मद दस : वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग चार)

II. उस देह से घृणा करना जिसे परमेश्वर ने धारण किया है

हमने पिछली संगति में मसीह-विरोधियों की दसवीं अभिव्यक्ति के इस दूसरे उप-विषय पर संगति की थी—उस देह से घृणा करना जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है। हमने अपनी संगति बीच में कहाँ छोड़ी थी? (मसीह के साथ मसीह-विरोधियों का व्यवहार कैसे उनकी मनःस्थिति पर निर्भर करता है।) हम इस मद पर पहुँचे हैं कि “मसीह के साथ उनका व्यवहार उनकी मनःस्थिति पर निर्भर करता है।” चलो पहले दोबारा यह देख लें कि किन पहलुओं पर संगति हुई थी। “अपनी मनःस्थिति पर निर्भर होने” के विषय पर कितनी स्थितियों का गहन विश्लेषण किया गया? (पाँच स्थितियाँ थीं : काट-छाँट किए जाने से सामना होने पर उनका व्यवहार, मसीह के प्रति उनका तब का व्यवहार जब उसका पीछा किया जा रहा था, देहधारी परमेश्वर के बारे में धारणाओं को जन्म देने के समय, पदोन्नत या बरखास्त किए जाने पर और विभिन्न परिवेशों से सामना होते समय उनका व्यवहार।) कमोबेश यही हैं। इन पहलुओं की विषय-वस्तु सुनते समय तुम लोग क्या केवल भीतर की घटनाओं के बारे में सुनते हो या इनसे अपना मेल कर सकते हो, और इनके माध्यम से सत्य को पाते और समझते हो? तुम लोग किस दृष्टिकोण से सुनते हो? (जब परमेश्वर इन स्थितियों और अभिव्यक्तियों को उजागर करता है और इनका गहन विश्लेषण करता है, तो मैं उनसे अपना मेल कर सकता हूँ। कभी-कभी हो सकता है मेरा व्यवहार पूरी तरह मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियों के समान न हो, लेकिन प्रकट होने वाला स्वभाव और प्रकृति सार एक समान होते हैं।) उजागर होने वाली दशाएँ, अभिव्यक्तियाँ और सार हर व्यक्ति में अलग-अलग सीमा तक होते हैं। जब लोग पहली बार परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करते हैं तो अपने भीतर इन भ्रष्ट स्वभावों की अभिव्यक्तियों पर ध्यान देना उनके लिए कठिन होता है, लेकिन जैसे-जैसे उनका परमेश्वर में विश्वास का अनुभव बढ़ता जाता है, वे कुछ स्वभावों और व्यवहारों के प्रति अनजाने में ही जागरूक हो जाते हैं। इसलिए हम जिस विषय-वस्तु पर चर्चा कर रहे हैं, उसमें शामिल विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ चाहे वर्तमान में तुमसे जुड़ी हुई हों या चाहे तुम ऐसे व्यवहार अतीत में करते रहे हो, इसका यह मतलब नहीं होता कि ये मसले तुमसे असंबद्ध हैं; इसका यह मतलब नहीं होता कि तुम भविष्य में ऐसी चीजें नहीं करोगे, न ही इसका यह मतलब है कि तुम्हारे ऐसे स्वभाव और व्यवहार नहीं हैं। हम पिछले एक साल से अधिक समय से मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों पर संगति कर इन्हें उजागर कर रहे हैं। एक विषय पर संगति करते हुए एक साल से ज्यादा समय बिताने के बाद भी यह खत्म नहीं हुई है, तो क्या तुम लोगों को लगता है कि हमारी संगति की विषय-वस्तु विशिष्ट और संपूर्ण है? (यह संपूर्ण है।) यह अत्यंत विशिष्ट और संपूर्ण है! संगति के इस स्तर तक पहुँचने के बावजूद अनेक लोग अभी भी अपने मूल व्यवहार दिखाते हैं, वे जरा भी नहीं बदले हैं। यानी जो वचन बोले गए और जो दशाएँ, स्वभाव और सार उजागर किए गए, वे उनकी थोड़ी-सी भी मदद नहीं करते हैं। इस दौरान अभी भी कुछ लोग लापरवाह और निर्लज्ज व्यवहार करते रहते हैं, मनमाने और निरंकुश ढंग से कार्य करते हैं और हठपूर्वक और सनकभरा व्यवहार करते हैं। वे पहले जैसे थे वैसे ही रहते हैं और रुतबा पाने के बाद तो और भी अधिक उच्छृंखल हो जाते हैं, खुद का और भी पूरी तरह से खुलासा कर देते हैं। इसके अलावा, हमेशा कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें बदला और हटाया जाता है—यहाँ क्या चल रहा है? (इसका कारण यह है कि इन लोगों ने कभी भी सत्य को स्वीकार नहीं किया है; उन्होंने धर्मोपदेश तो बहुत सारे सुने लेकिन उन्हें दिल में नहीं उतारा है।) इसका एक कारण यह है कि ये लोग सत्य को कभी स्वीकार नहीं करते हैं; वे सत्य से विमुख हैं और सकारात्मक चीजों से प्रेम नहीं करते हैं। दूसरा कारण यह है कि उनमें जन्मजात मसीह-विरोधियों का सार होता है, वे सत्य या सकारात्मक चीजों को स्वीकार करने में असमर्थ होते हैं। इसलिए मैं भले ही इतनी विशिष्टता के साथ मसीह-विरोधियों के विभिन्न सारों और अभिव्यक्तियों पर संगति कर उन्हें उजागर कर चुका हूँ, फिर भी ये मसीह-विरोधी और बुरे लोग बेलगाम और बेखौफ होकर कार्य करते हैं, वे जो चाहते हैं वही करते हैं। क्या यह उनके सार से तय नहीं होता? इन लोगों के लिए अपनी प्रकृति बदलना सचमुच असंभव है; वे चाहे कितने ही धर्मोपदेश सुन लें, उन पर प्रभाव नहीं पड़ता और उन्हें पश्चात्ताप भी नहीं होता। उनके दैनिक जीवन, अपने कर्तव्य निभाने के प्रति उनके रवैये और तरीके के आधार पर आकलन किया जाए तो वे सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते हैं और उनके स्वभाव जरा-सा भी नहीं बदले हैं; ये वचन भैंस के आगे बीन बजाने के समान हैं—पूरी तरह बेअसर। ये वचन मसीह-विरोधियों को प्रभावित नहीं करते हैं लेकिन क्या इनका तुम लोगों पर कोई निरोधात्मक प्रभाव पड़ा? क्या इन वचनों ने तुम्हारे कुछ व्यवहारों पर लगाम लगाने और तुम्हारे जमीर और नैतिकता के मानकों को ऊपर उठाने में कोई मदद की है? (कुछ हद तक।) अगर इनका किसी पर यह प्रभाव नहीं पड़ा तो क्या ऐसे लोग अभी भी इंसान हैं? वे इंसान नहीं हैं; वे दानव हैं। निःसंदेह इन वचनों को सुनने के बाद अधिकतर लोगों ने मसीह-विरोधियों के विभिन्न स्वभाव सारों के बारे में कुछ समझ प्राप्त कर ली है और मसीह-विरोधियों के स्वभावों के प्रति अपने दिल की गहराई से घृणा पैदा कर ली है, साथ ही अपने भ्रष्ट स्वभाव सारों के बारे में कुछ समझ और ज्ञान भी प्राप्त कर लिया है। यह अच्छा संकेत है, अच्छी बात है। लेकिन क्या ऐसे लोग भी हैं जो जितना अधिक सुनते हैं, उतना ही अधिक नकारात्मक हो जाते हैं? ये वचन सुनकर वे सोचते हैं, “यह खत्म हो गया। हर बार जब मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियाँ, दशाएँ और स्वभाव उजागर किए किए जाते हैं, तो वे मुझसे पूरी तरह मेल खाते हैं। वे एक बार भी मेरे लिए असंगत नहीं होते। मैं खुद को मसीह-विरोधियों के स्वभाव से पूरी तरह कब अलग कर पाऊँगा? मैं परमेश्वर के लोगों, परमेश्वर के प्रिय पुत्रों की कुछ अभिव्यक्तियाँ कब दिखा पाऊँगा?” वे जितना अधिक सुनते हैं, उतना ही अधिक नकारात्मक हो जाते हैं, उतना ही अधिक उन्हें लगता है कि उनके पास अनुसरण करने के लिए कोई रास्ता नहीं है। क्या यह प्रतिक्रिया सामान्य है? (नहीं।) क्या तुम लोग निराश महसूस करते हो? (नहीं।) जब भी तुम लोग मुझे मसीह-विरोधियों की इन अभिव्यक्तियों और घटनाओं को उजागर करते हुए सुनते हो, तो क्या यह तुम्हें डंक की तरह चुभता है या असहज करता है? क्या तुम शर्मिंदा महसूस करते हो? (यह चुभता है, हम शर्मिंदा महसूस करते हैं।) तुम्हारे मन में चाहे जो भी भावनाएँ आती हों, यह अच्छा है कि मेरे वचनों से तुममें नकारात्मकता नहीं आती है; तुम लोग दृढ़ता से खड़े रहे हो। लेकिन नकारात्मक न होना ही पर्याप्त नहीं है; इससे मकसद हासिल नहीं होता, यह अंतिम उद्देश्य नहीं है। तुम्हें इन वचनों के माध्यम से अपने बारे में ज्ञान तक पहुँचने की जरूरत है। इसका उद्देश्य व्यवहार के एक पहलू को समझना नहीं है बल्कि तुम्हारे अपने स्वभाव और सार को जानना है। इस समझ से तुम्हें जीवन में और अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में अभ्यास करने का रास्ता खोजने में सक्षम बन जाना चाहिए, यह जान लेना चाहिए कि कौन से कार्य मसीह-विरोधियों के व्यवहार के अनुरूप हैं, कौन से कार्य किसी मसीह-विरोधी के स्वभाव का खुलासा करते हैं और कौन से कार्य सिद्धांतों के अनुरूप हैं। अगर तुम ऐसा कर सकते हो, तो तुमने इन वचनों को व्यर्थ नहीं सुना है; इनका तुम पर प्रभाव पड़ा है। इसके बाद हम इस चौथी अभिव्यक्ति के बारे में संगति जारी रखेंगे कि देहधारी परमेश्वर के साथ मसीह-विरोधी कैसा व्यवहार करते हैं—मसीह जो कहता है उसे केवल सुनना, लेकिन न तो उसका आज्ञापालन करना और न ही उसके प्रति समर्पण करना।

घ. मसीह जो कहता है उसे केवल सुनना, लेकिन न तो उसका आज्ञापालन करना और न ही उसके प्रति समर्पण करना

मसीह-विरोधी मसीह जो कहता है उसे केवल सुनते हैं, लेकिन न तो उसका आज्ञापालन करते हैं और न ही उसके प्रति समर्पण करते हैं; तो फिर वे कैसे सुनते हैं? यह वाक्यांश वास्तव में उनके सुनने वाले रवैये का सारांश पेश करता है : उनमें कोई अनुपालन नहीं होता, कोई वास्तविक समर्पण नहीं होता; वे दिल से स्वीकार नहीं करते, बल्कि केवल अपने कानों से सुनते हैं, वे दिल से सुनते या समझते नहीं हैं। शाब्दिक रूप से देखें तो इस संबंध में मसीह-विरोधियों के व्यवहार और स्वभाव को इन बुनियादी बातों के जरिये संक्षेप में पेश किया जा सकता है। मसीह-विरोधियों के स्वभाव सार के दृष्टिकोण से देखा जाए तो ये लोग ऐसी किसी चीज का पालन या उसके प्रति समर्पण नहीं करते हैं जो परमेश्वर से आती है या जिसे परमेश्वर या मनुष्यों द्वारा अच्छा और सकारात्मक माना जाता है और जो प्राकृतिक नियमों के अनुरूप होती है; बल्कि वे ऐसी चीजों को हेय दृष्टि से देखते हैं और उनके अपने दृष्टिकोण और विचार होते हैं। क्या उनके दृष्टिकोण सकारात्मक चीजों के नियमों और व्यवस्थाओं के अनुरूप हैं? नहीं। उनके दृष्टिकोण दो पहलुओं तक सीमित होते हैं : एक पहलू है शैतान की व्यवस्थाएँ है और दूसरा शैतान के हितों और शैतान के प्रकृति सार के अनुरूप है। इसलिए परमेश्वर ने जिस देह में देहधारण किया है उसके संबंध में मसीह-विरोधियों के दृष्टिकोण और रवैये वास्तव में दो चीजों तक सीमित हैं : एक है शैतान का तर्क और व्यवस्थाएँ, और दूसरा है शैतान का स्वभाव सार। मसीह पृथ्वी पर कार्य का एक चरण पूरा करते हुए परमेश्वर का प्रवक्ता है, वह पृथ्वी पर कार्य का एक चरण पूरा करते हुए परमेश्वर की अभिव्यक्ति और देहधारण है। ऐसी भूमिका के लिए मसीह-विरोधियों में जिज्ञासा, पड़ताल की चाहत और उसके साथ एक प्रतिष्ठित व्यक्ति की भाँति खुशामद और चापलूसी भरा व्यवहार करने के अलावा उनके दिलों में कोई वास्तविक विश्वास और अनुसरण नहीं होता है, वास्तविक प्यार और समर्पण तो दूर की बात है। मसीह के संबंध में, एक ऐसी हस्ती जो भ्रष्ट मानवजाति की नजरों में तुच्छ लगता है, उसका स्वरूप साधारण और सामान्य होता है; उसकी वाणी, व्यवहार और आचरण और साथ ही उसकी मानवता के सभी पहलू भी साधारण और सामान्य होते हैं। इससे भी अधिक, उसके कार्यों का स्वरूप, ढंग और तरीका हर किसी की नजरों में अत्यंत साधारण, सामान्य और व्यावहारिक प्रतीत होते हैं। वे अलौकिक नहीं हैं, खोखले नहीं हैं, अस्पष्ट नहीं हैं और वास्तविक जीवन से अलग नहीं हैं। संक्षेप में कहें तो बाहर से मसीह बहुत उच्च नहीं दिखता। उसकी वाणी, कार्य और आचरण व्यापक या अमूर्त नहीं हैं। इंसानी नजरों से देखने पर न कोई रहस्य दिखाई देता है, न ही कोई अबूझ चीज दिखती है; वह निहायत ही व्यावहारिक है, बहुत सामान्य है। इससे पहले कि हम देहधारी परमेश्वर के किए सभी कार्यों के सार और प्रकृति पर चर्चा करें, आओ हम उन सभी चीजों पर विचार कर लें जो देहधारी परमेश्वर की इस भूमिका के बारे में लोगों को बाहर से दिखाई देती हैं : उसकी वाणी, व्यवहार, आचरण, आम दिनचर्या, व्यक्तित्व, रुचियाँ, शैक्षिक स्तर, वे मसले जिनकी वह परवाह करता है और जिन पर चर्चा करता है, उसका लोगों के साथ व्यवहार करने और बातचीत करने का तरीका, साथ ही जिन चीजों के बारे में वह ज्ञान स्पष्ट ढंग से प्रस्तुत करता है, इत्यादि। मनुष्य की दृष्टि में ये सभी अलौकिक, उच्च या खोखले नहीं हैं, बल्कि विशेष रूप से व्यावहारिक हैं। ये सभी पहलू मसीह का अनुसरण करने वाले हर व्यक्ति के लिए एक परीक्षा हैं; लेकिन जो लोग वास्तव में परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, जिनके पास जमीर और विवेक है, वे जब कुछ सत्यों को समझ लेते हैं तो मसीह की इन सभी सामान्य और व्यावहारिक अभिव्यक्तियों को बाहरी तौर पर देहधारी परमेश्वर की श्रेणी के तहत संक्षेप में पेश करते हैं ताकि इन्हें समझ, बूझ लें और समर्पण कर सकें। लेकिन सिर्फ मसीह-विरोधी ही ऐसा नहीं करते; वे ऐसा कर नहीं सकते। अपने दिल की गहराई में उन्हें मसीह जैसे अत्यधिक सामान्य व्यक्ति में कुछ कमी महसूस होती है। वास्तव में कमी क्या है? मसीह-विरोधियों को अपने अंतर्मन में अक्सर महसूस होता है कि इतना सामान्य व्यक्ति परमेश्वर जैसा नहीं लगता। वे अक्सर यह माँग भी करते हैं कि ऐसे सामान्य व्यक्ति को इस प्रकार बोलना, कार्य करना और व्यवहार करना चाहिए कि वह उन्हें पूरी तरह सच्चा परमेश्वर लगे, अपने ख्वाबों का मसीह लगे। इसलिए मसीह-विरोधियों के दिलों की गहराई में देखें तो वे ऐसे सामान्य व्यक्ति को अपना प्रभु, अपना परमेश्वर स्वीकार करने के इच्छुक नहीं होते हैं। मसीह का कोई पहलू जितना अधिक सामान्य, व्यावहारिक और साधारण होता है, मसीह-विरोधी उसे उतनी ही अधिक घृणा, हेय और यहाँ तक कि शत्रुता की दृष्टि से देखते हैं। इस प्रकार मसीह के वचनों समेत उसके व्यवहार के किसी भी पहलू को देखें, मसीह-विरोधी इन्हें अंदर से स्वीकार नहीं कर सकते और यहाँ तक कि इनका प्रतिरोध भी करते हैं।

मसीह की वाणी में क्या-क्या शामिल होता है? कभी इसका संबंध कार्य व्यवस्थाओं से होता है तो कभी इसमें किसी की कमियाँ बताना, कभी एक खास तरह के व्यक्ति के भ्रष्ट सार को उजागर करना, कभी किसी मसले से जुड़ी समस्याओं का गहन विश्लेषण करने के लिए इसके सार और सभी ब्योरों का विश्लेषण करना, कभी किसी मामले में सही-गलत का निर्णय करना, कभी एक खास तरह के व्यक्ति का परिणाम निर्धारित करना, कभी कुछ लोगों को पदोन्नत या बरखास्त करना, कभी-कभी कुछ लोगों की काट-छाँट करना तो कभी-कभी कुछ लोगों को सांत्वना और प्रोत्साहन देना शामिल है। बेशक, मसीह अपने कार्य के दौरान लोगों के जीवन स्वभाव से सबंधित जिन सत्यों पर बात करता है उनके अलावा भी वह अक्सर तमाम तरह की चीजों के साथ ही मानव ज्ञान और विभिन्न पेशेवर क्षेत्रों से संबंधित कुछ विषयों को भी छू लेता है। मसीह एक सामान्य और व्यावहारिक व्यक्ति है; वह शून्य में नहीं रहता। मानव अस्तित्व और जीवन से संबंधित हर मामले पर उसके अपने विचार और दृष्टिकोण होते हैं, और वह इन मामलों को सिद्धांतों के साथ देखता है। अगर इन सिद्धांतों का संबंध लोगों के अस्तित्व, लोगों के जीवन प्रवेश, परमेश्वर की आराधना के विषयों से है, तो क्या यह कहा जा सकता है कि ये सभी सिद्धांत सत्य हैं? (हाँ।) मसीह मानव ज्ञान, फलसफे और कुछ पेशेवर मामलों से संबंधित जो वचन बोलता है, उन्हें सीधे-सीधे सत्य नहीं कहा जा सकता है बल्कि ये वचन अपने दृष्टिकोण, रवैये और सिद्धांत की दृष्टि से इन विषयों पर मनुष्य के ज्ञान से भिन्न हैं। उदाहरण के लिए, किसी चीज के ज्ञान के प्रति इंसान श्रद्धापूर्ण रवैया अपना सकता है, उसके अनुसार जी सकता है, जबकि मसीह तमाम तरह के ज्ञान का गहन विश्लेषण कर सकता है, उसमें भेद पहचान सकता है और उससे सही ढंग से पेश आ सकता है। उदाहरण के लिए, किसी पेशे में तुम लोग अपनी विशेषज्ञता और अपनी महारत को ले लो। इस ज्ञान के प्रयोग से तुम लोग क्या हासिल कर सकते हो? तुम लोग अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में इस ज्ञान को कैसे लागू करते हो? क्या इसमें कोई सत्य सिद्धांत शामिल होते हैं? अगर तुम सत्य को नहीं समझते तो इसमें कोई सिद्धांत नहीं होते और तुम अपना कर्तव्य निभाने के लिए केवल ज्ञान के भरोसे रहते हो। हालाँकि हो सकता है मैं उस पेशे का विशेषज्ञ नहीं हूँ या उस ज्ञान की गहरी समझ नहीं रखता हूँ, केवल सामान्य विचार को समझता हूँ और कुछ बुनियादी बातें जानता हूँ, लेकिन मैं यह जानता हूँ कि इस ज्ञान को ऐसे किस तरीके से और किन सिद्धांतों के साथ लागू किया जाए कि परमेश्वर के कार्य को प्रभावी ढंग से करने में मदद मिले। अंतर यही है। मसीह-विरोधी सत्य को स्वीकार न करने के कारण इस बारीकी को कभी नहीं पकड़ पाएँगे और न कभी यह समझ पाएँगे कि मसीह का सार वाकई क्या है। मसीह के पास परमेश्वर का सार है—यह कथन वास्तव में कहाँ साकार और अभिव्यक्त हुआ है, लोगों को इसे किस रूप में लेना चाहिए और लोगों को इससे क्या लाभ और फायदे मिलते हैं? मसीह-विरोधी इस पहलू को कभी नहीं देखेंगे। ऐसा क्यों है? इसका एक सबसे महत्वपूर्ण कारण है : जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है उस देह को मसीह-विरोधी चाहे जैसे देखें, वे केवल एक व्यक्ति को देखते हैं। वे मानवीय दृष्टिकोण से मापते हैं, देखने के लिए मानवीय ज्ञान, अनुभव, बुद्धि, चालाकी और चालबाजी का उपयोग करते हैं, लेकिन वे चाहे जैसे भी देखें, वे इस व्यक्ति में कुछ भी विशेष नहीं देख सकते हैं, न वे यह पहचान सकते हैं कि उसमें परमेश्वर का सार है। मुझे बताओ, क्या वे इसे नंगी आँखों से देख सकते हैं? (नहीं।) अगर वे एक सूक्ष्मदर्शी या एक्स-रे का उपयोग करें तो क्या होगा? तब तो उनके इसे देखने की संभावना और भी कम होगी। कुछ लोग पूछते हैं : “अगर इसे नंगी आँखों या सूक्ष्मदर्शी से नहीं देखा जा सकता है तो क्या आध्यात्मिक क्षेत्र के संपर्क में रहने वाले लोग इसे देख सकते हैं?” (नहीं।) आध्यात्मिक क्षेत्र के संपर्क में रहने वाले लोग उस क्षेत्र में देख सकते हैं और आत्माओं का आभास पा सकते हैं तो वे देहधारी परमेश्वर को क्यों नहीं पहचान सकते? क्या तुम लोगों को लगता है कि शैतान आध्यात्मिक क्षेत्र में परमेश्वर को देख सकता है? (हाँ।) परमेश्वर की तरह शैतान भी आध्यात्मिक क्षेत्र में मौजूद है लेकिन क्या वह परमेश्वर को परमेश्वर मानता है? (नहीं।) क्या वह परमेश्वर का अनुसरण करता है या उसमें विश्वास रखता है? (नहीं।) शैतान हर दिन परमेश्वर को देख सकता है, फिर भी वह न तो उसमें विश्वास रखता है और न ही उसका अनुसरण करता है। इसलिए आध्यात्मिक क्षेत्र के संपर्क में रहने वाले लोग भले ही परमेश्वर के आत्मा को देख सकते हों, क्या वे इस आत्मा को परमेश्वर मानेंगे? (नहीं।) क्या यह स्पष्टीकरण समस्या के मूल का समाधान करता है? (हाँ।) यहाँ मूल क्या है? (वे परमेश्वर को स्वीकार नहीं करते और उसका भय नहीं मानते हैं।) मसीह-विरोधी अपने अंदर गहराई में परमेश्वर को स्वीकार नहीं करते हैं। उनके पुरखों ने, उनकी जड़ों ने ही, परमेश्वर को स्वीकार नहीं किया। यहाँ तक कि परमेश्वर को अपनी आँखों के ठीक सामने पाकर भी वे न तो उसे स्वीकार करते हैं और न ही उसकी आराधना करते हैं। तो फिर वे देहधारी परमेश्वर की आराधना कैसे कर सकते हैं जो इतना साधारण और तुच्छ प्रतीत होता है? वे बिल्कुल नहीं कर सकते। इसलिए मसीह-विरोधी देखने के लिए चाहे किसी भी साधन का प्रयोग कर लें, सब व्यर्थ है। जब से परमेश्वर ने अपना कार्य आरंभ किया तब से लेकर अब तक, परमेश्वर ने बहुत सारे वचन बोले हैं और इतना महान कार्य किया है। क्या यह मानव संसार में सबसे बड़ा संकेत और चमत्कार नहीं है? अगर मसीह-विरोधी इसे स्वीकार कर पाते, तो उन्होंने बहुत पहले ही विश्वास रख लिया होता; उन्होंने अब तक इंतजार नहीं किया होता। क्या कुछ लोग यह सोचते हैं कि “मसीह-विरोधियों ने परमेश्वर के वास्तविक कर्मों को पर्याप्त रूप से देखा ही नहीं है, इसलिए वे असहमत रहते हैं; अगर परमेश्वर कुछ संकेत और चमत्कार दिखा दे, उन्हें यह दिखा दे कि आध्यात्मिक क्षेत्र वास्तव में कैसा है, और अगर वे परमेश्वर का वास्तविक व्यक्तित्व देख लें और यह भी देख लें कि उसके सभी वचन पूरे हो चुके हैं तो फिर वे परमेश्वर को स्वीकार कर लेंगे और उसका अनुसरण करेंगे”? क्या ऐसा ही है? आध्यात्मिक क्षेत्र में परमेश्वर से सहमत हुए बिना इतने ज्यादा बरसों तक संघर्ष करने के बाद क्या मसीह-विरोधी अचानक कुछ ही वर्षों में समर्पण करने लगेंगे? यह असंभव है; उनका प्रकृति सार अपरिवर्तनीय है। देहधारी परमेश्वर ने बहुत सारे कार्य किए हैं और बहुत सारे वचन बोले हैं, फिर भी इनमें से कुछ भी मसीह-विरोधियों को जीत नहीं सकता है, न ही वे परमेश्वर की पहचान और सार को स्वीकार सकते हैं। यह उनकी जन्मजात प्रकृति है। यह प्रकृति क्या बताती है? इसका यह अर्थ है कि मसीह-विरोधियों जैसे लोग परमेश्वर, सत्य और सकारात्मक चीजों के खिलाफ हमेशा युद्ध छेड़ते रहेंगे, कड़वे अंत तक लड़ते रहेंगे और मृत्यु तक कभी नहीं रुकेंगे। क्या वे विनाश के उचित निशाने नहीं हैं? “मृत्यु तक कभी न रुकने” का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि वे परमेश्वर के वचनों को सत्य मानने के बजाय मरना पसंद करेंगे, वे परमेश्वर के प्रति समर्पण करने के बजाय मरना पसंद करेंगे। यह मृत्यु के ही योग्य है।

