अनुग्रह के युग और राज्य के युग में कलीसियाई जीवन के बीच अंतर

17 मार्च, 2018

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन :

जब, अनुग्रह के युग में, परमेश्वर तीसरे स्वर्ग में लौटा, तो समस्त मानव-जाति के छुटकारे का परमेश्वर का कार्य वास्तव में पहले ही अपने अंतिम भाग में पहुँच गया था। धरती पर जो कुछ शेष रह गया था, वह था सलीब जिसे यीशु ने अपनी पीठ पर ढोया था, बारीक सन का कपड़ा जिसमें यीशु को लपेटा गया था, और काँटों का मुकुट और लाल रंग का लबादा जो यीशु ने पहना था (ये वे वस्तुएँ थीं, जिनसे यहूदियों ने उसका मज़ाक उड़ाया था)। अर्थात्, यीशु के सलीब पर चढ़ने के कार्य से अत्यधिक सनसनी उत्पन्न होने के बाद, चीज़ें फिर से शांत हो गईं। तब से यीशु के शिष्यों ने हर जगह कलीसियाओं में चरवाही और सिंचन करते हुए उसके कार्य को आगे बढ़ाना शुरू कर दिया। उनके कार्य की विषयवस्तु यह थी : उन्होंने सभी लोगों से पश्चात्ताप करने, अपने पाप स्वीकार करने और बपतिस्मा लेने के लिए कहा; और सभी प्रेरित यीशु के सलीब पर चढ़ने की अंदर की कहानी, असली वृत्तांत फैलाने के लिए आगे बढ़ गए, और इसलिए हर कोई अपने पाप स्वीकार करने के लिए स्वयं को यीशु के सामने दंडवत होने से नहीं रोक पाया; और इसके अलावा प्रेरित हर जगह जाकर यीशु द्वारा बोले गए वचन सुनाने लगे। उस क्षण से अनुग्रह के युग में कलीसियाओं का निर्माण होना शुरू हुआ।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, कार्य और प्रवेश (6)

अतीत में, विशेष सभाओं या विशाल सभाओं के दौरान, जो विभिन्न स्थानों पर होती थीं, अभ्यास के मार्ग के केवल एक पहलू के बारे में ही बोला जाता था। इस प्रकार का अभ्यास वह था, जिसे अनुग्रह के युग के दौरान अभ्यास में लाया जाना था, और जिसका परमेश्वर के ज्ञान से शायद ही कोई संबंध था, क्योंकि अनुग्रह के युग का दर्शन केवल यीशु के सलीब पर चढ़ने का दर्शन था, और उससे बड़े कोई दर्शन नहीं थे। मनुष्य से सलीब पर चढ़ने के माध्यम से मानवजाति के छुटकारे के उसके कार्य से अधिक कुछ जानना अपेक्षित नहीं था, और इसलिए अनुग्रह के युग के दौरान मनुष्य के जानने के लिए कोई अन्य दर्शन नहीं थे। इस तरह, मनुष्य के पास परमेश्वर का सिर्फ थोड़ा-सा ही ज्ञान था, और यीशु के प्रेम और करुणा के ज्ञान के अलावा उसके लिए अभ्यास में लाने हेतु केवल कुछ साधारण और दयनीय चीजें ही थीं, ऐसी चीज़ें जो आज से एकदम अलग थीं। अतीत में, मनुष्य की सभा भले ही किसी भी आकार की रही हो, मनुष्य परमेश्वर के कार्य के व्यावहारिक ज्ञान के बारे में बात करने में असमर्थ था, और कोई भी स्पष्ट रूप से यह कहने में समर्थ तो बिलकुल भी नहीं था कि मनुष्य के लिए प्रवेश करने हेतु अभ्यास का सबसे उचित मार्ग कौन-सा है। मनुष्य ने सहनशीलता और धैर्य की नींव में मात्र कुछ सरल विवरण जोड़े; उसके अभ्यास के सार में कोई भी परिवर्तन नहीं आया, क्योंकि उसी युग के भीतर परमेश्वर ने कोई नया कार्य नहीं किया, और मनुष्य से उसने केवल सहनशीलता और धैर्य की, या सलीब वहन करने की ही अपेक्षाएँ कीं। ऐसे अभ्यासों के अलावा, यीशु के सलीब पर चढ़ने की तुलना में कोई ऊँचे दर्शन नहीं थे।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का अभ्यास

एक सामान्य आध्यात्मिक जीवन प्रार्थना करने, भजन गाने, कलीसियाई जीवन में भाग लेने और परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने जैसे अभ्यासों तक सीमित नहीं है। बल्कि, इसमें एक नया और जीवंत आध्यात्मिक जीवन जीना शामिल है। जो बात मायने रखती है वो यह नहीं है कि तुम अभ्यास कैसे करते हो, बल्कि यह है कि तुम्हारे अभ्यास का परिणाम क्या होता है। अधिकांश लोगों का मानना है कि एक सामान्य आध्यात्मिक जीवन में आवश्यक रूप से प्रार्थना करना, भजन गाना, परमेश्वर के वचनों को खाना-पीना या उसके वचनों पर मनन-चिंतन करना शामिल है, भले ही ऐसे अभ्यासों का वास्तव में कोई प्रभाव हो या न हो, चाहे वे सच्ची समझ तक ले जाएँ या न ले जाएँ। ये लोग सतही प्रक्रियाओं के परिणामों के बारे में सोचे बिना उन पर ध्यान केंद्रित करते हैं; वे ऐसे लोग हैं जो धार्मिक अनुष्ठानों में जीते हैं, वे ऐसे लोग नहीं हैं जो कलीसिया के भीतर रहते हैं, वे राज्य के लोग तो बिलकुल नहीं हैं। उनकी प्रार्थनाएँ, भजन-गायन और परमेश्वर के वचनों को खाना-पीना, सभी सिर्फ नियम-पालन हैं, जो प्रचलन में है उसके साथ बने रहने के लिए मजबूरी में किए जाने वाले काम हैं। ये अपनी इच्छा से या हृदय से नहीं किए जाते हैं। ये लोग कितनी भी प्रार्थना करें या गाएँ, उनके प्रयास निष्फल होंगे, क्योंकि वे जिनका अभ्यास करते हैं, वे केवल धर्म के नियम और अनुष्ठान हैं; वे वास्तव में परमेश्वर के वचनों का अभ्यास नहीं कर रहे हैं। वे अभ्यास किस तरह करते हैं, इस बात का बतंगड़ बनाने में ही उनका ध्यान लगा होता है और वे परमेश्वर के वचनों के साथ उन नियमों जैसा व्यवहार करते हैं जिनका पालन किया ही जाना चाहिए। ऐसे लोग परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में नहीं ला रहे हैं; वे सिर्फ देह को तृप्त कर रहे हैं और दूसरे लोगों को दिखाने के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं। धर्म के ये नियम और अनुष्ठान सभी मूल रूप से मानवीय हैं; वे परमेश्वर से नहीं आते हैं। परमेश्वर नियमों का पालन नहीं करता है, न ही वह किसी व्यवस्था के अधीन है। बल्कि, वह हर दिन नई चीज़ें करता है, व्यवहारिक काम पूरा करता है। थ्री-सेल्फ कलीसिया के लोग, हर दिन सुबह की प्रार्थना सभा में शामिल होने, शाम की प्रार्थना और भोजन से पहले आभार की प्रार्थना अर्पित करने, सभी चीज़ों में धन्यवाद देने जैसे अभ्यासों तक सीमित रहते हैं—वे इस तरह जितना भी कार्य करें और चाहे जितने लंबे समय तक ऐसा करें, उनके पास पवित्र आत्मा का कार्य नहीं होगा। जब लोग नियमों के बीच रहते हैं और अपने हृदय अभ्यास के तरीकों में ही उलझाए रखते हैं, तो पवित्र आत्मा काम नहीं कर सकता, क्योंकि उनके हृदयों पर नियमों और मानवीय धारणाओं का कब्जा है। इस प्रकार, परमेश्वर हस्तक्षेप करने और उन पर काम करने में असमर्थ है, और वे केवल व्यवस्थाओं के नियंत्रण में जीते रह सकते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर की प्रशंसा प्राप्त करने में सदा के लिए असमर्थ होते हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक सामान्य आध्यात्मिक जीवन के विषय में

