76. बीमारी के ज़रिए आशीष पाने की मेरी मंशा उजागर हुई

जेंगशिन, अमेरिका

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "परमेश्वर में अपने विश्वास में लोग, भविष्य के लिए आशीर्वाद पाने की खोज करते हैं; यह उनकी आस्‍था में उनका लक्ष्‍य होता है। सभी लोगों की यही अभिलाषा और आशा होती है, लेकिन, उनकी प्रकृति के भीतर के भ्रष्टाचार का हल परीक्षण के माध्यम से किया जाना चाहिए। जिन-जिन पहलुओं में तुम शुद्ध नहीं किए गए हो, इन पहलुओं में तुम्हें परिष्कृत किया जाना चाहिए—यह परमेश्वर की व्यवस्था है। परमेश्वर तुम्हारे लिए एक वातावरण बनाता है, परिष्कृत होने के लिए बाध्य करता है जिससे तुम अपने खुद के भ्रष्टाचार को जान जाओ। अंततः तुम उस बिंदु पर पहुंच जाते हो जहां तुम मर जाना और अपनी योजनाओं और इच्छाओं को छोड़ देना और परमेश्वर की सार्वभौमिकता और व्यवस्था के प्रति समर्पण करना अधिक पसंद करते हो। इसलिए अगर लोगों को कई वर्षों का शुद्धिकरण नहीं मिलता है, अगर वे एक हद तक पीड़ा नहीं सहते हैं, तो वे, अपनी सोच और हृदय में देह के भ्रष्टाचार के बंधन से बचने में सक्षम नहीं होंगे। जिन भी पहलुओं में तुम अभी भी शैतान के बंधन के अधीन हो, जिन भी पहलुओं में तुम अभी भी अपनी इच्छाएं रखते हो, जिनमें तुम्हारी अपनी मांगें हैं, यही वे पहलू हैं जिनमें तुम्हें कष्ट उठाना होगा। केवल दुख से ही सबक सीखा जा सकता है, जिसका अर्थ है सत्य पाने और परमेश्वर के इरादे को समझने में समर्थ होना। वास्तव में, कई सत्यों को कष्टदायक परीक्षणों के अनुभव से समझा जाता है। कोई भी व्यक्ति एक आरामदायक और सहज परिवेश में या अनुकूल परिस्थिति में परमेश्वर की इच्छा नहीं समझ सकता है, परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि को नहीं पहचान सकता है, परमेश्वर के धर्मी स्वभाव की सराहना नहीं कर सकता है। यह असंभव होगा!"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'परीक्षणों के बीच परमेश्वर को कैसे संतुष्ट करें')। इस अंश को पढ़कर मुझे अपनी बीमारी का अनुभव याद आ गया। उस दौरान मैंने थोड़ी पीड़ा सही और काफी आँसू बहाये, मगर मैंने कुछ सत्य को समझा, अपनी आस्था में बहुत ज़्यादा आशीष की चाह रखना बंद कर दिया, मैंने इस बीमारी से कुछ सबक सीखे और महसूस किया कि यह भी परमेश्वर का आशीष है।

मैंने 2010 में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार किया था। उस वक्त मैं हाई स्कूल में ही थी। परमेश्वर के वचनों से मुझे पता चला कि इंसान को परमेश्वर ने बनाया है, परमेश्वर में विश्वास रखना और उसकी आराधना करना ही सही मार्ग है—यही मार्ग सबसे अहम और सार्थक है। मैंने कलीसिया की सभाओं में जाना शुरू कर दिया, चाहे कैसा भी मौसम हो, मैंने एक भी सभा नहीं छोड़ी। मैंने अपने दोस्तों और रिश्तेदारों में सुसमाचार का प्रचार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मै हर दिन संतुष्टि और सुकून महसूस करता था।

एक साल बाद, मैं एक चेकअप के लिए अस्पताल गया तो पता चला कि मुझे हेपेटाइटिस बी नाम की बीमारी है। डॉक्टर ने कहा कि इसका इलाज करना मुश्किल है, साथ ही कहा कि बुरी स्थिति में यह कैंसर का रूप भी ले सकती है। अचानक मिली इस बीमारी की खबर से, मैं पूरी तरह सुन्न पड़ गया। मेरा चेहरा ठंडा पड़ गया और मेरे हाथ कांपने लगे। अचानक मेरा भविष्य अनिश्चित लगने लगा। उस दिन अपने घर लौटते वक्त मुझे काफ़ी निराशा महसूस हुई। मैं ज़ार-ज़ार रोता रहा। मैं खुद से यही कहता रहा, "मुझे यह बीमारी कैसे हो सकती है? मैं भी दूसरों की तरह स्वस्थ क्यों नहीं हो सकता?" उस समय मेरी सोच थी कि अगर मैं परमेश्वर में विश्वास करता हूँ, तो वो मुझे बीमारी से बचाएगा। परमेश्वर के घर में सुकून से अपना कर्तव्य निभाना शानदार होगा! मगर अब मैं बीमार हूँ, मुझे ये भी नहीं पता कि मैं ठीक हो पाउँगा या नहीं, और अगर यह बुरी स्थिति में पहुंच गया, तो मेरी जान भी जा सकती है। इन विचारों ने मुझे काफ़ी परेशान कर दिया और मैं कई बार परमेश्वर के सामने प्रार्थना करने गया। मैंने परमेश्वर से आस्था और शक्ति माँगी कि वो अपनी इच्छा को समझने में मेरा मार्गदर्शन करें और मुझे प्रबुद्ध करें, ताकि मैं इस स्थिति से निकलने का तरीका जान सकूँ।

