प्रकरण दो : कैसे नूह और अब्राहम ने परमेश्वर के वचनों का पालन किया और उसके प्रति समर्पण किया (भाग एक)

I. नूह ने जहाज बनाया

आज मैं तुम्हें कई कहानियाँ सुनाकर शुरुआत करने जा रहा हूँ। इस विषय को सुनो, जिसके बारे में मैं बात करने वाला हूँ और देखो कि क्या इसका उन विषयों से कोई संबंध है, जिन पर हम पहले बात कर चुके हैं। ये कहानियाँ गहन नहीं हैं, शायद तुम सभी लोग इन्हें समझ जाओ। हमने ये कहानियाँ पहले भी सूनाई हैं, ये पुरानी कहानियाँ हैं। सबसे पहले नूह की कहानी है। नूह के समय में मानवजाति अत्यंत भ्रष्ट थी : लोग मूर्ति-पूजा करते थे, परमेश्वर का विरोध करते थे और सभी प्रकार के बुरे कृत्य करते थे। परमेश्वर ने उनके कुकर्म अपनी आँखों से देखे, उनकी बातें उसके कानों तक पहुँचीं, तो उसने तय किया कि वह इस मानवजाति को बाढ़ से नष्ट कर देगा और इस दुनिया को मिटा देगा। तो क्या सभी लोगों को मिटा दिया जाना था, किसी एक को भी जीवित नहीं रहने देना था? नहीं। एक व्यक्ति भाग्यशाली था, उस पर परमेश्वर का अनुग्रह था, और वह परमेश्वर के विनाश का लक्ष्य नहीं था : वह व्यक्ति नूह था। परमेश्वर द्वारा बाढ़ से दुनिया को नष्ट किए जाने के बाद भी वह जीवित रहने वाला था। यह तय करने के बाद कि वह इस युग को समाप्त कर देगा और इस मानवजाति को नष्ट कर देगा, परमेश्वर ने कुछ किया। वह क्या था? एक दिन परमेश्वर ने नूह को आकाश से पुकारा। उसने कहा, “नूह, इस मानवजाति की बुराई मेरे कानों तक पहुँच गई है, और मैंने इस संसार को जल-प्रलय से नष्ट करने का निश्चय कर लिया है। तुम्हें गोफर की लकड़ी से एक जहाज बनाना है। मैं तुम्हें जहाज का माप दूँगा, और तुम्हें हर किस्म के जीवित प्राणी को इकट्ठा करके उस जहाज के भीतर लाना होगा। जब जहाज बन जाएगा और परमेश्वर द्वारा बनाए गए प्रत्येक जीवित प्राणी के एक नर और मादा को जहाज के भीतर इकट्ठा कर लिया जाएगा, तो परमेश्वर का दिन आएगा। उस समय मैं तुम्हें एक संकेत दूँगा।” ये वचन कहकर परमेश्वर चला गया। और परमेश्वर के वचन सुनकर नूह ने बिना किसी चूक के परमेश्वर द्वारा कहा गया हर काम करना शुरू कर दिया। उसने क्या किया? उसने गोफर की लकड़ी, जिसके बारे में परमेश्वर ने कहा था, और जहाज के निर्माण के लिए आवश्यक विभिन्न सामग्रियों की खोज की। उसने हर किस्म का जीवित प्राणी इकठ्ठा कर उसके पालन-पोषण की तैयारी भी की। ये दोनों महान उपक्रम उसके दिल पर अंकित हो गए थे। जब से परमेश्वर ने नूह को जहाज निर्माण का काम सौंपा था, तब से नूह ने अपने मन में कभी यह नहीं सोचा, “परमेश्वर कब दुनिया का नाश करने वाला है? वह मुझे ऐसा करने का संकेत कब देगा?” ऐसे मामलों पर विचार करने के बजाय नूह ने परमेश्वर की कही हर बात को गंभीरतापूर्वक अपने दिल में बसाया, और फिर उसे पूरा भी किया। परमेश्वर द्वारा सौंपे गए काम को स्वीकार करने के बाद नूह जरा भी लापरवाही न बरतते हुए परमेश्वर द्वारा कहे गए जहाज का निर्माण पूरा करने को अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काम मानते हुए इसमें जुट गया। दिन बीतते गए, साल बीतते गए, दिन पर दिन, साल-दर-साल। परमेश्वर ने कभी नूह की निगरानी नहीं की, उसे प्रेरित भी नहीं किया, परंतु इस पूरे समय में नूह परमेश्वर द्वारा सौंपे गए महत्वपूर्ण कार्य में दृढ़ता से लगा रहा। परमेश्वर का हर शब्द और वाक्यांश नूह के हृदय पर पत्थर की पटिया पर उकेरे गए शब्दों की तरह अंकित हो गया था। बाहरी दुनिया में हो रहे परिवर्तनों से बेखबर, अपने आसपास के लोगों के उपहास से बेफिक्र, उस काम में आने वाली कठिनाई या पेश आने वाली मुश्किलों से बेपरवाह, वह परमेश्वर द्वारा सौंपे गए काम में दृढ़ता से जुटा रहा, वह न कभी निराश हुआ और न ही उसने कभी काम छोड़ देने की सोची। परमेश्वर के वचन नूह के हृदय पर अंकित थे, और वे उसके हर दिन की वास्तविकता बन चुके थे। नूह ने जहाज के निर्माण के लिए आवश्यक हर सामग्री तैयार कर ली, और परमेश्वर ने जहाज के लिए जो रूप और विनिर्देश दिए थे, वे नूह के हथौड़े और छेनी के हर सजग प्रहार के साथ धीरे-धीरे आकार लेने लगे। आँधी-तूफान के बीच, इस बात की परवाह किए बिना कि लोग कैसे उसका उपहास या उसकी बदनामी कर रहे हैं, नूह का जीवन साल-दर-साल इसी तरह गुजरता रहा। परमेश्वर बिना नूह से कोई और वचन कहे उसके हर कार्य को गुप्त रूप से देख रहा था, और उसका हृदय नूह से बहुत प्रभावित हुआ। लेकिन नूह को न तो इस बात का पता चला और न ही उसने इसे महसूस किया; आरंभ से लेकर अंत तक उसने बस परमेश्वर के वचनों के प्रति दृढ़ निष्ठा रखकर जहाज का निर्माण किया और सब प्रकार के जीवित प्राणियों को इकट्ठा कर लिया। नूह के हृदय में कोई उच्चतर निर्देश नहीं था जिसका उसे पालन और क्रियान्वयन करना था : परमेश्वर के वचन ही उसकी जीवन भर की दिशा और लक्ष्य थे। इसलिए, परमेश्वर ने उससे चाहे जो कुछ भी बोला, उसेजो कुछ भी करने को कहा, उसे जो कुछ भी करने की आज्ञा दी हो, नूह ने उसे पूरी तरह से स्वीकार कर दिल में बसा लिया; उसने उसे अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण चीज माना और उसे उसी के अनुसार सँभाला। वह न केवल उसे भूला नहीं, उसने न केवल उसे अपने दिल में बसाए रखा, बल्कि उसे अपने दैनिक जीवन में महसूस भी किया, और अपने जीवन का इस्तेमाल परमेश्वर के आदेश को स्वीकार कर उसे क्रियान्वित करने के लिए किया। और इस प्रकार, तख्त-दर-तख्त, जहाज बनता चला गया। नूह का हर कदम, उसका हर दिन परमेश्वर के वचनों और उसकी आज्ञाओं के प्रति समर्पित था। भले ही ऐसा न लगा हो कि नूह कोई बहुत महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है, लेकिन परमेश्वर की दृष्टि में, नूह ने जो कुछ भी किया, यहाँ तक कि कुछ हासिल करने के लिए उसके द्वारा उठाया गया हर कदम, उसके हाथ द्वारा किया गया हर श्रम—वे सभी कीमती, याद रखने योग्य और इस मानवजाति द्वारा अनुकरणीय थे। परमेश्वर ने नूह को जो कुछ सौंपा था, उसने उसका पालन किया। वह अपने इस विश्वास पर अडिग था कि परमेश्वर द्वारा कही हर बात सत्य है; इस बारे में उसे कोई संदेह नहीं था। और परिणामस्वरूप, जहाज बनकर तैयार हो गया, और उसमें हर किस्म का जीवित प्राणी रहने में सक्षम हुआ। दुनिया को नष्ट करने से पहले परमेश्वर ने नूह को एक संकेत दिया, जिसने नूह को बताया कि जल-प्रलय निकट है, और उसे तुरंत जहाज में चढ़ जाना चाहिए। नूह ने ठीक वैसा ही किया, जैसा परमेश्वर ने कहा था। जब नूह जहाज में चढ़ा, जब आकाश से एक प्रचंड धारा बही, तो नूह ने देखा कि परमेश्वर के वचन सच हो गए हैं, उसके वचन साकार हो गए हैं : परमेश्वर का क्रोध संसार पर टूट चुका है, और कोई भी इसे बदल नहीं सकता।

नूह को जहाज बनाने में कितने वर्ष लगे? (120 वर्ष।) आज के लोगों के लिए 120 वर्ष क्या दर्शाते हैं? यह एक सामान्य व्यक्ति के जीवन-काल से अधिक लंबा समय है, शायद दो लोगों के जीवन-काल से भी अधिक लंबा। और फिर भी 120 वर्षों तक नूह ने एक ही काम किया, और उसने हर दिन वही काम किया। उस पूर्व-औद्योगिक समय में, सूचना-संचार से पहले के उस युग में, जब सब-कुछ लोगों के दो हाथों और शारीरिक श्रम पर निर्भर था, नूह ने हर दिन वही काम किया। 120 सालों तक उसने काम नहीं छोड़ा, न ही वह रुका। एक सौ बीस साल : हम इसकी कल्पना भी कैसे कर सकते हैं? क्या मानवजाति में से कोई और 120 साल तक एक ही काम करने के लिए प्रतिबद्ध रह पाता? (नहीं।) 120 साल तक कोई भी एक ही काम करने के लिए प्रतिबद्ध नहीं रह सकता था, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। और फिर भी एक व्यक्ति था, जो 120 वर्षों तक, बिना किसी फेर-बदल के, परमेश्वर ने उसे जो सौंपा था, उसमें दृढ़ता से लगा रहा, उसने न कभी कोई शिकायत की और न ही कभी हार मानी, वह किसी भी बाहरी परिवेश से अप्रभावित रहा, और अंततः उसने ठीक उसी तरह कार्य संपन्न कर दिया, जैसा परमेश्वर ने कहा था। यह किस प्रकार का मामला था? मानवजाति में यह दुर्लभ था, असामान्य—यहाँ तक कि यह अद्वितीय था। मानव-इतिहास के लंबे प्रवाह में, उन सभी मानवजातियों में जिन्होंने परमेश्वर का अनुसरण किया, इसकी कोई मिसाल नहीं मिलती। इसमें लगी इंजीनियरिंग की विशालता और जटिलता, इसके लिए अपेक्षित शारीरिक बल और परिश्रम, और इसमें लगी अवधि को देखते हुए यह कोई आसान काम नहीं था, इसलिए जब नूह ने यह कार्य संपन्न किया, तो यह मानवजाति के बीच अद्वितीय कार्य था, और वह उन सभी के लिए एक आदर्श और मिसाल है, जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। नूह ने केवल कुछ ही संदेश सुने थे, और उस समय परमेश्वर ने ज्यादा वचन व्यक्त नहीं किए थे, इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं कि नूह ने बहुत-से सत्य नहीं समझे थे। उसे न आधुनिक विज्ञान की समझ थी, न आधुनिक ज्ञान की। वह एक अत्यंत सामान्य व्यक्ति था, मानवजाति का एक मामूली सदस्य। फिर भी एक मायने में वह सबसे अलग था : वह परमेश्वर के वचनों का पालन करना जानता था, वह जानता था कि परमेश्वर के वचनों का अनुसरण और पालन कैसे करना है, वह जानता था कि मनुष्य का स्थान क्या है, और वह परमेश्वर के वचनों पर वास्तव में विश्वास कर उनके प्रति समर्पित होने में सक्षम था—इससे अधिक कुछ नहीं। नूह को परमेश्वर द्वारा सौंपे गए काम को क्रियान्वित करने देने के लिए ये कुछ सरल सिद्धांत पर्याप्त थे, और वह इसमें केवल कुछ महीनों, कुछ वर्षों या कुछ दशकों तक नहीं, बल्कि एक शताब्दी से भी अधिक समय तक दृढ़ता से जुटा रहा। क्या यह संख्या आश्चर्यजनक नहीं है? नूह के अलावा इसे और कौन कर सकता था? (कोई नहीं।) और क्यों नहीं कर सकता था? कुछ लोग कहते हैं कि इसका कारण सत्य को न समझना है—लेकिन यह तथ्य के अनुरूप नहीं है! नूह ने कितने सत्य समझे थे? नूह यह सब करने में सक्षम क्यों था? आज के विश्वासियों ने परमेश्वर के बहुत-से वचन पढ़े हैं, वे कुछ सत्य समझते हैं—तो ऐसा क्यों है कि वे ऐसा करने में असमर्थ हैं? अन्य लोग कहते हैं कि यह लोगों के भ्रष्ट स्वभाव के कारण है—लेकिन क्या नूह का स्वभाव भ्रष्ट नहीं था? क्यों नूह इसे हासिल करने में सक्षम था, लेकिन आज के लोग नहीं हैं? (क्योंकि आज के लोग परमेश्वर के वचनों पर विश्वास नहीं करते, वे न तो उन्हें सत्य मानते हैं और न ही उनका पालन करते हैं।) और वे परमेश्वर के वचनों को सत्य मानने में असमर्थ क्यों हैं? वे परमेश्वर के वचनों का पालन करने में असमर्थ क्यों हैं? (उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं है।) तो जब लोगों में सत्य की समझ नहीं होती और उन्होंने बहुत-से सत्य नहीं सुने होते, तो उनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय कैसे उत्पन्न होता है? (उनमें मानवता और जमीर होना चाहिए।) यह सही है। लोगों की मानवता में दो सबसे कीमती चीजें मौजूद होनी चाहिए : पहली चीज है जमीर और दूसरी है सामान्य मानवता का विवेक। इंसान होने के लिए जमीर और सामान्य मानवता का विवेक होना न्यूनतम मानक है; यह किसी व्यक्ति को मापने के लिए न्यूनतम, सबसे बुनियादी मानक है। लेकिन यह आज के लोगों में नदारद है, और इसलिए चाहे वे कितने ही सत्य सुन और समझ लें, परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय रखना उनकी क्षमता से परे है। तो आज के लोगों और नूह के बीच मूलभूत अंतर क्या है? (उनमें मानवता नहीं है।) और मानवता की इस कमी का सार क्या है? (वे जानवर और राक्षस हैं।) “जानवर और राक्षस” कहना बहुत अच्छा नहीं लगता, लेकिन यह तथ्यों के अनुरूप है; इसे कहने का एक और विनम्र तरीका यह होगा कि उनमें कोई मानवता नहीं होती। बिना मानवता और विवेक के लोग, लोग नहीं होते, वे जानवरों से भी नीचे होते हैं। नूह परमेश्वर की आज्ञा पूरी करने में सक्षम इसलिए था, क्योंकि जब नूह ने परमेश्वर के वचन सुने, तो वह उन्हें याद रखने में सक्षम था; उसके लिए परमेश्वर की आज्ञा एक जीवन भर की जिम्मेदारी थी, उसकी आस्था अटूट थी, उसकी इच्छा सौ वर्षों तक अपरिवर्तित रही। ऐसा इसलिए था, क्योंकि उसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय था, वह एक वास्तविक व्यक्ति था, और उसमें इस बात का अत्यधिक विवेक था कि परमेश्वर ने उसे जहाज के निर्माण का काम सौंपा है। नूह जितनी मानवता और विवेक रखने वाले लोग बहुत दुर्लभ हैं, दूसरा नूह खोजना बहुत मुश्किल होगा।

नूह वास्तव में केवल एक ही काम करने में सक्षम था। यह बहुत ही आसान था : परमेश्वर के वचनों को सुनकर उसने उन्हें क्रियान्वित किया, और ऐसा उसने बिना किसी समझौते के किया। उसमें कभी कोई संदेह नहीं थे, न ही उसने कभी हार मानी। परमेश्वर ने उससे जो कुछ भी करने को कहा, वह करता रहा, उसने उसे उसी तरह से किया जिस तरह से करने के लिए परमेश्वर ने उससे कहा, बिना किसी समझौते के, बिना किसी कारण या अपने लाभ या हानि का विचार किए। उसने परमेश्वर के ये वचन याद रखे : “परमेश्वर दुनिया को नष्ट करने जा रहा है। तुझे बिना देरी किए एक जहाज बनाना है, और जब वह बन जाएगी और बाढ़ का पानी आएगा, तो तुम सभी लोग जहाज पर चढ़ जाओगे, और जो जहाज पर नहीं चढ़ेंगे, वे सभी नष्ट हो जाएँगे।” उसे नहीं पता था कि जो कुछ परमेश्वर ने कहा है, वह कब पूरा होगा, वह तो बस इतना जानता था कि परमेश्वर ने जो कहा है, वह पूरा होगा, कि परमेश्वर के सभी वचन सत्य हैं, उनमें से एक भी वचन झूठा नहीं है, और यह कि वे कब फलीभूत होंगे, वे किस समय साकार होंगे, यह परमेश्वर पर निर्भर है। वह जानता था कि उस समय उसका एकमात्र कार्य परमेश्वर द्वारा कही गई हर बात दृढ़ता से याद रखना और फिर बिना समय बरबाद किए उसे क्रियान्वित करना था। ऐसे विचार थे नूह के। उसने यही सोचा और यही किया, और ये तथ्य हैं। तो, तुम लोगों और नूह के बीच मूलभूत अंतर क्या है? (जब हम परमेश्वर का वचन सुनते हैं, तो हम उसका पालन नहीं करते।) यह व्यवहार है, मूलभूत अंतर क्या है? (हममें मानवता नहीं है।) बात यह है कि नूह में ऐसी दो न्यूनतम चीजें थीं जो हर मनुष्य में होनी चाहिए—जमीर और सामान्य मानवता का विवेक। तुम लोगों में ये चीजें नहीं हैं। क्या यह कहना उचित है कि नूह को इंसान कहा जा सकता है और तुम लोग इंसान कहे जाने के योग्य नहीं हो? (हाँ।) मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? तथ्य सामने हैं : नूह ने जो किया उसके संदर्भ में, आधा तो भूल जाओ, तुम लोग उसका एक छोटा-सा हिस्सा भी नहीं कर सकते। नूह 120 साल तक टिके रहने में सक्षम था। तुम लोग कितने साल तक टिके रह सकते हो? 100? 50? 10? पाँच? दो? आधा साल? तुममें से कौन आधे साल तक टिका रह सकता है? बाहर जाकर उस लकड़ी की तलाश करना जिसके बारे में परमेश्वर ने कहा था, उसे काटना, उसकी छाल अलग करना, लकड़ी सुखाना, फिर उसे विभिन्न आकार-प्रकारों में काटना—क्या तुम लोग आधे साल तक यह करते रह सकते हो? तुममें से अधिकतर लोग अपना सिर हिलाकर मना कर रहे हैं—तुम आधे साल भी यह सब न कर सकते। तो, तीन महीने तक करने के बारे में क्या विचार है? कुछ लोग कहते हैं, “मेरा खयाल है, तीन महीने तक करना भी कठिन होगा। मैं तो छोटा और नाजुक हूँ। जंगल में मच्छर और अन्य कीड़े-मकोड़े होते हैं, चींटियाँ और पिस्सू भी होते हैं। अगर उन सबने मुझे काट लिया, तो मैं सहन नहीं कर पाऊँगा। और फिर, हर दिन लकड़ी काटना, वह गंदा, थका देने वाला काम करना, बाहर झुलसा देने वाली धुप और थपेड़े मारने वाली हवा में, तो मुझे धूप से झुलसने में दो दिन भी नहीं लगेंगे। यह इस तरह का काम नहीं है, जो मैं करना चाहता हूँ—क्या कोई आसान काम है, जिसे करने का मुझे आदेश दिया जा सके?” क्या तुम यह चुन सकते हो कि परमेश्वर तुम्हें क्या करने का आदेश दे? (नहीं।) यदि तुम इसे तीन महीने तक भी नहीं कर सकते, तो क्या तुममें सच्चा समर्पण है? क्या तुममें समर्पण की वास्तविकता है? (नहीं।) तुम तीन महीने तक भी नहीं टिक सकते। तो, क्या कोई ऐसा है, जो आधा महीना टिक सके? कुछ लोग कहते हैं, “मुझे गोफर की लकड़ी की पहचान नहीं है या मैं पेड़ नहीं काट सकता। मुझे तो यह भी नहीं पता कि जब मैं पेड़ काटूँगा तो वह किस ओर गिरेगा—अगर वह मुझ पर ही गिर पड़ा तो क्या होगा? इसके अलावा, पेड़ों को काटने के बाद मैं अधिक से अधिक एक या दो पेड़ों के तने ही उठाकर ले जा सकता हूँ। इससे अधिक उठाए, तो मेरी पीठ और कंधे जवाब दे जाएँगे, है ना?” तुम आधे महीने तक भी नहीं कर सकते। तो, तुम लोग क्या कर सकते हो? अगर तुम लोगों से परमेश्वर के वचनों का पालन करने, परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण करने और उन्हें कार्यान्वित करने के लिए कहा जाए, तो तुम लोग क्या हासिल कर सकते हो? कंप्यूटरों का इस्तेमाल करने और आदेश देने के अलावा तुम लोग क्या करने में सक्षम हो? यदि यह नूह का समय होता, तो क्या परमेश्वर तुम लोगों को पुकारता? बिलकुल नहीं! तुम लोग वे न होते जिन्हें परमेश्वर पुकारता; तुम वे न होते जिन पर परमेश्वर अनुग्रह करता। क्यों? क्योंकि तुम वह नहीं हो, जो परमेश्वर के वचनों को सुनने के बाद उनके प्रति समर्पण करने में सक्षम होता है। और अगर तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो, तो क्या तुम जीने लायक हो? बाढ़ आने पर क्या तुम जीवित रहने योग्य हो? (नहीं।) यदि नहीं हो, तो तुम नष्ट हो जाओगे। यदि तुम आधे महीने तक भी परमेश्वर के वचनों का कार्यान्वयन नहीं कर सकते, तो तुम किस तरह के इंसान हो? क्या तुम ऐसे इंसान हो, जो सच में परमेश्वर में विश्वास रखता है? यदि परमेश्वर के वचन सुनकर तुम उनका क्रियान्वयन करने में असमर्थ रहते हो, यदि तुम आधे महीने भी नहीं टिक सकते, दो सप्ताह की कठिनाई भी नहीं झेल सकते, तो तुम पर उस थोड़े-से सत्य का क्या प्रभाव होता है, जिसे तुम समझते हो? यदि वह तुम्हें काबू में रखने का जरा-सा भी प्रभाव नहीं डालता, तो तुम्हारे लिए सत्य केवल कुछ शब्द हैं, और यह बिलकुल बेकार है। यदि तुम उन सारे सत्यों को समझते हो, फिर भी अगर तुमसे परमेश्वर के वचनों को कार्यान्वित करने और 15 दिनों की कठिनाई का सामना के लिए कहा जाए और तुम यह बरदाश्त न कर पाओ, तो तुम किस तरह के इंसान हो? परमेश्वर की दृष्टि में क्या तुम एक योग्य सृजित प्राणी हो? (नहीं।) नूह के कष्टों और उसकी 120 वर्षों की दृढ़ता को देखते हुए, तुम लोगों के बीच सिर्फ एक छोटी-सी दूरी नहीं है—दोनों में कोई तुलना ही नहीं है। परमेश्वर द्वारा नूह को बुलाकर उसे वह सब, जो वह कराना चाहता था, सौंपने का कारण यह था कि परमेश्वर की दृष्टि में नूह उसके वचनों पालन करने में सक्षम था, वह एक ऐसा व्यक्ति था जिसे बड़ा कार्य सौंपा जा सकता था, वह भरोसेमंद था, और ऐसा व्यक्ति था जो वह काम साकार कर सकता था जो परमेश्वर चाहता था; परमेश्वर की दृष्टि में वह एक सच्चा इंसान था। और तुम लोग? तुम लोग इन चीजों में से कुछ भी हासिल नहीं कर सकते। परमेश्वर की दृष्टि में तुम सभी लोग क्या हो, इसकी कल्पना करना कठिन नहीं है। क्या तुम मनुष्य हो? क्या तुम मनुष्य कहलाने लायक हो? उत्तर स्पष्ट है : तुम मनुष्य नहीं हो! मैंने जितना संभव हो सका, समय कम करके 15 दिन कर दिए, सिर्फ दो हफ्ते, और फिर भी तुम लोगों में से किसी ने नहीं कहा कि तुम यह कर सकते हो। यह क्या दर्शाता है? यही कि तुम लोगों की आस्था, निष्ठा और समर्पण सब शून्य के बराबर है। तुम लोग जिसे आस्था, निष्ठा और समर्पण मानते हो, मैं उसे कुछ नहीं समझता! तुम लोग शेखी बघारते हो कि तुम बहुत अच्छे हो, लेकिन मेरी दृष्टि में तुम लोगों में बहुत कमियाँ हैं!