मनुष्य के प्रवेश करने के समय के दौरान जीवन सदा उबाऊ होता है, आध्यात्मिक जीवन के नीरस तत्त्वों से भरा, जैसे कि प्रार्थना करना, परमेश्वर के वचनों को खाना और पीना या सभाएँ आयोजित करना, इसलिए लोगों को हमेशा यह लगता है कि परमेश्वर पर विश्वास करने में कोई आनंद नहीं आता। ऐसी आध्यात्मिक क्रियाएँ हमेशा मनुष्यजाति के मूल स्वभाव के आधार पर की जाती हैं, जिसे शैतान द्वारा भ्रष्ट किया जा चुका है। यद्यपि कभी-कभी लोगों को पवित्र आत्मा का प्रबोधन प्राप्त हो सकता है, परंतु उनकी मूल सोच, स्वभाव, जीवन-शैली और आदतें अभी भी उनके भीतर जड़ पकड़े हुए हैं, और इसलिए उनका स्वभाव अपरिवर्तित रहता है। ... वास्तव में, जब परमेश्वर के कार्य का एक चरण समाप्त हो जाता है, तो वह उस समय के साधन और शैली नष्ट कर चुका होता है और उनका कोई निशान नहीं छोड़ता। परंतु "सच्चे विश्वासी" उन मूर्त भौतिक वस्तुओं की आराधना करना जारी रखते हैं; इस बीच वे परमेश्वर की सत्ता को अपने मस्तिष्क के पिछले हिस्से में खिसका देते हैं और उसके बारे में आगे कोई अध्ययन नहीं करते, और यह समझते हैं कि वे परमेश्वर के प्रति प्रेम से भरे हुए हैं, जबकि वास्तव में वे उसे बहुत पहले ही घर के बाहर धकेल चुके होते हैं और शैतान को आराधना के लिए मेज पर रख चुके होते हैं। यीशु, क्रूस, मरियम, यीशु का बपतिस्मा, अंतिम भोज के चित्र—लोग इन्हें स्वर्ग के प्रभु के रूप में आदर देते हैं, जबकि पूरे समय बार-बार "प्रभु, स्वर्गिक पिता" पुकारते हैं। क्या यह सब मज़ाक नहीं है? आज तक पूर्वजों द्वारा मनुष्यजाति को सौंपी गई ऐसी कई बातों और प्रथाओं से परमेश्वर को घृणा है; वे गंभीरता से परमेश्वर के लिए आगे के मार्ग में बाधा डालती हैं और, इतना ही नहीं, वे मनुष्यजाति के प्रवेश में भारी अड़चन पैदा करती हैं। यह बात तो रही एक तरफ कि शैतान ने मनुष्यजाति को किस सीमा तक भ्रष्ट किया है, लोगों के अंतर्मन विटनेस ली के नियम, लॉरेंस के अनुभवों, वॉचमैन नी के सर्वेक्षणों और पौलुस के कार्य जैसी चीज़ों से पूर्णतः भरे हुए हैं। परमेश्वर के पास मनुष्यों पर कार्य करने के लिए कोई मार्ग ही नहीं है, क्योंकि उनके भीतर व्यक्तिवाद, विधियाँ, नियम, विनियम, प्रणालियाँ और ऐसी ही अनेक चीज़ें बहुत ज्यादा भरी पड़ी हैं; लोगों के सामंती अंधविश्वास की प्रवृत्तियों के अतिरिक्त इन चीज़ों ने मनुष्यजाति को बंदी बनाकर उसे निगल लिया है। यह ऐसा है, मानो लोगों के विचार एक रोचक चलचित्र हों, जो बादलों की सवारी करने वाले विलक्षण प्राणियों के साथ पूरे रंग में एक परि-कथा का वर्णन कर रहा है, जो इतना कल्पनाशील है कि लोगों को विस्मित कर देता है और उन्हें चकित और अवाक छोड़ देता है। सच कहा जाए, तो आज परमेश्वर जो काम करने के लिए आया है, वह मुख्यतः मनुष्यों के अंधविश्वासी लक्षणों से निपटना और उन्हें दूर करना तथा उनके मानसिक दृष्टिकोण पूर्ण रूप से रूपांतरित करना है। परमेश्वर का कार्य उस विरासत के कारण आज तक पूरा नहीं हुआ है, जो मनुष्यजाति द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे सौंपा गया है; यह वह कार्य है, जो किसी महान आध्यात्मिक व्यक्ति की धरोहर को आगे बढ़ाने, या परमेश्वर द्वारा किसी अन्य युग में किए गए किसी प्रतिनिधि प्रकृति के कार्य को विरासत में प्राप्त करने की आवश्यकता के बिना उसके द्वारा व्यक्तिगत रूप से आरंभ और पूर्ण किया गया है। मनुष्यों को इनमें से किसी चीज़ की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। आज परमेश्वर के बोलने और कार्य करने की भिन्न शैली है, फिर मनुष्यों को कष्ट उठाने की क्या आवश्यकता है? यदि मनुष्य अपने "पूर्वजों" की विरासत को जारी रखते हुए वर्तमान धारा के अंतर्गत आज के मार्ग पर चलते हैं, तो वे अपने गंतव्य तक नहीं पहुँच पाएँगे। परमेश्वर मानव-व्यवहार के इस विशेष ढंग से बहुत घृणा करता है, वैसे ही जैसे वह मानव-जगत के वर्षों, महीनों और दिनों से घृणा करता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, कार्य और प्रवेश (3)

स्तुति सिय्योन तक आ गई है और परमेश्वर का निवास स्थान-प्रकट हो गया है। सभी लोगों द्वारा प्रशंसित, महिमामंडित पवित्र नाम फैल रहा है। आह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर! ब्रह्मांड का मुखिया, अंत के दिनों का मसीह—वह जगमगाता सूर्य है, जो पूरे ब्रह्मांड में प्रताप और वैभव में ऊँचे पर्वत सिय्योन पर उदित हुआ है ...

सर्वशक्तिमान परमेश्वर! हम हर्षोल्लास में तुझे पुकारते हैं; हम नाचते और गाते हैं। तू वास्तव में हमारा उद्धारकर्ता, ब्रह्मांड का महान सम्राट है! तूने विजेताओं का एक समूह बनाया है और परमेश्वर की प्रबंधन-योजना पूरी की है। सभी लोग इस पर्वत की ओर बढ़ेंगे। सभी लोग सिंहासन के सामने घुटने टेकेंगे! तू एकमेव सच्चा परमेश्वर है और तू ही महिमा और सम्मान के योग्य है। समस्त महिमा, स्तुति और अधिकार सिंहासन का हो! जीवन का झरना सिंहासन से प्रवाहित होता है, जो बड़ी संख्या में परमेश्वर के लोगों को सींचता और पोषित करता है। जीवन प्रतिदिन बदलता है; नई रोशनी और नए प्रकटन हमारा अनुसरण करते हैं, जो लगातार परमेश्वर के बारे में अंतर्दृष्टियाँ देते हैं। अनुभवों के बीच हम परमेश्वर के बारे में पूर्ण निश्चितता पर पहुँचते हैं। उसके वचन लगातार प्रकट किए जाते हैं, उनके भीतर प्रकट किए जाते हैं, जो सही हैं। हम सचमुच बहुत धन्य हैं! परमेश्वर से रोज़ाना आमने-सामने मिल रहे हैं, सभी बातों में परमेश्वर के साथ संवाद कर रहे हैं, और हर बात में परमेश्वर को संप्रभुता दे रहे हैं। हम सावधानीपूर्वक परमेश्वर के वचन पर विचार करते हैं, हमारे हृदय परमेश्वर में शांति पाते हैं, और इस प्रकार हम परमेश्वर के सामने आते हैं, जहाँ हमें उसका प्रकाश मिलता है। रोज़ाना अपने जीवन, कार्यों, वचनों, विचारों और धारणाओं में हम परमेश्वर के वचन के भीतर जीते हैं, और हम हमेशा पहचान करने में सक्षम होते हैं। परमेश्वर का वचन सुई में धागा पिरोता है; अप्रत्याशित ढंग से हमारे भीतर छिपी हुई चीज़ें एक-एक करके प्रकाश में आती हैं। परमेश्वर के साथ संगति देर सहन नहीं करती; हमारे विचार और धारणाएँ परमेश्वर द्वारा उघाड़कर रख दी जाती हैं। हर पल हम मसीह के आसन के सामने जी रहे हैं, जहाँ हम न्याय से गुज़रते हैं। हमारे शरीर के भीतर हर जगह पर शैतान का कब्ज़ा है। आज, परमेश्वर की संप्रभुता पुन: प्राप्त करने के लिए, उसके मंदिर को स्वच्छ करना होगा। पूरी तरह से परमेश्वर के अधीन होने के लिए हमें जीवन-मरण के संघर्ष में संलग्न होना होगा। केवल हमारी पुरानी अस्मिता को सलीब पर चढ़ाए जाने के बाद ही मसीह का पुनरुत्थित जीवन संप्रभुता में शासन कर सकता है।

