75. बीमारी की अग्नि-परीक्षा

झोंगशिन, चीन

सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "मेरे कर्मों की संख्या समुद्र-तटों की रेत के कणों से भी ज़्यादा है, और मेरी बुद्धि सुलेमान के सभी पुत्रों से बढ़कर है, फिर भी लोग मुझे मामूली हैसियत का मात्र एक चिकित्सक और मनुष्यों का कोई अज्ञात शिक्षक समझते हैं। बहुत-से लोग केवल इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनको चंगा कर सकता हूँ। बहुत-से लोग सिर्फ इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनके शरीर से अशुद्ध आत्माओं को निकालने के लिए अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करूँगा, और बहुत-से लोग मुझसे बस शांति और आनंद प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ और अधिक भौतिक संपदा माँगने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ इस जीवन को शांति से गुज़ारने और आने वाले संसार में सुरक्षित और स्वस्थ रहने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल नरक की पीड़ा से बचने के लिए और स्वर्ग के आशीष प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल अस्थायी आराम के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं और आने वाले संसार में कुछ हासिल करने की कोशिश नहीं करते। जब मैंने अपना क्रोध नीचे मनुष्यों पर उतारा और उसका सारा आनंद और शांति छीन ली, तो मनुष्य संदिग्ध हो गया। जब मैंने मनुष्य को नरक का कष्ट दिया और स्वर्ग के आशीष वापस ले लिए, तो मनुष्य की लज्जा क्रोध में बदल गई। जब मनुष्य ने मुझसे खुद को चंगा करने के लिए कहा, तो मैंने उस पर ध्यान नहीं दिया और उसके प्रति घृणा महसूस की; तो मनुष्य मुझे छोड़कर चला गया और बुरी दवाइयों तथा जादू-टोने का मार्ग खोजने लगा। जब मैंने मनुष्य द्वारा मुझसे माँगा गया सब-कुछ वापस ले लिया, तो हर कोई बिना कोई निशान छोड़े गायब हो गया। इसलिए मैं कहता हूँ कि मनुष्य मुझ पर इसलिए विश्वास करता है, क्योंकि मैं बहुत अनुग्रह देता हूँ, और प्राप्त करने के लिए और भी बहुत-कुछ है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विश्वास के बारे में क्या जानते हो?)। पहले जब मैंने इसे पढ़ा, तो मैंने सिर्फ़ यही कहा कि परमेश्वर की हर बात एक सच्चाई है, लेकिन मैं कभी भी सच में इसे समझ नहीं पायी। मुझे लगा कि मैंने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा, अपनी नौकरी और परिवार को त्याग दिया, खुद को खपाया, और अपने कर्तव्य के लिए बहुत कष्ट सहे, दुख और बीमारी में मैं परमेश्वर को दोष नहीं दूँगी या उसे धोखा नहीं दूँगी। लेकिन जब मैं गंभीर बीमारी की अग्नि-परीक्षा से गुज़री, तो मैंने परमेश्वर को ग़लत समझ कर उसे दोषी ठहराया। आशीष पाने और परमेश्वर के साथ सौदा करने की मेरी मंशा, दिन के प्रकाश में उजागर हो गयी। तभी मैं लोगों को उजागर करने वाले परमेश्वर के वचनों से पूरी तरह आश्वस्त हो पायी, अपनी आस्था में अनुसरण के बारे में मेरे विचारों में बदलाव आया।

जुलाई 2018 में एक दिन, मुझे अपने बायें स्तन में एक छोटी-सी सख्त गाँठ मिली। मैंने इस पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया और सोचा कि सूजन घटाने वाली किसी दवा से ठीक हो जाएगी। लेकिन अगले दो महीनों में, यह बद से बदतर होती गयी। मुझे रात में पसीना आता और बिल्कुल ताकत नहीं रहती, और गाँठ के इर्द-गिर्द बहुत दर्द होता। मैं सोचने लगी कि वाकई कहीं कुछ बुरा तो नहीं, लेकिन मैंने खुद को फिर ढाढ़स बंधाया कि कोई बड़ी बात नहीं है। मुझे परमेश्वर में आस्था थी और मैं हर दिन कलीसिया में अपना कर्तव्य करते हुए व्यस्त रहती। मुझे लगा परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा। एक रात, तेज़ दर्द ने मुझे जगा दिया। मेरे स्तन से पीला द्रव रिस रहा था, और मैं समझ गयी कि कुछ तो गड़बड़ है। मेरे पति और मैं जांच के लिए तुरंत अस्पताल गये। रिपोर्ट आ गयी: मुझे स्तन कैंसर है। जब डॉक्टर ने ये बताया तो मेरे दिल की धड़कन रुक गयी। "स्तन कैंसर?" मैंने सोचा। "मैं सिर्फ 30 साल की हूँ! ऐसा कैसे हो सकता है?" मैं खुद को समझाती रही, "नहीं। मेरे साथ ऐसा नहीं हो सकता। मैं एक विश्वासी हूँ, कई वर्षों से कलीसिया में अपना कर्तव्य निभा रही हूँ। परमेश्वर मेरी देखभाल करेंगे, मेरी रक्षा करेंगे। डॉक्टर ने ज़रूर जांच में ग़लती की होगी।" मैंने बहुत उम्मीद की कि यह ग़लत हो। मुझे याद नहीं उस दिन मैं अस्पताल से घर कैसे पहुँची। मेरे पति ने मेरे चेहरे पर घबराहट देखी और मुझे यह कह कर सुकून देने की कोशिश की, "यह एक छोटा अस्पताल है और यहाँ के डॉक्टर उतने कुशल नहीं हैं। हो सकता है वे ग़लत हों। चलो, किसी बड़े अस्पताल में तुम्हारी जांच करवाते हैं।" उनकी बात सुन कर मुझे आशा की झलक दिखाई दी। दुर्भाग्य से, बड़े अस्पताल के डॉक्टर ने पहले वाली रिपोर्ट की पुष्टि कर दी: स्तन कैंसर ही है। उसने यह भी कहा कि यह मध्यम से अंतिम अवस्था के बीच है, और मुझे कीमोथेरेपी और ऑपरेशन के लिए दाखिल होना पड़ेगा, वरना जान जा सकती है। मेरा दिमाग़ बिल्कुल भावशून्य हो गया और मेरा दिल बैठ गया। मैंने सोचा, "इस सबमें कितना खर्च होगा? मैं कीमो के दौरान बीच में ही गुज़र गयी तो फिर क्या होगा? मेरा परिवार इतना ऋण कैसे चुका पायेगा?" मैं मायूस होकर बिल्कुल बेसहारा महसूस करने लगी।