जब मेरे भाई-बहनों को पता चला, तो वे मेरी मदद के लिए आगे आये और मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़कर सुनाया : "बीमारी का होना परमेश्वर का प्रेम ही है और निश्चित ही उसमें उसके नेक इरादे निहित होते हैं। हालाँकि, हो सकता है कि तुम्हारे शरीर को कुछ पीड़ा सहनी पड़े, लेकिन कोई भी शैतानी विचार मन में मत लाओ। बीमारी के मध्य परमेश्वर की स्तुति करो और अपनी स्तुति के मध्य परमेश्वर में आनंदित हो। बीमारी की हालत में निराश न हो, खोजते रहो और हिम्मत न हारो, और परमेश्वर तुम्हें अपने प्रकाश से रोशन करेगा। अय्यूब का विश्वास कैसा था? सर्वशक्तिमान परमेश्वर एक सर्वशक्तिशाली चिकित्सक है! बीमारी में रहने का मतलब बीमार होना है, परन्तु आत्मा में रहने का मतलब स्वस्थ होना है। जब तक तुम्हारी एक भी सांस बाकी है, परमेश्वर तुम्हें मरने नहीं देगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 6)। इस अंश को पढ़कर, मुझे पता चला कि मेरा अच्छी या बुरी स्थिति में होना परमेश्वर के हाथ में है—हर चीज़ पर परमेश्वर का राज है! मेरी सारी चिंता और झल्लाहट पूरी तरह से बेकार थी। अब जबकि मुझे बीमारी हो चुकी थी, मुझे सच में परमेश्वर पर भरोसा करना होगा। मेरी हालत बेहतर हो या न हो, मैं परमेश्वर को दोष नहीं दे सकता बल्कि मुझे उसकी सत्ता के आगे समर्पण करना होगा। तब से, मैंने अपनी बीमारी के बारे में परमेश्वर से काफी प्रार्थना की और मैंने इसका इलाज भी कराया। छह महीने बाद, मैं एक और चेकअप के लिए अस्पताल गया। डॉक्टर ने कहा कि मेरी हालत ठीक हो रही है और अब बीमारी काबू में आ रही है, अब मुझे और इलाज की ज़रूरत नहीं है। यह सुनकर मैं काफ़ी रोमांचित हुआ और मैं बस यही कहता रहा, "परमेश्वर का धन्यवाद! परमेश्वर का धन्यवाद!" मुझे वाकई नहीं पता था कि परमेश्वर से क्या कहूँ, मगर ये जानता था कि ये उसकी दया और आशीष है!

2012 में मैं कॉलेज गया मगर कैंपस में सुसमाचार साझा करने के कारण मेरी रिपोर्ट कर दी गई, मुझे कॉलेज से निकाल दिया गया। वो मेरे लिये वाकई बहुत मुश्किल वक्त था। आख़िर, मैं 12 साल तक कड़ी मेहनत से पढ़ाई करके वहां तक पहुंचा था। मगर फिर मैंने देहधारी परमेश्वर के बारे में सोचा जो इंसान को बचाने के लिए सत्य व्यक्त करते हुए कार्य कर रहा था, हमें सिर्फ़ तभी बचाया जा सकता है जब हम परमेश्वर में विश्वास करें और सत्य की खोज करें। भीषण आपदाएं जल्द ही आने वाली हैं, मुझे डर था कि अगर मैंने अपना कर्तव्य नहीं किया और अच्छे कर्म नहीं किये, तो मुझे निकाल दिया जाएगा। मैंने सोचा, "मैं कॉलेज के बारे में नहीं सोचूंगा। बस सत्य की खोज में ध्यान दूँगा और कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाउंगा।" कुछ दिनों के बाद, मैंने घर छोड़ दिया और कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाने लगा। चाहे मुझे जो भी जिम्मेदारी दी जाती, मैं बिना कोई शिकायत किये उसे खुशी से स्वीकार करता। सीसीपी के उग्र दमन और गिरफ्तारियों से सामना होने और दो बार पुलिस द्वारा पकड़े जाने से बाल-बाल बचकर भी, मैं नहीं डरा, बल्कि सुसमाचार का प्रचार करता रहा और परमेश्वर के लिए गवाही देता रहा। मैंने महसूस किया कि अगर मैं अपना कर्तव्य निभाता रहा, तो परमेश्वर मुझे ज़रूर बचाएगा, एक अच्छी मंज़िल पाने का यही एकमात्र तरीका है।