अब पवित्र आत्मा हमारे उद्धार की लड़ाई लड़ने के लिए हमारे हर कोने में धावा बोलता है! जब तक हम अपने आपको नकारने और परमेश्वर के साथ सहयोग करने के लिए तैयार हैं, तब तक परमेश्वर निश्चित रूप से हमें हर समय भीतर से रोशन और शुद्ध करेगा, और उसे नए सिरे से प्राप्त करेगा, जिस पर शैतान ने कब्ज़ा कर रखा है, ताकि हम परमेश्वर द्वारा शीघ्रातिशीघ्र पूर्ण किए जा सकें। समय बरबाद मत करो—और हर क्षण परमेश्वर के वचन के भीतर रहो। संतों के साथ बढ़ो, राज्य में लाए जाओ, और परमेश्वर के साथ महिमा में प्रवेश करो।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 1

आज तुमने सभी कलीसियों को पूरा किया है—फ़िलाडेल्फ़िया की कलीसिया—और इस प्रकार अपनी 6,000 साल की प्रबंधन योजना को पूरा किया है। सभी संत अब नम्रता से तुम्हारे सामने समर्पित हो सकते हैं; वे एक दूसरे से आत्मा में जुड़े हुए हैं और एक दूसरे के साथ प्रेमपूर्वक आगे बढ़ते हैं। वे झरने के स्रोत से जुड़े हैं। जीवन का जीवित पानी निरंतर बहता है और वह कलीसिया की सभी गंदगी और कीचड़ को बहा ले जाता है, और एक बार फिर तुम्हारे मंदिर को शुद्ध करता है। हमने व्यावहारिक सच्चे परमेश्वर को जाना है, उसके वचनों में चले हैं, अपने कार्यों और कर्तव्यों को पहचाना है, और कलीसिया के लिए खुद को खपाने के लिए जो कुछ हम कर सकते थे वो हमने किया है। तुम्हारे सामने हर एक पल शांत रहते हुए, हमें पवित्र आत्मा के काम पर ध्यान देना चाहिए ताकि तुम्हारी इच्छा हमारे भीतर अवरुद्ध न हो। संतों के बीच आपसी प्रेम है, और कुछ की मज़बूतियां दूसरों की विफलताओं की भरपाई करेंगी। वे हर पल आत्मा में चल सकते हैं और पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध और प्रकाशित किए गए हैं। सत्य समझने के तुरंत बाद वे उसे अभ्यास में ले आते हैं। वे नई रोशनी के साथ कदम से कदम मिलाकर चलते हैं और परमेश्वर के पदचिह्नों का अनुसरण करते हैं।

सक्रिय रूप से परमेश्वर के साथ सहयोग करो; उसे नियंत्रण सौंपने का अर्थ है उसके साथ चलना। हमारे सभी विचार, धारणाएं, सोच और धर्मनिरपेक्ष उलझनें, धुएं की तरह हवा में गायब हो जाती हैं। हम परमेश्वर को अपनी आत्माओं पर शासन करने देते हैं, उसके साथ चलते हैं और इस तरह उत्थान हासिल करते हुए दुनिया पर विजय प्राप्त करते हैं, और हमारी आत्माएं मुक्त हो जाती हैं और रिहाई प्राप्त करती हैं : जब सर्वशक्तिमान परमेश्वर राजा बनेगा तो येपरिणाम होंगे। ऐसा कैसे हो सकता है कि हम नृत्य न करें और स्तुति में न गाएं, अपनी प्रशंसा भेंट न करें, और अपने नए भजन न पेश करें?

वास्तव में परमेश्वर की स्तुति करने के कई तरीके हैं : उसका नाम पुकारना, उसके पास आना, उसके बारे में सोचना, प्रार्थना करते हुए पढ़ना, साहचर्य में शामिल होना, चिंतन करना, सोच-विचार करना, प्रार्थना करना और प्रशंसा के गीत गाना। इस तरह की स्तुति में आनंद है, और अभिषेक है; स्तुति में शक्ति है और एक दायित्व भी है। स्तुति में विश्वास है, और एक नई अंतर्दृष्टि भी है।

सक्रिय रूप से परमेश्वर के साथ सहयोग करो, सेवा में समन्वय करो और एक हो जाओ, सर्वशक्तिमान परमेश्वर की इच्छाओं को पूरा करो, एक पवित्र आध्यात्मिक शरीर बनने के लिए तत्पर रहो, शैतान को कुचलो, और उसकी नियति समाप्त करो। फ़िलाडेल्फ़िया की कलीसिया परमेश्वर के सामने आरोहित की गयी है और परमेश्वर की महिमा में प्रकट की जाती है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 2

सभी राष्ट्र उत्साहित हैं, सभी लोग गा रहे हैं, सिय्योन पर्वत प्रसन्‍नता से हँस रहा है, और परमेश्वर की महिमा का उदय हुआ है! मैंने कभी सपनों में भी नहीं सोचा था कि मैं कभी परमेश्वर का चेहरा देखूंगा, फिर भी आज मैंने देखा है। हर दिन उसके साथ आमने-सामने, मैं अपना दिल खोलकर रखता हूँ। खाने पीने का सभी कुछ, वह प्रचुरता से प्रदान करता है। जीवन, वचन, कार्य, सोच, विचार—उसका महिमामय प्रकाश इन सभी को उज्जवल करता है। वह रास्ते के हर कदम पर अगुवाई करता है, और यदि कोई दिल विद्रोह करता है तो उसका न्याय तुरंत करता है।

परमेश्वर के साथ मिलकर खाना, साथ रहना, साथ जीना, उसके साथ होना, साथ चलना, साथ आनंद लेना, साथ-साथ महिमा और आशीष प्राप्त करना, परमेश्वर के साथ शासन साझा करना और राज्य में एक साथ होना—ओह, कितना आनंददायक है! ओह, कितना प्यारा है! हम हर दिन उसके साथ आमने-सामने होते हैं, हर दिन उससे बात करते हैं और निरंतर वार्तालाप करते हैं, हर दिन नई प्रबुद्धता और नई अंतर्दृष्टि प्राप्त करते हैं। हमारी आध्यात्मिक आंखें खुल गई हैं और हम सब कुछ देखते हैं; आत्मा के सभी रहस्य हमारे सामने प्रकट होते हैं। पवित्र जीवन कितना निश्चिंत है; तेज़ी से भागो और रुको मत, निरंतर आगे बढ़ो-आगे इससे भी अधिक अद्भुत एक जीवन है। केवल मीठे स्वाद से संतुष्ट न हो; हमेशा परमेश्वर में प्रवेश करने का प्रयास करो। वह सर्वव्यापी और प्रचुर है, और उसके पास सभी प्रकार की चीज़ें हैं जिनकी हम में कमी है। सक्रियता से सहयोग करो, उसके अंदर प्रवेश करो और कुछ भी कभी भी पहले जैसा नहीं रहेगा। हमारे जीवन का उत्थान होगा और कोई भी व्यक्ति, मामला या बात हमें परेशान नहीं कर पाएगी।

उत्थान! उत्थान! सच्चा उत्थान! परमेश्वर का जीवन उत्थान भीतर है और सभी वस्तुएं वास्तव में शांत हो जाती हैं! हम दुनिया और सांसारिक चीज़ों से परे चले जाते हैं, पतियों या बच्चों से कोई मोह नहीं रहता। बीमारी और वातावरण के नियंत्रण के परे चले जाते हैं। शैतान हमें परेशान करने की हिम्मत नहीं कर सकता है। सभी आपदाओं से हम ऊपर हो जाते हैं—यह परमेश्वर को शासन की अनुमति देना है! हम शैतान को अपने कदमों के तले कुचल देते हैं, कलीसिया के लिए गवाही देते हैं और पूरी तरह से शैतान के बदसूरत चेहरे को बेनकाब करते हैं। कलीसिया का निर्माण मसीह में है, गौरवशाली शरीर का उदय हुआ है—यह स्‍वर्गारोहण में जीना है!