कीमो के मेरे पहले दौर के बाद, मेरे पूरे शरीर में दर्द ही दर्द था। मेरा कुछ भी करने का मन नहीं होता, पूरा वक्त मदहोश-सी रहती। दवा रोकने के कुछ दिन बाद ही मेरी हालत में थोड़ा सुधार आना शुरू हुआ। वर्षों से परमेश्वर में मैंने विश्वास रखा, त्याग किया, अपने कर्तव्य में खुद को खपाया। अच्छे-बुरे हर हालात में हमेशा अपना कर्तव्य निभाया, और एक भी सभा नहीं छोड़ी। हर समस्या में अपने भाई-बहनों की मदद की। मैंने इतनी कड़ी मेहनत की, आखिर किसलिए? परमेश्वर मेरी रक्षा क्यों नहीं कर रहा है? अब मैं कोई काम नहीं कर सकती थी। एक तरह से मैं मौत की दहलीज़ पर थी। क्या परमेश्वर मुझे हटाना चाहता है? मुझे कीमो के पांच और दौर लेने हैं और एक ऑपरेशन करवाना है। मैं कैसे झेल पाऊँगी? भयानक पीड़ा और वेदना तो है ही, अगर मैं मर गयी, तो क्या इसका मतलब यह है कि इतने वर्षों की मेरी आस्था समय की बर्बादी थी? इस सोच से मेरी आँखों में आंसू आ गये। उन कुछ दिनों मैं भयानक पीड़ा में थी। मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े, लेकिन कुछ भी दिल में नहीं उतरा, फिर मैंने प्रार्थना करना बंद कर दिया। मेरी आत्मा बहुत अँधेरे में थी और मैं परमेश्वर से ज़्यादा-से-ज़्यादा दूर होती जा रही थी।

एक दिन, कलीसिया से बहन ली मुझे देखने आयी, उसने हमदर्दी से मेरा हालचाल पूछा। मुझे इतने दर्द में और इतनी हताश देख कर उसने मुझसे संगति की। उसने कहा, "परमेश्वर हम पर बीमारी को आने देता है। हमें प्रार्थना और ज़्यादा प्रयास करने चाहिए, परमेश्वर यकीनन हमें अपनी इच्छा को समझने देगा ..." उसकी संगति को सुनकर मेरे दिल में हलचल हुई। शायद परमेश्वर मुझे हटाना नहीं चाहता, लेकिन वह यह अवश्य चाहता है कि मैं इससे सबक लूँ! उसके जाने के बाद, मैंने परमेश्वर के सामने यह कह कर प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, जब से मैं बीमार पड़ी हूँ, बहुत पीड़ा में जी रही हूँ, तुम्हें ग़लत समझ कर दोष दे रही हूँ। लेकिन आज, बहन की चेतावनी से मुझे समझ में आ गया कि इस बीमारी के पीछे तुम्हारी ही इच्छा है, लेकिन मैं अभी भी नहीं जानती कि इस स्थिति से क्या सबक लूँ। मेरा मार्गदर्शन करो।"

फिर, हर दिन मैं इसी तरह परमेश्वर के सामने प्रार्थना करती। एक दिन, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "परीक्षणों में प्रवेश तुम्हें प्रेम या विश्वास से रहित बना देता है, तुममें प्रार्थना की कमी होती है और तुम भजन गाने में असमर्थ होते हो और इसे जाने बिना ही तुम इसके मध्य स्वयं को जान लेते हो। परमेश्वर के पास मनुष्य को पूर्ण बनाने के अनेक साधन हैं। मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव से निपटने के लिए वह समस्त प्रकार के परिवेशों का उपयोग करता है, और मनुष्य को अनावृत करने के लिए विभिन्न चीजों का प्रयोग करता है; एक ओर वह मनुष्य के साथ निपटता है, दूसरी ओर मनुष्य को अनावृत करता है, और तीसरी ओर वह मनुष्य को उजागर करता है, उसके हृदय की गहराइयों में स्थित 'रहस्यों' को खोदकर और उजागर करते हुए, और मनुष्य की अनेक अवस्थाएँ प्रकट करके वह उसे उसकी प्रकृति दिखाता है। परमेश्वर मनुष्य को अनेक विधियों से पूर्ण बनाता है—प्रकाशन द्वारा, मनुष्य के साथ व्यवहार करके, मनुष्य के शुद्धिकरण द्वारा, और ताड़ना द्वारा—जिससे मनुष्य जान सके कि परमेश्वर व्यावहारिक है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल उन्हें ही पूर्ण बनाया जा सकता है जो अभ्यास पर ध्यान देते हैं)। परमेश्वर के वचनों पर मनन करके आखिरकार मैंने उसकी इच्छा को समझना शुरू किया। हम अपने शैतानी स्वभाव को समझें, सत्य को खोज कर उसका अभ्यास करें, और आखिरकार अपने भ्रष्ट स्वभाव को शुद्ध और परिवर्तित करें, इसके लिए परमेश्वर, हर प्रकार के हालात में हमारे भ्रष्ट स्वभाव को उजागर करके, अपने वचनों के न्याय और प्रकाशनों का इस्तेमाल करके अंत के दिनों में लोगों को पूर्ण करने के लिए कार्य करता है। मैं समझ गयी कि परमेश्वर ने मुझे बीमार इसलिए नहीं होने दिया कि वह मुझे हटाना चाहता है या किसी मकसद से मुझे नुकसान पहुँचाना चाहता है, बल्कि इसलिए कि वह मुझे शुद्ध कर बदलना चाहता है। मैं अब परमेश्वर को ग़लत नहीं समझ सकती या कीचड़ में लोटती नहीं रह सकती। मुझे समर्पण करना होगा, अपनी बीमारी में सत्य को खोजना होगा, आत्मचिंतन कर खुद को जानना होगा। एक बार परमेश्वर की इच्छा को समझ लेने के बाद मुझे अब वैसी मायूसी या उतनी पीड़ा नहीं रही। मैंने परमेश्वर के सामने समर्पण की प्रार्थना की।

