पौलुस ने 2 तिमुथियस में यह बात बिलकुल साफ़ कर दी है कि "सम्पूर्ण पवित्रशास्त्र परमेश्वर की प्रेरणा से रचा गया है और उपदेश" (तीमुथियुस 3:16)। इसका मतलब है कि बाइबल का प्रत्येक वचन परमेश्वर का वचन है, और यह कि बाइबल प्रभु का प्रतिनिधित्व करती है। प्रभु में विश्वास करना बाइबल में विश्वास करना है। बाइबल में विश्वास करना प्रभु में विश्वास करना है। बाइबल से दूर जाने का मतलब है प्रभु में विश्वास नहीं करना! प्रभु में हमारा विश्वास केवल हमसे बाइबल पर अवलंबित रहने की मांग करता है। भले ही हम अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य को स्वीकार नहीं करते हैं, हमें तब भी मुक्ति मिलेगी और हम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करेंगे! क्या इस समझ में कुछ गलत है?
उत्तर: धार्मिक जगत का ज्यादातर हिस्सा पौलुस के इन शब्दों पर भरोसा करता है कि "सारा धर्मशास्त्र परमेश्वर की प्रेरणा से दिया गया है" जिससे यह निर्धारित होता है कि बाइबल की हर बात परमेश्वर का वचन है, और यह कि जब तक हम बाइबल पर अवलंबित रहते हैं, हमें स्वर्ग के राज्य में ले जाया जाएगा। ख़ास तौर पर अंत के दिनों में, प्रभु के ज्यादातर विश्वासी अभी भी इसमें विश्वास करते हैं। मगर क्या यह नज़रिया सच्चाई और तथ्यों के अनुरूप है? क्या प्रभु यीशु ने कभी ऐसा कहा "सभी धर्मशास्त्र परमेश्वर की प्रेरणा से दिए गए हैं"? क्या पवित्र आत्मा ने कभी इसकी गवाही दी? सही बात है! उन्होंने ऐसा नहीं किया। ऐसा पौलुस ने कहा था। कई विश्वासी पौलुस के इन शब्दों को अपने इस विश्वास का आधार बनाते हैं कि बाइबल का प्रत्येक वचन परमेश्वर से प्रेरित है और परमेश्वर का वचन है। क्या यह एक बहुत बड़ी गलती नहीं है? कुछ लोगों का ऐसा भी मानना है कि मनुष्य द्वारा बोले जाने के बावजूद, यह परमेश्वर का वचन है जब तक यह बाइबल में दर्ज है। क्या इस तरह का नज़रिया बहुत भ्रामक और बेतुका नहीं है? प्रभु में विश्वास करने वाले सभी लोगों को यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि बाइबल सिर्फ परमेश्वर की एक गवाही है और परमेश्वर के कार्य का एक दस्तावेजी रिकॉर्ड है। बाइबल की रचना परमेश्वर द्वारा मनुष्य के उद्धार कार्य पर आधारित थी। परमेश्वर के कार्य का प्रत्येक चरण परमेश्वर और शैतान की बुरी शक्तियों के बीच की लड़ाई से भरा हुआ है, यही वजह है कि परमेश्वर का वचन बाइबल में दर्ज की गयी एकमात्र चीज नहीं है, क्योंकि विभिन्न लोगों और यहाँ तक कि शैतान के शब्द भी इसमें शामिल हैं। यह एक स्पष्ट तथ्य है। क्या यह कहना एक उचित तर्क है कि बाइबल का प्रत्येक शब्द परमेश्वर का वचन है? क्या यह सत्य को बिगाड़ना और काले में सफेद की मिलावट करना नहीं है? कैसे लोग अभी भी इस तरह की दोषपूर्ण धारणाएं विकसित कर सकते हैं? वे तथ्यों के मुताबिक़ बात क्यों नहीं कर सकते? जिस किसी ने भी बाइबल को पढ़ा है वह जानता है कि बाइबल में परमेश्वर और मूसा के बीच, परमेश्वर और अय्यूब के बीच, परमेश्वर और उनके चुनिंदा लोगों के बीच, परमेश्वर और शैतान के बीच की बातचीत शामिल है। तो क्या ऐसे व्यक्ति जिससे परमेश्वर बात कर रहे हैं, उसके द्वारा कही गई बातें परमेश्वर का वचन बन जाती हैं? क्या यह बहुत बेतुका नहीं है? इसलिए, यह कहना कि "संपूर्ण धर्मशास्त्र परमेश्वर की प्रेरणा से दिया गया है और