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 15

राज्य के प्रशिक्षण में प्रवेश करने का अर्थ है, परमेश्वर के लोगों के जीवन की शुरुआत—क्या तुम इस तरह का प्रशिक्षण स्वीकार करने के लिए तैयार हो? क्या तुम तात्कालिकता महसूस करने के लिए तैयार हो? क्या तुम परमेश्वर के अनुशासन में जीने के लिए तैयार हो? क्या तुम परमेश्वर की ताड़ना के तहत जीने के लिए तैयार हो? जब परमेश्वर के वचन तुम पर आएँगेऔर तुम्हारी परीक्षा लेंगे, तब तुम क्या करोगे? और जब सभी तरह के तथ्यों से तुम्हारा सामना होगा, तो तुम क्या करोगे? अतीत में तुम्हारा ध्यान जीवन पर केंद्रित नहीं था; आज तुम्हें जीवन की वास्तविकता में अवश्य प्रवेश करना चाहिए और अपने जीवन स्वभाव में बदलाव लाने की कोशिश करनी चाहिए। यही है जो राज्य के लोगों द्वारा हासिल किया जाना चाहिए। वो सभी जो परमेश्वर के लोग हैं, उनके पास जीवन होना चाहिए, उन्हें राज्य के प्रशिक्षण को स्वीकार करना चाहिए और अपने जीवन स्वभाव में परिवर्तन लाने की कोशिश करनीचाहिए। परमेश्वर राज्य के लोगों से यही अपेक्षा रखता है।

राज्य के लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाएँ अपेक्षाएं इस प्रकार हैं:

1. उन्हें परमेश्वर के आदेशों को अवश्य स्वीकार करना होगा। इसका अर्थ है, उन्हें आखिरी दिनों के परमेश्वर के कार्य के दौरान कहे गए सभी वचन स्वीकार करने होंगे।

2. उन्हें राज्य के प्रशिक्षण में अवश्य प्रवेश करना होगा।

3. उन्हें प्रयास करना होगा कि परमेश्वर उनके दिलों को स्पर्श करे। जब तुम्हारा दिल पूरी तरह से परमेश्वर उन्मुख होजाता है और तुम्हारा जीवन सामान्य रूप से आध्यात्मिक होता है, तो तुम स्वतंत्रता के क्षेत्र में रहोगे, जिसका अर्थ है कि तुम परमेश्वर के प्रेम की देख-रेख और उसकी सुरक्षा में जिओगे। जब तुम परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा में रहते हो, तभी तुम परमेश्वर के होते हो।

4. उन्हें परमेश्वर द्वारा प्राप्त होना होगा।

5. उन्हें पृथ्वी पर परमेश्वर की महिमा की अभिव्यक्ति बनना होगा।

ये पाँचबातें तुम सबके लिए मेरे आदेश हैं। मेरे वचन परमेश्वर के लोगों से कहे जाते हैं और यदि तुम इन आदेशों को स्वीकार करने के इच्छुकनहीं हो, तो मैं तुम्हें मजबूर नहींकरूँगा—लेकिन अगर तुम सचमुच उन्हें स्वीकार करते हो, तो तुम परमेश्वर की इच्छा पर चलने में सक्षम होंगे होगे। आज तुम सभी परमेश्वर के आदेश स्वीकार करना शुरू करो और राज्य के लोग बनने की कोशिश करो और राज्य के लोगों के लिए आवश्यक मानक हासिल करने का प्रयास करो। यह प्रवेश का पहला चरण है। यदि तुम पूरी तरह से परमेश्वर की इच्छा पर चलना चाहते हो, तो तुम्हें इन पाँचआदेशों को स्वीकार करना होगा और यदि तुम ऐसाकर पाने में सक्षम रहे, तो तुम परमेश्वर की इच्छा के मुताबिक होंगे और परमेश्वर निश्चित रूप से तुम्हारा महान उपयोग करेगा। आज जो अत्यंत महत्वपूर्ण है, वह हैराज्य के प्रशिक्षण में प्रवेश। राज्य के प्रशिक्षण में प्रवेश में आध्यात्मिक जीवन शामिल है। इससे पहले आध्यात्मिक जीवन की कोई बात नहीं होती थी लेकिन आज, जैसे ही तुम राज्य के प्रशिक्षण में प्रवेश करना शुरू करते हो, तुम आधिकारिक तौर पर आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करते हो।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर के सबसे नए कार्य को जानो और उसके पदचिह्नों का अनुसरण करो

अभी राज्य का युग है। तुमने इस नए युग में प्रवेश किया है या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुमने वास्तव में परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश किया है या नहीं और उसके वचन तुम्हारे जीवन की वास्तविकता बन चुके हैं या नहीं। परमेश्वर का वचन सभी को बताया गया है ताकि सभी लोग अंत में, वचन के संसार में जिएँ और परमेश्वर का वचन प्रत्येक व्यक्ति को भीतर से प्रबुद्ध और रोशन कर देगा। यदि इस दौरान, तुम परमेश्वर के वचन को पढ़ने में लापरवाह हो और उसके वचन में तुम्हारी रुचि नहीं है तो यह दर्शाता है कि तुम्हारी स्थिति में गड़बड़ी है। यदि तुम वचन के युग में प्रवेश करने में असमर्थ हो तो पवित्र आत्मा तुम में कार्य नहीं करता है; यदि तुम इस युग में प्रवेश कर चुके हो तो वह तुम में अपना काम करेगा। पवित्र आत्मा के कार्य को प्राप्त करने के लिए तुम वचन के युग की शुरुआत में क्या कर सकते हो? इस युग में, और तुम लोगों के बीच परमेश्वर इन तथ्यों को पूरा करेगा : कि प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर के वचन को जिएगा, सत्य को अभ्यास में लाएगा और ईमानदारीपूर्वक परमेश्वर से प्रेम करेगा; कि सभी लोग परमेश्वर के वचन को नींव के रूप में और अपनी वास्तविकता के रूप में ग्रहण करेंगे, उनके हृदय में परमेश्वर के प्रति आदर होगा; और परमेश्वर के वचन का अभ्यास करके लोग परमेश्वर के साथ मिलकर राजसी शक्तियों का उपयोग करेंगे। यही कार्य परमेश्वर को संपन्न करना है। क्या तुम परमेश्वर के वचन को पढ़े बिना रह सकते हो? ऐसे बहुत से लोग हैं जो महसूस करते हैं कि वे एक-दो दिन भी परमेश्वर के वचन को बिना पढ़े नहीं रह सकते। उन्हें परमेश्वर का वचन प्रतिदिन पढ़ना आवश्यक है, और यदि समय न मिले तो वचन को सुनना काफी है। यही अहसास पवित्र आत्मा मनुष्य को प्रदान करता है, और इसी प्रकार वह मनुष्य को प्रेरित करना शुरू करता है। अर्थात पवित्र आत्मा वचन के द्वारा मनुष्य को नियंत्रित करता है ताकि वे परमेश्वर के वचन की वास्तविकता में प्रवेश कर सकें। यदि परमेश्वर के वचन को केवल एक दिन भी बिना खाए-पिए तुम्हें अंधकार और प्यास का अनुभव हो, तुम्हें यह असह्य लगता हो, तब ये बातें दर्शाती हैं कि पवित्र आत्मा तुम्हें प्रेरित कर रहा है और वह तुमसे विमुख नहीं हुआ है। तब तुम इस धारा में हो। किंतु यदि परमेश्वर के वचन को खाए-पिए बिना एक या दो दिन के बाद, तुम्हें कोई अंतर महसूस न हो या तुम्हें प्यास महसूस न हो, तुम थोड़ा भी विचलित महसूस न करो तो यह दर्शाता है कि पवित्र आत्मा तुमसे विमुख हो चुका है। इसका अर्थ है कि तुम्हारी भीतरी दशा सही नहीं है; तुमने वचन के युग में प्रवेश नहीं किया है और तुम उन लोगों में से हो जो पीछे छूट गए हैं। परमेश्वर मनुष्यों को नियंत्रित करने के लिए वचन का उपयोग करता है; तुम जब वचन को खाते-पीते हो तो तुम्हें अच्छा महसूस होता है, यदि अच्छा महसूस नहीं होता है, तब तुम्हारे पास कोई मार्ग नहीं है। परमेश्वर का वचन मनुष्यों का भोजन और उन्हें संचालित करने वाली शक्ति बन जाता है। बाइबल में लिखा है, "मनुष्य केवल रोटी ही से नहीं, परन्तु हर एक वचन से जो परमेश्‍वर के मुख से निकलता है, जीवित रहेगा।" यही वह कार्य है जो परमेश्वर आज संपन्न करेगा। वह तुम लोगों को इस सत्य का अनुभव कराएगा। ऐसा कैसे होता था कि प्राचीन समय में लोग परमेश्वर का वचन बिना पढ़े बहुत दिन रहते थे, पर खाते-पीते और काम करते थे? अब ऐसा क्यों नहीं होता? इस युग में परमेश्वर सब मनुष्यों को नियंत्रित करने के लिए मुख्य रूप से वचन का उपयोग करता है। परमेश्वर के वचन के द्वारा मनुष्य का न्याय किया जाता है, उन्हें पूर्ण बनाया जाता है और तब अंत में राज्य में ले जाया जाता है। केवल परमेश्वर का वचन मनुष्य को जीवन दे सकता है, केवल परमेश्वर का वचन ही मनुष्य को ज्योति और अभ्यास का मार्ग दे सकता है, विशेषकर राज्य के युग में। यदि तुम परमेश्वर के वचन को खाते-पीते हो और परमेश्वर के वचन की वास्तविकता को नहीं छोड़ते तो परमेश्वर तुम्हें पूर्ण बनाने का कार्य कर पाएगा।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, राज्य का युग वचन का युग है