प्रार्थना पूरी होते ही, परमेश्वर के वचनों की एक पंक्ति मन में कौंधी : "तुम्‍हारा लक्ष्य केवल सुखी जीवन बिताना है, तुम्‍हारे परिवार में कोई दुर्घटना न हो, आँधी-तूफान तुम्‍हारे पास से होकर गुजर जाएँ, धूल-मिट्टी तुम्‍हारे चेहरे को छू भी न पाए...।" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। मैंने जल्दी से परमेश्वर के वचनों की अपनी क़िताब में ढूँढ़ा, तब यह अंश मुझे मिला : "तुम्हें लगता है कि परमेश्वर में अपनी आस्था के लिए तुम्‍हें चुनौतियों और क्लेशों या कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ेगा। तुम हमेशा निरर्थक चीजों के पीछे भागते हो, और तुम जीवन के विकास को कोई अहमियत नहीं देते, बल्कि तुम अपने फिजूल के विचारों को सत्य से ज्यादा महत्व देते हो। तुम कितने निकम्‍मे हो! तुम सूअर की तरह जीते हो—तुममें और सूअर और कुत्ते में क्या अंतर है? जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, बल्कि शरीर से प्यार करते हैं, क्या वे सब पूरे जानवर नहीं हैं? क्या वे मरे हुए लोग जिनमें आत्मा नहीं है, चलती-फिरती लाशें नहीं हैं? तुम लोगों के बीच कितने सारे वचन कहे गए हैं? क्या तुम लोगों के बीच केवल थोड़ा-सा ही कार्य किया गया है? मैंने तुम लोगों के बीच कितनी आपूर्ति की है? तो फिर तुमने इसे प्राप्त क्यों नहीं किया? तुम्हें किस बात की शिकायत है? क्या यह बात नहीं है कि तुमने इसलिए कुछ भी प्राप्त नहीं किया है क्योंकि तुम देह से बहुत अधिक प्रेम करते हो? क्योंकि तुम्‍हारे विचार बहुत ज्यादा निरर्थक हैं? क्योंकि तुम बहुत ज्यादा मूर्ख हो? यदि तुम इन आशीषों को प्राप्त करने में असमर्थ हो, तो क्या तुम परमेश्वर को दोष दोगे कि उसने तुम्‍हें नहीं बचाया? तुम परमेश्वर में विश्वास करने के बाद शांति प्राप्त करना चाहते हो—ताकि अपनी संतान को बीमारी से दूर रख सको, अपने पति के लिए एक अच्छी नौकरी पा सको, अपने बेटे के लिए एक अच्छी पत्नी और अपनी बेटी के लिए एक अच्छा पति पा सको, अपने बैल और घोड़े से जमीन की अच्छी जुताई कर पाने की क्षमता और अपनी फसलों के लिए साल भर अच्छा मौसम पा सको। तुम यही सब पाने की कामना करते हो। तुम्‍हारा लक्ष्य केवल सुखी जीवन बिताना है, तुम्‍हारे परिवार में कोई दुर्घटना न हो, आँधी-तूफान तुम्‍हारे पास से होकर गुजर जाएँ, धूल-मिट्टी तुम्‍हारे चेहरे को छू भी न पाए, तुम्‍हारे परिवार की फसलें बाढ़ में न बह जाएं, तुम किसी भी विपत्ति से प्रभावित न हो सको, तुम परमेश्वर के आलिंगन में रहो, एक आरामदायक घरौंदे में रहो। तुम जैसा डरपोक इंसान, जो हमेशा दैहिक सुख के पीछे भागता है—क्या तुम्‍हारे अंदर एक दिल है, क्या तुम्‍हारे अंदर एक आत्मा है? क्या तुम एक पशु नहीं हो? मैं बदले में बिना कुछ मांगे तुम्‍हें एक सत्य मार्ग देता हूँ, फिर भी तुम उसका अनुसरण नहीं करते। क्या तुम उनमें से एक हो जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं? मैं तुम्‍हें एक सच्चा मानवीय जीवन देता हूँ, फिर भी तुम अनुसरण नहीं करते। क्या तुम कुत्ते और सूअर से भिन्न नहीं हो? सूअर मनुष्य के जीवन की कामना नहीं करते, वे शुद्ध होने का प्रयास नहीं करते, और वे नहीं समझते कि जीवन क्या है। प्रतिदिन, उनका काम बस पेट भर खाना और सोना है। मैंने तुम्‍हें सच्चा मार्ग दिया है, फिर भी तुमने उसे प्राप्त नहीं किया है: तुम्‍हारे हाथ खाली हैं। क्या तुम इस जीवन में एक सूअर का जीवन जीते रहना चाहते हो? ऐसे लोगों के जिंदा रहने का क्या अर्थ है? तुम्‍हारा जीवन घृणित और ग्लानिपूर्ण है, तुम गंदगी और व्यभिचार में जीते हो और किसी लक्ष्य को पाने का प्रयास नहीं करते हो; क्या तुम्‍हारा जीवन अत्यंत निकृष्ट नहीं है? क्या तुम परमेश्वर की ओर देखने का साहस कर सकते हो? यदि तुम इसी तरह अनुभव करते रहे, तो क्या केवल शून्य ही तुम्हारे हाथ नहीं लगेगा? तुम्हें एक सच्चा मार्ग दे दिया गया है, किंतु अंततः तुम उसे प्राप्त कर पाओगे या नहीं, यह तुम्हारी व्यक्तिगत खोज पर निर्भर करता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर के वचनों ने अपनी आस्था में आशीष पाने की मेरी इच्छा को बिल्कुल उजागर कर दिया. मैंने वर्षों की अपनी आस्था को याद किया, जब घर में सब-कुछ सही था, मैं स्वस्थ थी और सब-कुछ अच्छा चल रहा था, मैं सक्रिय होकर अपना कर्तव्य निभाती, लगता मुझमें जोश कूट-कूट कर भरा हुआ है। लेकिन