जब इस सामान्य व्यक्ति मसीह की बात आती है, तो मसीह-विरोधी बाहर से ही नहीं, बल्कि भीतर से भी उसकी पड़ताल करते हैं। इस प्रकार जब मसीह बोलता और कार्य करता है, तो मसीह-विरोधी तमाम तरह के व्यवहार दिखाते हैं। चलो हम मसीह की वाणी और क्रियाकलापों के जवाब में मसीह-विरोधियों की ओर से प्रदर्शित होने वाली विभिन्न अभिव्यक्तियों के जरिये उनके प्रकृति सार को उजागर करें। उदाहरण के लिए, जब मसीह कार्य और सत्य सिद्धांतों के बारे में लोगों के साथ संगति करता है तो वह कुछ विशिष्ट अभ्यासों का उल्लेख करता है। इनका संबंध इस बात से है कि लोगों को अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया के दौरान किसी कार्य को कैसे विशेष रूप से कार्यान्वित और लागू करना चाहिए। आम तौर पर कहें तो किसी भी कार्य का मतलब यह नहीं होता कि सिद्धांत पर चर्चा कर ली जाए, नारे लगा लिए जाएँ, सबको उत्साहित कर लें और फिर सभी को शपथ दिला दी जाए और बस इतिश्री कर ली जाए; कर्तव्य से संबंधित प्रत्येक कार्य जटिल होता है और इसमें कुछ विवरण शामिल होते हैं। उदाहरण के लिए : सही व्यक्ति का चयन कैसे करें; विभिन्न लोगों की विभिन्न दशाओं को कैसे संभालें और उनके साथ कैसा व्यवहार करें; कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया के दौरान उत्पन्न होने वाली विभिन्न समस्याओं से सिद्धांतों के अनुसार कैसे निपटें; मनमाने और निरंकुश ढंग से काम किए बिना या हठपूर्वक और स्वेच्छाचारिता से व्यवहार किए बिना लोगों के बीच सामंजस्यपूर्ण सहयोग का लक्ष्य कैसे हासिल किया जाए; और इसी तरह के तमाम विषय इसमें शामिल हैं। जब लोगों को ऐसे किसी विशिष्ट कार्य को क्रियान्वित करने और विशिष्ट परियोजनाओं का कार्यभार लेने की जरूरत होती है जिसके बारे में मसीह ने संगति की है, तो हो सकता है कि उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़े। नारे लगाना और धर्म-सिद्धांतों का प्रचार करना आसान है, लेकिन वास्तविक क्रियान्वयन इतना आसान नहीं है। कम-से-कम इतना तो है ही कि वास्तव में ये कार्य करने के लिए लोगों को प्रयास करने, कीमत चुकाने और समय खपाने की जरूरत होती है। एक लिहाज से इसमें उपयुक्त व्यक्तियों को ढूँढ़ना शामिल है तो दूसरे लिहाज से संबंधित पेशे के बारे में सीखना, विभिन्न पेशेवर पहलुओं से संबंधित सामान्य जानकारी और सिद्धांतों के साथ ही इसे क्रियान्वित करने के विशिष्ट तरीकों और दृष्टिकोणों पर शोध करना शामिल है। इसके अलावा उन्हें कुछ चुनौतीपूर्ण मसलों का सामना करना पड़ सकता है। आम तौर पर सामान्य लोग इन कठिनाइयों के बारे में सुनकर थोड़ा भयाकुल हो जाते हैं, थोड़ा दबाव महसूस करते हैं, लेकिन जो लोग परमेश्वर के प्रति वफादार और आज्ञाकारी होते हैं, वे कठिनाइयों का सामना और दबाव महसूस करने पर अपने दिल में मौन होकर प्रार्थना करेंगे और अपनी आस्था बढ़ाने, प्रबोधन और मदद पाने के लिए परमेश्वर से मार्गदर्शन माँगेंगे, और वे गलतियाँ करने से बचने की विनती भी करेंगे ताकि वे अपनी वफादारी अच्छे से निभा सकें और एक स्वच्छ जमीर प्राप्त करने के लिए पुरजोर कोशिश कर सकें। लेकिन मसीह-विरोधियों जैसे लोग ऐसे नहीं होते हैं। जब वे मसीह से मिले कार्य के बारे में यह सुनते हैं कि उन्हें कुछ विशिष्ट व्यवस्थाओं को लागू करना होगा और कार्य में कुछ कठिनाइयाँ हैं, तो वे मन-ही-मन प्रतिरोध महसूस करने लगते हैं और आगे बढ़ने के इच्छुक नहीं होते हैं। यह अनिच्छा कैसी दिखती है? वे कहते हैं : “मेरे हिस्से में कभी अच्छी चीजें क्यों नहीं आतीं? मुझे हमेशा समस्याएँ और माँगें क्यों पकड़ा दी जाती हैं? क्या मुझे निठल्ला या हुक्म का गुलाम मान लिया गया है? मुझे बहकाना इतना आसान नहीं है! तुम इसे इतनी आसानी से कह देते हो, तुम इसे खुद करने की कोशिश क्यों नहीं करते!” क्या यह समर्पण है? क्या यह स्वीकृति का रवैया है? वे क्या कर रहे हैं? (प्रतिरोध कर रहे हैं, विरोध कर रहे हैं।) यह प्रतिरोध और विरोध कैसे उत्पन्न होता है? उदाहरण के लिए, अगर उनसे कहा जाए, “जाओ कुछ किलोग्राम मांस खरीद लाओ और सबके लिए धीमी आँच में पका चाशु यानी ब्राइड पोर्क बनाओ” तो क्या वे इसका विरोध करेंगे? (नहीं।) लेकिन अगर उनसे यह कहा जाए कि “तुम आज जाकर उस खेत की जुताई करो और जुताई करते समय तुम्हें खेत के सारे पत्थर हटाने होंगे, तभी तुम्हें खाना मिल पाएगा।” तो वे अनिच्छुक हो जाएँगे। कम में जब एक बार शारीरिक कष्ट, कठिनाई या दबाव शामिल हो जाता है तो उनकी नाराजगी सतह पर आ जाती है और वे आगे बढ़ने के लिए अनिच्छुक हो जाते हैं; वे प्रतिरोध और शिकायत करने लगते हैं : “मेरे साथ अच्छी चीजें क्यों नहीं होतीं? जब आसान और हल्के कामों की बारी आती है तो मेरी अनदेखी क्यों कर दी जाती है? मुझे कठिन, थकाऊ या गंदे कामों के लिए क्यों चुना जाता है? क्या इसका यह कारण है कि मैं निष्कपट और भोला-भाला लगता हूँ?” यहीं से आंतरिक प्रतिरोध शुरू होता है। वे इतने प्रतिरोधी क्यों होते हैं? कैसा “गंदा और थकाऊ काम”? कैसी “कठिनाइयाँ”? क्या ये सब उनके कर्तव्य का हिस्सा नहीं हैं? जिसे भी यह काम सौंपा जाए उसे ही करना चाहिए; इसमें ठोक-बजाकर चुनने की क्या बात है? क्या यह उनके लिए जान-बूझकर कठिनाई खड़ी करने को लेकर है? (नहीं।) लेकिन वे मानते हैं कि उनके लिए जान-बूझकर कठिनाई खड़ी की जा रही है, उन्हें मुश्किल में डाला जा रहा है, इसलिए वे इस कर्तव्य को परमेश्वर से स्वीकार नहीं करते और इसे स्वीकारने के इच्छुक नहीं रहते हैं। यहाँ क्या चल रहा है? क्या ऐसा है कि जब उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, शारीरिक कष्ट सहना पड़ता है और वे आराम से नहीं रह सकते, तो वे प्रतिरोधी बन जाते हैं? क्या यह बिना शर्त, शिकायत-रहित समर्पण है? वे जरा-सी कठिनाई में अनिच्छुक हो जाते हैं। ऐसा कोई भी काम जो वे नहीं करना चाहते हैं, जो उन्हें कठिन, अवांछनीय, अपमानजनक लगता है या जो दूसरों की नजर में तुच्छ समझा जाता है, वे उसके प्रति जरा-सा भी समर्पण नहीं दिखाते और उसका उग्रता से प्रतिरोध करते हैं, उस पर ऐतराज करते हैं और उसे करने से इनकार कर देते हैं। मसीह अपने जिन वचनों, आज्ञाओं या सिद्धांतों के बारे में संगति करता है—इनके कारण जैसे ही मसीह-विरोधियों के लिए कठिनाइयाँ पैदा होती हैं या उन्हें कष्ट सहने या कीमत चुकाने की जरूरत पड़ती है—तो मसीह-विरोधियों की पहली प्रतिक्रिया प्रतिरोध, इनकार और अपने दिलों में घृणा की भावना के रूप में सामने आती है। लेकिन जब उनकी मनपसंद या फायदेमंद चीजों की बात आती है तो उनका ऐसा ही रवैया नहीं होता। मसीह-विरोधी सुख-सुविधा भोगने और अलग दिखने के इच्छुक होते हैं, लेकिन जब उनका सामना दैहिक कष्ट, कीमत चुकाने की जरूरत या यहाँ तक कि दूसरों की नाराजगी मोल लेने से हो तो क्या वे प्रसन्न होते हैं और खुशी-खुशी इसे स्वीकारने को तैयार होते हैं? क्या तब वे पूर्ण समर्पण कर पाते हैं? रत्तीभर भी नहीं; उनका रवैया पूरी तरह से अवज्ञापूर्ण और अड़ियल होता है। जब मसीह-विरोधियों जैसे लोगों का सामना ऐसी चीजों से होता है जिन्हें वे करना नहीं चाहते हैं, ऐसी चीजें जो उनकी प्राथमिकताओं, रुचियों या स्वार्थों से मेल नहीं खाती हैं तो मसीह के वचनों के प्रति उनका रवैया पूर्ण इनकार और प्रतिरोध का हो जाता है, इसमें समर्पण नाम की चीज नहीं होती।

कुछ लोग मसीह को बोलते हुए सुनते समय ख्याल बुनने लगते हैं : “मसीह ऐसा क्यों कहता है? वह इस मामले से इस दृष्टिकोण से कैसे पेश आ सकता है? वह ऐसी राय कैसे रख सकता है, वह किसी चीज को इस तरह से कैसे परिभाषित कर सकता है? क्या यह भी सत्य है? क्या ये भी परमेश्वर के वचन हैं? मुझे तो ऐसा नहीं लगता। परमेश्वर जिस तरह से बात करता है वह बाइबल में तो अलग तरीके से दर्ज किया गया है, वहाँ इन ब्योरेदार और तुच्छ मामलों में उतरे बिना एक तरह की तार्किकता है। मसीह इस तरीके से क्यों बोलता है? इसका संबंध हमेशा ब्योरों से और ब्योरों के गहन विश्लेषण से होता है; क्या परमेश्वर सचमुच ऐसा बोल सकता है?” जब भी वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं तो उनके मन में धारणाएँ नहीं होती हैं और वे यही सोचते हैं, “ये परमेश्वर के वचन हैं; मुझे जीवन, उद्धार और आशीष पाने के लिए इन पर भरोसा करना चाहिए।” लेकिन जब वे सचमुच मसीह के साथ बातचीत करते हैं, तब कुल मामलों पर उसके विचारों, टिप्पणियों और रवैयों, और साथ ही कुछ लोगों को संभालने के उसके तरीकों के बारे में सुनते हैं तो वे राय बनाना शुरू कर देते हैं, और ऐसी राय को मानवीय धारणाएँ माना जा सकता है। जब मसीह-विरोधी अपने दिलों में धारणाएँ पैदा करते हैं तो क्या वे अपनी धारणाओं की काट-छाँट के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे? बिल्कुल नहीं। वे लेशमात्र भी समर्पण भाव के बिना मसीह के वचनों को निरंतर अपनी धारणाओं से मापते हैं। इस प्रकार जब वे मसीह के बारे में धारणाएँ बना लेते हैं, तो वे अपने भीतर प्रतिरोध महसूस करने लगते हैं और धीरे-धीरे मसीह के प्रति शत्रुतापूर्ण रुख अपना लेते हैं। जब ऐसी शत्रुता उत्पन्न होती है तो क्या तब भी मसीह-विरोधी समर्पण करने की बात सोचते हैं? क्या वे अब भी स्वीकार करने की बात सोचते हैं? वे अपने दिल में यह सोचकर प्रतिरोध करने लगते हैं, “अब मैं तुमसे कुछ लाभकारी स्थिति में हूँ। क्या तुम्हें परमेश्वर नहीं होना चाहिए? क्या तुम्हारे सभी वचन सत्य नहीं हैं? इससे पता चलता है कि जब तुम कार्य करते हो तो तार्किक रूप से बहस भी करते हो और तुम अपनी आँखों से जो देखते हो उसके आधार पर मामलों का आकलन करते हो। तुम्हारे कार्य परमेश्वर के सार के अनुरूप नहीं हैं!” वे अपने भीतर अवज्ञा महसूस करने लगते हैं। जब यह अवज्ञा बढ़ती है तो यह बाहर प्रकट हो जाती है। वे यह कह सकते हैं, “तुम जो कहते हो वह सही लगता है, लेकिन इस बारे में परमेश्वर क्या कहता है यह देखने के लिए मुझे परमेश्वर के वचनों को परखने की जरूरत है। मुझे परमेश्वर से प्रार्थना करनी होगी ताकि यह देखूँ कि वह मेरी अगुआई कैसे करता है। मुझे इंतजार करने और खोजने की जरूरत है ताकि यह देख लूँ कि परमेश्वर मेरा मार्गदर्शन और प्रबोधन कैसे करता है। जहाँ तक तुम्हारी कही बात का सवाल है, वह अब मेरे सोच-विचार के दायरे में नहीं है और वह मेरे क्रियाकलापों का आधार नहीं हो सकती है।” यह कैसी अभिव्यक्ति है? (मसीह को नकारना।) वे मसीह को नकारते हैं, फिर भी वे “वचन देह में प्रकट होता है” को क्यों पढ़ते हैं? (परमेश्वर, मुझे लगता है कि वे केवल स्वर्ग के अज्ञात परमेश्वर को मानते हैं और पृथ्वी के मसीह को सिरे से नकारते हैं।) मसीह-विरोधी निरंतर खोखले शब्दों और धर्म-सिद्धांतों के दायरे में रहते हैं, एक उच्च, अज्ञात परमेश्वर का सम्मान करते हैं। इसलिए वे मसीह के वचनों के रूप में दर्ज लिखित शब्दों का अत्यंत आदर और सम्मान तो करते हैं, लेकिन उनके दिल में इस साधारण से भी साधारणतम मसीह के लिए कोई दर्जा नहीं है। क्या यह विरोधाभास नहीं है? जब वे मसीह के बारे में धारणाएँ पालते हैं तो वे कहते हैं, “मुझे प्रार्थना करने और यह देखने की जरूरत है कि परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं।” केवल परमेश्वर के वचनों को मानने वाले लेकिन मसीह को न मानने वाले ये लोग कौन हैं? (मसीह-विरोधी।) मसीह के वचनों के बारे में उनकी धारणाएँ कितनी भी अहम या गहन क्यों न हों, जब ये वचन छप जाते हैं तो उनकी धारणाएँ गायब हो जाती हैं। जब वचन पाठ बन जाते हैं तो वे परमेश्वर मानकर उनकी आराधना करते हैं। क्या यह वही गलती नहीं है जो फरीसियों और धर्म-मंडल वालों ने की थी? सत्य को न समझ पाना इन अभिव्यक्तियों और धारणाओं की उत्पत्ति को आसान बना देता है। धारणाएँ विकसित करने के बाद मसीह-विरोधियों के दिल समर्पण नहीं कर पाते हैं; उनके दिलों में समर्पण नहीं होता, सिर्फ प्रतिरोध होता है।

साधारण लोगों में किन परिस्थितियों में धारणाएँ पनपती हैं या किस प्रकार के लोगों में धारणाएँ पनपने की आशंका होती है? एक प्रकार के लोग वे हैं जो परमेश्वर के वचनों को नहीं समझते हैं तो दूसरे प्रकार के लोग वो हैं जिन्हें आध्यात्मिक समझ नहीं होती और जो सत्य को स्वीकार नहीं करते हैं; इनमें धारणाएँ पनपने की आशंका होती है। एक बार धारणाएँ पनप जाती हैं तो वे मन ही मन प्रतिरोध करने लगते हैं। उदाहरण के लिए, मैं समय के अनुकूल पृष्ठभूमि, परिवेश और इंसानी जरूरतों के आधार पर लोगों को कोई चीज एक खास तरीके से करने को कह सकता हूँ। समय गुजरने और परिस्थितियाँ बदलने के साथ बाद में उस मामले को संभालने का ढंग और तरीका भी बदल सकता है। लेकिन इस बदलाव से मसीह-विरोधियों को धारणाएँ उपजाने का मौका मिल जाता है : “तुमने पहले ऐसा कहा था, इसे सत्य बताकर लोगों को इस तरीके से अभ्यास करने को कहा था। हम अंततः इसे समझ गए और इसका अभ्यास और पालन करने में सक्षम रहे, यह सोचकर कि हमारे पास आशीष पाने की आशा है, लेकिन अब तुम हमें इसे अलग ढंग से करने को कह रहे हो—इसका क्या मतलब है? क्या तुम हमें सता नहीं रहे हो? क्या तुम हमें मनुष्य से कमतर नहीं मान रहे हो? इसे करने का सही तरीका वास्तव में क्या है?” किसी भी तरीके, दृष्टिकोण या कथन में बदलाव कुछ लोगों को भड़का सकता है—ये ऐसे लोग होते हैं जो सत्य को बिल्कुल नहीं समझते और इसे बूझ भी नहीं सकते हैं। परमेश्वर जो कुछ करता है उसका आकलन वे पुराने दृष्टिकोणों, पुराने सिद्धांतों, कुछ मानवीय नैतिक मानकों, जमीर के मानकों और यहाँ तक कि किसी तार्किक सोच और मानवीय ज्ञान के आधार पर करते हैं। जब इन सब चीजों से मसीह की कही बातों का खंडन होता है या बीच में विसंगतियाँ उत्पन्न होती हैं तो वे इनसे निपटना नहीं जानते हैं। जब आगे बढ़ने का रास्ता न सूझे तो सामान्य लोगों को पहले शांत रहने और स्वीकार करने में सक्षम होना चाहिए, फिर धीरे-धीरे समझने का प्रयास करना चाहिए। लेकिन मसीह-विरोधी ऐसे नहीं होते हैं। वे पहले प्रतिरोध करते हैं और फिर अज्ञात परमेश्वर के समक्ष प्रार्थना करते हैं, यों दिखते हुए कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं और परमेश्वर से अत्यधिक प्रेम करते हैं। उनकी प्रार्थना का क्या उद्देश्य होता है? यही कि मसीह के वचनों को नकारने के लिए पर्याप्त सबूत ढूँढ़ लें, मसीह ने जो कहा है उसकी निंदा और आलोचना करें, अपने दिल को सुकून पहुँचाएँ। वे इसी तरह अपनी धारणाओं का समाधान करते हैं। क्या इससे उनकी धारणाओं का समाधान हो सकता है? (नहीं।) क्यों नहीं? (क्योंकि वे सत्य को नहीं स्वीकारते। वे परमेश्वर के वचनों से सत्य को नहीं खोज रहे हैं, बल्कि परमेश्वर को नकारने का प्रयास कर रहे हैं।) बिल्कुल सही कहा, वे सत्य को स्वीकारने के रवैये या तरीके से अपनी धारणाओं का समाधान नहीं कर रहे हैं। उनकी धारणाएँ दूर नहीं होती हैं; वे उनके मन में कायम रहती हैं। इसलिए ऐसे रवैये से उनकी धारणाओं का समाधान कभी नहीं होगा, ऐसा रवैया उन्हें अपनी धारणाएँ नहीं त्यागने देगा। बल्कि समय के साथ ये धारणाएँ बढ़ती जाएँगी; जैसे-जैसे समय बीतता जाएगा और परमेश्वर में उनके विश्वास के वर्ष बढ़ते जाएँगे, वैसे-वैसे उनकी धारणाएँ और कल्पनाएँ भी बढ़ती जाएँगी। लिहाजा मसीह के प्रति, इस साधारण व्यक्ति के प्रति उनका रवैया अनिवार्य रूप से धारणाओं के बोझ से लदता जाता है। साथ ही, मसीह के प्रति उनके दिल में बाधा और नाराजगी भी बढ़ती जाती है। अपने कर्तव्य निभाते समय, सभाओं में भाग लेते समय और परमेश्वर के वचनों को खाते-पीते समय इन बाधाओं और धारणाओं को उठाए फिरने से आखिरकार उन्हें क्या हासिल हो सकता है? उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होता, सिवाय इसके कि उनकी आशीष पाने की इच्छाएँ दिन-ब-दिन बढ़ती जाती हैं।