अब, परमेश्वर में आस्था ने परमेश्वर के वचन के युग में प्रवेश कर लिया है। तुलनात्मक रूप से कहा जाए तो, लोग आज उतनी प्रार्थना नहीं करते जितनी पहले कभी किया करते थे; परमेश्वर के वचनों ने स्पष्ट रूप से सत्य के हर पहलू और अभ्यास के हर तरीके को साफ तौर पर बता दिया है, इसलिए अब लोगों को खोजने या अंधेरे में भटकने की आवश्यकता नहीं है। राज्य के युग के जीवन में, परमेश्वर के वचन लोगों को आगे का मार्ग दिखाते हैं। यह एक ऐसा जीवन है जिसमें लोगों को समझने के लिए हर बात को स्पष्ट कर दिया गया है—क्योंकि परमेश्वर ने हर बात का साफ तौर पर प्रदर्शित कर दिया है, और इंसान को टटोलते हुए जीवन में बढ़ने के लिए छोड़ नहीं दिया है। फिर चाहे विवाह, सांसारिक मामले, जीवन, आहार, कपड़े, आश्रय, पारस्परिक संबंध, हों या फिर यह कि परमेश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए किस प्रकार से सेवा की जाए, देह-सुख का त्याग कैसे किया जाए वगैरह। ऐसी कौन-सी बात है जिसे परमेश्वर ने तुम लोगों के सामने स्पष्ट न किया हो? क्या अभी भी प्रार्थना और खोज करने की आवश्यकता है? वाकई कोई आवश्यकता नहीं है! लेकिन अगर तुम अभी भी ये काम करते हो, तो तुम निरर्थक कार्य कर रहे हो। यह अज्ञानता और मूर्खता है और एकदम अनावश्यक है! ... परमेश्वर के वचन शीशे की तरह साफ हैं, विशेषकर वे वचन जो उसकी इच्छा, उसके स्वभाव और इस बारे में व्यक्त किए गए हैं कि वह अलग-अलग प्रकार के लोगों के साथ किस तरह व्यवहार करता है। अगर तुम सत्य नहीं समझते हो, तो तुम्हें परमेश्वर के और अधिक वचन पढ़ने चाहिए—ऐसा करने के परिणाम आँखें मूँदकर प्रार्थना और खोज करने से कहीं बेहतर होते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहाँ प्रार्थना और खोज करने के स्थान पर परमेश्वर के वचनों को और अधिक पढ़ा जाना चाहिए और सत्य पर संवाद किया जाना चाहिए। अपनी नियमित प्रार्थना में, तुम्हें परमेश्वर के वचनों पर चिंतन और उनमें अपने आपको जानने का प्रयास करना चाहिए। यह जीवन में तुम्हारी प्रगति के लिए अधिक लाभदायक है। अब, अगर तुम अभी भी स्वर्ग की ओर अपनी आँखें उठाकर खोजते हो, तो क्या इससे यह ज़ाहिर नहीं होता कि तुम अभी भी अज्ञात परमेश्वर में विश्वास रखते हो? पहले, तुमने अपनी प्रार्थना और खोज करने के परिणाम देख लिए और पवित्र आत्मा ने तुम्हारी आत्मा को थोड़ा-बहुत प्रेरित किया क्योंकि वह अनुग्रह के युग का समय था। तुम परमेश्वर को नहीं देख पाए, इसलिए तुम्हारे पास अपने रास्ते को महसूस करके आगे बढ़ने और इस तरह खोजने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। अब परमेश्वर लोगों के बीच आ चुका है, वचन देह में प्रकट हो चुका है और तुम परमेश्वर को देख चुके हो; इस तरह पवित्र आत्मा पहले की तरह कार्य नहीं करता। युग बदल चुका है और पवित्र आत्मा का कार्य करने का तरीका भी बदल चुका है। हालाँकि लोग शायद अब पहले जितनी प्रार्थना न करें, क्योंकि परमेश्वर धरती पर है, इंसान के पास परमेश्वर से प्रेम करने का अवसर है। इंसान परमेश्वर से प्रेम करने के युग में प्रवेश कर चुका है और वह सही ढंग से स्वयं में परमेश्वर से निकटता प्राप्त कर सकता है : "हे परमेश्वर! तू सचमुच बहुत अच्छा है और मैं तुझसे प्रेम करना चाहता हूँ!" बस केवल कुछ स्पष्ट और सरल शब्द लोगों के दिलों में परमेश्वर के लिए प्रेम को वाणी देते हैं; यह प्रार्थना इंसान और परमेश्वर के बीच प्रेम को और अधिक गहरा करने के लिए की जाती है। हो सकता है कई बार तुम स्वयं को कुछ विद्रोहशीलता का इज़हार करते हुए देखो और कहो : "हे परमेश्वर! मैं इतना भ्रष्ट क्यों हूँ?" कई बार तुम्हारी प्रबल इच्छा होती है कि तुम स्वयं को मारो और तुम्हारी आँखों से आँसू बहने लगते हैं। ऐसे समय में, तुम्हें दिल में पछतावा और बेचैनी महसूस होती है, लेकिन इन भावनाओं को व्यक्त करने के लिए तुम्हारे पास कोई तरीका नहीं होता। यह पवित्र आत्मा का वर्तमान कार्य है, लेकिन जीवन का अनुसरण करने वाले ही इसे प्राप्त कर सकते हैं। तुम्हें महसूस होता है कि परमेश्वर को तुमसे बहुत अधिक प्रेम है और तुम्हारे अंदर एक विशेष प्रकार की भावना होती है। भले ही तुम्हारे पास स्पष्ट तौर पर प्रार्थना करने के लिए शब्द नहीं होते, लेकिन तुम्हें हमेशा लगता है कि परमेश्वर का प्रेम महासागर जितना गहरा है। इस अवस्था में होने की अनुभूति को व्यक्त करने के लिए कोई उपयुक्त शब्द नहीं हैं, और यह एक ऐसी अवस्था है जो आत्मा के अंदर अक्सर पैदा होती है। इस प्रकार की प्रार्थना और सहभागिता जिसका लक्ष्य इंसान को उसके दिल में परमेश्वर के करीब लाना है, सामान्य और सही है।