कैंसर हो जाने के बाद, मैं निराश हो गयी, मैंने परमेश्वर को ग़लत समझा और मेरी रक्षा न करने के लिए कर उसे दोषी ठहराया। मैंने अपने किये हुए काम का फायदा उठाकर परमेश्वर से बहस की। मुझे अपने वर्षों के त्याग पर भी पछतावा हुआ। मैं परमेश्वर से कन्नी काटने और उसे धोखा देने की ज़िंदगी जीने लगी। जब बीमारी के जरिये मुझे उजागर किया गया, तभी मैंने देखा कि मैं अपना कर्तव्य और त्याग इसलिए नहीं कर रही थी कि मुझे सत्य का अनुसरण करना है या एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाना है, बल्कि इसलिए कि सुकून और आशीष पा सकूं। मैं परमेश्वर से सौदेबाजी कर रही थी, ताकि अपने त्याग के ऐवज में मुझे आशीष मिले। मैं इस जीवन में सब-कुछ पा लेना चाहती थी, और अगले अनंत जीवन में भी। अब मुझे कैंसर है, और जब ऐसा लगने लगा कि मैं मरनेवाली हूँ और मुझे आशीष नहीं मिलेंगे, तो मैंने अन्यायी मान कर परमेश्वर को दोष दिया—मुझमें ज़रा भी इंसानियत नहीं थी। मैंने इतने वर्षों की अपनी आस्था के बारे में सोचा। मुझे परमेश्वर से बहुत अधिक अनुग्रह और आशीष मिला, सत्य ने मेरा बहुत अधिक सिंचन और पोषण किया। परमेश्वर ने मुझे बहुत कुछ दिया, लेकिन मैंने उसके प्रेम का मूल्य चुकाने के बारे में कभी नहीं सोचा। जब मैं बीमार हुई, तो मैंने परमेश्वर के सामने ज़रा भी समर्पण नहीं किया। मैंने सिर्फ उसे ग़लत समझ कर दोष दिया। मुझमें बिल्कुल भी ज़मीर और समझ नहीं थी! आखिरकार मैं समझ पायी कि परमेश्वर ने मुझे इसलिए बीमार होने दिया है ताकि अपनी आस्था में आशीष पाने की मेरी मंशा और अनुसरण के बारे में मेरे ग़लत विचारों को उजागर कर मुझे शुद्ध कर सके, ताकि मैं सत्य का अनुसरण कर अपने स्वभाव में बदलाव लाने की कोशिश पर ध्यान दे सकूं। परमेश्वर के नेक इरादों को समझने के बाद मुझे बहुत पछतावा हुआ और मैंने खुद को धिक्कारा। मैंने मन-ही-मन यह संकल्प किया : "मेरी सेहत ठीक हो या न हो, मैं परमेश्वर से कोई निरर्थक मांग नहीं करूंगी। मैं अपनी ज़िंदगी और मौत परमेश्वर को सौंप कर उसकी व्यवस्थाओं के सामने समर्पण करना चाहती हूँ।" इसके बाद मुझे बहुत सुकून महसूस हुआ। मैं अब पहले की तरह बेचैन और व्यथित नहीं थी, मैं परमेश्वर के वचन पढ़ने के लिए शांत हो सकती थी, परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य की खोज कर सकती थी।

एक बार समर्पण करने के बाद, फिर से कीमो लेने के लिए जाना पहले जितना दर्दनाक नहीं रहा। हालांकि अभी भी मुझे उल्टी-सी लगती, पर सब ठीक ही था। दूसरे मरीज़ों को अचरज और ईर्ष्या होती। मेरा दिल जानता था कि यह पूरी तरह से परमेश्वर की दया और सुरक्षा है। मैंने परमेश्वर का बहुत आभार माना। कीमो के कई दौर लेने के बाद, अंडे जितनी बड़ी गाँठ काफ़ी छोटी हो गयी। पहले जितना दर्द भी नहीं रहा और अब कोई रिसाव भी नहीं होता। डॉक्टर ने कहा कि मैं सही ढंग से ठीक हो रही हूँ, और यूं ही सेहत सुधरती रही, तो कीमो के छह दौर के बाद शायद मुझे ऑपरेशन की ज़रूरत भी न पड़े। यह सुनकर मैं बहुत खुश हुई और परमेश्वर का धन्यवाद करती रही। परमेश्वर में मेरी आस्था बढ़ती गयी, मुझे लगा कि अगर मैं आत्मचिंतन करके ईमानदारी से खुद को जानने की कोशिश करूं, तो शायद मैं ऑपरेशन की ज़रूरत के बिना ही ठीक हो जाऊं।

मार्च में एक दिन, मेरा आख़िरी कीमो था। मैं घबराई हुई थी, साथ ही आशावान भी थी। कीमो ख़त्म होने के बाद डॉक्टर ने कहा कि मुझे अभी भी ऑपरेशन कराना पड़ेगा, फिर कीमो के दो दौर और थोड़ी रेडियोथेरेपी लेनी होगी। मेरा दिल पूरा बैठ गया और मन में बवंडर चल गया। मैंने सोचा, "ऐसा कैसे हो सकता है? मैंने सही ढंग से आत्मचिंतन किया और जो समझना चाहिए वो समझा। फिर मैं बेहतर क्यों नहीं हो पायी? यह एक बड़ा ऑपरेशन है, और इसके निशान के अलावा, मुझे जो कीमो और रेडियोथेरेपी लेनी है, वो बहुत पीड़ादायक होगी। इसके बाद भी मैं मर सकती हूँ ..." मैं और ज़्यादा दुखी हो गयी, मेरा पूरा शरीर ढीला पड़ गया। मैं इस तमाम नाइंसाफ़ी पर रोने लगी। ऑपरेशन के बाद की रात को, जब निश्चेतक दवा का असर ख़त्म हो गया, तो मेरे शरीर पर जख्म का इतना भयानक दर्द होने लगा कि मैं रोने लगी। मैं गहरी सांस भी नहीं ले पा रही थी। मुझे लगा मैं बेसहारा हूँ, मेरे साथ ग़लत हुआ है। बहुत हो चुका—इस दर्द से भला कब छुटकारा मिलेगा? पीड़ा सहते हुए, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "सभी लोगों के लिए शुद्धिकरण कष्टदायी होता है, और उसे स्वीकार करना बहुत कठिन होता है—परंतु शुद्धिकरण के दौरान ही परमेश्वर मनुष्य के समक्ष अपना धर्मी स्वभाव स्पष्ट करता है और मनुष्य से अपनी अपेक्षाएँ सार्वजनिक करता है, और अधिक प्रबुद्धता, अधिक वास्तविक काट-छाँट और व्यवहार प्रदान करता है; तथ्यों और सत्य के बीच की