फरवरी 2015 में, मुझे अपना कर्तव्य निभाने के लिए शहर से बाहर ट्रांसफर कर दिया गया। एक दिन, अगुआ ने एक चेकअप के लिए मुझे अस्पताल जाने को कहा, इस आशंका में कि कहीं मैं दूसरों को संक्रमित न कर दूँ। जब मैंने यह सुना, तो सोचा "मेरे पिछले चेकअप के बाद करीब पाँच साल हो गये। इस दौरान मेरी बीमारी बहुत बढ़ गयी होगी। अगर ये वाकई संक्रामक हो गयी या कैंसर में बदल गयी, तो अब मैं अपना काम नहीं कर पाउँगा।" यह सोचकर मैं बहुत दुखी हो गया। मैं बहुत डर गया और जानता कि मैं इसे स्वीकार नहीं कर पाउँगा। अगले दिन मैं अस्पताल गया मगर वहां पहुंचकर मुझे काफ़ी घबराहट महसूस हुई। मैंने सोचा, "अगर मेरी बीमारी कैंसर में बदल गई होगी या अब काफ़ी संक्रामक हो गई होगी, तो क्या वे यहां मेरा इलाज कर पाएंगे? अगर वे मेरा इलाज नहीं कर पाये तो मैं क्या करूंगा?" उस वक्त मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और कहा कि चाहे जो भी हो, मैं उसकी आज्ञा का पालन करूंगा। मगर तभी डॉक्टर ने कहा कि मुझे दिल की धड़कन की समस्या (अरिथमिया) है, मैं एक बार फिर ये सोचकर चिंता में डूब गया, "क्या ये बीमार होने का संकेत है? वरना मुझे दिल की धड़कन की समस्या क्यों होगी?" डॉक्टर ने चिंतित चेहरे को ध्यान से देखते हुए, मुझे एहसास हुआ कि मेरे लिए संकेत अच्छे नहीं लग रहे हैं। डॉक्टर ने ज़्यादा कुछ नहीं कहा, मगर थोड़ा खून का नमूना लेकर मुझे घर जाने और इंतज़ार करने के लिए कहा।

जैसे-जैसे मेरे नतीजे के दिन करीब आ रहे थे, मेरी चिंता बढ़ती जा रही थी। मुझे बुरी खबर मिलने का डर था, लगा कि मैं उसका सामना नहीं कर पाउँगा। मैं बस ठीक हो जाना चाहता था। एक हफ़्ते बाद मैं अपने नतीजे लेने अस्पताल गया। डॉक्टर ने बताया कि मेरे खून में हेपेटाइटिस बी की मात्रा काफ़ी बढ़ गई है अब यह एक्यूट हेपेटाइटिस बन गया है। उसने कहा कि ये बहुत ही संक्रामक है और मुझे तुरंत इलाज की ज़रूरत है। मैंने सोचा, "मैं तो गया काम से। क्या अब मैं अपना कर्तव्य निभा पाउँगा? क्या मैं सभाओं में हिस्सा ले पाउँगा और कलीसियाई जीवन जी पाउँगा?" घर लौटते हुए रास्ते में, मैं बस अपनी बीमारी के बारे में सोचता रहा, बाइक चलाना भी मुश्किल लग रहा था। वापस लौटकर इलाज के बारे में ऑनलाइन खोज करते हुए, मैंने पढ़ा कि एक्यूट हेपेटाइटिस की वजह से लोग कोमा में जा सकते हैं और फिर कुछ ही दिनों में मौत भी हो सकती है। मैं भय से कांप उठा और सोचा, "क्या मेरे साथ भी ऐसा होगा? अगर मैं सच में इस तरह मर गया, तो क्या ये मेरी आस्था का अंत नहीं होगा? दूसरे सभी भाई-बहन कितने स्वस्थ हैं। सिर्फ़ मैं ही बीमार क्यों हूँ? मैं दूसरों से इतना अलग क्यों हूँ?" मुझे दूसरों से अधिक से अधिक जलन होने लगी। वे किसी बीमारी से परेशान नहीं थे और सुकून से अपना कर्तव्य निभा सकते थे। वे अच्छे कर्म तैयार कर रहे थे और वे परमेश्वर द्वारा बचाये जाएंगे। दूसरी तरफ़ मैं था। मैं बीमार था, मुझे कोई अंदाज़ा नहीं था कि फिर से अपना कर्तव्य निभा पाउँगा भी या नहीं। अगर नहीं, तो क्या मुझे त्याग दिया जाएगा और मैं आपदाओं में डूब जाऊँगा? अपनी आस्था के कारण मुझे कॉलेज से निकाल दिया गया और मैंने दुनिया में अपना भविष्य खो दिया; मेरा कभी कोई साथी नहीं रहा और अपने कर्तव्य के लिए मैंने घर भी छोड़ दिया। अगर परमेश्वर ने मुझे त्यागकर हटा दिया, तो क्या इसका मतलब ये नहीं कि इतने सालों की आस्था में मैंने जो भी किया, सब बेकार हो गया? अब अगर मैं घर गया, तो सीसीपी मुझे गिरफ्तार कर लेगी। मुझे पकड़कर जेल में डाल दिया जाएगा... इन विचारों ने मुझे अधिक से अधिक परेशान और निराश कर दिया। मैंने सोचा, "परमेश्वर, क्या तुम मुझे उजागर करने और हटाने के लिए इस बीमारी का इस्तेमाल कर रहे हो?" मेरी आँखों से आंसू बहते रहे। मैं काफ़ी कमज़ोर महसूस कर रहा था, अपने काम में या कुछ भी करने में मन नहीं लग रहा था। मुझे खाने का भी मन नहीं करता था। मैं पूरी तरह थका हुआ लग रहा था। अपनी पीड़ा में मैंने परमेश्वर के सामने जाकर प्रार्थना की, "सर्वशक्तिमान परमेश्वर, मुझे बहुत कमज़ोरी महसूस हो रही है और मैं काफ़ी पीड़ा में हूँ। मैं लगातार अपने भविष्य के बारे में सोच रहा हूँ। मुझे लगता है कि अब मेरी कोई मंज़िल नहीं है। प्रिय परमेश्वर, मैं जानता हूँ कि तुमने मेरे अंदर यह बीमारी आने दी है। कृपा करके मुझे प्रबुद्ध करो और राह दिखाओ ताकि मैं तुम्हारी इच्छा को समझ सकूँ।"

