50. "अच्छी छवि" के पीछे क्या छुपा होता है

वेई चेन, दक्षिण कोरिया

दिसंबर, 2019 में, मैं कलीसिया में एक सुसमाचार उपयाजक के रूप में काम किया करती थी। कुछ समय बाद मैंने पाया कि अगुआ जब भी भाई-बहनों के कर्तव्य-निर्वाह में कोई समस्या देखते, तो वे उनसे सीधे-सीधे दो टूक कह देते, कभी-कभी उनका लहज़ा भी बहुत सख्त होता। मुझे लगता कि समस्याओं के बारे में बताना तो ठीक है, लेकिन उनका तरीका शर्मसार करनेवाला है और इससे लोग आसानी से बुरा मान सकते हैं। मैं उन जैसी नहीं बनना चाहती थी। ऐसी बातें सूझबूझ से कहनी चाहिए, ताकि लोगों पर अच्छा असर पड़े। इस तरह मैं सबका समर्थन पा सकूंगी और अपना काम करने में मुझे आसानी होगी। फिर अगले चुनाव में, शायद मुझे अगुआ के रूप में चुन लिया जाए। यह सोच कर, मैं भाई-बहनों से मेल-जोल में बड़ी सतर्कता से पेश आती। मैं सूझबूझ से काम लेने और किसी की भावनाओं को ठेस न पहुंचाने की कोशिश करती, ताकि हर बात लोगों को खुशगवार लगे।

एक बार मैंने देखा कि बहन चेंग आसान कामों को हाथ में ले लेती और मुश्किल कामों से जी चुराती, जब कभी उसे बहुत-सी धारणाओं या खराब रवैये वाले किसी व्यक्ति के साथ सुसमाचार साझा करने की ज़रूरत पड़ती, वह पीछे हट जाती। और बाद में, वह उनकी धारणाओं को दुरुस्त करने के लिए उनसे जुड़े सत्य का पता लगाने का प्रयास नहीं करती। मैंने देखा कि अपने कर्तव्य के प्रति उसका रवैया सही नहीं है, और उसके लिए ऐसी राह पर चलकर अच्छे ढंग से अपना कर्तव्य निभाना संभव ही नहीं है। मैं उससे इस बात का ज़िक्र कर उससे संगति करने ही वाली थी, लेकिन उसे संदेश भेजने से ठीक पहले, मेरे मन में कौंधा कि भले ही मुश्किलों से सामना होने पर वह पीछे हट जाती है, मगर आम तौर पर वह अपने कर्तव्य में ज़रूर कुछ-न-कुछ हासिल किया करती है। अगर मैंने उसकी समस्या का ज़िक्र किया, तो शायद उसे लगेगा कि मैं उससे बहुत ज़्यादा अपेक्षा रखती हूँ और फिर वह मेरे खिलाफ हो जाएगी। फिर अगर भविष्य में वह मेरी कार्य-व्यवस्था के मुताबिक़ काम न करे, तो मैं क्या करूंगी? अगर मैंने अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाया, तो क्या अगुआ नहीं कहेंगे कि मैं अपने काम के काबिल नहीं हूँ? इसलिए, उसे अपमानित न करने के इरादे से, मैंने उसकी समस्या के बारे में उससे एक शब्द भी नहीं कहा, बल्कि उसे एक प्रोत्साहन-भरा संदेश भेज दिया : "हम जिनके साथ सुसमाचार साझा करती हैं, उनमें से कुछ लोगों की अपनी बहुत-सी धारणाएं हैं, मगर वे सच्चे विश्वासी हैं। हमारे मन में प्रेम और सब्र होना चाहिए, हमें परमेश्वर से ज़्यादा प्रार्थना कर उस पर भरोसा करना चाहिए। हम जितनी मुश्किलें झेलती हैं, हमारी आस्था उतनी ही पूर्ण होती है। हम बिल्कुल भी पीछे हटकर सिमट नहीं सकतीं।" उस वक्त वह मान गयी, लेकिन अपनी समस्या को बिल्कुल भी नहीं समझ पायी, किसी भी मुश्किल काम से दूर ही रहती। वह बिल्कुल भी नहीं बदली। उस वक्त मुझे समस्या के बारे में मालूम नहीं था, मुझे लगा कि मैं बहुत बढ़िया काम कर रही हूँ। जब कभी मेरा ऐसी किसी समस्या से सामना होता, मैं इसी तरह संभालती। मैंने कभी भी लोगों का निपटान नहीं किया, न ही उनकी भ्रष्टता या खामियों को उजागर किया, इसलिए भाई-बहन मेरे साथ काम करके खुश रहते, मेरे पास आकर अपना हाल-चाल सुनाते। इससे अपने तरीके को लेकर मेरा विश्वास और बढ़ गया, मैं सोचने लगी कि भाई-बहन मेरे बारे में बहुत ऊंची राय रखते हैं, सब वाकई मेरा समर्थन करते हैं।

