10.8. परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने को कैसे हासिल करें पर

415. एक सच्‍चे सृजित प्राणी को यह जानना चाहिए कि स्रष्टा कौन है, मनुष्‍य का सृजन किसलिए हुआ है, एक सृजित प्राणी की ज़िम्‍मेदारियों को किस तरह पूरा करें, और संपूर्ण सृष्टि के प्रभु की आराधना किस तरह करें, उसे स्रष्टा के इरादों, इच्‍छाओं और अपेक्षाओं को समझना, बूझना और जानना चाहिए, उनकी परवाह करनी चाहिए, और स्रष्टा के तरीके के अनुरूप कार्य करना चाहिए—परमेश्‍वर का भय मानो और बुराई से दूर रहो।

परमेश्‍वर का भय मानना क्‍या है? और बुराई से दूर कैसे रहा जा सकता है?

"परमेश्‍वर का भय मानने" का अर्थ अज्ञात डर या दहशत नहीं होता, न ही इसका अर्थ टाल-मटोल करना, दूर रहना, मूर्तिपूजा करना या अंधविश्‍वास होता है। वरन् यह श्रद्धा, सम्मान, विश्वास, समझ, परवाह, आज्ञाकारिता, समर्पण और प्रेम के साथ-साथ बिना शर्त और बिना शिकायत आराधना, प्रतिदान और समर्पण होता है। परमेश्‍वर के सच्‍चे ज्ञान के बिना मनुष्य में सच्‍ची श्रद्धा, सच्‍चा विश्वास, सच्‍ची समझ, सच्‍ची परवाह या आज्ञाकारिता नहीं होगी, वरन् केवल डर और व्‍यग्रता, केवल शंका, गलतफहमी, टालमटोल और आनाकानी होगी; परमेश्‍वर के सच्‍चे ज्ञान के बिना मनुष्य में सच्‍चा समर्पण और प्रतिदान नहीं होगा; परमेश्‍वर के सच्‍चे ज्ञान के बिना मनुष्य में सच्‍ची आराधना और समर्पण नहीं होगा, मात्र अंधी मूर्तिपूजा और अंधविश्‍वास होगा; परमेश्‍वर के सच्‍चे ज्ञान के बिना मनुष्य परमेश्‍वर के तरीके के अनुसार कार्य नहीं कर पाएगा, या परमेश्‍वर का भय नहीं मानेगा, या बुराई का त्‍याग नहीं कर पाएगा। इसके विपरीत, मनुष्‍य का हर क्रियाकलाप और व्यवहार, परमेश्‍वर के प्रति विद्रोह और अवज्ञा से, निंदात्‍मक आरोपों और आलोचनात्मक आकलनों से तथा सत्‍य और परमेश्‍वर के वचनों के वास्तविक अर्थ के विपरीत चलने वाले दुष्‍ट आचरण से भरा होगा।

जब मनुष्य को परमेश्‍वर में सच्‍चा विश्वास होगा, तो वह सच्चाई से उसका अनुसरण करेगा और उस पर निर्भर रहेगा; केवल परमेश्‍वर पर सच्‍चे विश्वास और निर्भरता से ही मनुष्य में सच्‍ची समझ और सच्चा बोध होगा; परमेश्‍वर के वास्‍तविक बोध के साथ उसके प्रति वास्‍तविक परवाह आती है; परमेश्‍वर के प्रति सच्ची परवाह से ही मनुष्य में सच्‍ची आज्ञाकारिता आ सकती है; परमेश्‍वर के प्रति सच्‍ची आज्ञाकारिता से ही मनुष्य में सच्‍चा समर्पण आ सकता है; परमेश्वर के प्रति सच्‍चे समर्पण से ही मनुष्य बिना शर्त और बिना शिकायत प्रतिदान कर सकता है; सच्‍चे विश्वास और निर्भरता, सच्‍ची समझ और परवाह, सच्‍ची आज्ञाकारिता, सच्‍चे समर्पण और प्रतिदान से ही मनुष्य परमेश्‍वर के स्‍वभाव और सार को जान सकता है, स्रष्टा की पहचान को जान सकता है; स्रष्टा को वास्‍तव में जान लेने के बाद ही मनुष्य अपने भीतर सच्‍ची आराधना और समर्पण जाग्रत कर सकता है; स्रष्टा के प्रति सच्‍ची आराधना और समर्पण होने के बाद ही वह वास्तव में बुरे मार्गों का त्‍याग कर पाएगा, अर्थात्, बुराई से दूर रह पाएगा।

इससे "परमेश्‍वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने" की संपूर्ण प्रक्रिया बनती है, और यही परमेश्‍वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने का मूल तत्‍व भी है। यही वह मार्ग है, जिसे परमेश्‍वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के लिए पार करना आवश्‍यक है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, प्रस्तावना

416. पहली बात तो, हम जानते हैं कि परमेश्वर का स्वभाव प्रताप और कोप है; वह कोई भेड़ नहीं है, जिसका वध किया जाए; वह कठपुतली तो बिल्कुल नहीं है जिसे लोग जैसा चाहें, वैसा नचाएँ। उसका अस्तित्व निरर्थक भी नहीं है कि उस पर धौंस जमाई जाए। यदि तुम वास्तव में मानते हो कि परमेश्वर का अस्तित्व है, तो तुम्हें परमेश्वर का भय मानना चाहिए, और तुम्हें पता होना चाहिए कि परमेश्वर के सार को क्रोधित नहीं किया जा सकता। वह क्रोध किसी शब्द से पैदा हो सकता है या शायद किसी विचार से या शायद किसी अधम और हल्के व्यवहार से, किसी ऐसे व्यवहार से जो मनुष्य की नज़र में और नैतिकता की दृष्टि से महज़ कामचलाऊ हो; या वह किसी मत, सिद्धांत से भी भड़क सकता है। लेकिन, अगर एक बार तुमने परमेश्वर को क्रोधित कर दिया, तो समझो तुम्हारा अवसर गया, और तुम्हारे अंत के दिन आ गए। यह बेहद खराब बात है! यदि तुम इस बात को नहीं समझते कि परमेश्वर को अपमानित नहीं किया जाना चाहिए, तो शायद तुम परमेश्वर से नहीं डरते और शायद तुम उसे अक्सर अपमानित करते रहते हो। अगर तुम नहीं जानते कि परमेश्वर से कैसे डरना चाहिए, तो तुम परमेश्वर से नहीं डर पाओगे, और नहीं जान पाओगे कि परमेश्वर के सच्चे मार्ग पर कैसे चलना है—यानी परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग पर। एक बार जब तुम जान गए और सचेत हो गए कि परमेश्वर को अपमानित नहीं करना चाहिए, तो तुम समझ जाओगे कि परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना क्या होता है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें

417. यद्यपि परमेश्वर के सार का एक हिस्सा प्रेम है, और वह हर एक के प्रति दयावान है, फिर भी लोग उस बात की अनदेखी कर भूल जाते हैं कि उसका सार महिमा भी है। उसके प्रेममय होने का अर्थ यह नहीं है कि लोग खुलकर उसका अपमान कर सकते हैं, ऐसा नहीं है कि उसकी भावनाएँ नहीं भड़केंगी या कोई प्रतिक्रियाएँ नहीं होंगी। उसमें करुणा होने का अर्थ यह नहीं है कि लोगों से व्यवहार करने का उसका कोई सिद्धांत नहीं है। परमेश्वर सजीव है; सचमुच उसका अस्तित्व है। वह न तो कोई कठपुतली है, न ही कोई वस्तु है। चूँकि उसका अस्तित्व है, इसलिए हमें हर समय सावधानीपूर्वक उसके हृदय की आवाज़ सुननी चाहिए, उसकी प्रवृत्ति पर ध्यान देना चाहिए, और उसकी भावनाओं को समझना चाहिए। परमेश्वर को परिभाषित करने के लिए हमें अपनी कल्पनाओं का उपयोग नहीं करना चाहिए, न ही हमें अपने विचार और इच्छाएँ परमेश्वर पर थोपनी चाहिए, जिससे कि परमेश्वर इंसान के साथ इंसानी कल्पनाओं के आधार पर मानवीय व्यवहार करे। यदि तुम ऐसा करते हो, तो तुम परमेश्वर को क्रोधित कर रहे हो, तुम उसके कोप को बुलावा देते हो, उसकी महिमा को चुनौती देते हो! एक बार जब तुम लोग इस मसले की गंभीरता को समझ लोगे, मैं तुम लोगों से आग्रह करूँगा कि तुम अपने कार्यकलापों में सावधानी और विवेक का उपयोग करो। अपनी बातचीत में सावधान और विवेकशील रहो। साथ ही, तुम लोग परमेश्वर के प्रति व्यवहार में जितना अधिक सावधान और विवेकशील रहोगे, उतना ही बेहतर होगा! अगर तुम्हें परमेश्वर की प्रवृत्ति समझ में न आ रही हो, तो लापरवाही से बात मत करो, अपने कार्यकलापों में लापरवाह मत बनो, और यूँ ही कोई लेबल न लगा दो। और सबसे महत्वपूर्ण बात, मनमाने ढंग से निष्कर्षों पर मत पहुँचो। बल्कि, तुम्हें प्रतीक्षा और खोज करनी चाहिए; ये कृत्य भी परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने की अभिव्यक्ति है। सबसे बड़ी बात, यदि तुम ऐसा कर सको, और ऐसी प्रवृत्ति अपना सको, तो परमेश्वर तुम्हारी मूर्खता, अज्ञानता, और चीज़ों के पीछे तर्कों की समझ की कमी के लिए तुम्हें दोष नहीं देगा। बल्कि, परमेश्वर को अपमानित करने के तुम्हारे भय मानने, उसके इरादों के प्रति तुम्हारे सम्मान, और परमेश्वर का आज्ञापालन करने की तुम्हारी तत्परता के कारण, परमेश्वर तुम्हें याद रखेगा, तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा और तुम्हें प्रबुद्धता देगा, या तुम्हारी अपरिपक्वता और अज्ञानता को सहन करेगा। इसके विपरीत, यदि उसके प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति श्रद्धाविहीन होती है—तुम मनमाने ढंग से परमेश्वर की आलोचना करते हो, मनमाने ढंग से परमेश्वर के विचारों का अनुमान लगाकर उन्हें परिभाषित करते हो—तो परमेश्वर तुम्हें अपराधी ठहराएगा, अनुशासित करेगा, बल्कि दण्ड भी देगा; या वह तुम पर टिप्पणी करेगा। हो सकता है कि इस टिप्पणी में ही तुम्हारा परिणाम शामिल हो। इसलिए, मैं एक बार फिर से इस बात पर जोर देना चाहता हूँ : परमेश्वर से आने वाली हर चीज़ के प्रति तुम्हें सावधान और विवेकशील रहना चाहिए। लापरवाही से मत बोलो, और अपने कार्यकलापों में लापरवाह मत हो। कुछ भी कहने से पहले रुककर सोचो : क्या मेरा ऐसा करना परमेश्वर को क्रोधित करेगा? क्या ऐसा करना परमेश्वर के प्रति श्रद्धा दिखाना है? यहाँ तक कि साधारण मामलों में भी, तुम्हें इन प्रश्नों को समझकर उन पर विचार करना चाहिए। यदि तुम हर चीज़ में, हर समय, इन सिद्धांतों के अनुसार सही मायने में अभ्यास करो, विशेष रूप से इस तरह की प्रवृत्ति तब अपना सको, जब कोई चीज़ तुम्हारी समझ में न आए, तो परमेश्वर तुम्हारा मार्गदर्शन करेगा, और तुम्हें अनुसरण योग्य मार्ग देगा।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें

418. मैं तुम लोगों से प्रशासनिक आज्ञाओं के विषय की बेहतर समझ हासिल करने और परमेश्वर के स्वभाव को जानने का प्रयास करने का आग्रह करता हूँ। अन्यथा, तुम लोग अपनी जबान बंद नहीं रख पाओगे और बड़ी-बड़ी बातें करोगे, तुम अनजाने में परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करके अंधकार में जा गिरोगे और पवित्र आत्मा एवं प्रकाश की उपस्थिति को गँवा दोगे। चूँकि तुम्हारे काम के कोई सिद्धांत नहीं हैं, तुम्हें जो नहीं करना चाहिए वह करते हो, जो नहीं बोलना चाहिए वह बोलते हो, इसलिए तुम्हें यथोचित दंड मिलेगा। तुम्हें पता होना चाहिए कि, हालाँकि कथन और कर्म में तुम्हारे कोई सिद्धांत नहीं हैं, लेकिन परमेश्वर इन दोनों बातों में अत्यंत सिद्धांतवादी है। तुम्हें दंड मिलने का कारण यह है कि तुमने परमेश्वर का अपमान किया है, किसी इंसान का नहीं। यदि जीवन में बार-बार तुम परमेश्वर के स्वभाव के विरुद्ध अपराध करते हो, तो तुम नरक की संतान ही बनोगे। इंसान को ऐसा प्रतीत हो सकता है कि तुमने कुछ ही कर्म तो ऐसे किए हैं जो सत्य के अनुरूप नहीं हैं, और इससे अधिक कुछ नहीं। लेकिन क्या तुम जानते हो कि परमेश्वर की निगाह में, तुम पहले ही एक ऐसे इंसान हो जिसके लिए अब पाप करने की कोई और छूट नहीं बची है? क्योंकि तुमने एक से अधिक बार परमेश्वर की प्रशासनिक आज्ञाओं का उल्लंघन किया है और फिर तुममें पश्चाताप के कोई लक्षण भी नहीं दिखते, इसलिए तुम्हारे पास नरक में जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है, जहाँ परमेश्वर इंसान को दंड देता है। परमेश्वर का अनुसरण करते समय, कुछ थोड़े-से लोगों ने कुछ ऐसे कर्म कर दिए जिनसे सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ, लेकिन निपटारे और मार्गदर्शन के बाद, उन्होंने धीरे-धीरे अपनी भ्रष्टता का अहसास किया, उसके बाद वास्तविकता के सही मार्ग में प्रवेश किया, और आज वे एक ठोस जमीन पर खड़े हैं। वे ऐसे लोग हैं जो अंत तक बने रहेंगे। मुझे ईमानदार इंसान की तलाश है; यदि तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो और सिद्धांत के अनुसार कार्य करते हो, तो तुम परमेश्वर के विश्वासपात्र हो सकते हो। यदि अपने कामों से तुम परमेश्वर के स्वभाव का अपमान नहीं करते, और तुम परमेश्वर की इच्छा की खोज करते हो और परमेश्वर के प्रति तुम्हारे मन में आदर है, तो तुम्हारी आस्था मापदंड के अनुरूप है। जो कोई भी परमेश्वर का आदर नहीं करता, और उसका हृदय भय से नहीं काँपता, तो इस बात की प्रबल संभावना है कि वह परमेश्वर की प्रशासनिक आज्ञाओं का उल्लंघन करेगा। बहुत-से लोग अपनी तीव्र भावना के बल पर परमेश्वर की सेवा तो करते हैं, लेकिन उन्हें परमेश्वर की प्रशासनिक आज्ञाओं की कोई समझ नहीं होती, उसके वचनों में छिपे अर्थों का तो उन्हें कोई भान तक नहीं होता। इसलिए, नेक इरादों के बावजूद वे प्रायः ऐसे काम कर बैठते हैं जिनसे परमेश्वर के प्रबंधन में बाधा पहुँचती है। गंभीर मामलों में, उन्हें बाहर निकाल दिया जाता है, आगे से परमेश्वर का अनुसरण करने के किसी भी अवसर से वंचित कर दिया जाता है, नरक में फेंक दिया जाता है और परमेश्वर के घर के साथ उनके सभी संबंध समाप्त हो जाते हैं। ये लोग अपने नादान नेक इरादों की शक्ति के आधार पर परमेश्वर के घर में काम करते हैं, और अंत में परमेश्वर के स्वभाव को क्रोधित कर बैठते हैं। लोग अधिकारियों और स्वामियों की सेवा करने के अपने तरीकों को परमेश्वर के घर में ले आते हैं, और व्यर्थ में यह सोचते हुए कि ऐसे तरीकों को यहाँ आसानी से लागू किया जा सकता है, उन्हें उपयोग में लाने की कोशिश करते हैं। उन्हें यह पता नहीं होता कि परमेश्वर का स्वभाव किसी मेमने का नहीं बल्कि एक सिंह का स्वभाव है। इसलिए, जो लोग पहली बार परमेश्वर से जुड़ते हैं, वे उससे संवाद नहीं कर पाते, क्योंकि परमेश्वर का हृदय इंसान की तरह नहीं है। जब तुम बहुत-से सत्य समझ जाते हो, तभी तुम परमेश्वर को निरंतर जान पाते हो। यह ज्ञान शब्दों या धर्म सिद्धांतों से नहीं बनता, बल्कि इसे एक खज़ाने के रूप में उपयोग किया जा सकता है जिससे तुम परमेश्वर के साथ गहरा विश्वास पैदा कर सकते हो और इसे एक प्रमाण के रूप में उपयोग सकते हो कि वह तुमसे प्रसन्न होता है। यदि तुममें ज्ञान की वास्तविकता का अभाव है और तुम सत्य से युक्त नहीं हो, तो मनोवेग में की गई तुम्हारी सेवा से परमेश्वर सिर्फ तुमसे घृणा और ग्लानि ही करेगा।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ

419. यदि तुम परमेश्वर के स्वभाव को नहीं समझते, तब तुम्हारे लिए उस काम को करना असंभव होगा जो उसके लिए तुम्हें करना चाहिए। यदि तुम परमेश्वर के सार को नहीं जानते हो, तो उसके प्रति आदर और भय को धारण करना तुम्हारे लिए असंभव होगा; तुम केवल बेपरवाह यंत्रवत ढंग से काम करोगे और घुमा-फिराकर बात कहोगे, इसके अतिरिक्त असाध्य ईश-निन्दा करोगे। हालाँकि परमेश्वर के स्वभाव को समझना वास्तव में बहुत महत्वपूर्ण है, और परमेश्वर के अस्तित्व के ज्ञान को कभी भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता, फिर भी किसी ने भी पूरी तरह इस विषय का परीक्षण नहीं किया है या कोई उसकी गहराई में नहीं गया है। यह बिलकुल साफ-साफ देखा जा सकता है कि तुम सबने मेरे द्वारा दिए गए सभी प्रशासनिक आदेशों को अस्वीकार कर दिया है। यदि तुम लोग परमेश्वर के स्वभाव को नहीं समझते, तो बहुत संभव है कि तुम उसके स्वभाव को ठेस पहुँचा दो। उसके स्वभाव का अपमान ऐसा अपराध है जो स्वयं परमेश्वर के क्रोध को भड़काने के समान है, अगर ऐसा होता है तो अंतत: तुम्हारे क्रियाकलापों का परिणाम प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन होगा। अब तुम्हें एहसास हो जाना चाहिए कि जब तुम उसके सार को जान जाते हो तो तुम परमेश्वर के स्वभाव को भी समझ सकते हो, और जब तुम परमेश्वर के स्वभाव को समझ जाते हो तो तुम उसके प्रशासनिक आदेशों को भी समझ जाओगे। कहने की आवश्यकता नहीं है कि प्रशासनिक आदेशों में जो निहित है उसमें से काफी कुछ परमेश्वर के स्वभाव का जिक्र करता है, परन्तु उसका सम्पूर्ण स्वभाव प्रशासनिक आदेशों में प्रकट नहीं किया गया है; अत: परमेश्वर के स्वभाव की समझ को और ज़्यादा विकसित करने के लिए तुम्हें एक कदम और आगे बढ़ना चाहिए।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के स्वभाव को समझना बहुत महत्वपूर्ण है

420. परमेश्वर एक जीवित परमेश्वर है, और जैसे लोग भिन्न-भिन्न स्थितियों में भिन्न-भिन्न तरीकों से बर्ताव करते हैं, वैसे ही इन बर्तावों के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति भी भिन्न-भिन्न होती है क्योंकि वह न तो कोई कठपुतली है, और न ही वह शून्य है। परमेश्वर की प्रवृत्ति को जानना मनुष्य के लिए एक नेक खोज है। परमेश्वर की प्रवृत्ति को जानकर लोगों को सीखना चाहिए कि कैसे वे परमेश्वर के स्वभाव को जान सकते हैं और थोड़ा-थोड़ा करके उसके हृदय को समझ सकते हैं। जब तुम थोड़ा-थोड़ा करके परमेश्वर के हृदय को समझने लगोगे, तो तुम्हें नहीं लगेगा कि परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना कोई कठिन कार्य है। जब तुम परमेश्वर को समझ जाओगे, तो उसके बारे में निष्कर्ष नहीं निकालोगे। जब तुम परमेश्वर के बारे में निष्कर्ष निकालना बन्द कर दोगे, तो उसे अपमानित करने की संभावना नहीं रहेगी और अनजाने में ही परमेश्वर तुम्हारी अगुवाई करेगा कि तुम उसके बारे में ज्ञान प्राप्त करो; इससे तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के प्रति श्रद्धा पैदा होगी। तुम उन मतों, शब्दों एवं सिद्धांतों का उपयोग करके परमेश्वर को परिभाषित करना बंद कर दोगे जिनमें तुम महारत हासिल कर चुके हो। बल्कि, सभी चीज़ों में सदा परमेश्वर के इरादों को खोजकर, तुम अनजाने में ही परमेश्वर के हृदय के अनुरूप बन जाओगे।