फिर परमेश्वर के वचनों का यह अंश मुझे याद आया : "सभी लोगों के लिए शुद्धिकरण कष्टदायी होता है, और उसे स्वीकार करना बहुत कठिन होता है—परंतु शुद्धिकरण के दौरान ही परमेश्वर मनुष्य के समक्ष अपना धर्मी स्वभाव स्पष्ट करता है और मनुष्य से अपनी अपेक्षाएँ सार्वजनिक करता है, और अधिक प्रबुद्धता, अधिक वास्तविक काट-छाँट और व्यवहार प्रदान करता है; तथ्यों और सत्य के बीच की तुलना के माध्यम से वह मनुष्य को अपने और सत्य के बारे में बृहत्तर ज्ञान देता है, और उसे परमेश्वर की इच्छा की और अधिक समझ प्रदान करता है, और इस प्रकार उसे परमेश्वर के प्रति सच्चा और शुद्ध प्रेम प्राप्त करने देता है। शुद्धिकरण का कार्य करने में परमेश्वर के ये लक्ष्य हैं। उस समस्त कार्य के, जो परमेश्वर मनुष्य में करता है, अपने लक्ष्य और अपना अर्थ होता है; परमेश्वर निरर्थक कार्य नहीं करता, और न ही वह ऐसा कार्य करता है, जो मनुष्य के लिए लाभदायक न हो। शुद्धिकरण का अर्थ लोगों को परमेश्वर के सामने से हटा देना नहीं है, और न ही इसका अर्थ उन्हें नरक में नष्ट कर देना है। बल्कि इसका अर्थ है शुद्धिकरण के दौरान मनुष्य के स्वभाव को बदलना, उसके इरादों को बदलना, उसके पुराने विचारों को बदलना, परमेश्वर के प्रति उसके प्रेम को बदलना, और उसके पूरे जीवन को बदलना" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल शुद्धिकरण का अनुभव करके ही मनुष्य सच्चे प्रेम से युक्त हो सकता है)। इन वचनों पर विचार करके, मैं समझ गया कि इस बीमारी के पीछे परमेश्वर की नेक इच्छा है। वह इस परिस्थिति के ज़रिए मेरी भ्रष्टता उजागर कर मेरी मदद कर रहा था ताकि मैं खुद को जान सकूँ और सबक सीख सकूँ। मैंने सोचा कि कैसे परमेश्वर ने अय्यूब के सामने उन परीक्षणों को आने दिया था। भले ही अय्यूब ने शारीरिक पीड़ा सही, मगर परमेश्वर ने उसका जीवन लेने के लिए नहीं, बल्कि उसकी आस्था को पूर्ण बनाने और परमेश्वर को बेहतर ढंग से जानने में उसकी मदद के लिए ऐसा किया था। परमेश्वर द्वारा मुझे बीमार करने का कारण यह नहीं था कि वह मुझे उजागर करके हटाना चाहता था, बल्कि मेरी आस्था के धब्बों को साफ़ करने और उससे प्रेम करके उसकी आज्ञा पालन करने लायक बनाने के लिए ऐसा कर रहा था। मैं परमेश्वर को दोष नहीं दे सकता, बल्कि मुझे अपनी आस्था के पीछे की गलत मंशाओं और परमेश्वर की अवज्ञा और प्रतिरोध के अपने तरीकों की जांच करनी होगी। परमेश्वर की इच्छा को समझकर, मुझे काफ़ी सकारात्मक महसूस हुआ। मैंने परमेश्वर से एक बार फिर प्रार्थना की, खुद को शांत किया और थोड़ा आत्मचिंतन किया।