परमेश्वर का वचन है" शायद तर्कसंगत नहीं हो सकता है! कुछ बेतुके लोगों ने मनमाने ढंग से इस बात पर जोर दिया कि बाइबल के मनुष्य के वचन परमेश्वर के वचन हैं। यह सच्चाई के बिलकुल विपरीत है। यह पूरी तरह से परमेश्वर को कलंकित करता है, परमेश्वर की निंदा, और परमेश्वर के स्वभाव का गंभीर रूप से अपमान करता है! परमेश्वर के वचन परमेश्वर के वचन हैं, मनुष्य के वचन मनुष्य के वचन हैं, और शैतान की बातें शैतान की बातें हैं। लोग उन्हें मिला क्यों देते हैं? परमेश्वर के वचन हमेशा सत्य होंगे। मनुष्य के वचन कभी भी सत्य नहीं हो सकते और ज्यादातर वचन केवल सत्य के अनुरूप हो सकते हैं। शैतान की बातें हमेशा गलत और झूठी होंगी। हज़ार बार बोले जाने पर भी, वे गलत और झूठी ही रहेंगी! बुद्धिमान लोगों को इस सच्चाई को स्वीकार करना चाहिए। केवल मूर्ख लोग गलत नज़रियों पर जोर देंगे। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का दूसरा अंश पढ़ने के बाद हमें इस बारे में और भी स्पष्ट हो जाएगा।
सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं: "आज लोग यह विश्वास करते हैं कि बाइबल परमेश्वर है और परमेश्वर बाइबल है। इसलिए वे यह भी विश्वास करते हैं कि बाइबल के सारे वचन ही वे वचन हैं, जिन्हें परमेश्वर ने बोला था, और कि वे सब परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन थे। जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, वे यह भी मानते हैं कि यद्यपि पुराने और नए नियम की सभी छियासठ पुस्तकें लोगों द्वारा लिखी गई थीं, फिर भी वे सभी परमेश्वर की अभिप्रेरणा द्वारा दी गई थीं, और वे पवित्र आत्मा के कथनों के अभिलेख हैं। यह मनुष्य की गलत समझ है, और यह तथ्यों से पूरी तरह मेल नहीं खाती। वास्तव में, भविष्यवाणियों की पुस्तकों को छोड़कर, पुराने नियम का अधिकांश भाग ऐतिहासिक अभिलेख है। नए नियम के कुछ धर्मपत्र लोगों के व्यक्तिगत अनुभवों से आए हैं, और कुछ पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता से आए हैं; उदाहरण के लिए, पौलुस के धर्मपत्र एक मनुष्य के कार्य से उत्पन्न हुए थे, वे सभी पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता के परिणाम थे, और वे कलीसियाओं के लिए लिखे गए थे, और वे कलीसियाओं के भाइयों एवं बहनों के लिए प्रेरणा और प्रोत्साहन के वचन थे। वे पवित्र आत्मा द्वारा बोले गए वचन नहीं थे—पौलुस पवित्र आत्मा की ओर से नहीं बोल सकता था, और न ही वह कोई नबी था, और उसने उन दर्शनों को तो बिलकुल नहीं देखा था जिन्हें यूहन्ना ने देखा था। उसके धर्मपत्र इफिसुस, फिलेदिलफिया और गलातिया की कलीसियाओं, और अन्य कलीसियाओं के लिए लिखे गए थे। और इस प्रकार, नए नियम में पौलुस के धर्मपत्र वे धर्मपत्र हैं, जिन्हें पौलुस ने कलीसियाओं के लिए लिखा था, और वे पवित्र आत्मा की अभिप्रेरणाएँ नहीं हैं, न ही वे पवित्र आत्मा के प्रत्यक्ष कथन हैं। ... यदि लोग पौलुस जैसों के धर्मपत्रों या शब्दों को पवित्र आत्मा के कथनों के रूप में देखते हैं, और उनकी परमेश्वर के रूप में आराधना करते हैं, तो सिर्फ यह कहा जा सकता है कि वे बहुत ही अधिक अविवेकी हैं। और अधिक कड़े शब्दों में कहा जाए तो, क्या यह स्पष्ट रूप से ईश-निंदा नहीं है? कोई मनुष्य परमेश्वर की ओर से कैसे बात कर सकता है? और लोग उसके धर्मपत्रों के अभिलेखों और उसके द्वारा बोले गए वचनों के सामने इस तरह कैसे झुक सकते हैं, मानो वे कोई पवित्र पुस्तक या स्वर्गिक पुस्तक हों। क्या परमेश्वर के वचन किसी मनुष्य के द्वारा बस यों ही बोले जा सकते हैं? कोई मनुष्य परमेश्वर की ओर से कैसे बोल सकता है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, बाइबल के विषय में (3))।