भले ही जब लोगों को टटोलकर ढूँढना पड़ता था, वो अब बीते ज़माने की बात हो चुकी है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उन्हें अब और प्रार्थना करने और खोजने की ज़रूरत नहीं है, न ही बात यह है कि लोगों को कार्य करने से पूर्व परमेश्वर की इच्छा के प्रकट होने का इंतज़ार करने की ज़रूरत नहीं है; ये सिर्फ इंसान की भ्रांत धारणाएँ हैं। परमेश्वर इंसानों के बीच रहने, उनकी रोशनी, उनका जीवन और उनका मार्ग बनने के लिए आया है : यह एक तथ्य है। बेशक, परमेश्वर धरती पर अपने आगमन में, यकीनन इंसान के लिए व्यवहारिक मार्ग और जीवन लाया है जो इंसान के आनंद की खातिर उसके आध्यात्मिक कद के उपयुक्त है—वह इंसान के अभ्यास के सारे मार्गों को तोड़ने के लिए नहीं आया है। इंसान अब भटकते और खोजते हुए नहीं जीता क्योंकि इन चीज़ों का स्थान कार्य करने और अपने वचन बोलने के लिए धरती पर परमेश्वर के आगमन ने ले लिया है। वह इंसान को उस अंधेरे और गुमनामी के जीवन से मुक्त कराने के लिए आया है जो वह जी रहा है ताकि इंसान रोशनी से भरा जीवन जी पाए। वर्तमान कार्य चीज़ों की ओर स्पष्ट संकेत करने, साफ तौर पर बोलने, प्रत्यक्ष रूप से जानकारी देने और चीज़ों को स्पष्टत: परिभाषित करने के लिए है ताकि लोग इन बातों को अमल में ला सकें, जैसे यहोवा परमेश्वर ने इस्राएल के लोगों को यह कहते हुए राह दिखायी थी कि किस प्रकार बलि अर्पित करें और मंदिर का निर्माण करें। इसलिए, तुम लोगों को ईमानदारी से खोज करने का ऐसा जीवन जीने की आवश्यकता नहीं है जैसा प्रभु यीशु के जाने के बाद तुमने जिया था। क्या तुम्हें भविष्य में सुसमाचार के प्रचार-प्रसार के कार्य के दौरान अपने मार्ग को ढूँढ़ना चाहिए? क्या तुम लोगों को जीने की खातिर अनाड़ीपन से उपयुक्त मार्ग की तलाश का प्रयास करना चाहिए? क्या तुम लोगों को अपना कर्तव्य निभाने की समझ हासिल करने के लिए अनिवार्यत: अंधेरे में भटकना चाहिए? यह जानने के लिए कि गवाही कैसे दी जाए, क्या यह आवश्यक है कि तुम लोग दंडवत करो, खोजो? यह जानने के लिए कि तुम लोगों को कपड़े कैसे पहनने चाहिए या कैसे जीना चाहिए, क्या यह आवश्यक है कि तुम लोग उपवास और प्रार्थना करो? यह जानने के लिए कि तुम लोगों को परमेश्वर द्वारा जीते जाने को कैसे स्वीकार करना चाहिए, क्या यह आवश्यक है कि तुम लोगों को स्वर्ग के परमेश्वर से निरंतर प्रार्थना करनी चाहिए? यह जानने के लिए कि तुम लोगों को परमेश्वर का आज्ञापालन कैसे करना चाहिए, क्या यह आवश्यक है कि तुम लोग लगातार दिन-रात प्रार्थना करो? तुम लोगों में से ऐसे बहुत से लोग हैं जो यह कहते हैं कि वे अभ्यास नहीं कर सकते क्योंकि उन्हें समझ नहीं है। लोग आज के समय में परमेश्वर के कार्य पर ध्यान नहीं दे रहे! मैं पहले बहुत सारे वचन बोल चुका हूँ, लेकिन तुम लोगों ने उन्हें पढ़ने पर ज़रा भी ध्यान नहीं दिया, इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि तुम लोगों को पता ही नहीं कि अभ्यास कैसे करना है। बेशक, आज के युग में पवित्र आत्मा अभी लोगों को प्रेरित करता है कि वे आनंदित महसूस करें और वह इंसान के साथ रहता है। तुम्हारे जीवन में अक्सर होने वाली उन[क] विशेष, आनंददायक भावनाओं का स्रोत यही है। कभी-कभार कोई दिन आता है जब तुम्हें महसूस होता है कि परमेश्वर बहुत ही मनोहर है और तुम अपने आपको उसकी प्रार्थना करने से रोक नहीं पाते : "हे परमेश्वर! तेरा प्रेम बहुत ही सुंदर और तेरी छवि बहुत ही महान है। मैं चाहता हूँ कि मैं तुझे और गहराई से प्रेम करूँ। मैं अपने समग्र जीवन को खपा देने के लिए स्वयं को पूर्णत: अर्पित कर देना चाहता हूँ। अगर यह तेरे लिए है, अगर मैं तुझे प्रेम कर पाऊँ, तो मैं अपना सर्वस्व तुझे समर्पित कर दूँगा...।" यह सुख की एक भावना है जो तुम्हें पवित्र आत्मा ने दी है। यह न तो प्रबोधन है, न ही प्रकाशन है; यह प्रेरित होने का अनुभव है। कभी न कभी इस तरह के अनुभव होते रहेंगे : कभी-कभी जब तुम काम पर जा रहे होते हो, तो तुम परमेश्वर से प्रार्थना करते हो और उसके करीब आ जाते हो, और तुम इस हद तक प्रेरित हो जाते हो कि तुम्हारी आँखों में आँसू आ जाते हैं, अपने आप पर तुम्हारा नियंत्रण नहीं रहता और तुम एक ऐसे उपयुक्त स्थान की तलाश के लिए बेचैन हो जाते हो जहाँ तुम अपने दिल की तीव्र भावनाओं को व्यक्त कर सको...। कभी-कभी ऐसा भी हो सकता है कि तुम किसी सार्वजनिक स्थान पर हो और महसूस करो कि तुम्हें परमेश्वर का प्रेम बहुत अधिक मिलता है, तुम्हें लगे कि तुम्हारी स्थिति मामूली नहीं है, यहाँ तक कि तुम दूसरों से अधिक सार्थक जीवन जी रहे हो। तुम्हें गहराई से महसूस होगा कि परमेश्वर ने तुम्हारा उत्कर्ष किया है और यह तुम्हारे लिए परमेश्वर का महान प्रेम है। अपने दिल के किसी गहनतम कोने में तुम्हें महसूस होगा कि परमेश्वर के अंदर इस प्रकार का प्रेम है जिसे व्यक्त नहीं किया जा सकता और जिसकी थाह नहीं पायी जा सकती, मानो तुम जानते तो हो मगर तुम उसका वर्णन नहीं कर सकते, यह तुम्हें सोचने के लिए हमेशा एक विराम देता है लेकिन तुम बिल्कुल भी व्यक्त नहीं कर पाते हो। कभी-कभी ऐसे समय में, तुम यह भी भूल जाओगे कि तुम कहाँ हो और पुकार उठोगे : "हे परमेश्वर! तू कितना अथाह और मनोहर है!" इससे लोग उलझन में पड़ जाएंगे, लेकिन ये तमाम चीज़ें अक्सर होती हैं। तुमने ऐसी बातों का अनुभव किया है। आज पवित्र आत्मा ने तुम्हें यह जीवन प्रदान किया है और अब तुम्हें यही जीवन जीना चाहिए। यह तुम्हें जीवन जीने से रोकने के लिए नहीं है, बल्कि जिस तरह का जीवन तुमने जिया है उसे बदलने के लिए है। इस तरह की भावना का न तो वर्णन किया जा सकता है, न ही उसे व्यक्त किया जा सकता है। यह इंसान की सच्ची भावना भी है, यहाँ तक कि यह पवित्र आत्मा का कार्य है। तुम इस बात को अपने दिल में तो समझ सकते हो लेकिन किसी दूसरे के सामने इसे साफ तौर पर व्यक्त करने का तुम्हारे पास कोई भी तरीका नहीं है। इसकी वजह यह नहीं है कि तुम धीमा बोलते हो या तुम हकलाते हो, बल्कि यह है कि इस तरह की भावना को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। आज तुम इन चीज़ों का आनंद ले सकते हो और तुम्हें इसी तरह का जीवन जीना चाहिए। बेशक, तुम्हारे जीवन के अन्य पहलू भी खाली नहीं हैं; बात केवल इतनी-सी है कि प्रेरित होने का यह अनुभव तुम्हारे जीवन में एक प्रकार का आनंद बन जाता है जो हमेशा तुम्हारे अंदर इच्छा पैदा करता है कि तुम पवित्र आत्मा के इन अनुभवों का आनंद लो। लेकिन तुम्हें पता होना चाहिए कि इस तरह से प्रेरित होना इसलिए नहीं है कि तुम देह से परे तीसरे स्वर्ग में चले जाओ या पूरी दुनिया में भ्रमण करो। बल्कि इसलिए है कि तुम परमेश्वर के उस प्रेम को महसूस और अनुभव कर सकोजिसका आज तुम आनंद ले रहे हो, परमेश्वर के आज के कार्य के महत्व का अनुभव कर सको, और परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा से स्वयं को फिर से परिचित करा सको। ये सारी चीज़ें इसलिए हैं ताकि परमेश्वर आज जो कार्य कर रहा है, तुम उसका और अधिक ज्ञान अर्जित कर सको—इस कार्य को करने का परमेश्वर का यही लक्ष्य है।