नूह की कहानी में एक बात जो सबसे अविश्वसनीय, सबसे प्रशंसनीय, सबसे अनुकरणीय है, वह है उसकी 120 सालों की दृढ़ता, उसका 120 सालों का समर्पण और निष्ठा। देखो, क्या परमेश्वर ने व्यक्ति के चुनाव में गलती की थी? (नहीं।) परमेश्वर वह परमेश्वर है जो मनुष्य के अंतरतम अस्तित्व का निरीक्षण करता है। लोगों के उस विशाल सागर में से उसने नूह को चुना, उसने नूह को पुकारा, तो परमेश्वर ने अपने चुनाव में कोई गलती नहीं की थी : नूह उसकी अपेक्षाओं पर खरा उतरा, उसने सफलतापूर्वक उस कार्य को संपन्न किया, जो परमेश्वर ने उसे सौंपा था। यह गवाही है। परमेश्वर यही चाहता था, यह गवाही है! लेकिन क्या तुम लोगों में इसका कोई संकेत या लक्षण है? नहीं है। स्पष्ट रूप से, तुम लोगों में ऐसी गवाही नदारद है। तुम लोगों में जो उजागर होता है, जो परमेश्वर देखता है, वह शर्मिंदगी का चिह्न है; तुममें कोई एक भी चीज ऐसी नहीं है, जिसके बारे में बात करने पर लोगों की आँखों में आँसू आ जाएँ। नूह की विभिन्न अभिव्यक्तियों के संबंध में, विशेषकर परमेश्वर के वचनों में उसके दृढ़ विश्वास जो एक शताब्दी तक बिना किसी संदेह या परिवर्तन के बना रहा, और जहाज बनाने के प्रति उसकी दृढ़ता जो एक शताब्दी तक नहीं डगमगाई, और उसकी इस आस्था और दृढ़ संकल्प के संबंध में, आधुनिक समय में कोई उससे तुलना नहीं कर सकता, कोई उसका मुकाबला नहीं कर सकता। और फिर भी कोई नूह की निष्ठा और समर्पण की परवाह नहीं करता, कोई नहीं मानता कि इसमें ऐसा कुछ है, जो लोगों के सम्मान और अनुकरण के योग्य है। इसके बजाय, अब लोगों के लिए क्या अधिक महत्वपूर्ण है? नारे लगाना और धर्म-सिद्धांतों के बारे में बोलना। ऐसा दिखता है कि वे बहुत-से सत्य समझते हैं और उन्होंने सत्य पा लिया है—लेकिन नूह के कार्य की तुलना में उन्होंने उसका सौवाँ, हजारवाँ हिस्सा भी हासिल नहीं किया है। उनमें कितनी कमियाँ है! जमीन-आसमान का अंतर है। नूह के जहाज बनाने से क्या तुम लोगों ने जाना है कि परमेश्वर किस तरह के लोगों से प्रेम करता है? परमेश्वर के प्रिय लोगों में किस तरह का गुण, हृदय और निष्ठा पाई जाती है? क्या तुम लोगों में वे सभी चीजें हैं, जो नूह में थीं? यदि तुम्हें लगता है कि तुममें नूह की आस्था और चरित्र है, तो तुम्हारा परमेश्वर के सामने शर्तें रखना, उसकी जाँच करना और उससे सौदेबाजी करना कुछ हद तक क्षम्य होगा। अगर तुम्हें लगता है कि वे चीजें तुममें पूरी तरह से नदारद हैं, तो मैं तुमसे सच कहता हूँ : अपने मुँह मियाँ मिट्ठू मत बनो—तुम कुछ नहीं हो। परमेश्वर की नजर में तुम्हारी औकात एक कीड़े से भी कम है। और फिर भी तुममें इतनी हिम्मत है कि तुम परमेश्वर के सामने शर्तें रखने और उससे सौदेबाजी करने की कोशिश करते हो? कुछ लोग कहते हैं, “अगर मेरी औकात एक कीड़े से भी कम है, तो मेरा परमेश्वर के घर में एक कुत्ते के रूप में सेवा करना कैसा रहेगा?” नहीं, तुम इस लायक भी नहीं हो। क्यों? तुम परमेश्वर के घर के दरवाजे पर ठीक से नजर तक नहीं रख सकते, इसलिए मेरी नजर में तुम एक पहरेदार कुत्ते के बराबर भी नहीं हो। क्या ये वचन तुम लोगों को आहत करते हैं? क्या यह सुनना तुम लोगों के लिए अप्रिय है? इसका उद्देश्य तुम लोगों के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाना नहीं है; यह एक तथ्य-आधारित मूल्यांकन है, एक तथ्य-आधारित कथन है, और जरा भी झूठा नहीं है। तुम लोग ठीक इसी तरह व्यवहार करते हो, यह ठीक वही है जो तुम लोगों में प्रदर्शित होता है; तुम लोग ठीक इसी तरह परमेश्वर के साथ बरताव करते हो, और इसी तरह तुम लोग उन तमाम कार्यों के साथ भी पेश आते हो, जो परमेश्वर तुम्हें सौंपता है। मैंने जो कुछ भी कहा है, वह सच है और दिल से निकला है। हम नूह की कहानी पर चर्चा यहीं समाप्त करेंगे।

II. अब्राहम ने इसहाक की भेंट चढ़ाई

सुनाने लायक एक कहानी और है : अब्राहम की कहानी। एक दिन अब्राहम के घर दो दूत आए, जिनका उसने उत्साह से स्वागत किया। दूतों को अब्राहम को यह बताने का काम सौंपा गया था कि ईश्वर उसे एक पुत्र प्रदान करेगा। जैसे ही अब्राहम ने यह सुना, वह बहुत खुश हुआ : “मेरे प्रभु का धन्यवाद!” लेकिन उसके पीछे अब्राहम की पत्नी सारा मन ही मन हँसी। उसकी हँसी का मतलब था, “यह असंभव है, मैं बूढ़ी हो गई हूँ—मैं बच्चा कैसे पैदा कर सकती हूँ? मुझे एक बेटा दिया जाएगा, क्या मजाक है!” सारा को विश्वास नहीं हुआ। क्या दूतों ने सारा की हँसी सुनी? (हाँ, सुनी।) बेशक उन्होंने सुनी, और परमेश्वर ने भी इसे देखा। और परमेश्वर ने क्या किया? परमेश्वर अदृष्ट रूप से देख रहा था। वह अबोध स्त्री सारा इस पर विश्वास नहीं करती थी—लेकिन परमेश्वर जो करने का निश्चय करता है, क्या उसमें मनुष्य विघ्न डाल सकते हैं? (नहीं।) उसमें कोई मनुष्य विघ्न नहीं डाल सकता। जब परमेश्वर कुछ करने का निश्चय करता है, तो कुछ लोग कह सकते हैं, “मुझे इस पर विश्वास नहीं है, मैं इसके विरोध में हूँ, मैं इससे मना करता हूँ, मुझे इस पर आपत्ति है, मुझे इससे समस्या है।” क्या उनकी बातों में दम होता है? (नहीं।) तो जब परमेश्वर देखता है कि ऐसे लोग भी हैं, जो असहमत हैं, जिनके पास कहने के लिए कुछ है, जो विश्वास नहीं करते, तो क्या उसे उन्हें स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता है? क्या उसे उन्हें यह स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता है कि वह जो करता है, वह कैसे और क्यों करता है? क्या परमेश्वर ऐसा करता है? वह ऐसा नहीं करता। वह इस बात पर ध्यान नहीं देता कि ये अज्ञानी लोग क्या करते और कहते हैं, वह इस बात की परवाह नहीं करता कि उनका रवैया क्या है। परमेश्वर ने अपने हृदय में जो कुछ करने की ठानी है, वह बहुत पहले से निश्चित है और बदली नहीं जा सकती : उसे यही करना है। सभी चीजें और घटनाएँ परमेश्वर के हाथों के नियंत्रण और संप्रभुता के अधीन हैं, जिसमें यह भी शामिल है कि कब किसी को बच्चा होना है और वह किस तरह का बच्चा है—कहने की आवश्यकता नहीं कि यह भी परमेश्वर के ही हाथों में है। जब परमेश्वर ने दूतों को अब्राहम को यह बताने के लिए भेजा कि वह उसे एक पुत्र देगा, तो वास्तव में, परमेश्वर ने बहुत पहले ही उन बहुत-सी चीजों की योजना बना ली थी, जिन्हें उसे बाद में करना था। पुत्र कौन-सी जिम्मेदारियाँ निभाएगा, उसका जीवन किस तरह का होगा, उसके वंशज कैसे होंगे—परमेश्वर ने बहुत पहले ही यह सब योजना बना ली थी, और इसमें कोई त्रुटि या फेरबदल नहीं होगा। और इसलिए, क्या किसी मूर्ख औरत की हँसी कुछ बदल सकती थी? वह कुछ नहीं बदल सकती थी। और जब समय आया, तो परमेश्वर ने वैसा ही किया, जैसी उसने योजना बनाई थी, और यह सब वैसे ही पूरा हुआ, जैसा परमेश्वर ने कहा और निश्चय किया था।

जब अब्राहम 100 वर्ष का हुआ, तो परमेश्वर ने उसे एक पुत्र दिया। पुत्र के बिना 100 वर्ष जीकर अब्राहम के दिन नीरस और एकाकी हो चुके थे। कोई 100-वर्षीय आदमी बिना बच्चों के, खासकर बिना बेटे के कैसा महसूस करता है? “मेरे जीवन में एक अभाव है। परमेश्वर ने मुझे बेटा नहीं दिया, और मैंने जीवन में थोड़ा अधूरापन, थोड़ा खेद अनुभव किया है।” लेकिन जब परमेश्वर ने अब्राहम को यह बताने के लिए दूत भेजे कि उसे एक पुत्र दिया जाएगा, तो उसकी म मनःस्थिति कैसी हो गई? (प्रसन्नतापूर्ण।) आनंदमग्न होने के अलावा वह प्रत्याशा से भी भर गया था। उसने परमेश्वर को उसके अनुग्रह के लिए, अपने जीवन के शेष वर्षों में एक बच्चे के लालन-पालन का अवसर देने के लिए धन्यवाद दिया। यह कितनी अद्भुत बात थी, और यह इसी तरह घटित हुई। तो, उसके पास खुश होने के लिए क्या चीजें थीं? (उसे अपना वंशज मिल गया था, जिससे उसका वंश चलता रहने वाला था।) यह एक बात है। एक सबसे ज्यादा खुशी की बात और थी—क्या थी वह? (यह बच्चा परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से प्रदान किया गया था।) यह सही है। जब किसी साधारण व्यक्ति के यहाँ बच्चा होता है, तो क्या परमेश्वर आकर उन्हें बताता है? क्या वह कहता है, “मैं व्यक्तिगत रूप से तुम्हें यह बच्चा प्रदान करता हूँ, जिसका मैंने तुमसे वादा किया था”? क्या परमेश्वर यही करता है? नहीं, तो इस बच्चे के बारे में क्या खास बात थी? परमेश्वर ने अब्राहम को व्यक्तिगत रूप से यह बताने के लिए दूत भेजे, “100 वर्ष की आयु में तुम्हें एक बच्चा प्राप्त होगा, जो व्यक्तिगत रूप से परमेश्वर द्वारा दिया गया है।” यह बात है, जो उस बच्चे के बारे में खास है : उसे परमेश्वर द्वारा बताया गया था, और परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से दिया गया था। यह कितनी खुशी की बात थी! और क्या इस बच्चे के विशेष महत्व ने लोगों के मन में विचारों का मेला नहीं लगा दिया? जब अब्राहम ने इस बच्चे का जन्म होते देखा, तो उसे कैसा लगा? “आखिरकार मेरा एक बच्चा है। परमेश्वर के वचन पूरे हो गए; परमेश्वर ने कहा था कि वह मुझे एक बच्चा देगा, और उसने सचमुच दे दिया!” जब यह बच्चा पैदा हुआ और उसने उसे अपनी बाँहों में लिया, तो पहली चीज जो उसने महसूस की, वह यह थी, “यह बच्चा मुझे इंसानों के हाथों से नहीं, बल्कि परमेश्वर के हाथों से मिला है। बच्चे का आगमन इतना समयोचित है। यह परमेश्वर द्वारा दिया गया है, और मुझे इसका अच्छी तरह से लालन-पालन करना चाहिए, इसे अच्छी तरह से शिक्षित करना चाहिए और इसे परमेश्वर की आराधना करने और परमेश्वर के वचनों का पालन करने के लिए प्रेरित करना चाहिए, क्योंकि यह परमेश्वर से आया है।” क्या उसने इस बच्चे को बहुत प्यार किया? (हाँ।) यह एक विशेष बच्चा था। अब्राहम की उम्र को देखते हुए, यह कल्पना करना मुश्किल नहीं है कि उसने इस लड़के को कितना प्यार किया। एक सामान्य व्यक्ति की अपने बच्चे के प्रति लाड़-प्यार, दुलार और स्नेह की सभी भावनाएँ अब्राहम में भी पाई गईं। अब्राहम ने परमेश्वर द्वारा बोले गए वचनों पर विश्वास किया था, और अपनी आँखों से उसके वचनों को पूरा होते देखा था। वह इन वचनों के बोले जाने से लेकर उनके पूरे होने तक का साक्षी भी रहा था। उसने महसूस किया कि परमेश्वर के वचन कितने अधिकारपूर्ण हैं, उसके कर्म कितने चमत्कारी हैं, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि परमेश्वर मनुष्य की कितनी परवाह करता है। हालाँकि बच्चे को देखकर अब्राहम ने कई जटिल और तीव्र भावनाएँ अनुभव कीं, लेकिन अपने दिल में उसके पास परमेश्वर से कहने के लिए केवल एक ही बात थी। मुझे बताओ, तुम लोग क्या सोचते हो कि उसने क्या कहा? (परमेश्वर को धन्यवाद!) “मेरे प्रभु को धन्यवाद!” अब्राहम आभारी था और उसने परमेश्वर को हार्दिक धन्यवाद और स्तुति भी अर्पित की। परमेश्वर और अब्राहम के लिए यह बच्चा असाधारण महत्व का था। वह इसलिए, क्योंकि जिस क्षण से परमेश्वर ने कहा कि वह अब्राहम को एक बच्चा देगा, परमेश्वर ने योजना बनाई और निर्धारित किया कि वह कुछ करेगा : ऐसे महत्वपूर्ण मामले थे, बड़े मामले थे, जिन्हें वह इस बच्चे के माध्यम से हासिल करना चाहता था। परमेश्वर के लिए बच्चे का ऐसा महत्व था। जहाँ तक अब्राहम का संबंध है, अपने प्रति परमेश्वर के विशेष अनुग्रह के कारण, चूँकि परमेश्वर ने उसे एक बच्चा दिया था, पूरी मानवजाति के इतिहास के दौरान, और सभी मनुष्यों के संदर्भ में, उसके अस्तित्व का मूल्य और महत्त्व असाधारण था, वह साधारण नहीं था। और क्या यह कहानी का अंत है? नहीं। महत्वपूर्ण भाग तो अभी शुरू होना बाकी है।

