पहले, मुझमें विवेक की कमी थी। मैंने अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य का विरोध करने और उसकी निंदा करने में पादरियों और एल्डर्स का अनुसरण किया, और निंदा करने में उनके साथ हो लिया। क्या परमेश्वर फिर भी मुझे बचाएगा?

14 मार्च, 2021

संदर्भ के लिए बाइबल के पद:

"जब धर्मी अपने धर्म से फिरकर, टेढ़े काम करने लगे, तो वह उनके कारण मरेगा, अर्थात् वह अपने टेढ़े काम ही के कारण मर जाएगा। फिर जब दुष्‍ट अपने दुष्‍ट कामों से फिरकर, न्याय और धर्म के काम करने लगे, तो वह अपना प्राण बचाएगा। वह जो सोच विचार कर अपने सब अपराधों से फिरा, इस कारण न मरेगा, जीवित ही रहेगा" (यहेजकेल 18:26-28)

"तब यहोवा का यह वचन दूसरी बार योना के पास पहुँचा : 'उठकर उस बड़े नगर नीनवे को जा, और जो बात मैं तुझ से कहूँगा, उसका उस में प्रचार कर।' तब योना यहोवा के वचन के अनुसार नीनवे को गया। नीनवे एक बहुत बड़ा नगर था, वह तीन दिन की यात्रा का था। योना ने नगर में प्रवेश करके एक दिन की यात्रा पूरी की, और यह प्रचार करता गया, 'अब से चालीस दिन के बीतने पर नीनवे उलट दिया जाएगा।' तब नीनवे के मनुष्यों ने परमेश्‍वर के वचन की प्रतीति की; और उपवास का प्रचार किया गया और बड़े से लेकर छोटे तक सभों ने टाट ओढ़ा। तब यह समाचार नीनवे के राजा के कान में पहुँचा; और उसने सिंहासन पर से उठ, अपने राजकीय वस्त्र उतारकर टाट ओढ़ लिया, और राख पर बैठ गया। राजा ने प्रधानों से सम्मति लेकर नीनवे में इस आज्ञा का ढिंढोरा पिटवाया : 'क्या मनुष्य, क्या गाय-बैल, क्या भेड़-बकरी, या अन्य पशु, कोई कुछ भी न खाए; वे न खाएँ और न पानी पीएँ। मनुष्य और पशु दोनों टाट ओढ़ें, और वे परमेश्‍वर की दोहाई चिल्‍ला-चिल्‍ला कर दें; और अपने कुमार्ग से फिरें; और उस उपद्रव से, जो वे करते हैं, पश्‍चाताप करें। सम्भव है, परमेश्‍वर दया करे और अपनी इच्छा बदल दे, और उसका भड़का हुआ कोप शान्त हो जाए और हम नष्‍ट होने से बच जाएँ।' जब परमेश्‍वर ने उनके कामों को देखा, कि वे कुमार्ग से फिर रहे हैं, तब परमेश्‍वर ने अपनी इच्छा बदल दी, और उनकी जो हानि करने की ठानी थी, उसको न किया" (योना 3:1-10)

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:

मनुष्य पर परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य उसे परमेश्वर की इच्छा पूरी करने में सक्षम बनाना है, और ऐसा उनका उद्धार करने के लिए किया जाता है। इसलिए, मनुष्य का उद्धार करते समय, परमेश्वर उसे दंड देने का काम नहीं करता। मनुष्य के उद्धार के समय परमेश्वर न तो बुरे को दंडित करता है, न अच्छे को पुरस्कृत करता है, और न ही वह विभिन्न प्रकार के लोगों की मंज़िल प्रकट करता है। बल्कि, अपने कार्य के अंतिम चरण के पूरा होने के बाद ही वह बुरे को दंडित और अच्छे को पुरस्कृत करने का काम करेगा, और केवल तभी वह सभी प्रकार के लोगों के अंत को भी प्रकट करेगा। दंडित केवल वही लोग किए जाएँगे, जिन्हें बचाया जाना संभव नहीं है, जबकि बचाया केवल उन्हीं लोगों को जाएगा, जिन्होंने परमेश्वर द्वारा मनुष्य के उद्धार के समय उसका उद्धार प्राप्त कर लिया है। जब परमेश्वर द्वारा उद्धार का कार्य किया जा रहा होगा, उस समय यथासंभव हर उस व्यक्ति को बचा लिया जाएगा, जिसे बचाया जा सकता है, और उनमें से किसी को भी छोड़ा नहीं जाएगा, क्योंकि परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य मनुष्य को बचाना है। जो लोग परमेश्वर द्वारा उद्धार के दौरान अपने स्वभाव में परिवर्तन नहीं ला पाएँगे—और वे भी, जो पूरी तरह से परमेश्वर के प्रति समर्पित नहीं हो पाएँगे—वे दंड के भागी होंगे। कार्य का यह चरण—वचनों का कार्य—लोगों के लिए उन सभी तरीकों और रहस्यों को खोल देगा, जिन्हें वे नहीं समझते, ताकि वे परमेश्वर की इच्छा और स्वयं से परमेश्वर की अपेक्षाओं को समझ सकें, और अपने अंदर परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाने की पूर्वापेक्षाएँ पैदा करके अपने स्वभाव में परिवर्तन ला सकें। परमेश्वर अपना कार्य करने के लिए केवल वचनों का उपयोग करता है, अगर लोग थोड़े विद्रोही हो जाएँ, तो वह उन्हें दंडित नहीं करता; क्योंकि यह उद्धार के कार्य का समय है। यदि विद्रोही ढंग से कार्य करने वाले व्यक्ति को दंडित किया जाएगा, तो किसी को भी बचाए जाने का अवसर नहीं मिलेगा; हर व्यक्ति दंडित होकर रसातल में जा गिरेगा। मनुष्य का न्याय करने वाले वचनों का उद्देश्य उन्हें स्वयं को जानने और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने देना है; यह उन्हें इस तरह के न्याय से दंडित करना नहीं है। वचनों के कार्य के दौरान बहुत-से लोग देहधारी परमेश्वर के प्रति अपनी विद्रोहशीलता और अवहेलना, और साथ ही अपनी अवज्ञा भी उजागर करेंगे। फिर भी, वह उन्हें दंडित नहीं करेगा, बल्कि केवल उन लोगों को अलग कर देगा, जो पूरी तरह से भ्रष्ट हो चुके हैं और जिन्हें बचाया नहीं जा सकता। वह उनकी देह शैतान को दे देगा, और कुछ मामलों में, उनकी देह का अंत कर देगा। शेष लोग निपटे जाने और काट-छाँट किए जाने का अनुसरण और अनुभव करना जारी रखेंगे। यदि अनुसरण करते समय भी ये लोग निपटे जाने और काट-छाँट किए जाने को स्वीकार नहीं करते, और ज़्यादा पतित हो जाते हैं, तो वे उद्धार पाने के अपने अवसर से वंचित हो जाएँगे। वचनों द्वारा जीते जाने के लिए प्रस्तुत प्रत्येक व्यक्ति के पास उद्धार के लिए पर्याप्त अवसर होगा; उद्धार के समय परमेश्वर इन लोगों के प्रति परम उदारता दिखाएगा। दूसरे शब्दों में, उनके प्रति परम सहनशीलता दिखाई जाएगी। अगर लोग गलत रास्ता छोड़ दें और पश्चात्ताप करें, तो परमेश्वर उन्हें उद्धार प्राप्त करने का अवसर देगा। जब मनुष्य पहली बार परमेश्वर से विद्रोह करते हैं, तो वह उन्हें मृत्युदंड नहीं देना चाहता; बल्कि, वह उन्हें बचाने की पूरी कोशिश करता है। यदि किसी में वास्तव में उद्धार के लिए कोई गुंजाइश नहीं है, तो परमेश्वर उन्हें दर-किनार कर देता है। कुछ लोगों को दंडित करने में परमेश्वर थोड़ा धीमा इसलिए चलता है क्योंकि वह हर उस व्यक्ति को बचाना चाहता है, जिसे बचाया जा सकता है। वह केवल वचनों से लोगों का न्याय करता है, उन्हें प्रबुद्ध करता है और उनका मार्गदर्शन करता है, वह उन्हें मारने के लिए छड़ी का उपयोग नहीं करता। मनुष्य को उद्धार दिलाने के लिए वचनों का प्रयोग करना कार्य के अंतिम चरण का उद्देश्य और महत्त्व है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के उद्धार के लिए तुम्हें सामाजिक प्रतिष्ठा के आशीष से दूर रहकर परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिए

परमेश्वर के विरुद्ध निन्दा और झूठी बदनामी ऐसा पाप है जो न तो इस युग में और न आने वाले युग में क्षमा किया जाएगा और जो लोग ऐसा पाप करते हैं वे कभी भी दोबारा देहधारी नहीं होंगे। इसका अर्थ यह है कि परमेश्वर का स्वभाव मानवजाति के अपराध को बर्दाश्त नहीं करता है। कुछ लोग खराब और भद्दे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं जब वे समझते नहीं हैं या जब उन्हें दूसरों के द्वारा धोखा दिया जाता है, उन पर प्रतिबन्ध लगाया जाता है, उनका नियन्त्रण किया जाता है, या उन्हें कुचला जाता है। परन्तु जब वे भविष्य में सही रास्ते को स्वीकार करेंगे तब वे खेद से भर जायेंगे। तब वे बहुत अच्छे काम करते हैं और परिवर्तन का अनुभव करने और समझ प्राप्त करने में सक्षम होते हैं और इस तरह से उनके पिछले अपराधों को अब याद नहीं किया जायेगा। आप सभी को पूरी तरह से परमेश्वर को जानना चाहिये, आप लोगों को यह मालूम होना चाहिये कि परमेश्वर के वे वचन और उन वचनों का सन्दर्भ किसकी ओर संकेत करते हैं, और आप लोगों को बेतरतीब ढंग से परमेश्वर के वचनों को लागू नहीं करना चाहिये, और न ही मनमाने ढंग से परमेश्वर के वचनों का अर्थ निकालना चाहिये। ऐसे लोग जिनके पास कोई अनुभव नहीं है वे किसी भी चीज में अपनी तुलना परमेश्वर के वचन से नहीं करते हैं। जबकि थोड़ा अनुभव या थोड़ी अन्त:दृष्टि रखने वाले लोग अधिक संवेदनशील होते हैं। जब वे परमेश्वर के उन वचनों को सुनते हैं जो लोगों को श्राप देते हैं, उनको तुच्छ जानते हैं, उनसे नफरत करते हैं या उनको निकाल देते हैं, तो वे इसे अपने ऊपर ले लेते हैं। इससे पता चलता है कि वे परमेश्वर के वचन को नहीं समझते हैं और वे हमेशा परमेश्वर को गलत समझते हैं। कुछ लोग किसी पुस्तक को पढ़ने, किसी प्रकार की खोजबीन करने, और जो लोग परमेश्वर के नए काम को समझते हैं उनकी सभा के किसी सन्देश को सुनने, या पवित्र आत्मा का थोड़ा-सा प्रकाशन पाने से पहले ही परमेश्वर पर दोष मढ़ देते हैं। इसके बाद कोई व्यक्ति उन्हें सुसमाचार सुनाता है और वे उसे स्वीकार कर लेते हैं। और बाद में, वे उन मामलों के लिये बहुत खेद महसूस करते हैं, और वे पश्चाताप करते हैं। तब उन्हें भविष्य के उनके व्यवहार के अनुसार देखा जायेगा। परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद, यदि उनका व्यवहार विशेष रूप से बुरा रहा है, और वे यह कहते हुए खुद को ख़ारिज करते हैं कि, “किसी न किसी प्रकार से, मैंने पहले ईश्वर की निन्दा की है और बुरे शब्दों का प्रयोग किया है। परमेश्वर ने यह घोषणा की है कि मुझ जैसे लोग दण्डित होंगे। खैर, अब मेरा जीवन समाप्त हो गया है,” तो ऐसे लोग वास्तव में समाप्त हो जाते हैं।

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'परमेश्वर किस आधार पर लोगों से बर्ताव करता है' से उद्धृत