बाद में, मैंने देखा कि बहन शा बहुत घमंडी और खुदगर्ज़ है। वह अड़ियल है, दूसरों के साथ मिल-जुल कर काम नहीं करती, इसका हमारे सुसमाचार कार्य पर बुरा असर पड़ रहा है। मैंने सोचा कि बहन शा किस तरह बहुत घमंडी है और दूसरों के सुझाव स्वीकार नहीं करती, जिसका उसके काम पर असर पड़ रहा है। मुझे लगा कि उससे इस बात का ज़िक्र करना चाहिए ताकि वह सुधार कर सके। लेकिन फिर मैंने सोचा, अगर मैं इसका ज़िक्र करूँ, और वह स्वीकार न करे, बल्कि नाराज़ हो जाए, तब मैं क्या करूंगी? एक बार एक सभा में, मैंने उसे मेरे बारे में बहुत अच्छा आकलन पेश करते हुए सुना था, इसलिए मुझे फ़िक्र थी कि अगर मैंने उसका दिल दुखाया, तो उसके मन में मेरी जो अच्छी छवि है वह बरबाद हो जाएगी। अगर उसके मन में मेरी छवि बदल जाएगी, तो इसका असर मेरे अगुआ बनने के अवसर पर पड़ेगा। अच्छी तरह सोचने के बाद, मैंने आखिरकार बहन शा की भ्रष्टता और खामियों का ज़िक्र नहीं किया। इसके बजाय मैंने कहा, "तुम्हारे अपने कर्तव्य में अच्छे परिणाम हासिल न करने और मुश्किलों से जूझने की बात मैं समझ सकती हूँ, लेकिन तुम्हें आत्मचिंतन करके सोचना होगा कि ऐसा क्यों हो रहा है। हमें भाई-बहनों के साथ भी मिल-जुल कर काम करना चाहिए।" मैंने मुख्य समस्या को छोड़ दिया, बस उसे थोड़ी-सी सलाह दी, उसका हौसला बढ़ाया। कुछ दिन बाद एक अगुआ ने मुझसे हमारे काम के बारे में पूछा, तो मैंने बताया कि बहन शा घमंडी और खुदगर्ज़ है, वह दूसरों के साथ मिल-जुल कर काम नहीं करती। फिर अगली बार जब बहन शा मुझसे मिली, तो उसने कहा, "जब अगुआ ने कुछ दिन पहले आपसे हमारे काम के बारे में पूछा, तब मैं वहां से गुज़र रही थी, मैंने आपको यह कहते हुए सुन लिया कि मैं घमंडी और खुदगर्ज़ हूँ, और दूसरों के साथ मिल-जुल कर काम नहीं करती। आप अच्छी तरह जानती हैं कि मेरी एक गंभीर समस्या है, लेकिन इस बारे में आपने मुझसे कुछ नहीं कहा। आप बस समझौता किये जा रही हैं। पहले भी मैंने देखा है कि आप कभी गुस्सा नहीं होतीं, लोगों को डांटती भी नहीं हैं, बल्कि हमेशा उन्हें प्यार से समझाती हैं। मेरा ख़याल था कि आप वाकई एक अच्छी इंसान हैं। अब मुझे एहसास हो गया है कि आप बहुत 'चालाक' हैं, आपकी अपनी चालें हैं। दो टूक कहूं तो आप पाखंडी हैं।" उसकी ऐसी सीधी बात सुनकर पल भर के लिए मुझे लगा कि मेरा चेहरा पूरी तरह लाल हो गया है। "पाखंडी" और "चाल" शब्द मेरे दिमाग में अंदर तक चुभ गये। मैं वाकई परेशान हो गयी और मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, उससे अपने भ्रष्ट स्वभाव को समझने का रास्ता दिखाने की विनती की।

अगले दिन, अपने धार्मिक कार्यों के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : "छल-कपट अक्सर बाहर से नजर आ जाता है। जब किसी को बहुत शातिर और चालाकी से बात करने वाला कहा जाता है, तो यह छल-कपट होता है। और दुष्टता का सबसे प्रमुख लक्षण क्या होता है? दुष्टता वह होती है जब लोग ऐसी बातें करते हैं जो कानों को अच्छी लगती है, जब सब कुछ सही और आलोचना से परे लगता है, और किसी भी तरह से देखने पर भला लगता है, पर उनके काम खासतौर से दुष्टतापूर्ण और बहुत ज्यादा लुके-छिपे होते हैं, और आसानी से नजर में नहीं आते। वे अक्सर बहुत सही शब्दों और सुनने में मीठे लगने वाले जुमलों का प्रयोग करते