क्या तुम लोगों के मन में मसीह के प्रति कोई धारणा है? परमेश्वर से लोगों की माँगें मसीह के बारे में उनकी धारणाओं को आकार देती हैं। ये माँगें कहाँ से आती हैं? ये लोगों की महत्वाकांक्षाओं, इच्छाओं, धारणाओं और कल्पनाओं से उपजती हैं। तो फिर लोग अपने मन में किस प्रकार की धारणाएँ उपजाते हैं? वे मानते हैं कि मसीह को ऐसा कहना चाहिए या वैसा कहना चाहिए, कि उसे कुछ खास अंदाज से बोलना और कार्य करना चाहिए। उदाहरण के लिए, जब कोई निराश और कमजोर महसूस कर रहा हो तो यह सोच सकता है, “क्या परमेश्वर प्रेम नहीं है? परमेश्वर एक ममतामयी माँ के समान है, एक करुणामय पिता के समान है; परमेश्वर को लोगों को सुकून देना चाहिए। स्वर्ग के परमेश्वर के बारे में भूल जाओ; वह तो पहुँच से बाहर है। अब जबकि परमेश्वर पृथ्वी पर आ चुका है तो लोगों की उस तक पहुँच आसान हो गई है। चूँकि मैं निराश महसूस कर रहा हूँ, इसलिए मुझे परमेश्वर के समक्ष जाकर अपना दिल खोलकर रखने की जरूरत है।” और अपना दिल खोलकर सामने रखते समय वे आँसू बहाते हैं, अपनी परेशानियाँ, कमजोरियाँ बताते हैं और खुलकर अपने भ्रष्ट स्वभाव पर चर्चा करते हैं। लोग अपने दिलों में वास्तव में क्या खोज रहे हैं? वे दिलासा पाना चाहते हैं, वे मीठे बोल सुनना चाहते हैं, वे चाहते हैं कि परमेश्वर ऐसे वचन कहे जो उनकी उदासी मिटा दें, उन्हें प्रसन्न करें, सुकून दें और उन्हें निराश महसूस करने से रोक दें। क्या यही बात नहीं है? खासकर कुछ लोग ऐसी कल्पना करते हैं : “इंसानों के लिए कमजोरी और नकारात्मकता बस यही होती है, लेकिन परमेश्वर की दृष्टि से सिर्फ एक वाक्य किसी व्यक्ति को पूरी तरह ताजगी से भर सकता है, जिससे उसके दिल के सारे कष्ट और संताप तुरंत दूर हो सकते हैं। तब कमजोरी और नकारात्मकता धुएँ की तरह काफूर हो जाएँगी और वह किसी भी परिस्थिति में मजबूत रह सकेगा, वह कभी कमजोर नहीं पड़ेगा या नकारात्मकता से घिरा नहीं रहेगा, अपनी गवाही में अडिग रहेगा। तो फिर ठीक है, मसीह को बोलने दो!” मुझे बताओ, ऐसी कोई स्थिति सामने होने पर मुझे क्या कहना चाहिए? पहली बात, मुझे यह पता लगाना होगा कि यह व्यक्ति क्यों निराश महसूस कर रहा है और क्या कर्तव्य निभा रहा है; दूसरी बात, मुझे यह संगति करनी चाहिए कि किसी व्यक्ति को अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में कौन-से सिद्धांतों का मान रखना चाहिए। क्या यह इसे स्पष्ट रूप से समझाने का तरीका नहीं है? क्योंकि जो लोग बेवकूफ और जिद्दी हैं और सत्य को स्वीकार नहीं करते, यह जरूरी है कि उन्हें प्रेरित करने और प्रोत्साहन देने के लिए कुछ अनुशासनात्मक बात कही जाए। साथ ही, इस प्रकार के व्यक्ति के प्रकृति सार को उजागर करना भी जरूरी है ताकि वह यह समझ ले कि हमेशा नकारात्मक होने का क्या मतलब है और वह निरंतर नकारात्मक क्यों रहता है। अगर मैं यह कह दूँ कि सदा नकारात्मक रहने वाले लोग ऐसे होते हैं जो सत्य को नहीं स्वीकारते, सत्य से प्रेम नहीं करते, तो क्या यह सुनकर उन्हें दिलासा मिल सकती है? (नहीं।) मान लो मैंने यह कह दिया : “निरंतर नकारात्मक रहना सामान्य है। यह बालसुलभ अभिव्यक्ति है; मानो यह ऐसी बात है कि कोई बच्चा एक वयस्क की जिम्मेदारियाँ उठाते हुए बोझ के कारण निरंतर नकारात्मक हो जाता है। तुम्हारा आध्यात्मिक कद छोटा है, तुम युवा हो और तुम्हें ज्यादा अनुभव नहीं हुए हैं, इसलिए तुम्हें धीरे-धीरे सीखने की जरूरत है। यही नहीं, तुम्हारे माता-पिता की भी जिम्मेदारी है; उन्होंने तुम्हें ठीक से नहीं सिखाया, इसलिए यह तुम्हारी गलती नहीं है।” वे फिर ऐसा पूछ सकते हैं, “तो फिर मेरा यह भ्रष्ट स्वभाव क्या है?” “यह कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं है; बात बस यह है कि तुम बहुत छोटे हो और एक अच्छे पारिवारिक परिवेश से आते हो; तुम बिगड़े हुए और नकचढ़े हो। कुछ वर्षों में जैसे-जैसे तुम बड़े होगे, चीजें बेहतर होती जाएँगी।” क्या वे यह बात सुनकर सहज महसूस करेंगे? साथ ही अगर मैं उनसे गले मिलकर कुछ सकारात्मक ऊर्जा का संचार कर दूँ तो क्या वे अंदर से खुशी महसूस नहीं करेंगे? इस तरीके से उन्हें लगेगा कि उन्होंने परमेश्वर के प्रेम और आत्मीयता का अनुभव कर लिया है। लेकिन मसीह आम तौर पर इस तरह कार्य नहीं करता। हो सकता है कि वह बड़े बच्चों को दिलासा देने के लिए वास्तव में ऐसा करे लेकिन हर वयस्क के लिए वह इस तरह से कार्य नहीं करेगा; इसे किसी बेवकूफ को धोखा देना कहेंगे। इसके बजाय वह पते की बात करेगा, तुम्हें राह दिखाएगा, यह स्पष्ट करेगा कि वास्तव में क्या हो रहा है और तुम्हें मुक्त रूप से विकल्प चुनने देगा। तुम किस प्रकार के व्यक्ति हो, इसी से यह तय होता है कि तुम किस राह पर चलते हो। मसीह जो कुछ भी करता है उसके सार को देखते हुए कह सकते हैं कि वह लोगों के साथ धोखेबाजी या खिलवाड़ नहीं कर रहा है, लेकिन वे इसे स्वीकार नहीं कर सकते हैं। वे तथ्यों का सामना नहीं करते, लेकिन मसीह का सार यही है; वह सिर्फ इसी तरह कार्य कर सकता है। अगर लोग इसे स्वीकार नहीं कर सके तो क्या इससे लोगों और परमेश्वर के बीच टकराव पैदा नहीं हो जाएगा? अगर वे अपने लक्ष्य हासिल नहीं कर सकते और सत्य को भी स्वीकार नहीं करते तो क्या यह बाधा पैदा नहीं करेगा? (बिल्कुल।) यह लोगों के दिलों में बैठ जाता है। लोग मूल रूप से यह सोचते थे कि परमेश्वर एक माँ या नानी-दादी की तरह बहुत ही ममतामय और सौम्य है। लेकिन अब यह देखकर कि चीजें वैसी नहीं हैं और थोड़ी-सी भी आत्मीयता महसूस न कर वे निराश हो जाते हैं। “मसीह का सिर्फ एक वाक्य मुझे नकारात्मकता से बाहर निकाल सकता है,” क्या उनकी यह कल्पना साकार हो सकती है? “अगर मसीह मेरी समस्याओं को हल करने आता है तो मेरी गारंटी है कि मैं तुरंत अंदर से आत्मीयता महसूस करूँगा और आइंदा कभी नकारात्मक नहीं पड़ूँगा; हर चीज स्पष्ट हो जाएगी और एक रास्ता खुल जाएगा।” क्या यह कल्पना वास्तविक है? क्या यह लक्ष्य हासिल किया जा सकता है? (नहीं।) इसलिए इस मामले में अगर लोग हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के भरोसे रहे तो काम नहीं चलेगा; उन्हें समस्या का समाधान करने के लिए सत्य को खोजना होगा।

कुछ लोग परदे के पीछे कुछ चीजें करते हैं और फिर मुझसे मिलने पर मुझे बताते हैं, “लड़कपन में मैंने शुचिता भंग करने का पाप किया था।” मैं कहता हूँ, “कृपया इस बारे में मुझे मत बताओ। एकांत में ईमानदारी से प्रार्थना करो और सच्चे मन से पश्चात्ताप करो, तब समस्या का समाधान हो जाएगा और परमेश्वर इसे याद नहीं रखेगा। तुम्हें मुझे आमने-सामने बताने की जरूरत नहीं है; मैं इन मामलों में नहीं पड़ता हूँ।” जब मैं उन्हें बोलने से रोकता हूँ तो उनके मन में ऐसे ख्याल आने लगते हैं, “क्या तुम वाकई परमेश्वर हो? मेरा दिल बहुत ईमानदार है, दिल में आग लगी हुई है और तुमने ठंडे पानी की बाल्टी उड़ेलकर इसे बुझा दिया। मैं तो बस तुम्हारे साथ दिल की बात करना चाहता था, तुम क्यों नहीं सुनना चाहते? अगर तुम सुन लोगे तो अच्छा रहेगा; मेरे पास बताने को और भी ब्योरा है।” मैं कहता हूँ, “अपने पाप कबूल करने का तुम्हारा अंतिम उद्देश्य तो पश्चात्ताप करना है, तमाम ब्योरा देना नहीं। अगर तुमने अपने दिल की गहराई से पश्चात्ताप कर लिया है, तो तुम्हारे कबूलने का रूप मायने नहीं रखता है; इस प्रक्रिया से गुजरना फिजूल है। मेरे सामने ये सारे ब्योरे और परिस्थितियाँ स्पष्ट करने का मतलब यह नहीं है कि तुमने पश्चात्ताप कर लिया है। अगर तुम सचमुच पश्चात्ताप कर चुके हो तो भले ही तुम कुछ भी न कहो, तो भी तुम पश्चात्ताप कर चुके होगे। और अगर तुमने पश्चात्ताप नहीं किया तो भले ही तुम इस बारे में सब कुछ बता दो, यह व्यर्थ है।” कुछ लोग समझते नहीं हैं, वे यह सोचते हैं कि मैं सब कुछ सुनना चाहता हूँ, जैसे कि परमेश्वर में विश्वास रखने से पहले वे शुचिता भंग कर चुके हैं, चोरी कर चुके हैं या दूसरों की निंदा कर चुके हैं और उन पर झूठे आरोप लगा चुके हैं। उन्हें लगता है कि मैं व्यक्तिगत जीवन संबंधी ये सारे मामले सुनने को तैयार हूँ, कि मैं सबके अंतर्मन के विचार और उनके सारे विगत अच्छे-बुरे क्रियाकलाप जानना और समझना चाहता हूँ। क्या यह मानवीय धारणा नहीं है? वे गलत समझ रहे हैं। मुझे तो केवल लोगों के भ्रष्ट स्वभाव, उनका सार और वे जिस रास्ते पर चलते हैं उसके बारे में जानने की जरूरत है; उनके उद्धार के महत्वपूर्ण मामले को संबोधित करने के लिए यह काफी है। हर व्यक्ति के वर्तमान या भविष्य के जीवन के बारे में जानने की कोई जरूरत नहीं है; ऐसे विवरणों की कोई जरूरत नहीं है। लोग मान लेते हैं : “तुम भी सामान्य और व्यावहारिक हो। कुछ ऐसी चीजें हैं जिन्हें तुम जानते नहीं हो, इसलिए तुम शायद हर व्यक्ति की पारिवारिक पृष्ठभूमि, वह परिवेश जिसमें वह बड़ा हुआ, बड़े होने के दौरान के ये खास अनुभव समझना चाहते हो, इन्हें अपने कार्य के उद्देश्य से भली-भाँति जानना चाहते हो ताकि उनका न्याय करने और उन्हें उजागर करने के लिए इनका सहारा ले सको।” क्या यह ऐसा ही है? (नहीं।) इन्हीं धारणाओं और कल्पनाओं को धारण किए कुछ लोग जब भी मुझसे मिलते हैं तो हमेशा अपने विगत कर्म यह कहकर मुझे बताना चाहते हैं, “ओह, तुम नहीं जानते, मेरा परिवार ऐसा हुआ करता था...।” मैं कहता हूँ, “अपने पारिवारिक मामलों के बारे में मुझे मत बताओ; परमेश्वर में विश्वास के बारे में कुछ अनुभव बताओ।” दूसरे लोग कहते हैं, “ओह, तुम नहीं जानते, पहले मेरे इतने ज्यादा साथी थे,” या “तुम नहीं जानते कि मैं पहले किन लोगों पर झूठे आरोप लगाकर उन्हें फँसा चुका हूँ।” क्या ये बातें बताने की कोई उपयोगिता है? (नहीं।) उन्हें लगता है कि देहधारी परमेश्वर वास्तव में ये मामले जानने को तैयार है, कि वह लोगों के अशोभनीय व्यवहार और लोगों के पतित जीवन के तमाम विस्तृत पहलू समझने को उत्सुक है। ऐसे लोगों का सामना करते समय मैं उनसे कहता हूँ, “अगर तुम कबूल करना और पश्चात्ताप करना चाहते हो तो परमेश्वर के समक्ष एकांत में प्रार्थना करो, मुझे मत बताओ। मैं तुम्हें केवल यह सिखाने के लिए जिम्मेदार हूँ कि अपना कर्तव्य अच्छी तरह कैसे निभाएँ और वास्तविक जीवन में परमेश्वर की आराधना कैसे करें ताकि उद्धार प्राप्त करने में तुम्हारी मदद कर सकूँ। जब हम मिलते हैं तो हम इनसे संबंधित किसी भी मामले पर चर्चा कर सकते हैं, लेकिन सबसे अच्छी बात यही होगी कि अप्रासंगिक मामलों को न छेड़ा जाए।” यह सुनकर कुछ लोग सोचने लगते हैं, “परमेश्वर के पास वाकई प्रेम का अभाव है, परमेश्वर सहनशील नहीं है।” उनकी नजर में किस प्रकार के मनुष्य के पास प्रेम होता है? एक मोहल्ला समिति का निदेशक जो विशेष रूप से दूसरे लोगों के दैनिक तुच्छ मामलों से निपटता है। क्या मुझसे ऐसे मामलों से निपटने की उम्मीद की जाती है? मैं इन मामलों की बिल्कुल भी परवाह नहीं करता! तुम अपना जीवन कैसे जीते हो, तुम क्या खाते-पहनते हो, तुम धन कैसे कमाते हो, तुम्हारी माली हालत क्या है, तुम्हारी अपने पड़ोसियों से कैसे निभती है—मैं इनमें से किसी भी मामले में हस्तक्षेप नहीं करता। जब लोगों के मन में धारणाएँ होती हैं तो उनका मसीह के प्रति यही रवैया होता है। खासकर जब उनमें मसीह के वचनों के प्रति धारणाएँ उत्पन्न होती हैं या जब मसीह के वचन उनकी धारणाओं का पूरी तरह खंडन करते हैं तो मसीह-विरोधी अपनी धारणाओं को त्यागते नहीं हैं या सत्य को स्वीकार नहीं करते हैं, न ही वे अपनी धारणाओं का गहन विश्लेषण करते हैं या सत्य को स्वीकार करते हैं; इसके बजाय वे अपनी धारणाओं से चिपके रहते हैं और मसीह जो भी कहता है उसकी अपने दिल में चुपचाप निंदा करते हैं।

इस अंतिम अवधि में परमेश्वर अंत के दिनों के न्याय के कार्य को कार्यान्वित कर रहा है। जैसे-जैसे परमेश्वर के राज्य का सुसमाचार फैल रहा है, परमेश्वर के घर में विभिन्न पेशों से संबंधित काफी काम तैयार हो गए हैं, जैसे संगीत, लेखन, फिल्म वगैरह से संबंधित काम। इन कार्यों के दौरान इन पेशों से संबंधित कुछ कामकाज में मसीह भी शामिल होता है, बेशक मुख्य रूप से मार्गदर्शन देकर और विभिन्न कार्यों की दिशा तय करके; वह इस दायरे के भीतर कार्य करता है। यह अवश्य संभव है कि इन विषयों से संबंधित कुछ ज्ञान या आम जानकारी मसीह को न हो और हो सकता है कि वह कुछ चीजें न समझता हो। क्या यह बहुत सामान्य बात नहीं है? ज्यादातर लोगों को यह पूरी तरह सामान्य बात लगती है और यह कोई बड़ी बात भी नहीं है क्योंकि हर कोई सीखने के दौर से गुजर रहा है और परमेश्वर के मार्गदर्शन में हर प्रकार का कार्य अधिकाधिक निखरता ही जाएगा, अधिकाधिक चीजें निर्मित होंगी और आला दर्जे की सामग्री तैयार होगी। लेकिन मसीह-विरोधियों के लिए यह कोई छोटा मामला नहीं है। वे कहते हैं, “तुम एक अमुक विषय से पूरी तरह अपरिचित हो, यहाँ तक कि इस बारे में अज्ञानी हो। इसमें शामिल होने, हमें निर्देश देने और हमारा मार्गदर्शन करने का तुम्हें क्या अधिकार है? तुम्हारा निर्णय अंतिम क्यों होना चाहिए? हम सब तुम्हारी ही क्यों सुनें? क्या तुम्हें सुनना ही सही है? अगर हम तुम्हें सुनेंगे तो क्या हम अपने कार्य में गलत रास्ता नहीं चुनेंगे या गलतियाँ नहीं करेंगे? मैं इसके बारे में इतना निश्चित नहीं हूँ।” जब मसीह कार्यों में मार्गदर्शन देता है, तो कुछ लोग इसे संदेहपूर्ण रवैये के साथ लेते हैं : “पहले हमें यह देख लेना चाहिए कि क्या उसकी कही बातें सार्थक हैं और विशेषज्ञता के उचित दायरे में आती हैं, और क्या ये हमारे विचारों से श्रेष्ठ हैं। अगर ऐसा है तो हम इन्हें स्वीकार लेंगे और उसके मार्गदर्शन के अनुसार चलेंगे; अगर नहीं तो हम दूसरा विकल्प चुनेंगे, दूसरा तरीका ढूँढ़ेंगे।” लेकिन मसीह-विरोधियों में आंतरिक रूप से पूरी तरह अवज्ञा की मानसिकता होती है : “हम पेशेवर हैं, कई बरसों से इस क्षेत्र में कार्य कर चुके हैं। हम आँख मूँद कर यह काम कर सकते थे। तुम्हारे मार्गदर्शन का पालन करना तो सिर्फ आधे-अधूरे मन से कार्य करना होगा, है ना? हमें तुम्हारी बात क्यों सुननी चाहिए? क्या तुम्हारे सुझाव सिर्फ आधिकारिक बातें नहीं हैं? अगर हम तुम्हारी बात सुनेंगे तो क्या इससे हम वास्तव में नाकारा नजर नहीं आएँगे? लेकिन अब हर कोई सुन रहा है और मैं खड़े होकर तुम्हारे सामने एतराज नहीं जता सकता क्योंकि इसके कारण मुझे मसीह-विरोधी मानकर मुझसे निपटा जा सकता है। इसलिए मैं थोड़ा-सा ढोंग करूँगा, सुनने का स्वाँग करूँगा, आधे-अधूरे मन से कार्य करूँगा और बाद में बिना कोई प्रभाव छोड़े पहले की तरह चलता रहूँगा।” इसलिए मसीह चाहे कैसे भी सत्य सिद्धांतों पर संगति कर ले, वह चाहे कितने ही स्पष्ट ढंग से चीजों को समझा ले, मसीह-विरोधियों के पास हमेशा अपने जमे-जमाए विचार होते हैं और उन्हें हमेशा यह विश्वास होता है कि वे इस पेशे को समझते हैं, कि वे इस क्षेत्र के माहिर हैं और इस प्रकार वे यह समझने में विफल रहते हैं कि मसीह किन सत्य सिद्धांतों के बारे में संगति कर रहा है। मसीह जब भी उनके पेशों से जुड़े कार्यों पर मार्गदर्शन देता है, तो मसीह-विरोधियों के लिए यह मसीह से अपनी क्षमताओं और प्रतिभाओं की तुलना करने का क्षण बन जाता है। इससे भी बुरी बात, कभी-कभी मसीह जब मसीह-विरोधियों के पेशों से संबंधित मामलों पर कुछ कहता है तो वे उन बातों को मसीह के अज्ञानता प्रकट करने के रूप में देखते हैं और वे गुपचुप ढंग से मसीह का मजाक उड़ाते हैं और उससे घृणा करते हैं, और न चाहते हुए भी अपने कार्य में मसीह के मार्गदर्शन के प्रति और भी ज्यादा प्रतिरोधी और विमुख महसूस करते हैं। वे अपने मन में पूरी तरह अनाश्वस्त होकर कहते हैं : “तुम हमें कभी ये तो कभी वो करने को कहते हो लेकिन तुम जानते ही क्या हो? क्या तुम इन क्षेत्रों से जुड़ी विभिन्न प्रक्रियाओं को समझते भी हो? क्या तुम ये विशिष्ट विवरण जानते हो कि ये कैसे कार्य करते हैं? जब तुम हमें फिल्म निर्माण में मार्गदर्शन देते हो, तो क्या यह जानते हो कि प्रामाणिक रूप से कैसे कार्य किया जाए या ध्वनि की रिकार्डिंग कैसे की जाए?” ऐसे मामलों से सामना होने पर मसीह-विरोधी हर पेशे से जुड़े सत्य सिद्धांतों को ईमानदारी के साथ दिल से नहीं सुनते हैं। बल्कि वे आंतरिक रूप से चुपचाप मसीह का विरोध करते हैं, यहाँ तक कि वे मसीह का उपहास और मजाक उड़ाने के लिए तमाशबीन बनकर खड़े हो जाते हैं और उनके दिल अवज्ञा से भरे होते हैं। जब वे अपने कार्य को कार्यान्वित करने जाते हैं तो वे सतही तौर पर प्रक्रिया पूरी करते हैं, वे सबसे पहले परमेश्वर की संगति के मुख्य बिंदुओं पर नजर डालकर यह देखते हैं कि परमेश्वर ने क्या कहा और फिर वे कार्य शुरू कर बस उसी पुराने ढर्रे से काम करते रहते हैं। कुछ लोग यह कह सकते हैं कि “परमेश्वर ने यह नहीं कहा, तुम इसे इस ढंग से क्यों कर रहे हो?” तो इस पर वे जवाब देते हैं, “परमेश्वर ने ऐसा नहीं कहा है, लेकिन क्या वह वास्तविक स्थिति जानता है? क्या हमें ही इसे वास्तव में पूरा नहीं करवाना है? परमेश्वर जानता क्या है? परमेश्वर ने तो बस एक सिद्धांत दिया है, लेकिन हमें इसे वास्तविक स्थिति के अनुसार संभालना है। अगर यहाँ परमेश्वर होता भी, तो भी हमें इसी तरह इसे संभालना होता। हम परमेश्वर के उन वचनों को सुनते हैं जिनका संबंध सत्य से होता है, लेकिन जब बात हमारे पेशेवर कार्य की हो और इसका सत्य से संबंध न हो तो हम खुद फैसले करते हैं।” उन्होंने उन सत्य सिद्धांतों को सुना जिन पर परमेश्वर ने संगति की, इनके मुख्य बिंदु दर्ज किए और हर व्यक्ति ने इस प्रक्रिया से गुजरकर इन मुख्य बिंदुओं की समीक्षा की, लेकिन जब चीजों को करने के तरीके की बात आती है तो अंतिम निर्णय किसका होता है? उनके मामले में सत्य के पास शक्ति नहीं है, मसीह के पास शक्ति होने से तो इसका और भी कम संबंध है। तो फिर शक्ति किसके पास है? शक्ति एक मसीह-विरोधी के पास है; एक इंसान ही निर्णय अंतिम करता है। उनके दृष्टिकोण में सत्य तो हवा के समान है, महज उन धर्म-सिद्धांतों और नारों के समान है जिनका हल्के-फुलके ढंग से उल्लेख होता है और फिर इससे कोई वास्ता नहीं रहता—लोग अभी भी वही करते हैं जो उन्हें करने की जरूरत है, जैसा वे करना चाहते हैं। उस वक्त वे बहुत अच्छे ढंग से सहमत हो गए और उनका रवैया अत्यधिक ईमानदार प्रतीत हुआ, लेकिन जब वास्तविक जीवन की बात आती है तो हर चीज बदल जाती है; वैसा नहीं होता जैसा लगता था।