परमेश्वर से इसहाक को प्राप्त करने के बाद अब्राहम ने इसहाक का परमेश्वर की आज्ञा और अपेक्षा के अनुसार लालन-पालन किया। उन तमाम मामूली वर्षों के दौरान अपने दैनिक जीवन में अब्राहम ने इसहाक को बलिदान के लिए तैयार किया, और इसहाक को स्वर्ग के परमेश्वर की कहानियाँ सुनाईं। थोड़ा-थोड़ा करके इसहाक को बातें समझ में आने लगीं। उसने परमेश्वर को धन्यवाद देना और परमेश्वर की स्तुति करना सीखा, और उसने परमेश्वर के वचनों का पालन करना और उसे भेंटें देना सीखा। वह जानता था कि भेंटें कब दी जाती हैं, और वेदी कहाँ है। इसके बाद, हम कहानी के मुख्य बिंदु पर आते हैं। एक दिन, ऐसे समय में, जब इसहाक ने चीजों को समझना शुरू कर दिया था लेकिन वह अभी तक परिपक्व नहीं हुआ था, परमेश्वर ने अब्राहम से कहा, “मुझे इस बलिदान के लिए कोई मेमना नहीं चाहिए। उसके बजाय इसहाक को अर्पित करो।” अब्राहम जैसे व्यक्ति के लिए, जो इसहाक से इतना प्यार करता था, क्या परमेश्वर के वचन अप्रत्याशित थे? अब्राहम की तो बात ही छोडो जो इतना बूढ़ा था—मध्यम आयु-वर्ग के—30 से 40 और उसके बाद की उम्र के—लोगों में से भी कितने इस समाचार को सह सकते हैं? क्या कोई सह सकता है? (नहीं।) और परमेश्वर के वचनों को सुनने के बाद अब्राहम की क्या प्रतिक्रिया थी? “आह? क्या परमेश्वर ने जो कहा, वह उसने गलती से कह दिया? परमेश्वर कभी गलती नहीं करता, तो क्या ऐसा है कि मेरे बूढ़े कानों ने गलत सुन लिया? मैं दोबारा पता करूँगा।” उसने पूछा, “परमेश्वर, क्या तुम मुझसे इसहाक की भेंट चढ़ाने के लिए कह रहे हो? क्या तुम इसहाक का बलिदान चाहते हो?” परमेश्वर ने कहा, “हाँ, यह सही है!” पुष्टि करने के बाद अब्राहम जान गया कि परमेश्वर के वचन गलत नहीं थे, और न ही वे बदलेंगे। यह ठीक वैसा ही था, जैसा परमेश्वर ने कहा था। और क्या अब्राहम के लिए यह सुनना कठिन था? (हाँ, कठिन था।) कितना कठिन था? अब्राहम ने अपने मन में सोचा, “इतने वर्षों के बाद मेरा बच्चा आखिरकार बड़ा होने लगा है। अगर उसे जीवित बलि के रूप में चढ़ाया गया, तो इसका मतलब होगा कि वह वेदी पर वध करने के लिए लाए गए मेमने की तरह काट दिया जाएगा। काट दिए जाने का मतलब है कि उसे मार दिया जाएगा, और उसके मारे जाने का मतलब है कि आज से मैं इस बच्चे से वंचित हो जाऊँगा...।” अपने विचारों के इस बिंदु तक पहुँच जाने के बाद क्या अब्राहम ने आगे कुछ सोचने की हिम्मत की? (नहीं।) क्यों नहीं की? आगे सोचने से और ज्यादा दर्द होगा, जैसे दिल में चाकू घुस जाए। आगे सोचने का मतलब खुशी की बातों के बारे में सोचना नहीं होगा—इसका मतलब होगा यातना। बच्चे को कहीं लेकर नहीं जाया जा रहा था, जिससे वह कुछ दिनों या वर्षों के लिए दिखता भले नहीं, लेकिन फिर भी जीवित रहता; ऐसा नहीं था कि अब्राहम लगातार उसके बारे में सोचता रहेगा, और फिर उसके बड़ा होने के बाद किसी उपयुक्त समय पर दोबारा उससे मिलेगा। ऐसी बात नहीं थी। एक बार बच्चे को वेदी पर चढ़ा दिया गया, तो वह जीवित नहीं रहेगा, उसे फिर कभी नहीं देखा जाएगा, उसे परमेश्वर के लिए बलिदान किया जा चुका होगा, वह परमेश्वर के पास लौट चुका होगा। चीजें वैसी ही हो जाएँगी, जैसी वे पहले थीं। बच्चे से पहले, जीवन एकाकी था। और अगर चीजें ऐसे ही चलतीं, उसके कभी बच्चा न होता, तो क्या यह दर्दनाक होता? (यह बहुत दर्दनाक न होता।) बच्चा होना और फिर उसे खो देना—यह बहुत दर्दनाक है। यह दिल दहला देने वाली चीज है! इस बच्चे को परमेश्वर को लौटाने का मतलब होगा कि उसके बाद से बच्चा फिर कभी नहीं दिखेगा, उसकी आवाज फिर कभी सुनाई नहीं देगी, अब्राहम उसे फिर कभी खेलते हुए नहीं देख पाएगा, उसका लालन-पालन नहीं कर पाएगा, उसे हँसा नहीं पाएगा, उसे बड़ा होते नहीं देख पाएगा, उसकी मौजूदगी से मिलने वाले तमाम पारिवारिक सुखों का आनंद नहीं ले पाएगा। जो कुछ रह जाएगा, वह दर्द और लालसा होगी। जितना अधिक अब्राहम ने इसके बारे में सोचा, यह उतना ही कठिन होता गया। लेकिन यह कितना भी कठिन क्यों न हो, एक बात उसके दिल में स्पष्ट थी : “परमेश्वर ने जो कहा और जो वह करने जा रहा है, वह मजाक नहीं है, वह गलत नहीं हो सकता, बदल तो बिलकुल भी नहीं सकता। इसके अलावा, बच्चा परमेश्वर से आया है, इसलिए यह पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है कि उसे परमेश्वर को अर्पित कर दिया जाए, और जब परमेश्वर चाहे, तब बिना कुछ कहे-सुने मैं उसे परमेश्वर को लौटाने के लिए बाध्य हूँ। पारिवारिक आनंद का पिछला दशक एक विशेष उपहार रहा है, जिसका मैंने भरपूर आनंद लिया है; मुझे परमेश्वर को धन्यवाद देना चाहिए, और परमेश्वर से अनुचित माँग नहीं करनी चाहिए। यह बच्चा परमेश्वर का है, मुझे इसके अपना होने का दावा नहीं करना चाहिए, यह मेरी निजी संपत्ति नहीं है। सभी लोग परमेश्वर से आते हैं। यहाँ तक कि अगर मुझसे अपना जीवन अर्पित करने के लिए भी कहा जाए, तो मुझे परमेश्वर के साथ बहस करने या शर्तें रखने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, खास तौर से तब, जब बच्चा होने की बात परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से बताई गई हो और बच्चा उसी के द्वारा दिया गया हो। अगर परमेश्वर उसे अर्पित करने के लिए कहता है, तो मैं उसे अर्पित करूँगा!”

क्षण-प्रति-क्षण, पल-प्रति-पल समय इसी तरह बीतता गया, बलिदान का क्षण निकट से निकटतर आता गया। लेकिन ज्यादा दुखी होने के बजाय अब्राहम अधिकाधिक शांत महसूस करता गया। उसे किस चीज ने शांत किया? किस चीज ने अब्राहम को दर्द से बचने और होनी के प्रति सही दृष्टिकोण रखने दिया? उसका मानना था कि परमेश्वर ने जो कुछ भी किया है, उसे देखते हुए व्यक्ति का रवैया केवल समर्पण वाला होना चाहिए, और लोगों को परमेश्वर के साथ बहस करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। उसके विचार इस बिंदु पर पहुँच जाने के कारण उसे अब और दर्द नहीं हुआ। युवा इसहाक को लेकर वह कदम-दर-कदम वेदी की ओर बढ़ा। वेदी पर कुछ नहीं था—आम तौर पर पहले से इंतजार करता दिखने वाला मेमना भी नहीं। “पिताजी, क्या आपने अभी तक आज के बलिदान की तैयारी नहीं की है?” इसहाक ने पूछा। “अगर नहीं, तो आज किसे बलिदान किया जाएगा?” जब इसहाक ने यह पूछा, तो अब्राहम ने क्या महसूस किया? क्या यह संभव है कि उसने खुशी महसूस की हो? (नहीं।) तो उसने क्या किया? क्या अपने हृदय में उसने परमेश्वर से घृणा की? क्या उसने परमेश्वर से शिकायत की? क्या उसने प्रतिरोध किया? (नहीं।) इनमें से कुछ नहीं किया। यह क्या दिखाता है? आगे जो कुछ हुआ, उससे यह स्पष्ट है कि अब्राहम ने वास्तव में ऐसी बातें नहीं सोची थीं। उसने वह जलाऊ लकड़ी वेदी पर रखी, जिसे वह जलाने वाला था, और इसहाक को बुलाया। और उस समय अब्राहम द्वारा इसहाक को वेदी पर बुलाते देखकर लोग क्या सोचते हैं? “तुम कितने निर्दयी बूढ़े हो। तुममें इंसानियत नहीं है। तुम इंसान नहीं हो! वह तुम्हारा बेटा है, क्या तुम वाकई इसे सहन कर सकते हो? क्या तुम वाकई ऐसा कर सकते हो? क्या तुम वाकई इतने क्रूर हो? क्या तुम्हारे पास दिल है भी?” क्या वे ऐसा ही न सोचते? और क्या अब्राहम ने ये बातें सोची थीं? (नहीं।) उसने इसहाक को अपने पास बुलाया और एक शब्द भी कह पाने में असमर्थ होकर उसने अपनी बनाई रस्सी निकाली और उससे इसहाक के हाथ-पैर बाँध दिए। क्या ये कार्य बताते हैं कि यह भेंट असली होने वाली थी या नकली? यह असली और शुद्ध होने वाली थी, केवल दिखावे के लिए नहीं। उसने इसहाक को अपने कंधों पर उठाया, और उस छोटे बच्चे ने चाहे कितना भी संघर्ष किया और वह कितना भी रोया-चिल्लाया, अब्राहम ने कभी हार मानने के बारे में नहीं सोचा। उसने संकल्पपूर्वक अपने कमसिन बेटे को वेदी पर जलाने के लिए जलाऊ लकड़ी पर रख दिया। इसहाक रोया, चिल्लाया, हाथ-पैर मारे—लेकिन अब्राहम बलिदान के लिए सब-कुछ तैयार करते हुए परमेश्वर के लिए बलिदान करने की क्रियाएँ करता रहा। इसहाक को वेदी पर रखने के बाद अब्राहम ने एक चाकू निकाला, जो आम तौर पर मेमनों को मारने के लिए इस्तेमाल किया जाता था, और उसे दोनों हाथों में मजबूती से पकड़कर अपने सिर के ऊपर ले गया और इसहाक को निशाना बना लिया। उसने अपनी आँखें बंद कर लीं, और चाकू इसहाक के पेट में धँसने ही वाला था, कि परमेश्वर ने अब्राहम से बात की। परमेश्वर ने क्या कहा? “अब्राहम, अपना हाथ रोक लो!” अब्राहम ने कभी नहीं सोचा होगा कि परमेश्वर उस समय ऐसा कुछ कह सकता है, जब वह इसहाक को उसे लौटाने वाला था। उसने ऐसा कुछ सोचने की हिम्मत नहीं की थी। और फिर भी, एक-एक करके परमेश्वर के वचन उसके हृदय से टकराते रहे। इस प्रकार इसहाक बच गया। उस दिन, वह बलिदान जो वास्तव में परमेश्वर को दिया जाना था, अब्राहम के पीछे था; वह एक मेमना था। परमेश्वर ने इसकी तैयारी बहुत पहले ही कर ली थी, लेकिन परमेश्वर ने अब्राहम को इसका कोई पूर्व-संकेत नहीं दिया था, इसके बजाय उसने उसे ठीक उस समय रुकने के लिए कहा, जब उसने चाकू उठा लिया था और उसे इसहाक के शरीर में घोंपने के लिए तैयार था। किसी ने इसकी कल्पना भी नहीं की होगी, न अब्राहम ने, न इसहाक ने। अब्राहम द्वारा इसहाक की बलि देने को देखें तो, क्या अब्राहम वास्तव में अपने बेटे की बलि देने का इरादा रखता था या वह दिखावा कर रहा था? (वह सचमुच ऐसा करने का इरादा रखता था।) वह सचमुच ऐसा ऐसा करने का इरादा रखता था। उसके कार्यकलाप शुद्ध थे, उनमें कोई छल-कपट नहीं था।

अब्राहम ने अपना मांस और लहू परमेश्वर को बलिदान के रूप में दिया—और जब परमेश्वर ने उससे यह भेंट चढ़ाने के लिए कहा, तो अब्राहम ने यह कहकर उसके साथ बहस करने की कोशिश नहीं की, “क्या हम किसी और का उपयोग नहीं कर सकते? मैं करूँ, या कोई और व्यक्ति।” ऐसी बातें कहने के बजाय अब्राहम ने अपना सबसे प्रिय और बहुमूल्य पुत्र परमेश्वर को दे दिया। और यह भेंट कैसे चढ़ाई गई? परमेश्वर ने जो कहा, उसने उसे सुन लिया, और फिर बस, आगे बढ़कर कर दिया। क्या लोगों को यह तर्कसंगत लगेगा कि परमेश्वर ने अब्राहम को एक बच्चा दिया, और जब वह बच्चा बड़ा हो गया, तो उसने अब्राहम को बच्चा वापस देने के लिए कहा, और बच्चा वापस लेना चाहा? (नहीं लगेगा।) मनुष्य के परिप्रेक्ष्य से, क्या यह पूरी तरह से अनुचित न होता? क्या ऐसा न लगता कि परमेश्वर अब्राहम के साथ खिलवाड़ कर रहा है? एक दिन परमेश्वर ने अब्राहम को यह बच्चा दिया, और फिर कुछ ही वर्षों बाद उसने उसे ले लेना चाहा। अगर परमेश्वर को बच्चा चाहिए था, तो उसे बस ले लेना चाहिए था; वेदी पर बच्चे का बलिदान करने के लिए कहकर उस व्यक्ति को इतनी पीड़ा देने की आवश्यकता नहीं थी। बच्चे की वेदी पर बलि देने का क्या मतलब था? यही कि अब्राहम को उसे मारना था और फिर अपने दोनों हाथों से जलाना था। क्या यह ऐसी चीज है, जिसे करना कोई व्यक्ति सहन कर सकता है? (नहीं।) परमेश्वर ने जब यह बलिदान माँगा, तो उसका क्या आशय था? कि अब्राहम को व्यक्तिगत रूप से यह काम करना चाहिए : व्यक्तिगत रूप से अपने बेटे को बाँधना चाहिए, व्यक्तिगत रूप से उसे वेदी पर रखना चाहिए, व्यक्तिगत रूप से उसे चाकू से मारना चाहिए, और फिर व्यक्तिगत रूप से उसे परमेश्वर को चढ़ाई गई एक भेंट के रूप में जला देना चाहिए। मनुष्यों को इनमें से कोई भी बात मनुष्य की भावनाओं के प्रति विचारशील नहीं लगेगी; अपनी धारणाओं, मानसिकता, नैतिक दर्शन, या नैतिकता और रीति-रिवाजों के अनुसार इनमें से कोई चीज तर्कसंगत नहीं लगेगी। अब्राहम शून्य में नहीं रहता था, न ही वह किसी काल्पनिक दुनिया में रहता था; वह मनुष्य की दुनिया में रहता था। उसमें मानवीय विचार और मानवीय दृष्टिकोण थे। और जब यह सब उसके साथ हुआ, तो उसने क्या सोचा? अपनी पीड़ा के अलावा, और उन कुछ चीजों के अलावा जिन्होंने उसे हैरान कर दिया था, क्या उसमें विद्रोह या अस्वीकृति थी? क्या उसने मौखिक रूप से परमेश्वर पर हमला किया और उसे अपशब्द कहे? बिलकुल नहीं। ठीक इसके विपरीत : जिस क्षण से परमेश्वर ने उसे यह कार्य करने की आज्ञा दी, अब्राहम ने इसे हलके में लेने का साहस नहीं किया; बल्कि उसने तुरंत तैयारियाँ शुरू कर दीं। और जब उसने ये तैयारियाँ शुरू कीं, तो उसकी मनोदशा कैसी थी? क्या वह प्रसन्न, आनंदित और खुश था? या वह दुखी, उदास और खिन्न था? (वह दुखी और उदास था।) वह दुखी था! उनका हर कदम भारी था। इस बात से अवगत होने के बाद, और परमेश्वर के वचनों को सुनने के बाद, अब्राहम को हर दिन एक वर्ष के समान लगा; वह दुखी था, आनंदित होने में असमर्थ था, और उसका दिल भारी था। लेकिन उसका एकमात्र दृढ़ विश्वास क्या था? (यही कि उसे परमेश्वर के वचनों का पालन करना चाहिए।) यह सही है, वह यही था कि उसे परमेश्वर के वचनों का पालन करना चाहिए। उसने मन ही मन कहा, “मेरे प्रभु यहोवा का नाम धन्य है; मैं परमेश्वर के लोगों में से एक हूँ, और मुझे परमेश्वर के वचनों का पालन करना चाहिए। परमेश्वर जो कहता है, वह सही हो या गलत, और चाहे इसहाक मेरे पास कैसे भी आया हो, अगर परमेश्वर कहता है तो मुझे देना चाहिए; ऐसा ही विवेक और रवैया मनुष्य में पाया जाना चाहिए।” परमेश्वर के वचन स्वीकारने के बाद अब्राहम पीड़ा या कठिनाई से मुक्त नहीं था; उसने पीड़ा महसूस की और उसकी अपनी कठिनाइयाँ थीं जिन पर काबू पाना आसान नहीं था! फिर भी, अंत में क्या हुआ? जैसा कि परमेश्वर ने चाहा था, अब्राहम अपने पुत्र को, जो एक छोटे बच्चा था, वेदी पर ले आया, और जो कुछ उसने किया, उसे परमेश्वर ने देखा। जैसे परमेश्वर ने नूह को देखा था, वैसे ही उसने अब्राहम की हर चेष्टा को देखा था, और जो कुछ उसने किया, उससे परमेश्वर प्रभावित हुआ था। हालाँकि चीजें उस तरह घटित नहीं हुईं, जिस तरह होने की किसी ने सोची होगी, फिर भी अब्राहम ने जो किया, वह पूरी मानवजाति के बीच अद्वितीय था। क्या उसे उन सभी के लिए एक उदाहरण होना चाहिए, जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं? (हाँ।) वह उन सभी मनुष्यों के लिए एक आदर्श है, जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। मैं क्यों कहता हूँ कि वह मनुष्यों के लिए एक आदर्श है? अब्राहम बहुत-से सत्य नहीं समझता था, न ही उसने परमेश्वर द्वारा उससे व्यक्तिगत रूप से कहे गए कोई सत्य या उपदेश सुने थे। उसने केवल विश्वास किया था, स्वीकार किया था और आज्ञापालन किया था। उसकी मानवता में ऐसी क्या अनोखी चीज थी? (सृजित प्राणी का विवेक।) कौन-से शब्द इसे दर्शाते हैं? (उसने कहा, “मेरे प्रभु यहोवा का नाम धन्य है; मुझे परमेश्वर के वचनों का पालन करना चाहिए, और चाहे वे मनुष्य की धारणाओं के अनुरूप हों या नहीं, मुझे समर्पण करना चाहिए।”) इसमें, अब्राहम में सामान्य मानवता का विवेक था। इतना ही नहीं, इन शब्दों ने दिखाया कि उसमें सामान्य मानवता का जमीर भी था। और यह जमीर कहाँ परिलक्षित हुआ? अब्राहम जानता था कि इसहाक को परमेश्वर ने प्रदान किया है, कि वह परमेश्वर की एक वस्तु है, कि वह परमेश्वर का है, और कि जब परमेश्वर कहे, तब अब्राहम को उसे परमेश्वर को लौटा देना चाहिए, न कि हमेशा उससे चिपके रहना चाहिए; यही वह विवेक है जो मनुष्य के पास होना चाहिए।