अपनी इस कोशिश में, मैंने परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ा : "बहुत-से लोग केवल इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनको चंगा कर सकता हूँ। बहुत-से लोग सिर्फ इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनके शरीर से अशुद्ध आत्माओं को निकालने के लिए अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करूँगा, और बहुत-से लोग मुझसे बस शांति और आनंद प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ और अधिक भौतिक संपदा माँगने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ इस जीवन को शांति से गुज़ारने और आने वाले संसार में सुरक्षित और स्वस्थ रहने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल नरक की पीड़ा से बचने के लिए और स्वर्ग के आशीष प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल अस्थायी आराम के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं और आने वाले संसार में कुछ हासिल करने की कोशिश नहीं करते। जब मैंने अपना क्रोध नीचे मनुष्यों पर उतारा और उसका सारा आनंद और शांति छीन ली, तो मनुष्य संदिग्ध हो गया। जब मैंने मनुष्य को नरक का कष्ट दिया और स्वर्ग के आशीष वापस ले लिए, तो मनुष्य की लज्जा क्रोध में बदल गई। जब मनुष्य ने मुझसे खुद को चंगा करने के लिए कहा, तो मैंने उस पर ध्यान नहीं दिया और उसके प्रति घृणा महसूस की; तो मनुष्य मुझे छोड़कर चला गया और बुरी दवाइयों तथा जादू-टोने का मार्ग खोजने लगा। जब मैंने मनुष्य द्वारा मुझसे माँगा गया सब-कुछ वापस ले लिया, तो हर कोई बिना कोई निशान छोड़े गायब हो गया। इसलिए मैं कहता हूँ कि मनुष्य मुझ पर इसलिए विश्वास करता है, क्योंकि मैं बहुत अनुग्रह देता हूँ, और प्राप्त करने के लिए और भी बहुत-कुछ है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विश्वास के बारे में क्या जानते हो?)। "मनुष्य का परमेश्वर के साथ संबंध केवल एक नग्न स्वार्थ है। यह आशीष देने वाले और लेने वाले के मध्य का संबंध है। स्पष्ट रूप से कहें तो, यह कर्मचारी और नियोक्ता के मध्य के संबंध के समान है। कर्मचारी केवल नियोक्ता द्वारा दिए जाने वाले प्रतिफल प्राप्त करने के लिए कार्य करता है। इस प्रकार के संबंध में कोई स्नेह नहीं होता, केवल एक लेनदेन होता है। प्रेम करने या प्रेम पाने जैसी कोई बात नहीं होती, केवल दान और दया होती है। कोई समझदारी नहीं होती, केवल दबा हुआ आक्रोश और धोखा होता है। कोई अंतरंगता नहीं होती, केवल एक अगम खाई होती है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 3: मनुष्य को केवल परमेश्वर के प्रबंधन के बीच ही बचाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर, मुझे एहसास हुआ कि मैं अपनी आस्था में परमेश्वर के साथ परमेश्वर की तरह पेश नहीं आ रहा था। मैंने परमेश्वर को बस आशीष देने वाला मान लिया था। यही कारण था कि जब मैं बीमार हुआ, तो सबसे पहले मैंने भविष्य की संभावनाओं के बारे में सोचा और यह सोचा कि मैं ठीक हो पाउँगा या नहीं, मैं बीमारी और उसके इलाज के तरीके को जानने के लिए ऑनलाइन खोजा। मैंने अपना कर्तव्य निभाने में अपनी रुचि खो दी। जब स्थिति बुरी हो गई, तो मैंने परमेश्वर को अन्यायी मानकर उसे दोष दिया, क्योंकि उसने मेरी रक्षा नहीं की, मुझे बीमार होने दिया, यहां तक कि मुझे अपनी पढ़ाई, अपने परिवार और अपनी युवावस्था को त्याग देने पर भी पछतावा हुआ। आत्मचिंतन करते हुए, मैंने सोचा, "अपनी आस्था के इन वर्षों में कैसे मैंने अपना कर्तव्य निभाने के लिए सब कुछ छोड़ दिया?" मुझे एहसास हुआ कि इसकी वजह मेरी गलत सोच थी। मैंने सोचा कि अगर मैं परमेश्वर के लिए त्याग करता हूँ और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाता हूँ, तो परमेश्वर मुझे आशीष देगा, मेरी बीमारी को ठीक करेगा और मुझे खतरे से बचाये रखेगा। फिर मैं आपदाओं से बच निकलूंगा और नहीं मरूंगा, मैं जीवित रहूँगा और मुझे एक अच्छी मंज़िल मिलेगी। यही एकमात्र वजह थी कि मैं अपने कर्तव्य में कष्ट उठाना और कीमत चुकाना चाहता था। परमेश्वर में विश्वास करने और अपना कर्तव्य निभाने की मेरी प्रेरणा आशीष पाने के लिए थी। जब मेरी हालत गंभीर हो गई, तो आशीष पाने की मेरी उम्मीदें टूट गईं, सत्य की खोज करने का मेरा संकल्प और अपना कर्तव्य निभाने की मेरी प्रेरणा ख़त्म हो गई। मैंने अपने दिल में परमेश्वर से तर्क भी किया। मुझे एहसास हुआ कि आस्था में मैंने सिर्फ़ आशीषों की चाह की थी। जब मैं बीमार हुआ, तो मैंने सिर्फ़ अपने भविष्य की संभावनाओं के बारे में सोचा और अपने हितों पर ध्यान दिया—मैंने परमेश्वर की इच्छा की खोज बिल्कुल भी नहीं की, बल्कि परमेश्वर को दोष दिया, उसे गलत समझा और धोखा दिया। मैंने बहुत स्वार्थी और नीच था! मेरे इन विचारों ने परमेश्वर को काफ़ी तकलीफ़ दी और उसे निराश किया। इन तथ्यों से मुझे पता चला कि मेरी आस्था एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने या सत्य की खोज करने की नहीं थी। यह सिर्फ़ एक सुकून भरा जीवन और एक अच्छी मंज़िल पाने के लिये थी। मैंने भविष्य के इनामों और आशीषों के बदले में परमेश्वर के साथ अपनी पीड़ा का सौदा करना चाहता था। क्या मैं परमेश्वर का इस्तेमाल करके उससे धोखा करने की कोशिश नहीं कर रहा था? पौलुस ने कई सालों तक काम किया और काफ़ी कष्ट उठाया और अंत में उसे अपनी जान भी देनी पड़ी, मगर वह एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने के लिए काम नहीं कर रहा था। उसने इनाम और ताज पाने के लिए ऐसा किया था। आखिर में मुझे एहसास हुआ कि मैं पौलुस के रास्ते पर ही चल रहा था। परमेश्वर पवित्र और धार्मिक है। वह अपने राज्य में किसी को इस तरह सौदेबाजी करने और अपने साथ धोखा करने कैसे दे सकता था जैसे कि मैं कर रहा था? इस पर गौर करके, आखिर मैं यह समझ पाया कि मैं जिस बीमारी से अभी मैं गुज़र रहा हूँ, उसके ज़रिए परमेश्वर आशीष पाने की मेरी मंशा को उजागर कर रहा है। इसके बिना, मैं अब भी अपनी आस्था में मौजूद सभी मंशाओं और खामियों के बारे में नहीं जान पाता, मुझे पता नहीं चल पाता कि मैं पौलुस के रास्ते पर चल रहा था, जिसकी परमेश्वर निंदा करता है। यह सोचकर, मैंने इस बीमारी को लेकर ज़्यादा परेशान महसूस नहीं किया, बल्कि इस तरीके से उजागर करके मुझे बचाने के लिए मैंने परमेश्वर का धन्यवाद किया। कहने को तो यह एक बीमारी थी, एक बुरी चीज़ थी, मगर इसके पीछे मेरे प्रति परमेश्वर का सच्चा प्रेम और उद्धार छिपा हुआ था। परमेश्वर मुझे आस्था के सही मार्ग पर ला रहा था ताकि मैं अपनी आस्था में मौजूद सभी धब्बों को साफ़ कर सकूँ।