मसीह-विरोधी लोग देहधारी परमेश्वर के प्रति निरंतर धारणाएँ और प्रतिरोध पालने और आंतरिक रूप से सहमत न होने के कारण वास्तव में उसे दिल से स्वीकार नहीं करते हैं; वे केवल स्वर्ग के परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। वे बिल्कुल पौलुस की तरह हैं : वह देहधारी यीशु से वास्तव में सहमत नहीं था, बल्कि उसके प्रति धारणाओं से भरा हुआ था। इसीलिए उसने अपने किसी भी पत्र में कभी भी यीशु की गवाही नहीं दी, यीशु के वचनों के सत्य होने की गवाही नहीं दी और कभी यह चर्चा नहीं की कि उसे यीशु से कोई प्रेम है या नहीं। ये ऐसी चीजें हैं जिन्हें लोग देख सकते हैं; पौलुस एक असली मसीह-विरोधी है। अब तुम सब लोग यह पहचान सकते हो कि पौलुस एक मसीह-विरोधी का ठेठ उदाहरण है। भले ही मसीह-विरोधियों की जमात के लोग परमेश्वर के व्यक्त वचनों को सत्य मानते हों, क्या वे सत्य को स्वीकार सकते हैं? क्या वे मसीह के प्रति समर्पण कर सकते हैं? क्या वे मसीह की गवाही दे सकते हैं? यह एक अलग मामला है। क्या वे मसीह के हर कार्य के प्रति समर्पण कर सकते हैं? अगर मसीह लोगों के लिए कार्य की व्यवस्था करके या उन्हें कार्य सौंपकर यह बताए कि इसे किस तरीके से करना है, तो क्या मसीह-विरोधी आज्ञा का पालन कर सकते हैं? यह मामला लोगों का सबसे स्पष्ट रूप से खुलासा करता है। मसीह-विरोधी आज्ञा का पालन नहीं कर सकते हैं; वे मसीह के वचनों को नहीं मानते और उन्हें तुच्छ समझते हैं। इसलिए किसी कार्य के लिए मसीह चाहे जो भी खास मार्गदर्शन दे या वह चाहे जो भी काम सौंपे, मसीह-विरोधी इन्हें कभी क्रियान्वित नहीं करेंगे। मसीह-विरोधी मसीह के प्रति समर्पण करने के लिए बिल्कुल अनिच्छुक रहते हैं। वह चाहे जैसे भी कार्य की व्यवस्था करे, वे इसे कार्यान्वित करने को तैयार नहीं होते, वे हमेशा यह मानते हैं कि उनके अपने ही विचार ज्यादा बुद्धिमत्तापूर्ण हैं और उन्हें लगता है कि अपनी ही योजनाओं का पालन करना सबसे अच्छा है। अगर तुम उनसे यह कहते हो कि “स्थितियों का सामना होने पर तुम लोगों को तीन-चार दूसरे लोगों के साथ मिलकर काम करना चाहिए, मिलकर विचार-विमर्श करना चाहिए, सत्य सिद्धांतों के बारे में अधिकाधिक संगति करनी चाहिए और उल्लंघन किए बिना उन सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए,” तो क्या वे तुम्हारी बात सुनेंगे? वे बिल्कुल भी नहीं सुनते; उन्होंने बहुत पहले ही इन बातों को त्यागकर भुला-सा दिया है और वे खुद ही अंतिम निर्णय लेना चाहते हैं। तुम उनसे यह कहते हो कि “अगर किसी मसले का समाधान नहीं हो सकता तो तुम ऊपरवाले से पूछ सकते हो,” लेकिन जब वाकई कोई समस्या सामने आती है और हर कोई ऊपरवाले से पूछने के बारे में सोचता है, तो मसीह-विरोधी कहते हैं, “ऐसी तुच्छ बात के बारे में क्यों पूछना? इससे तो ऊपरवाला परेशान ही होगा। पूछने की जरूरत नहीं है, हम इसे खुद संभाल सकते हैं। मेरा अंतिम निर्णय है और अगर कुछ गलत हुआ तो दुष्परिणाम मैं भुगत लूँगा!” ये शब्द कितने अच्छे लगते हैं, लेकिन वास्तव में कुछ गलत होने पर क्या वे वाकई दुष्परिणाम भुगत सकेंगे? अगर कलीसिया के कार्य को कोई नुकसान होता है, तो क्या वे इसके दुष्परिणाम भुगत सकेंगे? उदाहरण के लिए, अगर सभाओं की व्यवस्था करने में अगुआओं और कार्यकर्ताओं की लापरवाही के कारण सभा के दौरान भाई-बहनों को गिरफ्तार कर लिया गया, जिससे कुछ लोग निराश और कमजोर पड़कर लड़खड़ाने लगे, तो इसकी जिम्मेदारी कौन ले सकेगा? क्या मसीह-विरोधी अपने शब्दों को लेकर जिम्मेदार हैं? वे निपट गैर-जिम्मेदार हैं! कार्य के प्रति मसीह-विरोधियों का यही रवैया रहता है। मुझे बताओ, क्या मसीह-विरोधी मसीह के कहे शब्दों को सचमुच स्वीकार कर उनके प्रति समर्पण कर सकते हैं? (नहीं।) सत्य का अभ्यास करने और मसीह के प्रति समर्पण करने को लेकर मसीह-विरोधियों के दिल में क्या रवैया होता है? एक शब्द में कहें तो : विरोध। वे विरोध करते रहते हैं। और इस विरोध में निहित स्वभाव कैसा होता है? इसे कौन-सी चीज जन्म देती है? अवज्ञा इसे जन्म देती है। स्वभाव की बात करें तो यह सत्य से विमुखता है, यह उनके दिलों में अवज्ञा का होना है, यह उनकी समर्पण करने की इच्छा न रखना है। इसलिए जब परमेश्वर का घर एक ही व्यक्ति द्वारा निर्णय लिए जाने के बजाय अगुआओं और कार्यकर्ताओं को एक-साथ मिलकर काम करना और चर्चा करने का तरीका सीखने के लिए कहता है, तो मसीह-विरोधी अपने दिलों में क्या सोचते हैं? “लोगों के साथ हर बात पर चर्चा करने में बहुत परेशानी होती है! मैं इन चीजों के बारे में निर्णय ले सकता हूँ। दूसरों के साथ काम करना, इस पर उनके साथ बात करना, सिद्धांत के अनुसार काम करना—कितना कायराना और शर्मनाक है!” मसीह-विरोधी सोचते हैं कि वे सत्य को समझते हैं, उन्हें सब-कुछ स्पष्ट है, काम करने की उनकी अपनी अंतर्दृष्टियाँ और तरीके हैं, इसलिए वे दूसरों के साथ सहयोग करने में असमर्थ होते हैं, वे लोगों के साथ किसी चीज पर चर्चा नहीं करते, वे सब-कुछ अपने तरीके से करते हैं और किसी और के सामने नहीं झुकते! मसीह-विरोधी भले ही अपने मुँह से यही कहते हैं कि वे समर्पण करने और दूसरों के साथ सहयोग करने के लिए तैयार हैं लेकिन उनके जवाब बाहर से चाहे कितने भी अच्छे लगते हों, उनके शब्द चाहे कितने भी कर्णप्रिय हों, वे अपनी विद्रोही स्थिति और अपना शैतानी स्वभाव बदलने में असमर्थ रहते हैं। अंदर से वे भयंकर विरोधी होते हैं—किस हद तक? अगर ज्ञान की भाषा में समझाया जाए, तो यह एक ऐसी घटना है जो दो अलग-अलग प्रकृति की चीजें एक-साथ रखने पर घटित होती है : विमुखता जिसकी व्याख्या हम “विरोध” के रूप में कर सकते हैं। मसीह-विरोधियों का ठीक यही स्वभाव होता है : ऊपरवाले का विरोध। उन्हें ऊपरवाले का विरोध करना अच्छा लगता है और वे किसी का आज्ञापालन नहीं करते।

मसीह के वचनों से सामना होने पर मसीह-विरोधियों का एक ही रवैया होता है : अवज्ञा; और उनका एक ही दृष्टिकोण है विरोध। उदाहरण के लिए, मैं कहता हूँ, “हमारा आँगन काफी बड़ा है और इसमें छाया नहीं है। सर्दियों में पूरे दिन सूरज चमकता रहता है और लोगों को धूप सेंकने को मिलती है, लेकिन गर्मियों में गर्मी थोड़ी कड़क हो जाती है। चलो कुछ पौधे खरीद लेते हैं, जो तेजी से बड़े होकर भविष्य में पर्याप्त छाया दें, अपेक्षाकृत साफ-सुथरे हों और देखने में सुंदर लगें।” इसमें कितने सिद्धांत निहित हैं? (तीन।) एक, पौधे तेजी से बड़े हो, दूसरा, पौधे साफ-सुथरे हों और अपेक्षाकृत देखने में अच्छे हों और तीसरा, वे भविष्य में पर्याप्त छाया दें, यानी उनकी शाखाएँ और पत्ते घने होने चाहिए। लोगों को सिर्फ इन्हीं तीन सिद्धांतों को लागू करना है; जहाँ तक किस प्रजाति के कितने पेड़ खरीदने हैं और उन्हें कहाँ रोपना है, इस बारे में भी मैंने बता दिया है। क्या इस काम को करना आसान है? (बिल्कुल।) क्या इसे कठिन काम माना जाता है? (नहीं।) यह कठिन काम नहीं है। यह कठिन क्यों नहीं है? ऐसी जगहें हैं जहाँ पौधे बेचे जाते हैं, परमेश्वर का घर पैसा देता है और पौधे खरीदने की सभी बुनियादी शर्तें पूरी की जाती हैं। अब काम सिर्फ इतना ही बचा है कि लोग इसे कार्यान्वित कर लें; इस काम को लेकर कुछ भी कठिन नहीं है। लेकिन किसी मसीह-विरोधी के लिए एक कठिनाई है : “क्या? पेड़ खरीदें? सिर्फ छाया पाने और परिवेश को सुंदर बनाने के लिए पैसे खर्च किए जाएँ? क्या यह दैहिक सुख-सुविधाओं में लिप्त होना नहीं है? यह पैसा परमेश्वर के लिए चढ़ावा है, क्या इसे इतनी लापरवाही से खर्च किया जा सकता है? थोड़ी-सी गर्मी लगे तो समस्या क्या है? सूरज को परमेश्वर ने बनाया है; क्या धूप में तपने से तुम मर जाओगे? इसे धूप सेंकना और बारिश के मजे लेना कहते हैं। अगर तुम धूप में नहीं निकलना चाहते तो अंदर रहो। और अब तुम इस सुख के लिए पैसा खर्च करना चाहते हो—तुम शायद ख्बाव देख रहे हो!” वे सोचते हैं : “इस मामले में मेरा अपना अंतिम निर्णय नहीं हो सकता है; अगर मैं इसका सीधे विरोध करूँगा, तो यह अच्छा नहीं रहेगा। मेरी निंदा हो सकती है और हो सकता है कि दूसरे सहमत न हों। इसलिए मैं इस बारे में निर्णायक मंडल को सूचित कर दूँगा। साथ ही, यह सबसे अच्छा रहेगा कि भाई-बहन को भी अपनी राय देने दिया जाए। अगर निर्णायक मंडल स्वीकृति दे देता है तो हम पौधे खरीद लेंगे; अगर नहीं देता तो फिर हम नहीं खरीदेंगे, भले ही भाई-बहन राजी हो जाएँ।” वे सबको इकट्ठा करते हैं, मामला सामने रखते हैं और फिर सबको चर्चा करने और अपनी राय रखने देते हैं। हर व्यक्ति कहता है, “पौधे खरीदना अच्छी बात है; इनसे सबको फायदा होता है।” मसीह-विरोधी यह सुनकर कहता है, “यह अच्छी बात कैसे है? सबको फायदा होने भर से क्या इसे उचित ठहराया जा सकता है? हर किसी को किसके पैसे से फायदा हो रहा है? यह तो परमेश्वर का पैसा खर्च करना हुआ; क्या यह चढ़ावे की बर्बादी नहीं है? क्या यह सिद्धांतों के अनुरूप है?” हर कोई सोचता है : “चढ़ावे को सबके फायदे के लिए, लोगों के हितों के लिए बर्बाद करना थोड़ा अनुचित तो लगता है।” हर पहलू पर चर्चा कर लेने के बाद अंतिम निर्णय यही होता है कि पौधे न खरीदे जाएँ। पैसा बचाया जाना चाहिए; चाहे कोई भी आज्ञा दे, यह नहीं किया सकता। ऐसी चर्चा के बाद निष्कर्ष निकल आता है। निष्कर्ष क्या है? “इस बार मसीह की आज्ञा के संबंध में हमारा अंतिम संकल्प इसका विरोध करने का है; हम चढ़ावा खर्च नहीं करेंगे या परमेश्वर के घर का एक भी पैसा बर्बाद नहीं करेंगे। स्पष्ट रूप से कहें तो इसका अर्थ है हम पौधे नहीं खरीदेंगे, आँगन को हरा-भरा नहीं बनाएँगे।” यही फैसला ले लिया जाता है। कुछ दिन बाद यह देखकर कि अभी तक पौधे नहीं खरीदे गए हैं, मैं पूछता हूँ, “तुमने पौधे क्यों नहीं खरीदे?” “ओह, हम जल्द खरीदेंगे।” जब मौसम आने पर दूसरों के पौधों में नए पत्ते उग आए हैं, तो इन लोगों ने अभी तक क्यों नहीं पौधे खरीदे हैं? पूछताछ करने पर मुझे पता चला कि चर्चा करने के बाद वे पौधे खरीदने पर सहमत नहीं हुए; मेरे वचन व्यर्थ हो गए। आपस में राय-मशविरा, चर्चा और विश्लेषण करने के बाद सबने सामूहिक रूप से मेरी आज्ञा को अस्वीकार कर दिया, इसका यही मतलब निकलता है : “यहाँ फैसले हम लेते हैं। तुम एक किनारे खड़े रहो। यह हमारा घर है, इसका तुमसे कोई वास्ता नहीं है।” यह कैसा रवैया है? क्या यह विरोध नहीं है? वे किस हद तक विरोध कर रहे हैं? उनके पास एक आधार है, वे यह दावा करते हैं कि परमेश्वर के घर का एक भी पैसा बेकार नहीं जाने देना है, परमेश्वर के चढ़ावे को खर्च नहीं करना है। इस आधार के बारे में तुम लोग क्या सोचते हो? क्या ये शब्द सही हैं? (नहीं।) अक्सर ये मसीह-विरोधी ही चढ़ावे को बर्बाद और उसका दुरुपयोग करने वाले लोग होते हैं। वे अंतिम निर्णय लेना चाहते हैं, इसलिए वे इस तरह के सिद्धांत गढ़कर बेवकूफ, अज्ञानी और अविवेकी लोगों को गुमराह करने आते हैं। और वास्तव में कुछ लोग इसके भुलावे में आ जाते हैं और उनके शब्दों के अनुसार कार्य करते हैं, जबकि मसीह के वचनों को मसीह-विरोधी बिगाड़ देते हैं और नष्ट कर देते हैं, जिससे इनके क्रियान्वयन में विलंब होता है। इस समस्या की जड़ क्या है? इस समस्या की जड़ यह है कि परमेश्वर के चुने हुए लोग मसीह-विरोधियों के पाखंड की असलियत नहीं समझ पाते, चीजों के सतही पहलुओं से हमेशा गुमराह होते हैं और चीजों के सार को समझने में विफल रहते हैं। मसीह-विरोधी निरंकुश होकर इन लोगों के बीच बाधाएँ पैदा करते हैं जिससे परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से कुछ अविवेकशील लोग अक्सर उनसे गुमराह और नियंत्रित होते हैं।

अगर मसीह-विरोधी बाधाएँ न डालें तो कलीसिया में मसीह जो भी कार्य व्यवस्थाएँ करता है और आज्ञाएँ देता है, वे सब तेजी से क्रियान्वित की जा सकती हैं। लेकिन जब कोई मसीह-विरोधी हस्तक्षेप करता है तो काम में देरी हो जाती है और इसे क्रियान्वित नहीं किया जा सकता। कभी-कभी परमेश्वर लोगों से जो व्यवस्थाएँ और आज्ञाएँ क्रियान्वित करवाने का इरादा रखता है उन्हें मसीह-विरोधी किसी बहाने से सरासर खारिज कर देते हैं। ऐसा करते समय वे यह कहकर एक ऐसी निर्णय-प्रकिया अपनाते हैं जिसमें सभी शामिल होते हैं, “इसे भाई-बहनों के मत से पारित किया गया है; यह सामूहिक निर्णय का नतीजा है, सिर्फ मेरा फैसला नहीं है।” इसका क्या आशय है? इसका यह आशय है कि भाई-बहनों के प्रस्ताव सत्य के अनुरूप हैं और कोई मसला उठने पर भाई-बहनों के सामूहिक निर्णय लेने का मतलब यह है कि सत्य का प्रभुत्व चल रहा है। लेकिन जब एक प्रभारी मसीह-विरोधी मसीह की कही बात का विरोध करता है तो क्या इसे सत्य का प्रभुत्व चलना कहेंगे? जाहिर है, यह दरअसल मसीह-विरोधी का प्रभुत्व चलना है। जब कोई मसीह-विरोधी पूरी स्थिति को नियंत्रित कर रहा हो तो इसे सत्य का प्रभुत्व कहना क्या बेतुका और कपटपूर्ण नहीं है? मसीह-विरोधी वाकई छद्म-वेश धारण करने में कुशल हैं! जब मसीह उन्हें कोई चीज क्रियान्वित करने के लिए कहता है और सर्वविदित हो कि यह परमेश्वर का कार्य है, कि वह सबका ख्याल रखते हुए कार्य कर रहा है और हर कोई परमेश्वर के अनुग्रह के लिए आभारी है तो इससे मसीह-विरोधी नाखुश और असहज हो जाते हैं। फिर तो वे इसमें बाधा डालने और इसे बर्बाद करने के लिए अपने दिमाग को मथ डालते हैं। लेकिन अगर पहल खुद उनकी ओर से हो और अंत में सब लोगों से उन्हें बहुत आभार और सराहना मिलनी हो तो वे इसे किसी दूसरे की तुलना में ज्यादा सक्रिय होकर क्रियान्वित करते हैं और कोई भी कष्ट सहने को तैयार रहते हैं। क्या मसीह-विरोधियों जैसे ये लोग घिनौने नहीं हैं? (हाँ।) यह कैसा स्वभाव है? (दुष्ट स्वभाव।) मसीह-विरोधी छद्म-वेश धारण करने में सक्षम होते हैं और दूसरों को गुमराह और आकर्षित करने के लिए भले मानुस होने का ढोंग करते हैं, यहाँ तक कि यह ढोंग भी करते हैं कि वे सत्य का अभ्यास कर रहे हैं। यह दुष्टता है। तुम कौन-से सत्य का अभ्यास कर रहे हो? तुम मसीह के दिए वचन और आज्ञाएँ अस्वीकार कर देते हो, तुम उनके प्रति समर्पण और उन्हें क्रियान्वित नहीं कर पाते हो। वह सत्य कहाँ है जिसका अभ्यास करने का तुम दावा करते हो? क्या तुम परमेश्वर के विश्वासी हो? क्या तुम परमेश्वर को परमेश्वर मानकर उससे पेश आते हो? तुम जिस परमेश्वर में विश्वास रखते हो वह तुम्हारा सहयोगी नहीं है, तुम्हारा सहकर्मी नहीं है, तुम्हारा दोस्त नहीं है; वह मसीह है, वह परमेश्वर है! क्या तुम इस बात को नहीं मानते? मसीह के वचनों का हमेशा विश्लेषण और पड़ताल करते जाना, उनकी सटीकता की पहचान करने का प्रयास करते रहना, उनके गुण-दोषों को आँकते रहना—कहीं तुम खुद को गलत स्थिति में तो नहीं रख रहे हो? लोगों के शब्दों की पड़ताल और विश्लेषण करने में मसीह-विरोधी कुशल होते हैं और वे इस अनवरत पड़ताल को अंततः मसीह पर भी लागू कर बैठते हैं। इस ढंग से मसीह की पड़ताल और उससे व्यवहार करते जाने से सवाल उठता है—क्या वे परमेश्वर के अनुयायी हैं? क्या वे निरे छद्म-विश्वासी नहीं हैं? वे हमेशा मसीह की पड़ताल करते हैं, लेकिन क्या वे परमेश्वर के दिव्य सार को समझ पाते हैं? वे मसीह की जितनी ज्यादा पड़ताल करते हैं, उतने ही ज्यादा शंकालु बन जाते हैं और आखिरकार मसीह को एक साधारण इंसान मान लेते हैं। क्या उनमें कोई सच्ची आस्था या समर्पण बचा है? बिल्कुल भी नहीं। मसीह-विरोधी के दिल में मसीह को महज एक साधारण इंसान माना जाता है। मसीह को इंसान मानना उन्हें स्वाभाविक लगता है, इसलिए उन्हें लगता है कि वे मसीह के वचनों और आज्ञाओं की अवहेलना कर सकते हैं, इन्हें वे दिल में नहीं उतारते, बल्कि इन्हें सभाओं में सिर्फ चर्चा और पड़ताल के लिए लाते हैं। आखिरकार, चीजें कैसी की जानी हैं यह फैसला करने वाला एक मसीह-विरोधी होता है, परमेश्वर नहीं। वे मसीह को घटाकर किस स्तर पर ले आए हैं? वे मसीह को सिर्फ एक साधारण अगुआ के रूप में देखते हैं, उसे परमेश्वर बिल्कुल भी नहीं मानते। क्या यह प्रकृति बिल्कुल वैसी ही नहीं है जैसी परमेश्वर में पौलुस की आस्था थी? पौलुस ने प्रभु यीशु को कभी परमेश्वर नहीं माना, कभी उसके वचनों को नहीं खाया-पिया, न कभी प्रभु यीशु के प्रति समर्पण करना चाहा। उसने हमेशा यही सोचा कि उसके लिए जीवित रहना मसीह है, उसने प्रभु यीशु का स्थान खुद लेने का प्रयास किया और नतीजतन उसे परमेश्वर से दंड मिला। चूँकि तुम यह स्वीकार चुके हो कि मसीह देहधारी परमेश्वर है, इसलिए तुम्हें मसीह के प्रति समर्पण करना चाहिए। मसीह चाहे जो भी कहे, तुम्हें स्वीकार और समर्पण करना चाहिए, यह पड़ताल और चर्चा नहीं करनी चाहिए कि क्या परमेश्वर के वचन सही हैं या क्या वे सत्य के अनुरूप हैं। परमेश्वर के वचन तुम्हारे लिए विश्लेषण और पड़ताल का विषय नहीं, बल्कि समर्पण और लागू करने के विषय हैं। चीजों को कैसे किया जाए और क्रियान्वयन के चरण कैसे तय किए जाएँ—यही तुम लोगों की संगति और चर्चा का विषयक्षेत्र है। चूँकि अपने दिलों में मसीह-विरोधी हमेशा मसीह के दिव्य सार पर संदेह करते हैं और हमेशा एक अवज्ञाकारी स्वभाव रखते हैं, इसलिए जब मसीह उन्हें कुछ कार्य करने को कहता है, तो वे हमेशा उनकी पड़ताल और उन पर चर्चा करते हैं, और लोगों से यह तय करने के लिए कहते हैं कि वे सही हैं या गलत। क्या यह एक गंभीर समस्या है? (हाँ।) वे इन चीजों को सत्य के प्रति समर्पण के दृष्टिकोण से नहीं लेते; इसके बजाय, वे इन्हें परमेश्वर के प्रति विरोध के दृष्टिकोण से लेते हैं। यही मसीह-विरोधियों का स्वभाव है। जब वे मसीह की आज्ञाएँ और कार्य-व्यवस्थाएँ सुनते हैं, तो वे उन्हें स्वीकार कर उनके प्रति समर्पण नहीं करते, बल्कि चर्चा करना शुरू कर देते हैं। और वे किस बात पर चर्चा करते हैं? क्या वे इस बात पर चर्चा करते हैं कि समर्पण का अभ्यास कैसे किया जाए? (नहीं।) वे यह चर्चा करते हैं कि मसीह के वचन और आज्ञाएँ सही हैं या गलत, और जाँच करते हैं कि उन्हें कार्यान्वित किया जाना चाहिए या नहीं। क्या उनका रवैया वास्तव में इन चीजों को कार्यान्वित करना चाहने का होता है? नहीं—वे ज्यादा लोगों को प्रोत्साहित करना चाहते हैं कि वे उनकी तरह बनें, इन चीजों को न करें। और क्या इन्हें न करना समर्पण के सत्य का अभ्यास करना है? बिल्कुल भी नहीं। तो वे क्या कर रहे हैं? (विरोध।) न केवल वे खुद परमेश्वर का विरोध कर रहे हैं, बल्कि वे सामूहिक विरोध भी चाहते हैं। यह उनके कर्मों की प्रकृति है, है न? सामूहिक विरोध : सबको अपने जैसा बनाना, सबको अपने जैसा सोचने, अपने जैसा कहने, अपने जैसा निर्णय करने पर मजबूर करना, मसीह के निर्णय और आज्ञाओं का सामूहिक रूप से विरोध करना। मसीह-विरोधियों की यही कार्य-प्रणाली होती है। मसीह-विरोधियों का विश्वास यह होता है, “अगर हर कोई ऐसा करता है, तो यह कोई अपराध नहीं है,” इसलिए वे अपने साथ दूसरों से परमेश्वर का विरोध करने का आग्रह करते हैं, और सोचते हैं कि ऐसा होने पर परमेश्वर का घर उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। क्या यह बेवकूफी नहीं है? मसीह-विरोधियों की परमेश्वर का विरोध करने की क्षमता अत्यंत सीमित है, वे बिल्कुल अकेले हैं। इसलिए वे लोगों को सामूहिक रूप से परमेश्वर का विरोध करने के लिए भर्ती करने की कोशिश करते हैं, और अपने दिलों में सोचते हैं कि “मैं लोगों के एक समूह को गुमराह करूँगा और उन्हें अपनी तरह सोचने और कार्य करने के लिए प्रेरित करूँगा। हम एक-साथ मसीह के वचनों को नकारेंगे, और परमेश्वर के वचनों को बाधित करेंगे, और उन्हें सफल होने से रोकेंगे। और जब कोई मेरे कार्य की जाँच करने आएगा, तो मैं कहूँगा कि सबने इसे इसी तरह करने का फैसला किया था—और फिर हम देखेंगे कि तुम इसे कैसे सँभालते हो। मैं इसे तुम्हारे लिए नहीं करने वाला, मैं इसे पूरा नहीं करने वाला—और देखते हैं, तुम मेरे साथ क्या करते हो!” उन्हें लगता है कि उनके पास सत्ता है, कि परमेश्वर का घर उनसे निपटने के लिए कुछ नहीं कर सकता, न मसीह ही कुछ कर सकता है। तुम लोगों को क्या लगता है, क्या ऐसे व्यक्ति से निपटना आसान है? ऐसे व्यक्ति से कैसे निपटना चाहिए? सबसे सरल तरीका उसे बरखास्त करना और उसकी जाँच-पड़ताल करना है। जब कोई दानव अपना खुलासा कर देता है तो उसे एक ही ठोकर में हटा दो और बात यहीं खत्म। परमेश्वर का घर तुम्हें अगुआ बनने की अनुमति देता है लेकिन तुम समर्पण नहीं करते हो और परमेश्वर का विरोध करने तक की जुर्रत करते हो; क्या तुम दानव नहीं हो? परमेश्वर का घर तुम्हें अगुआई करने का जिम्मा सौंपता है ताकि तुम वास्तविक कार्य कर सको, ताकि तुम परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करो और अच्छे से अपना कर्तव्य निभा सको। तुम्हें परमेश्वर के वचन स्वीकार कर उनके प्रति समर्पण करना चाहिए; परमेश्वर जो कुछ भी कहे, तुम्हें उसके वचन स्वीकार कर उन्हें क्रियान्वित करना चाहिए, न कि उसका विरोध करना चाहिए। तुम तो परमेश्वर के विरोध को अपना कर्तव्य मान बैठे हो—तो फिर ठीक है, माफ करो, लेकिन तुम्हें बरखास्त करना सबसे सरल समाधान है। परमेश्वर के घर के पास तुम्हारा उपयोग करने का अधिकार है तो तुम्हें बरखास्त करने का अधिकार भी है। कुछ लोग कहते हैं, “मैं एक अगुआ के रूप में बिल्कुल ठीकठाक कार्य कर रहा था, मुझे क्यों बरखास्त कर दिया गया? क्या यह गधे से अनाज पिसवाने के बाद उसे मार डालने वाली बात नहीं है?” जब तुम्हें बरखास्त किया गया तो क्या तुम वाकई बिल्कुल ठीकठाक काम कर रहे थे? जो गधा अकारण दुलत्ती मारे और काटे, जो कैसा भी प्रशिक्षण पाने के बावजूद अपने उचित कामों पर ध्यान न दे, उसे “अनाज पिसवाने के बाद” वास्तव में मार डालना ही पड़ेगा। जहाँ तक यह सवाल है कि उसे कब मारना है, यह उसके प्रदर्शन पर निर्भर होता है। मुझे बताओ, क्या कोई एक अच्छे गधे से सहर्ष छुटकारा पाना चाहेगा? अनाज पीसने में गधा सबसे जरूरी और महत्वपूर्ण सहायक होता है। जब उसकी सबसे ज्यादा जरूरत हो, तो क्या कोई इतना मूर्ख होगा कि वह गधे को मार डाले, पिसाई रोक दे और अनाज के बिना रहे? क्या कोई ऐसा करता है? (नहीं।) सिर्फ एक स्थिति में ऐसा हो सकता है : गधा प्रशिक्षण पर ध्यान न दे और वहशीपन से दुलत्ती मारता रहे और काटता रहे, जिससे कुछ भी पिसवाना संभव न हो। तभी तुम्हें पिसाई रोककर गधे का वध करना पड़ेगा, है ना? (हाँ।) जो लोग इस मामले में विवेकशील हैं, वे इसे स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं। तो फिर जो मसीह-विरोधी अवज्ञाकारी और उद्दंड हैं और कोई भी कार्य क्रियान्वित करने में नाकाम रहते हैं, उनसे कैसे निपटना चाहिए? सबसे सरल तरीका यही है कि उन्हें सबसे पहले पद से बरखास्त कर दो। कुछ लोग पूछते हैं, “क्या बरखास्तगी इसका अंतिम उपाय है?” जल्दी क्या है? उनके व्यवहार पर नजर रखो। एक बार बरखास्त होने और अपनी सत्ता गँवाने के बाद भी अगर वे परमेश्वर के घर में मजदूरी कर सकते हैं तो उन्हें निष्कासित नहीं किया जाएगा। लेकिन अगर वे मजदूरी नहीं करते, बल्कि धारणाएँ फैलाकर बुरे काम करके और सब जगह बाधाएँ पैदा कर वे चीजों को और बिगाड़ते हैं तो फिर सिद्धांतों के अनुसार उन्हें निष्कासित कर देना चाहिए। कुल मिलाकर, क्या ये चीजें, जो मसीह-विरोधियों में प्रकट होती हैं, घृणित नहीं हैं? (ये बेहद घृणित हैं।) और कौन-सी चीज इन्हें घृणित बनाती हैं? ये मसीह-विरोधी परमेश्वर के घर में सत्ता हथियाना चाहते हैं, वे मसीह के वचनों को क्रियान्वित नहीं कर सकते, वे इन्हें क्रियान्वित नहीं करेंगे। निस्संदेह, एक अन्य प्रकार की स्थिति में भी लोग मसीह के वचनों के प्रति समर्पण करने में असमर्थ रहते हैं : कुछ लोगों की काबिलियत कम होती है, वे परमेश्वर के वचन सुनकर उन्हें समझ नहीं पाते, और नहीं जानते कि उन्हें कैसे कार्यान्वित किया जाए; भले ही तुम उन्हें सिखा दो कि कैसे क्रियान्वित करना है, फिर भी वे नहीं कर पाते। यह एक अलग मामला है। जिस विषय पर हम अभी संगति कर रहे हैं, वह है मसीह-विरोधियों का सार, जो इस बात से संबंधित नहीं है कि लोग काम करने में सक्षम हैं या नहीं, या उनकी काबिलियत कैसी है; यह मसीह-विरोधियों के स्वभाव और सार से संबंधित है। वे पूरी तरह से मसीह, परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्थाओं और सत्य सिद्धांतों का विरोध करते हैं। उनमें जरा भी समर्पण नहीं होता, केवल विरोध होता है। एक मसीह-विरोधी ऐसा ही होता है।