क्या आज के लोगों में जमीर और विवेक है? (नहीं।) यह किन बातों में परिलक्षित होता है? परमेश्वर लोगों पर चाहे कितना भी अनुग्रह करे, और चाहे वे कितने भी आशीषों या कितने भी अनुग्रह का आनंद लें, जब उनसे परमेश्वर के प्रेम का प्रतिदान करने के लिए कहा जाता है, तो उनका क्या दृष्टिकोण होता है? (प्रतिरोध और कभी-कभी कठिनाई और परिश्रम से डरना।) कठिनाई और परिश्रम से डरना जमीर और विवेक न होने की एक ठोस अभिव्यक्ति है। इन दिनों लोग बहाने बनाते हैं, शर्तें थोपने और सौदेबाजी करने की कोशिश करते हैं—हाँ या नहीं? (हाँ।) वे शिकायत भी करते हैं, काम लापरवाही और धूर्ततापूर्ण तरीके से करते हैं, और देह-सुखों का लालच करते हैं—ये सब ठोस अभिव्यक्तियाँ हैं। लोगों में आज जमीर नहीं है, फिर भी वे अकसर परमेश्वर के अनुग्रह की स्तुति करते हैं, और ऐसे सभी अनुग्रहों को गिनते हैं और उन्हें गिनते हुए आँसू बहाते हैं। लेकिन जब वे गिनती समाप्त कर लेते हैं, तो यह सब समाप्त हो जाता है; वे अभी भी लापरवाह बने रहते हैं, अनमने ढंग से काम करते रहते हैं, धोखेबाज बने रहते हैं, और पश्चात्ताप की किसी अभिव्यक्ति के बिना शातिर और सुस्त बने रहते हैं। तो फिर, तुम्हारी गणना का क्या मतलब था? यह जमीर की कमी की अभिव्यक्ति है। तो, विवेक की कमी कैसे अभिव्यक्त होती है? जब परमेश्वर तुम्हारी काट-छाँट करता है, तो तुम शिकायत करते हो, तुम्हारी भावनाएँ आहत हो जाती हैं, और तब तुम और अपना काम करना नहीं चाहते और कहते हो कि परमेश्वर में प्रेम नहीं है; जब तुम अपना काम करते हुए थोड़ा कष्ट सहते हो, या जब परमेश्वर तुम्हारे लिए जो परिवेश निर्धारित करता है, वह थोड़ा कठिन, थोड़ा चुनौतीपूर्ण या थोड़ा सख्त होता है, तब तुम उसे नहीं निभाना चाहते; और परमेश्वर द्वारा निर्धारित विभिन्न परिवेशों में से किसी में भी तुम समर्पण करने में सक्षम नहीं होते, तुम केवल देह-सुख के प्रति विचारशील रहते हो, और तुम केवल अनियंत्रित होकर उपद्रव करना चाहते हो। यह विवेक न होने का संकेत है या नहीं? तुम परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाएँ स्वीकार नहीं करना चाहते, और तुम केवल उससे लाभ प्राप्त करना चाहते हो। जब तुम कोई छोटा-सा काम करते हो और थोड़ा पीड़ित होते हो, तो तुम अपनी योग्यताओं का दावा करते हो, हैसियत के लाभ उठाते हुए खुद को दूसरों से ऊपर समझते हो और अधिकारी की तरह शान बघारना शुरू कर देते हो। तुम्हारी कोई वास्तविक कार्य करने की इच्छा नहीं होती, न ही तुम कोई वास्तविक कार्य करने में सक्षम हो—तुम केवल आदेश देना और अधिकारी बनना चाहते हो। तुम अपने आपमें कानून बनना चाहते हो, जो तुम्हारा जी चाहे वह करना चाहते हो, और लापरवाही से कार्य करना चाहते हो। अनियंत्रित होकर उपद्रव करने के अलावा तुममें और कुछ भी अभिव्यक्त नहीं होता। क्या यह विवेक होना है? (नहीं।) अगर परमेश्वर तुम लोगों को एक अच्छा बच्चा दे, और बाद में तुमसे स्पष्ट रूप से कह दे कि वह उस बच्चे को वापस लेने वाला है, तो तुम्हारा क्या रवैया होगा? क्या वही रवैया रख सकते हो जो अब्राहम का था? (नहीं।) कुछ लोग कहेंगे, “मैं वैसा रवैया कैसे न रख सकता? मेरा पुत्र बीस वर्ष का है और मैंने उसे परमेश्वर के घर को अर्पित कर दिया, जहाँ वह अब काम करता है।” क्या यह बलिदान है? ज्यादा से ज्यादा, तुम अपने बच्चे को सही रास्ते पर ले गए हो—लेकिन तुम्हारा एक गूढ़ प्रयोजन भी है : तुम डरते हो कि अन्यथा तुम्हारा बच्चा आपदा में नष्ट हो सकता है। क्या ऐसा नहीं है? तुम जो कर रहे हो, उसे बलिदान करना नहीं कहा जाता; यह अब्राहम द्वारा इसहाक के बलिदान के समान बिलकुल नहीं है। इन दोनों में कोई तुलना ही नहीं है। जब अब्राहम ने सुना कि परमेश्वर ने उसे क्या आज्ञा दी है, तो इस निर्देश का पालन करना उसके लिए—या मानवजाति के किसी भी अन्य सदस्य के लिए—कितना कठिन रहा होगा? यह दुनिया में सबसे कठिन काम होता; इससे कठिन कुछ भी नहीं है। यह केवल एक मेमना या थोड़े-से पैसे चढ़ाना नहीं था, और यह केवल कोई सांसारिक संपत्ति या भौतिक वस्तु नहीं थी, न ही यह कोई ऐसा जानवर था जिसका भेंट चढ़ाने वाले व्यक्ति से कोई संबंध नहीं था। ये चीजें ऐसी हैं जिन्हें व्यक्ति क्षणिक प्रयास से ही चढ़ा सकता है—जबकि परमेश्वर द्वारा अब्राहम से माँगा गया बलिदान एक दूसरे व्यक्ति के जीवन का बलिदान था। यह अब्राहम के अपने मांस और लहू का बलिदान था। यह कितना कठिन रहा होगा! बच्चे की भी एक विशेष पृष्ठभूमि थी, क्योंकि उसे परमेश्वर द्वारा प्रदान किया गया था। उसे बच्चा देने में परमेश्वर का लक्ष्य क्या था? वह यह था कि अब्राहम का एक बेटा होगा, जो पाल-पोसकर बड़ा किया जाएगा, उसकी शादी और बच्चे होंगे, और इस प्रकार उसके परिवार का नाम आगे बढ़ेगा। लेकिन अब, इस बच्चे के बड़े होने से पहले ही उसे परमेश्वर को लौटाया जाना था, और वे चीजें कभी नहीं होंगी। तो, परमेश्वर द्वारा अब्राहम को एक बच्चा देने का क्या मतलब था? क्या कोई प्रेक्षक इसका कोई मतलब निकाल सकता है? लोगों की धारणाओं के आलोक में, इसका कोई मतलब नहीं है। भ्रष्ट मानवजाति स्वार्थी है; कोई इसका मतलब नहीं निकाल सकता। अब्राहम भी इसे समझ नहीं पाया; वह नहीं जानता था कि आखिरकार परमेश्वर क्या करना चाहता है, सिवाय इसके कि उसने उससे इसहाक का बलिदान करने के लिए कहा है। इस प्रकार, अब्राहम ने क्या चुनाव किया? उसका रवैया क्या था? यद्यपि वह यह सब समझने में असमर्थ था, फिर भी वह वैसा करने में सक्षम था जैसी परमेश्वर की आज्ञा दी थी; उसने परमेश्वर के वचनों का पालन किया और जो कुछ उसने कहा, उसके हर वचन के प्रति समर्पित हो गया, बिना विरोध किए या बिना कोई विकल्प माँगे, परमेश्वर पर शर्तें थोपने या उससे बहस करने की कोशिश तो उसने बिलकुल भी नहीं की। जो कुछ भी हो रहा था, उसे समझ पाने से पहले अब्राहम आज्ञापालन करने और समर्पित होने में सक्षम था—जो बिलकुल दुर्लभ और सराहनीय है और यहाँ बैठे तुम लोगों में से किसी की भी क्षमता से परे है। अब्राहम नहीं जानता था कि क्या हो रहा है और परमेश्वर ने उसे पूरी कहानी नहीं सुनाई थी; फिर भी उसने इसे गंभीरता से लिया, इस बात पर विश्वास करते हुए कि जो कुछ भी परमेश्वर करना चाहता है, लोगों को उसके प्रति समर्पित होना चाहिए, और कि उन्हें सवाल नहीं पूछने चाहिए, कि अगर परमेश्वर कुछ और नहीं कहता, तो यह ऐसा कुछ नहीं है जिसे लोगों को समझने की जरूरत हो। कुछ लोग कहते हैं, “लेकिन मामले की तह तक अवश्य जाना चाहिए, है ना? भले ही इसमें मरना शामिल हो, तुम्हें पता होना चाहिए कि क्यों।” क्या यही वह रवैया है, जो एक सृजित प्राणी में होना चाहिए? जब परमेश्वर ने तुम्हें समझने नहीं दिया, तो क्या तुम्हें समझना चाहिए? जब तुमसे कुछ करने के लिए कहा जाए, तो तुम उसे करो। चीजों को इतना जटिल क्यों बनाते हो? अगर परमेश्वर चाहता कि तुम समझो, तो वह तुम्हें पहले ही समझा चुका होता; यह देखते हुए कि उसने नहीं समझाया है, तुम्हें समझने की कोई आवश्यकता नहीं है। जब तुम्हें समझने की आवश्यकता न हो, और जब तुम समझने में असमर्थ हो, तो सब-कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि तुम कैसे कार्य करते हो और तुम परमेश्वर के प्रति समर्पित हो सकते हो या नहीं। यह तुम लोगों के लिए कठिन है, है ना? ऐसी परिस्थितियों में तुम लोग समर्पित नहीं होते, और तुम्हारे पास शिकायत, गलत व्याख्या और प्रतिरोध के सिवाय कुछ नहीं बचता। तुम लोगों में जो प्रदर्शित होता है, अब्राहम उसके ठीक विपरीत था। तुम लोगों की तरह वह भी नहीं जानता था कि परमेश्वर क्या करने वाला है, न ही वह परमेश्वर के कार्यों के पीछे के तर्क को जानता था; वह इसे नहीं समझा। क्या वह पूछना चाहता था? क्या वह जानना चाहता था कि क्या चल रहा है? वह चाहता था, लेकिन जब परमेश्वर ने उसे नहीं बताया, तो वह और कहाँ पूछने जा सकता था? वह किससे पूछ सकता था? परमेश्वर के मामले एक रहस्य हैं; परमेश्वर के मामलों से संबंधित सवालों के जवाब कौन दे सकता है? उन्हें कौन समझ सकता है? मनुष्य परमेश्वर की जगह नहीं ले सकता। किसी और से पूछोगे, तो वे भी नहीं समझेंगे। तुम इसके बारे में सोच सकते हो, लेकिन तुम इसका पता नहीं लगा पाओगे, यह तुम्हारी समझ से बाहर होगा। तो, अगर तुम्हें कोई चीज समझ में न आए, तो क्या इसका मतलब यह है कि तुम्हें वह नहीं करना है, जो परमेश्वर कहता है? अगर तुम्हें कोई चीज समझ में नहीं आती, तो क्या तुम बस देखते रह सकते हो, हीला-हवाला कर सकते हो, अवसर की प्रतीक्षा कर सकते हो और कोई अन्य विकल्प तलाश सकते हो? अगर तुम कोई चीज नहीं समझ सकते—अगर वह तुम्हारी समझ से बाहर है—तो क्या इसका मतलब यह है कि तुम्हें समर्पण नहीं करना है? क्या इसका मतलब यह है कि तुम अपने मानवाधिकारों से चिपके रह सकते हो और कह सकते हो, “मेरे पास मानवाधिकार हैं; मैं एक स्वतंत्र व्यक्ति हूँ, तो तुम्हें मुझसे मूर्खतापूर्ण चीजें करवाने का क्या अधिकार है? मैं स्वर्ग और पृथ्वी के बीच ऊँचा खड़ा हूँ—मैं तुम्हारी अवज्ञा कर सकता हूँ”? क्या अब्राहम ने यही किया? (नहीं।) चूँकि वह मानता था कि वह सिर्फ एक साधारण और मामूली सृजित प्राणी है, एक ऐसा व्यक्ति है जो परमेश्वर की संप्रभुता के अधीन है, इसलिए उसने आज्ञापालन और समर्पण करने, परमेश्वर के किसी भी वचन को हलके में न लेने, बल्कि उनका पूरी तरह से अभ्यास करने का चुनाव किया। परमेश्वर लोगों से जो कुछ भी कहता है, और परमेश्वर उनसे जो कुछ भी करने के लिए कहता है, उनके संबंध में लोगों के पास कोई अन्य विकल्प नहीं है; उन्हें सुनना चाहिए, और सुनने के बाद उन्हें जाकर उसे अभ्यास में लाना चाहिए। इतना ही नहीं, उसे अभ्यास में लाते समय लोगों को उसका पूरी तरह से अभ्यास करना चाहिए और मन की शांति के साथ समर्पण करना चाहिए। अगर तुम स्वीकारते हो कि परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर है, तो तुम्हें उसके वचनों का पालन करना, चाहिए; उसके लिए अपने दिल में स्थान रखना चाहिए और उसके वचनों को अभ्यास में लाना चाहिए। अगर परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर है, तो तुम्हें उसका विश्लेषण करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए जो वह तुमसे कहता है; वह जो कुछ भी कहता है उसका पालन किया जाना चाहिए, चाहे तुम उसे समझो या न समझो। महत्वपूर्ण बात यह है कि वह जो कहता है, तुम्हें उसे स्वीकार कर उसके प्रति समर्पण करना चाहिए। यही वह रवैया था जो अब्राहम का था जब परमेश्वर के वचनों की बात आई। ठीक अपने इस रवैये के कारण ही अब्राहम परमेश्वर के वचनों का पालन करने में सक्षम था, परमेश्वर ने उसे जो करने की आज्ञा दी थी उसके प्रति समर्पित होने में सक्षम था, और वह ऐसा व्यक्ति बन सकता था जो परमेश्वर की नजर में धार्मिक और पूर्ण है। यह इस तथ्य के बावजूद था कि उन सभी अभिमानी और नकचढ़े लोगों की नजर में अब्राहम अपनी आस्था की खातिर अपने ही बेटे के जीवन की अवहेलना करके उसे मारने के लिए यूँ ही वेदी पर रखकर मूर्ख और दिखाई दिया। उन्होंने सोचा कि यह कितना गैर-जिम्मेदाराना कृत्य है; वह कितना अक्षम और हृदयहीन पिता है, और अपने विश्वास की खातिर ऐसा काम करने के कारण वह कितना स्वार्थी है! अब्राहम सभी लोगों की नजर में इसी प्रकार देखा गया। लेकिन क्या परमेश्वर ने उसे ऐसे ही देखा? नहीं। परमेश्वर ने उसे कैसे देखा? अब्राहम परमेश्वर ने जो कहा उसका पालन करने और उसके प्रति समर्पित होने में सक्षम था। वह किस हद तक समर्पित होने में सक्षम था? उसने बिना कुछ कहे-सुने ऐसा किया। जब परमेश्वर ने उससे वह माँगा जो उसके लिए सबसे कीमती था, तो अब्राहम ने बच्चे को परमेश्वर के लिए बलिदान करते हुए उसे परमेश्वर को लौटा दिया। अब्राहम ने हर उस चीज का पालन और उसके प्रति समर्पण किया, जो परमेश्वर ने उससे कही थी। चाहे मनुष्य की धारणाओं के चश्मे से देखा जाए या भ्रष्ट लोगों की आँखों से देखा जाए, परमेश्वर का अनुरोध अत्यधिक अनुचित प्रतीत हुआ, फिर भी अब्राहम समर्पित होने में सक्षम था; यह उसकी ईमानदारी की बदौलत था, जो परमेश्वर के प्रति सच्ची आस्था और समर्पण से चिह्नित थी। यह सच्ची आस्था और समर्पण कैसे परिलक्षित हुआ? सिर्फ दो शब्दों में : उसकी आज्ञाकारिता। एक सच्चे सृजित प्राणी के लिए इससे अधिक अनमोल या मूल्यवान कुछ भी नहीं है, और कुछ भी इससे अधिक दुर्लभ और प्रशंसनीय नहीं है। ठीक यही वह सबसे कीमती, दुर्लभ और प्रशंसनीय चीज है, जो आज परमेश्वर के अनुयायियों में एकदम अनुपस्थित है।

आज लोग शिक्षित और जानकार हैं। वे आधुनिक विज्ञान को समझते हैं और पारंपरिक संस्कृति और भ्रष्ट सामाजिक रीति-रिवाजों से गहराई से संक्रमित, अनुकूलित और प्रभावित हुए हैं; उनका दिमाग गोल-गोल घूमता है, उनके पास जटिल धारणाएँ हैं, और भीतर से वे पूरी तरह से अस्त-व्यस्त हैं। कई वर्षों तक उपदेश सुनने, और यह स्वीकार और विश्वास करने के बाद भी कि परमेश्वर सभी चीजों का संप्रभु है, वे परमेश्वर के प्रत्येक वचन के प्रति एक उपेक्षापूर्ण और उदासीन रवैया रखते हैं। इन वचनों के प्रति उनका रवैया उन्हें नजरअंदाज करने का होता है; वह उनकी ओर से आँख मूँदने और उन पर कान न देने का होता है। यह किस तरह का व्यक्ति है? ऐसे लोग हर चीज के बारे में “क्यों” कहते हैं; उन्हें हर चीज का पता लगाने और उसे अच्छी तरह से समझने की आवश्यकता महसूस होती है। वे सत्य के प्रति बहुत गंभीर प्रतीत होते हैं; बाहरी तौर पर उनका व्यवहार, उनके द्वारा चुकाई जाने वाली कीमत, और उनके द्वारा छोड़ी जाने वाली चीजेंपरमेश्वर में आस्था और विश्वास के प्रति एक अदम्य रवैये का संकेत देती हैं। लेकिन, खुद से यह पूछो : क्या तुम लोगों ने परमेश्वर के वचन और उसके हर निर्देश का पालन किया है? क्या तुम लोगों ने उन सभी को लागू किया है? क्या तुम लोग आज्ञाकारी हो? अगर, अपने दिलों में तुम इन सवालों का जवाब “नहीं” और “मैंने नहीं किया” से देते रहते हो, तो भला तुम किस तरह का विश्वास रखते हो? तुम वास्तव में किस उद्देश्य से परमेश्वर में विश्वास करते हो? तुमने उस पर अपने विश्वास से भला क्या हासिल किया है? क्या ये चीजें पता करने लायक हैं? क्या वे गहराई से जानने लायक हैं? (हाँ।) तुम सभी लोग चश्मा पहनते हो; तुम आधुनिक, सभ्य लोग हो। तुम्हारे बारे में वास्तव में आधुनिक क्या है? तुम्हारे बारे में सभ्य क्या है? क्या “आधुनिक” और “सभ्य” होना यह साबित करता है कि तुम ऐसे व्यक्ति हो, जो परमेश्वर के वचनों का पालन करता है? ऐसी बातों का कोई मतलब नहीं है। कुछ लोग कहते हैं, “मैं उच्च शिक्षित हूँ, और मैंने धर्मशास्त्र का अध्ययन किया है।” कुछ लोग कहते हैं, “मैंने शास्त्रीय बाइबल कई बार पढ़ी है, और मैं हिब्रू बोलता हूँ।” कुछ लोग कहते हैं, “मैं कई बार इस्राएल गया हूँ, और मैंने व्यक्तिगत रूप से उस सलीब को छुआ है जिसे प्रभु यीशु ने उठाया था।” कुछ लोग कहते हैं, “मैं अरारत पर्वत पर गया हूँ और मैंने जहाज के अवशेष देखे हैं।” कुछ लोग कहते हैं, “मैंने परमेश्वर को देखा है,” और “मैं परमेश्वर के सामने उन्नत किया गया हूँ।” इन सबका क्या उपयोग है? परमेश्वर तुमसे कुछ नहीं माँगता, बस तुम उसके वचनों का गंभीरता से पालन करो। अगर यह तुम्हारे वश के बाहर है, तो बाकी सब-कुछ भूल जाओ; तुम जो कुछ भी कहोगे, वह किसी काम का नहीं होगा। तुम सभी नूह और अब्राहम की कहानियाँ जानते हो, लेकिन केवल कहानियाँ जानना अपने आप में बेकार है। क्या तुम लोगों ने कभी इस बारे में सोचा है कि इन दो लोगों में सबसे दुर्लभ और प्रशंसनीय क्या था? क्या तुम लोग उनके जैसे बनना चाहते हो? (हाँ।) तुम यह कितना चाहते हो? कुछ लोग कहते हैं, “मैं सचमुच उनके जैसा बनना चाहता हूँ; जब भी मैं खा रहा होता हूँ, सपने देख रहा होता हूँ, अपना काम कर रहा होता हूँ, परमेश्वर के वचन पढ़ रहा होता हूँ और भजन सीख रहा होता हूँ, तो मैं इसके बारे में सोचता हूँ। मैंने इसके लिए कई बार प्रार्थना की है, और एक मन्नत भी लिखी है। अगर मैं परमेश्वर के वचनों का पालन न करूँ, तो वह मुझे शाप दे। बस मैं यह नहीं जानता कि परमेश्वर कब मुझसे बात करता है; ऐसा नहीं है कि वह आकाश में गरज के साथ मुझसे बोलता हो।” इन सबका क्या उपयोग है? तुम्हारे यह कहने का क्या मतलब है कि, “मैं सचमुच चाहता हूँ”? (यह केवल खयाली पुलाव है; यह केवल एक अभिलाषा है।) अभिलाषा का क्या उपयोग है? यह उस जुआरी की तरह है, जो रोजाना जुआघर जाता है; यहाँ तक कि जब वह सब-कुछ खो देता है, तब भी वह जुआ खेलना चाहता है। कभी-कभी वह सोच सकता है, “बस एक कोशिश और, और फिर मैं वादा करता हूँ कि मैं छोड़ दूँगा और फिर कभी जुआ नहीं खेलूँगा।” वे एक ही बात सोचते हैं, चाहे वे सपने देख रहे हों या खा रहे हों, लेकिन इसके बारे में सोचने के बाद वे फिर भी वापस जुआघर चले जाते हैं। हर बार जब वे जुआ खेलते हैं, तो वे कहते हैं कि यह आखिरी बार होगा; और हर बार जब वे जुआघर के दरवाजे से निकलते हैं, तो वे कहते हैं कि वे कभी वापस नहीं आएँगे—परिणाम यह होता है कि जीवन भर की कोशिशों के बाद भी वे कभी नहीं छोड़ पाते। क्या तुम लोग उस जुआरी की तरह हो? तुम बार-बार चीजें करने का संकल्प लेते हो और फिर अपने संकल्पों से मुकर जाते हो, परमेश्वर को धोखा देना तुम्हारी गहरी आदत है और इसे बदलना आसान नहीं है।