तुलना के माध्यम से वह मनुष्य को अपने और सत्य के बारे में बृहत्तर ज्ञान देता है, और उसे परमेश्वर की इच्छा की और अधिक समझ प्रदान करता है, और इस प्रकार उसे परमेश्वर के प्रति सच्चा और शुद्ध प्रेम प्राप्त करने देता है। शुद्धिकरण का कार्य करने में परमेश्वर के ये लक्ष्य हैं। उस समस्त कार्य के, जो परमेश्वर मनुष्य में करता है, अपने लक्ष्य और अपना अर्थ होता है; परमेश्वर निरर्थक कार्य नहीं करता, और न ही वह ऐसा कार्य करता है, जो मनुष्य के लिए लाभदायक न हो। शुद्धिकरण का अर्थ लोगों को परमेश्वर के सामने से हटा देना नहीं है, और न ही इसका अर्थ उन्हें नरक में नष्ट कर देना है। बल्कि इसका अर्थ है शुद्धिकरण के दौरान मनुष्य के स्वभाव को बदलना, उसके इरादों को बदलना, उसके पुराने विचारों को बदलना, परमेश्वर के प्रति उसके प्रेम को बदलना, और उसके पूरे जीवन को बदलना। शुद्धिकरण मनुष्य की वास्तविक परीक्षा और वास्तविक प्रशिक्षण का एक रूप है, और केवल शुद्धिकरण के दौरान ही उसका प्रेम अपने अंतर्निहित कार्य को पूरा कर सकता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल शुद्धिकरण का अनुभव करके ही मनुष्य सच्चे प्रेम से युक्त हो सकता है)। परमेश्वर का प्रत्येक वचन मेरे दिल में उतर गया और मैं बहुत प्रेरित हुई। मैं जानती थी कि मेरे बीमार पड़ने के पीछे परमेश्वर की इच्छा यह थी कि मैं थोड़ा सच्चा आत्मज्ञान हासिल कर, सत्य को खोजने के योग्य बनूँ, ताकि मेरा भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध करके बदला जा सके। पहले, हालांकि मैंने महसूस किया कि मुझे अपनी आस्था में आशीष पाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, मगर मैं आशीष पाने की अपनी मंशा को पूरी तरह छोड़ नहीं पायी। मेरे दिल की गहराई में अभी भी परमेश्वर से बहुत ज़्यादा उम्मीदें थीं। मेरा ख़याल था कि मैंने आत्मचिंतन कर खुद को किसी हद तक जान लिया है, इसलिए परमेश्वर को मेरी बीमारी दूर कर देनी चाहिए। मेरे आत्मचिंतन और आत्मज्ञान पर निजी मंशाओं के दाग़ लगे हुए थे, ये परमेश्वर से सौदा करने की मेरी इच्छा के आवरण भर थे। मैंने सचमुच में प्रायश्चित किया ही नहीं था! परमेश्वर ने मेरे विचारों की जांच की और मेरी बीमारी का इस्तेमाल किया, ताकि मुझे उजागर कर सके, मुझसे और ज्यादा आत्मचिंतन और सच्चा प्रायश्चित करवा सके। यह परमेश्वर का मेरे लिए प्रेम था। फिर मैंने यह कह कर परमेश्वर से प्रार्थना की, "प्यारे परमेश्वर, अब मैं तुम्हारी इच्छा को समझ पायी हूँ। मैं अपनी तमाम निजी पसंद और निवेदन को छोड़ कर तुम्हारे द्वारा व्यवस्थित हालात में सत्य को खोजना चाहती हूँ। मेरा मार्गदर्शन करो।"

कुछ दिन बाद, परमेश्वर के वचनों में मैंने यह अंश पढ़ा : "जब लोग परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ करते हैं, तब उनमें से किसके पास स्वयं अपने लक्ष्य, कारण, और महत्वकांक्षाएँ नहीं होती हैं? उनका एक भाग भले ही परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास करता है और परमेश्वर के अस्तित्व को देख चुका होता है, फिर भी वे कारण परमेश्वर में उनके विश्वास में अब भी समाए होते हैं, और परमेश्वर में विश्वास करने में उनका अंतिम लक्ष्य उसके आशीष और अपनी मनचाही चीज़ें प्राप्त करना होता है। ... प्रत्येक व्यक्ति अपने हृदय में निरंतर ऐसा गुणा-भाग करता है, और वे परमेश्वर से माँगें करते हैं जिनमें उनके कारण, महत्वाकांक्षाएँ, तथा लेन-देन की मानसिकता होती है। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य अपने हृदय में लगातार परमेश्वर की परीक्षा लेता रहता है, परमेश्वर के बारे में लगातार मनसूबे बनाता रहता है, और स्वयं अपने व्यक्तिगत मनोरथ के पक्ष में परमेश्वर के साथ तर्क-वितर्क करता रहता है, और परमेश्वर से कुछ न कुछ कहलवाने की कोशिश करता है, यह देखने के लिए कि परमेश्वर उसे वह दे सकता है या नहीं जो वह चाहता है। परमेश्वर का अनुसरण करने के साथ ही साथ, मनुष्य परमेश्वर से परमेश्वर के समान बर्ताव नहीं करता है। मनुष्य ने परमेश्वर के साथ हमेशा सौदेबाजी करने की कोशिश की है, उससे अनवरत माँगें की हैं, और यहाँ तक कि एक इंच देने के बाद एक मील लेने की कोशिश करते हुए, हर क़दम पर उस पर दबाव भी डाला है। परमेश्वर के साथ सौदबाजी करने की कोशिश करते हुए साथ ही साथ, मनुष्य उसके साथ तर्क-वितर्क भी करता है, और यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं जो, जब परीक्षाएँ उन पर पड़ती हैं या जब वे अपने आप को किन्हीं निश्चित स्थितियों में पाते हैं, तो प्रायः कमज़ोर, निष्क्रिय और अपने कार्य में सुस्त पड़ जाते हैं, और परमेश्वर के बारे में शिकायतों से भरे होते हैं। मनुष्य ने जब पहले-पहल परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ किया था, उसी समय से मनुष्य ने परमेश्वर को एक अक्षय पात्र, एक स्विस आर्मी चाकू माना है, और अपने आपको परमेश्वर का सबसे बड़ा साहूकार माना है, मानो परमेश्वर से आशीष और प्रतिज्ञाएँ प्राप्त करने की कोशिश करना उसका जन्मजात अधिकार और कर्तव्य है, जबकि परमेश्वर का दायित्व मनुष्य की रक्षा और देखभाल करना, और उसे भरण-पोषण देना है। ऐसी है 'परमेश्वर में विश्वास' की मूलभूत समझ, उन सब लोगों की जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और ऐसी है परमेश्वर में विश्वास की अवधारणा की उनकी गहनतम समझ। मनुष्य की प्रकृति के सार से लेकर उसके व्यक्तिपरक अनुसरण तक, ऐसा कुछ भी नहीं है जो परमेश्वर के भय से संबंधित हो। परमेश्वर में विश्वास करने में मनुष्य के लक्ष्य का परमेश्वर की आराधना के साथ कोई लेना-देना संभवतः नहीं हो सकता है। कहने का तात्पर्य यह, मनुष्य ने न कभी यह विचार किया और न समझा कि परमेश्वर में विश्वास करने के लिए परमेश्वर का भय मानने और आराधना करने की आवश्यकता होती है। ऐसी स्थितियों के आलोक में, मनुष्य का सार स्पष्ट है। यह सार क्या है? यह सार यह है कि मनुष्य का हृदय द्वेषपूर्ण है, छल और कपट रखता है, निष्पक्षता और धार्मिकता और उससे जो सकारात्मक है प्रेम नहीं करता है, और यह तिरस्करणीय और लोभी है। मनुष्य का हृदय परमेश्वर के लिए और अधिक बंद नहीं हो सकता है; उसने इसे परमेश्वर को बिल्कुल भी नहीं दिया है। परमेश्वर ने मनुष्य का सच्चा हृदय कभी नहीं देखा है, न ही उसकी मनुष्य द्वारा कभी आराधना की गई है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। इसे पढ़ कर मैंने बड़ी शर्मिंदगी महसूस की। परमेश्वर के वचनों ने मेरी सच्ची हालत को बिल्कुल प्रकट कर दिया। मैंने कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा, लेकिन मैंने हमेशा आशीष पाना चाहा, हमेशा परमेश्वर से सौदेबाजी करती रही। मुझे लगा मैंने परमेश्वर में विश्वास रखा है, कलीसिया में हमेशा अपना कर्तव्य निभाया है और खुद को खपाया है, इसलिए परमेश्वर को मेरी देखभाल करनी चाहिए, मेरी रक्षा करनी चाहिए, सब बीमारियों और हानि से मुझे दूर रखना चाहिए। मैंने सोचा कि यही सही और उचित है। जब मुझे पता चला कि मुझे कैंसर है, तो मैंने तुरंत परमेश्वर से शिकायत करना शुरू कर दिया, उससे बहस करने के लिए सालों की पीड़ा और त्याग को भुनाना चाहा। जब मेरी सेहत ठीक होने लगी, तो मैंने अपने मुंह से तो कहा, "परमेश्वर का धन्यवाद", लेकिन मेरे दिल में और ज़्यादा पाने की आस बनी हुई थी। मैं चाहती थी कि परमेश्वर मेरी बीमारी को बिल्कुल ठीक कर दे ताकि अब मुझे बिल्कुल भी दर्द न सहना पड़े। जब मेरी बेतहाशा इच्छा पूरी नहीं हुई, तो मेरी दानवी प्रकृति फिर से सिर उठाने लगी और मैंने फिर एक बार परमेश्वर को दोष देकर उससे बहस करने की कोशिश की। मेरा व्यवहार ठीक वैसा ही था जैसा परमेश्वर ने अपने वचनों में प्रकट किया है : "जो लोग मानवता से रहित हैं, वे सच में परमेश्वर से प्रेम करने में अक्षम हैं। जब परिवेश सही-सलामत और सुरक्षित होता है, या जब लाभ कमाया जा सकता है, तब वे परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से आज्ञाकारी रहते हैं, किंतु जब जो वे चाहते हैं, उसमें कमी-बेशी की जाती है या अंतत: उसके लिए मना कर दिया जाता है, तो वे तुरंत बगावत कर देते हैं। यहाँ तक कि एक ही रात के अंतराल में वे अपने कल के उपकारियों के साथ अचानक बिना किसी तुक या तर्क के अपने घातक शत्रु के समान व्यवहार करते हुए, एक मुसकराते, 'उदार-हृदय' व्यक्ति से एक कुरूप और जघन्य हत्यारे में बदल जाते हैं। यदि इन पिशाचों को निकाला नहीं जाता, तो ये पिशाच बिना पलक झपकाए हत्या कर देंगे, तो क्या वे एक छिपा हुआ ख़तरा नहीं बन जाएँगे?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का अभ्यास)। मैं बिल्कुल टूट गयी। हालांकि मैंने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा, मगर मैं उसकी आराधना या समर्पण उस तरह नहीं कर रही थी जैसा मुझे करना चाहिए। इसके बजाय मैं उसे एक शक्तिशाली डॉक्टर मान बर्ताव कर रही थी, एक आश्रय देने वाले की तरह। मैं परमेश्वर का इस्तेमाल अपना हित साधने के लिए कर रही थी, उससे इस जीवन में सुकून और भविष्य के लिए आशीष पाने की कोशिश कर रही थी। मैंने देखा कि परमेश्वर में मेरी आस्था और कुछ नहीं बल्कि सीधी सौदेबाजी थी, मैं अनुग्रह और आशीष पाने के लिए परमेश्वर का इस्तेमाल कर रही थी। क्या मैं परमेश्वर को ठग कर उसका प्रतिरोध नहीं कर रही थी? मैंने देखा कि मैं कितनी स्वार्थी और कपटी हूँ, मैं बिना किसी इंसानियत के, और कुछ नहीं सिर्फ शैतानी स्वभाव वाला जीवन जी रही थी। परमेश्वर ने मुझसे कितनी नफ़रत और घृणा की होगी!

