लापरवाही से काम करने की असली वजह
कुछ समय पहले, मेरे बनाये वीडियो की समीक्षा करने वाली बहन ने बताया कि उनकी क्वालिटी अच्छी नहीं थी, उनमें बहुत सी गड़बड़ियाँ थीं। उन्होंने कहा कि अगर मैं वीडियो बनाते समय और ध्यान लगाऊँ तो वे गलतियाँ नहीं करूँगी, फिर बाद में उन्हें ठीक करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। उन्होंने मुझे काम करते समय सावधान रहने और ध्यान लगाने के लिए भी कहा। मैंने हाँ तो कह दिया लेकिन फिर सोचा, “यह इतनी बड़ी समस्या नहीं है। छोटी-छोटी गड़बड़ियाँ ठीक करने में इतना समय लगाना और मेहनत करना सही है क्या? यह तो समय की बर्बादी होगी। वैसे भी मेरा कौशल अच्छा नहीं है, इन समस्याओं को हल करने के लिए शोध भी करना होगा, कोई गारंटी भी नहीं है कि मैं उन्हें हल कर लूँगी, तो कोशिश का क्या फायदा? वैसे भी मुझे बहुत सारी वीडियो बनानी हैं, तो उन समस्याओं को पूरी तरह से हल करने का समय कहाँ है मेरे पास? इन समस्याओं को ढूँढने में आप लोग मुझसे ज्यादा कुशल हैं, आपके ढूँढने के बाद मैं उन्हें हल नहीं कर सकती क्या? यह इतना मुश्किल भी नहीं है।” यह सोचकर मैंने बहन की चेतावनियों को अनसुना कर दिया। उसके बाद, जब भी कोई ऐसी समस्या सामने आती जिसे लेकर मैं अनिश्चित होती थी, तो उसके बारे में सोचने या सिद्धांत खोजने में अपना समय और मेहनत बर्बाद नहीं करना चाहती थी। हमेशा उन्हें समीक्षक के भरोसे छोड़ देती थी। कभी-कभी मुझे थोड़ी बेचैनी महसूस होती थी, “क्या मैं इस तरह अपना कर्तव्य निभाकर लापरवाही कर रही हूँ?” लेकिन फिर बहाने मार कर अपनी अंतरात्मा की इन निंदाओं को जल्दी से दबा देती थी : “मैं काम को आगे बढ़ाने के लिए ऐसा कर रही हूँ। अगर मेरे कौशल में कमी है, तो दूसरे इसे देख लेंगे। मैं हाथ पर हाथ धरे इन समस्याओं पर समय बर्बाद नहीं करना चाहती।” उसके बाद, समीक्षक मुझे बार-बार कहने लगी कि मेरे वीडियो अच्छे नहीं बने हैं, और उनमें बहुत-सी समस्याएं हैं। यह सुनकर मैंने बेमन “हाँ” तो कह दिया लेकिन कभी इसे स्वीकार नहीं पाई।
जब समूह अगुआ ने सासाफ-साफ मुझसे कहा, “आपके वीडियो में बहुत-सी समस्याएं हैं, जिन्हें आप ठीक कर सकती हैं उन्हें भी आप समीक्षा करने वाली बहन को सौंप देती हैं। आप कर्तव्य निभाने में लापरवाह और गैर-जिम्मेदार हो रही हैं। आम तौर पर, एक वीडियो की समीक्षा करने में ज्यादा समय नहीं लगता, लेकिन क्योंकि आपका काम इतना खराब है और आपने साफ दिख रही समस्याओं को भी नहीं सुलझाया है, तो वीडियो की समीक्षा करने में दोगुना या उससे भी ज़्यादा समय लगता है। आपको नहीं लगता कि यह गलत है?” समूह अगुआ ने सहभागिता भी की : “किसी काम को अच्छी तरह से करने के लिए सावधान और सतर्क रहना चाहिए और कर्तव्य निभाते समय पूरी कोशिश करनी चाहिए। अगर हर कोई गैर-जिम्मेदार हो जाएगा, हर समस्या को किसी और के भरोसे छोड़ देगा तो दूसरों पर ज्यादा दबाव बनता जाएगा, इससे काम पूरा होने में देरी हो जाएगी।” पहले तो मैंने बहाने बनाने की ही कोशिश की, लेकिन अंदर ही अंदर महसूस हुआ कि समूह अगुआ ने यह बात परमेश्वर की अनुमति से कही है। वीडियो की समीक्षा करने वाली बहन ने मुझे कई बार आगाह किया था, लेकिन मैंने कभी ध्यान नहीं दिया। इस तरह का लापरवाह रवैया सच में बहुत गलत था।
बाद में, मैंने एक गवाही निबंध पढ़ा, उसमें लिखे परमेश्वर के वचन के कुछ अंशों ने मुझे सच में हिलाकर रख दिया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “सत्य से चिढ़ने का क्या अर्थ है? यह तब होता है, जब सकारात्मक चीजों से जुड़ी किसी भी चीज से, और सत्य से, परमेश्वर जो कहता है उससे, और परमेश्वर की इच्छा से सामना होने पर लोगों को उनमें कोई दिलचस्पी नहीं होती; कभी-कभी उन्हें इन चीजों से अरुचि होती है, कभी-कभी वे उनसे विलग होते हैं, कभी-कभी उनके प्रति उनका अनादर और उदासीनता का रवैया होता है, और वे उन्हें महत्वहीन मानते हैं, और उनके प्रति निष्ठाहीन और अनमने होते हैं, या उनके प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं लेते” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, छह प्रकार के भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान ही सच्चा आत्म-ज्ञान है)। “परमेश्वर लोगों की तुच्छ क्षमता से नफ़रत नहीं करता, वह उनकी मूर्खता से नफरत नहीं करता, और वह इस बात से भी नफ़रत नहीं करता कि उनके स्वभाव भ्रष्ट हैं। लोगों में वह क्या चीज है, जिससे परमेश्वर सबसे ज्यादा घृणा करता है? वह है उनका सत्य से चिढना। अगर तुम सत्य से चिढ़ते हो, तो केवल इसी एक कारण से, परमेश्वर कभी भी तुमसे खुश नहीं होगा। यह बात पत्थर की लकीर है। अगर तुम सत्य से चिढ़ते हो, अगर तुम सत्य से प्रेम नहीं करते, अगर सत्य के प्रति तुम्हारा रवैया परवाह न करने वाला, तिरस्कारपूर्ण और घमंडी, यहाँ तक कि ठुकराने, प्रतिरोध करने और नकारने का है—अगर तुम्हारे ये व्यवहार हैं, तो परमेश्वर तुमसे सरासर घृणा करता है, और तुम मृतप्राय हो और बचाए नहीं जाओगे। अगर तुम वास्तव में अपने दिल में सत्य से प्रेम करते हो, लेकिन कुछ हद तक कम क्षमता वाले हो और तुममें अंतर्दृष्टि की कमी है, और तुम थोड़े मूर्ख हो; अगर तुम कभी-कभी गलतियाँ कर देते हो, लेकिन बुराई करने का इरादा नहीं रखते, और तुमने बस कुछ मूर्खतापूर्ण काम किए हैं; अगर तुम सत्य के बारे में परमेश्वर की संगति सुनने के लिए दिल से इच्छुक हो, और तुम सत्य के लिए दिल से लालायित हो; अगर तुम सत्य और परमेश्वर के वचनों के प्रति अपने व्यवहार में ईमानदारी और ललक भरा रवैया अपनाते हो, और तुम परमेश्वर के वचन बहुमूल्य समझकर सँजो सकते हो—तो यह काफी है। परमेश्वर ऐसे लोगों को पसंद करता है। भले ही तुम कभी-कभी थोड़ी मूर्खता करते हो, परमेश्वर तुम्हें फिर भी पसंद करता है। परमेश्वर तुम्हारे दिल से प्रेम करता है, जो सत्य के लिए तरसता है, और वह सत्य के प्रति तुम्हारे ईमानदार रवैये से प्रेम करता है। तो, तुम पर परमेश्वर की दया है और वह हमेशा तुम पर अनुग्रह कर रहा है। वह तुम्हारी खराब क्षमता या तुम्हारी मूर्खता पर विचार नहीं करता, न ही वह तुम्हारे अपराधों पर विचार करता है। चूँकि सत्य के प्रति तुम्हारा दृष्टिकोण सच्चा और उत्सुकता भरा है, और तुम्हारा हृदय सच्चा है; चूँकि तुम्हारा हृदय और रवैया ऐसा है जिसे परमेश्वर महत्त्व देता है, इसलिए वह हमेशा तुम्हारे प्रति दयालु रहेगा—और पवित्र आत्मा तुम पर कार्य करेगा, और तुम्हें उद्धार की आशा होगी। दूसरी ओर, यदि तुम दिल के कठोर और विलासी हो, अगर तुम सत्य से चिढ़ते हो, और परमेश्वर के वचनों और सत्य से जुड़ी किसी भी चीज पर कभी ध्यान नहीं देते, और अपने दिल की गहराइयों से विरोधी और तिरस्कारपूर्ण हो, तो फिर तुम्हारे प्रति परमेश्वर का रवैया कैसा होगा? खीज, विकर्षण, और निरंतर क्रोध का” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना कर्तव्य सही ढंग से पूरा करने के लिए सत्य को समझना सबसे महत्त्वपूर्ण है)। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद मैं समझ गई, सैद्धांतिक रूप से मैंने पहचाना कि मैं क्यों कर्तव्य में ध्यान लगाने के बजाय लापरवाह हो रही थी, लेकिन फिर भी उसे गंभीरता से नहीं लिया। मुझे एहसास हुआ कि मैं सत्य से तंग आकर हठी स्वभाव की हो चुकी थी। बहन ने मुझे कई बार चेतावनी दी कि मेरे वीडियो खराब थे और मुझे ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। यह अच्छी बात थी, वह मेरी मदद कर रही थी। मैं बस उनकी बातें सुन लिया करती थी लेकिन कभी उन्हें दिल से नहीं लगाया। मैं हर बार अपने मन में खुद के लिए बहाने बना रही थी। मेरे अशिष्ट रवैये से पता चला कि मुझे सत्य से चिढ़ थी और यह परमेश्वर के लिए घृणित था। अगर हमेशा आस-पास के लोगों और चीजों के साथ अशिष्ट और घृणित रवैया रखूँगी, तो चाहे कितनी ही बार कोई मुझे चेतावनी दे या मदद करने की कोशिश करे, मैं आगे नहीं बढ़ पाऊँगी या कुछ हासिल नहीं करूँगी। परमेश्वर के वचन बहुत स्पष्ट हैं। अज्ञानता, कम काबिलियत और भ्रष्ट स्वभाव घातक बीमारियां नहीं हैं, लेकिन अगर दिल ही हठी हो, सच से चिढ़ता हो, तो वह हमेशा परमेश्वर के बनाये हालात का सामना एक बेअदब और प्रतिरोधी रवैये के साथ करेगा, सत्य की खोज नहीं करेगा और न ही सबक सीखेगा, तो इस तरह आपको न सत्य मिल पाएगा और न ही परमेश्वर बचा पाएगा। अगर मैं पश्चाताप करके अपने तरीके नहीं सुधारती, तो न केवल मैं अपना कर्तव्य खराब तरीके से करूँगी बल्कि अंत में, मुझे परमेश्वर मुझे त्याग देगा। इन बातों का एहसास होने पर मैं डर गई। अब मैं कर्तव्य निभाने में इस तरह का लापरवाह रवैया नहीं दिखा सकती। मुझे आत्म-चिंतन करके परमेश्वर के सामने पश्चाताप करना था। उन दिनों मैं अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करती, मुझे प्रबुद्ध करने और खुद को जानने में मदद करने की विनती करती। इस विषय पर सजग होकर परमेश्वर के वचनों को खाती-पीती थी।
