परमेश्वर किसी व्यक्ति के अंत का निर्धारण किस आधार पर करता है?

15 मार्च, 2021

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:

अब वह समय आ गया है जब मैं प्रत्येक व्यक्ति के अंत को निर्धारित करता हूँ, यह वो चरण नहीं जिसमें मैंने मनुष्यों को आकार देना आरंभ किया था। मैं अपनी अभिलेख पुस्तक में एक-एक करके, प्रत्येक व्यक्ति के कार्यों और कथनों को, और साथ ही उस मार्ग को जिस पर चलकर उन्होंने मेरा अनुसरण किया है, उनके अंतर्निहित अभिलक्षणों को और उन लोगों ने कैसा आचरण किया है, इन सबको लिखता हूँ। इस तरह, किसी भी प्रकार का मनुष्य मेरे हाथ से नहीं बचेगा, और सभी लोग अपने जैसे लोगों के साथ होंगे, जैसा कि मैं उन्हें नियत करूँगा। मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंज़िल, उसकी आयु, वरिष्ठता, पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता और जिस सीमा तक वे दया के पात्र होते हैं, उसके आधार पर तो बिल्कल भी तय नहीं करता बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। तुम्हें यह अवश्य समझना चाहिए कि वे सब जो परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण नहीं करते हैं, दण्डित किए जाएँगे। यह एक अडिग तथ्य है। इसलिए, वे सब जो दण्ड पाते हैं, वे परमेश्वर की धार्मिकता के कारण और अपने अनगिनत बुरे कार्यों के प्रतिफल के रूप में इस तरह के दण्ड पाते हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो

मानवता के विश्राम में प्रवेश से पहले, हर एक व्यक्ति का दंडित होना या पुरस्कृत होना इस बात पर आधारित होगा कि क्या उन्होंने सत्य की खोज की है, क्या वे परमेश्वर को जानते हैं और क्या वे प्रत्यक्ष परमेश्वर को समर्पण कर सकते हैं। जिन्होंने प्रत्यक्ष परमेश्वर को सेवा दी है, पर उसे न तो जानते हैं न ही उसे समर्पण करते हैं, उनमें सत्य नहीं है। ऐसे लोग बुराई करने वाले हैं और बुराई करने वाले निःसंदेह दंड के भागी होंगे; इससे अलावा, वे अपने दुष्ट आचरण के अनुसार दंड पाएंगे। परमेश्वर मनुष्यों के विश्वास करने के लिए है और वह उनकी आज्ञाकारिता के योग्य भी है। वे जो केवल अज्ञात और अदृश्य परमेश्वर पर विश्वास रखते हैं, वे लोग हैं जो परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते और परमेश्वर को समर्पण करने में असमर्थ हैं। यदि ये लोग तब भी दृश्यमान परमेश्वर पर विश्वास नहीं कर पाते, जब उसका विजय कार्य समाप्त होता है और लगातार अवज्ञाकारी बने रहते हैं और देह में दिखाई देने वाले परमेश्वर का विरोध करते हैं, तो ये "अज्ञातवादी" बिना संदेह विनाश की वस्तुएँ बन जाएँगे। यह उसी प्रकार है, जैसे तुम सब के बीच के कुछ लोग जो =मौखिक रूप में देहधारी परमेश्वर को पहचानते हैं, फिर भी देहधारी परमेश्वर के प्रति समर्पण के सत्य का अभ्यास नहीं कर पाते, तो वे अंत में हटाने और विनाश की वस्तु बनेंगे। इसके अलावा, जो कोई मौखिक रूप में प्रत्यक्ष परमेश्वर को मानता है, देहधारी परमेश्वर द्वारा अभिव्यक्त सत्य को खाता और पीता है जबकि अज्ञात और अदृश्य परमेश्वर को भी खोजता है, तो भविष्य में उसके नष्ट होने की और भी अधिक संभावना होगी। इन लोगों में से कोई भी, परमेश्वर का कार्य पूरा होने के बाद उसके विश्राम का समय आने तक नहीं बचेगा, न ही उस विश्राम के समय, ऐसे लोगों के समान एक भी व्यक्ति बच सकता है। दुष्टात्मा लोग वे हैं, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते; उनका सार प्रतिरोध करना और परमेश्वर की अवज्ञा करना है और उनमें परमेश्वर के समक्ष समर्पण की लेशमात्र भी इच्छा नहीं है। ऐसे सभी लोग नष्ट किए जाएँगे। तुम्हारे पास सत्य है या नहीं और तुम परमेश्वर का प्रतिरोध करते हो या नहीं, यह तुम्हारे प्रकटन पर या तुम्हारी कभीकभार की बातचीत और आचरण पर नहीं बल्कि तुम्हारे सार पर निर्भर है। प्रत्येक व्यक्ति का सार तय करता है कि उसे नष्ट किया जाएगा या नहीं; यह किसी के व्यवहार और किसी की सत्य की खोज द्वारा उजागर हुए सार के अनुसार तय किया जाता है। उन लोगों में जो कार्य करने में एक दूसरे के समान हैं, और जो समान मात्रा में कार्य करते हैं, जिनके मानवीय सार अच्छे हैं और जिनके पास सत्य है, वे लोग हैं जिन्हें रहने दिया जाएगा, जबकि वे जिनका मानवीय सार दुष्टता भरा है और जो दृश्यमान परमेश्वर की अवज्ञा करते हैं, वे विनाश की वस्तु होंगे। परमेश्वर के सभी कार्य या मानवता के गंतव्य से संबंधित वचन प्रत्येक व्यक्ति के सार के अनुसार उचित रूप से लोगों के साथ व्यवहार करेंगे; थोड़ी-सी भी त्रुटि नहीं होगी और एक भी ग़लती नहीं की जाएगी। केवल जब लोग कार्य करते हैं, तब ही मनुष्य की भावनाएँ या अर्थ उसमें मिश्रित होते हैं। परमेश्वर जो कार्य करता है, वह सबसे अधिक उपयुक्त होता है; वह निश्चित तौर पर किसी प्राणी के विरुद्ध झूठे दावे नहीं करता। अभी बहुत से लोग हैं, जो मानवता के भविष्य के गंतव्य को समझने में असमर्थ हैं और वे उन वचनों पर विश्वास नहीं करते, जो मैं कहता हूँ। वे सभी जो विश्वास नहीं करते और वे भी जो सत्य का अभ्यास नहीं करते, दुष्टात्मा हैं!

