इतने वर्षों के विश्वास के बाद भी मैं क्यों नहीं बदली?
जब भी किसी भाई या बहन ने मेरी असफलताओं को दिखाया या मेरी राय की ओर ध्यान नहीं दिया, तो मैं या तो अविश्वासी महसूस करती थी या उनके साथ बहस किया करती थी। मैं बाद में अपने बर्ताव पर पछताती थी, लेकिन इन चीजों का सामना करने पर, मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव को उजागर करने से रोकने में अपनी मदद करने में असमर्थ थी। मैं इससे बहुत परेशान थी, और सोचा: ऐसा क्यों है कि दूसरों की बातें मुझे शर्मिंदा करके क्रोधित कर सकती हैं? और आठ साल से परमेश्वर का अनुसरण करने के बावजूद मुझमें कुछ बदलाव क्यों नहीं आया है? मैं चिंतित हो गई थी और बार-बार परमेश्वर से मुझे प्रबुद्ध करने को कहा ताकि मैं इस बात के मूल को जान सकूँ कि मेरा भ्रष्ट स्वभाव क्यों नहीं बदला था।
एक दिन, अपनी पूजा के दौरान, मैंने उपदेश का एक अवतरण पढ़ा: "हर कोई अपने अहंकार और दंभ, अपनी कुटिलता और धोखेबाज़ी से नफरत करता है। ज्यादातर लोग कुछ हद तक बदल जाते हैं; कुछ लोग, जो अहंकारी और दंभी हैं और जिनमें तर्क की कमी है, और जो कुटिल और धोखेबाज़ प्रकृति के हैं, वे बस थोड़ा ही बदलते हैं और इसी वजह से उनके भाव और व्यवहार लगभग अपरिवर्तित रहते हैं: उनका अहंकार, दंभ, कुटिलता और धोखेबाज़ी फिर भी स्पष्ट रूप से दिखती है। इसका संबंध उनके अनुभवों से है। शुरू से अंत तक, वे अपने स्वभाव में बदलाव का अनुसरण नहीं करते हैं, बल्कि वे केवल यह देखते हैं कि दूसरे लोग जीवन में कैसे प्रवेश करते हैं। और इसी वजह से, वे खुद को बाधित करते हैं। क्योंकि वे केवल दूसरों के अहंकार और दंभ को देखते हैं, और मानते हैं कि परमेश्वर द्वारा केवल दूसरों को न्याय और ताड़ना दी जानी चाहिए। वे सोचते हैं कि उन्होंने खुद परमेश्वर का विरोध नहीं किया है, और परमेश्वर का न्याय और ताड़ना केवल दूसरों के लिए है। परमेश्वर के वचन को इस अजीब दृष्टिकोण से समझना, इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि वे बदलते नहीं हैं" (ऊपर से संगति)। ऐसे समय में मुझे एक जागृति हुई थी। मुझे उस तथ्य का अहसास हुआ कि क्यों कई वर्षों से परमेश्वर का अनुसरण करने के बावजूद भी मुझमें बदलाव नहीं आया था, क्योंकि मैं परमेश्वर पर तो विश्वास करती थी, लेकिन मैंने अपने स्वभाव को बदलने की कोशिश नहीं की थी; बल्कि केवल इस बात पर ध्यान दिया कि दूसरों ने जीवन में कैसे प्रवेश किया और खुद के जीवन में प्रवेश करने पर ध्यान नहीं दिया। और ऐसे समय में मैं अविलंब "कार्य करने" को लेकर हड़बड़ी मचाने का स्वांग करने के अलावा कुछ नहीं कर सकती थी। परमेश्वर के वचनों को खाते या पीते समय, अपनी खुद की परिस्थितियों पर विचार करने के लिए मैंने कभी भी उनका प्रयोग नहीं किया था। मैंने हमेशा दूसरों को ही शिक्षा दी थी और परमेश्वर के वचनों के निमित्त उनका आकलन किया था। धर्मसभाओं में जब मैं सच पर बातचीत करती थी तो वह केवल दूसरों की समस्याओं और कठिनाइयों को हल करने के लिए होती थी, और मैंने कभी भी उन बातों की ओर नहीं देखा जिनमें मुझे खुद को प्रवेश करना चाहिए था। जब मैं मनुष्य के भ्रष्ट सार के प्रकाशन को लेकर परमेश्वर के वचनों पर बातचीत करती थी, तो अन्य भाई और बहनें ही मेरे उदाहरण होते थे, यानि मैं चेतावनी के रूप में दूसरों का प्रयोग करती थी, जबकिमैं अपनी खुद की परिस्थितियों को समझने और अपना प्रवेश ढूंढ़ने के लिए परमेश्वर के वचनों का बहुत ही कम उपयोग करती थी। ...