान लेते हैं कि वे अच्छे हैं। लेकिन परमेश्वर लोगों का दिल और सार देखता है, सत्य के प्रति उनका नजरिया देखता है। अगर कोई सत्य स्वीकार सकता है, काट-छांट और निपटारे को झेल सकता है, सत्य खोजकर आत्मचिंतन कर सकता है, सच्चा ज्ञान प्राप्त कर स्वयं से घृणा सकता है, सच में पछता सकता है, तो वह सत्य का अनुसरण और उससे प्रेम करता है, ऐसे व्यक्ति को ही परमेश्वर बचाता है। अगर किसी की प्रकृति जिद्दी और सत्य से ऊबने वाली है, बरसों विश्वास रखकर भी उसके स्वभाव में जरा भी नहीं बदलाव नहीं आया है, फिर भले ही उसने अच्छे कर्म किए हों, ये चीजें निरी पाखंड और कपट होती हैं। फरीसी पवित्र दिखते थे और उन्होंने बहुत से अच्छे काम भी किए थे, लेकिन उनकी प्रकृति सत्य से ऊबने और घृणा करने की थी। जब प्रभु यीशु ने सत्य व्यक्त किया और लोगों को बचाने का काम किया, तो उन्होंने जमकर उसका विरोध और निंदा की आखिर में, उसे सूली पर चढ़ा दिया, जिसके लिए उन्हें परमेश्वर का शाप और दंड मिला। तब जाकर मैं समझी कि सत्य के बिना हम अज्ञानी हैं, लोगों का सार साफ नहीं देख पाते, हम नहीं समझते कि परमेश्वर को कैसे लोग पसंद हैं या वह किन्हें बचाता है। जब पहली बार मुझे अपनी बहन के अलग किए जाने का पता चला, तो मुझे कुछ समझ नहीं आया। मुझे लगा अगुआ ने जांच नहीं की होगी, कोई गलती होगी। परमेश्वर के वचनों की रोशनी में ही स्पष्ट हुआ कि मेरी बहन को अलग करना सिद्धांतों के अनुरूप है, इसमें अगुआ की कोई गलती नहीं है। उस वक्त मुझे बहुत राहत मिली।
बाद में, मैं सोचने लगी : बहन को आत्मचिंतन के लिए अलग किए जाने पर, मुझे पता था कि मुझे परमेश्वर से ग्रहण करना चाहिए, वह धार्मिक है, लेकिन फिर भी अनचाहे ही मुझे कई चिंताएँ थीं। परमेश्वर में मेरा विश्वास नया था, मैंने काम भी अच्छा नहीं किया था, तो क्या मुझे एक दिन निकालकर त्याग दिया जाएगा? मैं परमेश्वर को गलत समझकर उससे चौकन्नी रहने लगी। लेकिन यह भी पता था कि मुझे अभी बहुत से सबक सीखने हैं, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि मेरा मार्गदर्शन करे ताकि उसकी इच्छा समझ सकूँ। एक बार एक सभा में, मैंने उसके वचनों के दो अंश पढ़े। "यदि तुम लोग परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाया जाना चाहते हो, तो तुम्हें यह सीखना कि सभी मामलों में कैसे अनुभव किया जाए, और अपने साथ घटित होने वाली हर चीज़ में प्रबोधन प्राप्त करने योग्य बनना आवश्यक है। वह चीज़ अच्छी हो या बुरी, तुम्हें वह लाभ ही पहुँचाए और तुम्हें नकारात्मक न बनाए। इस बात पर ध्यान दिए बिना, तुम्हें चीज़ों पर परमेश्वर के पक्ष में खड़े होकर विचार करने में सक्षम होना चाहिए और मानवीय दृष्टिकोण से उनका विश्लेषण या अध्ययन नहीं करना चाहिए (यह तुम्हारे अनुभव में भटकना होगा)। यदि तुम ऐसा अनुभव करते हो, तो तुम्हारा हृदय तुम्हारे जीवन के बोझ से भर जाएगा; तुम निरंतर परमेश्वर के मुखमंडल की रोशनी में जियोगे, और अपने अभ्यास में आसानी से विचलित नहीं होओगे। ऐसे लोगों का भविष्य उज्ज्वल होता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, प्रतिज्ञाएँ उनके लिए जो पूर्ण बनाए जा चुके हैं)। "मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंजिल उसकी आयु, वरिष्ठता और उसके द्वारा सही गई पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता, और जिस सीमा तक वे दया के पात्र होते हैं, उसके आधार पर तो बिलकुल भी तय नहीं करता, बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। तुम लोगों को यह समझना चाहिए कि जो लोग परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण नहीं करते, वे सब दंडित किए जाएँगे। यह एक अडिग तथ्य है। इसलिए, जो लोग दंडित किए जाते हैं, वे सब