यह विचार करो और पहचानो कि नीचे दी गई स्थिति मसीह-विरोधियों की पहले बताई जा चुकी किस अभिव्यक्ति की श्रेणी में आती है। एक अगुआ रोज सवेरे से साँझ तक काम करता था और काफी जिम्मेदार लगता था। फिर भी वह कभी-कभार ही दिखता था, जिससे यह आभास होता था कि वह काम में बहुत व्यस्त है, संभवतः निठल्ला नहीं है और लगता है अपने कर्तव्य निभाने के लिए कीमत चुका रहा है। बाद में जब आवासीय परिसर और आँगन में काम करना था तो हमने काम में उसका मार्गदर्शन करने के लिए किसी की व्यवस्था की। जब हम आसपास नहीं होते थे तो उसे मार्गदर्शन में मदद करने और काम के प्रति जिम्मेदार होने के लिए आगे आना चाहिए था; उसे पहल करनी चाहिए थी। क्या यह उचित और उपयुक्त बात नहीं है? क्या मुझे इन घरेलू कामों की देखरेख के लिए हमेशा वहाँ रहना चाहिए? (नहीं।) अधिकांश समय इस प्रकार के श्रमसाध्य काम वास्तव में सत्य को स्पर्श नहीं करते हैं। लोगों को केवल लगन से काम करना होता है, विनाशकारी कार्यों में लिप्त नहीं होना होता है, आज्ञाकारी बनना होता है और जो कहा गया है वह करना होता है—यह सरल और आसानी से साध्य है। बाद में जब उस क्षेत्र के कार्य मुख्य रूप से पूरे हो गए, लेकिन अभी प्रबंधन करते रहने की जरूरत थी तो मैंने इस अगुआ को जिम्मेदारी सौंप दी। मैंने उससे क्षेत्र में साफ-सफाई रखने और यह सुनिश्चित करने के लिए कहा कि रखरखाव की जरूरत वाली हर चीज का अच्छी तरह ख्याल रखा जाए। इसमें मुख्य रूप से दो बातें थीं : एक, अंदर-बाहर सभी स्थिर जगहों और कमरों को साफ-सुथरा और व्यवस्थित रखें। दूसरा, पौधों की अच्छी देखभाल करें; उदाहरण के लिए, नए रोपे गए पौधों को पानी दें ताकि वे सूख न जाएँ, मौसम और उनकी बढ़त के अनुरूप जरूरत के अनुसार उनकी काट-छाँट करें और जरूरत पड़ने पर उनमें खाद डालें। केवल ये दो काम थे—क्या तुम लोगों को लगता है कि यह बहुत ज्यादा हैं? क्या यह थकाऊ हो सकता है? (नहीं।) ये दो काम अधिक नहीं हैं; भोजन के बाद टहलते हुए ही कोई इन्हें पूरा कर सकता है। यही नहीं, क्या तुम्हें अपने आवासीय परिवेश का भी ध्यान नहीं रखना है? एक इंसान के रूप में इसी तरह जीना होता है; इस प्रकार के काम सामान्य मानव जीवन के लिए अनिवार्य हैं। तुम्हें अपने आवासीय परिवेश का प्रबंधन स्वयं करना होता है। अगर तुम ऐसा नहीं करते तो तुम जानवरों से बिल्कुल अलग नहीं हो। क्या तब भी तुम्हें मानव कहा जा सकता है? जानवर अपने परिवेश का प्रबंधन नहीं करते; उनके पास अपनी शारीरिक जरूरतों के लिए तय जगह नहीं होती है, न ही उनके लिए खाने और सोने के पक्के ठिकाने होते हैं। इस लिहाज से इंसान जानवरों से श्रेष्ठ हैं; इंसान अपने परिवेश का प्रबंधन करते हैं, स्वच्छता का ख्याल रखते हैं और अपने परिवेश के लिए मानक अपनाते हैं। इसलिए उससे मेरी अपेक्षा कोई बहुत ज्यादा नहीं थी, है ना? (सही कहा।) ये काम सौंपकर मैं दूसरी जगह चला गया, और फिर अगुआ को नियत कार्य करना था। एक दिन मैं यह जाँचने पहुँच गया कि वहाँ के परिवेश का प्रबंधन कैसे किया जा रहा है तो उस दौरान हालात देखकर मेरा मन बहुत खिन्न हो गया, मुझे चिड़चिड़ाहट होने लगी और गुस्सा आने लगा! तुम लोग क्या सोचते हो क्या हुआ होगा? मन में इस प्रकार की भावनाएँ क्यों आई होंगी? (उसने परमेश्वर की आज्ञाओं और व्यवस्थाओं को कार्यान्वित नहीं किया।) बिल्कुल सही कहा, यह बताने का यही एकमात्र तरीका है—उसने उन्हें क्रियान्वित नहीं किया। जिस दौरान मैं बाहर था, तब मौसम ज्यादा शुष्क नहीं था, लेकिन नए रोपे गए कई पौधों की पत्तियाँ पीली पड़ चुकी थीं, कुछ तो झड़ने भी लगी थीं। भड़काने वाली बात तो यह थी कि दो प्रसिद्ध फूलदार पेड़ों के हरे-भरे पत्ते बैंगनी-लाल, लगभग पीले पड़ चुके थे। क्या यह सुनकर तुम लोगों को गुस्सा आता है? इससे भी ज्यादा भड़काने वाली बात यह थी कि प्रवेशद्वार पर सीमेंट से बना चबूतरा टोकरियों, प्लास्टिक की थैलियों, कूड़े-कचरे, लकड़ी के टुकड़ों, कीलों, औजारों से अटा पड़ा था—सब कुछ बिखरा हुआ था, गंदा और अस्त-व्यस्त नजारा था! यह देखकर कौन नहीं भड़केगा? केवल एक किस्म के लोग नहीं भड़केंगे—वे जो जानवरों के समान हैं, जिनके पास अपने परिवेश को लेकर मानक नहीं हैं या जो इस बारे में संवेदनशील नहीं है, जो बदबू, साफ-सफाई या सुख के प्रति उदासीन हैं और जो अच्छे-बुरे के बारे में निपट अनजान हैं। अपने परिवेश के लिए मानक और सोचने की क्षमता रखने वाला कोई भी सामान्य मानवतायुक्त व्यक्ति ऐसी स्थिति देखकर क्रोधित हो जाएगा। वहाँ लोगों का एक बड़ा समूह रहता था, फिर भी वे यह छोटा-सा काम नहीं संभाल पाए। ये किस तरह के लोग हैं? मेरे निर्देश देने के बावजूद उन्होंने इस जगह के साथ ऐसा सलूक किया, उन्होंने इसके साथ ऐसा किया। यहाँ परिवेश का प्रबंधन करना और इन कुछ चीजों का ख्याल रखना कोई थकाऊ काम नहीं है, है ना? यह तुम्हारी किसी भी गतिविधि में बाधा नहीं डालता है, है कि नहीं? यह तुम्हारी सभाओं, प्रार्थनाओं या परमेश्वर के वचनों का पाठ करने को प्रभावित नहीं करता है, है ना? तो फिर इसे क्यों नहीं किया जा सकता? जब मैं आसपास होता हूँ, खुद देखरेख और निगरानी करता हूँ तो ये लोग कुछ कार्य कर लेते हैं, लेकिन जैसे ही मैं बाहर चला जाता हूँ वैसे ही वे रुक जाते हैं; कोई भी जिम्मेदारी नहीं लेता। यहाँ क्या चल रहा है? क्या वे इस जगह को अपना घर मानते हैं? (नहीं।) वे अभी भी कहते हैं कि मसीह का राज्य उनका स्नेहमय घर है, लेकिन क्या वे वास्तव में ऐसा सोचते हैं? क्या वे वास्तव में ऐसे ही कार्य करते हैं? नहीं। वे जिस परिवेश में रहते हैं, उसका प्रबंधन भी नहीं करते। मेरे निर्देश देने के बाद भी न तो कोई जिम्मेदारी लेता है, न ही कोई परवाह करता है। जब उन्हें काम करने को कहा जाता है तो वे जरा-सा काम करते हैं, लेकिन काम पूरा करने के बाद वे अपने औजारों को लापरवाही से एक तरफ फेंककर सोचते हैं, “जिसे परवाह है, वही इससे निपटे, इससे मेरा सरोकार नहीं है। अगर मेरे पास भोजन और आश्रय है, तो मैं ठीक हूँ।” यह कैसी मानवता है? यह कैसी नैतिकता है? क्या ऐसे व्यक्ति में लेशमात्र भी सामान्य मानवता होती है? इतने बरसों तक परमेश्वर में विश्वास रखकर भी अपने में कोई बदलाव न लाना सचमुच समझ से परे बात है! मैंने तुम लोगों के लिए ये चीजें करने के लिए, सारी चीजों की इतनी अच्छी व्यवस्था करने के लिए इतनी ज्यादा मेहनत की है। मैं तो यहाँ नहीं रहता, मुझे इसका कोई आनंद नहीं मिलता—यह सब तुम लोगों के लिए है। तुम लोगों को एहसान मानने की जरूरत नहीं है; बस अपने रहन-सहन वाले परिवेश का प्रबंधन करो, इतना ही ठीक है—ऐसा करना इतना कठिन क्यों है? बाद में मुझे यह एहसास हुआ कि इस व्यवहार के पीछे एक कारण है। लोग परमेश्वर के घर में चाहे अपने परिवार और करियर को पीछे छोड़कर आए हों या अपनी पढ़ाई और भविष्य की संभावनाओं को छोड़कर आए हों, वे अपना कर्तव्य निभाने के लिए यहाँ आते हैं, न कि मेरे लिए दीर्घकालिक कार्यकर्ता बनने के लिए। क्यों? उन्हें एक भी पैसा नहीं मिलता, इसलिए वे मेरी बात क्यों सुनें? वे मेरे लिए परिवेश का प्रबंधन क्यों करें? वे मेरे लिए यह प्रयास क्यों खपाएँ? वे इसी तरह सोचते हैं। उन्हें लगता है कि अपना काम ठीक से करना और अपने कर्तव्य अच्छी तरह निभाना ही काफी है, कि अपने कार्यक्षेत्र के मामलों का ख्याल रखने से उनकी जिम्मेदारियाँ पूरी हो जाती हैं। मैं अलग से कोई भी चीज करने के लिए कहूँ और अगर यह उनके कर्तव्य और पेशे से संबंधित हो, तो वे उस पर विचार कर सकते हैं, लेकिन बाकी चीजें करने के लिए मुझे किसी और को ढूँढ़ना चाहिए। यहाँ निहित संदेश यह है, “हम राज्य के लोग हैं; हम इतना गंदा और थकाऊ काम कैसे कर सकते हैं? हम श्रेष्ठ मनुष्य हैं; हमसे हमेशा कमतर और अपमानजनक काम करवाने से हमारी छवि बिगड़ती है! हमारी एक खास पहचान है, तुम हमारे लिए चीजें मुश्किल क्यों बनाते रहते हो?” यह बात समझने के बाद मुझे इस बारे में कुछ अंतर्दृष्टि मिली कि अधिकतर लोग काम करने के प्रति विमुख, प्रतिरोधी और अनिच्छुक क्यों रहते हैं, वे क्यों अपनी तुलना दूसरों से करते हैं और काम करते समय वे अपने कर्तव्यों से बचने के लिए चालाकी का सहारा क्यों लेते हैं—इसका कारण यह है कि अधिकतर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते हैं। सत्य का अनुसरण न करना एक आम कथन है, लेकिन वास्तविकता में बहुत-से लोगों में आरामतलबी और काम से घृणा की सहज प्रवृत्ति होती है। वे इस मानसिकता से नियंत्रित होते हैं कि कैसे कम-से-कम काम से गुजारा हो जाए और साथ ही उनका मानना है कि सत्य का अनुसरण करने का मतलब एक साथ बैठना, बातचीत और चर्चा करना है, ठीक उसी तरह जैसे बड़े लाल अजगर के राष्ट्र में होता है जहाँ लोग निरंतर बैठकें करते हैं, अखबार पढ़ते रहते हैं और चाय की चुस्कियाँ लेते रहते हैं—इसे ही वे परमेश्वर में विश्वास रखना और अपना कर्तव्य निभाना मानते हैं। जैसे ही किसानों की तरह काम और मजदूरी करने का सवाल उठता है, बहुत-से लोग सोचते हैं कि इस तरह के जीवन यापन से हम ईसाइयों का कोई लेना-देना नहीं है। एक ईसाई का जीवन “तुच्छ सुखों” से दूर होता है। निहितार्थ से वे मानते हैं कि वे संसार के नीरस कार्यों से ऊपर हैं—साफ-सफाई, कीट नियंत्रण, खेती-बाड़ी, काट-छाँट, फूल-पोधे लगाना, इत्यादि, ये सब उनसे जुड़े कार्य नहीं हैं; वे बहुत पहले ही ऐसी जीवनशैली से परे निकल चुके हैं। क्या अधिकतर लोगों की यही दशा नहीं है? (हाँ।) क्या इस प्रकार की दशा को सुधारना आसान है? कुछ लोगों को जब मशीनरी चलाना सीखने के लिए कहा जाता है तो वे इसे गंभीरता से नहीं लेते और जान-बूझकर इसे गलत ढंग से चलाते भी हैं जिससे कुछ ही दिनों में मशीन खराब हो जाती है। नई खरीदी गई मशीनें टूट जाती हैं और मरम्मत की लागत सस्ती नहीं होती है। वे सोचते हैं : “क्या तुमने मुझे सीखने के लिए नहीं कहा था? अब जबकि मुझसे मशीन टूट गई और कोई दूसरी मशीन भी नहीं है तो मेरे पास आराम फरमाने का बहाना है, है ना? मुझे अब और काम नहीं करना पड़ेगा, है कि नहीं? तुम मुझे सीखने के लिए कहते रहे और इसका यह नतीजा निकला। क्या तुम यही देखना चाहते थे?” कुछ मशीनों की मरम्मत की लागत लगभग नई मशीनें की कीमत के बराबर ही होती है। कुछ लोगों को ऐसी गलतियाँ करने के बावजूद बिल्कुल बुरा नहीं लगता या ग्लानि नहीं होती है। जब तुम इसकी तुलना पहले चर्चा में आ चुकी इस धारणा से करते हो कि “परमेश्वर के घर का एक भी पैसा खर्च न करना क्योंकि यह परमेश्वर का चढ़ावा है,” तो कौन-सा कथन ईमानदारी से कहा गया है और कौन-सा व्यवहार वास्तविकता है? वे मशीनरी को बर्बाद कर देते हैं और दो-चार बार मरम्मत कराने की लागत एक नई मशीन खरीदने के बराबर होती है। यह फिजूलखर्ची का व्यवहार वास्तविकता है जबकि चढ़ावे को बर्बाद न करने का कथन झूठा, कपटपूर्ण और भ्रामक है। अगर हमें पहले वाले उदाहरण को एक मसीह-विरोधी के स्वभाव या सार के तहत श्रेणीबद्ध करना होता तो इसका संबंध आज की चर्चा के किस पहलू से होता? इसे किस पहलू के तहत रखा जाएगा? वे कहते हैं, “मैं यहाँ अपना कर्तव्य निभाने आया हूँ, तुम्हारा दीर्घकालिक मजदूर बनने नहीं।” क्या यह कथन सही है? तुम यहाँ अपना कर्तव्य निभाने तो आए हो लेकिन यह किसने तय किया कि इस कर्तव्य में क्या-क्या शामिल है और क्या शामिल नहीं है? क्या ये काम तुम्हारे उस कार्य का हिस्सा नहीं हैं, जो तुम्हें करना चाहिए? जैसा कि दैनिक जीवन में होता है, ठीक उसी तरह अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए पैसे कमाने बाहर जाना तुम्हारी जिम्मेदारी है। अगर तुम्हें साग-सब्जियाँ चाहिए और तुम इन्हें खुद उगाना तय करते हो, तो यह तुम्हारी अपनी पसंद है, लेकिन क्या इसका यह मतलब है कि दूसरे घरेलू काम तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं हैं? यह कथन सही है कि तुम यहाँ अपना कर्तव्य निभाने आए हो लेकिन यह कहना कि तुम यहाँ दीर्घकालिक मजदूर बनने नहीं आए हो, समस्याजनक है। “दीर्घकालिक मजदूर” का क्या अर्थ है? तुम्हें ऐसा कौन मान रहा है? तुम्हें दीर्घकालिक मजदूर कोई नहीं मानता और ये काम करके या थोड़ा-सा प्रयास करके तुम ऐसा नहीं बन जाते। मैं तुम्हें दीर्घकालिक मजदूर के रूप में नहीं देखता, न ही परमेश्वर का घर इस रूप में तुम्हारा उपयोग करता है। तुम वह कार्य करते हो जो तुम्हारी जिम्मेदारी है; ये सभी तुम्हारे कर्तव्य के दायरे में आते हैं। छोटे पैमाने पर इसका संबंध तुम्हारे दैनिक जीवन को बनाए रखने, तुम्हारे शारीरिक स्वास्थ्य और सामान्य शारीरिक कार्यों को सुनिश्चित करने और यह सुनिश्चित करने से है कि तुम अच्छी तरह से जियो। बड़े पैमाने पर देखें तो हर काम परमेश्वर के कार्य के विस्तार से जुड़ा है। तो फिर तुम इनमें से कुछ काम करने के लिए क्यों तैयार हो लेकिन दूसरे काम नहीं? तुम अपनी पसंद के आधार पर क्यों चुनते हो? तुम थोड़ी-सी मेहनत करने, कुछ साफ-सफाई करने और अपने परिवेश का प्रबंधन करने को एक दीर्घकालिक मजदूर का काम, मामूली मजदूरी क्यों मानते हो? इसके पीछे एक कारण है : जब मसीह की आज्ञाओं और उसकी सभी अपेक्षाओं की बात आती है तो लोग जो काम करना चाहते हैं उन्हें अपने कर्तव्य का हिस्सा मानते हैं जबकि वे जो काम करने के इच्छुक नहीं होते या जिन कामों का प्रतिरोध करते हैं उन्हें दीर्घकालिक मजदूर का काम मान लेते हैं। क्या यह तथ्यों को तोड़ना-मरोड़ना नहीं कहलाएगा? यह एकतरफा समझ की निशानी है। इस एकतरफा समझ का कारण क्या है? लोगों की प्राथमिकताएँ। और ये प्राथमिकताएँ किस ओर झुकती हैं? वे इस बात पर निर्भर करती हैं कि देह को कष्ट होता है या नहीं। अगर देह को सुख नहीं मिल सकता, अगर उसे कठिनाई या थकान होती है तो लोग प्रतिरोधी बन जाते हैं। वे जो काम करने के इच्छुक होते हैं, जो काम आकर्षक और सम्मानजनक होते हैं, उन्हें बेमन से स्वीकार कर अपना कर्तव्य निर्वहन मान लेते हैं। क्या इस रवैये को मसीह का विरोध करने की श्रेणी में रखा जा सकता है? लोग जिन कामों को करने के इच्छुक नहीं होते उनका दृढ़ता से विरोध करते हैं और इन्हें करने से इनकार कर देते हैं; चाहे तुम कितना ही अच्छा तर्क दे दो, वे बस इनकार कर देते हैं और विरोध करते हैं। क्या लोगों की इन दशाओं और समस्याओं का समाधान आसान है? यह सब इस पर निर्भर करता है कि कोई व्यक्ति सत्य से कितना प्रेम करता है। अगर कोई व्यक्ति सत्य से बिल्कुल भी प्रेम नहीं करता और उससे विमुख रहता है तो वह कभी नहीं बदलेगा। लेकिन अगर तुममें कष्ट सहने की इच्छाशक्ति है, तुम देह के विरुद्ध विद्रोह कर सकते हो और तुममें वास्तविक समर्पण और समर्पण का रवैया है तो इन मसलों को आसानी से पूरी तरह पलटा जा सकता है, है ना? (बिल्कुल।) व्यक्ति के जीवन में कोई कार्य न करने जैसी कोई चीज नहीं होती। कुछ लोग कहते हैं, “अतीत में सम्राट कोई कार्य नहीं करते थे।” क्या यह वास्तव में सच है? अधिकतर सम्राटों ने अपने सारे दिन राजमहल की जिंदगी के मजे लेने में नहीं बिताए। कुछ सम्राट कम उम्र में ही कविता और साहित्य का अध्ययन करने लगे थे और सवेरे से शाम तक कार्य करते थे। राजगद्दी संभालने के बाद वे लोगों का दुख-दर्द समझने के लिए गुप्त दौरे किया करते थे और राष्ट्रीय संकट के समय में कुछ सम्राट रणक्षेत्र में भी उतर जाते थे। भले ही ऐसे सम्राटों की संख्या ज्यादा नहीं थी, फिर भी कुछ तो ऐसे अवश्य थे। जैसा कि कुछ लोग मानते हैं, ऐसे सम्राट भी थे जिन्होंने बहुत कम या कुछ भी काम नहीं किया, लेकिन उनकी संख्या बहुत कम थी। जो व्यक्ति कोई भी उचित कार्य नहीं करता, फिर भी सर्वोत्तम चीजों का ही मजा लेने के ख्वाब देखता है, तो वह केवल कल्पनालोक में विचरण कर रहा है।