III. यह उजागर करना कि आज के लोग परमेश्वर के वचनों को कैसे लेते हैं

मेरे द्वारा अभी सुनाई गई कहानियों का विषय-क्षेत्र क्या था? (परमेश्वर के प्रति रवैयों के बारे में और इस बारे में कि मुसीबतें आने पर कैसे हम परमेश्वर के वचन का पालन कर उसके प्रति समर्पित हो सकते हैं।) इन दो कहानियों ने तुम लोगों को कौन-सी मुख्य बात सिखाई? (आज्ञापालन और समर्पण करना, और परमेश्वर के वचन की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य करना।) आज्ञापालन करना और परमेश्वर के वचनों का पालन करने का अभ्यास करना सीखना महत्वपूर्ण है। तुम कहते हो कि तुम परमेश्वर के अनुयायी हो, कि तुम एक सृजित प्राणी हो, कि तुम परमेश्वर की नजर में इंसान हो। लेकिन तुम जो जीते और अभिव्यक्त करते हो, उसमें, परमेश्वर के वचनों को सुनने के बाद आने वाले समर्पण या अभ्यास का कोई संकेत नहीं मिलता। तो क्या तुम पर लागू किए जाने पर “सृजित प्राणी”, “ऐसा व्यक्ति जो परमेश्वर का अनुगमन करता है” और “परमेश्वर की नजर में इंसान” शब्दों के बाद प्रश्नचिह्न होने चाहिए? और इन प्रश्नचिह्नों को देखते हुए, तुम्हारे पास उद्धार की कितनी बड़ी आशा है? यह अज्ञात है, इसकी संभावनाएँ बहुत कम हैं, और तुम स्वयं यह कहने की हिम्मत नहीं करते। पहले, मैंने परमेश्वर के वचनों का पालन कैसे किया जाए, इस बारे में दो उत्कृष्ट कहानियाँ सुनाईं। जिस किसी ने भी बाइबल पढ़ी है और कई वर्षों तक परमेश्वर का अनुसरण किया है, वह इन दोनों कहानियों से पहले से ही परिचित है। लेकिन इन कहानियों को पढ़कर किसी ने भी सबसे महत्वपूर्ण सत्यों में से एक सत्य प्राप्त नहीं किया है : परमेश्वर के वचनों का पालन करना। अब जबकि हमने परमेश्वर के वचनों का पालन कैसे करें, इसकी कहानियाँ सुन ली हैं, तो हम परमेश्वर के वचनों की अवज्ञा करने वाले लोगों की कहानियों की ओर मुड़ते हैं। चूँकि परमेश्वर के वचनों की अवज्ञा करने का उल्लेख हुआ, इसलिए ये आज के लोगों की कहानियाँ होनी चाहिए। मैं जो कुछ कहता हूँ, उसमें से कुछ सुनने में असहज हो सकता है, वह तुम लोगों के गौरव और आत्मसम्मान को चोट पहुँचा सकता है, और उसमें यह दिखाया जाएगा कि तुम लोगों में निष्ठा और गरिमा की कमी है।

जमीन का एक टुकड़ा है, जिस पर मैंने कुछ लोगों को सब्जियाँ लगाने के लिए कहा। वह इसलिए कि अपना कर्तव्य का पालन करने वाले लोगों को कुछ जैविक भोजन मिल सके, और उन्हें कीटनाशक छिड़की अजैविक सब्जियाँ न खरीदनी पड़ें। यह एक अच्छी बात थी, है ना? एक तरह से सभी एक बड़े परिवार की तरह एक-साथ रहते हैं, और सभी समाज की प्रवृत्तियों और कलह से दूरी बनाकर एक-साथ परमेश्वर में विश्वास करने में सक्षम हैं। ऐसा परिवेश बनाने से हर कोई अपने कर्तव्य करने पर ध्यान दे पाता है। यह छोटे पैमाने के परिप्रेक्ष्य से है। बड़े पैमाने के परिप्रेक्ष्य से, अपना कर्तव्य करने वालों द्वारा खाई जाने वाली सब्जियाँ लगाना और परमेश्वर का समाचार फैलाने में अपनी भूमिका निभाना भी उपयुक्त है। जब मैं कहता हूँ, “अपने आसपास के अपना कर्तव्य करने वाले लोगों के खाने के लिए कुछ सब्जियाँ लगाओ,” तो क्या इन वचनों को समझना काफी आसान नहीं है? जब मैंने एक व्यक्ति-विशेष को ऐसा करने के लिए कहा, तो वह समझ गया, और उसने कुछ सामान्य रूप से खाई जाने वाली सब्जियाँ लगाईं। मुझे लगता है कि सब्जियाँ लगाने जैसी चीज आसान है। सभी साधारण लोग इसे कर सकते हैं। यह सुसमाचार फैलाने या कलीसिया के कार्य की विभिन्न मदों जितना कठिन नहीं है। इसलिए मैंने इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। कुछ समय बाद मैं वहाँ गया और देखा कि वे सभी अपनी लगाई हुई सब्ज़ियाँ खुद खा रहे थे, और सुना कि कभी-कभी कुछ सब्जियाँ बच जाती थीं, जिसे वे मुर्गियों को खिला देते थे। मैंने कहा, “तुमने वे सभी सब्जियाँ लगाईं, और अच्छी फसल उगाई। क्या तुम लोग उनमें से कुछ सब्जियाँ किसी कलीसिया को भेजते हो? क्या अन्य कलीसियाओं के लोगों को हमारे द्वारा उगाई गई सब्जियाँ खाने को मिलीं?” कुछ लोगों ने कहा कि उन्हें नहीं पता। कुछ लोगों ने कहा कि अन्य जगहों पर लोगों ने अपनी ही सब्जियाँ खरीदीं और यहाँ से सब्जियाँ नहीं खाईं। सभी ने अलग-अलग बातें कहीं। किसी ने इसकी परवाह नहीं की; अगर उनके पास खाने के लिए कुछ सब्जियाँ थीं, तो उन्हें लगा कि कोई समस्या नहीं है। क्या यह घृणास्पद नहीं है? मैंने बाद में प्रभारी व्यक्ति से कहा, “तुम लोग जो कुछ उगाते हो, उसे खाना तुम्हारे लिए पूरी तरह से उचित है, लेकिन अन्य लोगों को भी खाना होता है। क्या यह सही है कि तुम लोगों ने इतनी सब्जियाँ उगाईं और तुम सारी सब्जियाँ नहीं खा सके, जबकि अन्य जगहों पर अभी भी सब्जियाँ खरीदनी पड़ती हैं? क्या मैंने तुमसे नहीं कहा था कि ये सब्जियाँ केवल तुम लोगों के खाने के लिए ही नहीं लगाई जा रही हैं—तुम्हें इन्हें आसपास की दूसरी कलीसियाओं को भी भेजना है?” क्या तुम लोगों को लगता है कि मुझे उन्हें बताते रहना चाहिए कि क्या करना है और इस छोटे-से मामले में स्पष्ट नियम बनाने चाहिए? क्या मुझे इसके बारे में सभी को सभा के लिए एक-साथ बुलाकर एक उपदेश आयोजित करते हुए कोई बड़ी धूमधाम करने की जरूरत थी? (नहीं।) मुझे भी ऐसा नहीं लगता। क्या यह संभव है कि लोगों में इस छोटी-सी विचारशीलताकी भी कमी हो? अगर हाँ, तो वे मनुष्य नहीं होंगे। इसलिए मैंने उस व्यक्ति से फिर कहा, “जल्दी करो और उन्हें अन्य कलीसियाओं में भेज दो। जाओ और इसे पूरा करवाओ।” “ठीक है,” उसने कहा, “मैं देखूँगा।” उसका यही रवैया था। कुछ समय बाद मैं फिर वहाँ गया और खेत में बहुत बड़ी मात्रा में उन सभी किस्मों की सब्जियाँ उगी देखीं, जिनकी कि कल्पना की जा सकती है। मैंने उन लोगों से पूछा, जिन्होंने उन्हें उगाया था, कि क्या उन्होंने बड़ी फसल काटी है। उन्होंने कहा कि सब्जियाँ इतनी ज्यादा हुई थीं कि वे उन सभी को नहीं खा सकते थे, और उनमें से कुछ सड़ गई थीं। मैंने फिर पूछा कि क्या उन्होंने पास की कलीसियाओं में कुछ सब्जियाँ भेजी थीं। उन्होंने उत्तर दिया कि वे नहीं जानते, उन्हें पक्का नहीं पता। यह बात उन्होंने बहुत अस्पष्टता और अनमने ढंग से कही। यह स्पष्ट था कि किसी ने भी इस मामले को गंभीरता से नहीं लिया था। जब तक उनके पास खाने के लिए भोजन था, उन्हें किसी और की परवाह नहीं थी। एक बार फिर मैं प्रभारी व्यक्ति की तलाश में गया। मैंने उससे पूछा कि क्या उन्होंने कलीसियाओं को सब्जियाँ भेजी थीं। उसने कहा कि भेजी थीं। मैंने पूछा कि सुपुर्दगी कैसे हुई। उसने कहा कि उन्हें सुपुर्दगी हो गई है। इस बिंदु पर, क्या यह तुम लोगों को लगता है कि कोई समस्या थी? इन लोगों का रवैया ठीक नहीं था। अपना कर्तव्य करते समय उनमें वफादारी और जिम्मेदारी का रवैया नहीं था, जो कि घृणास्पद है—लेकिन आगे की बात और भी घिनौनी थी। बाद में मैंने आसपास की कलीसियाओं के भाई-बहनों से पूछा कि क्या उन्हें कोई सब्जियों की सुपुर्दगी मिली है। “वे भेजी गई थीं,” उन्होंने जवाब दिया, “लेकिन वे बाजार के फर्श पर फिंकी हुई सब्जियों से भी बदतर हालत में थीं। वे रेत और कंकड़ मिले सड़े हुए पत्तों के अलावा कुछ नहीं थीं। वे खाने लायक नहीं थीं।” यह सुनकर तुम लोगों को कैसा महसूस होता है? क्या तुम्हारे दिल में गुस्सा है? क्या तुम क्रोधित हो? (हाँ।) और अगर तुम सभी लोग क्रोधित हो, तो क्या तुम लोगों को लगता है कि मुझे गुस्सा आया होगा? उन्होंने अनिच्छा से कुछ सब्जियाँ भेज दीं, लेकिन खराब तरीके से। और इस खराब प्रदर्शन के लिए कौन जिम्मेदार था? उस जगह एक बुरा व्यक्ति था, जिसने उन सब्जियों को बाहर जाने से रोका। मेरे द्वारा सब्जियाँ पहुँचाने का आदेश दिए जाने के बाद उसने क्या कहा? “चूँकि तुम मुझसे ऐसा करने के लिए कह रहे हो, इसलिए मैं उन्हें भेजने के लिए कुछ सड़े हुए पत्ते और सब्जियाँ एक-साथ रखूँगा, जिन्हें हम नहीं खाना चाहते। इसे भी सुपुर्दगी माना जाता है, है न?” इसका पता चलने पर मैंने आदेश दिया कि दानवी कचरे के इस टुकड़े को बाहर फेंक दिया जाए। यह कैसी जगह थी, जहाँ वह एक तानाशाह की तरह व्यवहार करने की हिम्मत करे? यह परमेश्वर का घर है। यह समाज नहीं है और यह कोई मुक्त बाजार भी नहीं है। अगर तुम यहाँ गुस्से से भड़ककर तानाशाह की तरह व्यवहार करते हो, तो तुम्हारा यहाँ स्वागत नहीं है और मैं तुम्हारा अपनी नाक के नीचे रहना बरदाश्त नहीं सकता, जल्दी से दफा हो जाओ! मुझसे जितनी दूर हो सके चले जाओ, जहाँ से आए हो वापस वहीं चले जाओ! क्या तुम लोगों को लगता है कि मेरा इससे इस तरह निपटना सही था? (हाँ।) क्यों? (इस तरह के व्यक्ति मानवता से बहुत रहित होते हैं।) तो मानवता से रहित कुछ लोगों को चलता क्यों नहीं किया गया? कुछ लोगों में जमीर या विवेक नहीं होता और वे सत्य का अनुसरण नहीं करते, लेकिन वे बुरी चीजें नहीं करते, कलीसिया के काम में बाधा नहीं डालते, दूसरे लोगों के कर्तव्य-प्रदर्शन या कलीसियाई जीवन को प्रभावित नहीं करते। ऐसे लोगों को अभी सेवा प्रदान करने के लिए रख लिया जाना चाहिए, लेकिन जब वे बुरे काम करें और व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करें, तो उन्हें अभी भी दरवाजा दिखाया जा सकता है। तो मुझे उस कचरे के टुकड़े को क्यों फेंकना पड़ा? वह एक तानाशाह की तरह काम करना और परमेश्वर के घर में हुक्म चलाना चाहता था। उसने भाई-बहनों के सामान्य जीवन को प्रभावित किया और परमेश्वर के घर के काम बुरा असर डाला। कुछ लोगों ने कहा कि वह बहुत स्वार्थी, बहुत आलसी था, कि उसने अपना कर्तव्य अनमने ढंग से किया। क्या ऐसा ही था? वह सभी भाई-बहनों से मुकाबला करना चाहता था, उन सभी से मुकाबला करना चाहता था जो कोई कर्तव्य करते हैं, और वह परमेश्वर से मुकाबला करना चाहता था। वह परमेश्वर के घर पर अधिकार करना चाहता था। वह परमेश्वर के घर में निर्णायक बनना चाहता था। अगर वह हुक्म चलाना चाहता था, तो उसने कुछ अच्छा किया होता। लेकिन उसने कुछ अच्छा नहीं किया। उसने जो कुछ भी किया, उससे परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान हुआ और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को चोट पहुँची। क्या तुम लोग ऐसे किसी व्यक्ति को बरदाश्त कर सकते हो? (नहीं।) और अगर तुम लोगों में से कोई बरदाश्त नहीं कर सकता, तो क्या तुम्हें लगता है कि मैं बरदाश्त कर सकता था? आज भी ऐसे लोग हैं, जो इस तथ्य से नाखुश हैं कि बुरा व्यक्ति बाहर निकाल दिया गया। वे उसकी असलियत नहीं देख पाते, और फिर भी अपने मन में मुझसे लड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं। आज भी ऐसे लोग हैं, जो उस व्यक्ति के उल्लेख पर अभी भी नहीं सोचते कि मैंने इस मामले को उचित रूप से सँभाला है, जो सोचते हैं कि परमेश्वर का घर धार्मिक नहीं है। यह कैसा गिरोह है? क्या तुम लोग जानते हो कि इस व्यक्ति ने स्वयं द्वारा उगाई गई चीनी गोभी बोक चॉय को खेत से कैसे उखाड़ा? आम तौर पर तुम खाने के लिए पूरे डंठल को बाहर निकालते हो, है ना? क्या कोई सिर्फ पत्तियाँ तोड़ता है? (नहीं।) खैर, इस विचित्र व्यक्ति ने दूसरों को डंठल के साथ पूरा पौधा बाहर नहीं निकालने दिया; उसने उनसे सिर्फ पत्तियाँ तोड़ने के लिए कहा। यह पहली बार था, जब मैंने इस तरह की चीज देखी। तुम लोगों को क्या लगता है कि उसने ऐसा क्यों किया? उसने दूसरों को पूरा पौधा क्यों नहीं निकालने दिया? क्योंकि अगर वे पूरा पौधा बाहर निकाल देते, तो खेत खाली हो जाता, और उसे दोबारा काम करना पड़ता और फिर से पौध लगानी पड़ती। मुसीबत से बचने के लिए उसने दूसरों से केवल पत्तियाँ तोड़ने को कहा। जब उसने लोगों से ऐसा करने को कहा, तो किसी ने भी उसका विरोध करने की हिम्मत नहीं की। वे उसके दासों के समान थे—उन्होंने वह सब किया, जो उसने कहा। उसने वहाँ हुक्म चलाया। तो क्या तुम लोगों को लगता है कि उससे पिंड न छुड़ाना स्वीकार्य होता? (नहीं।) ऐसे व्यक्ति को रहने देना अभिशाप होता। जब वह कभी-कभी कुछ अच्छा भी प्रदर्शित करता है, तो ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इसमें उसके अपने हित शामिल नहीं होते। जो कुछ भी वह करता है, उसे ध्यान से देखो : ऐसी एक भी चीज नहीं होती जो दूसरों के हितों को बाधित न करती हो और उन्हें नुकसान न पहुँचाती हो, ऐसी एक भी चीज नहीं होती जो परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान न पहुँचाती हो। यह व्यक्ति एक दानव के रूप में जन्मा था, वह खुद को परमेश्वर के खिलाफ खड़ा करता है और वह एक मसीह-विरोधी है। क्या ऐसे व्यक्ति को परमेश्वर के घर में रहने दिया जा सकता है? क्या वह कोई कर्तव्य करने के योग्य है? (नहीं।) और फिर भी कुछ लोग ऐसे व्यक्ति का बचाव करने की कोशिश करते हैं। वे कितने भ्रमित हैं? क्या यह घृणास्पद नहीं है? क्या तुम यह दिखाने की कोशिश कर रहे हो कि तुममें प्रेम है? अगर तुममें प्रेम है तो करो उसका भरण-पोषण; अगर तुममें प्रेम है तो उसे पहुँचाने दो तुम्हें हानि—लेकिन उसे परमेश्वर के घर के हितों को हानि मत पहुँचाने दो! अगर तुममें प्रेम है तो जब उसे दूर किया जाए, चले जाओ उसके साथ—तुम अभी भी यहाँ मँडराते हुए क्या कर रहे हो? क्या ये लोग आज्ञाकारी और समर्पित हैं? (नहीं।) वे दानवों के एक गिरोह के रूप में पैदा हुए थे। उस व्यक्ति ने मेरे द्वारा कही गई हर बात की अवज्ञा की। अगर मैंने पश्चिम कहा होता, तो वह पूर्व की ओर जाता, और अगर मैं पूर्व कहता, तो वह पश्चिम की ओर जाता। उसने हर चीज में मेरा विरोध करने पर जोर दिया। उसके लिए मेरा थोड़ा-सा भी आज्ञापालन करना इतना कठिन क्यों था? क्या मेरे द्वारा उसे दूसरे भाई-बहनों को सब्जियाँ भेजने के लिए कहने का मतलब यह था कि वह अपने हिस्से से वंचित रह जाएगा? क्या मैं उसे इन सब्जियों को खाने के अधिकार से वंचित कर रहा था? (नहीं।) तो उसने उन्हें क्यों नहीं भेजा? उसे उन्हें स्वयं तो ले जाना नहीं था, उसे अपनी ओर से तो कोई प्रयास करना नहीं था। लेकिन न केवल उसने दूसरों को कोई अच्छी सब्जी नहीं दी, बल्कि उसने उन्हें सड़ी हुई सब्जियाँ दीं। कितना बुरा होगा वह, जो उसने ऐसा किया? क्या उसे मनुष्य माना जा सकता है? मैंने उससे सब्जियाँ भेजने के लिए कहा था, कचरा नहीं। इतनी सरल, इतनी आसान, हाथ हिलाने भर की बात थी, लेकिन वह इतना भी नहीं कर सका। क्या यह मनुष्य है? अगर ऐसा कुछ भी तुम्हारे वश से बाहर है, तो तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण का दावा कैसे कर सकते हो? तुम सींग मारते हो, तुम पलटवार करते हो, और फिर भी तुम परमेश्वर के घर में मुफ्तखोरी करने का प्रयास करते हो। क्या ऐसा कभी हो सकता है? आज भी ऐसे लोग हैं, जो भूले नहीं हैं : “तुमने एक बार हमारी भावनाओं को आहत किया। तुमने एक बार हममें से कई लोगों को बाहर निकाल दिया, लेकिन हम सहमत नहीं हुए; हम चाहते थे कि वे रहें, लेकिन तुम उन्हें मौका नहीं दोगे। क्या तुम एक धार्मिक परमेश्वर हो?” क्या तुम लोगों को लगता है कि दानव कभी कहेंगे कि परमेश्वर धार्मिक है? (कभी नहीं।) वे मुँह से भले ही कहते हों कि परमेश्वर धार्मिक है, लेकिन जब परमेश्वर कार्य करता है, तो यह उन्हें स्वीकार्य नहीं होता; वे खुद को परमेश्वर की धार्मिकता की स्तुति करने के लिए नहीं ला पाते। वे दानव और पाखंडी हैं।