एक दिन, मैंने परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ा। “सच तो यह है कि अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना बहुत कठिन नहीं है। यह सिर्फ जमीर और विवेक होने, ईमानदार और मेहनती होने की बात है। ऐसे कई अविश्वासी हैं, जो ईमानदारी से काम करते हैं और नतीजतन सफल हो जाते हैं। वे सत्य के सिद्धांतों के बारे में कुछ नहीं जानते, तो वे इतना अच्छा कैसे कर लेते हैं? वह इसलिए, क्योंकि वे विवेकशील और मेहनती होते हैं, इसलिए वे ईमानदारी से काम कर सकते हैं, सावधान रह सकते हैं और चीजें आसानी से करवा सकते हैं। परमेश्वर के घर का कोई भी कर्तव्य बहुत कठिन नहीं है। अगर तुम अपना पूरा दिल उसमें लगाओ और भरसक प्रयास करो, तो तुम अच्छा काम कर सकते हो। अगर तुम ईमानदार नहीं हो, और जो कुछ भी तुम करते हो उसमें मेहनती नहीं हो, अगर तुम हमेशा खुद को परेशानी से बचाने की कोशिश करते हो, अगर तुम हमेशा अनमने रहते हो और हर चीज में खानापूरी करते हो, अगर तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभाते, चीजें गड़बड़ कर देते हो और नतीजतन परमेश्वर के घर को हानि पहुँचाते हो, तो इसका अर्थ यह है कि तुम बुराई कर रहे हो, और यह एक ऐसा अपराध बन जाएगा जिससे परमेश्वर घृणा करता है। सुसमाचार फैलाने के महत्वपूर्ण क्षणों के दौरान, अगर तुम अपने कर्तव्य में अच्छे परिणाम प्राप्त नहीं करते और सकारात्मक भूमिका नहीं निभाते, या अगर तुम व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करते हो, तो स्वाभाविक रूप से परमेश्वर तुमसे घृणा करेगा और तुम बाहर निकाल दिए जाओगे और उद्धार का अपना मौका खो दोगे। इसे लेकर तुम सदा पछताओगे! परमेश्वर द्वारा तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने के लिए उन्नत करना उद्धार का तुम्हारा एकमात्र अवसर है। अगर तुम गैरजिम्मेदार रहते हो, उसे हल्के में लेते हो और जैसे-तैसे निपटाते हो, तो यही वह रवैया है जिसके साथ तुम सत्य और परमेश्वर के साथ पेश आते हो। अगर तुम जरा भी ईमानदार या आज्ञाकारी नहीं हो, तो तुम परमेश्वर का उद्धार कैसे प्राप्त कर सकते हो? अभी समय बहुत कीमती है; हर दिन और हर सेकंड महत्वपूर्ण है। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, अगर तुम जीवन-प्रवेश पर ध्यान केंद्रित नहीं करते, और अगर तुम अपने कर्तव्य में खानापूरी कर परमेश्वर को धोखा देते हो, तो यह वास्तव में मूर्खतापूर्ण और खतरनाक है! जब परमेश्वर तुमसे घृणा करने लगता है और तुम बाहर निकाल दिए जाते हो, तो पवित्र आत्मा तुममें कार्य नहीं करता, और इसका कोई इलाज नहीं है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “परमेश्वर किस तरह के व्यक्ति को बचाता है? तुम कह सकते हो कि उन सभी में जमीर और विवेक होता है और वे सत्य स्वीकार सकते हैं, क्योंकि सिर्फ जमीर और विवेक से युक्त लोग ही सत्य स्वीकार कर उससे प्रेम कर पाते हैं, और अगर वे सत्य समझते हैं तो उसका अभ्यास कर सकते हैं। जमीर और विवेक से रहित लोग वे होते हैं, जिनमें मानवता का अभाव होता है; देशी भाषा में हम कहते हैं कि वे गुणरहित हैं। गुणरहित होने की प्रकृति क्या होती है? वह मानवता से रहित प्रकृति होती है, और ऐसी प्रकृति वाला व्यक्ति मानव कहलाने के योग्य नहीं होता। जैसी कि कहावत है, तुममें कोई भी कमी हो पर गुण की कमी न हो; उसके बिना तुम्हारा काम तमाम हो जाता है, और फिर तुम इंसान नहीं रहते। उन दानवों और दानव-राजाओं को देखो, जो परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह करने