और इतने साल बीत जाने के बाद भी जीवन में मेरा खुद का प्रवेश लगभग रिक्त ही था। फिर भी मैं तब भी यही सोचती थी कि मैं एक करुणामयी मनुष्य हूं, कि मैं अपने भाइयों और बहनों के जीवन का बोझ उठा रही थी। विशेष रूप से पिछले साल से अब तक, कलीसिया ने मेरे लिए एक युवा बहन के साथ मिलकर काम करने की व्यवस्था कर दी थी, ताकि हम एक साथ अपने कर्तव्यों को पूरा कर सकें, और मैंने अपने "बोझ" को ढोना जारी रखा और जीवन में उसके प्रवेश पर ध्यान दिया। जब उस बहन ने अपना अभिमानी और मनमौजी स्वभाव प्रकट किया तो मैंने उसके साथ संवाद करने के लिए परमेश्वर के वचन का उपयोग करने की जल्दबाजी दिखाई, लेकिन फिर खुद से सोचा: तुम बहुत अभिमानी हो। जब वह बहन भविष्य व नियति से संबंधित चिंता द्वारा बाधित होने की वजह से नकारात्मकता से खुद को मुक्त नहीं कर सकी, तो मैंने उसके साथ खाने व पीने के लिए परमेश्वर के उपयुक्त वचनों को निर्धारित किया और यह संवाद किया है कि परमेश्वर हमें बचाने की इच्छा रखते हैं, लेकिन अंदर से मैं उससे घृणा कर रही थी: इतना कम समय बचा है और तुम अब भी इतने उत्साह से आशीर्वाद खोज रही हो? जब उस बहन ने खुद से खुलकर बात कर शुरू किया और मुझे बताया कि कैसे वह अक्सर ही लोगों को लेकर शंकालु रहती थी, तो मैं एक ईमानदार व्यक्ति होने के सत्य को लेकर बात की, लेकिन अंदर से उसने मुझे परेशान कर दिया था: तुम बहुत ज्यादा तकलीफदेह हो। जब वह बहन बुरे हालात में थी लेकिन बता नहीं पा रही थी कि ऐसा क्यों है, तो मैंने उससे खुद का परीक्षण करने, अपनी प्रकृति का विश्लेषण करने के लिए कहा, लेकिन जब मेरी खुद की बारी आई तो मैं जो कुछ भी प्रकट किया था उससे खुद को समझने व अपना विश्लेषण करने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग करने की ओर ध्यान नहीं दिया। क्या ऐसा नहीं था कि मैं यह सोचती थी कि केवल दूसरे ही बहुत भ्रष्ट हैं और परमेश्वर द्वारा उनका निर्णय किया जाना चाहिए व उन्हें ताड़ना दी जानी चाहिए, जबकि मैं खुद को परमेश्वर के वचनों से भी ऊपर रख रही थी? क्या मैं केवल दूसरों के जीवन में प्रवेश करने की ओर ध्यान दे रही थी और खुद को पीछे ही छोड़ रही थी? उसी क्षण मुझे यह अहसास हुआ कि मैं सड़क के एक गरीब भिखारी की ही तरह गरीब व दयनीय थी, और मेरा दिल पछतावे से भर गया था।
परमेश्वर के मार्गदर्शन के तहत, मैंने देखा कि उसका वचन कहता है कि: "लोग इस तरह की बातें करते हैं : 'अपनी संभावनाओं को अलग रखो, अधिक यथार्थवादी बनो।' तुम कहते हो कि लोग धन्य होने के विचार छोड़ दें—लेकिन तुम्हारा अपने बारे में क्या कहना है? क्या तुम लोगों के धन्य होने के विचारों को नकारते हो और स्वयं आशीष पाने की कामना करते हो? तुम दूसरों को आशीष नहीं पाने देना चाहते, परंतु स्वयं गुप्त रूप से उन्हें पाने के बारे में सोचते रहते हो—यह तुम्हें क्या बनाता है? एक धोखेबाज़! जब तुम इस तरह व्यवहार करते हो, तो क्या तुम्हारा अंतःकरण अभियुक्त नहीं बन जाता? अपने दिल में क्या तुम ऋणी महसूस नहीं करते? क्या तुम धोखेबाज़ नहीं हो? तुम दूसरों के दिलों में वचनों को खोदकर निकालते हो, परंतु स्वयं के दिल में उनके बारे में कुछ नहीं कहते—कैसे कचरे के बेकार टुकड़े हो तुम!" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, “संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचनों” के रहस्यों की व्याख्या, अध्याय 42)। परमेश्वर के वचनों ने, मेरे दिल को चीर दिया था और मुझे बहुत शर्मिंदा कर छोड़ दिया। मैंने जो कुछ भी किया था उसके बारे में सोचा। क्या मैं धोखेबाज नहीं थी, जैसा कि परमेश्वर ने उजागर किया था? बाहरी तौर पर मैं अपना कर्तव्य कर रही थी, लेकिन वास्तव में, मैं परमेश्वर के विश्वास हेतु उसके के साथ कपट करने के लिए अपने उत्साह का उपयोग कर रही थी। बाहरी तौर पर, मैं अपने भाइयों और बहनों की मदद कर रही थी, लेकिन वास्तव में, मैं उनके दिल में स्थान बनाने के लक्ष्य के साथ, उनका सम्मान व प्रशंसा पाने हेतु वचनों व