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "अय्यूब ने परमेश्वर से किन्हीं लेन-देनों की बात नहीं की, और परमेश्वर से कोई याचनाएँ या माँगें नहीं कीं। उसका परमेश्वर के नाम की स्तुति करना भी सभी चीज़ों पर शासन करने की परमेश्वर की महान सामर्थ्य और अधिकार के कारण था, और वह इस पर निर्भर नहीं था कि उसे आशीषें प्राप्त हुईं या उस पर आपदा टूटी। वह मानता था कि परमेश्वर लोगों को चाहे आशीष दे या उन पर आपदा लाए, परमेश्वर की सामर्थ्य और उसका अधिकार नहीं बदलेगा, और इस प्रकार, व्यक्ति की परिस्थितियाँ चाहे जो हों, परमेश्वर के नाम की स्तुति की जानी चाहिए। मनुष्य को धन्य किया जाता है तो परमेश्वर की संप्रभुता के कारण किया जाता है, और इसलिए जब मनुष्य पर आपदा टूटती है, तो वह भी परमेश्वर की संप्रभुता के कारण ही टूटती है। परमेश्वर की सामर्थ्य और अधिकार मनुष्य से संबंधित सब कुछ पर शासन करते हैं और उसे व्यवस्थित करते हैं; मनुष्य के सौभाग्य के उतार-चढ़ाव परमेश्वर की सामर्थ्य और उसके अधिकार की अभिव्यंजना हैं, और जिसका चाहे जो दृष्टिकोण हो, परमेश्वर के नाम की स्तुति की जानी चाहिए। यही वह है जो अय्यूब ने अपने जीवन के वर्षों के दौरान अनुभव किया था और जानने लगा था। अय्यूब के सभी विचार और कार्यकलाप परमेश्वर के कानों तक पहुँचे थे, और परमेश्वर के सामने आए थे, और परमेश्वर द्वारा महत्वपूर्ण माने गए थे। परमेश्वर ने अय्यूब के बारे में इस ज्ञान को दुलारा, और ऐसा हृदय होने के लिए अय्यूब को सँजोया। यह हृदय सदैव, और सर्वत्र, परमेश्वर के आदेश की प्रतीक्षा करता था, और समय या स्थान चाहे जो हो, उस पर जो कुछ भी टूटता उसका स्वागत करता था। अय्यूब ने परमेश्वर से कोई माँगें नहीं कीं। उसने स्वयं अपने से जो माँगा वह यह था कि परमेश्वर से आई सभी व्यवस्थाओं की प्रतीक्षा करे, स्वीकार करे, सामना करे, और आज्ञापालन करे; अय्यूब इसे अपना कर्तव्य मानता था, और यह ठीक वही था जो परमेश्वर चाहता था" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। परमेश्वर के वचनों पर मनन करके मुझे बहुत प्रेरणा मिली। मैंने सोचा, "परमेश्वर सृजनकर्ता है। परमेश्वर हम पर अनुग्रह कर सकता है, आशीष दे सकता है, वह हमारा न्याय, ताड़ना, परीक्षण और शुद्धिकरण कर सकता है। वह हमसे प्रेम करता है, तो क्या वह हमारा परीक्षण नहीं कर सकता?" मैंने अय्यूब को याद किया। परमेश्वर ने उसे बहुत दौलत दी और उसने परमेश्वर को धन्यवाद दे कर उसकी स्तुति की, लेकिन उसने भौतिक संपत्ति का लालच नहीं किया। जब परमेश्वर ने उससे सभी चीज़ें ले लीं, तब भी वह अपने परीक्षण के दौरान यह कह कर परमेश्वर के गुण गाता रहा, "क्या हम जो परमेश्‍वर के हाथ से सुख लेते हैं, दु:ख न लें?" (अय्यूब 2:10)। अय्यूब को पता था कि उसके पास की हर चीज़ परमेश्वर से आयी है, परमेश्वर धार्मिक है, चाहे परमेश्वर उसे कुछ दे या सब कुछ ले ले। अय्यूब ने परमेश्वर में जो आस्था रखी उसमें निजी मंशाओं के दाग़ नहीं लगे थे, उसने यह नहीं सोचा कि उसे आशीष मिलेंगे या उसे आपदा झेलनी होगी। परमेश्वर ने कुछ भी किया हो, उसने शिकायत नहीं की। वह एक सृजित प्राणी के रूप में परमेश्वर की आराधना करने और समर्पण करने की अपनी जगह पर कायम रहा। अय्यूब की इंसानियत और समझ को देख कर मैंने बहुत शर्मिंदगी महसूस की। मैंने अपनी हर चीज़ पर नज़र डाली। परमेश्वर ने मुझे ये तमाम चीज़ें दी थीं, यहाँ तक कि मेरी सांस भी। लेकिन मैं बिल्कुल आभार नहीं मान रही थी, बल्कि बीमार होने पर मैं परमेश्वर को दोष दे रही थी। मुझमें ज़रा भी ज़मीर और समझ नहीं थी! मैंने परमेश्वर में विश्वास रखा, मगर उसे नहीं जाना, उसके सामने अपनी सही जगह भी नहीं जानी, यह भी नहीं जाना कि मुझे सृष्टिकर्ता के सामने कैसे समर्पण करना है। अपनी धारणाओं, कल्पनाओं, और सौदेबाजी के अपने ख़यालात के साथ परमेश्वर