परमेश्वर के देहधारण से पहले खोजना और टटोलना ही जीवन का तरीका था। उस समय लोग परमेश्वर को देख नहीं पाते थे और इसलिए उनके पास खोजने और टटोलने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। आज तुमने परमेश्वर को देख लिया है और वह सीधे तुमसे कहता है कि किस तरह तुम्हें अभ्यास करना चाहिए; इसलिए तुम्हें टटोलने और खोजने की आवश्यकता नहीं है। वह इंसान को जिस मार्ग पर ले जाता है वह सत्य का मार्ग है, वह इंसान को जो बातें बताता है और इंसान जिन बातों को ग्रहण करता है वह जीवन और सत्य है। तुम्हारे पास मार्ग, जीवन और सत्य है, तो हर जगह पर खोजने की क्या आवश्यकता है? पवित्र आत्मा दो चरणों का कार्य एक-साथ नहीं करेगा। मेरे वचन बोलना बंद कर देने के बाद, अगर लोग परमेश्वर के वचनों को ध्यान से खाते-पीते नहीं हैं और सही ढंग से सत्य का पालन नहीं करते हैं, वे अभी भी अनुग्रह के युग की तरह ही काम करते हैं, अंधों की तरह टटोलते हैं, निरंतर प्रार्थना करते और खोजते हैं, तो क्या इसका अर्थ यह नहीं होगा कि इस चरण का मेरा कार्य—वचनों का कार्य—व्यर्थ में किया जा रहा है? हालाँकि मेरा बोलना समाप्त हो चुका है, लेकिन लोग अभी भी पूरी तरह समझे नहीं हैं, क्योंकि उनमें क्षमता की कमी है। इस समस्या का समाधान कलीसियाई जीवन जीने और एक-दूसरे से संवाद करके किया जा सकता है। पहले, अनुग्रह के युग में, हालाँकि परमेश्वर ने देहधारण किया था, लेकिन उसने वचनों का कार्य नहीं किया था, इसलिए उस समय पवित्र आत्मा ने कार्य को बनाए रखने के लिए उस तरह से काम किया था। उस समय मुख्यत: पवित्र आत्मा ने कार्य किया था, लेकिन अब देहधारी परमेश्वर स्वयं इसे कर रहा है, उसने पवित्र आत्मा के कार्य का स्थान ले लिया है। पहले, जब तक लोग प्रार्थना करते रहते थे, वे शांति और आनंद का अनुभव करते थे; उस समय फटकार और अनुशासन था। यह सब पवित्र आत्मा का कार्य था। अब ये स्थितियाँ कभी-कभार ही उत्पन्न होती हैं। पवित्र आत्मा किसी भी युग में एक ही प्रकार का कार्य कर सकता है। अगर वह एक-साथ दो प्रकार के कार्य करता, लोगों में देह एक प्रकार का कार्य करता और पवित्र आत्मा दूसरे प्रकार का, और अगर जो देह करता उसका महत्व न होता और केवल जो आत्मा करता उसी का महत्व होता, तो मसीह के पास कोई अर्थपूर्ण सत्य, मार्ग या जीवन न होता। यह अंतर्विरोध होता। क्या पवित्र आत्मा ऐसे कार्य कर सकता है? परमेश्वर सर्वशक्तिमान, सबसे बुद्धिमान, पवित्र और धर्मी है, और वह बिलकुल भी गलतियाँ नहीं करता।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अभ्यास (1)

यीशु में विश्वास करने के समय लोगों ने ऐसा बहुत कुछ किया जो परमेश्वर को नापसंद था क्योंकि उन्होंने सत्य को नहीं समझा, फिर भी परमेश्वर में दया और प्रेम है, और वह मनुष्य को यहाँ तक ले आया है, और यद्यपि मनुष्य कुछ नहीं समझता, फिर भी परमेश्वर मनुष्य को अनुमति देता है कि वह उसका अनुसरण करे, और इससे बढ़कर वह मनुष्य को वर्तमान समय तक ले आया है। क्या यह परमेश्वर का प्रेम नहीं है? जो परमेश्वर के स्वभाव में प्रकट है वह परमेश्वर का प्रेम है—यह बिलकुल सही है! जब कलीसिया का निर्माण अपने चरम पर पहुँच गया तो परमेश्वर ने सेवाकर्ताओं के कार्य का चरण किया और मनुष्य को अथाह कुण्ड में डाल दिया। सेवाकर्ताओं के समय के सभी वचन शाप थे: तुम्हारी देह के शाप, तुम्हारे भ्रष्ट शैतानी स्वभाव के शाप, और तुमसे जुड़ी उन चीजों के शाप जो परमेश्वर की इच्छा को पूरा नहीं करतीं। उस कदम पर परमेश्वर के द्वारा किया गया कार्य भव्य रूप में प्रकट हुआ, जिसके ठीक बाद परमेश्वर ने ताड़ना के कार्य का कदम उठाया, और उसके बाद मृत्यु का परीक्षण आया। ऐसे कार्य में, मनुष्य ने परमेश्वर के क्रोध, भव्यता, न्याय, और ताड़ना को देखा, परंतु साथ ही उसने परमेश्वर के अनुग्रह, उसके प्रेम और दया को भी देखा; जो कुछ भी परमेश्वर ने किया, और वह सब जो उसके स्वभाव के रूप में प्रकट हुआ, वह मनुष्य के प्रति उसका प्रेम था, और जो कुछ परमेश्वर ने किया वह मनुष्य की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त था। उसने ऐसा मनुष्य को पूर्ण बनाने के लिए किया, और उसने मनुष्य के आध्यात्मिक कद के अनुसार उसकी जरूरतें पूरी कीं। यदि परमेश्वर ने ऐसा नहीं किया होता तो मनुष्य परमेश्वर के समक्ष आने में असमर्थ होता, और परमेश्वर के सच्चेचेहरे को देखने का उसके पास कोई तरीका नहीं होता। जब से मनुष्य ने पहली बार परमेश्वर पर विश्वास करना आरंभ किया, तब से आज तक परमेश्वर ने मनुष्य के आध्यात्मिक कद के अनुसार धीरे-धीरे उसकी जरूरतें पूरी की हैं, जिससे मनुष्य आंतरिक रूप से धीरे-धीरे उसको जान गया है। वर्तमान समय तक पहुँचने पर ही मनुष्य अनुभव करता है कि परमेश्वर का न्याय कितना अद्भुत है। सृष्टि के समय से लेकर आज तक, सेवाकर्ताओं के कार्य का कदम, शाप के कार्य की पहली घटना थी। मनुष्य को अथाह कुण्ड में भेजकर शापित किया गया था। यदि परमेश्वर ने ऐसा नहीं किया होता, तो आज मनुष्य के पास परमेश्वर का सच्चा ज्ञान नहीं होता; यह केवल शाप के द्वारा ही था कि मनुष्य आधिकारिक रूप से परमेश्वर के स्वभाव को देख पाया। सेवाकर्ताओं के परीक्षण के माध्यम से मनुष्य को उजागर किया गया। उसने देखा कि उसकी वफ़ादारी स्वीकार्य नहीं थी, उसका आध्यात्मिक कद बहुत छोटा था, वह परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने में असमर्थ था, और हर समय परमेश्वर को संतुष्ट करने के उसके दावे शब्दों से बढ़कर कुछ नहीं थे। यद्यपि सेवाकर्ताओं के कार्य के कदम में परमेश्वर ने मनुष्य को शापित किया, फिर भी अब पीछे मुड़कर देखें तो परमेश्वर के कार्य का वह कदम अद्भुत था: यह मनुष्य के लिए एक बड़ा निर्णायक मोड़ और उसके जीवन स्वभाव में बड़ा बदलाव लेकर आया। सेवाकर्ताओं के समय से पहले मनुष्य जीवन के अनुसरण, परमेश्वर में विश्वास करने के अर्थ, या परमेश्वर के कार्य की बुद्धि के बारे में कुछ नहीं समझता था, और न ही उसने यह समझा कि परमेश्वर का कार्य मनुष्य को परख सकता है। सेवाकर्ताओं के समय से लेकर आज तक, मनुष्य देखता है कि परमेश्वर का कार्य कितना अद्भुत है—यह मनुष्य के लिए अथाह है। अपने दिमाग में वह यह कल्पना करने में असमर्थ है कि परमेश्वर कैसे कार्य करता है, और वह यह भी देखता है कि उसका आध्यात्मिक कद कितना छोटा है और वह बहुत हद तक अवज्ञाकारी है। जब परमेश्वर ने मनुष्य को शापित किया, तो वह एक प्रभाव को प्राप्त करने के लिए था, और उसने मनुष्य को मार नहीं डाला। यद्यपि उसने मनुष्य को शापित किया, उसने ऐसा वचनों के द्वारा किया, और उसके शाप वास्तव में मनुष्य पर नहीं पड़े, क्योंकि जिसे परमेश्वर ने शापित किया वह मनुष्य की अवज्ञा थी, इसलिए उसके शापों के वचन भी मनुष्य को पूर्ण बनाने के लिए थे। चाहे परमेश्वर मनुष्य का न्याय करे या उसे शाप दे, ये दोनों ही मनुष्य को पूर्ण बनाते हैं : दोनों का उपयोग मनुष्य के भीतर की विकृतियों के परिष्कार के लिए किया जाता है। इस माध्यम से मनुष्य का शोधन किया जाता है, और मनुष्य में जिस चीज़ की कमी होती है उसे परमेश्वर के वचनों और कार्य के द्वारा पूर्ण किया जाता है। परमेश्वर के कार्य का प्रत्येक कदम—चाहे यह कठोर शब्द हों, न्याय हो या ताड़ना हो—मनुष्य को पूर्ण बनाता है और बिलकुल उचित होता है। युगों-युगों में कभी परमेश्वर ने ऐसा कार्य नहीं किया है; आज वह तुम लोगों के भीतर कार्य करता है ताकि तुम उसकी बुद्धि को सराहो। यद्यपि तुम लोगों ने अपने भीतर कुछ कष्ट सहा है, फिर भी तुम्हारे हृदय स्थिर और शांत महसूस करते हैं; यह तुम्हारे लिए आशीष है कि तुम परमेश्वर के कार्य के इस चरण का आनंद ले सकते हो। इस बात की परवाह किए बिना कि तुम भविष्य में क्या प्राप्त कर सकते हो, आज अपने भीतर परमेश्वर के जिस कार्य को तुम देखते हो, वह प्रेम है। यदि मनुष्य परमेश्वर के न्याय और उसके शोधन का अनुभव नहीं करता, तो उसके कार्यकलाप और उसका उत्साह सदैव सतही रहेंगे, और उसका स्वभाव सदैव अपरिवर्तित रहेगा। क्या इसे परमेश्वर द्वारा प्राप्त किया गया माना जा सकता है? यद्यपि आज भी मनुष्य के भीतर बहुत कुछ है जो काफी अहंकारी और दंभी है, फिर भी मनुष्य का स्वभाव पहले की तुलना में बहुत ज्यादा स्थिर है। तुम्हारे प्रति परमेश्वर का व्यवहार तुम्हें बचाने के लिए है, और हो सकता है कि यद्यपि तुम इस समय कुछ पीड़ा महसूस करो, फिर भी एक ऐसा दिन आएगा जब तुम्हारे स्वभाव में बदलाव आएगा। उस समय, तुम पीछे मुड़कर देखने पर पाओगे कि परमेश्वर का कार्य कितना बुद्धिमत्तापूर्ण है और उस समय तुम परमेश्वर की इच्छा को सही मायने में समझ पाओगे।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पीड़ादायक परीक्षणों के अनुभव से ही तुम परमेश्वर की मनोहरता को जान सकते हो