इन सारी बातों पर गौर करते हुए, मैंने सोचा, "इंसान को शुद्ध करके बचाने के लिए परमेश्वर ने देहधारण किया है और वह सत्य व्यक्त कर रहा है। वह निःस्वार्थ तरीके से हमें जीवन देता है और बदले में कुछ भी नहीं माँगता।" मैंने महसूस किया कि परमेश्वर का हृदय कितना सुंदर और नेक है। फिर मैंने खुद के बारे में सोचा, मैंने परमेश्वर के अनुग्रह और आशीषों का आनंद लिया, परमेश्वर के वचनों का इतना अधिक सिंचन और पोषण पाया, मगर परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए कुछ भी नहीं सोचा, अपने कर्तव्य में परमेश्वर के साथ सौदेबाजी की और बीमार होने पर, परमेश्वर को दोष दिया और उसे गलत समझा। इस विचार से मुझे काफ़ी शर्मिंदगी महसूस हुई। इतना स्वार्थी और नीच होने के कारण मुझे खुद से नफ़रत हो गई। परमेश्वर लगातार मेरे अंतरतम विचारों की जांच कर रहा था जबकि शैतान मेरे व्यवहार पर नज़र रखे हुए था। मैं शैतान के हाथों की कठपुतली नहीं बन सकता था। मुझे परमेश्वर के पक्ष में खड़ा होना चाहिए, उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए और पाठों को अच्छी तरह सीखना चाहिए। फिर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। मैंने कहा, "परमेश्वर, मैं आशीष पाने की अपनी इच्छा को त्यागना चाहता हूँ और अब अपने भविष्य के बारे में नहीं सोचना चाहता। चाहे मेरी हालत ठीक हो या न हो, मैं तुम्हारी आज्ञा का पालन करना और तुम्हारे लिए गवाही देना चाहता हूँ ताकि शैतान को शर्मिंदा कर सकूँ।" प्रार्थना करने के बाद मुझे काफ़ी सुकून महसूस हुआ और अब मैंने अपने बारे में अधिक सोचना बंद कर दिया। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : "परमेश्वर हमें जीने देता है, इसलिए हमें अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाना चाहिए। हमारे जीवन का प्रत्येक दिन, एक दिन का कर्तव्य है जो हमें करना होगा। हमें परमेश्वर के आदेश को अपना सबसे महत्वपूर्ण कार्य मानना चाहिए और अपने कर्तव्यों का निर्वहन ऐसे करना चाहिए जैसे कि वे जीवन के सबसे बड़े मुददे हों। यद्यपि हम अपने कर्तव्यों के परिपूर्ण समापन का अनुसरण न भी करें, (तो भी) हम अपने विवेक के अनुसार कार्य करें जिससे शैतान हमारे खिलाफ़ आरोप लगाने में असमर्थ हो जाए, तथा, अपनी अंतरात्मा में किसी अपराध-बोध के बिना, हम परमेश्वर को संतुष्ट कर सकें और हमें कोई भी पछतावा न रहे। परमेश्वर में विश्वास करने वाले व्यक्ति को अपने कर्तव्य को इसी दृष्टिकोण से देखना चाहिए"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपनी आस्था में सही पथ पर होने के लिए आवश्यक पाँच अवस्थाएँ')। मुझे नहीं पता था कि मैं ठीक हो पाउँगा भी या नहीं, मगर मैं परमेश्वर के दिये हुए कर्तव्य को पूरा कर सकता था। उसके बाद मैंने अपनी बीमारी को रुकावट नहीं बनने दिया और पूरे दिल से अपना कर्तव्य निभाने लगा।