सब्जियाँ देने जैसी छोटी-सी बात भी क्या दिखाती है? क्या लोगों के लिए परमेश्वर के प्रति समर्पित होना और और परमेश्वर के वचनों का पालन करना आसान है? (नहीं।) लोग परमेश्वर द्वारा प्रदान किया गया खाना खाते हैं, वे परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए घरों में रहते हैं, वे परमेश्वर द्वारा प्रदान की गई चीजें इस्तेमाल करते हैं—यह सब परमेश्वर से आता है। लेकिन जब परमेश्वर उनसे अपनी अतिरिक्त सब्जियाँ दूसरों के साथ साझा करने के लिए कहता है, तो क्या वे समर्पणशील होते हैं? क्या ये वचन उनमें फलीभूत हो सकते हैं? लोगों में वे हो सकते हैं। उन्हें कार्यान्वित किया जा सकता है। लेकिन दानवों, शैतानों और मसीह-विरोधियों में वे कभी फलीभूत नहीं होंगे। उस व्यक्ति ने अपने मन में सोचा, “अगर मैं ये सब्जियाँ भेज दूँ, तो क्या किसी को मेरा यह अच्छा कर्म याद रहेगा? अगर दूसरे लोग इन सब्जियों को खाते हैं और कहते हैं कि यह परमेश्वर का अनुग्रह है, कि परमेश्वर ने मुझसे ऐसा करने के लिए कहा था, अगर वे सभी परमेश्वर को धन्यवाद देते हैं, तो मुझे कौन धन्यवाद देगा? परदे के पीछे का नायक मैं हूँ, मैं ही था जिसने मेहनत की। वह मैं ही था, जिसने सब्जियाँ लगाई थीं। तुम्हें मुझे धन्यवाद देना चाहिए। और अगर तुम नहीं देते, अगर तुम नहीं जानते कि वह मैं था जिसने यह किया, और फिर भी अगर तुम्हें लगता है कि तुम मेरे द्वारा उगाई गई सब्जियाँ खा सकते हो, तो तुम सपना देख रहे हो!” क्या ऐसा ही नहीं था जो उसने सोचा? और क्या यह बुरी बात नहीं है? यह बहुत बुरी बात है! कोई बुरा व्यक्ति सत्य का अभ्यास और परमेश्वर के वचनों का पालन भला कैसे कर सकता है? यह व्यक्ति एक दानव और शैतान के रूप में पैदा हुआ था। वह परमेश्वर के विरोध में खड़ा होता है, सत्य का प्रतिरोध करता है और सत्य से घृणा करता है। वह परमेश्वर के वचनों का पालन भला करने में असमर्थ है, तो क्या उसे उनका पालन करने की कोई आवश्यकता है? नहीं। तो ऐसे मामले से कैसे निपटा जाना चाहिए? उसे बाहर निकालो और उसका स्थान लेने के लिए किसी ऐसे को ढूँढ़ो जो आज्ञापालन कर सके। बस, यह इतना आसान है। चीजें इस तरह से सँभालना उपयुक्त है या नहीं? (यह उपयुक्त है।) मुझे भी ऐसा ही लगता है। अगर वह नहीं जाता, तो वह परेशानी का कारण बनेगा, और बाकी सबको नुकसान पहुँचाएगा। कुछ लोग कहते हैं, “क्या ऐसा है कि तुम इसलिए असंतुष्ट हो, क्योंकि उसने तुम्हारे वचनों का पालन नहीं किया? उसने बस इतना ही किया कि तुम्हारी अवज्ञा की—क्या यह इतनी गंभीर बात थी? तुमने उसे इतनी छोटी-सी बात पर चलता कर दिया, लेकिन उसने वास्तव में कुछ बुरा नहीं किया। उसने बस कुछ सड़ी हुई सब्जियाँ भेजीं, और कई बार ऐसा भी हुआ जब उसने कुछ भी नहीं भेजा और तुम्हारा आज्ञापालन नहीं किया। यह एक छोटी-सी बात है, है न?” क्या यही मामला है? (नहीं।) तो तुम लोगों को क्या लगता है कि मैं इसे कैसे देखता हूँ? इतनी छोटी-सी बात होने पर भी वह आज्ञापालन नहीं कर सका, बल्कि उसने यहाँ अनुचित तरीके से चीजें बाधित करने की कोशिश की। यह परमेश्वर का घर है, यहाँ कुछ भी उस व्यक्ति का नहीं था। यहाँ घास की हर पत्ती, हर पेड़, हर पहाड़ी, हर जलाशय—उसे इनमें से किसी भी चीज पर नियंत्रण करने या हुक्म चलाने का कोई अधिकार नहीं था। उसने हुक्म चलाने, अनुचित तरीके से चीजें बाधित करने की कोशिश की। वह था क्या? उसका कुछ भी नहीं लिया या इस्तेमाल किया जाना था, न ही उसका कुछ भी बाहर भेजा जाना था; उससे सिर्फ अपनी बाँहें हिलाकर अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने के लिए कहा गया था, लेकिन वह यह भी नहीं कर सका। चूँकि वह यह नहीं कर सका, इसलिए मैंने उसे विश्वासी नहीं माना, और उसे परमेश्वर के घर से बाहर जाना पड़ा, उसे हटा दिया गया! क्या मेरा ऐसा करना वाजिब था? (हाँ।) ये परमेश्वर के घर के प्रशासनिक आदेश हैं। अगर मैं ऐसे किसी बुरे आदमी को बुरा काम करते पाऊँ और उसे हटाऊँ नहीं, अगर मैं उसके प्रति कोई सख्त रवैया न दिखाऊँ, तो तुम लोगों को क्या लगता है, कितने लोगों को नुकसान पहुँचेगा? क्या इससे परमेश्वर का घर अस्त-व्यस्त नहीं हो जाएगा? और क्या परमेश्वर के घर के प्रशासनिक आदेश खोखले वचन नहीं बन जाएँगे? तो इन अवज्ञाकारी दानवों और मसीह-विरोधियों के संबंध में परमेश्वर के घर के प्रशासनिक आदेशों द्वारा क्या निर्धारित किया गया है, जो गड़बड़ी पैदा करते हैं, अनुचित रूप से चीजें बाधित करते हैं और बेशर्मी से कार्य करते हैं? उन्हें परमेश्वर के घर से हटाकर बाहर निकाल दो। उनसे भाई-बहनों का दर्जा छीन लो। वे परमेश्वर के घर के सदस्य नहीं गिने जाते। उनसे इस तरह निपटने के बारे में तुम क्या सोचते हो? ऐसे लोगों का सफाया कर दिए जाने के बाद सारा काम सुचारु रूप से आगे बढ़ेगा। दानव और शैतान सब्जियाँ खाने जैसी मामूली चीज का भी लाभ उठाना चाहते हैं। इसके बावजूद वे हुक्म चलाने की कोशिश करते हैं, और जो चाहते हैं वह करते हैं। हमने जो कुछ भी बात की है, वे छोटी-छोटी बातें हैं, लेकिन जो भी हो, वे समस्त सत्यों के सबसे मौलिक तत्त्व को छूती हैं। सबसे बुनियादी सत्य परमेश्वर के वचनों का पालन करना है। जो इतना भी नहीं कर सकते, उनका स्वभाव क्या है? क्या उनमें सामान्य लोगों का जमीर और विवेक होता है? बिलकुल नहीं। ये वे लोग हैं, जिनमें मानवता नहीं होती।

सब्जियों के साथ-साथ लोगों को अपने दैनिक जीवन में मांस और अंडों का भी सेवन करना चाहिए। इसलिए मैंने कुछ लोगों से कहा कि कुछ मुर्गियाँ पालो, और उन मुर्गियों को अनाज, सब्जियाँ और इसी तरह की चीजें खिलाओ। उनके रहने के लिए खुली जगह होनी चाहिए। इस तरह वे बाजार में बिकने वाले अंडों से बेहतर अंडे देंगी। मुर्गे का मांस भी जैविक होगा; कम से कम उसमें कोई हार्मोन नहीं होंगे, और जब लोग उसे खाएँगे तो वह उनके लिए नुकसानदेह नहीं होगा। मुर्गियाँ ज्यादा अंडे या मांस भले न दें, लेकिन गुणवत्ता की गारंटी होगी। क्या तुम समझते हो कि इससे मेरा क्या मतलब है? (हाँ।) तो फिर मुझे बताओ कि मैंने अभी-अभी जो कहा, उसमें कितनी चीजों की जानकारी है? पहली बात, इस तरह से मुर्गियों को पालने से हमें खाने के लिए कुछ जैविक अंडे मिलेंगे। चाहे हम जितने भी अंडे खा पाएँ, कम से कम हमें ऐसे अंडे नहीं खाने पड़ेंगे जिनमें जीवाणुनाशक हों। अंडों से तो यही अपेक्षित था। दूसरे, मांस से यह अपेक्षित था कि उसमें हार्मोन न हों, ताकि लोगों को उसे खाने में कोई हिचक न हो। क्या इनमें से कोई भी माँग बहुत बड़ी थी? (नहीं।) मैंने जो अनुरोध किए थे, वे न केवल हद से ज्यादा नहीं थे, बल्कि वे व्यावहारिक भी थे, है न? (हाँ।) बाद में चूजे खरीदे और पाले गए। जब उन्होंने अंडे देने शुरू किए, तो हमने अंडे खाए, लेकिन उनमें बहुत-कुछ सुपरमार्केट में खरीदे गए अंडों की तरह जीवाणुनाशकों का हलका-सा स्वाद आ रहा था। मैंने इस पर थोड़ा विचार किया : क्या वे उन्हें ऐसा चारा दे रहे थे, जिसमें जीवाणुनाशक थे? बाद में मैंने मुर्गियों की देखभाल करने वाले लोगों से पूछा कि मुर्गियाँ क्या चारा खा रही थीं, और उन्होंने कहा कि हड्डियों का चूरा। “हमारे लिए यह जरूरी नहीं कि ये मुर्गियों जल्दी अंडे देने लगें। उन्हें सामान्य, खुली जगह में पालने वाली पद्धतियों से चारा खिलाओ। उन्हें सामान्य रूप से अंडे देने दो,” मैंने कहा। “हम उन्हें बहुत सारे अंडे प्राप्त करने के लिए नहीं पाल रहे, बल्कि केवल इसलिए पाल रहे हैं कि हम जैविक अंडे खा सकें। बस इतना ही अपेक्षित है।” जब मैंने यह कहा, तो मेरा क्या मतलब था? मैं उनसे कह रहा था कि मुर्गियों को ऐसी कोई चीज न खिलाओ, जिसमें जीवाणुनाशक, हार्मोन आदि हों। मुर्गियों को दूसरी जगहों पर मुर्गियों द्वारा खाए जाने वाले चारे से अलग चारा दिया जाना था। दूसरी जगहों पर मुर्गियाँ केवल तीन महीनों में ही पूरी तरह से बड़ी कर दी जाती हैं, वे रोज अंडे देती हैं और उनका ठीक उस दिन तक अंडे देने वाली मशीनों के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, जब तक कि उनका वध नहीं कर दिया जाता। क्या इससे अच्छे अंडे मिलते हैं? और क्या मांस स्वादिष्ट होता है? (नहीं।) मैंने कहा कि मुर्गियाँ खुली जगह में पाली जाएँ, और उन्हें बाहर निकलकर कीड़े और घास-फूस खाने दिए जाएँ और फिर कुछ अनाज, दाने आदि खिलाए जाएँ। हालाँकि इससे अंडे थोड़े कम मिलेंगे, लेकिन उनकी गुणवत्ता बेहतर होगी; यह मुर्गियों के लिए भी अच्छा होगा और मनुष्यों के लिए भी। क्या मैंने जो कहा, उसे हासिल करना आसान था? (हाँ।) और क्या उसे समझना आसान था? क्या मैंने जो कहा, उसका पालन करने में कोई कठिनाई थी? (उसे समझना आसान था। वह मुश्किल नहीं था।) मुझे नहीं लगा कि इसमें कोई कठिनाई है। यह आसान था। मैंने उत्पादित अंडों की संख्या के बारे में कोई माँग नहीं की थी, केवल उनकी गुणवत्ता के बारे में माँग की थी। सामान्य विवेक रखने वाले और सामान्य तरीके से सोचने वाले लोग इसे सुनते ही समझ गए होते। वे महसूस करते कि यह आसान है, कि यह करने योग्य है, और इसके तुरंत बाद वे इसे पूरा कर लेते। इसे कहते हैं आज्ञाकारी होना। तो क्या मुर्गियाँ पालने वाले लोगों ने यही किया? क्या वे ऐसा करने में सक्षम थे? ऐसा करने में सक्षम होने का अर्थ होगा सामान्य मानवता का विवेक रखना। ऐसा करने में सक्षम न होने का अर्थ होगा कि कोई समस्या है। मेरे यह कहने के बाद जल्दी ही मौसम ठंडा हो गया। प्रकृति के सामान्य नियमों के आधार पर, इससे मुर्गियाँ अंडे देना बंद कर देती हैं। लेकिन एक बात बहुत अर्थपूर्ण थी : जब मौसम ठंडा हो गया, तो मुर्गियों ने कम अंडे नहीं दिए, उन्होंने ज्यादा अंडे दिए। रोज खाने के लिए अंडे होते थे, लेकिन उनकी जर्दी उतनी पीली नहीं थी जितनी पहले हुआ करती थी, और उनकी सफेदी सख्त से सख्त होती जा रही थी। अंडे निरंतर कम स्वादिष्ट होते जा रहे थे। क्या हो रहा था? मैंने कहा : “आखिर हो क्या रहा है? इन मुर्गियों के लिए सर्दी काटना पहले ही काफी मुश्किल है, अब तुम इन्हें लोगों के लिए अंडे देने पर बाध्य करने की कोशिश क्यों कह रहे हो? यह थोड़ा क्रूर है!” बाद में जब मैंने जाकर पूछा, तो पाया कि मुर्गियों को अभी भी वही चारा दिया जा रहा है, जो दूसरी जगहों पर खरीदा जा रहा था—चारा जो गारंटी देता था कि चाहे वसंत हो या गर्मी, शरद ऋतु या सर्दी, मुर्गियाँ अंडे देती रहेंगी। “आम तौर पर मुर्गियाँ इस मौसम में अंडे नहीं देतीं। हम अंडों के बिना रह सकते हैं। बस उनकी देखभाल करते रहो। वसंत ऋतु आने पर वे फिर से अंडे देना शुरू कर देंगी और वे अच्छी गुणवत्ता वाले अंडे होंगे,” मैंने कहा। “पेटू मत बनो। मैंने तुम्हें उन्हें लगातार अंडे देने पर बाध्य करने के लिए नहीं कहा था, न ही यह कहा था कि तुम सर्दियों में भी अंडे उपलब्ध कराओ। जब मैंने तुमसे नहीं कहा था, फिर तुम उन्हें वह चारा क्यों देते रहे जो तुमने खरीदा था? तुम्हें उन्हें दोबारा वह चारा खिलाना मना है।” क्या मेरी बात समझ में आई? पहली बात, मैंने यह माँग नहीं की थी कि खाने के लिए अंडे होने ही चाहिए, चाहे मौसम कोई भी हो। दूसरे, मैंने उनसे कहा था कि मुर्गियों को वह चारा मत दो, उनके अंडे देने की प्रक्रिया तेज मत करो। क्या यह छोटा-सा अनुरोध पूरा करना मुश्किल था? (नहीं।) लेकिन नतीजा यह हुआ कि कुछ समय बाद मैंने कुछ अंडे खाए, जो हमारी मुर्गियों ने फिर से दिए थे। मैंने मन ही मन कहा : यह समूह कितना भ्रमित है, ऐसा कैसे हो सकता है कि इन लोगों ने मेरे कहे का पालन नहीं किया? मुर्गियाँ अभी भी अंडे दे रही थीं, इसलिए उन्होंने निश्चित रूप से चारा नहीं बदला था—यही था जो चल रहा था।

मुर्गी-पालन के मामले में जो कुछ हुआ, उससे तुम लोग क्या समझ सकते हो? (यह कि लोग परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पित नहीं होते या उनका पालन नहीं करते।) कुछ लोगों ने कहा, “परमेश्वर के वचनों का पालन करना—अर्थात् परमेश्वर की इच्छा का पालन करना। जब बड़े और ऊँचे मामलों की बात आती है तो हमें आज्ञापालन करना चाहिए, ये वे मामले हैं जो परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर के कार्य के क्रियान्वयन और उसके प्रमुख कार्य से संबंधित हैं। तुम जिस बारे में बात कर रहे हो, वह रोज़मर्रा की जिदगी के तुच्छ मामलों से संबंधित है, जिसका परमेश्वर की इच्छा का पालन करने से कोई लेना-देना नहीं है—इसलिए हमें वैसा करने की जरूरत नहीं है, जैसा तुम कहते हो। तुम जिसके बारे में बात कर रहे हो, वह हमारे कर्तव्य से संबंधित नहीं है, न ही वह परमेश्वर के वचनों के प्रति हमारे समर्पण और आज्ञाकारिता से संबंधित है, इसलिए हमारा तुम्हारा विरोध करना, यह चुनना कि हम आज्ञापालन करें या नहीं, उचित है। इतना ही नहीं, तुम सामान्य मानव-जीवन के बारे में, पारिवारिक मामलों के बारे में क्या जानते हो? तुम उन्हें नहीं समझते, इसलिए तुम्हें बोलने का कोई अधिकार नहीं है। हम पर बकवास की बौछार मत करो—हमें इसमें तुम्हारा आज्ञापालन करने की ज़रूरत नहीं है।” क्या वे यही नहीं सोच रहे थे? और क्या ऐसा सोचना सही था? (नहीं।) गलती कहाँ थी? (परमेश्वर की इच्छा का पालन करना बड़े या छोटे मामलों में अंतर नहीं करता। अगर वे परमेश्वर के वचन हैं, तो लोगों को उनका पालन करना चाहिए और उन्हें समर्पित होकर उन्हें अमल में लाना चाहिए।) कुछ लोगों ने कहा, “मैं परमेश्वर के उन वचनों का पालन करता हूँ जो सत्य हैं। मुझे उन वचनों का पालन करने की आवश्यकता नहीं है जो सत्य नहीं हैं। मैं केवल सत्य के प्रति समर्पित होता हूँ। ‘परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने’ का अर्थ है परमेश्वर के मुख से निकले वचनों के उस भाग का अनुसरण, पालन और उसके प्रति समर्पण करना जो सत्य है। उसके जो वचन लोगों के जीवन से संबंधित हों, और जिनका सत्य से कोई संबंध न हो, उन्हें नजरअंदाज किया जा सकता है।” क्या यह समझ सही है? (नहीं।) तो तुम लोग सत्य और परमेश्वर के वचनों को कैसे देखते हो? क्या उन्होंने परमेश्वर के वचनों और सत्य के बीच अंतर नहीं किया? और क्या इसने सत्य को महज पुतली नहीं दिया? क्या उन्होंने सत्य को बहुत खोखला नहीं समझा? परमेश्वर द्वारा सभी चीजों की रचना, पेड़ों पर पत्तियों के आकार और रंग, फूलों के आकार और रंग, सभी चीजों का अस्तित्व और प्रसार—क्या इन सबका सत्य से कोई लेना-देना है? क्या इसका मनुष्य के उद्धार से कोई लेना-देना है? क्या मानव-शरीर की संरचना सत्य से जुड़ी है? इनमें से कोई भी सत्य से नहीं जुड़ा है, लेकिन ये सभी परमेश्वर से आते हैं। अगर इनमें से कोई भी सत्य से संबंधित नहीं है, तो क्या तुम उनके सही होने को स्वीकार नहीं कर सकते? क्या तुम उनके सही होने को नकार सकते हो? क्या तुम अपनी मर्जी से परमेश्वर की सृष्टि के नियम नष्ट कर सकते हो? (नहीं।) तो तुम्हारा रवैया क्या होना चाहिए? तुम्हें इसके कानूनों का पालन करना चाहिए। जब ऐसी चीजें होती हैं जिन्हें तुम नहीं समझते, तो परमेश्वर द्वारा अपने मुख से कही गई बातों पर भरोसा करना सही है। तुम्हें उनका अध्ययन करने या उन्हें बहुत गहराई से समझने की कोशिश करने की आवश्यकता नहीं है—तुम्हें केवल उनके कानूनों का उल्लंघन न करने की आवश्यकता है। भरोसा और समर्पण करने का यही अर्थ है। जब लोगों के दैनिक जीवन में परमेश्वर द्वारा अपेक्षित आदतों, सामान्य ज्ञान और दैनिक जीवन के नियमों आदि की बात आती है, जो मनुष्य के उद्धार का स्पर्श नहीं करते, भले ही वे सत्य के स्तर या कोटि के न हों, लेकिन फिर भी वे सभी सकारात्मक चीजें हैं। सभी सकारात्मक चीजें परमेश्वर से आती हैं, इसलिए लोगों को उन्हें स्वीकारना चाहिए—ये वचन सही हैं। इसके अलावा, मनुष्य होने के नाते उनमें क्या विवेक और जमीर पाया जाना चाहिए? पहला तो यह कि उन्हें यह सीखना चाहिए कि आज्ञापालन कैसे करना है। किसके वचनों का पालन करना है? दानवों और शैतान के वचनों का? लोगों के वचनों का? महान लोगों, उत्कृष्ट लोगों के वचनों का? मसीह-विरोधियों के वचनों का? इनमें से किसी के वचनों का नहीं। उन्हें परमेश्वर के वचनों का पालन करना चाहिए। परमेश्वर के वचनों का पालन करने के सिद्धांत और विशिष्ट अभ्यास क्या हैं? तुम्हें यह विश्लेषण करने की आवश्यकता नहीं है कि वे सही हैं या गलत, और तुम्हें यह पूछने की आवश्यकता नहीं है कि क्यों। उन्हें अभ्यास में लाने से पहले तुम्हें उन्हें समझने तक प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। इसके बजाय, तुम्हें पहले सुनना, लागू करना, क्रियान्वित करना और पालन करना चाहिए, जो तुम्हारा पहला रवैया भी होना चाहिए। केवल तभी तुम एक सृजित प्राणी, और एक योग्य और उचित इंसान होगे। अगर आचरण के ये सबसे मूलभूत मानक भी तुम्हारे वश के बाहर हैं, और परमेश्वर यह नहीं स्वीकारता कि तुम मानव हो, तो क्या तुम उसके सामने आ सकते हो? क्या तुम परमेश्वर के वचन सुनने के योग्य हो? क्या तुम सत्य सुनने के योग्य हो? क्या तुम उद्धार के योग्य हो? तुम इनमें से किसी भी चीज के योग्य नहीं हो।