और उसके चुने हुए लोगों को नुकसान पहुँचाने की भरसक कोशिश करते हैं। क्या वे गुणरहित नहीं हैं? हैं; उनमें वास्तव में गुण नहीं है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। मैंने पहले भी परमेश्वर के वचन के इन अंशों को देखा था, लेकिन कभी गंभीरता से समझने के लिए आत्म-चिंतन नहीं किया। उन्हें फिर से पढ़कर मैं हिल गई। हाँ, परमेश्वर मुझसे ज्यादा नहीं मांगता और न ही मेरी क्षमताओं से ज़्यादा काम करवाना चाहता है, परमेश्वर नहीं चाहता कि मैं एकदम सटीक वीडियो बनाऊँ, वह मुझे मेहनत करते, ध्यान देकर भरसक प्रयास करते देखना चाहता है। भले ही मेरा कौशल सीमित है और कुछ समस्याओं को मैं नहीं सुलझा पाती, लेकिन भरसक प्रयास करने से ही मेरी जिम्मेदारी पूरी हो जाएगी। लेकिन मैं क्या कर रही थी? मैं कुछ समस्याएं तो स्पष्ट रूप से सुलझा सकती थी। मुझे बस ध्यान से सोचने और उन्हें हल करने में थोड़ा समय देने की जरूरत थी, लेकिन मैं मेहनत नहीं करना चाहती थी। खुद की परेशानी कम करने के लिए दूसरों पर काम का बोझ डाल देती थी। इस तरह, बिना कोई तकलीफ उठाये या परेशान हुए काम पूरा हो जाता था। मैं लापरवाही और सुस्ती में बहुत अच्छी थी। ऐसा लगता था मैं काफी वीडियो बना रही हूँ और काम भी कुशल था, लेकिन हकीकत में, दूसरे लोग इन समस्याओं को सुलझाने के लिए मेहनत कर रहे थे। मैं बस आलस दिखा रही थी। मैं बिलकुल वैसी ही थी जैसा परमेश्वर ने बताया है, सदाचार और मानवता से रहित इंसान। कहने को तो मैं उन वीडियो को बनाती थी, लेकिन हकीकत में, मुझे पता भी नहीं था कि दूसरे लोग उन पर कितना समय लगा रहे हैं। एक वीडियो की जांच करने में सिर्फ एक घंटा लगना चाहिए, लेकिन दूसरों को मेरे वीडियो की जांच करने में दुगना या उससे भी ज्यादा समय लगता था। दूसरे लोग अपने कर्तव्य निभाने में पहले से ही व्यस्त थे और मैंने उनका काम बढ़ाकर पूरे काम की प्रगति को धीमा कर दिया। खुद के फायदे के लिए मैं दूसरों को नुकसान पहुंचा रही थी। मेरी बहन ने कई बार मुझसे अपने कर्तव्य को ज्यादा गंभीरता से लेने और सावधानी बरतने के लिए कहा, लेकिन मैंने उनकी कभी नहीं सुनी, यहां तक कि अपनी बेपरवाही के लिए बहाने बनाने लगी। मैं कहती कि उत्पादकता और कार्य कुशलता बढ़ाने के लिए ऐसा कर रही हूँ। बहुत गैर-जिम्मेदार हो गई थी! ऐसी भी कुछ समस्याएँ थीं जिन्हें हल करने का कौशल मेरे पास नहीं था, लेकिन भाई-बहनों के साथ उन पर चर्चा करके कुछ समस्याएँ तो सुलझा ही सकती थी। इस तरह अपनी सभी समस्याएँ दूसरों के भरोसे नहीं छोड़ती। लेकिन मैं कीमत नहीं चुकाना चाहती थी, मुझमें मानवता की कमी थी! फिर मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “कुछ लोग चाहे जो भी काम करें या कोई भी कर्तव्य निभाएँ, वे उसमें सफल नहीं हो पाते, यह उनके लिए बहुत अधिक होता है, वे किसी भी उस दायित्व या जिम्मेदारी को निभाने में असमर्थ होते हैं, जो लोगों को निभानी चाहिए। क्या वे कचरा नहीं हैं? क्या वे अभी भी इंसान कहलाने लायक हैं? कमअक्ल लोगों, मानसिक रूप से विकलांगों और जो शारीरिक अक्षमताओं से ग्रस्त हैं, उन्हें छोड़कर, क्या कोई ऐसा जीवित व्यक्ति है जिसे अपने कर्तव्यों का पालन और अपनी जिम्मेदारियों को पूरा नहीं करना चाहिए? लेकिन इस तरह के लोग धूर्त होते हैं और हमेशा बेईमानी करते हैं, और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं करना चाहते; निहितार्थ यह है कि वे एक सही व्यक्ति की तरह आचरण नहीं करना चाहते। परमेश्वर ने उन्हें क्षमता और गुण दिए, उसने उन्हें इंसान बनने का अवसर दिया, लेकिन वे अपने कर्तव्य-पालन में इनका इस्तेमाल नहीं कर पाते। वे कुछ नहीं करते, लेकिन हर चीज का आनंद लेना चाहते हैं। क्या ऐसा व्यक्ति मनुष्य कहलाने लायक भी है? उन्हें कोई भी काम दे दिया जाए—चाहे वह महत्वपूर्ण हो या सामान्य, कठिन हो या सरल—वे हमेशा लापरवाह और अनमने, आलसी और धूर्त बने रहते हैं। समस्याएँ आने पर अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर थोपने की कोशिश करते हैं; वे कोई जिम्मेदारी नहीं लेते, अपना परजीवी जीवन जीते रहना चाहते हैं। क्या वे बेकार कचरा नहीं हैं? समाज में कौन व्यक्ति होगा जो जीने के लिए खुद पर निर्भर न होगा? व्यक्ति जब बड़ा हो जाता है, तो उसे अपना भरण-पोषण खुद करना चाहिए। उसके माता-पिता ने अपनी जिम्मेदारी निभा दी है। भले ही उसके माता-पिता उसकी मदद करने के लिए तैयार हों, वह इससे असहज होगा, और उसे यह पहचानने में सक्षम होना चाहिए, ‘मेरे माता-पिता ने बच्चे पालने का अपन काम पूरा कर दिया है। मैं वयस्क और हृष्ट-पुष्ट हूँ—मुझे स्वतंत्र रूप से जीने में सक्षम होना चाहिए।’ क्या एक वयस्क में इतनी न्यूनतम समझ नहीं होनी चाहिए? अगर व्यक्ति में वास्तव में समझ है, तो वह अपने माता-पिता के टुकड़ों पर पलता नहीं रह सकता; वह दूसरों की हँसी का पात्र बनने से, शर्मिंदा होने से डरेगा। तो क्या किसी बेकार आवारा में कोई समझ होती है? (नहीं।) वे बिना कुछ काम किए हासिल करना चाहते हैं, कभी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते, मुफ्त के भोजन की फिराक में रहते हैं, उन्हें दिन में तीन बार अच्छा भोजन चाहिए होता है—वे चाहते हैं कि कोई उनके लिए पलकें बिछाए रहे और भोजन भी स्वादिष्ट हो—और यह सब बिना कोई काम किए मिल जाए। क्या यह एक परजीवी की मानसिकता नहीं है? क्या परजीवियों में विवेक और समझ होती है? क्या उनमें गरिमा और निष्ठा होता है? बिलकुल नहीं; वे सभी मुफ्तखोर निकम्मे होते हैं, जमीर या विवेक से रहित जानवर। उनमें से कोई भी परमेश्वर के घर में बने रहने के योग्य नहीं है” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के पढ़कर मैं शर्मसार हो गई। जीवन में हर व्यक्ति की कुछ जिम्मेदारियाँ होती हैं, कुछ कर्तव्य निभाने होते हैं। अगर हम अपनी जिम्मेदारियाँ भी नहीं निभा सकते तो हम बेकार और नालायक हैं। यही तो थी ना मैं? उन वीडियो को बनाना मेरी जिम्मेदारी थी और उन्हें अच्छे से बनाने की पूरी कोशिश करनी चाहिए थी। वह मेरी जिम्मेदारी थी। यह सोचकर कि कोई उनकी समीक्षा करेगा, मुझे लापरवाही से काम नहीं लेना चाहिए था। ऐसा करके मैं ढिलाई बरत रही थी, कामचोरी कर रही थी, अपनी जिम्मेदारियों से बचना चाहती थी, इन जिम्मेदारियों को दूसरों पर थोपने के लिए बहाने बना रही थी। मैंने खुद से पूछा, “इन जिम्मेदारियों को दूसरों के भरोसे छोड़ दिया है, तो मैं यहाँ क्या काम कर रही हूँ? मेरी काबिलियत हमेशा औसत रही है और मेरे कौशल की भी सीमाएं हैं। अगर मैं कड़ी मेहनत नहीं करूँगी और कीमत नहीं चुकाना चाहूँगी, तो अपना कर्तव्य ठीक से कैसे निभा सकती हूँ?” इतने सालों में मैंने परमेश्वर में विश्वास किया है, उसके असीम अनुग्रह का आनंद लिया है। अब उन कर्तव्यों को भी नहीं कर रही हूँ जो मैं ठीक से कर सकती थी, मुझमें कोई विवेक या समझ नहीं थी, जरा भी मानवता नहीं थी! जिन लोगों में मानवता होती है, जिनके पास चरित्र होता है, उन्हें पता होता है कि परमेश्वर की इच्छा के बारे में सोचना चाहिए, अपने कर्तव्यों को ठीक से निभाकर उसके प्रेम का मूल्य चुकाना चाहिए। भले ही वे सत्य के बारे में ज्यादा नहीं समझते हों और कोई बड़ा काम नहीं कर सकते हो, वे कम से कम अपने दायित्वों को और परमेश्वर की रचना के तौर पर ईमानदारी से अपने उचित कार्य को पूरा कर ही सकते हैं। लेकिन खुद को परेशानी से बचाने के लिए मैं अपना कर्तव्य निभाने में लापरवाह हो गई। जाहिर तौर पर काम इतना मुश्किल नहीं था, लेकिन मैंने आलस करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ा। मुझमें कोई गरिमा या ईमानदारी नहीं थी, मैं काम से भाग रही थी। इस पर चिंतन करने के बाद मुझे बहुत पछतावा हुआ, मैं अब और लापरवाही नहीं करना चाहती थी। मैं बस अपने कर्तव्य को ध्यान से निभाना और अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करना चाहती थी।
