मैं स्वीकार करता हूँ कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए वचन सत्य हैं, लेकिन मेरा परिवार सीसीपी और धार्मिक समुदाय द्वारा फैलाई गई सभी झूठी बातों और भ्रांतियों में आ गया है। अंतिम दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य की जाँच करने से मुझे रोकने के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर में अपने विश्वास के कारण अपने परिवार से नाता तोडना नहीं चाहता, लेकिन मैं सर्वशक्तिमान परमेश्वर में अपना विश्वास छोड़ना और परमेश्वर के उद्धार का अपना सुअवसर खोना भी नहीं चाहता हूँ। मेरे लिए क्या करना सही है?
संदर्भ के लिए बाइबल के पद:
"जो माता या पिता को मुझ से अधिक प्रिय जानता है, वह मेरे योग्य नहीं; और जो बेटा या बेटी को मुझ से अधिक प्रिय जानता है, वह मेरे योग्य नहीं; और जो अपना क्रूस लेकर मेरे पीछे न चले वह मेरे योग्य नहीं" (मत्ती 10:37-38)।
"धन्य हैं वे, जो धार्मिकता के कारण सताए जाते हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है" (मत्ती 5:10)।
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
अगर मैं तुम लोगों के सामने कुछ पैसे रखूँ और तुम्हें चुनने की आजादी दूँ—और अगर मैं तुम्हारी पसंद के लिए तुम्हारी निंदा न करूँ—तो तुममें से ज्यादातर लोग पैसे का चुनाव करेंगे और सत्य को छोड़ देंगे। तुममें से जो बेहतर होंगे, वे पैसे को छोड़ देंगे और अनिच्छा से सत्य को चुन लेंगे, जबकि इन दोनों के बीच वाले एक हाथ से पैसे को पकड़ लेंगे और दूसरे हाथ से सत्य को। इस तरह तुम्हारा असली रंग क्या स्वत: प्रकट नहीं हो जाता? सत्य और किसी ऐसी अन्य चीज के बीच, जिसके प्रति तुम वफादार हो, चुनाव करते समय तुम सभी ऐसा ही निर्णय लोगे, और तुम्हारा रवैया ऐसा ही रहेगा। क्या ऐसा नहीं है? क्या तुम लोगों में बहुतेरे ऐसे नहीं हैं, जो सही और ग़लत के बीच में झूलते रहे हैं? सकारात्मक और नकारात्मक, काले और सफेद के बीच प्रतियोगिता में, तुम लोग निश्चित तौर पर अपने उन चुनावों से परिचित हो, जो तुमने परिवार और परमेश्वर, संतान और परमेश्वर, शांति और विघटन, अमीरी और ग़रीबी, हैसियत और मामूलीपन, समर्थन दिए जाने और दरकिनार किए जाने इत्यादि के बीच किए हैं। शांतिपूर्ण परिवार और टूटे हुए परिवार के बीच, तुमने पहले को चुना, और ऐसा तुमने बिना किसी संकोच के किया; धन-संपत्ति और कर्तव्य के बीच, तुमने फिर से पहले को चुना, यहाँ तक कि तुममें किनारे पर वापस लौटने की इच्छा[क] भी नहीं रही; विलासिता और निर्धनता के बीच, तुमने पहले को चुना; अपने बेटों, बेटियों, पत्नियों और पतियों तथा मेरे बीच, तुमने पहले को चुना; और धारणा और सत्य के बीच, तुमने एक बार फिर पहले को चुना। तुम लोगों के दुष्कर्मों को देखते हुए मेरा विश्वास ही तुम पर से उठ गया है। मुझे बहुत आश्चर्य होता है कि तुम्हारा हृदय कोमल बनने का इतना प्रतिरोध करता है। सालों की लगन और प्रयास से मुझे स्पष्टत: केवल तुम्हारे परित्याग और निराशा से अधिक कुछ नहीं मिला, लेकिन तुम लोगों के प्रति मेरी आशाएँ हर गुजरते दिन के साथ बढ़ती ही जाती हैं, क्योंकि मेरा दिन सबके सामने पूरी तरह से खुला पड़ा रहा है। फिर भी तुम लोग लगातार अँधेरी और बुरी चीजों की तलाश में रहते हो, और उन पर अपनी पकड़ ढीली करने से इनकार करते हो। तो फिर तुम्हारा परिणाम क्या होगा? क्या तुम लोगों ने कभी इस पर सावधानी से विचार किया है? अगर तुम लोगों को फिर से चुनाव करने को कहा जाए, तो तुम्हारा क्या रुख रहेगा? क्या अब भी तुम लोग पहले को ही चुनोगे? क्या अब भी तुम मुझे निराशा और भयंकर कष्ट ही पहुँचाओगे? क्या अब भी तुम्हारे हृदयों में थोड़ा-सा भी सौहार्द होगा? क्या तुम अब भी इस बात से अनभिज्ञ रहोगे कि मेरे हृदय को सुकून पहुँचाने के लिए तुम्हें क्या करना चाहिए?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम किसके प्रति वफादार हो?