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे

मनुष्य जिस मानक से दूसरे मनुष्य को आंकता है, वह व्यवहार पर आधारित है; वे जिनका आचरण अच्छा है, धार्मिक हैं और जिनका आचरण घृणित है, दुष्ट हैं। परमेश्वर जिस मानक से मनुष्यों का न्याय करता है, उसका आधार है कि क्या व्यक्ति का सार परमेश्वर को समर्पित है या नहीं; वह जो परमेश्वर को समर्पित है, धार्मिक है और जो नहीं है वह शत्रु और दुष्ट व्यक्ति है, भले ही उस व्यक्ति का आचरण अच्छा हो या बुरा, भले ही इस व्यक्ति की बातें सही हो या ग़लत हो। कुछ लोग अच्छे कर्मों का उपयोग भविष्य में अच्छी मंज़िल प्राप्त करने के लिए करना चाहते हैं और कुछ लोग अच्छी वाणी का उपयोग एक अच्छी मंज़िल हासिल करने में करना चाहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति का यह ग़लत विश्वास है कि परमेश्वर मनुष्य के व्यवहार को देखकर या उनकी बातें सुनकर उसका परिणाम निर्धारित करता है; इसलिए बहुत से लोग परमेश्वर को धोखा देने के लिए इसका फ़ायदा उठाना चाहते हैं, ताकि वह उन पर क्षणिक कृपा कर दे। भविष्य में, जो लोग विश्राम की अवस्था में जीवित बचेंगे, उन सभी ने क्लेश के दिन को सहन किया हुआ होगा और परमेश्वर की गवाही दी हुई होगी; ये वे सब लोग होंगे, जिन्होंने अपने कर्तव्य पूरे किए हैं और जिन्होंने जानबूझकर परमेश्वर को समर्पण किया है। जो केवल सत्य का अभ्यास करने से बचने की इच्छा के साथ सेवा करने के अवसर का लाभ उठाना चाहते हैं, उन्हें रहने नहीं दिया जाएगा। परमेश्वर के पास प्रत्येक व्यक्ति के परिणामों के प्रबंधन के लिए उचित मानक हैं; वह केवल यूँ ही किसी के शब्दों या आचरण के अनुसार ये निर्णय नहीं लेता, न ही वह एक अवधि के दौरान किसी के व्यवहार के अनुसार निर्णय लेता है। अतीत में किसी व्यक्ति द्वारा परमेश्वर के लिए की गई किसी सेवा की वजह से वह किसी के दुष्ट व्यवहार के प्रति नर्मी कतई नहीं करेगा, न ही वह परमेश्वर के लिए एक बार स्वयं को खपाने के कारण किसी को मृत्यु से बचाएगा। कोई भी अपनी दुष्टता के लिए प्रतिफल से नहीं बच सकता, न ही कोई अपने दुष्ट आचरण को छिपा सकता है और फलस्वरूप विनाश की पीड़ा से बच सकता है। यदि लोग वास्तव में अपने कर्तव्यों का पालन कर सकते हैं, तो इसका अर्थ है कि वे अनंतकाल तक परमेश्वर के प्रति वफ़ादार हैं और उन्हें इसकी परवाह नहीं होती कि उन्हें आशीष मिलते हैं या वे दुर्भाग्य से पीड़ित होते हैं, वे पुरस्कार की तलाश नहीं करते। यदि लोग तब परमेश्वर के लिए वफ़ादार हैं, जब उन्हें आशीष दिखते हैं और जब उन्हें आशीष नहीं दिखाई देते, तो अपनी वफ़ादारी खो देते हैं और अगर अंत में भी वे परमेश्वर की गवाही देने में असमर्थ रहते हैं या उन कर्तव्यों को करने में असमर्थ रहते हैं जिसके लिए वे ज़िम्मेदार हैं, तो पहले वफ़ादारी से की गई परमेश्वर की सेवा के बावजूद वे विनाश की वस्तु बनेंगे। संक्षेप में, दुष्ट लोग अनंतकाल तक जीवित नहीं रह सकते, न ही वे विश्राम में प्रवेश कर सकते हैं; केवल धार्मिक लोग ही विश्राम के अधिकारी हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे

एक कहावत है जिस पर तुम लोगों को ध्यान देना चाहिए। मेरा मानना है कि यह कहावत अत्यधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह मेरे मन में हर दिन अनेक बार आती है। ऐसा क्यों है? इसलिए क्योंकि जब भी किसी से मेरा सामना होता है, जब भी किसी की कहानी सुनता हूँ, मैं जब भी किसी के अनुभव या परमेश्वर में विश्वास करने की उसकी गवाही सुनता हूँ, तो मैं अपने मन में इस बात का निर्णय करने के लिए कि यह व्यक्ति उस प्रकार का व्यक्ति है या नहीं जिसे परमेश्वर चाहता है, या जिसे परमेश्वर पसंद करता है, मैं इस कहावत का उपयोग करता हूँ। तो, वह कहावत क्या है? तुम सभी लोग पूरी उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे हो। जब मैं वो कहावत तुम्हें बताऊँगा, तो शायद तुम्हें निराशा हो, क्योंकि कुछ ऐसे लोग भी हैं जो इससे वर्षों से दिखावटी प्रेम दिखाते आ रहे हैं। किन्तु जहाँ तक मेरी बात है, मैंने इससे कभी भी दिखावटी प्रेम नहीं किया। यह कहावत मेरे दिल में बसी हुई है। तो वह कहावत क्या है? वो है: "परमेश्वर के मार्ग में चलो : परमेश्वर का भय मानो और बुराई से दूर रहो।" क्या यह बहुत ही सरल वाक्यांश नहीं है? हालाँकि यह कहावत सरल हो सकती है, तब भी कोई व्यक्ति जिसमें असल में इसकी गहरी समझ है, वह महसूस करेगा कि इसका बड़ा महत्व है, अभ्यास में इसका बड़ा मूल्य है; यह जीवन की भाषा से एक पंक्ति है जिसमें सत्य-वास्तविकता निहित है, जो लोग परमेश्वर को संतुष्ट करना चाहते हैं, यह उनके लिए जीवन भर का लक्ष्य है, यह ऐसे व्यक्ति के लिए अनुसरण करने योग्य जीवन भर का मार्ग है जो परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील है। तो तुम लोग क्या सोचते हो : क्या यह कहावत सत्य नहीं है? इसकी ऐसी महता है या नहीं? शायद कुछ लोग इस कहावत पर विचार करके, इसे समझने का प्रयास भी कर रहे हों, और शायद कुछ ऐसे हों जो इसके बारे में शंका रखते हों : क्या यह कहावत बहुत महत्वपूर्ण है? क्या यह बहुत महत्वपूर्ण है? क्या इस पर इतना ज़ोर देना ज़रूरी है? शायद कुछ ऐसे लोग भी हों जो इस कहावत को अधिक पसंद न करते हों, क्योंकि उन्हें लगता है कि परमेश्वर के मार्ग पर चलना और उसे एक कहावत में सारभूत करना इसका अत्यधिक सरलीकरण है। जो कुछ परमेश्वर ने कहा, उसे लेकर एक छोटी-सी कहावत में पिरो देना—क्या ऐसा करना परमेश्वर को एकदम महत्वहीन बना देना नहीं है? क्या यह ऐसा ही है? ऐसा हो सकता है कि तुम लोगों में से अधिकांश इन वचनों के पीछे के गहन अर्थ को पूरी तरह से न समझते हों। यद्यपि तुम लोगों ने इसे लिख लिया है, फिर भी तुम सब इस कहावत को अपने हृदय में स्थान देने का कोई इरादा नहीं रखते; तुमने इसे बस अपनी पुस्तिका में लिख लिया है ताकि अपने खाली समय में इसे फिर से पढ़कर इस पर विचार कर सको। कुछ तो इस कहावत को याद रखने की भी परवाह नहीं करेंगे, इसे अच्छे उपयोग में लाने का प्रयास करने की तो बात छोड़ ही दो। परन्तु मैं इस कहावत पर चर्चा क्यों करना चाहता हूँ? तुम लोगों का दृष्टिकोण या तुम लोग क्या सोचोगे, इसकी परवाह किए बिना, मुझे इस कहावत पर चर्चा करनी ही थी क्योंकि यह इस बात को लेकर अत्यंत प्रासंगिक है कि किस प्रकार परमेश्वर मनुष्य के परिणामों को निर्धारित करता है। इस कहावत के बारे में तुम लोगों की वर्तमान समझ चाहे कुछ भी क्यों न हो, या तुम इससे कैसे भी पेश क्यों न आओ, मैं तब भी तुम लोगों को यह बताऊँगा : यदि लोग इस कहावत के शब्दों को अभ्यास में ला सकें, उनका अनुभव कर सकें, और परमेश्वर का भय मानने और बुराई से दूर रहने के मानक को प्राप्त कर सकें, तो वे लोग जीवित बचे रहेंगे और यकीनन उनके परिणाम अच्छे होंगे। यदि तुम इस कहावत के द्वारा तय मानक को पूरा न कर पाओ, तो ऐसा कहा जा सकता है कि तुम्हारा परिणाम अज्ञात है। इस प्रकार मैं तुम्हारी मानसिक तैयारी के लिए तुम्हें कहावत बता रहा हूँ, ताकि तुम लोग जान लो कि तुम्हें मापने के लिए परमेश्वर किस प्रकार के मानक का उपयोग करता है।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें

परमेश्वर मनुष्य के परिणाम को निर्धारित करने के लिए परीक्षणों का उपयोग करता है। मनुष्य के परिणाम को निर्धारित करने हेतु परमेश्वर के परीक्षणों का उपयोग करने के दो मानक हैं : पहला तो परीक्षणों की संख्या है जिनसे होकर लोग गुज़रते हैं, और दूसरा मानक इन परीक्षणों का लोगों पर परिणाम है। ये दो सूचक हैं जो मनुष्य का परिणाम निर्धारित करते हैं। आओ, अब हम इन दो मानकों पर विस्तार से बात करें।

सबसे पहले, जब परमेश्वर तुम्हारा परीक्षण करता है (नोट: यह संभव है कि तुम्हारी नज़र में यह परीक्षण छोटा-सा हो और उल्लेख करने लायक भी न हो), तो परमेश्वर तुम्हें स्पष्ट रूप से अवगत कराएगा कि तुम्हारे ऊपर परमेश्वर का हाथ है, और उसी ने तुम्हारे लिए इस परिस्थिति की व्यवस्था की है। तुम्हारे आध्यात्मिक कद की अपरिपक्वता की स्थिति में ही, परमेश्वर तुम्हारी जाँच करने के लिए परीक्षणों की व्यवस्था करेगा। ये परीक्षण तुम्हारे आध्यात्मिक कद, और तुम जो कुछ समझने और सहन करने योग्य हो, उसके अनुरूप होते हैं। तुम्हारे कौन-से हिस्से की जाँच की जाएगी? परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति की जाँच की जाएगी। क्या यह प्रवृत्ति अत्यंत महत्वपूर्ण है? निश्चित रूप से यह महत्वपूर्ण है! इसका विशेष महत्व है! मनुष्य की यह प्रवृत्ति ही वो परिणाम है जो परमेश्वर चाहता है, इसलिए जहाँ तक परमेश्वर की बात है, यह सबसे महत्वपूर्ण बात है। वरना परमेश्वर इस तरह के कार्य में लगकर लोगों पर अपने प्रयास व्यर्थ नहीं करता। इन परीक्षणों के माध्यम से परमेश्वर अपने प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति देखना चाहता है; वह देखना चाहता है कि तुम सही पथ पर हो या नहीं। वह यह भी देखना चाहता है कि तुम परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रह रहे हो या नहीं। इसलिए, समय-विशेष पर चाहे तुम बहुत-सा सत्य समझो या थोड़ा-सा, तुम्हें परमेश्वर के परीक्षण का सामना तो करना ही होगा, और जैसे-जैसे तुम अधिक सत्य समझने लगोगे, परमेश्वर उसी के अनुरूप तुम्हारे लिए परीक्षणों की व्यवस्था करता रहेगा। और जब फिर से तुम्हारा सामना किसी परीक्षण से होगा, तो परमेश्वर देखना चाहेगा कि इस बीच तुम्हारा दृष्टिकोण, तुम्हारे विचार, और परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति में कोई विकास हुआ है या नहीं। कुछ लोग सोचते हैं, "परमेश्वर हमेशा लोगों की प्रवृत्ति क्यों देखना चाहता है? क्या उसने देखा नहीं कि लोग किस प्रकार सत्य को अभ्यास में लाते हैं? वह अभी भी लोगों की प्रवृत्ति क्यों देखना चाहता है?" यह निरर्थक बात है! चूँकि परमेश्वर इस तरह से कार्य करता है, तो ज़रूर उसमें परमेश्वर की इच्छा निहित होगी। परमेश्वर हमेशा किनारे रहकर लोगों को देखता है, उनके हर शब्द और कर्म को देखता है, उनके हर कर्म और कृत्य पर नज़र रखता है; उनकी हर सोच और हर विचार का भी अवलोकन करता है। वो लोगों के साथ होने घटने वाली हर घटना को ध्यान में रखता है—उनके नेक कर्मों को, उनके दोषों को, उनके अपराधों को, यहाँ तक कि उनके विद्रोह और विश्वासघात को भी—परमेश्वर उनके परिणाम को निर्धारित करने के लिए इन्हें सबूत के रूप में अपने पास रखता है। जैसे-जैसे परमेश्वर का कार्य आगे बढ़ेगा है, तुम ज़्यादा से ज़्यादा सत्य सुनकर ज़्यादा से ज़्यादा सकारात्मक बातों और जानकारी को स्वीकार करोगे, और तुम अधिक से अधिक सत्य की वास्तविकता प्राप्त करोगे। इस प्रक्रिया के दौरान, तुमसे परमेश्वर की अपेक्षाएँ भी बढ़ेंगी। उसके साथ-साथ, परमेश्वर तुम्हारे लिए और भी कठिन परीक्षणों की व्यवस्था करेगा। उसका लक्ष्य यह जाँच करना है कि इस बीच परमेश्वर के प्रति तुम्हारी प्रवृत्ति में कोई विकास हुआ है या नहीं। निश्चित रूप से, इस दौरान, परमेश्वर तुमसे जिस दृष्टिकोण की अपेक्षा करता है, वह सत्य-वास्तविकता की तुम्हारी समझ के अनुरूप होगा।