फिर मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े। “कुछ लोग हैं, जो अपने कर्तव्यों में कष्ट उठाने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं होते, जो किसी समस्या का सामना करने पर हमेशा शिकायत करते हैं और कीमत चुकाने से इनकार करते हैं। यह किस तरह का रवैया है? यह अनमना रवैया है। अपना कर्तव्य अनमनेपन से निभाने, और उसे हलकेपन से लेने का क्या परिणाम होता है? इसका परिणाम है कि तुम अपना कर्तव्य ठीक ढंग से नहीं निभाओगे, भले ही तुम इसे अच्छी तरह से करने के योग्य हो। तुम्हारा कार्य-निष्पादन कसौटी पर खरा नहीं उतरेगा, और परमेश्वर तुम्हारे कर्तव्य के प्रति तुम्हारे रवैये से संतुष्ट नहीं होगा। अगर तुम परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते, सत्य खोज सकते, और अपना पूरा दिल और दिमाग उसमें लगा सकते हो, अगर तुम इस तरह के सहयोग में सक्षम हो सकते, तो परमेश्वर तुम्हारे लिए सब-कुछ अग्रिम रूप से तैयार कर देता, ताकि जब तुम उसे करो तो सब-कुछ सही तरह से हो जाए, और परिणाम अच्छे हों। तुम्हें ज़्यादा प्रयत्न करने की ज़रूरत नहीं है; जब तुम सहयोग देने में कोई कसर नहीं छोड़ते, तो परमेश्वर पहले से ही तुम्हारे लिए सब कुछ व्यवस्थित कर देगा। यदि तुम मक्कार और विश्वासघाती हो, अगर तुम अपने कर्तव्य के प्रति उदासीन रहते हो और हमेशा भटक जाते हो, तो परमेश्वर कार्य नहीं करेगा; तुम यह अवसर खो दोगे, और परमेश्वर कहेगा, ‘तुम योग्य नहीं हो; तुम बेकार हो। दूर खड़े हो जाओ। तुम्हें धूर्त और कपटी होना पसंद है, है न? तुम्हें आलसी होना और आराम करना पसंद है, है न? तो फिर ठीक है, हमेशा के लिए आराम करो।’ परमेश्वर यह अनुग्रह और अवसर किसी और को दे देगा। तुम लोग क्या कहते हो : यह नुकसान है या फायदा? (नुकसान।) यह बहुत बड़ा नुकसान है!” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। जब मुझे वीडियो बनाते समय समस्या हुई और कुछ समझ नहीं आया, तब अगर मैं मेहनत करती और कीमत चुकाती, प्रार्थना करती, सत्य खोजती, तो परमेश्वर मुझे प्रबुद्ध करता और समस्या की जड़ को समझने में मेरी अगुआई करता। तब मैं अपने कर्तव्य में सुधार करती रहती और अपनी कमियों की भरपाई कर पाती। अपने कौशल और जीवन-प्रवेश में लाभ और प्रगति कर पाती। मैंने सोचा कि कैसे कोई समस्या आते ही मैं उसे दूसरों पर थोपने की कोशिश करती थी। अंत में, दूसरे ही खोज और विचार करके उससे कुछ हासिल कर पाते थे, वे अपने कर्तव्यों में सुधार करते, और जीवन में प्रगति करते, जबकि मैं कुछ भी हासिल किए बिना सिर्फ कार्य पूरे कर रही थी। कितनी मूर्ख थी ना मैं? अंत में, मैं ही तो हारी। जिस मनोवृत्ति के साथ मैं अपना कर्तव्य निभा रही थी, परमेश्वर उससे घृणा और उसे नापसंद करता है, इसलिए उसने मुझे प्रबुद्ध नहीं किया और रोशनी नहीं दी। इस वजह से, मैं अंधी थी और कोई समस्या देख ही नहीं पाई। अगर मैंने पश्चाताप नहीं किया, तो न केवल मेरा जीवन स्वभाव कभी नहीं बदलेगा, बल्कि अपने कर्तव्यों में कभी प्रगति नहीं करूँगी। अगर किसी ने मेरे काम की समीक्षा और जाँच नहीं की होती और मैंने सारा काम खराब तरीके से किया होता, तो मैं नाकारा ही साबित होती? इस पर विचार करने पर मुझे समझ आया कि लापरवाह और आलसी बनकर न केवल मैं परमेश्वर को धोखा दे रही थी बल्कि कलीसिया के कार्य में भी देरी कर रही थी, मैं खुद को भी धोखा देकर बर्बाद कर रही थी। इस विचार ने मुझे बहुत दुखी कर दिया, मैं अपना कर्तव्य ध्यान से करना चाहती थी और आगे से अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करना चाहती थी, अब से आलस या लापरवाही के कोई बहाने नहीं ढूँढना चाहती थी। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े। “जब लोगों का स्वभाव भ्रष्ट होता है, तो वे अपना कर्तव्य निभाते समय अक्सर अनमने और लापरवाह रहते हैं। यह सबसे गंभीर समस्याओं में से एक है। अगर लोगों को अपना कर्तव्य ठीक से निभाना है, तो उन्हें सबसे पहले अनमनेपन और लापरवाही की यह समस्या सुलझानी चाहिए। अगर उनका रवैया अनमना और लापरवाह होगा, तो वे अपना कर्तव्य उचित ढंग से नहीं निभा पाएँगे, जिसका अर्थ है कि अनमनेपन और लापरवाही की समस्या हल करना बेहद जरूरी है। तो उन्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए? पहले, उन्हें अपनी मनःस्थिति की समस्या का समाधान करना चाहिए; उन्हें अपने कर्तव्य को सही तरह से लेना चाहिए, और धोखेबाज या अनमना हुए बिना चीजों को गंभीरता और जिम्मेदारी की भावना के साथ करना चाहिए। कर्तव्य परमेश्वर के लिए निभाया जाता है, किसी व्यक्ति के