हैं, और ऐसे सिद्धांतों, तर्कों और तकनीकों का इस्तेमाल करते हैं जो लोगों की भावनाओं के अनुरूप होते हैं, ताकि उनकी आँखों पर पट्टी बांधी जा सके; वे एक तरफ जाने का दिखावा करते हैं पर दरअसल दूसरी तरफ जाते हैं। अपने गुप्त इरादों को हासिल करने के लिए वे भले प्रतीत होने वाले और लोगों की भावनाओं के अनुरूप प्रतीत होने वाले कामों का सहारा लेते हैं। यही दुष्टता है। लोग आमतौर से इसे छल-कपट मानते हैं। उन्हें दुष्टता की जानकारी नहीं होती है, और इसे कम पहचान पाते हैं; दरअसल दुष्टता को पहचानना छल-कपट से ज्यादा मुश्किल है, क्योंकि यह ज्यादा लुकी-छिपी होती है, और इससे ज्यादा 'चालाकी' भर तरीके और तकनीकें जुड़ी होती हैं। जब लोगों के स्वभाव में छल-कपट की प्रवृत्ति होती है तो आमतौर से दो-तीन दिन में ही तुम यह भाँप लेते हो कि वे धोखेबाज हैं, या उनकी हरकतें और उनकी बातें छल-कपट का संकेत देती हैं। पर जब किसी के बारे में यह कहा जाता है कि वह दुष्ट है तो यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसका एक-दो दिन में पता चल सके। अगर कुछ अवधि के भीतर कोई विशिष्ट या प्रमुख घटना नहीं होती तो उनकी बातें सुनकर तुम लोगों को यही लगेगा कि वे भले व्यक्ति हैं, कि वे त्याग करना और अपने-आपको खपाना जानते हैं, कि वे आध्यात्मिक चीजों को समझते हैं और जो कुछ भी कहते हैं सही कहते हैं, और तुम लोगों के लिए उन्हें यह बताना बहुत मुश्किल होता है कि वे असलियत में क्या हैं। बहुत सारे ऐसे लोग हैं होते जो सही बातें कहते हैं, जो सही काम करते हैं, और एक के बाद एक सिद्धांतों की बौछार कर सकते हैं। ऐसे व्यक्ति के साथ दो-तीन दिन बिताने के बाद तुम उन्हें ऐसा व्यक्ति मानने लगते हो जो आध्यात्मिक बातों को समझता है, जिसके दिल में परमेश्वर के लिए प्रेम है, जो अपनी अंतरात्मा और चेतना के अनुसार व्यवहार करता है। और फिर तुम लोग उन पर भरोसा करके उन्हें कुछ काम सौंपने लगते हो, और जल्दी ही तुम्हें यह अहसास होने लगता है कि वे ईमानदार नहीं हैं, कि वे धोखेबाज लोगों से भी ज्यादा मक्कार हैं—कि वे बहुत ज्यादा बुरे हैं। वे अक्सर बिलकुल सही शब्द चुनते हैं, ऐसे शब्द जो सत्य से मेल खाते हैं, जो लोगों की भावनाओं और मानवता के अनुरूप होते हैं, ऐसे शब्द जो बड़े मीठे लगते हैं। इन छलावे भरे शब्दों से वे लोगों से बात करते हैं, जिसके पीछे एक तरफ अपने-आपको स्थापित करने और दूसरी तरफ लोगों को ठगने की मंशा होती है, इससे उन्हें लोगों के बीच एक रुतबा और प्रतिष्ठा मिल जाती है, और इस सबसे ऐसे लोग आसानी से उनके झांसे में आ जाते हैं जो अज्ञानी होते हैं, जिन्हें सत्य की ज्यादा समझ नहीं होती, जिन्हें आध्यात्मिक बातों की समझ नहीं होती, और परमेश्वर में जिनकी आस्था का कोई ठोस आधार नहीं होता। दुष्ट स्वभाव वाले लोग यही सब करते हैं"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'नायकों और कार्यकर्ताओं के लिए, एक मार्ग चुनना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है (3)')। अपने बर्ताव को परमेश्वर के वचनों के आईने में देखकर मुझे एहसास हुआ कि मेरा दुष्ट स्वभाव ही मुझसे ऐसे काम करवा रहा है। जब मैं भाई-बहनों के काम में कुछ समस्याएँ देखती, जो उनके काम पर बुरा असर डाल रही थीं, तो मैं उन्हें उजागर नहीं करती या उनकी समस्याएँ उन्हें नहीं बताती, ताकि सभी लोग मुझे अच्छी इंसान कहें और मेरे