जिन कुछ लोगों ने थोड़ा आज्ञा का उल्लंघन किया है, वे अनुमान लगायेंगे: क्या परमेश्वर मुझे समाप्त कर देंगे? इस बार परमेश्वर लोगों को समाप्त करने नहीं, बल्कि यथासम्भव उनकी रक्षा करने आये हैं। गलतियां किससे नहीं होतीं? यदि सभी को समाप्त कर दिया जायेगा तो फिर इसे उद्धार कैसे कहेंगे? कुछ आज्ञालंघन जान-बूझकर किये जाते हैं और कुछ अनजाने में हो जाते हैं। अनजाने में हुये मामलों में, पहचानने के बाद आप उन्हें बदल सकते हैं, तो क्या परमेश्वर बदलने से पहले ही आपको समाप्त कर देंगे? क्या ऐसे ही परमेश्वर लोगों की रक्षा करते हैं? नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है! इससे कोई अंतर नहीं पडता कि आज्ञा का उल्लंघन अनजाने में हुआ है कि विद्रोही स्वभाव के कारण, केवल इतना याद रखें: शीघ्रता करें और वास्तविकता को पहचानें! आगे बढने का प्रयास करें; हालात कुछ भी हों, आप आगे बढने का प्रयास करें। परमेश्वर लोगों की रक्षा करने के कार्य में लगे हैं और वह जिनकी रक्षा करना चाहते हैं उन्हें अंधाधुंध तरीके से कैसे मार देंगे? आपके अंदर चाहे कितना भी परिवर्तन आया हो, अंत में अगर परमेश्वर ने आपको समाप्त भी कर दिया तो उनका वह निर्णय धर्मितापूर्ण होगा; जब वह समय आयेगा तो वह आपको समझने का अवसर देंगे। लेकिन इस समय आपका दायित्व है कि आगे बढ़ने का प्रयास करें, रूपांतरण की कोशिश में लग जायें और परमेश्वर को संतुष्ट करने की कामना करें; आपको केवल परमेश्वर की इच्छा के अनुसार ही अपना दायित्व निभाते रहने की चिंता करनी चाहिये। और इसमें कोई दोष नहीं है! अंतत:, परमेश्वर आपके साथ जैसा चाहें बर्ताव करें, वह हमेशा न्यायसंगत ही होता है; आपको इस पर न तो संदेह करना चाहिये और न ही इसकी चिंता करनी चाहिये; भले ही परमेश्वर की धर्मिता अभी आपकी समझ से बाहर हो, लेकिन वह दिन आयेगा जब आप पूरी तरह से आश्वस्त हो जायेंगे। परमेश्वर किसी सरकारी अधिकारी या राक्षसों के सम्राट की तरह बिल्कुल नहीं है! यदि आप गौर से इस पहलू को समझने की कोशिश करेंगे तो आप दृढ़ता से विश्वास करने लगेंगे कि परमेश्वर का कार्य लोगों की रक्षा करना और उनके स्वभाव को रूपांतरित करना है। चूंकि यह लोगों के स्वभाव के रूपांतरण का कार्य है, यदि लोग अपने स्वभाव को प्रकट नहीं करेंगे, तो कुछ नहीं किया जा सकता और फिर परिणाम भी कुछ नहीं निकलेगा। लेकिन एक बार अपना स्वभाव प्रकट करने के बाद, पुरानी आदतें जारी रखना कष्टकर होगा, यह प्रबंधन आदेश की अवमानना होगी और परमेश्वर इससे अप्रसन्न होंगे। परमेश्वर अलग-अलग स्तर के दंड का विधान करेंगे और आपको आज्ञा के उल्लंघन की कीमत चुकानी होगी। ...

यह पहले कहा गया है: अतीत की घटनाओं को कलम से खारिज किया जा सकता है; अतीत का स्थान भविष्य ले सकता है; परमेश्वर में असीम सहिष्णुता है। लेकिन इन वचनों में सिद्धांत निहित हैं; ऐसा नहीं है कि अंतत: आप कितना भी बडा पाप करें, परमेश्वर उसे एक ही झटके में नष्ट कर देंगे; परमेश्वर के सभी कार्य सिद्धांतों पर चलते हैं। अतीत में इस प्रकार का प्रबंधनकारी आदेश था: यदि किसी ने परमेश्वर का नाम स्वीकारने से पहले कोई पाप किया है, तो उसे जुड़ने दें; यदि वह प्रवेश करने के बाद भी उस पाप को करता है उसके साथ विशेष प्रकार से पेश आयें; यदि वह उस पाप को बार-बार करता है तो उसे निष्कासित कर दें। परमेश्वर ने लोगों को सदा ही अपने कार्यों में यथासंभव क्षमा किया है; इस दृष्टिकोण से यह देखा जा सकता है कि यह वास्तव में लोगों की रक्षा का कार्य है। लेकिन इस अंतिम अवस्था में यदि आप कोई अक्षम्य पाप करते हैं, तो आपका सुधार या परिवर्तन संभव नहीं है।