मैं अपनी बीमारी के बारे में जानने के लिए वापस अस्पताल गया। डॉक्टर ने कहा कि मेरी हालत बेहतर है और मेरा लीवर सामान्य तरीके से काम कर रहा है। मेरे खून में काफ़ी संक्रमण था, मगर बाकी सब कुछ ठीक था। डॉक्टर ने कहा कि मुझे फ़िक्र नहीं करनी चाहिए और मुझे बस सामान्य इलाज की ज़रूरत है। डॉक्टर के यह कहने पर, मैंने मन ही मन परमेश्वर को धन्यवाद दिया! मैंने महसूस किया कि परमेश्वर मुझ पर दया कर रहा है। मैं कितना स्वार्थी और नीच था, सिर्फ़ अपने फ़ायदे की सोच रहा था, थोड़ा कर्तव्य निभाने के बदले में परमेश्वर से कुछ पाना चाहता था, उससे धोखा करके उसे नाराज़ कर रहा था, मगर उसने मेरी विद्रोहशीलता को अनदेखा कर दिया। वह मुझे प्रबुद्ध करने और राह दिखाने के लिए अपने वचनों का इस्तेमाल करता रहा ताकि मैं उसके कार्य का अनुभव कर सकूँ, अपनी आस्था में मौजूद अपनी गलत सोच और मंशाओं को जान सकूँ। मैंने सच में महसूस किया कि परमेश्वर का प्रेम कितना महान है! उसके बाद, मैंने अपना कर्तव्य निभाने पर पूरा ध्यान दिया। मैंने सोचा कि इस बीमारी के ज़रिए मैंने कुछ सबक सीखे हैं। और मेरा आध्यात्मिक कद थोड़ा बढ़ गया है। इसलिए जब परमेश्वर ने मेरे लिए एक और परीक्षण की व्यवस्था की, तो एक बार फिर उजागर किये जाने पर मैं हैरान रह गया।