मनुष्य यदि परमेश्वर के लिए कष्ट सहने योग्य है और यहाँ तक आ पाया है, तो यह एक ओर परमेश्वर के प्रेम के कारण है, दूसरी ओर परमेश्वर के उद्धार के कारण; इससे बढ़कर, यह न्याय और ताड़ना के कार्य के कारण है जो परमेश्वर ने मनुष्य में कार्यान्वित किए हैं। यदि तुम लोग परमेश्वर के न्याय, ताड़ना और परीक्षण से रहित हो, और यदि परमेश्वर ने तुम्हें कष्ट नहीं दिया है, तो सच यह है कि तुम लोग परमेश्वर से सच में प्रेम नहीं करते। मनुष्य में परमेश्वर का काम जितना बड़ा होता है, और जितने अधिक मनुष्य के कष्ट होते हैं, उतना ही अधिक यह स्पष्ट होता है कि परमेश्वर का कार्य कितना अर्थपूर्ण है और उतना ही अधिक उस मनुष्य का हृदय परमेश्वर से सच्चा प्रेम कर पाता है। तुम परमेश्वर से प्रेम करना कैसे सीखते हो? यातना और शोधन के बिना, पीड़ादायक परीक्षणों के बिना―और इसके अलावा यदि परमेश्वर ने मनुष्य को अनुग्रह, प्रेम और दया ही प्रदान की होती―तो क्या तुम परमेश्वर को सच्चा प्रेम कर पाते? एक ओर, परमेश्वर की ओर से आने वाली परीक्षाओं के दौरान मनुष्य अपनी कमियों को जान पाता है और देख पाता है कि वह महत्वहीन, घृणित, और निकृष्ट है, और उसके पास कुछ नहीं है, और वह कुछ नहीं है; दूसरी ओर, उसके परीक्षणों के दौरान परमेश्वर मनुष्य के लिए भिन्न वातावरणों की रचना करता है जो मनुष्य को परमेश्वर की मनोहरता का अनुभव करने के अधिक योग्य बनाता है। यद्यपि पीड़ा अधिक होती है और कभी-कभी तो असहनीय हो जाती है—मिटा कर रख देने वाले कष्ट तक भी पहुँच जाती है—परंतु इसका अनुभव करने के बाद मनुष्य देखता है कि उसमें परमेश्वर का कार्य कितना मनोहर है, और केवल इसी नींव पर मनुष्य में परमेश्वर के प्रति सच्चे प्रेम का जन्म होता है। आज मनुष्य देखता है कि परमेश्वर के अनुग्रह, प्रेम और उसकी दया मात्र से वह स्वयं को सही मायने में जान सकने में असमर्थ है, और वह मनुष्य के सार को तो जान ही नहीं सकता है। केवल परमेश्वर के शोधन और न्याय के द्वारा, और शोधन की प्रक्रिया के दौरान ही व्यक्ति अपनी कमियों को और इस बात को जान सकता है कि उसके पास कुछ भी नहीं है। इस प्रकार, मनुष्य का परमेश्वर के प्रति प्रेम परमेश्वर की ओर से आने वाले शोधन और न्याय की नींव पर आधारित होता है। शांतिमय पारिवारिक जीवन या भौतिक आशीषों के साथ, यदि तुम केवल परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लेते हो, तो तुमने परमेश्वर को प्राप्त नहीं किया है, और परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास को सफल नहीं माना जा सकता। परमेश्वर ने अनुग्रह के कार्य के एक चरण को देह में पहले ही पूरा कर लिया है, और मनुष्य को भौतिक आशीषें पहले ही प्रदान कर दी हैं—परंतु मनुष्य को केवल अनुग्रह, प्रेम और दया के साथ पूर्ण नहीं बनाया जा सकता। मनुष्य अपने अनुभवों में परमेश्वर के कुछ प्रेम का अनुभव करता है, और परमेश्वर के प्रेम और उसकी दया को देखता है, फिर भी कुछ समय तक इसका अनुभव करने के बाद वह देखता है कि परमेश्वर का अनुग्रह, उसका प्रेम और उसकी दया मनुष्य को पूर्ण बनाने में असमर्थ हैं, और मनुष्य के भीतर के भ्रष्ट तत्वों को प्रकट करने में भी असमर्थ हैं, और न ही वे मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव से उसे आज़ाद कर सकते हैं, न उसके प्रेम और विश्वास को पूर्ण बना सकते हैं। परमेश्वर का अनुग्रह का कार्य एक अवधि का कार्य था, और मनुष्य परमेश्वर को जानने के लिए उसके अनुग्रह का आनंद उठाने पर निर्भर नहीं रह सकता।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पीड़ादायक परीक्षणों के अनुभव से ही तुम परमेश्वर की मनोहरता को जान सकते हो

फुटनोट :

क. मूल पाठ में "ये कुछ हैं" लिखा है।

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