में आस्था रखते हुए, मैंने परमेश्वर से शिकायत की और बीमार पड़ने पर उसका प्रतिरोध किया। फिर भी, मैं परमेश्वर से हमेशा आशीष और अनुग्रह चाहती और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करना चाहती। मुझे ज़रा भी शर्म नहीं थी! मैंने देखा कि अगर उसी पल मेरी मौत हो जाए, तो भी यह मेरी विद्रोहशीलता और भ्रष्टता के लिए परमेश्वर की धार्मिकता होगी। अय्यूब के अनुभवों में मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। मेरी बीमारी चाहे जितनी भी लंबी चले, चाहे मैं ठीक हो जाऊं या नहीं, मैं सिर्फ परमेश्वर के शासन और व्यवस्थाओं के आगे ही समर्पण करना चाहती थी। एक सृजित प्राणी के रूप में मुझमें यही समझ होनी चाहिए। इस विचार से मुझे बड़ा सुकून मिला।

देखते-ही-देखते रेडियोथेरेपी का समय हो गया। दूसरे कैंसर मरीजों ने कहा कि रेडियोथेरेपी शरीर के लिए बहुत तकलीफ़देह होती है, यह देह को पका देती है। उन लोगों ने कहा कि इससे हर बार सिर चकरायेगा और उल्टी जैसी लगेगी, मुंह में स्वाद ही नहीं होगा। यह सब सुनकर, मैंने फिर से, परमेश्वर से इस हालात से बच निकलने में मदद माँगी, लेकिन मैंने तुरंत महसूस किया कि मैं ग़लत हालात में हूँ, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की। परमेशवर के वचनों के भजन की कुछ पंक्तियाँ मन में कौंधीं : "चूँकि तुम्हें सृजित किया गया था, इसलिए तुम्हें उस प्रभु का आज्ञापालन करना चाहिए जिसने तुम्हें सृजित किया, क्योंकि तुम्हारा स्वयं अपने ऊपर स्वाभाविक कोई प्रभुत्व नहीं है, और स्वयं अपनी नियति को नियंत्रित करने की क्षमता नहीं है। चूँकि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो परमेश्वर में विश्वास करता है, इसलिए तुम्हें पवित्रता और परिवर्तन की खोज करनी चाहिए"("मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ" में 'परमेश्वर के विश्वासी को किस चीज़ की खोज करनी चाहिए')। मुझे मालूम था कि ये हालात परमेश्वर द्वारा मेरा परीक्षण हैं, मैं अब मूर्खतापूर्ण ढंग से परमेश्वर से कुछ नहीं मांग सकती या उसे आहत नहीं कर सकती। मुझे पता था कि मुझे उसकी व्यवस्थाओं के आगे समर्पण करना होगा। एक बार समर्पण करने के बाद, भले ही मुझे हर रोज़ रेडियोथेरेपी करवानी पड़ती और मेरे शरीर में जगह-जगह दर्द होता, मगर यह उतनी बुरी नहीं थी जितनी दूसरे मरीजों ने बतायी। मुझे पता था कि परमेश्वर मेरे प्रति दयावान है और मेरी देखभाल कर रहा है। मेरी रेडियोथेरेपी पूरी हो जाने के बाद, मेरा शारीरिक स्वास्थ्य तेज़ी से सुधरने लगा। मैं अच्छा महसूस कर रही थी और मैं देखने में भी अच्छी लग रही थी। कलीसिया में मेरे भाई-बहनों ने कहा कि मैं कैंसर मरीज़ जैसी बिल्कुल भी नहीं लग रही हूँ। कुछ वक्त बाद, मैं फिर से अपना कर्तव्य निभाने लगी। इस अनुभव से गुज़र कर परमेश्वर में मेरी आस्था मज़बूत हो गयी, अब मैं कर्तव्य निभाने के अपने अवसर को पहले से ज़्यादा संजोने लगी।

तब से लगभग दो साल हो चुके हैं, लेकिन जब भी मैं उन दस महीनों के बारे में सोचता हूँ जब मैं बीमार था, तो लगता है यह कल की ही बात है। हालांकि मेरी देह को थोड़ी तकलीफ़ हुई, मगर मैं आशीष पाने की अपनी मंशा को समझ सकी, किस चीज़ का अनुसरण करें इस बारे में अपने ग़लत विचारों को समझ सकी। अब मैं जानती हूँ कि मुझे सत्य का अनुसरण करना होगा और अपनी आस्था में परमेश्वर की आज्ञा माननी होगी। चाहे मुझे आशीष मिलें या आपदा झेलनी पड़े, मुझे हमेशा परमेश्वर की योजनाओं, शासन और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना होगा। एक सृजित प्राणी में ऐसी ही समझ होनी चाहिए। अगर जीवन में सब-कुछ ठीक चला होता, तो मुझे यह सब कभी हासिल नहीं हुआ होता। मुझे परमेश्वर ने जीवन की यही दौलत दी है। सर्वशक्तिमान परमेश्वर का धन्यवाद!

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