बहुत-से लोग शारीरिक श्रम करना हमेशा अशोभनीय चीज समझते हैं। क्या यह नजरिया सही है? ऐसे लोग भी हैं जो इस तरह के प्रयास को मजदूरी के रूप में देखते हैं, वे मानते हैं कि केवल अगुआओं और कार्यकर्ताओं का कलीसिया का कार्य करना ही कर्तव्य का निर्वहन माना जाता है—क्या ऐसी समझ सही है? (नहीं।) तुम्हें इस मामले को इस तरह समझना चाहिए : परमेश्वर लोगों से जो भी कार्य करने की अपेक्षा करता है वह सब करने के लिए और परमेश्वर के घर में सभी प्रकार के तमाम कार्य करने के लिए लोगों की जरूरत पड़ती है—ये सारे ही काम लोगों के कर्तव्य माने जाते हैं। लोग चाहे कोई भी कार्य करें, यह वह कर्तव्य है जो उन्हें निभाना चाहिए। कर्तव्यों का दायरा बहुत व्यापक होता है और इसमें कई क्षेत्र शामिल होते हैं—लेकिन तुम चाहे कोई भी कर्तव्य निभाओ, सीधे तौर पर कहें तो यह तुम्हारा दायित्व है और यह तुम्हें करना चाहिए। अगर तुम उसे अपने दिल से अच्छी तरह निभाने का प्रयास करोगे, तो परमेश्वर तुम्हारा अनुमोदन करेगा और तुम्हें परमेश्वर का सच्चा विश्वासी मानेगा। तुम चाहे कोई भी हो, अगर तुम अपने कर्तव्य से बचने या जी चुराने की कोशिश करोगे, तो फिर यह समस्या है। नरमी से कहा जाए तो तुम बहुत आलसी हो, बहुत धूर्त हो, तुम निठल्ले और आरामपसंद हो और श्रम से घृणा करते हो। इसे अधिक गंभीरता से कहा जाए तो तुम अपना कर्तव्य निभाने के इच्छुक नहीं हो और तुममें कोई वफादारी या समर्पण नहीं है। यदि तुम इस छोटे-से कार्य का जिम्मा लेने के लिए शारीरिक प्रयास भी नहीं कर सकते, तो तुम क्या कर सकते हो? तुम ठीक से क्या करने में सक्षम हो? यदि कोई व्यक्ति वास्तव में अपने कर्तव्य के प्रति वफादार है और उसमें जिम्मेदारी की भावना है, तो अगर परमेश्वर किसी चीज की अपेक्षा करता है, अगर परमेश्वर के घर को किसी चीज की आवश्यकता है, तो वह अपनी पसंद देखे बिना वो सब-कुछ करेगा जो उससे करने के लिए कहा जाता है। क्या यह कर्तव्य-निर्वहन का ही एक सिद्धांत नहीं है कि व्यक्ति जो कुछ भी करने में सक्षम है और जो कुछ उसे करना चाहिए, वह उसकी जिम्मेदारी ले और उसे अच्छी तरह करे? (हाँ।) बाहर शारीरिक श्रम करने वाले कुछ लोग इससे असहमत होकर कहते हैं, “तुम लोग तो सारा दिन अपने कमरे में हवा और धूप से सुरक्षित रहकर अपना कर्तव्य निभाते हुए बिताते हो। इसमें जरा भी कठिनाई नहीं होती, तुम्हारा कर्तव्य हमारी तुलना में बहुत आरामदेह है। खुद को हमारी परिस्थिति में रखो, तो देखें, क्या तुम बाहर आँधी-पानी में रहकर कई घंटे काम करना सह सकते हो।” वास्तव में, हर कार्य में कुछ कठिनाई रहती है। शारीरिक श्रम में शारीरिक कठिनाई रहती है और मानसिक श्रम में मानसिक कठिनाई; हर एक की अपनी कठिनाइयाँ हैं। हर चीज कहनी आसान है, करनी कठिन। जब लोग वास्तव में किसी काम की जिम्मेदारी लेते हैं, तो एक लिहाज से यह महत्वपूर्ण है कि उनका चरित्र कैसा है और दूसरे लिहाज से, क्या वे सत्य से प्रेम करते हैं या नहीं। पहले चरित्र के बारे में बात करते हैं। यदि व्यक्ति अच्छे चरित्र का है, तो वह हर चीज का सकारात्मक पक्ष देखता है, और चीजों को सकारात्मक दृष्टिकोण से और सत्य के आधार पर स्वीकार करने और समझने में सक्षम होता है; अर्थात् उसका हृदय, चरित्र और आत्मा ईमानदार हैं—यह चरित्र के दृष्टिकोण से है। इसके बाद, चलो हम दूसरे पहलू के बारे में बात करें—वह सत्य से प्रेम करता है या नहीं। सत्य से प्रेम करने का अर्थ सत्य को स्वीकार करने में सक्षम होना है अर्थात् चाहे तुम परमेश्वर के वचनों को समझते-बूझते हो या नहीं, और चाहे तुम परमेश्वर का इरादा समझते हो या नहीं, चाहे उस कार्य के बारे में, उस कर्तव्य के बारे में जिसे निभाने की तुमसे अपेक्षा की जाती है, तुम्हारा विचार, मत और दृष्टिकोण सत्य के अनुरूप हो या नहीं, अगर तुम फिर भी उसे परमेश्वर की देन मान लेते हो, और आज्ञाकारी और ईमानदार हो, तो यह काफी है, यह तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने के योग्य बनाता है, और यह न्यूनतम अपेक्षा है। अगर तुम आज्ञाकारी और ईमानदार हो, तो कोई कार्य करते हुए तुम लापरवाह नहीं रहोगे और धोखेबाजी से ढिलाई नहीं बरतोगे, बल्कि अपना दिलोजान उसमें लगा दोगे। अगर व्यक्ति की भीतरी दशा खराब है और उनमें नकारात्मकता पैदा होती है, तो उनका जोश ठंडा पड़ जाता है और वे लापरवाह होना चाहते हैं; वे अपने हृदय में अच्छी तरह जानते हैं कि उनकी दशा ठीक नहीं है, फिर भी वे सत्य को खोजकर उसे ठीक करने की कोशिश नहीं करते। ऐसे लोगों को सत्य से प्रेम नहीं होता, वे केवल अपना कर्तव्य निभाने के थोड़े-बहुत ही इच्छुक होते हैं; वे कोई प्रयास करने या कठिनाई सहने के इच्छुक नहीं होते हैं और वे हमेशा धोखेबाजी से ढिलाई बरतने की कोशिश करते हैं। वास्तव में, परमेश्वर इन सबकी पहले ही पड़ताल कर चुका है—तो वह इन लोगों पर ध्यान क्यों नहीं देता? परमेश्वर बस अपने चुने हुए लोगों के जागने और उन लोगों की असलियत पहचान कर उन्हें उजागर करने और उन्हें हटाने का इंतजार कर रहा है। लेकिन, ऐसे लोग फिर भी अपने मन में यही सोचते हैं, “देखो मैं कितना चतुर हूँ। हम वही खाना खाते हैं, लेकिन काम करने के बाद तुम लोग पूरी तरह से थक जाते हो और मैं बिल्कुल भी नहीं थकता। मैं चतुर हूँ। मैं उतनी कड़ी मेहनत नहीं करता; जो कोई कड़ी मेहनत करता है, वह मूर्ख है।” क्या उनका ईमानदार लोगों को इस नजरिये से देखना सही है? नहीं। वास्तव में, जो लोग अपना कर्तव्य निभाते हुए कड़ी मेहनत करते हैं, वे सत्य का अनुसरण करके परमेश्वर को संतुष्ट करते हैं, इसलिए सबसे चतुर लोग तो ये हैं। वे किस कारण चतुर हैं? वे कहते हैं, “मैं ऐसा कुछ भी नहीं करता जो परमेश्वर मुझसे करने के लिए नहीं कहता, और मैं वह सब करता हूँ जो वह मुझसे करने के लिए कहता है। वह जो कुछ भी करने को कहता है, मैं करता हूँ, और उसमें अपना दिल और अपनी पूरी ताकत लगा देता हूँ, मैं बिल्कुल भी आधे-अधूरे मन से काम नहीं करता। मैं यह कार्य किसी व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि परमेश्वर के लिए करता हूँ। परमेश्वर मुझसे बहुत प्यार करता है, मुझे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए यह करना चाहिए।” यह सही मनःस्थिति है। लिहाजा जब कलीसिया लोगों को स्वच्छ करती है, तो जो लोग अपने कर्तव्य का पालन करने में धूर्त होते हैं, वे सभी हटा दिए जाते हैं, जबकि वो ईमानदार लोग जो परमेश्वर की पड़ताल को स्वीकार करते हैं, वे बने रहते हैं। इन ईमानदार लोगों की दशाएँ सुधरती जाती हैं, और उन पर जो भी मुसीबत आती है, परमेश्वर उनकी रक्षा करता है। और उन्हें यह सुरक्षा किस कारण से मिलती है? इस कारण से कि वे दिल से ईमानदार हैं। वे अपना कर्तव्य निभाते हुए कठिनाई या थकावट से नहीं डरते, और उन्हें जो भी काम सौंपा जाता है उसमें वे मीनमेख नहीं निकालते; वे कभी सवाल नहीं करते, जैसा कहा जाता है वे बस वैसा ही करते हैं, वे बिना कोई जाँच-पड़ताल या विश्लेषण किए बिना या किसी भी अन्य बात पर विचार किए बिना आज्ञा का पालन करते हैं। वे कोई चाल नहीं चलते, बल्कि वे सभी चीजों में आज्ञाकारी होने में सक्षम होते हैं। उनकी आंतरिक दशा हमेशा बहुत सामान्य होती है। खतरे से सामना होने पर परमेश्वर उनकी रक्षा करता है; जब उन्हें कोई बीमारी या महामारी होती है, तब भी परमेश्वर उनकी रक्षा करता है—और भविष्य में वे सिर्फ आशीषों का आनंद उठाएँगे। कुछ लोग इस मामले की असलियत समझ ही नहीं पाते। जब वे ईमानदार लोगों को कर्तव्य निभाते हुए स्वेच्छा से कष्ट सहते और थककर चूर होते देखते हैं तो उन्हें लगता है कि ये ईमानदार लोग बेवकूफ हैं। मुझे बताओ, क्या यह बेवकूफी है? यह ईमानदारी है, यही सच्ची आस्था है। कई ऐसी चीजें हैं जिन्हें व्यक्ति सच्ची आस्था के बिना वास्तव में कभी समझ या समझा नहीं सकता है। वास्तव में हो क्या रहा है, यह बात सबसे स्पष्ट रूप से सिर्फ वो लोग जानते हैं जो सत्य को समझते हैं, जो हमेशा परमेश्वर के समक्ष रहते हैं, उनके साथ सामान्य संबंध रखते हैं और जो वास्तव में परमेश्वर के प्रति समर्पण करते हैं और ईमानदारी से उसका भय मानते हैं। ये लोग ही क्यों जानते हैं जबकि दूसरे नहीं जानते? उन्हें यह उपलब्धि सत्य का अभ्यास और ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास करने के जरिये अर्जित अनुभव से मिलती है। यह अनुभव कोई व्यक्ति नहीं दे सकता, न ही इसे कोई चुरा या छीन सकता है। क्या यह एक आशीष नहीं है? ऐसा आशीष आम लोगों को नहीं मिल सकता। और ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है कि लोग बहुत धोखेबाज और दुष्ट हैं; उनमें ईमानदारी की कमी है, वे ईमानदार इंसान बनने में असमर्थ हैं और उनमें ईमानदार दिल नहीं होता, इसलिए उन्हें जो कुछ मिलता है वह सीमित है। जहाँ तक मसीह-विरोधियों की बात है, उनका जिक्र करने की तो और भी कम जरूरत है। तमाम मामलों में उनके रवैये के आधार पर, साथ ही उनके प्रकृति सार के आधार पर और खासकर मसीह के प्रति उनके रवैये के आधार पर, मसीह-विरोधियों जैसे लोगों को यह आशीष कभी नहीं मिलेगा। ऐसा क्यों है? इसलिए कि उनके दिल बहुत दुष्ट और शातिर हैं! वे लोगों के साथ हर व्यक्ति को देखकर अलग-अलग व्यवहार करते हैं, वे गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं, उनके विचार हमेशा चलायमान रहते हैं, वे जब तक कोई लाभ नहीं दिखता, काम शुरू नहीं करते हैं, वे परमेश्वर के प्रति ईमानदार नहीं होते हैं, उसके प्रति उनमें कोई समर्पण नहीं होता और उसके साथ वे केवल लेन-देन करते रहते हैं। ऐसे रवैयों और सार का दुष्परिणाम क्या निकलता है? यही कि वे किसी भी मामले में विभिन्न लोगों और स्थितियों के सार के साथ ही इन स्थितियों में शामिल सत्यों की असलियत नहीं जान पाते या इन्हें समझ नहीं पाते हैं। परमेश्वर के वचन उनके सामने रखे हुए हैं, वे शिक्षित हैं, पढ़ना और विश्लेषण करना जानते हैं, उनमें बुद्धि है और वे पड़ताल करना भी जानते हैं, तो फिर वे समझ क्यों नहीं सकते? वे चाहे जितनी बड़ी उम्र तक जिएँ, भले ही यह 80 साल तक हो, फिर भी वे नहीं समझेंगे। वे क्यों नहीं समझेंगे? सबसे बड़ी वजह यह है कि उनकी आँखों पर काली पट्टी बाँध दी गई है। कुछ लोग कहते हैं, “लेकिन हमने तो उनकी आँखों पर पट्टी बँधी हुई नहीं देखी है।” दरअसल उनके दिलों को ढक दिया गया है। ढके होने से क्या आशय है? इसका अर्थ यह है कि उनके हृदय प्रबुद्ध नहीं हैं; वे सदा ढके रहते हैं। पहले, यह कहा जाता था कि “लोगों का दिल मोटा हो गया है।” तो मसीह-विरोधियों के दिल को मोटा किसने बना दिया? वास्तव में यह परमेश्वर ही है जिसने उन्हें प्रबुद्ध नहीं किया है। उसका इरादा उन्हें पूर्ण बनाने या बचाने का नहीं है। वह तो सिर्फ उचित समय पर, नाजुक और महत्वपूर्ण मौकों पर हस्तक्षेप करता है ताकि उन पर थोड़ी-सी लगाम लगा सके और परमेश्वर के घर के हितों को चोट पहुँचने से रोक सके। लेकिन ज्यादातर बार जब परमेश्वर के वचनों, सत्य, परमेश्वर के प्रति समर्पण करने, खुद को जानने और परमेश्वर को जानने की बात आती है तो परमेश्वर उन्हें कभी प्रबुद्ध नहीं करता है। कुछ लोग कह सकते हैं, “यह सही नहीं है। तुम कैसे कह सकते हो कि परमेश्वर उन्हें प्रबुद्ध नहीं करता? मसीह-विरोधियों के रूप में वर्गीकृत कुछ लोग बहुत चतुर हैं। अगर धर्मोपदेश सुनने के बाद तुम तीन घंटे बोले, तो वे छह घंटे बोल सकते हैं। क्या वह प्रबोधन नहीं है?” वे चाहे कितने ही घंटे बोल लें, भले ही 30 घंटे बोल लें, यह सिर्फ शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का जाल होता है। क्या फरीसी और शास्त्री इन लोगों से बेहतर बोल सके थे? उनमें से हरेक उपदेश देने में निपुण था, उनमें से हरेक वाक्पटु था, लेकिन इससे क्या भला हुआ? जब परमेश्वर आया तब भी उन्होंने उसका प्रतिरोध कर उसकी निंदा की। इससे उन्हें मिला क्या? यह उनके लिए विनाश, बर्बादी और महा आपदा लेकर आया। बाहर से देखने में तो परमेश्वर के घर में हर कोई अपना कर्तव्य निभा रहा है, हर व्यक्ति दिन में तीन वक्त का भोजन करता है, दिन में अपने कर्तव्य निभाता है और रात में आराम करता है। लेकिन कुछ वर्ष बाद विभिन्न प्रकार के लोगों में अंतर बढ़ जाते हैं और विभिन्न प्रकार के लोगों के परिणामों का खुलासा हो जाता है और वे परस्पर अलग नजर आते हैं। कुछ लोग मौखिक रूप से यह दावा तो करते हैं कि वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, लेकिन वे सही रास्ते पर नहीं चलते, बल्कि नरक की ओर भागते हैं। दूसरे लोग सत्य से प्रेम करते हैं और इसके लिए लगातार प्रयास करते हैं, इसलिए वे धीरे-धीरे सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लेते हैं। कुछ लोग हमेशा आरामदायक जीवन जीना चाहते हैं, वे अपने कर्तव्य निर्वहन में अधिकाधिक धूर्त बनते जाते हैं और अंततः हटा दिए जाते हैं। कुछ लोग सत्य को स्वीकार कर सकते हैं, अपने दिलों में अधिक-से-अधिक ईमानदार बन सकते हैं, अपने जीवन स्वभाव में बदलाव का अनुभव कर सकते हैं, और परमेश्वर और लोगों दोनों के ही प्रिय पात्र बन जाते हैं। कुछ लोग हमेशा शब्द और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देने पर ध्यान केंद्रित करते हैं और उनका यह प्रचार पूरा होने पर परमेश्वर उन्हें तिरस्कृत कर देता है और इस प्रकार वे तबाह हो जाते हैं। कुछ लोगों को आध्यात्मिक समझ नहीं होती है, वे जितना ज्यादा धर्मोपदेश सुनते हैं, उतने ही ज्यादा भ्रमित हो जाते हैं, सत्य में उनकी रुचि कम हो जाती है, वे कम आज्ञाकारी हो जाते हैं, हठपूर्वक और स्वेच्छाचारी ढंग से कार्य करना चाहते हैं, हमेशा अपनी इच्छाएँ पूरा करने में लगे रहते हैं और उनके लक्ष्य पर प्रसिद्धि, लाभ और रुतबा होता है—यह खतरनाक है। कुछ लोग कई वर्षों तक परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, और परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने और कई चीजों का अनुभव करने के बाद वे कई सत्यों को समझने लगते हैं, परमेश्वर में उनकी आस्था बढ़ती जाती है और वे उसका अनुमोदन प्राप्त कर लेते हैं। ये सभी लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, कलीसियाई जीवन जीते हैं और अपने कर्तव्य निभाते हैं, तो फिर आठ-दस वर्ष के बाद उनके नतीजे, अपनी-अपनी किस्म के अनुसार अलग-अलग क्यों होते हैं? यह क्या दर्शाता है? क्या लोगों के प्रकृति सार में अंतर नहीं होते हैं? (हाँ।)

यहाँ एक और मामला है जिसे गौर से सुनकर तुम लोगों को यह विचार करना है कि हमने मसीह-विरोधियों की जिन अभिव्यक्तियों की चर्चा की उनमें यह मामला किस श्रेणी से संबंधित है। कुछ कलीसियाओं में निहायत दुष्ट लोग अत्याचारी और अनुचित तरीके से कार्य कर रहे हैं। वे कोई ठोस कार्य नहीं कर सकते, फिर भी वे हमेशा सत्ता पर अधिकार जमाना चाहते हैं। वे जो भी कार्य अपने हाथ में लेते हैं, उसमें व्यवधान और विनाश पैदा करते हैं और सिद्धांतों का पालन नहीं करते हैं, और वे जो भी कार्य करते हैं उसमें कभी कीमत चुकाने के बजाय हमेशा यही चाहते हैं कि दूसरे लोग उनकी बातों को गौर से सुनें। संक्षेप में कहें तो जब तक कलीसिया में ऐसा व्यक्ति रहेगा, कई दूसरे लोग उससे बाधित होंगे और परमेश्वर के घर के कार्य और कलीसिया की व्यवस्था पर असर पड़ेगा और उसे नुकसान होगा। भले ही ऐसे लोगों ने कोई स्पष्ट रूप से बड़ा बुरा कृत्य नहीं किया है या भाई-बहनों को नुकसान नहीं पहुँचाया है, फिर भी जब तुम उनकी मानवता, उनके सार और विभिन्न मामलों पर उनके दृष्टिकोण के साथ ही भाई-बहनों, परमेश्वर के घर के कार्य और उनके अपने कर्तव्यों के प्रति उनके रवैये देखते हो तो वे शुद्ध रूप से बुरे लोगों की श्रेणी में आते हैं। भाई-बहनों के ध्यान में आने से पहले अगर मेरा सामना ऐसे किसी व्यक्ति से हो जाए तो मुझे उससे किस तरह निपटना चाहिए? क्या उसे बाहर निकालने और दूर भेज देने के लिए मुझे उसे घड़ी का इंतजार करना चाहिए जब वह कोई गंभीर गलती न कर दे या कोई बड़ा कहर न ढा दे, या फिर जब वह “कोई बड़ा तहलका मचा दे” तब उसे बाहर करें? क्या ऐसा करना जरूरी है? (नहीं।) तो फिर मुझे क्या करना चाहिए? मुझे कम-से-कम उसे उसके कर्तव्य से बरखास्त कर देना चाहिए। इसके बाद मुझे उसे अलग-थलग कर या बाहर निकाल कर अपना कर्तव्य निभाने से रोक देना चाहिए ताकि वह दूसरों को प्रभावित न करे। परमेश्वर के घर के अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य में ऐसे बुरे लोगों की मौजूदगी की इजाजत नहीं है—क्या यह सिद्धांत सही है? अगर उनका खुलासा नहीं हुआ है तो ठीक है, लेकिन एक बार उनका खुलासा हो जाने के बाद, जब उनकी असलियत देख ली गई हो और उन्हें बुरे लोगों की श्रेणी में रखा जा चुका हो, तो क्या उन्हें दूर करना सही है? (हाँ।) कुछ लोग कह सकते हैं, “यह कारगर नहीं रहेगा। तुमने उनकी असलियत देख ली है, लेकिन दूसरों ने तो नहीं देखी है। उन्हें दूर करने से दूसरों पर असर पड़ेगा। अगर तुम उन्हें सिर्फ इसलिए दूर कर देते हो क्योंकि तुमने उनकी असलियत देख ली है तो क्या इसका यह मतलब नहीं होगा कि तुम अकेले ही निर्णय ले रहे हो? क्या यह वास्तव में सत्य का प्रभुत्व होना कहलाएगा? हमें भाई-बहनों को इकट्ठा कर संगति करनी चाहिए, उनके साथ गहन विश्लेषण करना चाहिए, उन पर वैचारिक कार्य करना चाहिए और आगे बढ़ने से पहले सामग्री जुटाकर सबकी स्वीकृति ले लेनी चाहिए। तुम्हें प्रक्रियाओं का पालन करना होगा और अगर तुम ऐसा नहीं करते हो तो क्या तुम कलीसिया की कार्य व्यवस्थाओं का उल्लंघन नहीं कर रहे हो? क्या यह गलत नहीं होगा? पहले तुम्हें खुद कलीसिया की कार्य व्यवस्थाओं का पालन करना चाहिए; तुम उन्हें ध्वस्त नहीं कर सकते। इसके अलावा क्या हर चीज, चाहे वह कुछ भी हो, भाई-बहनों का ख्याल रखते हुए नहीं की जाती है? चूँकि यही सच्चाई है, ऐसे में तुम्हें सभी भाई-बहनों को इसके बारे में पूरी जानकारी देकर सत्य के इस पहलू को स्पष्ट रूप से समझाने की जरूरत है। तुम उन्हें भ्रम में डालकर नहीं छोड़ सकते; तुम्हें सभी भाई-बहनों को इस मामले का मर्म समझने में सक्षम बनाना होगा।” अगर इन प्रक्रियाओं का पालन न किया जाए और मैं किसी को निकालने को कहूँ तो तुम लोग कैसे आगे बढ़ोगे? तुम लोगों को कुछ नहीं सूझेगा, है ना? तुम लोग खुद को घबराहट की स्थिति में फँसा पाओगे, जिससे यह साबित होता है कि तुम लोगों के ऐसे दृष्टिकोण हैं। मैं जो बता रहा हूँ वही हो गया। एक बार, एक महत्वपूर्ण कार्य व्यवस्था में एक बुरी मानवता वाला शैतान था जो अपना कर्तव्य निभाने के दौरान कठिनाई और थकावट से बचने की कोशिश में छलपूर्वक ढिलाई बरतने लगा। उसने हर मोड़ पर कलीसिया के कार्य में विघ्न-बाधा डाली और गड़बड़ी पैदा की, और जब उसकी काट-छाँट की गई तो उसने उद्दंड होकर सत्य को पूरी तरह खारिज कर दिया। वह हमेशा पद पर बने रहकर खुद निर्णय लेना चाहता था और साथ ही दूसरों पर हुक्म भी चलाना चाहता था, और उसने केवल अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर कार्य करते हुए कभी भी कलीसिया के हितों के बारे में नहीं सोचा, और न ही सिद्धांतों का पालन किया। कार्य का प्रभारी रहने के दौरान उसने मेरे बताए अनेक कार्यों की अनदेखी की, उसने मानो मेरे वचनों को एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दिया। उसने अपने काम तो किए नहीं, उलटे व्यवधान भी पैदा किए। कलीसिया अपने कर्तव्य निभाने का एक महत्वपूर्ण कार्यस्थल है—अगर उसने यह सोचा कि वह यहाँ अपना कर्तव्य निभाने नहीं, बल्कि राजसी ऐशो-आराम से रहने या समयपूर्व सेवानिवृत्ति का मजा लेने आया है, तो वह भ्रम में था। परमेश्वर का घर न तो कोई खैराती संस्था है और न ही पनाहगाह। इस इंसान जैसे बदमाश लोग जहाँ कहीं जाते हैं वहाँ अच्छे नहीं रहते; वे अपने किसी भी कर्तव्य के प्रति कभी वफादार नहीं रहते, हमेशा लापरवाह रहते हैं और सिर्फ निरुद्देश्य भटकते रहते हैं। इसलिए मैंने कहा कि उसे तुरंत बाहर निकालो। क्या इसे अभ्यास में लाना आसान होता? (बिल्कुल।) लेकिन एक खास तरह के इंसान के लिए इतना सरल मामला क्रियान्वित करना भी कठिन होता है। मेरे कहने के तीन महीने बाद आखिरकार इस बुरे व्यक्ति को बलपूर्वक निकाला गया। इसका कारण क्या था? जब मैंने इस व्यक्ति को बाहर निकालने की आज्ञा दी तो उस कलीसिया के अगुआ ने काम को “क्रियान्वित” करना शुरू किया। उसने इसे किस प्रकार क्रियान्वित किया? उसने इस निर्णय पर मतदान कराने के लिए सबकी सभा बुलाई। काफी चर्चा के बाद आखिरकार बहुमत उसे बाहर निकालने के पक्ष में रहा, लेकिन एक मत इसके खिलाफ पड़ गया, इसलिए इस मामले को रोक दिया गया। इस अगुआ ने कहा कि उसे उस असहमत व्यक्ति पर काम करने, उससे चर्चा करने और उसकी सहमति लेने की जरूरत है। इस बीच मैंने दो बार पूछ लिया कि क्या उस आदमी को निकाल दिया गया है, और अगुआ ने जवाब दिया कि उसे अभी नहीं निकाला गया है, कि वे अभी सामग्री जुटाकर इसका सारांश बना रहे हैं। मेरी पीठ पीछे उसने यह भी कहा, “जब तक एक भी व्यक्ति असहमत है, हम उसे बाहर नहीं निकाल सकते।” उसके इस कथन का यही अर्थ था कि वह इस आदमी को बाहर नहीं निकालना चाहता, इसलिए उसने यह बेतुका कारण खोज लिया। हकीकत में वे दूसरों को ठग रहे थे; वे इस आदमी की नाराजगी मोल लेने से डरते थे और उसे बाहर निकालने की हिम्मत उनमें नहीं थी। अंत में ऊपरवाले की ओर से अंतिम चेतावनी आई : “इस आदमी को बाहर निकालना ही है। अगर वह नहीं निकाला जाता तो फिर तुम्हें जाना होगा। तुम लोगों में से एक को जाना ही होगा; चुनना तुम्हें है!” यह सुनकर उसने सोचा, “मैं नहीं जा सकता; अभी मैंने अपने पद का भरपूर मजा नहीं लिया है!” तब जाकर उसने इस दानव को बाहर निकाला। मुझे बताओ, इस अगुआ ने दानव की रक्षा क्यों की? क्या यह एक मसीह-विरोधी का दृष्टिकोण नहीं है? यह बिल्कुल एक मसीह-विरोधी का व्यवहार है।