इस तरह परमेश्वर की धार्मिकता के कारण और अपने अनगिनत बुरे कार्यों के प्रतिफल के रूप में दंडित किए जाते हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई, वह चाहता है कि अपनी बहन को अलग देखकर, मैं सबक सीखूं और समझ हासिल करूँ, उसके वचनों द्वारा लोगों और मामलों को देखना सीखूँ और समझूँ कि वह किसे पसंद करता है और किससे नफरत। बहन आत्मचिंतन के लिए अलग है, ये जानकर मेरे मन में गलतफहमियाँ और संदेह उठे, मैं नकारात्मकता और कमजोरी में जीने लगी। परमेश्वर में मेरे विश्वास को थोड़ा ही समय हुआ है, मैंने उसके जितने कष्ट भी नहीं सहे हैं, न ही उतनी कीमत चुकाई है, तो शायद मुझे त्याग दिया जाए। अब मैं समझी, परमेश्वर लोगों के अंत का निर्धारण उनके विश्वास की अवधि या सहे गए कष्ट के आधार पर नहीं करता। इस आधार पर करता है कि लोग परमेश्वर में अपनी आस्था के जरिए सत्य प्राप्त करते हैं या नहीं, उन्होंने उसका आज्ञापालन और आराधना करना सीखा है या नहीं। भले ही किसी ने कितने भी साल काम किया हो, दैहिक-सुख त्यागा हो, खुद को खपाया और कीमत चुकाई हो, अगर उसने सत्य प्राप्त कर अपना भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदला है, तो अंतत: उसे नहीं बचाया जाएगा। अगर वह ढेरों बुरे कार्य कर पश्चात्ताप नहीं करता, तो परमेश्वर उसे दंडित करेगा। यह परमेश्वर की धार्मिकता है। पौलुस ने बरसों काम किया और बहुत दु:ख उठाया, सुसमाचार प्रचार करके बहुत से लोगों को प्राप्त किया, कई कलीसियाएँ स्थापित कीं, लेकिन उसका जीवन स्वभाव जरा भी नहीं बदला। बल्कि वह और भी अहंकारी हो गया खुल्लमखुल्ला यह घोषणा कर दी कि वह मसीह है, परमेश्वर ने उसकी निंदा की और दण्ड दिया। पौलुस इसका विशिष्ट उदाहरण है कि महज उत्साहित होना, त्यागना और खुद को खपाना ही परमेश्वर में हमारे विश्वास के लिए काफी नहीं है। सत्य का अनुसरण कर खुद में बदलाव लाना जरूरी है। इस से तय होता है कि लोगों को बचाया जा सकता है या नहीं। परमेश्वर का घर सफाई करता है, कुछ लोगों को आत्मचिंतन के लिए अलग करता है ताकि उन्हें बुराई करते रहने और कलीसियाई जीवन बाधित करने से रोका जा सके। इससे उनकी सुरक्षा होती है, कलीसिया के कार्य को भी लाभ होता है। लेकिन उनका अंतिम परिणाम उनकी प्रकृति और सार से तय होता है, क्या वे सत्य का अनुसरण करते हैं, किस मार्ग पर चलते हैं। अगर लोग नाकाम और पतित होने पर आत्मचिंतन और पश्चात्ताप करते हैं, तो उनके पास परमेश्वर द्वारा बचाए जाने का एक और मौका होगा। अगर वे पश्चात्ताप नहीं करते, भ्रष्ट स्वभाव में जीते रहते हैं, गड़बड़ी और बुराई करते हैं, हार मान लेते हैं या नकारात्मक होकर विरोध करते हैं, तो फिर वे यकीनन गैर-विश्वासी और कुकर्मी हैं, उन्हें प्रकट कर त्याग दिया जाता है, परमेश्वर उन्हें नहीं बचाता। मैं बचाव कर रही थी, परमेश्वर को लेकर भ्रम में थी क्योंकि मैं लोगों के मूल्यांकन के लिए परमेश्वर के सिद्धांत और उसके धार्मिक स्वभाव को नहीं जानती थी, मेरा सारा ध्यान अपने भविष्य और भाग्य पर था। अपनी बहन के अलग होने पर मुझे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की थोड़ी-बहुत समझ प्राप्त हुई, जाना कि लोग अपने विश्वास में कष्ट उठाते और खुद को खपाते तो दिखते हैं, लेकिन सत्य स्वीकार कर उसका अभ्यास और सिद्धांतों के अनुसार काम न करने, परअंतत: वे बचाए नहीं जाएंगे, परमेश्वर उन्हें प्रकट कर त्याग देगा। कलीसिया का सफाई करना भी एक चेतावनी थी जिससे मुझे आत्मचिंतन कर पश्चात्ताप करने का अवसर मिला और नाकामी का मार्ग अपनाने से बच गई, सत्य खोजने पर ध्यान दे पाई और सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य अच्छे से कर पाई।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?