जैसे-जैसे तुम्हारा आध्यात्मिक कद बढ़ेगा, वैसे-वैसे वह मानक भी बढ़ता जाएगा जिसकी अपेक्षा परमेश्वर तुमसे करता है। जब तक तुम अपरिपक्व हो, तब तक परमेश्वर तुम्हें एक बहुत ही निम्न मानक देगा; जब तुम्हारा आध्यात्मिक कद थोड़ा बड़ा होगा, तो परमेश्वर तुम्हें थोड़ा ऊँचा मानक देगा। परन्तु जब तुम सारे सत्य समझ जाओगे तब परमेश्वर क्या करेगा? परमेश्वर तुमसे और भी अधिक बड़े परीक्षणों का सामना करवाएगा। इन परीक्षणों के बीच, परमेश्वर जो तुमसे कुछ पाना चाहता है, जो कुछ तुमसे देखना चाहता है, वो है कि परमेश्वर के बारे में तुम्हारा गहन ज्ञान और उसके प्रति तुम्हारी सच्ची श्रद्धा। इस समय, तुमसे परमेश्वर की अपेक्षाएँ पहले की तुलना में, जब तुम्हारा आध्यात्मिक कद अपरिपक्व था, और ऊँची और "अधिक कठोर" होंगी (नोट : लोग शायद इसे कठोर मानें, परन्तु परमेश्वर इसे तर्कसंगत मानता है।) जब परमेश्वर लोगों की परीक्षा लेता है, तो परमेश्वर किस प्रकार की वास्तविकता की रचना करना चाहता है? परमेश्वर लगातार चाहता है कि लोग उसे अपना हृदय दें। कुछ लोग कहेंगे : "मैं अपना हृदय कैसे दे सकता हूँ? मैंने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया, अपना घर-बार, रोज़ी-रोटी त्याग दी, खुद को खपा दिया! क्या ये सब परमेश्वर को अपना हृदय देने के उदाहरण नहीं हैं? मैं और कैसे परमेश्वर को अपना हृदय दूँ? क्या ये परमेश्वर को अपना हृदय देने के उदाहरण नहीं हैं? मैं और किस तरह अपना हृदय परमेश्वर को दे सकता हूँ? क्या ऐसा हो सकता है कि वास्तव में ये तरीके परमेश्वर को अपना हृदय देने के नहीं थे? परमेश्वर की विशिष्ट अपेक्षा क्या है?" अपेक्षा बहुत साधारण है। वास्तव में, कुछ लोग परीक्षणों के अलग-अलग चरणों में विभिन्न स्तर पर अपना हृदय पहले ही परमेश्वर को दे चुके होते हैं, परन्तु ज़्यादातर लोग अपना हृदय परमेश्वर को कभी नहीं देते। जब परमेश्वर तुम्हारी परीक्षा लेता है, तब वह देखता है कि तुम्हारा हृदय परमेश्वर के साथ है, शरीर के साथ है, या शैतान के साथ है। जब परमेश्वर तुम्हारी परीक्षा लेता है, तब परमेश्वर देखता है कि तुम परमेश्वर के विरोध में खड़े हो या तुम ऐसी स्थिति में खड़े हो जो परमेश्वर के अनुरूप है, और वह यह देखता है कि तुम्हारा हृदय उसकी तरफ है या नहीं। जब तुम अपरिपक्व होते हो और परीक्षणों का सामना कर रहे होते हो, तब तुम्हारा आत्मविश्वास बहुत ही कम होता है, और तुम्हें ठीक से पता नहीं होता कि वह क्या है जिससे तुम परमेश्वर के इरादों को संतुष्ट कर सकते हो, क्योंकि तुम्हें सत्य की एक सीमित समझ है। लेकिन अगर तुम ईमानदारी और सच्चाई से परमेश्वर से प्रार्थना करो, परमेश्वर को अपना हृदय देने के लिए तैयार हो जाओ, परमेश्वर को अपना अधिपति बना सको, और वे चीज़ें अर्पित करने के लिए तैयार हो जाओ जिन्हें तुम अत्यंत बहुमूल्य मानते हो, तो तुम पहले ही उसे अपना दिल दे चुके हो। जब तुम अधिक धर्मोपदेश सुनोगे, और अधिक सत्य समझोगे, तो तुम्हारा आध्यात्मिक कद भी धीरे-धीरे परिपक्व होता जाएगा। इस समय तुमसे परमेश्वर की वे अपेक्षाएँ नहीं होंगी जो तब थीं जब तुम अपरिपक्व थे; उसे तुमसे अधिक ऊँचे स्तर की अपेक्षा होगी। जैसे-जैसे लोग परमेश्वर को अपना हृदय देते हैं, वह परमेश्वर के निकटतर आते हैं; जब लोग सचमुच परमेश्वर के निकट आ जाते हैं, तो उनका हृदय परमेश्वर के प्रति और भी अधिक श्रद्धा रखने लगता है। परमेश्वर को ऐसा ही हृदय चाहिए।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का स्वभाव और उसका कार्य जो परिणाम हासिल करेगा, उसे कैसे जानें