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'परमेश्वर की इच्छा है कि यथासंभव लोगों की रक्षा की जाये' से उद्धृत

बहुत से लोग ऐसे हैं जो परमेश्वर का विरोध करते हैं और उन लोगों में, ऐसे भी हैं जो बहुत से दूसरे तरीकों से परमेश्वर का विरोध करते हैं। जैसे सभी प्रकार के विश्वासी होते हैं, वैसे ही परमेश्वर का विरोध करने वाले भी सभी प्रकार के होते हैं, सब एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। जो लोग परमेश्वर के कार्य के उद्देश्य को स्पष्ट रूप से नहीं समझते, उनमें से एक को भी नहीं बचाया जा सकता। अतीत में इंसान ने परमेश्वर का कितना भी विरोध किया हो, लेकिन जब इंसान को परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य समझ में आ जाता है, और वो परमेश्वर को संतुष्ट करने का प्रयास करता है, तो परमेश्वर उसके पिछले सारे पाप धो देता है। अगर इंसान सत्य की खोज और सत्य का अभ्यास करे, तो परमेश्वर उसके कृत्यों को अपने मन में नहीं रखता। इसके अलावा, इंसान द्वारा सत्य के अभ्यास के आधार पर परमेश्वर उसे सही ठहराता है। यही परमेश्वर की धार्मिकता है। इंसान के परमेश्वर को देखने या उसके कार्य का अनुभव करने से पहले, परमेश्वर के प्रति इंसान का चाहे जो रवैया रहा हो, परमेश्वर उसे अपने मन में नहीं रखता। लेकिन, एक बार जब इंसान परमेश्वर को जान लेता है और उसके कार्य का अनुभव कर लेता है, तो इंसान के सभी कर्म और क्रियाकलाप परमेश्वर द्वारा "ऐतिहासिक अभिलेख" में लिख लिए जाते हैं, क्योंकि इंसान ने परमेश्वर को देख लिया है और उसके कार्य में जीवन जी लिया है।

जब इंसान वास्तव में परमेश्वर का स्वरूप देख लेता है, वह उसकी सर्वश्रेष्ठता को देख लेता है, और परमेश्वर के कार्य को वास्तव में जान लेता है, और इसके अलावा, जब इंसान का पुराना स्वभाव बदल जाता है, तब इंसान परमेश्वर का विरोध करने वाले अपने विद्रोही स्वभाव को पूरी तरह से दूर कर लेता है। ऐसा कहा जा सकता है कि हर इंसान ने कभी न कभी परमेश्वर का विरोध किया होगा और हर इंसान ने कभी न कभी परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह किया होगा। लेकिन, यदि तुम अपनी खुशी से देहधारी परमेश्वर की आज्ञा मानते हो, और उसके बाद से परमेश्वर के हृदय को अपनी सत्यनिष्ठा द्वारा संतुष्ट करते हो, अपेक्षित सत्य का अभ्यास करते हो, अपेक्षित कर्तव्य का निर्वहन करते हो, और अपेक्षित नियमों को मानते हो, तो तुम परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने विद्रोह को दूर करना चाहते हो, और ऐसे व्यक्ति हो जिसे परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाया जा सकता है। यदि तुम अपनी गलतियाँ मानने से ढिठाई से इनकार करते हो, और तुम्हारी नीयत पश्चाताप करने की नहीं है, यदि तुम अपने विद्रोही आचरण पर अड़े रहते हो, और परमेश्वर के साथ ज़रा-सा भी सहयोग करने और उसे संतुष्ट करने का भाव नहीं रखते, तब तुम्हारे जैसे दुराग्रही और न सुधरने वाले व्यक्ति को निश्चित रूप से दण्ड दिया जाएगा, और परमेश्वर तुम्हें कभी पूर्ण नहीं बनाएगा। यदि ऐसा है, तो तुम आज परमेश्वर के शत्रु हो और कल भी परमेश्वर के शत्रु रहोगे और उसके बाद के दिनों में भी तुम परमेश्वर के शत्रु बने रहोगे; तुम सदैव परमेश्वर के विरोधी और परमेश्वर के शत्रु रहोगे। ऐसी स्थिति में, परमेश्वर तुम्हें कैसे क्षमा कर सकता है?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर को न जानने वाले सभी लोग परमेश्वर का विरोध करते हैं