इंसान परमेश्वर के कार्य को न तो देख सकता है, न ही छू सकता है, परन्तु जहाँ तक परमेश्वर की बात है, वह हर एक व्यक्ति के कार्यकलापों को, परमेश्वर के प्रति उसकी प्रवृत्ति को, न केवल समझ सकता है, बल्कि देख भी सकता है। इसे हर किसी को पहचानना और इसके बारे में स्पष्ट होना चाहिए। हो सकता है कि तुम स्वयं से पूछते हो, "क्या परमेश्वर जानता है कि मैं यहाँ क्या कर रहा हूँ? क्या परमेश्वर जानता है कि मैं इस समय क्या सोच रहा हूँ? हो सकता है वह जानता हो, हो सकता है न भी जानता हो"। यदि तुम इस प्रकार का दृष्टिकोण अपनाते हो, परमेश्वर का अनुसरण करते हो और उसमें विश्वास करते हो, मगर उसके कार्य और अस्तित्व पर सन्देह भी करते हो, तो देर-सवेर ऐसा दिन आएगा जब तुम परमेश्वर को क्रोधित करोगे, क्योंकि तुम पहले ही एक खतरनाक खड़ी चट्टान के कगार पर खड़े डगमगा रहे हो। मैंने ऐसे लोगों को देखा है जिन्होंने बहुत वर्षों तक परमेश्वर पर विश्वास किया है, परंतु उन्होंने अभी तक सत्य-वास्तविकता प्राप्त नहीं की है, और वे परमेश्वर की इच्छा को तो और भी नहीं समझते। केवल अत्यंत छिछले मतों के मुताबिक चलते हुए, उनके जीवन और आध्यात्मिक कद में कोई प्रगति नहीं होती। क्योंकि ऐसे लोगों ने कभी भी परमेश्वर के वचन को जीवन नहीं माना, और न ही कभी परमेश्वर के अस्तित्व का सामना और उसे स्वीकार किया है। तुम्हें लगता है कि परमेश्वर ऐसे लोगों को देखकर आनंद से भर जाता है? क्या वे उसे आराम पहुँचाते हैं? यह है लोगों का परमेश्वर में विश्वास करने का तरीका जो उनका भाग्य तय करता है। जहाँ तक सवाल यह है कि लोग परमेश्वर की खोज कैसे करते हैं, कैसे परमेश्वर के समीप आते हैं, तो यहाँ लोगों की प्रवृत्ति प्राथमिक महत्व की हो जाती है। अपने सिर के पीछे तैरती खाली हवा समझ कर परमेश्वर की उपेक्षा मत करो; जिस परमेश्वर में तुम्हारा विश्वास है उसे हमेशा एक जीवित परमेश्वर, एक वास्तविक परमेश्वर मानो। वह तीसरे स्वर्ग में हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठा है। बल्कि, वह लगातार प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में देख रहा है, यह देख रहा है कि तुम क्या करते हो, वह हर छोटे वचन और हर छोटे कर्म को देख रहा है, वो यह देख रहा है कि तुम किस प्रकार व्यवहार करते हो और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति क्या है। तुम स्वयं को परमेश्वर को अर्पित करने के लिए तैयार हो या नहीं, तुम्हारा संपूर्ण व्यवहार एवं तुम्हारे अंदर की सोच एवं विचार परमेश्वर के सामने खुले हैं, और परमेश्वर उन्हें देख रहा है। तुम्हारे व्यवहार, तुम्हारे कर्मों, और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति के अनुसार ही तुम्हारे बारे में उसकी राय, और तुम्हारे प्रति उसकी प्रवृत्ति लगातार बदल रही है। मैं कुछ लोगों को कुछ सलाह देना चाहूँगा : अपने आपको परमेश्वर के हाथों में छोटे शिशु के समान मत रखो, जैसे कि उसे तुमसे लाड़-प्यार करना चाहिए, जैसे कि वह तुम्हें कभी नहीं छोड़ सकता, और जैसे कि तुम्हारे प्रति उसकी प्रवृत्ति स्थायी हो जो कभी नहीं बदल सकती, और मैं तुम्हें सपने देखना छोड़ने की सलाह देता हूँ! परमेश्वर हर एक व्यक्ति के प्रति अपने व्यवहार में धार्मिक है, और वह मनुष्य को जीतने और उसके उद्धार के कार्य के प्रति अपने दृष्टिकोण में ईमानदार है। यह उसका प्रबंधन है। वह हर एक व्यक्ति से गंभीरतापूर्वक व्यवहार करता है, पालतू जानवर के समान नहीं कि उसके साथ खेले। मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम बहुत लाड़-प्यार या बिगाड़ने वाला प्रेम नहीं है, न ही मनुष्य के प्रति उसकी करुणा और सहिष्णुता आसक्तिपूर्ण या बेपरवाह है। इसके विपरीत, मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम सँजोने, दया करने और जीवन का सम्मान करने के लिए है; उसकी करुणा और सहिष्णुता बताती हैं कि मनुष्य से उसकी अपेक्षाएँ क्या हैं, और यही वे चीज़ें हैं जो मनुष्य के जीने के लिए ज़रूरी हैं। परमेश्वर जीवित है, वास्तव में उसका अस्तित्व है; मनुष्य के प्रति उसकी प्रवृत्ति सैद्धांतिक है, कट्टर नियमों का समूह नहीं है, और यह बदल सकती है। मनुष्य के लिए उसके इरादे, परिस्थितियों और प्रत्येक व्यक्ति की प्रवृत्ति के साथ धीरे-धीरे परिवर्तित एवं रूपांतरित हो रहे हैं। इसलिए तुम्हें पूरी स्पष्टता के साथ जान लेना चाहिए कि परमेश्वर का सार अपरिवर्तनीय है, उसका स्वभाव अलग-अलग समय और संदर्भों के अनुसार प्रकट होता है। शायद तुम्हें यह कोई गंभीर मुद्दा न लगे, और तुम्हारी व्यक्तिगत अवधारणा हो कि परमेश्वर को कैसे कार्य करना चाहिए। परंतु कभी-कभी ऐसा हो सकता है कि तुम्हारे दृष्टिकोण से बिल्कुल विपरीत नज़रिया सही हो, और अपनी अवधारणाओं से परमेश्वर को आंकने के पहले ही तुमने उसे क्रोधित कर दिया हो। क्योंकि परमेश्वर उस तरह कार्य नहीं करता जैसा तुम सोचते हो, और न ही वह उस मसले को उस नज़र से देखेगा जैसा तुम सोचते हो कि वो देखेगा। इसलिए मैं तुम्हें याद दिलाता हूँ कि तुम आसपास की हर एक चीज़ के प्रति अपने नज़रिए में सावधान एवं विवेकशील रहो, और सीखो कि किस प्रकार सभी चीज़ों में परमेश्वर के मार्ग में चलने के सिद्धांत का अनुसरण करना चाहिए, जो कि परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना है। तुम्हें परमेश्वर की इच्छा और उसकी प्रवृत्ति के मामलों पर एक दृढ़ समझ विकसित करनी चाहिए; तुम्हें ईमानदारी से प्रबुद्ध लोगों को खोजना चाहिए जो इस पर तुम्हारे साथ संवाद करें। अपने विश्वास में परमेश्वर को एक कठपुतली मत समझो—उसे मनमाने ढंग से मत परखो, उसके बारे में मनमाने निष्कर्षों पर मत पहुँचो, परमेश्वर के साथ सम्मान-योग्य व्यवहार करो। एक तरफ जहाँ परमेश्वर तुम्हारा उद्धार कर रहा है, तुम्हारा परिणाम निर्धारित कर रहा है, वहीं वह तुम्हें करुणा, सहिष्णुता, या न्याय और ताड़ना भी प्रदान कर सकता है, लेकिन किसी भी स्थिति में, तुम्हारे प्रति उसकी प्रवृत्ति स्थिर नहीं होती। यह परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति पर, और परमेश्वर की तुम्हारी समझ पर निर्भर करता है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें

421. जो लोग सच्चे मन से परमेश्वर में विश्वास करते हैं, परमेश्वर उनके हृदय में बसता है और उनके भीतर हमेशा परमेश्वर का आदर करने वाला और उसे प्रेम करने वाला हृदय होता है। जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें सावधानी और समझदारी से कार्य करना चाहिए, और वे जो कुछ भी करें वह परमेश्वर की अपेक्षा के अनुरूप होना चाहिये, उसके हृदय को संतुष्ट करने में सक्षम होना चाहिए। उन्हें मनमाने ढंग से कुछ भी करते हुए दुराग्रही नहीं होना चाहिए; ऐसा करना संतों की शिष्टता के अनुकूल नहीं होता। छल-प्रपंच में लिप्त चारों तरफ अपनी अकड़ में चलते हुए, सभी जगह परमेश्वर का ध्वज लहराते हुए लोग उन्मत्त होकर हिंसा पर उतारू न हों; यह बहुत ही विद्रोही प्रकार का आचरण है। परिवारों के अपने नियम होते हैं और राष्ट्रों के अपने कानून; क्या परमेश्वर के परिवार में यह बात और भी अधिक लागू नहीं होती? क्या यहां मानक और भी अधिक सख़्त नहीं हैं? क्या यहां प्रशासनिक आदेश और भी ज्यादा नहीं हैं? लोग जो चाहें वह करने के लिए स्वतंत्र हैं, परन्तु परमेश्वर के प्रशासनिक आदेशों को इच्छानुसार नहीं बदला जा सकता। परमेश्वर आखिर परमेश्वर है जो मानव के अपराध को सहन नहीं करता; वह परमेश्वर है जो लोगों को मौत की सजा देता है। क्या लोग यह सब पहले से ही नहीं जानते?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी

422. हर युग में, जब परमेश्वर संसार में कार्य करता है तब वह मनुष्य को कुछ वचन प्रदान करता है, और उन्हें कुछ सत्य बताता है। ये सत्य ऐसे मार्ग के रूप में कार्य करते हैं जिसके मुताबिक मनुष्य को चलना चाहिए, जिस पर मनुष्य को चलना चाहिए, ऐसा मार्ग जो मनुष्य को परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में सक्षम बनाता है, ऐसा मार्ग जिसे मनुष्य को अभ्यास में लाना चाहिए और अपने जीवन में और अपनी जीवन यात्राओं के दौरान उसके मुताबिक चलना चाहिए। इन्हीं कारणों से परमेश्वर इन वचनों को मनुष्य को प्रदान करता है। ये वचन जो परमेश्वर से आते हैं उनके मुताबिक ही मनुष्य को चलना चाहिए, और उनके मुताबिक चलना ही जीवन पाना है। यदि कोई व्यक्ति उनके मुताबिक नहीं चलता, उन्हें अभ्यास में नहीं लाता, और अपने जीवन में परमेश्वर के वचनों को नहीं जीता, तो वह व्यक्ति सत्य को अभ्यास में नहीं ला रहा है। यदि लोग सत्य को अभ्यास में नहीं ला रहे हैं, तो वे परमेश्वर का भय नहीं मान रहे हैं और बुराई से दूर नहीं रह रहे हैं, और न ही वे परमेश्वर को संतुष्ट कर रहे हैं। यदि कोई परमेश्वर को संतुष्ट नहीं कर पाता, तो वह परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त नहीं कर सकता, ऐसे लोगों का कोई परिणाम नहीं होता।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें

423. परमेश्वर के मार्ग पर चलना सतही तौर पर नियमों का पालन करना नहीं है; बल्कि, इसका अर्थ है कि जब तुम्हारा सामना किसी मामले से होता है, तो सबसे पहले, तुम इसे एक ऐसी परिस्थिति के रूप में देखते हो जिसकी व्यवस्था परमेश्वर के द्वारा की गई है, ऐसे उत्तरदायित्व के रूप में देखते हो जिसे उसके द्वारा तुम्हें प्रदान किया गया है, या किसी ऐसे कार्य के रूप में देखते हो जो उसने तुम्हें सौंपा है। जब तुम इस मामले का सामना कर रहे होते हो, तो तुम्हें इसे परमेश्वर से आयी किसी परीक्षा के रूप में भी देखना चाहिए। इस मामले का सामना करते समय, तुम्हारे पास एक मानक अवश्य होना चाहिए, तुम्हें सोचना चाहिए कि यह परमेश्वर की ओर से आया है। तुम्हें इस बारे में सोचना चाहिए कि कैसे इस मामले से इस तरह से निपटा जाए कि तुम अपने उत्तरदायित्व को पूरा कर सको, और परमेश्वर के प्रति वफ़ादार भी रह सको, इसे कैसे किया जाए कि परमेश्वर क्रोधित न हो, या उसके स्वभाव का अपमान न हो। ... क्योंकि परमेश्वर के मार्ग पर चलने के लिए, हम किसी भी ऐसी चीज़ को जाने नहीं दे सकते जिसका हमसे लेना-देना है, या जो हमारे आसपास घटती है, यहाँ तक कि छोटी से छोटी चीज़ भी; हमें यह मसला ध्यान देने योग्य लगे या न लगे, अगर उससे हमारा सामना हो रहा है तो हमें उसे जाने नहीं देना चाहिए। इस सबको हमारे लिए परमेश्वर की परीक्षा के रूप में देखा जाना चाहिए। चीज़ों को इस ढंग से देखने की प्रवृत्ति कैसी है? यदि तुम्हारी प्रवृत्ति इस प्रकार की है, तो यह एक तथ्य की पुष्टि करती है : तुम्हारा हृदय परमेश्वर का भय मानता है, और बुराई से दूर रहने के लिए तैयार है। यदि परमेश्वर को संतुष्ट करने की तुम्हारी ऐसी इच्छा है, तो जिसे तुम अभ्यास में लाते हो वह परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मानक से दूर नहीं है।

प्रायः ऐसे लोग होते हैं जो मानते हैं कि ऐसे मामले जिन पर लोगों के द्वारा अधिक ध्यान नहीं दिया जाता, और जिनका सामान्यतः उल्लेख नहीं किया जाता, वो महज छोटी-मोटी निरर्थक बातें होती हैं, और उनका सत्य को अभ्यास में लाने से कोई लेना-देना नहीं है। जब इन लोगों के सामने ऐसे मामले आते हैं, तो वे उस पर अधिक विचार नहीं करते और उसे जाने देते हैं। परन्तु वास्तव में, यह मामला एक सबक है जिसका तुम्हें अध्ययन करना चाहिए, यह एक सबक कि किस प्रकार परमेश्वर का भय मानना है, और किस प्रकार बुराई से दूर रहना है। इसके अतिरिक्त, जिस बारे में तुम्हें और भी अधिक चिंता करनी चाहिए वह यह जानना है कि जब यह मामला तुम्हारे सामने आता है तो परमेश्वर क्या कर रहा है। परमेश्वर ठीक तुम्हारी बगल में है, तुम्हारे प्रत्येक शब्द और कर्म का अवलोकन कर रहा है, तुम्हारे क्रियाकलापों, तुम्हारे मन में हुए परिवर्तनों का अवलोकन कर रहा है—यह परमेश्वर का कार्य है। कुछ लोग पूछते हैं, "अगर ये सच है, तो मुझे यह महसूस क्यों नहीं होता है?" तुमने इसका एहसास नहीं किया है क्योंकि तुम परमेश्वर के भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग को अपना प्राथमिक मार्ग मानकर इसके मुताबिक नही चले हो; इसलिए, तुम मनुष्य में परमेश्वर के सूक्ष्म कार्य को महसूस नहीं कर पाते, जो लोगों के भिन्न-भिन्न विचारों और भिन्न-भिन्न कार्यकलापों के अनुसार स्वयं को अभिव्यक्त करता है। तुम एक चंचलचित्त वाले व्यक्ति हो। बड़ा मामला क्या है? छोटा मामला क्या है? उन सभी मामलों को बड़े और छोटे मामलों में विभाजित नहीं किया जाता जिसमें परमेश्वर के मार्ग पर चलना शामिल है, पर क्या तुम लोग उसे स्वीकार कर सकते हो? (हम इसे स्वीकार कर सकते हैं।) प्रतिदिन के मामलों के संबंध में, कुछ मामले ऐसे होते हैं जिन्हें लोग बहुत बड़े और महत्वपूर्ण मामले के रूप में देखते हैं, और अन्य मामलों को छोटे-मोटे निरर्थक मामलों के रूप में देखा जाता है। लोग प्रायः इन बड़े मामलों को अत्यंत महत्वपूर्ण मामलों के रूप में देखते हैं, और वे उन्हें परमेश्वर के द्वारा भेजा गया मानते हैं। हालाँकि, इन बड़े मामलों के चलते रहने के दौरान, अपने अपरिपक्व आध्यात्मिक कद के कारण, और अपनी कम क्षमता के कारण, मनुष्य प्रायः परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने योग्य नहीं होता, कोई प्रकाशन प्राप्त नहीं कर पाता, और ऐसा कोई वास्तविक ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाता जो किसी मूल्य का हो। जहाँ तक छोटे-छोटे मामलों की बात है, लोगों द्वारा इनकी अनदेखी की जाती है, और थोड़ा-थोड़ा करके हाथ से फिसलने के लिए छोड़ दिया जाता है। इस प्रकार, लोगों ने परमेश्वर के सामने जाँचे जाने, और उसके द्वारा परीक्षण किए जाने के अनेक अवसरों को गँवा दिया है। यदि तुम हमेशा लोगों, चीज़ों, मामलों और परिस्थितियों को अनदेखा कर देते हो जिनकी व्यवस्था परमेश्वर तुम्हारे लिए करता है, तो इसका क्या अर्थ होगा? इसका अर्थ है कि हर दिन, यहाँ तक कि हर क्षण, तुम अपने बारे में परमेश्वर की पूर्णता का और परमेश्वर की अगुवाई का परित्याग कर रहे हो। जब कभी परमेश्वर तुम्हारे लिए किसी परिस्थिति की व्यवस्था करता है, तो वह गुप्त रीति से देख रहा होता है, तुम्हारे हृदय को देख रहा होता है, तुम्हारी सोच और विचारों को देख रहा होता है, देख रहा होता है कि तुम किस प्रकार सोचते हो, किस प्रकार कार्य करोगे। यदि तुम एक लापरवाह व्यक्ति हो—ऐसे व्यक्ति जो परमेश्वर के मार्ग, परमेश्वर के वचन, या जो सत्य के बारे में कभी भी गंभीर नहीं रहा है—तो तुम उसके प्रति सचेत नहीं रहोगे, उस पर ध्यान नहीं दोगे जिसे परमेश्वर पूरा करना चाहता है, न उन अपेक्षाओं पर ध्यान दोगे जिन्हें वो तुमसे तब पूरा करवाना चाहता था जब उसने तुम्हारे लिए परिस्थितियों की व्यवस्था की थी। तुम यह भी नहीं जानोगे कि लोग, चीज़ें, और मामले जिनका तुम लोग सामना करते हो वे किस प्रकार सत्य से या परमेश्वर के इरादों से संबंध रखते हैं। तुम्हारे इस प्रकार बार-बार परिस्थितियों और परीक्षणों का सामना करने के पश्चात्, जब परमेश्वर तुममें कोई परिणाम नहीं देखता, तो परमेश्वर कैसे आगे बढ़ेगा? बार-बार परीक्षणों का सामना करके, तुमने अपने हृदय में परमेश्वर को महिमान्वित नहीं किया है, न ही तुमने उन परिस्थितियों का अर्थ समझा है जिनकी व्यवस्था परमेश्वर ने तुम्हारे लिए की है—परमेश्वर के परीक्षण और परीक्षाएँ। इसके बजाय, तुमने एक के बाद एक उन अवसरों को अस्वीकार कर दिया जो परमेश्वर ने तुम्हें प्रदान किए, तुमने बार-बार उन्हें हाथ से जाने दिया। क्या यह मनुष्य के द्वारा बहुत बड़ी अवज्ञा नहीं है? (हाँ, है।) क्या इसकी वजह से परमेश्वर दुखी होगा? (वह दुखी होगा।) परमेश्वर दुखी नहीं होगा! मुझे इस प्रकार कहते हुए सुनकर तुम लोगों को एक बार फिर झटका लगा है। तुम सोच रहे होगे : "क्या ऐसा पहले नहीं कहा गया था कि परमेश्वर हमेशा दुखी होता है? इसलिए क्या परमेश्वर दुखी नहीं होगा? तो परमेश्वर दुखी कब होता है?" संक्षेप में, परमेश्वर इस स्थिति से दुखी नहीं होगा। तो उस प्रकार के व्यवहार के प्रति परमेश्वर की प्रवृत्ति क्या होती है जिसके बारे में ऊपर बताया गया है? जब लोग परमेश्वर द्वारा भेजे गए परीक्षणों, परीक्षाओं को अस्वीकार करते हैं, जब वे उनसे बच कर भागते हैं, तो इन लोगों के प्रति परमेश्वर की केवल एक ही प्रवृत्ति होती है। यह प्रवृत्ति क्या है? परमेश्वर इस प्रकार के व्यक्ति को अपने हृदय की गहराई से ठुकरा देता है। यहाँ "ठुकराने" शब्द के दो अर्थ हैं। मैं उन्हें अपने दृष्टिकोण से किस प्रकार समझाऊँ? गहराई में, यह शब्द घृणा का, नफ़रत का संकेतार्थ लिए हुए है। दूसरा अर्थ क्या? दूसरे भाग का तात्पर्य है किसी चीज़ को त्याग देना। तुम लोग जानते हो कि "त्याग देने" का क्या अर्थ है, ठीक है न? संक्षेप में, ठुकराने का अर्थ है ऐसे लोगों के प्रति परमेश्वर की अंतिम प्रतिक्रिया और प्रवृत्ति जो इस तरह से व्यवहार कर रहे हैं; यह उनके प्रति भयंकर घृणा है, और चिढ़ है, इसलिए उनका परित्याग करने का निर्णय लिया जाता है। यह ऐसे व्यक्ति के प्रति परमेश्वर का अंतिम निर्णय है जो परमेश्वर के मार्ग पर कभी नहीं चला है, जिसने कभी भी परमेश्वर का भय नहीं माना है और जो कभी भी बुराई से दूर नहीं रहा है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें

424. परमेश्वर के प्रति अय्यूब का भय और आज्ञाकारिता मनुष्यजाति के लिए एक उदाहरण है, और उसकी पूर्णता और खरापन मानवता की पराकाष्ठा थी जो मनुष्य को धारण करना ही चाहिए। यद्यपि उसने परमेश्वर को नहीं देखा था, फिर भी उसे एहसास हुआ कि परमेश्वर सचमुच विद्यमान था, और इस एहसास के कारण वह परमेश्वर का भय मानता था, और परमेश्वर के अपने इसी भय के कारण, वह परमेश्वर का आज्ञापालन कर पाया था। उसने परमेश्वर को वह सब जो उसका था लेने की खुली छूट दे दी, फिर भी उसे कोई शिकायत नहीं थी, और वह परमेश्वर के समक्ष गिर गया और उसने उससे कहा कि, बिल्कुल इसी क्षण, यदि परमेश्वर उसकी देह भी ले ले, तो वह, शिकायत किए बिना, ख़ुशी-ख़ुशी उसे ऐसा करने देगा। उसका समूचा आचरण उसकी अचूक और खरी मानवता के कारण था। कहने का तात्पर्य यह है कि अपनी निश्छलता, ईमानदारी, और दयालुता के फलस्वरूप, अय्यूब परमेश्वर के अस्तित्व के अपने अहसास और अनुभव में अटल था, और इस स्थापना के आधार पर उसने स्वयं अपने से भारी-भरकम अपेक्षाएँ की थीं और परमेश्वर के समक्ष अपनी सोच, व्यवहार, आचरण और क्रियाकलापों के सिद्धांतों को उसने अन्य बातों के अलावा परमेश्वर द्वारा अपने मार्गदर्शन और परमेश्वर के जो कर्म वह देख चुका था उनके अनुसार आदर्श ढँग से ढाला था। समय के साथ, उसके अनुभवों ने उसमें परमेश्वर का सच्चा और वास्तविक भय उत्पन्न किया और उसे बुराई से दूर रखा। यही उस अखंडता का स्रोत था जिसे अय्यूब ने दृढ़ता से थामे रखा था। अय्यूब सत्यनिष्ठ, निश्छल, और दयालु मानवता से युक्त था, और उसने परमेश्वर का भय मानने, परमेश्वर का आज्ञापालन करने, और बुराई से दूर रहने का, साथ ही इस ज्ञान का कि "यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया" का वास्तविक अनुभव प्राप्त किया था। केवल इन्हीं चीज़ों के कारण वह शैतान के ऐसे शातिर हमलों के बीच अपनी गवाही पर डटा रह पाया, और जब परमेश्वर की परीक्षाएँ उसके ऊपर आ पड़ीं, तब केवल उन्हीं के कारण वह परमेश्वर को निराश नहीं करने और परमेश्वर को संतोषजनक उत्तर देने में समर्थ हो पाया।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II