कुछ लोग परमेश्वर में अपनी आस्था का निरंतर ढिंढोरा पीटते हैं लेकिन अपने ऊपर मुसीबत आने पर वे हर भाई-बहन की राय तो लेते हैं किंतु मसीह की राय कभी नहीं लेते। वे यह पूछताछ नहीं करते कि मसीह क्या कहता है, उसका निष्कर्ष क्या है, वह यह कार्य क्यों करना चाहता है या लोगों को समर्पण कैसे करना चाहिए। उन्होंने हर भाई-बहन की राय माँगी है और वे उनकी हर राय और विचार का सम्मान करने में सक्षम हैं, लेकिन वे मसीह के कहे गए एक भी वाक्य को स्वीकार नहीं करते हैं, वे समर्पण करने का कोई इरादा नहीं दिखाते हैं। इसकी प्रकृति क्या है? क्या वे मसीह-विरोधी नहीं हैं? (बिल्कुल।) इस स्थिति में क्या चल रहा है? वे इस मामले को क्रियान्वित क्यों नहीं करते? इसे क्रियान्वित करना उनके लिए इतना कठिन क्यों है? इसका एक कारण है। उन्हें लगता है, “मसीह के पास सत्य और परमेश्वर का सार है, लेकिन ये सब आधिकारिक बातें हैं, केवल धर्म-सिद्धांत और नारे हैं। जब वास्तविक मामलों की बात आती है तो तुम किसी की भी असलियत नहीं समझ सकते। तुम्हारे वचन केवल हमारे सुनने के लिए कहे गए हैं, किताबों में छपे हैं और इनका तुम्हारी वास्तविक क्षमताओं से कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए अगर तुम किसी को बुरा व्यक्ति या मसीह-विरोधी निर्धारित करते हो तो हो सकता है यह सही न हो। मैंने इस बात पर ध्यान क्यों नहीं दिया कि वह बुरा या मसीह-विरोधी है? मैं इस मामले को क्यों नहीं समझता?” क्या वे इस तरह नहीं सोचते? उन्हें लगता है, “तुम इस व्यक्ति से सिर्फ दो बार मिले हो, तुमने उसे चंद बातें कहते और एक काम करते देखा है और तुम उसे बुरा व्यक्ति ठहरा देते हो। भाई-बहन ऐसा नहीं सोचते हैं; तुम कैसे सोच सकते हो? तुम्हारे वचनों का इतना महत्व क्यों होना चाहिए? मैंने इस व्यक्ति का न कोई बुरा कृत्य देखा है, न मुझे यह पता है कि उसने कौन-से बुरे काम किए हैं, इसलिए तुम जो कहते हो उसका समर्थन कर मैं ‘आमीन’ नहीं कह सकता। तुम जो कर रहे हो उसे लेकर मेरी अपनी धारणाएँ और आपत्तियाँ हैं। लेकिन धारणाएँ होने के बावजूद मैं उन्हें सीधे व्यक्त नहीं कर सकता, इसलिए मुझे परोक्ष तरीकों का सहारा लेना होगा : मैं भाई-बहनों को मतदान के जरिये यह मामला तय करने दूँगा। अगर वे असहमत हुए तो कुछ भी नहीं करना होगा—क्या तुम वाकई उन सबकी भी काट-छाँट कर सकते हो? इसके अलावा तुमने इस व्यक्ति से सिर्फ कुछ ही बार बातचीत की है, फिर भी तुम उसे बुरा ठहरा रहे हो। तुम उसे थोड़ा-सा मौका क्यों नहीं देते? देखो भाई-बहन कितने सहनशील और स्नेही हैं। मैं बुरा बंदा नहीं बन सकता; मुझे भी स्नेही होकर लोगों को मौका देना चाहिए—तुम्हारी तरह नहीं, जो लोगों के बारे में फटाफट अपनी राय तय कर लेता है। किसी को बाहर निकाल देना सरल नहीं है—अगर वह इंसान बाद में कमजोर पड़ जाए तो क्या होगा? समस्याओं का सामना करते समय मसीह को भाई-बहनों की रक्षा करनी चाहिए। उसे भाई-बहनों की हर मूर्खता, विद्रोह या अज्ञानता को बर्दाश्त करना चाहिए और इतना निर्णायक और निर्मम नहीं होना चाहिए। क्या परमेश्वर को अत्यंत दयालु नहीं होना चाहिए? वह दया कहाँ गई? जिस किसी को तुम पसंद नहीं करते उसे बुरा ठहराकर बाहर निकाल देने की इच्छा करना बिल्कुल भी नियमों के अनुरूप नहीं है!” ये धारणाएँ हैं, है ना? (हाँ।) जब मसीह कुछ करता है या कोई निर्णय लेता है और अगर लोग इससे सहमत नहीं हैं तो इसे क्रियान्वित करना मुश्किल हो जाता है। वे जान-बूझकर ढीले पड़ जाते हैं, विरोध करने के लिए तरह-तरह के बहानों और तरीकों का उपयोग करते हैं; वे इसे लागू करने या आज्ञा पालन करने से इनकार कर देते हैं। उनका इरादा यह होता है : “अगर मैं इसे क्रियान्वित न करूँ तो तुम्हारा कार्य पूरा नहीं होगा!” सुन लो, अगर तुम इसे किर्यान्वित नहीं करते तो मैं किसी ऐसे व्यक्ति को खोज लूँगा जो अगुआ बन सके और तुम जहाँ से आए हो वहीं वापस जा सकते हो! क्या इस मामले को इस तरह नहीं संभालना चाहिए? (हाँ।) मैंने उसे इसी तरह रुखसत कर दिया, सीधे और सुघड़ तरीके से—किसी से राय-मशविरा लेने की जरूरत नहीं थी।

कुछ लोग सत्य को कभी नहीं समझ पाते और उनके मन में परमेश्वर के वचनों के प्रति हमेशा संदेह रहता हैं। वे कहते हैं, “क्या सत्य का प्रभुत्व होना मसीह का प्रभुत्व होने के ठीक समान है? जरूरी नहीं कि मसीह के वचन हमेशा सही हों क्योंकि उसका एक मानवीय पहलू है।” वे मसीह का प्रभुत्व होने को स्वीकार नहीं सकते। अगर प्रभुत्व परमेश्वर के आत्मा का होता तो उनके मन में कोई धारणा नहीं होती। यहाँ समस्या क्या है? ऐसे लोगों के मन में स्वर्ग के परमेश्वर के बारे में रत्ती भर भी संदेह नहीं होता लेकिन वे देहधारी परमेश्वर को लेकर हमेशा संदेह करते हैं। मसीह ने इतना अधिक सत्य व्यक्त किया है, फिर भी वे उसे देहधारी परमेश्वर नहीं मानते। तो क्या वे यह मान सकते हैं कि मसीह ही सत्य, मार्ग और जीवन है? यह कहना कठिन है। अगर ऐसे लोग मसीह का अनुसरण कर भी लें तो क्या वे उसकी गवाही दे सकते हैं? क्या वे मसीह के अनुरूप हैं? इन सवालों का कोई सुनिश्चित जवाब नहीं है। यह भी अनिश्चित है कि क्या ऐसे लोग राह के अंत तक अनुसरण कर सकते हैं। कुछ लोग अपने दिलों में पूरी तरह मानते हैं कि परमेश्वर के घर में सत्य का प्रभुत्व होता है। लेकिन वे सत्य का प्रभुत्व होने को किस तरह से समझते हैं? उन्हें लगता है कि जो भी कार्य किया जाए, अगर वह परमेश्वर के घर से जुड़ा है तो सबको विचार विमर्श कर मिल-जुलकर निर्णय लेना चाहिए। परिणाण चाहे जो भी हो, अगर आम सहमति बन जाए तो इसे क्रियान्वित किया जाना चाहिए। वे मानते हैं कि सत्य का प्रभुत्व होने का यही मतलब है। क्या यह दृष्टिकोण सही है? यह एक गंभीर भ्रांति है; यह सबसे बेतुका और ऊटपटाँग बयान है। सत्य का स्रोत क्या है? इसे मसीह ने व्यक्त किया है। सिर्फ मसीह सत्य है जबकि भ्रष्ट मानवजाति के पास बिल्कुल भी सत्य नहीं है, तो फिर विचार-विमर्श के जरिये लोग सत्य को कैसे उत्पन्न कर सकते हैं? अगर लोग विचार-विमर्श के जरिये सत्य को उत्पन्न कर लेते, तो इसका यह आशय होगा कि भ्रष्ट मानवजाति के पास सत्य है। क्या यह सबसे बेतुकी बात नहीं है? इसलिए सत्य का प्रभुत्व होने का अर्थ है मसीह का प्रभुत्व होना, इसका अर्थ है परमेश्वर के वचनों का प्रभुत्व होना, न कि हर किसी के पास शक्ति होना या निर्णय लेने की शक्ति होना। सत्य और परमेश्वर के वचनों के बारे में संगति करने के लिए एकत्रित होना सही है; यह कलीसियाई जीवन है। लेकिन इस प्रकार अभ्यास करने का क्या प्रभाव होना चाहिए? यही कि हर कोई सत्य को समझ ले, परमेश्वर के वचनों को जान ले, और हर कोई परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण करने और उनके अनुसार कार्य करने में सक्षम हो सके। लोग सत्य के बारे में संगति करने के लिए ठीक इसीलिए एकत्र होते हैं कि वे इसे समझते नहीं हैं। अगर वे सत्य को समझते तो वे सीधे मसीह के प्रति और परमेश्वर के वचनों के प्रति समर्पण कर सकते थे; यह वास्तविक समर्पण होता। अगर परमेश्वर के चुने हुए सभी लोग एक दिन सत्य को समझ जाएँ, सब सीधे मसीह के प्रति समर्पण कर सकें, उसका गुणगान कर सकें और उसकी गवाही दे सकें, तो इससे यह संकेत मिलेगा कि परमेश्वर के चुने हुए लोग पूर्ण बनाए जा चुके हैं। इससे भी बढ़कर, इससे यह सत्यापित होगा कि परमेश्वर के घर में सत्य का शासन चलता है, मसीह का शासन चलता है। केवल ऐसे तथ्यों और गवाहियों से ही यह साबित होगा कि परमेश्वर ने पृथ्वी पर राजा के रूप में शासन किया है और मसीह का राज्य प्रकट हो चुका है। लेकिन कुछ मसीह-विरोधी और झूठे अगुआ सत्य का प्रभुत्व होने को किस रूप में समझते हैं? उनके अपने क्रियान्वयन में, सत्य का प्रभुत्व होने का मतलब है कि भाई-बहनों का प्रभुत्व होना। वे चाहे कोई भी कार्य करें, अगर वे इसे पूरी तरह समझ लेते हैं तो वे इसे अपनी इच्छा के अनुसार करते हैं; अगर वे इसे समझ नहीं पाते तो वे कुछ लोगों के साथ संगति करते हैं और समूह को तय करने देते हैं। क्या इससे यह साबित हो जाएगा कि सत्य का अभ्यास किया जा रहा है? क्या समूह का निर्णय आवश्यक रूप से परमेश्वर के इरादों के अनुरूप होता है? क्या ऐसा अभ्यास सत्य का प्रभुत्व ला सकता है? क्या यह सत्यापित कर सकता है कि परमेश्वर के घर में मसीह का प्रभुत्व होता है? वे मानते हैं कि भाई-बहनों को अपनी राय व्यक्त करने देना, अपने विचार-विमर्श कर आखिरकार आम सहमति पर पहुँचने देना और निर्णय लेने की अनुमति देना ही सत्य का प्रभुत्व होना कहलाता है, जिसका निहितार्थ है कि भाई-बहन सत्य के प्रवक्ता हैं, स्वयं सत्य के पर्याय हैं। क्या इसे इस ढंग से समझना सही है? स्पष्ट रूप से ऐसा समझना सही नहीं है, लेकिन कुछ मसीह-विरोधी और झूठे अगुआ वास्तव में इसी तरह से कार्य करते हैं और इसे इसी तरह क्रियान्वित करते हैं। उन्हें लगता है कि ऐसा करके वे लोकतंत्र का अभ्यास कर रहे हैं, कि वे एक लोकतांत्रिक निर्णय ले रहे हैं और यह चाहे सत्य के अनुरूप हो या न हो, इसे इसी तरह किया जाना चाहिए। इस तरह से कार्य करने का सार क्या है? क्या लोकतांत्रिक तरीके से तय किए गए मामले स्वतः ही सत्य के अनुरूप हो जाते हैं? क्या वे स्वतः ही परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करते हैं? अगर लोकतंत्र ही सत्य होता, तो परमेश्वर को सत्य व्यक्त करने की कोई जरूरत नहीं पड़ती; क्या लोकतंत्र का शासन चलने देना ही काफी नहीं होता? भ्रष्ट मानवजाति लोकतंत्र का अभ्यास चाहे कैसे भी करे, वह लोकतंत्र का अभ्यास करके सत्य को उत्पन्न नहीं कर सकती है। सत्य परमेश्वर से आता है, मसीह की अभिव्यक्तियों से आता है। कोई भी इंसानी तरीका इंसान के विचारों या रुचियों के चाहे कितना भी अनुरूप हो, वह सत्य का परिचायक नहीं हो सकता। यह एक तथ्य है। झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों के दृष्टिकोणों का सार यह है कि सत्य का प्रभुत्व होने की आड़ में क्यों न मसीह को पूरी तरह हाशिये पर धकेल दिया जाए, मसीह को लोकतंत्र से बदल दिया जाए और मसीह के शासन को सामुदायिक संगति और लोकतांत्रिक शासन पद्धति से बदल दिया जाए। क्या इसकी प्रकृति और दुष्परिणामों को आसानी से समझा जा सकता है? समझ-बूझ वाले लोगों को इन्हें समझने में सक्षम होना चाहिए। झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी वे नहीं हैं जो मसीह के प्रति समर्पण करते हैं, बल्कि वे हैं जो उसे नकारते हैं और उसकी अवहेलना करते हैं। कलीसिया में मसीह चाहे जो भी संगति करे, भले ही लोग उसे सुनते और समझते भी हों तो भी वे इसे एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देते हैं और इसे क्रियान्वित करने के इच्छुक नहीं होते हैं। बल्कि उनका ध्यान इस बात पर रहता है कि झूठे अगुआ और मसीह-विरोधी क्या कहते हैं; उनके लिए अंत में इन्हीं की बातें मायने रखती हैं। लोग मसीह के वचनों के अनुसार अभ्यास कर सकते हैं या नहीं, यह इन झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों के फैसलों पर निर्भर करता है, और अधिकतर लोगों में उनका अनुसरण करने का रुझान होता है। मसीह-विरोधी कलीसिया के कार्य पर कड़ी निगरानी रखते हैं, वे केवल खुद को निर्णय लेने देते हैं और परमेश्वर को निर्णय लेने का अधिकार या प्रभुत्व नहीं रखने देते हैं। उन्हें लगता है, “मसीह यहाँ केवल कार्य का निरीक्षण करने के लिए है। तुम अपनी बात कह सकते हो और कार्य की व्यवस्था कर सकते हो, पर इसे क्रियान्वित कैसे करना है यह हम पर निर्भर करता है। हमारे काम में हस्तक्षेप मत करो।” क्या मसीह-विरोधी यही सब नहीं करते? मसीह-विरोधी हमेशा यही कहते हैं कि “सभी भाई-बहनों ने संगति कर ली है” या “सभी भाई-बहन आम सहमति पर पहुँच गए हैं”—क्या ऐसी बातें करने वाले लोग वास्तव में सत्य को समझते हैं? भाई-बहन कौन हैं? क्या वे बस शैतान द्वारा गहराई से भ्रष्ट किए गए लोगों का एक समूह नहीं हैं? आखिर वे कितना सत्य समझते हैं, उनके पास कितनी सत्य वास्तविकता है? क्या वे मसीह का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं? क्या वे सत्य का प्रतिरूप हैं? क्या वे सत्य के प्रवक्ता हो सकते हैं? क्या सत्य से उनका कोई नाता है? (नहीं।) चूँकि इनका सत्य से कोई नाता नहीं है, तो फिर ऐसी बातें कहने वाले लोग क्यों हमेशा भाई-बहनों को सर्वोच्च मानते हैं? क्यों नहीं वे परमेश्वर का गुणगान कर उसकी गवाही देते हैं? क्यों नहीं वे सत्य के अनुसार बोलते और कार्य करते हैं? क्या इस प्रकार बोलने वाले लोग बेतुके लोग नहीं हैं? इतने ज्यादा वर्षों तक परमेश्वर के वचन पढ़ने और धर्मोपदेश सुनने के बाद भी वे कोई सत्य नहीं समझते और यह भी नहीं समझ पाते कि सच्चे भाई-बहन क्या होते हैं। क्या वे अंधे नहीं हैं? अब सबको उनके प्रकार के अनुसार वर्गीकृत किया जा चुका है; कई लोग अपना असली चरित्र प्रकट कर चुके हैं, वे सभी शैतान जैसे हैं—वे पूरी तरह से जानवर हैं। क्या तुम लोग इसे स्पष्ट रूप से नहीं देख सकते? तुम्हारे पास बिल्कुल भी सत्य नहीं है! कुछ लोग मुझे मसीह-विरोधियों का गहन विश्लेषण करते हुए सुनने के इच्छुक नहीं रहते। वे कहते हैं, “ओह, हमेशा मसीह-विरोधियों जैसी तुच्छ चीज के बारे में बात मत करो; यह शर्मिंदा करने वाली बात है। तुम क्यों हमेशा मसीह-विरोधियों का गहन विश्लेषण करते रहते हो?” क्या उनका गहन विश्लेषण न करना ठीक होगा? उनका इसी तरह गहन विश्लेषण करना होगा ताकि लोगों को भेद करना सिखाया जा सके। वरना जब मसीह-विरोधी सामने आएँगे तो वे तमाम पाखंड और भ्रांतियाँ फैला देंगे, बहुत-से लोगों को गुमराह कर देंगे, यहाँ तक कि कलीसिया को नियंत्रित कर अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लेंगे। क्या तुम लोग स्पष्ट रूप से समझ रहे हो कि इस मसले के कितने गंभीर दुष्परिणाम हैं? अभी-अभी हमने इस बारे में संगति की कि सत्य का प्रभुत्व होना क्या होता है। संगति के जरिये लोगों ने मसीह-विरोधियों के बेतुके तरीकों और ऊटपटाँग विचारों को देख लिया है। मसीह-विरोधी हमेशा अपना ही प्रभुत्व चाहते हैं और वे नहीं चाहते कि मसीह का प्रभुत्व हो, लिहाजा वे सत्य के शासन को एक लोकतांत्रिक रूप में बदल देते हैं, वे इस बात के हिमायती हैं कि मामलों पर सबके साथ विचार-विमर्श करना ही सत्य का प्रभुत्व होना है। क्या इसमें शैतान की चालबाजी नहीं छिपी है? क्या सत्य ऐसी कोई चीज है कि हर व्यक्ति विचार-विमर्श के माध्यम से इस तक पहुँच सके? सत्य को परमेश्वर व्यक्त करता है और यह परमेश्वर से ही उत्पन्न होता है। तुम लोग सीधे परमेश्वर के वचनों का अभ्यास क्यों नहीं कर सकते हो, सीधे परमेश्वर के प्रति समर्पण क्यों नहीं कर सकते हो और सीधे परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण क्यों नहीं कर सकते हो? मसीह की आज्ञाओं को सबके विचार-विमर्श के माध्यम से क्यों तय किया जाना चाहिए? क्या यह शैतान का षड्यंत्र नहीं है? मसीह-विरोधी अक्सर लोगों को गुमराह करने के लिए सिद्धांतों की पिटारी खोल देते हैं, और वे चाहे कोई भी कार्य क्रियान्वित करें, अंतिम निर्णय उन्हीं का होता है, वे पूरी तरह से सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं। मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियों के आधार पर देखें तो वास्तव में उनका स्वभाव क्या है? क्या वे सकारात्मक चीजों और सत्य से प्यार करने वाले लोग हैं? क्या उनमें परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण है? (नहीं।) उनका सार सत्य से विमुख होने और नफरत करने का है। यही नहीं, वे इतने अहंकारी होते हैं कि अपनी सारी तार्किकता खो बैठते हैं, उनमें वह बुनियादी जमीर और विवेक भी नहीं होता जो लोगों में होना चाहिए। ऐसे लोग इंसान कहलाने लायक नहीं हैं। उन्हें केवल शैतान की जमात का कहा जा सकता है; वे दानव हैं। जो सत्य को रत्तीभर भी नहीं स्वीकारता वह दानव है—इसमें कोई संदेह नहीं है।

