878 परमेश्वर के कार्य का प्रत्येक कदम मनुष्य के जीवन के लिए है
1
ईश्वर इस बार देह बना है
अपना अधूरा काम पूरा करने,
इस युग का न्याय, इसका अंत करने,
पापियों को कष्टों से बचाने,
उन्हें पूरी तरह से बदलने के लिए।
इंसान के काम के लिए ईश्वर रात-रात जगे।
ऊंचाइयों से वो गहराइयों में, उतरा है
जीवित नरक में, लोगों के साथ समय बिताने।
उसने संसार की तुच्छता का गिला न किया,
डांटा नहीं इंसान को उसकी अवज्ञा पे,
पर काम करते हुए खुद अपमान सहता है।
2
ईश्वर नरक का कैसे हो सके,
कैसे वहाँ जीवन बिता सके?
पर इंसान जल्द आराम पाए, इसलिए
उसने अपमान और अन्याय सहा है,
इंसान के उद्धार के लिए वो धरती पर उतरा,
"नरक" में आया है।
इंसान कैसे ईश्वर का विरोध करने योग्य है?
इंसान कैसे शिकायत कर सके उसकी?
कैसे नज़रें उठाकर उसे देख सके?
स्वर्ग से आया ईश्वर, पाप की इस अधम धरती पर,
कभी कहा नहीं उसे इंसान से क्या गिला या कष्ट है।
3
वो चुपचाप इंसान का ज़ुल्म सहता है,
बुरा बर्ताव सहता है,
न इंसान की माँगों का विरोध किया है,
न हद से ज़्यादा उससे माँगा है;
बिन शिकायत वो काम करे
जिसकी इंसान को ज़रूरत है।
उसके कौन-से कदम इंसान के लिए नहीं?
अपने वचनों से वो प्रबुद्ध करे, डांटे, शुद्ध करे;
वो याद दिलाये, दिलासा दे,
न्याय करे और उजागर करे।
भले ही इंसान की किस्मत हटा दी उसने,
कौन-से कदम इंसान के अस्तित्व के लिए
और उसे कष्ट और अंधेरे से छुड़ाने के लिए नहीं?
ईश्वर के उत्सुक दिल को कौन समझे,
जो ममता-भरी माँ के दिल जैसा है?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, कार्य और प्रवेश से रूपांतरित