किसी को आशीष मिलेगा या दुर्भाग्य सहना पड़ेगा, इसका निर्धारण व्यक्ति के सार के अनुसार होता है, न कि सामान्य सार के अनुसार, जो वह दूसरों के साथ साझा करता है। इस प्रकार की लोकोक्ति या नियम का राज्य में कोई स्थान है ही नहीं। यदि कोई अंत में बच पाता है, तो ऐसा इसलिए है क्योंकि उसने परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा किया है और यदि कोई विश्राम के दिनों तक बचने में सक्षम नहीं हो पाता, तो इसलिए क्योंकि वे परमेश्वर के प्रति अवज्ञाकारी रहे हैं और उन्होंने परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा नहीं किया है। प्रत्येक के पास एक उचित गंतव्य है। ये गंतव्य प्रत्येक व्यक्ति के सार के अनुसार निर्धारित किए जाते हैं और दूसरे लोगों से इनका कोई संबंध नहीं होता। किसी बच्चे का दुष्ट व्यवहार उसके माता-पिता को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता और न ही किसी बच्चे की धार्मिकता को उसके माता-पिता के साथ साझा किया जा सकता है। माता-पिता का दुष्ट आचरण उनकी संतानों को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता, न ही माता-पिता की धार्मिकता उनके बच्चों के साथ साझा की जा सकती है। हर कोई अपने-अपने पाप ढोता है और हर कोई अपने-अपने सौभाग्य का आनंद लेता है। कोई भी दूसरे का स्थान नहीं ले सकता; यही धार्मिकता है। मनुष्य के नज़रिए से, यदि माता-पिता अच्छा सौभाग्य पाते हैं, तो उनके बच्चों को भी मिलना चाहिए, यदि बच्चे बुरा करते हैं, तो उनके पापों के लिए माता-पिता को प्रायश्चित करना चाहिए। यह मनुष्य का दृष्टिकोण है और कार्य करने का मनुष्य का तरीक़ा है; यह परमेश्वर का दृष्टिकोण नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति के परिणाम का निर्धारण उसके आचरण से पैदा होने वाले सार के अनुसार होता है और इसका निर्धारण सदैव उचित तरीक़े से होता है। कोई भी दूसरे के पापों को नहीं ढो सकता; यहाँ तक कि कोई भी दूसरे के बदले दंड नहीं पा सकता। यह सुनिश्चित है। माता-पिता द्वारा अपनी संतान की बहुत ज़्यादा देखभाल का अर्थ यह नहीं कि वे अपनी संतान के बदले धार्मिकता के कर्म कर सकते हैं, न ही किसी बच्चे के माता-पिता के प्रति कर्तव्यनिष्ठ स्नेह का यह अर्थ है कि वे अपने माता-पिता के लिए धार्मिकता के कर्म कर सकते हैं। यही इन वचनों का वास्तविक अर्थ है, "उस समय दो जन खेत में होंगे; एक ले लिया जाएगा और दूसरा छोड़ दिया जाएगा। दो स्त्रियाँ चक्‍की पीसती रहेंगी; एक ले ली जाएगी और दूसरी छोड़ दी जाएगी।" लोग बुरा करने वाले बच्चों के प्रति गहरे प्रेम के आधार पर उन्हें विश्राम में नहीं ले जा सकते, न ही कोई अपनी पत्नी (या पति) को अपने धार्मिक आचरण के आधार पर विश्राम में ले जा सकता है। यह एक प्रशासनिक नियम है; किसी के लिए कोई अपवाद नहीं हो सकता। अंत में, धार्मिकता करने वाले धार्मिकता ही करते हैं और बुरा करने वाले, बुरा ही करते हैं। अंतत: धार्मिकों को बचने की अनुमति मिलेगी, जबकि बुरा करने वाले नष्ट हो जाएंगे। पवित्र, पवित्र हैं; वे गंदे नहीं हैं। गंदे, गंदे हैं और उनमें पवित्रता का एक भी अंश नहीं है। जो लोग नष्ट किए जाएँगे, वे सभी दुष्ट हैं और जो बचेंगे वे सभी धार्मिक हैं—भले ही बुरा कार्य करने वालों की संतानें धार्मिक कर्म करें और भले ही किसी धार्मिक व्यक्ति के माता-पिता दुष्टता के कर्म करें। एक विश्वास करने वाले पति और विश्वास न करने वाली पत्नी के बीच कोई संबंध नहीं होता और विश्वास करने वाले बच्चों और विश्वास न करने वाले माता-पिता के बीच कोई संबंध नहीं होता; ये दोनों तरह के लोग पूरी तरह असंगत हैं। विश्राम में प्रवेश से पहले एक व्यक्ति के रक्त-संबंधी होते हैं, किंतु एक बार जब उसने विश्राम में प्रवेश कर लिया, तो उसके कोई रक्त-संबंधी नहीं होंगे। जो अपना कर्तव्य करते हैं, उनके शत्रु हैं जो कर्तव्य नहीं करते हैं; जो परमेश्वर से प्रेम करते हैं और जो उससे घृणा करते हैं, एक दूसरे के उलट हैं। जो विश्राम में प्रवेश करेंगे और जो नष्ट किए जा चुके होंगे, दो अलग-अलग असंगत प्रकार के प्राणी हैं। जो प्राणी अपने कर्तव्य निभाते हैं, बचने में समर्थ होंगे, जबकि वे जो अपने कर्तव्य नहीं निभाते, विनाश की वस्तु बनेंगे; इसके अलावा, यह सब अनंत काल के लिए होगा।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे

क्या अब तुम समझ गए हो कि न्याय क्या है और सत्य क्या है? अगर तुम समझ गए हो, तो मैं तुम्हें न्याय किए जाने के लिए आज्ञाकारी ढंग से समर्पित होने की नसीहत देता हूँ, वरना तुम्हें कभी भी परमेश्वर द्वारा सराहे जाने या उसके द्वारा अपने राज्य में ले जाए जाने का अवसर नहीं मिलेगा। जो केवल न्याय को स्वीकार करते हैं लेकिन कभी शुद्ध नहीं किए जा सकते, अर्थात् जो न्याय के कार्य के बीच से ही भाग जाते हैं, वे हमेशा के लिए परमेश्वर की घृणा के शिकार हो जाएँगे और नकार दिए जाएँगे। फरीसियों के पापों की तुलना में उनके पाप संख्या में बहुत अधिक और ज्यादा संगीन हैं, क्योंकि उन्होंने परमेश्वर के साथ विश्वासघात किया है और वे परमेश्वर के प्रति विद्रोही हैं। ऐसे लोग, जो सेवा करने के भी योग्य नहीं हैं, अधिक कठोर दंड प्राप्त करेंगे, जो चिरस्थायी भी होगा। परमेश्वर ऐसे किसी भी गद्दार को नहीं छोड़ेगा, जिसने एक बार तो वचनों से वफादारी दिखाई, मगर फिर परमेश्वर को धोखा दे दिया। ऐसे लोग आत्मा, प्राण और शरीर के दंड के माध्यम से प्रतिफल प्राप्त करेंगे। क्या यह हूबहू परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का प्रकटन नहीं है? क्या मनुष्य का न्याय करने और उसे उजागर करने में परमेश्वर का यह उद्देश्य नहीं है? परमेश्वर उन सभी को, जो न्याय के समय के दौरान सभी प्रकार के दुष्ट कर्म करते हैं, दुष्टात्माओं से आक्रांत स्थान पर भेजता है, और उन दुष्टात्माओं को इच्छानुसार उनके दैहिक शरीर नष्ट करने देता है, और उन लोगों के शरीरों से लाश की दुर्गंध निकलती है। ऐसा उनका उचित प्रतिशोध है। परमेश्वर उन निष्ठाहीन झूठे विश्वासियों, झूठे प्रेरितों और झूठे कार्यकर्ताओं का हर पाप उनकी अभिलेख-पुस्तकों में लिखता है; और फिर जब सही समय आता है, वह उन्हें गंदी आत्माओं के बीच में फेंक देता है, और उन अशुद्ध आत्माओं को इच्छानुसार उनके संपूर्ण शरीरों को दूषित करने देता है, ताकि वे कभी भी पुन: देहधारण न कर सकें और दोबारा कभी भी रोशनी न देख सकें। वे पाखंडी, जो किसी समय सेवा करते हैं, किंतु अंत तक वफ़ादार बने रहने में असमर्थ रहते हैं, परमेश्वर द्वारा दुष्टों में गिने जाते हैं, ताकि वे दुष्टों की सलाह पर चलें, और उनकी उपद्रवी भीड़ का हिस्सा बन जाएँ; अंत में परमेश्वर उन्हें जड़ से मिटा देगा। परमेश्वर उन लोगों को अलग फेंक देता है और उन पर कोई ध्यान नहीं देता, जो कभी भी मसीह के प्रति वफादार नहीं रहे या जिन्होंने अपने सामर्थ्य का कुछ भी योगदान नहीं किया, और युग बदलने