मुर्गियों और अंडों से जुड़े जिन लोगों के बारे में मैंने अभी बात की, क्या उन्होंने आज्ञापालन और समर्पण किया? (नहीं।) उन्होंने परमेश्वर के वचनों को किस रूप में लिया? अपने कानों पर से बहने वाली हवा के रूप में, और उनके मन में उनका एक निश्चित दृष्टिकोण था : “तुम वो कहते हो जो तुम्हें कहना है, और मैं वो करूँगा जो मुझे करना है। मुझे तुम्हारी अपेक्षाओं की परवाह नहीं! यह काफी है कि मैं तुम्हें खाने के लिए अंडों की आपूर्ति करता हूँ—कौन परवाह करता है कि तुम कौन-से अंडे खाते हो। तुम जैविक अंडे खाना चाहते हो? असंभव। सपने देखते रहो! तुमने मुझे मुर्गियाँ पालने के लिए कहा, और मैं उन्हें इसी तरह पालता हूँ, लेकिन ऊपर से तुम अपनी माँगें जोड़ रहे हो—क्या तुम्हें इस बारे में बोलने का अधिकार है?” क्या ये वे लोग हैं, जो आज्ञापालन और समर्पण करते हैं? (नहीं।) ये क्या करने की कोशिश कर रहे हैं? ये विद्रोह करने की कोशिश कर रहे हैं! परमेश्वर का घर वह स्थान है, जहाँ परमेश्वर बोलता और कार्य करता है, और वह स्थान जहाँ सत्य शासन करता है—परमेश्वर ने इन लोगों के मुँह पर जो कुछ कहा, अगर इन लोगों ने उसका पालन नहीं किया, उसके प्रति समर्पण नहीं किया—तो क्या ये परमेश्वर की पीठ पीछे उसके वचनों का पालन कर सकते हैं? यह और भी असंभव है! असंभव से बिल्कुल असंभव तक : इन दो चीजों को देखते हुए, क्या परमेश्वर उनका परमेश्वर है? (नहीं।) तो उनका परमेश्वर कौन है? (वे खुद।) यह सही है—वे खुद को ही परमेश्वर मानते हैं, वे खुद में ही विश्वास करते हैं। ऐसी हालत में, वे अभी भी यहाँ मँडराते हुए क्या कर रहे हैं? चूँकि वे खुद ही अपने परमेश्वर हैं, तो फिर वे परमेश्वर में विश्वास का झंडा लहराते हुए क्या कर रहे हैं? क्या यह दूसरे लोगों को धोखा देना नहीं है? क्या तुम खुद को धोखा नहीं दे रहे? अगर ऐसे लोगों का परमेश्वर के प्रति यही रवैया है, तो क्या वे आज्ञापालन करने में सक्षम हैं? (बिलकुल नहीं।) इतनी छोटी-सी चीज में भी वे परमेश्वर के वचन का पालन नहीं कर सकते या परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर सकते, परमेश्वर के वचनों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और वे उन्हें ग्रहण नहीं करते और उनके प्रति समर्पित नहीं हो सकते। क्या ऐसे लोगों को बचाया जा सकता है? (नहीं।) तो वे उद्धार से कितनी दूर हैं? बहुत दूर, पास तो बिलकुल भी नहीं! आंतरिक रूप से, क्या परमेश्वर उन लोगों को बचाने का इच्छुक है, जो उसके वचनों का पालन नहीं करते, जो उसके विरुद्ध खड़े होते हैं? निश्चित रूप से नहीं। यहाँ तक कि अपने विचारों के आधार पर मापने पर लोग भी ऐसा करने के लिए तैयार नहीं होंगे। अगर ऐसे दानव और शैतान तुम्हारा विरोध करें, हर तरह से तुम्हारे खिलाफ खड़े हो जाएँ, तो क्या तुम उन्हें बचाओगे? असंभव। कोई ऐसे लोगों को नहीं बचाना चाहता। कोई ऐसे लोगों से दोस्ती नहीं करना चाहता। मुर्गी-पालन के मामले में—इतनी छोटी-सी चीज में—लोगों की प्रकृति उजागर हो गई; इतनी छोटी-सी चीज में भी लोग मैंने जो कहा उसका पालन करने में असमर्थ रहे। क्या यह एक गंभीर समस्या नहीं है?

अब हम भेड़ों से जुड़े एक मामले की बात करते हैं। बेशक, यह अभी भी लोगों से संबंधित है। वसंत आ गया था। मौसम सुहाना था और फूल खिले हुए थे। हरियाली छा रही थी, घास हरी थी। सब-कुछ जीवन के साथ जगमगाने लगा था। भेड़ें पूरी सर्दी सूखी घास खाती रही थीं और अब उसे नहीं खाना चाहती थीं, इसलिए वे इंतजार कर रही थीं कि कब घास हरी हो और वे ताजी घास खा सकें। हुआ यह कि तभी भेड़ों ने मेमनों को जन्म दिया था, जिसका अर्थ था कि उनका हरी घास खाना और भी ज्यादा जरूरी था। घास की गुणवत्ता जितनी अधिक होगी, और वह जितनी अधिक मात्रा में होगी, उतना ही अधिक वे दूध देंगी, और मेमने उतनी ही तेजी से बढ़ेंगे; लोग भी इसे देखकर खुश होंगे, यह उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लायक चीज थी : शरद ऋतु के आगमन तक खाने के लिए एक अच्छा मोटा मेमना। और यह देखते हुए कि लोगों के पास उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लायक चीज थी, क्या उन्हें मेमनों को खाने के लिए ज्यादा अच्छी घास देने के उपाय नहीं करने चाहिए थे, उन्हें इस तरह नहीं खिलाना चाहिए था कि वे मजबूत और मोटे हो जाते? क्या उन्हें नहीं सोचना चाहिए था, “इस समय मैदान में घास अच्छी नहीं है। अगर मेमने इसे खाएँगे, तो धीरे-धीरे बढ़ेंगे। अच्छी घास कहाँ है?” क्या उन्हें इसमें थोड़ा प्रयास नहीं करना चाहिए था? लेकिन कौन जानता है कि भेड़ों की देखभाल करने वाला व्यक्ति क्या सोच रहा था। एक दिन मैं भेड़ों को देखने गया। मैंने देखा कि मेमने अच्छे से रह रहे थे, और वे लोगों को देखते ही उछल पड़े, उनसे बात करने की इच्छा से वे अपने अगले पैर उनकी पिंडलियों पर रखकर ऊपर उठ गए। कुछ मेमनों के सींग उग आए थे, इसलिए मैंने उनके छोटे सींग पकड़ लिए और उनके साथ खेला। वे मेमने अच्छे से रह रहे थे, लेकिन वे बहुत दुबले और सूखे थे। मैंने सोचा कि मेमने कितने मुलायम होते हैं और उनका ऊन मोटा नहीं होता, लेकिन फिर भी वे गर्म होते हैं, और मैंने सोचा कि अगर उन्हें थोड़ा मोटा कर दिया जाए तो कितना अच्छा होगा। इस बारे में सोचते हुए मैंने भेड़ पालने वाले व्यक्ति से पूछा, “क्या यह घास घटिया किस्म की है? क्या मैदान में भेड़ों के खाने के लिए पर्याप्त घास नहीं है? क्या जमीन जोत दी जाए और कुछ नई घास बो दी जाए, जिससे उनके पास खाने के लिए पर्याप्त हो?” उसने कहा, “खाने के लिए पर्याप्त हरी घास नहीं है। फिलहाल भेड़ें अभी भी सूखी घास ही खा रही हैं।” यह सुनकर मैंने कहा, “क्या तुम नहीं जानते कि यह कौन-सा मौसम है? तुम उन्हें अभी भी सूखी घास क्यों खिला रहे हो? भेड़ों ने मेमनों को जन्म दिया है, उन्हें अच्छी हरी घास खानी चाहिए। तुम उन्हें अभी भी सूखी घास ही क्यों खिला रहे हो? क्या तुम लोगों ने इसका कोई समाधान सोचा है?” उसने ढेरों बहाने बनाए। जब मैंने उसे खेत जोतने के लिए कहा, तो उसने कहा कि वह ऐसा नहीं कर सकता—अगर वह ऐसा करेगा, तो भेड़ों के पास अब खाने के लिए कुछ नहीं होगा। यह सब सुनने के बाद तुम लोगों को क्या लगता है? क्या तुम्हें किसी दायित्व का बोध महसूस होता है? (मैं घास का एक अच्छा खेत खोजने के उपाय सोचता, या कहीं और से घास काटकर लाता।) इसे हल करने का यह एक तरीका है। तुम्हें समाधान के बारे में सोचना होगा। सिर्फ अपना पेट भरकर बाकी सब-कुछ मत भूल जाओ—भेड़ों को भी अपना पेट भरने की जरूरत है। बाद में मैंने कुछ अन्य लोगों से कहा, “क्या यह खेत जोता जा सकता है? अगर तुम शरद ऋतु में भी पौध लगाते हो, तो भेड़ें अगले साल हरी घास खा सकेंगी। इसके अलावा, अन्य स्थानों पर दो खेत हैं, क्या भेड़ों को प्रतिदिन वहाँ ताजी घास खाने के लिए चराया जा सकता है? अगर दोनों खेतों को अदल-बदलकर बोया जाए, तो क्या भेड़ें ताजी घास नहीं खा सकेंगी?” क्या मैंने जो कहा, वह करना आसान था? (हाँ।) कुछ लोगों ने कहा, “यह कहना आसान है, करना मुश्किल। तुम हमेशा कहते हो कि चीजें करना आसान है—यह इतना आसान कैसे है? यहाँ बहुत सारी भेड़ें हैं और जब वे इधर-उधर दौड़ती हैं, तो उन्हें चराना बिलकुल भी आसान नहीं होता।” भेड़ों को चराना भी उनके लिए भारी था, उनके पास बहुत सारे बहाने और मुश्किलें थीं, लेकिन अंत में वे मान गए। कई दिनों बाद मैं फिर देखने गया। घास इतनी बढ़ गई थी कि लगभग कमर जितनी ऊँची हो गई थी। मैंने सोचा कि जब भेड़ें घास खा रही हैं, तो यह इतनी ऊँची कैसे हो सकती है। कुछ सवाल पूछने के बाद मुझे पता चला : भेड़ों को वहाँ चरने के लिए बिलकुल भी नहीं रखा गया था। लोगों के पास एक बहाना भी था : “उस खेत में कोई छप्पर नहीं है, भेड़ों को बहुत गर्मी लग उनके लिए एक छप्पर क्यों नहीं बना देते? यहाँ कुछ ही तो भेड़ें हैं? तुम लोग यहाँ किसलिए हो? क्या तुमसे ये साधारण मामले सँभालने की अपेक्षा नहीं की जाती?” उन्होंने उत्तर दिया, “हमें कोई छप्पर बनाने वाला नहीं मिल पाया।” मैंने कहा, “यहाँ दूसरे काम करने वाले लोग हैं, तो इसे करने वाला कोई क्यों नहीं है? क्या तुमने किसी को ढूँढ़ा है? तुम्हें केवल भेड़ों को खाने की परवाह है, उन्हें पालने की नहीं। तुम इतने स्वार्थी कैसे हो सकते हो! तुम मेमने खाना चाहते हो, लेकिन उन्हें हरी घास नहीं खाने देते—तुम इतने अनैतिक कैसे हो सकते हो!” जब उन्हें मजबूर किया गया, तो छप्पर बन गया और भेड़ों को हरी घास खाने को मिल गई। क्या उनके लिए थोड़ी ताजी घास खाना आसान था? उन लोगों के लिए इतना आसान काम करना भी इतना कठिन था। हर कदम पर वे कोई न कोई बहाना बना देते थे। जब उनके पास कोई बहाना होता, जब कोई कठिनाइयाँ होतीं, वे हार मान लेते और मेरे आकर उसे सुलझाने की प्रतीक्षा करते। मुझे हमेशा इस बात की जानकारी रखनी पड़ती कि क्या हो रहा है, मुझे हमेशा इस पर नजर रखनी पड़ती, मुझे हमेशा उन पर दबाव बनाना पड़ता—मैं उन पर दबाव नहीं डाल सकता था। मुझे भेड़ों को चराने जैसी तुच्छ बात की चिंता क्यों करनी चाहिए? मैं तुम लोगों के लिए सब-कुछ तैयार करता हूँ, तो फिर तुम लोगों से अपने कुछ वचनों का पालन करवाने के लिए इतना प्रयास क्यों करना पड़ता है? क्या मैं तुम्हें चाकुओं के पहाड़ पर चढ़ने या आग के समुद्र में तैरने के लिए कह रहा हूँ? या क्या इसे लागू करना बहुत मुश्किल है? क्या यह तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं है? यह सब हासिल करना तुम्हारी शक्ति के भीतर है, यह तुम्हारी क्षमताओं के दायरे में है। यह कोई बहुत बड़ी माँग नहीं है। ऐसा कैसे है कि तुम इसे पूरा करने में सक्षम नहीं हो? समस्या कहाँ है? क्या मैंने तुमसे जहाज बनाने के लिए कहा था? (नहीं।) तो तुमसे जो करने के लिए कहा गया था, उसमें और जहाज बनाने के बीच कितना बड़ा अंतर है? वह अंतर बहुत बड़ा है। जो काम तुम्हें करने के लिए कहा गया था, उसे करने में केवल एक या दो दिन लगते। इसके लिए केवल कुछ शब्दों की आवश्यकता होती। यह साध्य था। जहाज का निर्माण एक विशाल उपक्रम था, एक 100-वर्षीय उपक्रम। मैं यह कहने की हिम्मत करता हूँ कि अगर तुम लोग उसी युग में पैदा हुए होते जिसमें नूह पैदा हुआ था, तो तुम लोगों में से कोई भी परमेश्वर के वचनों का पालन करने में सक्षम न होता। जब नूह परमेश्वर के वचनों का पालन करता, जब वह परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार थोड़ा-थोड़ा करके जहाज बनाता, तो तुम लोग एक तरफ खड़े हुए लोग रहे होते, नूह को वापस खींचते हुए, उसका मजाक उड़ाते हुए, उसका उपहास करते हुए और उस पर हँसते हुए। तुम लोग बिलकुल इसी तरह के व्यक्ति हो। तुम आज्ञापालन और समर्पण करने वाले रवैये से सर्वथा रहित हो। इसके विपरीत, तुम माँग करते हो कि परमेश्वर तुम पर विशेष अनुग्रह दिखाए और तुम्हें विशेष रूप से आशीष प्रदान करे और तुम्हें प्रबुद्ध बनाए। तुम इतने बेशर्म कैसे हो सकते हो? तुम लोग क्या कहते हो, जिन चीजों के बारे में मैंने अभी बात की है, उनमें से मेरी जिम्मेदारी क्या है? मुझे कौन-सी चीज करनी है? (इनमें से कोई नहीं।) ये सभी चीजें मानवीय मामले हैं। वे मेरा काम नहीं हैं। मुझे लोगों को अकेला छोड़ने में सक्षम होना चाहिए। तो मुझे क्यों शामिल होना पड़ता है? मैं ऐसा इसलिए नहीं करता कि यह मेरा कर्तव्य है, बल्कि तुम लोगों की भलाई के लिए करता हूँ। तुम लोगों में से किसी को भी इसकी चिंता नहीं है, तुम में से किसी ने भी यह जिम्मेदारी नहीं ली है, तुम में से किसी के ये अच्छे इरादे नहीं हैं—इसलिए मुझे इस बारे में और चिंता करनी पड़ती है। तुम्हें बस आज्ञापालन और सहयोग करने की जरूरत है, यह बहुत आसान है—लेकिन तुम लोग यह भी नहीं कर सकते। क्या तुम इंसान भी हो?

एक और गंभीर घटना भी हुई। एक जगह थी, जहाँ एक इमारत का निर्माण किया जा रहा था। इमारत काफी ऊँची थी और काफी बड़े क्षेत्र में फैली थी। अंदर अपेक्षाकृत बड़ी संख्या में साज-सामान रखा गया था और उसे सुविधा से ले जाने के लिए कम से कम दो दरवाजों वाली चौखट की आवश्यकता होती जिन्हें कम से कम आठ फीट ऊँचा होना चाहिए था। आम लोगों ने यह सब सोचा होगा। लेकिन किसी ने छह फुट का एक अकेला दरवाजा लगाने पर जोर दिया। उसने बाकी सबके सुझाव नजरअंदाज कर दिए, चाहे वे किसी से भी आए हों। क्या यह व्यक्ति भ्रमित था? वह सरासर बदमाश था। बाद में जब किसी ने मुझे इसके बारे में बताया, तो मैंने उस व्यक्ति से कहा, “तुम्हें दो दरवाजे लगाने होंगे, और वे ऊँचे होने आवश्यक हैं।” वह अनिच्छा से सहमत हुआ। खैर, जाहिर तौर पर वह मान गया, लेकिन उसने अकेले में क्या कहा? “उन्हें इतना ऊँचा रखने का क्या मतलब है? उनके नीचा होने में क्या दिक्कत है?” बाद में मैं फिर देखने गया। बस एक अतिरिक्त दरवाजा जोड़ दिया गया था, लेकिन ऊँचाई वही थी। और ऊँचाई वही क्यों थी? क्या इससे ऊँचा दरवाजा बनवाना असंभव था? या दरवाजा छत को छूकर खत्म होता? क्या मामला था? मामला यह था कि वह आज्ञापालन नहीं करना चाहता था, जैसा उससे कहा गया था। वह वास्तव में यह सोच रहा था, “क्या यह तुम पर निर्भर है? यहाँ आसपास का मालिक मैं हूँ, यहाँ मैं निर्णय लेता हूँ। दूसरे लोग वैसा ही करते हैं, जैसा मैं कहता हूँ, इसके विपरीत नहीं। तुम क्या जानते हो? क्या तुम भवन-निर्माण को समझते हो?” क्या भवन-निर्माण को न समझने का मतलब यह है कि मैं यह नहीं देख सकता कि अनुपात कैसा दिखता है? इतने ऊँचे भवन में इतने नीचे दरवाजे होने पर जब कोई 6’2” से अधिक लंबा व्यक्ति इसमें से जाएगा, तो अगर वह झुकेगा नहीं तो चौखट से टकराकर अपना सिर फुड़वा लेगा। यह कैसा दरवाजा था? मुझे भवन-निर्माण समझने की जरूरत नहीं थी—मुझे बताओ, क्या इस पर मेरा विचार उचित था? क्या वह व्यावहारिक था? लेकिन ऐसी व्यावहारिकता उस व्यक्ति की समझ से बाहर थी। वह केवल नियमों का पालन करना जानता था, और कहता था : “जहाँ से मैं हूँ, वहाँ के सभी दरवाजे इसी तरह के हैं। मुझे इसे इतना ऊँचा क्यों बनाना चाहिए था, जितना तुमने कहा? तुमने मुझे इसे करने के लिए कहा, और मैंने इसे इस तरह बना दिया। अगर तुम मेरे किसी काम के नहीं हो, तो भूल जाओ! मैं इसी तरह चीजें करता हूँ और मैं तुम्हारा आज्ञापालन नहीं करने वाला हूँ!” यह व्यक्ति किस तरह की चीज था? क्या तुम लोगों को लगता है कि उसका अभी भी परमेश्वर के घर द्वारा उपयोग किया जा सकता है? (नहीं।) तो चूँकि उसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता, तो क्या किया जाना चाहिए? हालाँकि ऐसे लोग परमेश्वर के घर में कुछ सांकेतिक प्रयास करते हैं, और तुरंत बाहर नहीं निकाले जाते, और हालाँकि भाई-बहन उन्हें सहन करने में सक्षम होते हैं, और जब उनकी मानवता की बात आती है तो मैं उन्हें सहन करने में सक्षम हूँ—इसे भूल जाते हैं कि वे सत्य को समझते हैं या नहीं—परमेश्वर के घर जैसे परिवेश में काम करते और रहते हुए, क्या उनके आसपास रहने की संभावना है? (नहीं।) क्या हमें उन्हें बाहर निकालने की जरूरत है? (नहीं।) क्या उनके लंबे समय तक कलीसिया में रहने की संभावना है? (नहीं।) क्यों नहीं? इस बात को एक तरफ रख देते हैं कि वे उसे समझ सकते हैं या नहीं, जो उनसे कहा जाता है। उनका ऐसा स्वभाव होने के कारण, कुछ सांकेतिक प्रयास करने के बाद, वे शान बघारने और हुक्म चलाने की कोशिश करना शुरू कर देते हैं। क्या परमेश्वर के घर में इसे बरदाश्त किया जा सकता है? वे कुछ भी नहीं हैं, फिर भी वे सोचते हैं कि वे बहुत अच्छे हैं, कि वे परमेश्वर के घर में एक स्तंभ, एक मुख्य आधार हैं, जहाँ वे बिना सोचे-विचारे कार्य करते हैं, और हुक्म चलाने का प्रयास करते हैं। उनका समस्याओं में पड़ना लाजमी है, और वे लंबे समय तक नहीं रहेंगे। इस तरह के लोगों के साथ, भले ही परमेश्वर का घर उन्हें बाहर न निकाले, जब वे यहाँ कुछ देर के लिए रह लेंगे, तो वे देखेंगे कि परमेश्वर के घर में लोग हमेशा सत्य के बारे में, सिद्धांत के बारे में बात कर रहे हैं; उन्हें इसमें कोई दिलचस्पी नहीं होती, उसके तौर-तरीकों का यहाँ कोई उपयोग नहीं होता। वे चाहे जहाँ भी जाएँ और जो कुछ भी करें, वे दूसरों के साथ सहयोग करने में असमर्थ होते हैं, और वे हमेशा हुक्म चलाना चाहते हैं। लेकिन यह काम नहीं आता, और वे खुद को हर मामले में सीमित पाते हैं। जैसे-जैसे समय बीतता है, अधिकांश भाई-बहन सत्य और सिद्धांतों को समझने लगते हैं; जबकि ये लोग अपनी मर्जी के मुताबिक काम करने की कोशिश करते हैं, बॉस बनने की कोशिश करते हैं और हुक्म चलाते हैं, और सिद्धांत के अनुसार कार्य नहीं करते, कई लोग उन्हें हेय नजरों से देखते हैं—क्या वे इसे बरदाश्त कर पाते हैं? जब वह समय आता है, तो वे समझ जाते हैं कि वे इन लोगों के साथ असंगत हैं, कि वे स्वाभाविक रूप से यहाँ के नहीं हैं, कि वे गलत जगह पर हैं : “मैं अचानक परमेश्वर के घर में कैसे आ पहुँचा? मेरी सोच बहुत सरल थी। मैंने सोचा कि अगर मैं थोड़ा-सा प्रयास करूँ, तो मैं आपदा से बच सकता हूँ, और मुझे आशीष मिलेगा। मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि ऐसा नहीं होगा!” वे स्वाभाविक रूप से परमेश्वर के घर के नहीं होते; कुछ समय रहने के बाद उनकी रुचि खत्म हो जाती है, वे उदासीन हो जाते हैं, और उन्हें बाहर निकालने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती—वे खुद खिसक जाते हैं।