बारे में अच्छा बोलें। मैंने साफ़ देखा कि बहन चेंग का अपने काम के प्रति सही रवैया नहीं है, वह सिर्फ आसान काम करती है और मुश्किल कामों से जी चुराती है। मैंने यह भी देखा कि बहन शा घमंडी और खुदगर्ज़ है, जिसका कलीसिया के सुसमाचार कार्य पर बुरा असर पड़ रहा है। मुझे उन्हें ये बातें बतानी चाहिए थीं, उनकी मदद करने के लिए उनके साथ संगति करनी चाहिए थी। लेकिन मुझे फ़िक्र थी कि वे मेरे बारे में क्या सोचेंगी, वे मेरे काम में सहयोग नहीं करेंगी, फिर मेरा काम खराब होने पर अगुआ मुझे कमज़ोर मानेंगे। इसलिए मैं उनका हौसला बढ़ाने के लिए चिकनी-चुपड़ी, नकली बातें करती। इस तरह मैं उनके साथ अपना रिश्ता और अपनी छवि बनाये रखती, वे मेरे काम को पसंद करती रहतीं—इस तरह मैं एक तीर से दो शिकार कर सकती थी। मैं बहुत चालबाज और धूर्त थी, मैं लोगों की आँखों में धूल झोंक रही थी। मैंने उन्हें धोखा देती, उन्हें सोचने पर मजबूर करती कि मैं वाकई उनकी परवाह करती हूँ, उनकी भावनाओं को समझती हूँ, वे सचमुच मेरा आदर करते, मेरी आराधना करते। इसके बाद ही मैं समझ पायी कि मेरा स्वभाव कपटी और दुष्ट है। अगर बहन शा ने मेरी आलोचना न की होती, और परमेश्वर के वचनों ने खुलासा न किया होता, तो अभी भी मैं अपने दुष्ट स्वभाव को समझ न पायी होती, न ही मुझे इसकी गंभीरता का एहसास हुआ होता। मैं समझ गयी कि मेरे कर्म कितने ज़्यादा दुष्ट और घिनौने हैं, परमेश्वर के लिए घृणास्पद और दूसरों के लिए विद्रोहकारी!

इसके बाद मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "कलीसिया के कुछ अगुआ उन भाइयों और बहनों को डाँट-फटकार नहीं लगाते जिन्‍हें वे उनके कर्तव्‍य लापरवाही और मशीनी ढंग से पूरा करते देखते हैं, हालाँकि उन्‍हें ऐसा करना चाहिए। जब वे कुछ ऐसा देखते हैं जो परमेश्‍वर के घर के हितों के लिए स्पष्ट रूप से हानिकारक है, तो वे आँख मूँद लेते हैं, और कोई पूछताछ नहीं करते, ताकि दूसरों के थोड़े भी अपमान का कारण न बनें। उनका असली उद्देश्य और लक्ष्‍य दूसरों की कमज़ोरियों का लिहाज़ करना नहीं है—वे अच्‍छी तरह जानते हैं कि उनका मंतव्य क्‍या है : 'अगर मैं इसे बनाए रखूँ और किसी के भी अपमान का कारण न बनूँ, तो वे सोचेंगे कि मैं अच्‍छा अगुआ हूँ। मेरे बारे में उनकी अच्‍छी, ऊँची राय होगी। वे मेरा समर्थन करेंगे और मुझे पसंद करेंगे।' परमेश्‍वर के घर के हितों को चाहे जितनी अधिक क्षति पहुँची हो, और परमेश्‍वर के चुने हुए लोगों को उनके जीवन प्रवेश में चाहे जितना अधिक बाधित किया जाए, या कलीसिया का उनका जीवन चाहे जितना अधिक अशांत हो, ऐसे लोग दूसरों को नुक़सान न पहुँचाने के अपने शैतानी फ़लसफ़े पर अड़े रहते हैं। उनके दिलों में कभी भी आत्म-धिक्कार का भाव नहीं होता; बहुत-से-बहुत, वे चलते-चलते शायद कुछ बातों का ज़ि‍क्र भर कर देते हैं, और फिर बस हो गया। वे सत्‍य की संगति नहीं करते, न ही वे दूसरों की समस्‍याओं का मूलतत्त्व बताते हैं, और लोगों की दशाओं का विश्‍लेषण तो वे और भी नहीं करते। वे सत्य वास्तविकता में प्रवेश के लिए लोगों की अगुआई नहीं करते, न ही वे बतलाते हैं कि परमेश्‍वर की इच्‍छा क्‍या है, या लोग अक्‍सर कैसी ग़लतियाँ करते हैं, या लोग किस तरह के भ्रष्‍ट स्‍वभाव प्रकट करते हैं। वे इन व्‍यावहारिक समस्‍याओं को हल नहीं करते; इसकी बजाय, वे दूसरों की कमज़ोरियों और नकारात्‍मकता के प्रति, यहाँ तक कि