एक महीने बाद, मेरी अगुआ ने एक और चेकअप के लिए मुझे अस्पताल जाने को कहा। उसने कहा कि अगर मेरी बीमारी बहुत अधिक संक्रामक हुई, तो मुझे दूसरों से अलग होकर अपनी जिंदगी जीनी होगी। उसे ऐसा कहते सुनकर, मैं काफ़ी परेशान हो गया, जैसे कि मेरी छाती पर कोई भारी बोझ आ पड़ा हो। मेरा मन तेज़ी से सोचने लगा : "अगर मुझे दूसरों से अलग रखा गया, तो मैं सभाओं में नहीं जा पाउँगा या कलीसियाई जीवन नहीं जी पाउँगा। अगर मैं किसी दिन ज़्यादा ही बीमार हो गया और इसके बारे में कोई भी न जान पाया, तो मैं क्या करूंगा? जब भीषण आपदाएं आएंगी, सभी भाई-बहन एक साथ सहभागिता करेंगे, एक दूसरे की मदद और सहयोग करेंगे। मगर मैं बस खुद के भरोसे रहूँगा। क्या मैं मजबूती से खड़ा रह पाउँगा?" मैंने जितना अधिक इसके बारे में सोचा, उतना ही निराश हो गया। अगुआ ने मुझसे सहभागिता की और मुझे परमेश्वर की सत्ता के प्रति समर्पित होना सीखने के लिए कहा। उसने कहा कि इन हालत में मुझे परमेश्वर की इच्छा को जानने की कोशिश करनी चाहिए और अय्यूब की तरह, चाहे आशीष मिले या आपदा, हर हाल में परमेश्वर का गुणगान करना चाहिए। यह सुनकर मुझे प्रेरणा मिली और मैंने पिछली बार के अपने अनुभव को याद किया। मुझे एहसास हुआ कि इसकी अनुमति मुझे परमेश्वर ने दी है, और सबसे पहले मुझे अपने आपको समर्पित करना है। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के पाठ का यह वीडियो देखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "अय्यूब ने परमेश्वर से किन्हीं लेन-देनों की बात नहीं की, और परमेश्वर से कोई याचनाएँ या माँगें नहीं कीं। उसका परमेश्वर के नाम की स्तुति करना भी सभी चीज़ों पर शासन करने की परमेश्वर की महान सामर्थ्य और अधिकार के कारण था, और वह इस पर निर्भर नहीं था कि उसे आशीषें प्राप्त हुईं या उस पर आपदा टूटी। वह मानता था कि परमेश्वर लोगों को चाहे आशीष दे या उन पर आपदा लाए, परमेश्वर की सामर्थ्य और उसका अधिकार नहीं बदलेगा, और इस प्रकार, व्यक्ति की परिस्थितियाँ चाहे जो हों, परमेश्वर के नाम की स्तुति की जानी चाहिए। मनुष्य को धन्य किया जाता है तो परमेश्वर की संप्रभुता के कारण किया जाता है, और इसलिए जब मनुष्य पर आपदा टूटती है, तो वह भी परमेश्वर की संप्रभुता के कारण ही टूटती है। परमेश्वर की सामर्थ्य और अधिकार मनुष्य से संबंधित सब कुछ पर शासन करते हैं और उसे व्यवस्थित करते हैं; मनुष्य के सौभाग्य के उतार-चढ़ाव परमेश्वर की सामर्थ्य और उसके अधिकार की अभिव्यंजना हैं, और जिसका चाहे जो दृष्टिकोण हो, परमेश्वर के नाम की स्तुति की जानी चाहिए। यही वह है जो अय्यूब ने अपने जीवन के वर्षों के दौरान अनुभव किया था और जानने लगा था। अय्यूब के सभी विचार और कार्यकलाप परमेश्वर के कानों तक पहुँचे थे, और परमेश्वर के सामने आए थे, और परमेश्वर द्वारा महत्वपूर्ण माने गए थे। परमेश्वर ने अय्यूब के बारे में इस ज्ञान को दुलारा, और ऐसा हृदय होने के लिए अय्यूब को सँजोया। यह हृदय सदैव, और सर्वत्र, परमेश्वर के आदेश की प्रतीक्षा करता था, और समय या स्थान चाहे जो हो, उस पर जो कुछ भी टूटता उसका स्वागत करता था। अय्यूब ने परमेश्वर से कोई माँगें नहीं कीं। उसने स्वयं अपने से जो माँगा वह यह था कि परमेश्वर से आई सभी व्यवस्थाओं की प्रतीक्षा करे, स्वीकार करे, सामना करे, और आज्ञापालन करे; अय्यूब इसे अपना कर्तव्य मानता था, और यह ठीक वही था जो परमेश्वर चाहता था" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। इसे देखकर मैंने खुद को काफ़ी शर्मिंदा महसूस किया। अय्यूब ने परमेश्वर के नाम का गुणगान सिर्फ़ खाली शब्दों से नहीं किया। उसने अपने दिल की गहराइयों से परमेश्वर का गुणगान किया। अय्यूब परमेश्वर के अधिकार, उसकी सर्वशक्तिमत्ता और संप्रभुता को जानता था, इसलिये उसके दिल में परमेश्वर का भय था और उसने परमेश्वर को वाकई परमेश्वर माना था। यही कारण था कि परमेश्वर ने चाहे जैसा भी आयोजन किया और जैसी भी व्यवस्था की, उसने कोई शिकायत नहीं की या कोई मांग नहीं रखी। अय्यूब ने परमेश्वर से सौदेबाजी करने की कोशिश नहीं की। उसे आशीष मिली हो या आपदा का सामना करना पड़ा हो, उसने बस परमेश्वर की आज्ञा का पालन किया। उसने परमेश्वर के आज्ञापालन को अपने जीवन से अधिक महत्वपूर्ण माना। मैंने खुद के बारे में सोचा : मैंने बार-बार परमेश्वर से सौदेबाजी करने की कोशिश और जिद्दी बनकर आशीष पाने की चाह क्यों की? क्योंकि मेरे दिल में परमेश्वर के लिए जगह नहीं थी और मैंने अपने दिल में परमेश्वर का भय नहीं माना। मैंने अपने भविष्य की संभावनाओं और आशीष पाने को काफ़ी महत्व दिया, यही कारण था कि जब मैं बीमार पड़ा, तो मैंने परमेश्वर के सामने बिल्कुल भी समर्पण नहीं किया। परमेश्वर के अनुग्रह से मैं कुछ आशीषों का आनंद उठा रहा था और परमेश्वर की सत्ता ही मेरे लिए यह बीमारी लेकर आयी थी। मेरे पास जो कुछ भी था वह परमेश्वर ने मुझे दिया था, अगर उसने सब कुछ ले लिया, तो वह भी परमेश्वर की धार्मिकता होगी! मेरे जैसे एक चींटी से भी तुच्छ इंसान की परमेश्वर से तर्क करने की हिम्मत कैसे हुई? इसलिये मैंने परमेश्वर के सामने संकल्प लिया कि मैं उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने को तैयार हूँ। अगर मुझे दूसरों से अलग होना पड़ा, तो भी कोई बात नहीं। परमेश्वर मुझे जहां चाहे रखे, भले ही आपदा आये, मैं शिकायत नहीं करूंगा। मैं जहां भी रहूँगा, परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए अपना कर्तव्य निभाता रहूँगा। बाद में मैं अपने चेकअप के लिए अस्पताल गया। रास्ते में मुझे थोड़ी घबराहट महसूस हुई। अपने दिल में परमेश्वर से प्रार्थना और उसके वचनों पर मनन करता रहा। बाइक पर अस्पताल तक का सफ़र आसान लगा। वहाँ पहुँचने पर, डॉक्टर ने कहा, "बधाई हो! पिछले महीने आपके एक मिलीलीटर खून में वायरस की मात्रा 1.7 बिलियन थी। अब यह सिर्फ़ 560 हज़ार रह गई है और अब आप ज़्यादा संक्रामक नहीं रहे।" उसने कहा कि सिर्फ़ एक महीने में वायरस की संख्या इतनी कम होना बहुत बड़ी बात है। यह सुनकर, मैंने परमेश्वर का बहुत अधिक आभार माना। वो बिल्कुल मेरे पास था, सभी चीज़ों की व्यवस्था कर रहा था। यह कितना अद्भुत और व्यावहारिक है!

इस बीमारी के अनुभव ने, आशीष पाने की मेरी इच्छा और मेरी नीच मंशाएं बिल्कुल स्पष्ट कर दीं। मुझे अपने अनुसरण की गलत सोच और मेरे भ्रष्ट स्वभावों की कुछ समझ हासिल हुई। मुझे परमेश्वर की संप्रभुता की व्यावहारिक समझ भी हासिल हुई। यह सब न्याय और ताड़ना के अनुभव से आया। अब मैं यह नहीं सोचता कि मैं हेपेटाइटिस से पूरी तरह मुक्त कब होऊँगा। अब मैं बस परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहता हूँ और इस स्थिति में रहते हुए, मैं अच्छे से अपना कर्तव्य निभाना चाहता हूँ। परमेश्वर का धन्यवाद!

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