फिलहाल, जब तक तुम लोगों के पास आशा की एक किरण है, तब तक, परमेश्वर अतीत की घटनाओं को स्मरण रखे या न रखे, तुम्हें कैसी मानसिकता बनाये रखनी चाहिए? "मुझे अपने स्वभाव में परिवर्तन की चेष्टा, परमेश्वर को जानने, शैतान के द्वारा फिर कभी मूर्ख नहीं बनने, और ऐसा कुछ भी जिससे परमेश्वर का नाम लज्जित होता हो, नहीं करने की चेष्टा अवश्य करनी चाहिए।" कौन-से मुख्य क्षेत्र निर्धारित करते हैं कि लोगों को बचाया जा सकता है या नहीं और उनके लिए कोई आशा है या नहीं? बात का मर्म यह है कि धर्मोपदेश सुनकर, तुम सत्य को समझ सकते हो या नहीं, तुम सत्य को अभ्यास में ला सकते हो या नहीं, और तुम बदल सकते हो या नहीं। यही वे मुख्य क्षेत्र हैं। यदि तुम केवल पछतावा महसूस करते हो, और जब कुछ करते हो तब बस वही करते हो जो तुम करना चाहते हो, उन्हीं पुराने तौर-तरीक़ों से करते हो, न केवल सत्य की तलाश नहीं करते, अब भी पुराने विचारों और पुराने अभ्यासों से चिपके रहते हो, और न केवल समझ से पूर्णतः रहित होते हो, बल्कि इसकी बजाय और बद से बदतर होते जाते हैं, तो तुम आशा से रहित होगे, और तुम्हें बट्टे खाते में डाल दिया जाना चाहिए। तुम जितना अधिक परमेश्वर को समझते हो, उतना ही अधिक तुम अपने आपको समझते हो, और स्वयं अपनी प्रकृति की जितनी आद्योपांत तुम्हारी समझ होती है, उतना ही अधिक तुम अपने आपको काबू में रख पाते हो। जब तुमने अपने अनुभव का निचोड़ निकाल लिया, तो उसके बाद तुम फिर कभी इस विषय में विफल नहीं होगे। वास्तविक तथ्य यह है कि हर किसी में दोष हैं, बस उन्हें जवाबदेह नहीं ठहराया जाता। सभी में वे हैं—कुछ में छोटे दोष हैं, और कुछ में बड़े दोष हैं; कुछ मुँहफट हैं, और कुछ घुन्ने हैं। कुछ लोग ऐसी चीज़ें करते हैं जिनके विषय में अन्य लोग जानते हैं, जबकि कुछ लोग दूसरों के इसके बारे में जाने बिना चीज़ें करते हैं। सभी के ऊपर दाग़-धब्बे हैं, और वे सभी कुछ निश्चित भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं, जैसे अहंकार या मिथ्याभिमान; या फिर वे कुछ न कुछ उल्लंघन, या अपने कार्य में कुछ न कुछ भूल-चूक या त्रुटियाँ करते हैं, या वे थोड़े-से विद्रोही हैं। ये सभी क्षमा योग्य चीज़ें हैं, क्योंकि ये ऐसी चीज़ें हैं जिनसे भ्रष्ट कर दिया गया कोई व्यक्ति बच नहीं सकता है। एक बार जब तुमने सत्य को समझ लिया, तो तुम्हें इनसे बचना चाहिए, और तब अतीत में घटित चीज़ों से हमेशा परेशान होना ज़रूरी नहीं रह जाएगा। इसके बजाय, डर यह है कि समझ लेने के बाद भी तुम नहीं बदलोगे, यह जानकर भी कि वे ग़लत हैं तुम वहीं सब चीजें करते रहोगे, और यह बताए जाने के बाद भी कि यह ग़लत है तुम एक निश्चित ढंग से काम करते रहोगे। ऐसे लोग छुटकारे से परे हैं।