उनकी लापरवाही और उदासीनता के प्रति भी हमेशा दयालु होते हैं। वे इन लोगों के कृत्‍यों और व्यवहारों को उनकी वास्तविकता का ठप्पा लगाए बिना जाने देते हैं, और, ठीक इसीलिए कि वे ऐसा करते हैं, अधिकांश लोग सोचने लगते हैं : 'हमारा अगुआ तो हमारे लिए माँ जैसा है। हमारी कमज़ोरियों के प्रति उनमें परमेश्‍वर से कहीं ज्‍़यादा समझ-बूझ है। हमारा कद परमेश्‍वर की अपेक्षाओं पर खरा उतरने की दृष्टि से काफ़ी छोटा हो सकता है, लेकिन यह इतना काफ़ी तो है ही कि हमारे अगुआओं की अपेक्षाओं पर खरा उतर सके। हमारे लिए वे अच्‍छे अगुआ हैं। ...' अगर लोग मन में ऐसे विचार पालते हैं—अगर अपने अगुआ के साथ उनका इस प्रकार का संबंध है, और उनकी ऐसी छाप है, और उन्‍होंने अपने दिलों में अपने अगुआ के प्रति निर्भरता, सराहना, सम्‍मान और श्रद्धा की ऐसी भावनाएँ विकसित कर ली हैं—तो वह अगुआ कैसा महसूस करता होगा? अगर इस मामले में वे कोई आत्म-धिक्कार महसूस करते हैं, कुछ असहजता महसूस करते हैं और परमेश्‍वर के प्रति ऋणी महसूस करते हैं, तो उन्‍हें दूसरों के दिलों में अपनी हैसियत या छवि को लेकर ग्रसित नहीं होना चाहिए। उन्‍हें परमेश्‍वर की गवाही देनी चाहिए और उसे ऊँचा उठाना चाहिए, ताकि लोगों के दिलों में उसका स्थान हो, और ताकि लोग परमेश्‍वर को महान मानकर उसका आदर करें। केवल इसी प्रकार उनके हृदय को सच्‍ची शांति मिलेगी, और जो ऐसा करता है वही सत्‍य का अनुसरण करता है। तथापि, यदि उनके कार्यों के पीछे यह लक्ष्‍य नहीं है, और इसके बजाय वे इन पद्धतियों और तकनीकों का इस्‍तेमाल लोगों को सच्‍चे मार्ग से भटकाने और सत्‍य का परित्याग करने के वास्ते लुभाने के लिए करते हैं, तो लोगों के दिलों में निश्चित स्थान प्राप्त करने और उनकी सद्भावना जीतने के उद्देश्‍य से, लोगों द्वारा अपने कर्तव्यों के लापरवाह, अन्यमनस्क और ग़ैर-ज़िम्मेदार निर्वहन में लिप्त होने की हद तक चले जाना, क्‍या यह लोगों को अपने पक्ष में लाने की कोशिश नहीं है? और क्‍या यह दुष्ट, जघन्य हरक़त नहीं है? यह वीभत्स है!"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'नायकों और कार्यकर्ताओं के लिए, एक मार्ग चुनना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है (1)')। परमेश्वर के वचनों का प्रकाशन देखकर मुझे एहसास हुआ कि अपने दुष्ट स्वभाव के आधार पर कर्म करना वास्तव में लोगों को अपना बनाने और उन पर नियंत्रण करने की कोशिश में उन्हें धोखा देकर उनका प्रेम पाना है। यह परमेश्वर की इच्छा के विपरीत है और मसीह-विरोधी ठीक ऐसा ही बर्ताव करते हैं! इस सोच पर मैं डरे बिना नहीं रह सकी। दूसरों के दिलों में बनी अपनी जगह और अगुआ के रूप में चुने जाने के अपने अवसर को बचाने के इरादे से, जब मैंने भाई-बहनों के कामों में समस्याएँ देखी, तो मैंने कभी उन्हें सीधे तौर पर नहीं बताया, न ही उन्हें सुलझाने के लिए उनके साथ सत्य के बारे में संगति की। इसके बजाय, मैंने चिकनी-चुपड़ी बातें की ताकि दूसरे मुझे पसंद करें, मुझे स्नेही और परवाह करने वाली मानें। इस बात का एहसास किये बिना मैं अपने लिये अनुयायी जुटा रही थी, आखिरकार मैंने जिन लोगों को धोखा दिया, वे न केवल अपनी समस्याएँ नहीं देख सके, उन्हें सुधार नहीं पाये, बल्कि उनके जीवन प्रवेश को नुकसान पहुँचा, यहाँ तक कि वे मुझे आदर से देखने और मेरी आराधना करने लगे। यह मेरा बेहद दुष्ट और घिनौना रूप था! भाई-बहनों के जीवन की मुझे ज़रा भी फ़िक्र नहीं थी, मैं उनके भ्रष्ट स्वभाव के भरोसे उनके कर्तव्य निर्वाह में उन्हें बढ़ावा दे रही थी, इसका हमारे काम पर बुरा असर पड़ रहा था। मैं पूरी तरह से शैतान की चापलूस सेवक की तरह काम कर रही थी, परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा डाल कर उसे नुकसान पहुंचा रही थी। ऐसा एहसास होने के बाद, मैं अपने दिल की गहराई से अपनी भ्रष्टता से नफ़रत करने लगी। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की और प्रायश्चित करना चाहा। मैंने कहा, "हे परमेश्वर, तुम्हारे वचनों से मैं यह समझ सकी हूँ कि मेरा दुष्ट स्वभाव बहुत गंभीर है, और मैं मसीह-विरोधी के रास्ते पर चल रही हूँ। मैं प्रायश्चित करना चाहती हूँ, अपनी निजी मंशाओं को छोड़ देना चाहती हूँ, अब अपने दुष्ट स्वभाव के आधार पर कर्म नहीं करना चाहती।"

प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के इन वचनों को याद किया : "'और यहोवा परमेश्वर ने आदम को यह आज्ञा दी, "तू वाटिका के सब वृक्षों का फल बिना खटके खा सकता है; पर भले या बुरे के ज्ञान का जो वृक्ष है, उसका फल तू कभी न खाना: क्योंकि जिस दिन तू उसका फल खाएगा उसी दिन अवश्य मर जाएगा।"' ... क्या तुम परमेश्वर द्वारा कहे गए इन संक्षिप्त वचनों में परमेश्वर के स्वभाव की कोई चीज़ देख सकते हो? क्या परमेश्वर के ये वचन सत्य हैं? क्या इनमें कोई छलावा है? क्या इनमें कोई झूठ है? क्या इनमें कोई धमकी है? (नहीं।) परमेश्वर ने ईमानदारी से, सच्चाई से और निष्कपटता से मनुष्य को बताया कि वह क्या खा सकता है और क्या नहीं खा सकता। परमेश्वर ने स्पष्टता से और सीधे-सीधे कहा। क्या इन वचनों में कोई छिपा हुआ अर्थ है? क्या ये वचन सीधे-स्पष्ट नहीं हैं? क्या किसी अटकलबाज़ी की ज़रूरत है? (नहीं।) अटकलबाज़ी की कोई ज़रूरत नहीं है। एक नज़र में उनका अर्थ स्पष्ट है। इन्हें पढ़ने पर आदमी इनके अर्थ के बारे में बिलकुल स्पष्ट महसूस करता है। यानी परमेश्वर जो कुछ कहना चाहता है और जो कुछ वह व्यक्त करना चाहता है, वह उसके हृदय से आता है। परमेश्वर द्वारा व्यक्त चीज़ें स्वच्छ, सीधी और स्पष्ट हैं। उनमें कोई गुप्त उद्देश्य या कोई छिपा हुआ अर्थ नहीं है। उसने सीधे मनुष्य से बात की और बताया कि वह क्या खा सकता है और क्या नहीं खा सकता" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IV)। मैंने ये वचन पढ़े और सच में महसूस किया कि परमेश्वर हमारे साथ कितना सच्चा है। जब परमेश्वर ने आदम को आदेश दिया, तो उसने साफ़ तौर पर बताया कि क्या खाना है और क्या नहीं, ताकि इंसान साफ़ तौर पर जान ले कि उसे क्या करना है। परमेश्वर के वचनों में कुछ भी उलझाने या गुमराह करनेवाली बात नहीं थी, इसमें कोई चालाकी या धोखा भी नहीं था। परमेश्वर की बस यही चाह थी कि इंसान के लिए सब बढ़िया हो। वह हमारे बारे में सच्चे मन से सोच रहा था। उसने इंसान के साथ पूरी ईमानदारी से बात की। मैंने देखा कि परमेश्वर का सार सच्चा, पवित्र, दयालु और मनोहारी है। वह वास्तव में हमारे विश्वास और प्रशंसा के योग्य है। मगर अपनी बात कहूँ, तो मैं भाई-बहनों के साथ बिल्कुल भी ईमानदार नहीं थी। मेरी हर कथनी और करनी में निजी मंशाओं की मलिनता थी। मैं झूठ और फरेब में डूबी हुई थी। मैं सिर्फ लोगों को धोखा देकर उनका इस्तेमाल कर रही थी, आखिरकार भाई-बहनों को नुकसान पहुँचा