425. अय्यूब ने परमेश्वर का चेहरा नहीं देखा था या परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन नहीं सुने थे, उसने व्यक्तिगत रूप से परमेश्वर के कार्य का अनुभव तो और भी नहीं किया था, तो भी परमेश्वर के प्रति उसका भय और उसकी परीक्षाओं के दौरान उसकी गवाही सभी लोगों द्वारा देखी जाती है, और वे परमेश्वर द्वारा प्रेम की जाती, उसे आनंदित करती, और उसके द्वारा प्रशंसित होती हैं, और लोग उनसे ईर्ष्या, और उनकी प्रशंसा करते हैं, और उससे भी अधिक, उनकी स्तुति गाते हैं। उसके जीवन के बारे में कुछ भी महान या असाधारण नहीं था : किसी भी साधारण मनुष्य के समान ही, उसने अनुल्लेखनीय जीवन जिया था, सूर्य उगने पर काम पर बाहर जाना और सूर्य अस्त होने पर विश्राम के लिए लौट आना। अंतर यह है कि अपने जीवन के अनेक अनुल्लेखनीय दशकों के दौरान, उसने परमेश्वर के मार्ग की अंतर्दृष्टि प्राप्त की थी, और परमेश्वर की महान सामर्थ्य और संप्रभुता का इस तरह अहसास किया और उसे समझ लिया था जैसा पहले कभी किसी अन्य व्यक्ति ने नहीं किया था। वह किसी साधारण मनुष्य की अपेक्षा अधिक चतुर नहीं था, उसका जीवन विशेष रूप से सुदृढ़ नहीं था, इसके अतिरिक्त, न ही उसके पास अदृश्य विशेष कौशल थे। यद्यपि जो उसके पास था वह ऐसा व्यक्तित्व था जो ईमानदार, दयालु हृदय, और खरा था, ऐसा व्यक्तित्व जो निष्पक्षता, धार्मिकता और सकारात्मक चीज़ों से प्रेम करता था—इनमें से कुछ भी बहुसंख्यक साधारण लोगों के पास नहीं है। उसने प्रेम और घृणा के बीच भेद किया, उसमें न्याय का बोध था, वह अटल और दृढ़ था, और अपने सोच-विचार के विवरणों पर सूक्ष्मता से ध्यान देता था। इस प्रकार, पृथ्वी पर अपने अनुल्लेखनीय समय के दौरान उसने वे सब असाधारण चीज़ें देखीं जो परमेश्वर ने की थीं, और उसने परमेश्वर की महानता, पवित्रता और धार्मिकता देखी, उसने मनुष्य के लिए परमेश्वर का सरोकार, अनुग्रहशीलता, और संरक्षण देखा, और उसने सर्वोच्च परमेश्वर की माननीयता और अधिकार देखा। अय्यूब क्यों इन चीज़ों को प्राप्त कर पाया था जो किसी भी साधारण मनुष्य से परे थीं, इसका पहला कारण यह था कि उसके पास शुद्ध हृदय था, और उसका हृदय परमेश्वर का था, और सृष्टिकर्ता द्वारा मार्गदर्शित होता था। दूसरा कारण था उसका अनुसरण : अवगुणरहित और पूर्ण होने का अनुसरण, और ऐसा व्यक्ति होने का अनुसरण जो स्वर्ग की इच्छा का पालन करता हो, जिसे परमेश्वर द्वारा प्रेम किया जाता हो, और जो बुराई से दूर रहता हो। अय्यूब ने परमेश्वर को देखने या परमेश्वर के वचन सुनने में असमर्थ होते हुए भी इन चीज़ों को धारण और इनका अनुसरण किया; यद्यपि उसने परमेश्वर को कभी नहीं देखा था, फिर भी वह उन उपायों को जानने लगा था जिनसे परमेश्वर सभी चीज़ों पर शासन करता है; और उसने उस बुद्धि को समझ लिया था जिससे परमेश्वर ऐसा करता है। यद्यपि उसने परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन कभी नहीं सुने थे, फिर भी अय्यूब जानता था कि मनुष्य को फल देने और मनुष्य से ले लेने के सारे कर्म परमेश्वर से आते हैं। हालाँकि उसके जीवन के वर्ष किसी भी साधारण व्यक्ति के वर्षों से भिन्न नहीं थे, फिर भी उसने अपने जीवन की अनुल्लेखनीयता से सभी चीज़ों के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता के अपने ज्ञान को, या परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग के अपने अनुसरण को प्रभावित नहीं होने दिया। उसकी नज़रों में, सभी चीज़ों के विधानों में परमेश्वर के कर्म समाए थे, और परमेश्वर की संप्रभुता व्यक्ति के जीवन के किसी भी भाग में देखी जा सकती थी। उसने परमेश्वर को नहीं देखा था, परंतु वह यह अहसास कर पाता था कि परमेश्वर के कर्म हर जगह हैं, और पृथ्वी पर अपने अनुल्लेखनीय समय के दौरान, अपने जीवन के प्रत्येक कोने में वह परमेश्वर के असाधारण और चमत्कारिक कर्म देख पाता और उनका अहसास कर पाता था, और वह परमेश्वर की चमत्कारिक व्यवस्थाओं को देख सकता था। परमेश्वर की अदृश्यता और मौन ने परमेश्वर के कर्मों के अय्यूब के बोध में रुकावट नहीं डाली, न ही उन्होंने सभी चीज़ों के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता के उसके ज्ञान को प्रभावित किया। उसके दिन-प्रतिदिन के जीवन के दौरान, उसका जीवन हर चीज़ में छिपे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं का बोध था। अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में उसने परमेश्वर के हृदय की आवाज़ और परमेश्वर के वचन सुने और समझे थे, उस परमेश्वर के जो सभी चीज़ों के बीच मौन रहकर भी अपने हृदय की आवाज़ और अपने वचन सभी चीज़ों के विधि-विधानों को शासित करने के द्वारा व्यक्त करता है। तो, तुम देखो, कि यदि लोगों के पास अय्यूब के समान ही मानवता और अनुसरण हो, तो वे अय्यूब के समान बोध और ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, और अय्यूब के समान ही सभी चीज़ों के ऊपर परमेश्वर की संप्रभुता की समझ और ज्ञान अर्जित कर सकते हैं। परमेश्वर अय्यूब के समक्ष प्रकट नहीं हुआ था या परमेश्वर ने उससे बात नहीं की थी, किंतु अय्यूब पूर्ण, और खरा होने, तथा परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने में समर्थ था। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर के मनुष्य के समक्ष प्रकट हुए या उससे बात किए बिना भी, सभी चीज़ों के बीच परमेश्वर के कर्म और सभी चीज़ों के ऊपर उसकी संप्रभुता मनुष्य को परमेश्वर के अस्तित्व, सामर्थ्य और अधिकार से अवगत होने के लिए पर्याप्त है, और परमेश्वर की सामर्थ्य और अधिकार मनुष्य से परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मार्ग का अनुसरण करवाने के लिए पर्याप्त हैं।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II

426. "परमेश्‍वर का भय मानना और दुष्‍टता का त्‍याग करना" तथा परमेश्‍वर को जानना अभिन्‍न रूप से असंख्य सूत्रों से जुड़े हैं, और उनके बीच का संबंध स्वत: स्‍पष्‍ट है। यदि कोई बुराई से दूर रहना चाहता है, तो उसमें पहले परमेश्‍वर का वास्‍तविक भय होना चाहिए; यदि कोई परमेश्‍वर का वास्‍तविक भय मानना चाहता है, तो उसमें पहले परमेश्‍वर का सच्‍चा ज्ञान होना चाहिए; यदि कोई परमेश्‍वर का ज्ञान हासिल करना चा‍हता है, तो उसे पहले परमेश्‍वर के वचनों का अनुभव करना चाहिए, परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करना चाहिए, परमेश्वर की ताड़ना, अनुशासन और न्याय का अनुभव करना चाहिए; यदि कोई परमेश्‍वर के वचनों का अनुभव करना चाहता है, तो उसे पहले परमेश्‍वर के वचनों के रूबरू आना चाहिए, परमेश्‍वर के रूबरू आना चाहिए, और परमेश्‍वर से निवेदन करना चाहिए कि वह लोगों, घटनाओं और वस्‍तुओं से युक्त सभी प्रकार के परिवेशों के रूप में परमेश्‍वर के वचनों को अनुभव करने के अवसर प्रदान करे; यदि कोई परमेश्‍वर और उसके वचनों के रूबरू आना चाहता है, तो उसे पहले एक सरल और सच्‍चा हृदय, सत्‍य को स्‍वीकार करने की तत्‍परता, कष्‍ट झेलने की इच्‍छा, और बुराई से दूर रहने का संकल्प और साहस, और एक सच्‍चा सृजित प्राणी बनने की अभिलाषा रखनी चाहिए...। इस प्रकार कदम-दर-कदम आगे बढ़ते हुए, तुम परमेश्‍वर के निरंतर करीब आते जाओगे, तुम्‍हारा हृदय निरंतर शुद्ध होता जाएगा, और तुम्‍हारा जीवन और जीवित रहने के मूल्‍य, परमेश्‍वर को जान पाने के कारण निरंतर अधिक अर्थपूर्ण और दीप्तिमान होते जाएँगे। फिर एक दिन तुम अनुभव करोगे कि स्रष्टा अब कोई पहेली नहीं रह गया है, स्रष्टा कभी तुमसे छिपा नहीं था, स्रष्टा ने कभी अपना चेहरा तुमसे छिपाया नहीं था, स्रष्टा तुमसे बिलकुल भी दूर नहीं है, स्रष्टा अब बिलकुल भी वह नहीं है जिसके लिए तुम अपने विचारों में लगातार तरस रहे हो लेकिन जिसके पास तुम अपनी भावनाओं से पहुँच नहीं पा रहे हो, वह वाकई और सच में तुम्‍हारे दाएँ-बाएँ खड़ा तुम्‍हारी सुरक्षा कर रहा है, तुम्‍हारे जीवन को पोषण दे रहा है और तुम्‍हारी नियति को नियंत्रित कर रहा है। वह सुदूर क्षितिज पर नहीं है, न ही उसने अपने आपको ऊपर कहीं बादलों में छिपाया हुआ है। वह एकदम तुम्‍हारी बगल में है, तुम्‍हारे सर्वस्‍व पर आधिपत्‍य कर रहा है, वह वो सब है जो तुम्‍हारे पास है, और वही एकमात्र चीज़ है जो तुम्‍हारे पास है। ऐसा परमेश्‍वर तुम्‍हें स्वयं को अपने हृदय से प्रेम करने देता है, स्वयं से लिपटने देता है, स्वयं को पकड़ने देता है, अपनी स्तुति करने देता है, गँवा देने का भय पैदा करता है, अपना त्‍याग करने, अपनी अवज्ञा करने, अपने को टालने या दूर करने का अनिच्छुक बना देता है। तुम बस उसकी परवाह करना, उसका आज्ञापालन करना, जो भी वह देता है उस सबका प्रतिदान करना और उसके प्रभुत्व के प्रति समर्पित होना चाहते हो। तुम अब उसके द्वारा मार्गदर्शन किए जाने, पोषण दिए जाने, निगरानी किए जाने, उसके द्वारा देखभाल किए जाने से इंकार नहीं करते और न ही उसकी आज्ञा और आदेश का पालन करने से इंकार करते हो। तुम सिर्फ़ उसका अनुसरण करना चाहते हो, उसके साथ उसके आस-पास रहना चाहते हो, उसे अपना एकमात्र जीवन स्‍वीकार करना चाहते हो, उसे अपना एकमात्र प्रभु, अपना एकमात्र परमेश्‍वर स्‍वीकार करना चाहते हो।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, प्रस्तावना