लिए नहीं; यदि लोग परमेश्वर की जाँच स्वीकारने में सक्षम होते हैं, तो उनकी मनःस्थिति सही होगी। इसके अलावा, कोई कार्य करने के बाद, लोगों को उसे जाँचना चाहिए, और उस पर चिंतन करना चाहिए, और अगर उनके दिल में कोई संदेह हो, और विस्तृत निरीक्षण के बाद उन्हें पता चले कि वास्तव में कोई समस्या है, तो उन्हें बदलाव करने चाहिए; ये बदलाव होने के बाद उनके मन में कोई संदेह नहीं रह जाएगा। जब लोगों के मन में संदेह होते हैं, तो यह साबित करता है कि कोई समस्या है, और उन्हें, विशेष रूप से महत्वपूर्ण चरणों पर, जो कुछ भी उन्होंने किया है, उसकी पूरी लगन से जाँच करनी चाहिए। यह अपने कर्तव्य निभाने के प्रति एक जिम्मेदार रवैया है। जब व्यक्ति गंभीर हो सकता है, जिम्मेदारी ले सकता है, और अपना पूरा तन-मन दे सकता है, तो काम सही तरीके से पूरा किया जाएगा। कभी-कभी तुम्हारी मनःस्थिति सही नहीं होती, और साफ-साफ नजर आने वाली गलती भी ढूँढ़ या पकड़ नहीं पाते। अगर तुम्हारी मनःस्थिति ठीक होती, तो पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन से तुम वह समस्या पहचानने में सक्षम होते। अगर पवित्र आत्मा तुम्हारा मार्गदर्शन करे और तुम्हें जागरूकता दे, दिल में स्पष्टता महसूस करने दे और जानने दे कि गलती कहाँ है, तो तब तुम भटकाव दूर करने और सत्य के लिए प्रयास करने में सक्षम होगे। अगर तुम्हारी मनःस्थिति सही न हो पाए, और तुम लोग अन्यमनस्क और लापरवाह रहो, तो क्या तुम गलती देख पाओगे? तुम नहीं देख पाओगे। इससे क्या पता चलता है? यह दिखाता है कि अपने कर्तव्य सही तरह से निभाने के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि लोग सहयोग करें; उनका मिजाज बहुत महत्वपूर्ण है, और वे अपनी सोच और इरादों को किस दिशा में ले जाते हैं, वह भी बहुत महत्वपूर्ण है। परमेश्वर इसकी जाँच करता है और यह देख सकता है कि अपने कर्तव्य का निर्वहन करते समय, लोग किस मनोदशा में होते हैं। यह महत्वपूर्ण है कि अपने कार्य करते समय लोग उसमें अपने पूरे दिल और पूरी शक्ति का प्रयोग करें। सहयोग काफी महत्वपूर्ण घटक होता है। यदि लोग अपने जिन कर्तव्यों का निर्वहन कर चुके हैं और जो चीजें पूरी कर चुके हैं, उन्हें लेकर कोई अफसोस न करने का प्रयास करें, परमेश्वर के कर्जदार न रहें, केवल तभी वे अपने पूरे दिल और पूरी शक्ति से कार्य कर रहे होंगे” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “मान लो, कलीसिया तुम्हें कोई काम करने के लिए देता है, और तुम कहते हो, ‘यह काम दूसरों से अलग दिखने का मौका हो या नहीं—चूँकि यह मुझे दिया गया है, इसलिए मैं इसे अच्छी तरह से करूँगा। मैं यह जिम्मेदारी उठाऊँगा। अगर मुझे स्वागत-कार्य सौंपा जाता है, तो मैं उसे अच्छी तरह से करने में अपना सब-कुछ लगा दूँगा; मैं भाई-बहनों की अच्छी तरह देखभाल करूँगा और सबकी सुरक्षा बनाए रखने का भरसक प्रयास करूँगा। अगर मुझे सुसमाचार फैलाने का काम सौंपा जाता है, तो मैं खुद को सत्य से लैस करूँगा और प्रेमपूर्वक सुसमाचार फैलाऊँगा और अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाऊँगा। अगर मुझे कोई विदेशी भाषा सीखने का काम सौंपा जाता है, तो मैं लगन से उसका अध्ययन करूँगा और उस पर कड़ी मेहनत करूँगा, और जितनी जल्दी हो सके, एक-दो साल के भीतर उसे सीख लूँगा, ताकि मैं विदेशियों को परमेश्वर की गवाही दे सकूँ। अगर मुझे गवाही के लेख लिखने का काम सौंपा जाता है, तो मैं वैसा करने के लिए खुद को कर्तव्यनिष्ठ ढंग से प्रशिक्षित करूँगा और सत्य के सिद्धांतों के अनुसार चीजें देखूँगा; मैं भाषा के बारे में सीखूँगा, और भले ही मैं सुंदर गद्य वाले लेख लिखने में सक्षम न हो पाऊँ, मैं कम से कम अपने अनुभव और गवाही स्पष्ट रूप से संप्रेषित कर पाऊँगा, सत्य के बारे में सुगम तरीके से संगति कर सकूँगा और परमेश्वर के लिए सच्ची गवाही दे सकूँगा, ताकि जब लोग मेरे लेख पढ़ें, तो वे शिक्षित और लाभान्वित हों। कलीसिया मुझे जो भी काम सौंपेगी, मैं उसे पूरे दिल और ताकत से करूँगा। अगर कुछ ऐसा हुआ जो मुझे समझ न आए, या अगर कोई समस्या सामने आई, तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना करूँगा, सत्य की तलाश करूँगा, सत्य के सिद्धांत समझूँगा, और काम अच्छे से करूँगा। मेरा जो भी कर्तव्य हो, मैं उसे अच्छी तरह से निभाने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना सब-कुछ इस्तेमाल करूँगा। मैं जो कुछ भी हासिल कर सकता हूँ, उसके लिए मैं अपनी जिम्मेदारी निभाने की पूरी कोशिश करूँगा, और कम से कम, मैं अपने जमीर और विवेक के खिलाफ नहीं जाऊँगा, न लापरवाह और अनमना बनूँगा, न कपटी और कामचोर बनूँगा, न ही दूसरों के श्रम-फल का आनंद उठाऊँगा। मैं जो कुछ भी करूँगा, वह अंतःकरण के मानकों से नीचे नहीं होगा।’ यह मानवीय व्यवहार का न्यूनतम मानक है, और जो अपना कर्तव्य इस तरह निभाता है, वह एक कर्तव्यनिष्ठ, समझदार व्यक्ति कहलाने योग्य हो सकता है। अपना कर्तव्य निभाने में कम से कम तुम्हारा अंतःकरण साफ होना चाहिए, और तुम्हें कम से कम यह महसूस करना चाहिए कि तुम रोजाना अपना तीन वक्त का भोजन कमाकर खाते हो, मांगकर नहीं। इसे दायित्व-बोध कहते हैं। चाहे तुम्हारी क्षमता ज्यादा हो या कम, और चाहे तुम सत्य समझते हो या नहीं, तुम्हारा यह रवैया होना चाहिए : ‘चूँकि यह काम मुझे करने के लिए दिया गया था, इसलिए मुझे इसे गंभीरता से लेना चाहिए; मुझे इससे सरोकार रखकर अपने पूरे दिल और ताकत से इसे अच्छी तरह से करना चाहिए। रही यह बात कि मैं इसे पूर्णतया अच्छी तरह से कर सकता हूँ या नहीं, तो मैं कोई गारंटी देने की कल्पना तो नहीं कर सकता, लेकिन मेरा रवैया यह है कि मैं यह सुनिश्चित करने की पूरी कोशिश करूँगा कि यह अच्छी तरह से हो, और मैं निश्चित रूप से इसके बारे में लापरवाह और अनमना नहीं रहूँगा। अगर कोई समस्या आती है, तो मुझे जिम्मेदारी लेनी चाहिए, और सुनिश्चित करना चाहिए कि मैं इससे सबक सीखूँ और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाऊँ।’ यह सही रवैया है। क्या तुम लोगों रवैया ऐसा है?” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मुझे अभ्यास का एक मार्ग मिल गया। कर्तव्य निभाते समय मुझे एक ईमानदार और जिम्मेदार दिल रखने की जरूरत थी, हर वीडियो बनाने में सावधानी बरतने की जरूरत थी। अगर किसी चीज को लेकर असमंजस हो, तो उसकी जांच करने और उस पर सावधानी से विचार करने की जरूरत थी। हालांकि कभी-कभी मैं खुद नहीं समझ नहीं पाऊँगी, तो कुछ कुशल भाई-बहनों से इस बारे में चर्चा कर सकती हूँ, फिर समस्याओं को हल करने की भरसक कोशिश करूँगी। इसी तरह अपना कर्तव्य निभाकर ही मैं परमेश्वर का प्रबोधन पा सकती हूँ। इस पर विचार करने के बाद, मैं सजग होकर अभ्यास के इस मार्ग पर चल पड़ी। जब कोई मुश्किल समस्या सामने आई और आलसी बनकर फिर से उसका हल किसी और पर छोड़ देने का मन किया, तो मैं प्रार्थना करती और कर्तव्य में लापरवाही नहीं करना चाहती थी। मैं जानती थी कि मुझे उन जिम्मेदारियों को निभाना होगा जो निभा सकती हूँ। मैं फिर से ऐसा कुछ नहीं कर सकती जिससे परमेश्वर को घृणा हो। इसलिए मुझसे न सुलझने वाली समस्याओं पर मैं दूसरों से चर्चा करती थी, और सबके साथ संगति करके, मैं कुछ समस्याओं को हल कर पाई और मैंने बहुत कुछ सीखा। पहले कोई समस्या आती थी तो मैं उस पर अच्छे से विचार किए बिना ही दूसरों पर थोप दिया करती थी। जब भी दूसरे मुझसे किसी समस्या पर बात करते, तो सिर्फ उनके कहे पर चलती थी, मेरे पास अपने कोई विचार नहीं होते थे, वीडियो पूरा होने पर भी मुझे कुछ हासिल नहीं होता था। लेकिन जब दूसरे कोई समस्या बताते तो मैं ध्यान से सोचती, मुझे लगता था कि मैं बहुत कुछ हासिल कर रही हूँ। कुछ समय इसी तरह अभ्यास करने के बाद, मेरे कौशल में थोड़ा सुधार हुआ और पहले की तुलना में मेरे वीडियो में समस्याएँ कम होने लगीं। अपने कर्तव्य में भी मैं और अधिक कुशल हो गई थी। अब मुझे समझ आया कि अगर मैं अपना कर्तव्य ध्यान से निभाती रहूँगी और अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करती रहूँगी, तो मैं शांत और सहज महसूस करूँगी और बहुत कुछ हासिल कर प्रगति करूँगी। जीवन-प्रवेश सच में अपने कर्तव्य को लगन से करने के साथ ही शुरू होता है। परमेश्वर का धन्यवाद!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?