रही थी। मैं बहुत अधिक दुष्ट थी! मन में यह विचार आने पर मैं खुद को बहुत दोषी समझने लगी और पछतावे में डूब गयी। फिर मैं बहन शा और बहन चेंग के पास पहुँची, और उन्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव के बारे में खुलकर बताया। मैंने उन्हें उनके काम में नज़र आयी समस्याओं के बारे में भी बताया। उन्होंने मेरे बारे में बिल्कुल भी गलत नहीं समझा, बल्कि कहा कि मेरा उनकी समस्याओं के बारे में साफ़ तौर पर बताना इन्हें दिल में उतारने में उनकी मदद करेगा, वरना उन्हें एहसास नहीं हुआ होता कि उनकी समस्याएँ कितनी गंभीर हैं। उन्होंने मुझसे यह भी कहा कि अगर भविष्य में मैं फिर उनके काम में कुछ समस्याएँ देखूं, तो उन्हें ज़रूर बताऊँ। उसके बाद मैंने उनमें कुछ बदलाव देखे, वे अपने काम में बेहतर होने लगीं। इससे मुझे बहुत खुशी हुई।

फिर अपने धार्मिक कार्यों में, मैं परमेश्वर के वचनों में अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान ढूँढ़ने लगी। मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े : "चाहे अब तुम अपने कर्तव्यों का पालन करो, या स्वभावगत बदलाव के शुरुआती चरणों का अनुसरण करो, तुम्हारे भीतर कैसे भी भ्रष्ट स्वभाव क्यों न झलकते हों—तुम्हें इन्हें दूर करने के लिए सत्य की खोज करनी चाहिए। ... उदाहरण के लिए, अगर तुम लोग अपने-आपको हमेशा मीठे शब्दों में छिपाने की कोशिश करते हो, अगर तुम लोग हमेशा दूसरों के दिलों में जगह बनाने की कामना करते हो और चाहते हो कि दूसरे तुम्हें ऊंची नजर से देखें, अगर तुम्हारे अंदर ऐसी मंशाएँ हैं, तो इसका मतलब है कि तुम अपने स्वभाव द्वारा नियंत्रित हो रहे हो। क्या तुम लोगों को ये मीठे शब्द बोलने चाहिए? (नहीं।) अगर तुम ऐसे शब्द नहीं बोलते हो, तो क्या तुम इन्हें बस दबाए रखते हो? अगर तुम्हारे पास एक ज्यादा चतुर शब्दावली है, एक अलग शब्दावली है जिससे लोग तुम्हारे इरादों को न भाँप पाएँ, तो तुम्हारे स्वभाव के साथ अब भी एक समस्या है। कैसा स्वभाव? दुष्ट स्वभाव। क्या भ्रष्ट स्वभाव को आसानी से बदला जा सकता है? इसके साथ व्यक्ति का प्रकृति सार जुड़ा होता है। लोगों में यह सार, यह मूल होता है, और इसे थोड़ा-थोड़ा करके खोद निकालने की जरूरत होती है। इसे हर अवस्था से बाहर निकालना होता है, तुम्हारे द्वारा बोले गए हर शब्द के पीछे छिपे इरादे से। इसे तुम्हारे द्वारा बोले गए शब्दों से विश्लेषित करके समझना होता है। जब यह बोध और स्पष्ट होने लगता है और तुम्हारी आत्मा और ज्यादा चतुर हो जाती है, तो तुम लोग यह बदलाव ला सकते हो"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'आप सत्‍य की खोज तभी कर सकते हैं जब आप स्‍वयं को जानें')। "तू जो कुछ भी करता है, हर कार्य, हर इरादा, और हर प्रतिक्रिया, अवश्य ही परमेश्वर के सम्मुख लाई जानी चाहिए। यहाँ तक कि, तेरे रोजाना का आध्यात्मिक जीवन भी—तेरी प्रार्थनाएँ, परमेश्वर के साथ तेरा सामीप्य, परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने का तेरा ढंग, भाई-बहनों के साथ तेरी सहभागिता, और कलीसिया के भीतर तेरा जीवन—और साझेदारी में तेरी सेवा परमेश्वर के सम्मुख उसके द्वारा छानबीन के लिए लाई जा सकती है। यह ऐसा अभ्यास है, जो तुझे जीवन में विकास हासिल करने में मदद करेगा। परमेश्वर की छानबीन को स्वीकार करने की प्रक्रिया शुद्धिकरण की प्रक्रिया है। जितना तू