427. जब लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव करते हैं, तो उसके बारे में उनका पहला ज्ञान यह होता है कि वह अथाह, बुद्धिमान और अद्भुत है, और वे अनजाने में उसका आदर करते हैं और उस कार्य के रहस्य को महसूस करते हैं जो वह करता है, जो कि मनुष्य के दिमाग की पहुँच से परे है। लोग केवल परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करने, उसकी इच्छाओं को संतुष्ट करने में समर्थ होना चाहते हैं; वे उससे बढ़कर होने की इच्छा नहीं करते, क्योंकि जो कार्य परमेश्वर करता है वह मनुष्य की सोच और कल्पना से परे होता है और वह परमेश्वर के बदले उस कार्य को नहीं कर सकता। यहाँ तक कि मनुष्य खुद अपनी कमियों को नहीं जानता, फिर भी परमेश्वर ने एक नया मार्ग प्रशस्त किया है और वह मनुष्य को एक अधिक नए और अधिक खूबसूरत संसार में ले जाने के लिए आया है, जिससे मनुष्य ने नई प्रगति और एक नई शुरुआत की है। लोगों के मन में परमेश्वर के लिए जो भाव है वो प्रशंसा का भाव नहीं है, या सिर्फ प्रशंसा नहीं है। उनका गहनतम अनुभव श्रद्धा और प्रेम है; और उनकी भावना यह है कि परमेश्वर वास्तव में अद्भुत है। वह ऐसा कार्य करता है जिसे करने में मनुष्य असमर्थ है, और ऐसी बातें कहता है जिसे कहने में मनुष्य असमर्थ है। जिन लोगों ने परमेश्वर के कार्य का अनुभव किया है उन्हें हमेशा एक अवर्णनीय एहसास होता है। पर्याप्त गहरे अनुभव वाले लोग परमेश्वर के लिए प्रेम को समझ सकते हैं; वे हमेशा उसकी मनोरमता को महसूस कर सकते हैं, महसूस कर सकते हैं कि उसका कार्य बहुत बुद्धिमत्तापूर्ण और बहुत अद्भुत है, और परिणामस्वरूप उनके बीच असीमित सामर्थ्य उपजती है। यह भय या कभी-कभार का प्रेम और श्रद्धा नहीं है, बल्कि यह मनुष्य के लिए परमेश्वर की करुणा और सहिष्णुता की गहरी भावना है। हालाँकि, जिन लोगों ने उसकी ताड़ना और न्याय का अनुभव किया है, उन्हें बोध है कि वह प्रतापी है और अपमान सहन नहीं करता। यहाँ तक कि जिन लोगों ने उसके अधिकांश कार्य का अनुभव किया है, वे भी उसकी थाह पाने में असमर्थ हैं; जो लोग सचमुच उसका आदर करते हैं, जानते हैं कि उसका कार्य लोगों की धारणाओं से मेल नहीं खाता बल्कि हमेशा उनकी धारणाओं के विरुद्ध होता है। उसे लोगों की संपूर्ण प्रशंसा की आवश्यकता नहीं है या वे उसके प्रति समर्पण-भाव का दिखावा करें; बल्कि वह चाहता है कि उनके अंदर सच्ची श्रद्धा और सच्चा समर्पण हो। उसके इतने सारे कार्य में, सच्चे अनुभव वाला कोई भी व्यक्ति उसके प्रति श्रद्धा रखता है, जो प्रशंसा से बढ़कर है। लोगों ने ताड़ना और न्याय के उसके कार्य के कारण उसके स्वभाव को देखा है, और इसलिए वे हृदय से उसका आदर करते हैं। परमेश्वर श्रद्धेय और आज्ञापालन करने योग्य है, क्योंकि उसका अस्तित्व और उसका स्वभाव सृजित प्राणियों के समान नहीं है, ये सृजित प्राणियों से ऊपर हैं। परमेश्वर स्व-अस्तित्वधारी, चिरकालीन और गैर-सृजित प्राणी है, और केवल परमेश्वर ही श्रद्धा और समर्पण के योग्य है; मनुष्य इसके योग्य नहीं है। इसलिए, जिन लोगों ने उसके कार्य का अनुभव किया है और जिन्होंने सचमुच में उसे जाना है, वे उसके प्रति श्रद्धा रखते हैं। लेकिन, जो लोग उसके बारे में अपनी धारणाएँ नहीं छोड़ते—जो उसे परमेश्वर मानते ही नहीं—उनके अंदर उसके प्रति कोई श्रद्धा नहीं है, हालाँकि वे उसका अनुसरण करते हैं फिर भी उन्हें जीता नहीं जाता; वे प्रकृति से ही अवज्ञाकारी लोग हैं। वह ऐसे परिणाम को प्राप्त करने के लिए इस कार्य को करता है ताकि सभी सृजित प्राणी सृजनकर्ता का आदर करें, उसकी आराधना करें, और बिना किसी शर्त के उसके प्रभुत्व के अधीन हो सकें। उसके समस्त कार्य का लक्ष्य इसी अंतिम परिणाम को हासिल करना है। यदि जिन लोगों ने ऐसे कार्य का अनुभव कर लिया है, वे परमेश्वर का जरा-सा भी आदर नहीं करते हैं, यदि अतीत की उनकी अवज्ञा बिल्कुल भी नहीं बदलती है, तो उन्हें निश्चित ही हटा दिया जाएगा। यदि परमेश्वर के प्रति किसी व्यक्ति की प्रवृत्ति केवल दूर से ही प्रशंसा करना या सम्मान प्रकट करना है और जरा-सा भी प्रेम करना नहीं है, तो यह वो परिणाम है जिस पर वह व्यक्ति आ पहुँचा है जिसके पास परमेश्वर से प्रेम करने वाला हृदय नहीं है, और उस व्यक्ति में पूर्ण किए जाने की शर्तों का अभाव है। यदि इतना अधिक कार्य भी किसी व्यक्ति के सच्चे प्रेम को प्राप्त करने में असमर्थ है, तो इसका अर्थ है उस व्यक्ति ने परमेश्वर को प्राप्त नहीं किया है और वह असल में सत्य की खोज नहीं कर रहा। जो व्यक्ति परमेश्वर से प्रेम नहीं करता, वह सत्य से भी प्रेम नहीं करता और इस तरह वह परमेश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता, वह परमेश्वर की स्वीकृति तो बिलकुल भी प्राप्त नहीं कर सकता। ऐसे लोग, पवित्र आत्मा के कार्य का अनुभव चाहे जैसे कर लें, और न्याय का चाहे जैसे अनुभव कर लें, वे परमेश्वर के प्रति श्रद्धा नहीं रख सकते। ऐसे लोगों की प्रकृति अपरिवर्तनीय होती है, और उनका स्वभाव अत्यंत दुष्ट होता है। जो लोग परमेश्वर पर श्रद्धा नहीं रखते, उन्हें हटा दिया जाएगा, वे दण्ड के पात्र बनेंगे, और उन्हें उसी तरह दण्ड दिया जाएगा जैसे दुष्टों को दिया जाता है, और ऐसे लोग उनसे भी अधिक कष्ट सहेंगे जिन्होंने अधार्मिक दुष्कर्म किए हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का कार्य

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