कुछ लोग कहते हैं, “क्या ऐसा भी कुछ है, जिसमें तुम अपनी नाक नहीं घुसेड़ते? तुम दूसरों के मामलों में टाँग अड़ाने वाले व्यक्ति हो, है न? तुम बस दूसरों के मामलों में दखल देकर अपनी प्रतिष्ठा स्थापित करते हो, अपनी उपस्थिति का एहसास कराते हो और लोगों को अपनी सर्वशक्तिमत्ता का भान कराते हो, है न?” मुझे बताओ, क्या यह ठीक रहेगा अगर मैं इन चीजों का ध्यान न रखूँ? वास्तव में, मैं इन चीजों का ध्यान नहीं रखना चाहता, ये अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारी हैं, लेकिन अगर मैं ऐसा न करूँ तो परेशानी होगी, और आने वाला काम प्रभावित होगा। क्या मुझे ऐसे मामलों में शामिल होना पड़ता, अगर तुम लोग उन्हें हल करने में सक्षम होते, अगर तुम वैसा करते जैसा मैंने कहा था? अगर मैं तुम लोगों की चिंता न करता, तो तुम लोग जरा भी मानव-सदृश न जीते, और न ही तुम लोग अच्छे से जीते। तुम खुद कुछ न कर पाते। और ऐसा होने पर भी तुम मेरा आज्ञापालन नहीं करते। मैं तुम्हें एक बहुत ही सरल बात के बारे में बताता हूँ : साफ-सफाई और अपने रहने के परिवेश की देखभाल करने का बेहद छोटा मामला। तुम लोग इस मामले में कैसे काम करते हो? अगर मैं कहीं जाता हूँ और तुम्हें पहले से सूचित नहीं करता, तो तुम्हारा परिवेश असाधारण रूप से गंदा मिलेगा, और तुम्हें उसे फौरन साफ करना पड़ेगा, जिससे तुम परेशान और असहज महसूस करोगे। अगर मैंने तुम लोगों को पहले ही बता दिया होता कि मैं आ रहा हूँ, तो स्थिति इतनी खराब न होती—लेकिन क्या तुम्हें लगता है कि मैं नहीं जानता कि परदे के पीछे क्या चल रहा है? ये सभी छोटी-छोटी बातें हैं, सामान्य मानवता के कुछ सबसे सरल और सबसे बुनियादी बिंदु। लेकिन तुम लोग ऐसे आलसी हो। क्या तुम वाकई अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने में सक्षम हो? मैं दस साल तक मुख्य भूमि चीन में कुछ जगहों पर रहा, वहाँ लोगों को रजाई तह करना और उन्हें धूप में सुखाना, घरों की सफाई करना और घरों में चूल्हे जलाना सिखाया। लेकिन दस साल सिखाने के बाद भी मैं उन्हें सिखाने में सक्षम नहीं हुआ। क्या ऐसा है कि मैं सिखाने में असमर्थ हूँ? नहीं, ये लोग ही बहुत निकम्मे हैं। बाद में मैंने सिखाना बंद कर दिया। जब मैं कहीं जाता और कोई रजाई तह की हुई न मिलती, तो मैं बस पलटकर चला जाता। मैं ऐसा क्यों करता था? मुझे वह बदबूदार और घिनौना लगता। मैं ऐसी जगह क्यों रहूँ, जो सूअरों के बाड़े से भी बदतर हो? मैं ऐसा करने से इनकार करता हूँ। ये छोटी-छोटी समस्याएँ बदलनी भी बहुत मुश्किल हैं। अगर मैं इसे परमेश्वर के मार्ग और परमेश्वर की इच्छा का पालन करने के स्तर तक ऊपर ले जाता, तो स्पष्ट रूप से कहूँ तो, तुम लोग उसके आसपास भी न पहुँचते। आज मैं मुख्य बात क्या कह रहा हूँ? परमेश्वर के वचनों का पालन करना बहुत महत्वपूर्ण है और तुम्हें इसकी अवहेलना नहीं करनी चाहिए। परमेश्वर के वचनों का पालन करने का मतलब यह नहीं है कि तुम्हें परमेश्वर के वचनों का विश्लेषण, अध्ययन या उन पर चर्चा या उनकी जाँच करनी चाहिए, या तुम्हें उनके पीछे के कारणों की छानबीन करनी चाहिए और कोई कारण ढूँढ़ने का प्रयास करना चाहिए; इसके बजाय, तुम्हें उसके वचनों को लागू करना चाहिए और उन्हें पूरा करना चाहिए। जब परमेश्वर तुमसे बात करता है, जब वह तुम्हें किसी कार्य को करने का आदेश देता है या तुम्हें कोई कार्य सौंपता है, तो परमेश्वर आगे जो देखना चाहता है, वह यह है कि तुम कार्य करते हो, और उसे कदम-दर-कदम कैसे क्रियान्वित करते हो। परमेश्वर इस बात की परवाह नहीं करता कि तुम उस मामले को समझते हो या नहीं, और न ही वह इस बात की परवाह करता है कि अपने दिल में तुम उसके बारे में उत्सुक हो या नहीं, या तुम्हें उसके बारे में कोई संदेह है या नहीं। परमेश्वर जो देखता है, वह यह है कि तुम उसे करते हो या नहीं, तुममें आज्ञापालन और समर्पण करने का रवैया है या नहीं।

संयोग से, मैं कुछ लोगों के साथ प्रदर्शनों के लिए वेशभूषाओं के बारे में बात कर रहा था। प्राथमिक सिद्धांत यह था कि वेशभूषाओं का रंग और शैली शिष्ट, गरिमामय, रुचिकर और शालीन होनी चाहिए। वे विचित्र परिधानों की तरह न दिखें। इतना ही नहीं, ज्यादा पैसे खर्च करने की भी जरूरत नहीं थी। वे किसी विशेष डिजाइनर से न लाए जाएँ, उन्हें खरीदने के लिए नामी-गिरामी ब्रांड वाली दुकानों पर जाने की जरूरत तो बिलकुल भी नहीं थी। मेरा विचार था कि वेशभूषा से कलाकारों को शालीन, शिष्ट और गरिमामय दिखना चाहिए, उन्हें होना चाहिए। रंग की कोई सीमा नहीं थी, सिवाय मंच पर बहुत नीरस या काली दिखने वाली चीजों से परहेज करने के। अधिकांश अन्य रंग ठीक थे : लाल, नारंगी, पीला, हरा, नीला, जामुनी, बैंगनी—इसके लिए कोई विनियम नहीं थे। यह सिद्धांत क्यों था? परमेश्वर की सृष्टि में हर रंग समाया हुआ है। फूल रंगीन दिखते हैं, वैसे ही पेड़, पौधे और पक्षी भी रंग-बिरंगे होते हैं। इसलिए हमें रंग के बारे में कोई धारणा या नियम नहीं रखना चाहिए। यह कहने के बाद, मुझे डर था कि वे समझेंगे नहीं। मैंने उनसे दोबारा पूछताछ की, और केवल तभी आश्वस्त हुआ, जब मुझे सुनने वालों ने कहा कि वे समझ गए हैं। बाकी चीजें उस सिद्धांत के अनुसार लागू की जा सकती थीं, जो मैंने बताया था। क्या यह सरल बात थी? क्या यह कोई बड़ी बात थी? यह जहाज बनाने से बड़ा उपक्रम था या छोटा? (छोटा।) अब्राहम द्वारा इसहाक की भेंट चढ़ाने की तुलना में, क्या यह कठिन था? (नहीं।) इसमें बिलकुल भी कोई कठिनाई नहीं थी, और यह सरल था—सिर्फ कपड़ों की बात थी। लोग जन्म के समय से ही कपड़ों के संपर्क में आ जाते हैं; यह कोई कठिन मामला नहीं था। मेरे द्वारा एक निश्चित सिद्धांत को परिभाषित किए जाने के बाद तो लोगों के लिए काम करना और भी आसान हो गया था। महत्वपूर्ण बात यह थी कि उन्होंने आज्ञापालन किया या नहीं, और वे उसे करने के इच्छुक थे या नहीं। कुछ समय बाद, जब कुछ शो और फिल्में बनाई गईं, तो मैंने देखा कि सभी मुख्य पात्रों की वेशभूषा नीली थी। मैंने इस बारे में थोड़ा विचार किया : “क्या इन शो बनाने वाले लोगों के दिमाग में कोई समस्या है? मैंने इस बारे में बहुत स्पष्ट रूप से कहा था। मैंने यह नियम नहीं बनाया था कि वेशभूषा नीली होनी चाहिए, और जो कोई नीली पोशाक नहीं पहनेगा, उसे मंच पर नहीं जाने दिया जाएगा। इन लोगों के साथ क्या गलत है? उन्हें क्या चीज उकसा रही थी और उन पर हावी हो रही थी? क्या बाहरी दुनिया में चलन बदल गया है, और लोग अब केवल नीली पोशाक ही पहनते हैं? नहीं, बाहरी दुनिया में रंगों और शैलियों के बारे में कोई नियम नहीं है, लोग हर रंग की पोशाक पहनते हैं। तो हमारी कलीसिया में ऐसी स्थिति होना अजीब है। वेशभूषाओं की अंतिम जाँच कौन कर रहा है? इस मामले पर किसका नियंत्रण है? क्या कोई इसका सूत्रधार है?” कोई तो अवश्य था, जो इसे गुप्त रूप से नियंत्रित कर रहा था; नतीजतन, शैली चाहे जैसी भी हो, सभी वेशभूषाएँ बिना किसी अपवाद के नीले रंग की थीं। मैंने जो कहा था, उससे कोई फर्क नहीं पड़ा। उन्होंने पहले से ही तय कर लिया था कि सभी कपड़े नीले होने चाहिए—लोग नीले रंग के अलावा किसी रंग के कपड़े नहीं पहनेंगे। नीला रंग आध्यात्मिकता और पवित्रता दर्शाता है; यह परमेश्वर के घर का प्रतीकात्मक रंग है। अगर उनकी पोशाक नीली न होती, तो वे शो न होने देते; और वे ऐसा करने की हिम्मत न कते। मैंने कहा कि ये लोग गए काम से। यह इतनी सरल बात थी, मैंने प्रत्येक बिंदु बहुत स्पष्ट रूप से समझाया था, और ऐसा करने के बाद सुनिश्चित किया था कि वे समझ गए हैं; केवल हम सबके सहमत होने पर ही मैंने विषय बंद किया था। और अंतिम परिणाम क्या रहा? मैंने जो कहा, वह भी हवा हो गया। किसी ने उसे महत्वपूर्ण नहीं माना। उन्होंने फिर भी जैसा चाहा, वैसा ही किया और अभ्यास में लाए; जो मैंने कहा, उस पर किसी ने अमल नहीं किया, किसी ने उसे पूरा नहीं किया। जब उन्होंने कहा कि वे समझ गए हैं, तो उनका वास्तव में क्या मतलब था? वे मेरा मन रख रहे थे। वे गली में अधेड़ उम्र की महिलाओं की तरह दिन भर गपशप करते रहते थे। यही उनका मुझसे बात करने का तरीका और रवैया भी था। इसलिए मेरे दिल में यह भावना थी : मसीह के प्रति इन लोगों का रवैया परमेश्वर के प्रति उनका रवैया था, और यह एक बहुत ही चिंताजनक रवैया, एक खतरनाक संकेत, एक अपशगुन था। क्या तुम लोग जानना चाहते हो कि यह क्या संकेत देता है? तुम लोगों को पता होना चाहिए। मुझे तुम लोगों को यह बताना चाहिए, और तुम लोगों को ध्यान से सुनना चाहिए : तुम लोगों में जो प्रकट होता है उसे देखते हुए, परमेश्वर के वचनों के प्रति तुम लोगों के रवैये से, तुम में से कई लोग आपदा में डूब जाएँगे; तुम में से कुछ लोगों को दंड देने के लिए आपदा में डाला जाएगा, और कुछ लोगों को उनका शोधन करने के लिए, और आपदा से बचा नहीं जा सकता। जिन्हें दंड दिया जाएगा, वे तुरंत मर जाएँगे, वे नष्ट हो जाएँगे। लेकिन जिन लोगों का आपदा में शोधन किया जाएगा, अगर वह उन्हें आज्ञापालन और समर्पण करने, और दृढ़ रहने में सक्षम बनाता है, और वे गवाही देने में सक्षम हो जाते हैं, तो उनकी सबसे कठिन परीक्षा समाप्त हो जाएगी; अन्यथा, भविष्य में उनके लिए कोई आशा नहीं है, वे खतरे में होंगे, और उनके पास कोई और मौका नहीं होगा। क्या तुम मुझे साफ-साफ सुनते हो? (हाँ।) क्या यह तुम लोगों को अपने लिए कुछ अच्छा लगता है? संक्षेप में, मेरे लिए यह शुभ शकुन नहीं है। मुझे यह एक खराब संकेत लगता है। मैंने तुम लोगों को तथ्य दिए हैं; चुनाव तुम लोगों पर निर्भर है। मैं इस बारे में और कुछ नहीं कहूँगा, मैं खुद को दोहराऊँगा नहीं, मैं दोबारा इसकी चर्चा नहीं करूँगा।

आज मैं जिस विषय पर सहभागिता कर रहा हूँ, वह यह है कि परमेश्वर के वचनों को कैसे लें। परमेश्वर के वचनों का पालन और उनके प्रति समर्पण करना बहुत महत्वपूर्ण है। उन्हें क्रियान्वित करने, लागू करने और अभ्यास में लाने में सक्षम होना बहुत महत्वपूर्ण है। कुछ लोग कहते हैं, “हम आज भी नहीं जानते कि मसीह के प्रति कैसे व्यवहार करना चाहिए।” मसीह के प्रति व्यवहार करने का तरीका बहुत सरल है : मसीह के प्रति तुम्हारा रवैया परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया है। परमेश्वर की दृष्टि में, परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया मसीह के प्रति तुम्हारा रवैया है। बेशक, मसीह के प्रति तुम्हारा जो रवैया है, वह स्वर्ग के परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया है। मसीह के प्रति तुम्हारा रवैया सबसे वास्तविक है—उसे देखा जा सकता है और वही है जिसकी परमेश्वर जाँच करता है। लोग यह समझना चाहते हैं कि परमेश्वर के प्रति उस तरह से कैसे व्यवहार करें, जिस तरह से परमेश्वर चाहता है, और यह सरल है। इसके तीन बिंदु हैं : पहला है ईमानदार होना; दूसरा है आदर, यह सीखना कि मसीह का आदर कैसे करना है; और तीसरा—और यह सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है—उसके वचनों का पालन करना। उसके वचनों का पालन करना : इसका मतलब कानों से सुनना है या किसी और चीज से? (अपने दिल से।) क्या तुम्हारे पास दिल है? अगर तुम्हारे पास दिल है, तो उससे सुनो। केवल अपने दिल से सुनकर ही तुम समझ पाओगे, और जो सुनोगे उसे अभ्यास में लाने में सक्षम होगे। इन तीन बिंदुओं में से प्रत्येक बहुत सरल है। इनका शाब्दिक अर्थ समझना आसान होना चाहिए, और तार्किक रूप से कहें तो, उन्हें पूरा करना आसान होना चाहिए—लेकिन तुम उन्हें कैसे पूरा करते हो, और क्या तुम इसमें सक्षम हो, यह तुम लोगों पर निर्भर है; मैं आगे नहीं समझाऊँगा। कुछ लोग कहते हैं, “तुम सिर्फ एक साधारण व्यक्ति हो। हमें तुम्हारे साथ ईमानदार क्यों होना चाहिए? हमें तुम्हारा सम्मान क्यों करना चाहिए? हमें तुम्हारे वचनों का पालन क्यों करना चाहिए?” मेरे अपने कारण हैं। वे भी तीन हैं। ध्यान से सुनो और देखो कि मैं जो कहता हूँ, क्या उसका कोई अर्थ है। अगर है, तो तुम लोगों को उसे स्वीकारना चाहिए; अगर तुम्हें लगता है कि उसका कोई अर्थ नहीं है, तो तुम्हें उसे स्वीकारने की जरूरत नहीं है, और तुम दूसरा मार्ग तलाश सकते हो। इसका पहला कारण यह है कि जब से तुमने परमेश्वर के कार्य के इस चरण को स्वीकार किया है, तब से तुम मेरे द्वारा कहे गए प्रत्येक वचन को खा-पी रहे हो, उनका आनंद ले रहे हो और प्रार्थना-पाठ कर रहे हो। दूसरा कारण यह है कि तुम स्वयं स्वीकार करते हो कि तुम सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अनुयायी हो, कि तुम उसके विश्वासियों में से एक हो। तो क्या यह कहा जा सकता है कि तुम यह स्वीकारते हो कि तुम उस साधारण देह के अनुयायी हो, जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है? यह कहा जा सकता है। संक्षेप में, दूसरा कारण यह है कि तुम स्वीकार करते हो कि तुम सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अनुयायी हो। तीसरा कारण सबसे महत्वपूर्ण है : समस्त मानवजाति में मैं केवल तुम लोगों को मनुष्य के रूप में देखता हूँ। क्या यह बिंदु महत्वपूर्ण है? (हाँ, है।) इन तीन बिंदुओं में से तुम लोग किसे स्वीकार करने में असमर्थ हो? तुम लोग क्या कहते हो, जो बिंदु मैंने अभी-अभी कहे हैं, क्या उनमें से कोई बिंदु असत्य है, वस्तुनिष्ठ नहीं है, तथ्यात्मक नहीं है? (नहीं।) तो कुल मिलाकर छह बिंदु हैं। मैं उनमें से प्रत्येक के बारे में विस्तार में नहीं जाऊँगा; तुम लोग खुद उन पर चिंतन करो। मैं पहले ही इन विषयों के बारे में विस्तार से बोल चुका हूँ, इसलिए तुम लोगों को इन्हें समझने में सक्षम होना चाहिए।

4 जुलाई 2020

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परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में I सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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