सिद्धांतों का इस्तेमाल कर रही थी। मैं दूसरों को पदवी का लालच न करने, अभिमानी न बनने के लिए कहा करती थी, फिर भी मैं अक्सर ही दूसरों को तुच्छ समझती थी और अपने भाइयों और बहनों की असफलताओं पर सही ढंग से विचार करने में असमर्थ थी और यहां तक कि किसी के समक्ष निवेदन करने से भी मना कर दिया था। मैंने दूसरों को आशीर्वाद प्राप्त करने के प्रयोजन त्यागने, अपने भविष्य और भाग्य के नियंत्रण में न आने के लिए प्रेरित किया, जबकि मैं अक्सर ही अपने भविष्य की योजना बनाती थी और इसके बारे में गहराई से चिंतित भी रहती थी। मैं दूसरों की धूर्तता और संदेह से खीझ जाया करती थी, जबकि मैं अक्सर उनकी अभिव्यक्तियों पर नजर रखती थी और इस बात की चिंता किया करती थी कि वे मेरे बारे में क्या सोचते हैं। मैंने दूसरों को स्वयं को समझने, अपनी प्रकृति का विश्लेषण हेतु अपने अंतरतम विचारों को थामने के लिए बोला था, जबकि मैंने अपने दुर्भावनापूर्ण इरादों को छुपा लिया था, और मेरी बातें व कार्य परमेश्वर के निरीक्षण में नहीं थे। इतने सालों तक, मैं अक्सर बड़ी-बड़ी बातें कीं थीं और शाब्दिक सिद्धांतों को बोल कर संतुष्ट थी लेकिन वास्तविकता में प्रवेश करने और परमेश्वर के वचनों को जीने पर मैंने ध्यान नहीं दिया था। परिणामस्वरूप अभी भी मेरे पास स्वयं की कोई समझ नहीं थी, न ही मेरे जीवन स्वभाव में ज़्यादा बदलाव आया था। बल्कि यह और अधिक अहंकारी हो गया था। जैसा कि परमेश्वर कहता है: "जितना अधिक वे सिद्धांतों को समझते हैं, उनके स्वभाव उतना ही अधिक अहंकारी हो जाते हैं" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'लोग परमेश्वर से बहुत अधिक माँगें करते हैं')। मैंने उन सिद्धांतों को अपनी पुंजी के रूप में माना जिन्हें मैंने धारण किया था, लेकिन मैंने खुद को समझने, प्रवेश पाने की खोज करने, सत्य प्राप्त करने की ओर ध्यान नहीं दिया था। तो फिर मेरे जीवन के स्वभाव में कोई बदलाव कैसे आ सकता था? परमेश्वर का व्यावहारिक कार्य और वचन हमें सारा सत्य देता है जिसकी हमें जरूरत है और वह इच्छा रखता है कि हम उस सत्य को समझें, और प्रकाश व प्रबुद्धता पाने के लिए अपने कर्तव्यों को पूरा करके हम अपने दैनिक अनुभवों व प्रवेश को हासिल करें, और अपने भाइयों व बहनों को वह प्रदान करें। लेकिन मैंने केवल खुद को सिद्धांतों से सशक्त करने, और अपने कर्तव्य के रूप में सिद्धातों की बातों पर विचार करने, नि:स्वार्थ रूप से दूसरों को पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता देने, दूसरों को सत्य का अभ्यास कराने पर ही ध्यान दिया, जबकि खुद कभी भी प्रवेश नहीं किया था। नतीजनन, मैं खुद ही पीछू छूट गई और साथ ही अपने भाइयों व बहनों को नुकसान भी पहुंचाया। मैं सच में समकालिक पॉल हूं।
परमेश्वर, तुम्हारी प्रबु द्धता व रोशनी के लिए तुझे धन्यवाद, जिसने मुझे यह देखने दिया कि इतने सालों तक परमेश्वर में विश्वास के बावजूद भी मैं अपने स्वभाव में बदलाव में असफल हो गई थी क्योंकि जीवन में अपने प्रवेश करने पर ध्यान देने की जगह, मैं केवल कार्य करने, सिद्धांतों से खुद को सशक्त करने और अपना प्रदर्शन करने पर ध्यान दे रही थी। मुझे नफरत है कि मैं बहुत ज्यादा अहंकारी व अज्ञानी हूँ, कि मैं सत्य को प्रेम नहीं करती हूं, और इसी वजह से मैंने सत्य में प्रवेश करने और बदलाव पाने के कई मौकों को गंवा दिया है। अब मैं अपने बारे में गहराई से समझने की कोशिश करने, दृढ़ता व व्यावहारिक ढंग से परमेश्वर के वचन का अभ्यास करने व सत्य में प्रवेश करने, तुम्हें प्रतिदान करने हेतु प्रायोगिक जीवन जीने के लिए तुम्हारे वचनों के माध्यम सत्य को बेहतर ढंग से समझने की इच्छुक हूं।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?