परमेश्वर की छानबीन को स्वीकार करता है, उतना ही तू शुद्ध होता जाता है और उतना ही तू परमेश्वर की इच्छा के अनुसार होता है, जिससे तू व्यभिचार की ओर आकर्षित नहीं होगा और तेरा हृदय उसकी उपस्थिति में रहेगा; जितना तू उसकी छानबीन को ग्रहण करता है, शैतान उतना ही लज्जित होता है और उतना अधिक तू देहसुख को त्यागने में सक्षम होता है। इसलिए, परमेश्वर की छानबीन को ग्रहण करना अभ्यास का वो मार्ग है जिसका सभी को अनुसरण करना चाहिए। चाहे तू जो भी करे, यहाँ तक कि अपने भाई-बहनों के साथ सहभागिता करते हुए भी, यदि तू अपने कर्मों को परमेश्वर के सम्मुख ला सकता है और उसकी छानबीन को चाहता है और तेरा इरादा स्वयं परमेश्वर की आज्ञाकारिता का है, इस तरह जिसका तू अभ्यास करता है वह और भी सही हो जाएगा। केवल जब तू जो कुछ भी करता है, वो सब कुछ परमेश्वर के सम्मुख लाता है और परमेश्वर की छानबीन को स्वीकार करता है, तो वास्तव में तू ऐसा कोई हो सकता है जो परमेश्वर की उपस्थिति में रहता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर उन्हें पूर्ण बनाता है, जो उसके हृदय के अनुसार हैं)। परमेश्वर के वचनों पर गौर करके यह स्पष्ट हो गया कि किसी समस्या का सामना होने पर मुझे अपनी सोच की जांच-पड़ताल करनी चाहिए, अपनी कथनी और करनी के पीछे की मंशाओं पर मनन करना चाहिए, परमेश्वर के सामने अपनी कथनी और करनी को लाकर उसकी जांच-पड़ताल को स्वीकार करना चाहिए, जब कभी मैं दुष्ट स्वभाव दिखाऊँ तो मुझे उसका विश्लेषण कर खुद जान लेना चाहिए, और देर किये बिना प्रार्थना करके अपने निजी हितों को छोड़ देना चाहिए। इस तरह, मेरी भ्रष्टता का यह पहलू धीरे-धीरे दूर हो जाएगा।

बाद में, मैंने देखा कि एक बहन कमज़ोर है और कोई भी मुश्किल काम करने को तैयार नहीं है। जब कभी सुसमाचार कार्य में उसे कोई समस्या होती वह उससे मुँह मोड़ लेती। मुझे लगा कि वह अपने कर्तव्य की ज़िम्मेदारी नहीं निभा रही है और मुझे सुधार करने के लिए फ़ौरन उसके साथ संगति करने की ज़रूरत है। लेकिन मेरी समस्या ने फिर से सिर उठा लिया। मुझे लगा कि अगर मैं उसकी समस्या का ज़िक्र करूंगी, तो शायद वह सोचेगी कि मैं बहुत सख्त हूँ, और वह प्रतिरोध कर मुझसे दूर रहने लगेगी। मैं सोचने लगी कि इस बात को कैसे पेश करूँ कि उसे स्वीकार हो और वह मेरे खिलाफ न हो जाए। यह विचार आने पर, मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से भाई-बहनों के बीच अपने रुतबे और छवि को बचाने की कोशिश कर रही हूँ। मैंने अपने दिल में परमेश्वर से यह प्रार्थना की : "हे परमेश्वर, मैं तुम्हारी जांच-पड़ताल स्वीकार करने और अपनी निजी मंशाओं को छोड़ने के लिए तैयार हूँ। मैं अपनी बहन की मदद करने और अपना कर्तव्य निभाने के लिए सत्य के बारे में संगति करना चाहती हूँ।" इसके बाद मैंने उस बहन के साथ उसकी समस्या का विश्लेषण करते हुए संगति की। इसका अभ्यास करने के बाद मुझे बहुत भीतरी सुकून मिला। अब मुझमें अपने दुष्ट स्वभाव की थोड़ी समझ पैदा हुई है, अब जब कभी मेरा किसी समस्या से सामना होता है, मैं सचेतन होकर सत्य को खोजती हूँ और अपनी स्वार्थी मंशाओं को छोड़ देती हूँ। मैं परमेश्वर के वचनों के अनुसार काम कर पाती हूँ। यह सब परमेश्वर के वचनों के न्याय के जरिये हासिल हो पाया है। मैं परमेश्वर के उद्धार का बहुत आभार मानती हूँ!

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