पर वह उन सभी को जड़ से मिटा देगा। वे अब और पृथ्वी पर मौजूद नहीं रहेंगे, परमेश्वर के राज्य का मार्ग तो बिलकुल भी प्राप्त नहीं करेंगे। जो कभी भी परमेश्वर के प्रति ईमानदार नहीं रहे, किंतु उसके साथ बेमन से व्यवहार करने के लिए परिस्थिति द्वारा मजबूर किए जाते हैं, वे परमेश्वर के लोगों की सेवा करने वालों में गिने जाते हैं। ऐसे लोगों की एक छोटी-सी संख्या ही जीवित बचेगी, जबकि बड़ी संख्या उन लोगों के साथ नष्ट हो जाएगी, जो सेवा करने के भी योग्य नहीं हैं। अंतत: परमेश्वर उन सभी को, जिनका मन परमेश्वर के समान है, अपने लोगों और पुत्रों को, और परमेश्वर द्वारा याजक बनाए जाने के लिए पूर्वनियत लोगों को अपने राज्य में ले आएगा। वे परमेश्वर के कार्य के परिणाम होंगे। जहाँ तक उन लोगों का प्रश्न है, जो परमेश्वर द्वारा निर्धारित किसी भी श्रेणी में नहीं आ सकते, वे अविश्वासियों में गिने जाएँगे—तुम लोग निश्चित रूप से कल्पना कर सकते हो कि उनका क्या परिणाम होगा। मैं तुम सभी लोगों से पहले ही वह कह चुका हूँ, जो मुझे कहना चाहिए; जो मार्ग तुम लोग चुनते हो, वह केवल तुम्हारी पसंद है। तुम लोगों को जो समझना चाहिए, वह यह है : परमेश्वर का कार्य ऐसे किसी शख्स का इंतज़ार नहीं करता, जो उसके साथ कदमताल नहीं कर सकता, और परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव किसी भी मनुष्य के प्रति कोई दया नहीं दिखाता।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मसीह न्याय का कार्य सत्य के साथ करता है

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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प्रभु ने हमसे यह कहते हुए, एक वादा किया, "मैं तुम्हारे लिये जगह तैयार करने जाता हूँ। और यदि मैं जाकर तुम्हारे लिये जगह तैयार करूँ, तो फिर आकर तुम्हें अपने यहाँ ले जाऊँगा कि जहाँ मैं रहूँ वहाँ तुम भी रहो" (यूहन्ना 14:2-3)। प्रभु यीशु पुनर्जीवित हुआ और हमारे लिए एक जगह तैयार करने के लिए स्वर्ग में चढ़ा, और इसलिए यह स्थान स्वर्ग में होना चाहिए। फिर भी आप गवाही देते हैं कि प्रभु यीशु लौट आया है और पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य स्थापित कर चुका है। मुझे समझ में नहीं आता: स्वर्ग का राज्य स्वर्ग में है या पृथ्वी पर?

संदर्भ के लिए बाइबल के पद: "हे हमारे पिता, तू जो स्वर्ग में है; तेरा नाम पवित्र माना जाए। तेरा राज्य आए। तेरी इच्छा जैसी स्वर्ग में पूरी...

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