बहुत से विश्वासी सोचते हैं की "बाइबल प्रभु का प्रतिनिधित्व करती है, परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करती है", और कहते हैं "बाइबल में विश्वास प्रभु में विश्वास है, प्रभु में विश्वास बाइबल में विश्वास है।" इस तरह का दृष्टिकोण सुनने में ग़लत नहीं लगता, लेकिन अनुभवी लोगों के लिए, यह दृष्टिकोण अपने आप में ग़लत है। इससे यह पता चलता है की लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, लेकिन परमेश्वर को जानते नहीं हैं, और साथ ही साथ परमेश्वर और बाइबल के बीच के सम्बन्ध को लेकर स्पष्ट नहीं हैं। यदि कोई अभी भी यह मानता है कि बाइबल परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करती है और बाइबल में विश्वास परमेश्वबर में विश्वास है, तो मैं उन लोगों से पूछना चाहता हूँ, परमेश्वर लोगों को बचाते हैं या फिर बाइबल लोगों को बचाती है? क्या बाइबल परमेश्वर और उनके कार्य की जगह ले सकती है? क्या बाइबल पवित्र आत्मा की जगह ले सकती है? परमेश्वर ने स्वर्ग और पृथ्वी और सब चीज़ों को बनाया है। क्या बाइबल स्वर्ग, पृथ्वी और सब चीज़ों को बना सकती है? परमेश्वर ज्यादा बड़े हैं या फिर बाइबल? परमेश्वर पहले आये थे या फिर बाइबल? क्या आप सबने इन सवालों पर विचार किया है? अगर अभी भी लोग यह सामान्य ज्ञान की बातें नहीं समझ पा रहे हैं, जो की विश्वासियों को समझनी चाहिए, तो क्या ये लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव ले पा रहे हैं? क्या इन्होने पवित्र आत्मा के किसी भी कार्य को बिलकुल भी अनुभव नहीं किया है? क्या इन्हे परमेश्वर की सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धिमत्ता का कोई ज्ञान नहीं है? हम सब जानते हैं की परमेश्वर ही एक सच्चे परमेश्वर हैं, सृष्टि के प्रभु हैं। परमेश्वर वचन बोल सकते हैं, उन्होंने स्वर्ग, पृथ्वी और सब चीज़ों का निर्माण किया है, और वो सब चीज़ों पर राज करते हैं। परमेश्वर आत्मा हैं, लेकिन मनुष्य के पुत्र के रूप में देहधारी होकर मनुष्यों के बीच कार्य कर सकते हैं, मनुष्य का उद्धार कर के उसको बचा सकते हैं। परमेश्वर वास्तविक और जीवंत है। सर्वशक्तिमान, जो हैं, जो थे, और जो आने वाले हैं। दूसरी ओर, बाइबल व्यवस्था के युग और अनुग्रह के युग में परमेश्वर के कार्य का सिर्फ एक लिखित विवरण है! यह एक इतिहास की पुस्तक है। बाइबल की तुलना परमेश्वर से कैसे की जा सकती है? इसलिए, किसी भी दृष्टिकोण से देखा जाए, बाइबल परमेश्वर का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती है। बाइबल में विश्वास परमेश्वर में विश्वास नहीं है, और बाइबल पर अवलंबित रहना परमेश्वर का अनुसरण नहीं है। बाइबल बाइबल है, परमेश्वर परमेश्वर हैं। बाइबल और परमेश्वर पूरी तरह अलग अलग हैं। यह एक तथ्य है जिसका कोई भी खंडन नहीं कर सकता है!
"मायाजाल को तोड़ दो" फ़िल्म की स्क्रिप्ट से लिया गया अंश
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?