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'परमेश्वर की सेवा करने के लिए पतरस के मार्ग पर चलना चाहिए' से उद्धृत

हमें संकल्प लेना चाहिए कि हमारी परिस्थितियाँ चाहे जितनी गंभीर हों, चाहे जिस प्रकार की कठिनाई हम पर टूटें, हम चाहे जितने कमज़ोर हों, या जितने नकारात्मक हों, हमें न तो स्वभावगत परिवर्तन में, और न ही परमेश्वर द्वारा कहे गए वचनों में अपना विश्वास खोना चाहिए। परमेश्वर ने मनुष्य से एक वादा किया था, और यह वादा प्राप्त करने का संकल्प और लगन मनुष्य के पास होनी ही चाहिए। परमेश्वर कायरों को पसंद नहीं करता है, परमेश्वर संकल्पवान लोगों को पसंद करता है। हो सकता है कि तुमने बहुत भ्रष्टता प्रकट की हो, तुम कई कुटिल राहों पर चले हो, या कई उल्लंघन किए हों, या पहले परमेश्वर की अवज्ञा की हो; वैकल्पिक रूप से, हो सकता है कुछ लोगों के दिलों में परमेश्वर के प्रति निंदा, या शिकायतें, या अवज्ञा हो—लेकिन परमेश्वर इन चीज़ों को नहीं देखता है, परमेश्वर केवल यह देखता है कि क्या वे किसी दिन बदलेंगे या नहीं। बाइबल में, अपव्ययी पुत्र की वापसी के बारे में एक कहानी है। प्रभु यीशु ने ऐसी एक नीतिकथा क्यों सुनाई? मानवजाति को बचाने की परमेश्वर की इच्छा सच्ची और खरी है। वह लोगों को पश्चाताप करने के अवसर और बदलने के अवसर देता है। इस प्रक्रिया के दौरान, वह लोगों को समझता है और उसे उनकी कमज़ोरियों और उनकी भ्रष्टता के विस्तार का गहरा ज्ञान होता है। वह जानता है कि वे लड़खड़ाएँगे और गिरेंगे। यह वैसा ही है जब बच्चे चलना सीखते हैं : तुम्हारा शरीर चाहे जितना भी मज़बूत हो, ऐसे समय होंगे जब तुम लड़खड़ा जाते हो, और ऐसे भी समय होंगे जब तुम ठोकर खाकर गिर जाते हो। परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति को वैसे ही समझता है जैसे माँ अपने बच्चे को समझती है। वह प्रत्येक व्यक्ति की कठिनाइयाँ समझता है, वह प्रत्येक व्यक्ति की कमज़ोरियाँ समझता है, और वह प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकताएँ भी समझता है; इतना ही नहीं, वह समझता है कि स्वभावगत परिवर्तन में प्रवेश करने की प्रक्रिया में लोग कैसी समस्याओं का सामना करेंगे, वे किस प्रकार की कमज़ोरियों का नुक़सान उठाएँगे, किस प्रकार की विफलताएँ आएँगी—ऐसा कुछ नहीं है जो परमेश्वर इससे बेहतर समझता हो। इस प्रकार परमेश्वर मनुष्य के अंतर्तम हृदय को सूक्ष्मता से देखता है। तुम चाहे जितने कमज़ोर हो, जब तक तुम परमेश्वर का नाम त्यागते नहीं हो, जब तक तुम परमेश्वर को छोड़कर नहीं जाते हो, और जब तक तुम उसके मार्ग से भटकते नहीं हो, तब तक स्वभावगत परिवर्तन प्राप्त करने का अवसर सदैव तुम्हारे पास होगा। हमारे पास स्वभाव में परिवर्तन प्राप्त करने का अवसर होने का अर्थ यह है कि हमारे पास बचे रहने की आशा है, और हमारे पास बचे रहने की आशा होने का अर्थ यह है कि हमारे पास परमेश्वर के उद्धार की आशा है।

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'क्या होते हैं स्वभाव में परिवर्तन, और स्वभाव में परिवर्तनों का मार्ग' से उद्धृत

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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