कुछ ऐसे लोग भी हैं जो मसीह के वचनों के प्रति न तो विनम्र रवैया अपनाते हैं न ही अहंकारी। वे न तो पूर्ण स्वीकृति व्यक्त करते हैं न ही विरोध जताते हैं। जब मसीह बोलता है, सत्य पर संगति करता है, किसी व्यक्ति के भेद की पहचान करता है या कोई कार्य सौंपता है, तो ऊपरी तौर पर देखने में लगता है कि ये लोग सुन रहे हैं और महत्वपूर्ण बिंदु दर्ज कर रहे हैं, गंभीरता और सहयोग दिखा रहे हैं। वे हर चीज के बारे में बारीक-से-बारीक बात नोट करते हैं, तमाम निशान लगाते जाते हैं, लगता है कि उनकी सत्य में अत्यधिक रुचि है और वे मसीह की कही बातों को बहुत महत्व दे रहे हैं, मानो वे सत्य से खास तौर पर प्रेम करते हैं और मसीह में अटूट निष्ठा रखते हैं। लेकिन क्या सत्य के प्रति ऐसे लोगों का रवैया, उनका स्वभाव और उनका सार ऐसी सतही परिघटनाओं से समझा जा सकता है? नहीं समझा जा सकता। ऐसे लोग ऊपरी तौर पर नोट्स लेते और गौर से सुनते प्रतीत होते हैं, लेकिन वे वास्तव में अपने मन में क्या सोच रहे होते हैं? अपने नोट्स देखकर वे सोचते हैं, “यह सब क्या है? एक भी उपयोगी पँक्ति नहीं है, ऐसा कुछ भी नहीं है जो उत्कृष्ट या सत्य के अनुरूप दिखता हो, न ही ऐसा कुछ है जो मुझे तर्कसंगत लगता हो। मैं इसे फाड़ भी सकता हूँ!” क्या यह एक प्रकार का रवैया नहीं है? मैंने बहुत-से लोगों को धर्मोपदेश सुनते समय सिर हिलाते और चेहरे पर विभिन्न हाव-भाव लाते देखा है, साथ ही उन्हें नोट्स लेते भी देखा है, लेकिन वे बाद में इसे बिल्कुल भी गंभीरता से नहीं लेते हैं। उन्हें याद नहीं रहता कि उन्हें कौन-सी चीजें क्रियान्वित करनी चाहिए, न ही वे इसे अपने दिल में सहेजते हैं या उस पर कार्य करते हैं। जहाँ तक यह सवाल है कि उन्हें किन चीजों का अभ्यास करना चाहिए तो ऐसा होने की संभावना और भी कम है। उन्हें जिस चीज को क्रियान्वित करना चाहिए उसका संबंध परमेश्वर के घर के कार्य और उनके कर्तव्य से है, और उन्हें जिसमें प्रवेश करना चाहिए वह उनके व्यक्तिगत प्रवेश से संबंधित है। वे उसे क्रियान्वित नहीं करते जिसे उन्हें करना चाहिए और अपने व्यक्तिगत प्रवेश को तो वे इससे भी कम गंभीरता से लेते हैं। वे कहते हैं, “ऐसा कहा गया है कि मसीह का बोला और व्यक्त किया गया हर वाक्य सत्य है, कि इसी में लोगों को प्रवेश करना चाहिए, कि यही सब सत्य, मार्ग और जीवन है—लेकिन मैं हर बार जो नोट्स लेता हूँ उसमें मुझे कोई सत्य या मार्ग नहीं दिखता है, न ही मुझे ऐसा लगता है कि यह जीवन है। तो फिर यह कथन कैसे पूरा हो सकता है कि मसीह में परमेश्वर का सार है? यह कैसे साकार हो सकता है? मैं जो देख रहा हूँ उससे यह कैसे मेल खा सकता है? यह आसानी से मेल नहीं खाता है।” कुछ लोग कहते हैं, “अगर सुनने के बाद उनका यह रवैया है, तो फिर उन्होंने नोट्स ही क्यों लिए? उनका तो एक उचित, गंभीर और जिम्मेदार रवैया लग रहा था; चल क्या रहा है?” इसका केवल एक ही कारण है। अगर सत्य से प्रेम न करने वाला और इससे बेहद विमुख व्यक्ति मसीह के बोलते समय खास तौर पर गंभीर और सजग दिखाई दे सकता है, तो उसका एकमात्र इरादा आधे-अधूरे मन से कार्य करने से ज्यादा कुछ नहीं है, उसका इरादा वास्तविक स्वीकृति वाला नहीं है। हर बार जब भी वह परमेश्वर के वचन पढ़ता है या मसीह के संपर्क में आकर उससे बातचीत करता है तो वह जो देखता है वह परमेश्वर का तथाकथित बड़प्पन, अज्ञेयता या अनोखापन नहीं है, बल्कि उसकी व्यावहारिकता, सामान्यता और तुच्छता है। इसलिए अपने दृष्टिकोण और रुख के हिसाब से उनके लिए इस साधारण व्यक्ति के शब्दों को सत्य, मार्ग या जीवन से जोड़ना असंभव होता है। वे इस व्यक्ति को चाहे जैसे देखें, उन्हें बस एक इंसान दिखाई देता है; वे उसे परमेश्वर या मसीह नहीं मान सकते। इसलिए वे इन निहायत सामान्य शब्दों को संभवतया ऐसा सत्य नहीं मान सकते जिसका पालन और अभ्यास किया जाए, जिसका उपयोग अपने जीवन यापन के मार्गदर्शक, अपने अस्तित्व के लक्ष्य आदि के रूप में किया जाए—उन्हें यह परेशानी का कारण लगता है। वे कहते हैं, “मुझे इन सामान्य वचनों में कोई सत्य क्यों नहीं दिखता? तुम सब इसे कैसे देख लेते हो? क्या ये महज साधारण वचन नहीं हैं? ये वचन इंसानी भाषा हैं, इंसानी इबारत हैं, इंसानी व्याकरण हैं, यहाँ तक कि कुछ इंसानी मुहावरों और शब्दावली का उपयोग और कुछ इंसानी कहावतों और संस्कृति के पहलुओं का गहन विश्लेषण हैं। इन वचनों में सत्य कैसे हो सकता है? मैं उसे क्यों नहीं देख सकता? चूँकि तुम सब कहते हो कि यह सत्य है, तो मैं भी बस अनुसरण करूँगा और तोते की तरह बाकी सबकी बातें दोहराऊँगा; हर कोई नोट्स ले रहा है इसलिए मैं भी नोट्स तो बनाऊँगा, लेकिन जबकि तुम सभी उसे सत्य मानते हो, मैं निश्चित रूप से ऐसा नहीं मानता। ‘सत्य’ कितना पवित्र शब्द है, अवश्य ही यह अत्यंत उच्च कोटि का शब्द होगा! जब सत्य की बात आती है तो इसका संबंध परमेश्वर से होता है, और जब संबंध परमेश्वर से हो तो यह इतना साधारण, इतना तुच्छ, इतना सामान्य नहीं हो सकता। इसलिए मैं चाहे कैसे भी पड़ताल और विश्लेषण कर लूँ, मैं उसमें परमेश्वर का कोई संकेत नहीं खोज पाता हूँ। अगर उसमें परमेश्वर का कोई संकेत ही नहीं है तो वह हमें कैसे बचा सकता है? यह असंभव है। अगर उसके वचन हमें बचा नहीं सकते या हमें लाभ नहीं पहुँचा सकते तो हमें उसका अनुसरण क्यों करना चाहिए? हमें उसके वचनों को क्रियान्वित क्यों करना चाहिए? हमें उसके शब्दों के अनुसार क्यों जीना चाहिए?” अब उन्होंने मसीह-विरोधियों के रूप में अपना असली रंग दिखा दिया है, है कि नहीं? जिस देह में परमेश्वर ने देहधारण किया है, उसके प्रति उनका रवैया शुरू से अंत तक पड़ताल वाला है। वे परमेश्वर के वचनों के साथ जिस तरह से पेश आते हैं, उसमें न तो कोई स्वीकृति होती है और न ही समर्पण, वे उनसे जुड़ते तो और भी कम हैं, उनका अभ्यास या अनुभव तो और भी कम करते हैं। इसके बजाय वे परमेश्वर के वचनों के साथ प्रतिरोध, विरोध और अस्वीकृति के रवैये से पेश आते हैं। जब मसीह लोगों से बातचीत कर रहा होता है तो वे अनिच्छा से कुछ नोट्स ले लेते हैं लेकिन अंतर्मन में इसका रत्तीभर अंश भी स्वीकार नहीं करते हैं। मसीह से बातचीत के बाद कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर से रूबरू होकर बात और संगति करना सचमुच आनंददायक है।” मसीह-विरोधी कहता है, “मैं भी इसे आजमाऊँगा। मैं मसीह से रूबरू होकर बात करूँगा और जब वह लोगों से बात करता है तो यह देखूँगा कि उसके चेहरे की भाव-भँगिमाएँ, कार्य और वाणी वास्तव में कैसी हैं। मैं देखूँगा कि कोई इससे क्या हासिल या पता कर सकता है, क्या उसे सच्चा परमेश्वर मानकर उसमें विश्वास की नींव रखना और विश्वास की पुष्टि करना लोगों के लिए फायदेमंद है।” मसीह और उसके वचनों के प्रति ऐसे रवैये के साथ क्या वे कोई वास्तविक अभ्यास या क्रियान्वयन कर सकते हैं? नहीं, वे नहीं कर सकते। वे रोमाँच देखने आए तमाशबीनों से ज्यादा कुछ नहीं हैं, वे यहाँ सत्य खोजने बिल्कुल भी नहीं आए हैं। क्या तुम लोगों को लगता है कि ये लोग मसीह के साथ जिस रवैये से पेश आकर बातचीत करते हैं वह कुछ हद तक बरामदे में बैठी आसपड़ोस की महिला मंडली की गपशप की तरह है जिसमें आपस में बात करने के लिए किसी में गंभीरता की जरूरत नहीं होती और हर कोई बस जो जी में आए वही कहती है? ये लोग मसीह के साथ उसी तरह से पेश आते हैं : “तुम अपने विचार व्यक्त करो, मैं अपने विचारों पर टिका रहूँगा। चलो इस बिंदु पर सहमत हो लेते हैं कि हम एक-दूसरे से सहमत नहीं होंगे; तुम मुझे मनाने की उम्मीद मत रखना और तुम जो कहते हो उसे मैं भी निश्चित रूप से नहीं स्वीकारूँगा।” क्या यह उसी तरह का रवैया नहीं है? यह कैसा रवैया है? (तिरस्कारपूर्ण और अपमानजनक।) ये अजीब लोग हैं। चूँकि तुम मसीह को वह देह नहीं मानते जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है, तो फिर तुम उसमें विश्वास क्यों रखते हो, उसका अनुसरण क्यों करते हो? अगर तुम विश्वास नहीं रखते हो तो फिर क्यों नहीं सीधे दफा होकर बात यहीं खत्म कर लेते? तुम्हें विश्वास रखने के लिए कौन मजबूर कर रहा है? परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए तुम्हें कोई बाध्य नहीं कर रहा है; यह तुम्हारी अपनी पसंद है।

कुछ लोग किसी मामले पर मेरी संगति सुनते ही फौरन अलग-अलग राय बना लेते हैं : “तुम इस बारे में उस तरह सोचते हो मगर मैं इस तरह सोचता हूँ। हर मामले में तुम्हारे अपने विचार हैं तो मेरे भी अपने हैं; सबके अपने-अपने विचार होते हैं।” किस तरह का प्राणी ऐसा कहेगा? जब परमेश्वर लोगों को सत्य प्रदान करता है तो क्या यह किसी प्रकार का तर्क-वितर्क होता है? क्या परमेश्वर के वचन अकादमिक सिद्धांत होते हैं? (नहीं।) तो फिर वे क्या हैं? (वे सत्य हैं।) जरा ठीक-ठीक समझाओ। (वे मानव आचरण के सिद्धांत और दिशा हैं, लोगों के जीवन की जरूरतें हैं।) हम ऐसा क्यों कहते हैं कि परमेश्वर लोगों को सत्य प्रदान करता है? क्या कभी ऐसा कहा गया है कि वह ज्ञान प्रदान करता है? (नहीं।) हम ऐसा क्यों कहते हैं कि परमेश्वर के वचन लोगों के खाने-पीने के लिए हैं? परमेश्वर के वचन लोगों के भोजन के समान हैं; वे तुम्हारे भौतिक शरीर को कायम रख सकते हैं और तुम्हें जीने दे सकते हैं, और यही नहीं वे तुम्हें अच्छी तरह जीने देते हैं, वे तुम्हें एक मनुष्य की तरह जीवन यापन करने देते हैं। वे एक व्यक्ति के लिए जीवन हैं! परमेश्वर के वचन ज्ञान, तर्क-वितर्क या कहावत के रूप नहीं हैं। ज्ञान, तर्क-वितर्क और पारंपरिक मानव संस्कृति लोगों को केवल भ्रष्ट कर सकती है। लोग इनके साथ या इनके बिना जी सकते हैं, लेकिन अगर कोई व्यक्ति जीना चाहता है और एक मानक-स्तर का, योग्य सृजित प्राणी बनना चाहता है, तो वह सत्य के बिना ऐसा नहीं कर सकता है। तो वास्तव में सत्य क्या है? (यह अपने आचरण की कसौटी है, कार्य करने और परमेश्वर की आराधना करने की कसौटी है।) सही कहा, यह अधिक सटीक है। क्या मसीह-विरोधी इसे इस तरह से देखते हैं? वे इस तथ्य को नहीं स्वीकारते। वे इस तथ्य पर आपत्ति जताते हैं, इसका प्रतिरोध और निंदा करते हैं, इसलिए वे सत्य हासिल नहीं कर सकते। उन्हें अपने विचारों और दृष्टिकोण के अनुसार लगता है, “तुम बस एक साधारण व्यक्ति हो। तुम एक बात कहते हो और दूसरे लोग तुम्हारे शब्दों के अनुसार अभ्यास करने चल पड़ते हैं, तो फिर मैं भी कुछ सही बात कहकर लोगों से इसका अभ्यास क्यों नहीं करा सकता हूँ? ऐसा क्यों है कि तुम जो कहते हो वही हमेशा सही है और मैं जो कहता हूँ वह हमेशा गलत है? तुम्हारे वचनों को सत्य क्यों माना जाता है जबकि मेरे शब्दों को ज्ञान और धर्म-सिद्धांत माना जाता है?” यह किसी चीज पर आधारित नहीं है—यह एक तथ्य है, और यह सार से निर्धारित होता है। मसीह वह देह है जिसमें परमेश्वर ने देहधारण किया है और उसका सार परमेश्वर है। इसे कोई नकार नहीं सकता; भले ही मसीह-विरोधी इसे मानने या स्वीकारने से इनकार कर दें, पर वे इसे नकार नहीं सकते। इंसान जिस पल मसीह से मुँह मोड़कर उसे खारिज कर देता है, वह इंसान के विनाश का क्षण होता है। मसीह और उसके वचन न हों तो किसी को भी बचाया नहीं जा सकता। क्या यह तथ्य नहीं है? (हाँ, है।) मसीह-विरोधियों के वे शब्द और सिद्धांत लोगों को किस प्रकार की शिक्षा दे सकते हैं? अगर लोग उन्हें स्वीकार न करें तो क्या उन्हें कोई नुकसान होगा? नहीं, कोई नुकसान नहीं होगा। मसीह-विरोधियों के शब्दों का किसी पर कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता, बल्कि कई नकारात्मक प्रभाव जरूर पड़ जाते हैं। अगर मसीह एक भी वाक्य न कहे और जाने से पहले बरसों सामान्य जीवन जीता रहे तो मानवजाति को क्या हासिल होगा? क्रूस उठाने के सिवाय मानवजाति को और क्या हासिल हो सकता है? वे अभी भी पापों के साथ जिएँगे, अपने पाप कुबूलते रहेंगे और पश्चात्ताप करते रहेंगे, पापों में बुरी तरह फँसे रहेंगे, अधिकाधिक पतित होते जाएँगे और अंततः जब परमेश्वर का कार्य समाप्त होगा तो वे सब नष्ट हो जाएँगे। मानवजाति का यही हश्र होगा। लेकिन मसीह आया, उसने वे सारे वचन व्यक्त किए जो परमेश्वर मनुष्य से कहना चाहता था, उसने वह सारा सत्य प्रदान किया जिसकी मनुष्य को जरूरत है और मनुष्य के सामने वह प्रकट किया जो परमेश्वर के पास है और जो वह स्वयं है। क्या इससे मनुष्य के लिए एक निर्णायक मोड़ नहीं आया है? दूसरे शब्दों में कहें तो क्या मसीह के वचनों ने मनुष्य के लिए एक निर्णायक मोड़ नहीं बनाया? (हाँ, बनाया।) यह कौन-सा निर्णायक मोड़ है? मुख्य रूप से देखें तो यह मनुष्य को निंदा और विनाश का सामना करने के रास्ते से हटाकर बचाए जाने के अवसर और उम्मीद की ओर ले जाने का बदलाव है। क्या यह एक निर्णायक मोड़ नहीं है? लोगों में आशा का संचार हो चुका है; वे भोर होते देख रहे हैं और उन्हें बचाए जाने और जीवित रहने की आशा है। जब परमेश्वर मानवजाति को नष्ट और दंडित करता है, तो ये लोग विनाश और दंड से बच सकते हैं। तो फिर जो मानवजाति जीवित रह सकती है, उसके लिए मसीह और उसके वचन अच्छे हैं या बुरे? (अच्छे।) वे अच्छी चीज हैं। एक ऐसे मसीह, एक ऐसे साधारण व्यक्ति के प्रति मसीह-विरोधियों का इतना बैर और इतना अधिक तिरस्कार उनके सार से तय होता है।

देहधारी परमेश्वर के प्रति व्यवहार में मसीह-विरोधियों की एक और अभिव्यक्ति है : वे कहते हैं, “जैसे ही मैंने यह देखा कि मसीह एक साधारण व्यक्ति है, वैसे ही मेरे मन में धारणाएँ बन गईं। “वचन देह में प्रकट होता है,” यह परमेश्वर की एक अभिव्यक्ति है; यह सत्य है और मैं इसे मानता हूँ। “वचन देह में प्रकट होता है” की एक प्रति मेरे पास है और यही काफी है। मुझे मसीह के साथ संपर्क रखने की जरूरत नहीं है। अगर मुझमें धारणाएँ, नकारात्मकता या कमजोरी है तो मैं इन्हें सिर्फ परमेश्वर के वचन पढ़कर हल कर सकता हूँ। अगर मैं देहधारी परमेश्वर के साथ संपर्क रखता हूँ तो धारणाएँ बना लेना आसान होगा और इससे दिख जाएगा कि मैं बहुत गहराई तक भ्रष्ट हूँ। अगर परमेश्वर मेरी निंदा कर दे, तो मेरे पास उद्धार की कोई आशा नहीं रहेगी। इसलिए बेहतर यही रहेगा कि बस परमेश्वर के वचन मैं स्वयं पढ़ूँ। स्वर्ग का परमेश्वर ही लोगों को बचा सकता है।” परमेश्वर के वर्तमान वचन और संगति, खासकर मसीह-विरोधियों के स्वभाव और सार को उजागर करने वाले वचन उनके दिल में सबसे अधिक चुभते हैं और उन्हें सबसे अधिक पीड़ा पहुँचाते हैं। इन्हीं वचनों को पढ़ने के लिए मसीह-विरोधी सबसे कम तैयार रहते हैं। इसलिए मसीह-विरोधी मन-ही-मन मन्नत माँगते हैं कि परमेश्वर जल्द ही पृथ्वी को छोड़ दे, ताकि वे पृथ्वी पर अपनी शक्ति के बल पर शासन कर सकें। उन्हें लगता है कि परमेश्वर ने जिस देह में देहधारण किया है, यानी यह साधारण व्यक्ति, उनके लिए अनावश्यक है। वे हमेशा यही विचार करते हैं, “मसीह के धर्मोपदेश सुनने से पहले मुझे लगता था कि मैं सब कुछ समझता हूँ और हर लिहाज से ठीक हूँ, लेकिन मसीह के धर्मोपदेश सुनने के बाद वह बात नहीं रही। अब लगता है मानो मेरे पास कुछ भी नहीं है, मानो मैं बहुत तुच्छ और दयनीय हूँ।” इसलिए वे यह तय मान लेते हैं कि मसीह के वचन उन्हें नहीं बल्कि दूसरों को उजागर करने वाले होते हैं, और उन्हें लगता है कि मसीह के धर्मोपदेश सुनने की कोई जरूरत नहीं है, कि “वचन देह में प्रकट होता है” को पढ़ लेना ही काफी है। मसीह-विरोधियों के दिलों में उनका मुख्य इरादा परमेश्वर के देहधारण के तथ्य को नकारना है, इस तथ्य को नकारना है कि मसीह सत्य को व्यक्त करता है, वे यह सोचते हैं कि परमेश्वर में इस तरह विश्वास रखकर उनके बचाए जाने की आशा है और वे कलीसिया में राजाओं की तरह राज कर सकेंगे, और इस प्रकार परमेश्वर में विश्वास रखने के अपने मूल इरादे को पूरा कर सकेंगे। मसीह-विरोधियों की जन्मजात प्रकृति परमेश्वर का प्रतिरोध करने की होती है; देहधारी परमेश्वर के साथ उनका मेल वैसे ही नहीं बैठता, जैसा आग और पानी का सदा-सदा का बैर है। उन्हें लगता है कि मसीह के अस्तित्व का प्रत्येक दिन ऐसा दिन होगा कि उनके लिए चमकना कठिन होगा, और उनके सामने निंदा झेलने, हटाए जाने, नष्ट होने और दंड पाने का खतरा रहेगा। अगर मसीह बोलता नहीं है और कार्य नहीं करता है, अगर परमेश्वर के चुने हुए लोग मसीह को आदर से नहीं देखते हैं, तो मसीह-विरोधियों के पास अवसर रहता है। उनके पास अपनी क्षमताएँ दिखाने का मौका होता है। उनके हाथ हिलाने भर से उनके पक्ष में लोगों की भीड़ उमड़ आएगी और मसीह-विरोधी लोग राजाओं की तरह शासन कर सकेंगे। मसीह-विरोधियों का प्रकृति सार सत्य-विमुख रहना और मसीह के प्रति नफरत से भरे रहना है। वे मसीह से इस बात की होड़ करते हैं कि कौन ज्यादा प्रतिभाशाली है या कौन अधिक सक्षम है; वे मसीह से इस बात की होड़ करते हैं कि किसके शब्दों में अधिक शक्ति है और किसकी योग्यताएँ अधिक हैं। चूँकि वे मसीह के समान ही कार्य कर रहे हैं, इसलिए वे दूसरों को यह दिखाने पर तुले रहते हैं कि भले ही वे और मसीह दोनों मानव हैं, फिर भी मसीह की योग्यताएँ और विद्वता किसी साधारण इंसान से बेहतर नहीं हैं। मसीह-विरोधी हर तरह से मसीह से होड़ लगाते हैं, इस बात पर स्पर्धा करते हैं कि कौन बेहतर है, और हर कोण से इस तथ्य को नकारने की कोशिश करते हैं कि मसीह परमेश्वर है, कि वह परमेश्वर के आत्मा का प्रतिरूप है, कि वह सत्य का प्रतिरूप है। वे हर क्षेत्र में तमाम ऐसे तरीके और उपाय सोचते रहते हैं जिनसे मसीह को परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच प्रभुत्व रखने से रोका जाए, परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच मसीह के वचनों का प्रचार या इनका क्रियान्वयन रोका जाए, और यहाँ तक कि मसीह जो चीजें करता है उन्हें रोका जाए और लोगों से उसकी माँगों और लोगों के लिए उसकी आशाओं को परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बीच साकार होने से रोका जाए। यह ऐसा है मानो मसीह की मौजूदगी में उनका तिरस्कार होता हो, कलीसिया उनकी निंदा करती हो और उन्हें खारिज कर देती हो—लोगों के एक समूह को एक अंधेरे कोने में डाल दिया जाता हो। हम मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों में देख सकते हैं कि सार और स्वभाव से वे मसीह के साथ मेल नहीं खाते हैं—वे उसके साथ एक सूत्र से नहीं बँधे रह सकते हैं! मसीह-विरोधी जन्म से ही परमेश्वर के प्रति शत्रुवत रहे हैं; वे परमेश्वर का खास तौर पर प्रतिरोध करने पर तुले रहते हैं, और वे मसीह को हराकर धूल चटा देना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि मसीह जो भी कार्य करता है वह बेकार और बेनतीजा हो जाए, ताकि अंत में मसीह ज्यादा लोगों को हासिल न कर सके, ताकि वह चाहे कहीं भी कार्य करे उसे कोई नतीजा न मिले। तभी मसीह-विरोधी खुश होंगे। अगर मसीह सत्य व्यक्त करता है और लोग इनके लिए प्यासे रहते हैं, इन्हें खोजते हैं, इन्हें खुशी-खुशी अपनाते हैं, मसीह की खातिर खुद को खपाने के लिए तैयार रहते हैं, सब कुछ त्यागकर मसीह के सुसमाचार फैलाने के लिए तैयार रहते हैं तो मसीह-विरोधी निराश हो जाते हैं और उन्हें लगता है कि भविष्य के लिए कोई आशा नहीं बची है, कि उन्हें कभी चमकने का मौका नहीं मिलेगा, मानो उन्हें नरक में झोंक दिया गया हो। मसीह-विरोधियों की इन अभिव्यक्तियों को देखने से सवाल उठता है कि परमेश्वर से लड़ने और उसे शत्रुवत मानने का उनका सार क्या किसी दूसरे ने उनके अंदर बैठाया है? ऐसा बिल्कुल भी नहीं है; वे इसके साथ पैदा हुए हैं। इसीलिए मसीह-विरोधी ऐसे लोग हैं जो जन्मे ही दानव के अवतार में हैं, वे पृथ्वी पर उतरे दानव हैं। वे सत्य को कदाचित कभी स्वीकार नहीं कर सकेंगे, और मसीह को कभी स्वीकार नहीं करेंगे, मसीह का गुणगान नहीं करेंगे या मसीह की गवाही नहीं देंगे। हालाँकि हाव-भावों से तुम उन्हें खुलेआम मसीह की आलोचना या निंदा करते नहीं देखोगे, और भले ही वे विनय भाव से कुछ प्रयास कर लें और कीमत चुका लें, फिर भी जैसे ही उन्हें मौका मिलेगा, जब सही समय आएगा तो परमेश्वर के साथ मसीह-विरोधियों का बेमेलपन खुद-ब-खुद दिखने लगेगा। यह तथ्य सार्वजनिक हो जाएगा कि मसीह-विरोधी परमेश्वर से लड़ते हैं और एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना करते हैं। जिन स्थानों पर मसीह-विरोधी रहते हैं वहाँ ये सारी चीजें पहले घटित हो चुकी हैं और ये इन वर्षों में खास तौर पर आम हो चुकी हैं जब परमेश्वर अंत के दिनों के न्याय का कार्य कर रहा है; कई लोग इनका अनुभव और अवलोकन कर चुके हैं।

27 जून 2020

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