हो सकता है तुम कहो कि यदि तुम्हारे पास विश्वास नहीं होता, तो तुम इस प्रकार की ताड़ना और न्याय से पीड़ित न होते। परन्तु तुम्हें जानना चाहिए कि बिना विश्वास के, न केवल तुम इस प्रकार की ताड़ना और सर्वशक्तिमान से इस प्रकार की देखभाल प्राप्त करने में अयोग्य होते, अपितु तुम सृष्टिकर्ता से मिलने के सुअवसर को भी सर्वदा के लिए खो देते। तुम मनुष्यजाति के उद्गम को कभी भी नहीं जान पाते और न ही मानव-जीवन की महत्ता को समझ पाते। चाहे तुम्हारे शरीर की मृत्यु हो जाती, और तुम्हारी आत्मा अलग हो जाती, फिर भी तुम सृष्टिकर्ता के समस्त कार्यों को नहीं समझ पाते, तुम्हें इस बात का ज्ञान तो कभी न हो पाता कि मनुष्यजाति को बनाने के पश्चात सृष्टिकर्ता ने इस पृथ्वी पर कितने महान कार्य किए। उसके द्वारा बनाई गई इस मनुष्यजाति के एक सदस्य के रूप में, क्या तुम इस प्रकार बिना-सोचे समझे अन्धकार में गिरने और अनन्त दण्ड की पीड़ा उठाने के लिए तैयार हो। यदि तुम स्वयं को आज की ताड़ना और न्याय से अलग करते हो, तो अंत में तुम्हें क्या मिलेगा? क्या तुम सोचते हो कि वर्तमान न्याय से एक बार अलग होकर, तुम इस कठिन जीवन से बचने में समर्थ हो जाओगे? क्या यह सत्य नहीं है कि यदि तुम "इस स्थान" को छोड़ते हो, तो जिससे तुम्हारा सामना होगा, वह शैतान के द्वारा दी जाने वाली पीड़ादायक यातना और क्रूर अपशब्द होंगे? क्या तुम असहनीय दिन और रात का सामना कर सकते हो? क्या तुम सोचते हो कि सिर्फ इसलिए कि आज तुम इस न्याय से बच जाते हो, तो तुम भविष्य की उस यातना को सदा के लिए टाल सकते हो? तुम्हारे मार्ग में क्या आएगा? क्या तुम किसी स्वप्न-लोक की आशा करते हो? क्या तुम सोचते हो कि वास्तविकता से तुम्हारे इस तरह से भागने से तुम भविष्य की उस अनन्त ताड़ना से बच सकते हो, जैसा कि तुम आज कर रहे हो? क्या आज के बाद, तुम कभी इस प्रकार का अवसर और इस प्रकार की आशीष पुनः प्राप्त कर पाओगे? क्या तुम उन्हें खोजने के योग्य होगे, जब घोर विपत्ति तुम पर आ पड़ेगी? क्या तुम उन्हें खोजने के योग्य होगे, जब सम्पूर्ण मनुष्यजाति विश्राम में प्रवेश करेगी? तुम्हारा वर्तमान खुशहाल जीवन और तुम्हारा छोटा-सा मैत्रीपूर्ण परिवार—क्या वे तुम्हारी भविष्य की अनन्त मंजिल की जगह ले सकते हैं? यदि तुम सच्चा विश्वास रखते हो, और तुम्हारे विश्वास के कारण यदि तुम्हें बहुत अधिक प्राप्त होता है, तो यह सबकुछ तुम्हें, एक सृजित प्राणी को, प्राप्त होना चाहिए और यह सब तुम्हारे पास पहले ही हो जाना चाहिए था। तुम्हारे विश्वास और तुम्हारे जीवन के लिए इस विजय से अधिक लाभकारी और कुछ नहीं है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, विजय के कार्य की आंतरिक सच्चाई (1)
तुम्हें सत्य के लिए कष्ट उठाने होंगे, तुम्हें सत्य के लिए समर्पित होना होगा, तुम्हें सत्य के लिए अपमान सहना होगा, और अधिक सत्य प्राप्त करने के लिए तुम्हें अधिक कष्ट उठाने होंगे। यही तुम्हें करना चाहिए। एक शांतिपूर्ण पारिवारिक जीवन के लिए तुम्हें सत्य का त्याग नहीं करना चाहिए, और क्षणिक आनन्द के लिए तुम्हें अपने जीवन की गरिमा और सत्यनिष्ठा को नहीं खोना चाहिए। तुम्हें उस सबका अनुसरण करना चाहिए जो खूबसूरत और अच्छा है, और तुम्हें अपने जीवन में एक ऐसे मार्ग का अनुसरण करना चाहिए जो ज्यादा अर्थपूर्ण है। यदि तुम एक घिनौना जीवन जीते हो और किसी भी उद्देश्य को पाने की कोशिश नहीं करते हो तो क्या तुम अपने जीवन को बर्बाद नहीं कर रहे हो? ऐसे जीवन से तुम क्या हासिल कर पाओगे? तुम्हें एक सत्य के लिए देह के सभी सुखों को छोड़ देना चाहिए, और थोड़े-से सुख के लिए सारे सत्यों का त्याग नहीं कर देना चाहिए। ऐसे लोगों में कोई सत्यनिष्ठा या गरिमा नहीं होती; उनके अस्तित्व का कोई अर्थ नहीं होता!
— "वचन देह में प्रकट होता है" में 'पतरस के अनुभव: ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान' से उद्धृत
परमेश्वर के वचनों में, लोगों को एक दूसरे के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए इसके संबंध में कौन से सिद्धांत का उल्लेख किया गया है? उससे प्रेम करो जिससे परमेश्वर प्रेम करता है, और उससे नफ़रत करो जिससे परमेश्वर नफ़रत करता है। अर्थात्, परमेश्वर जिन्हें प्यार करता है, लोग जो वास्तव में सत्य का अनुसरण करते हैं और परमेश्वर की इच्छा को कार्यान्वित करते हैं, ये वही लोग हैं जिनसे तुम्हें प्रेम करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर की इच्छा को कार्यान्वित नहीं करते हैं, परमेश्वर से घृणा करते हैं, उसकी अवज्ञा करते हैं, और जिनसे वो नफरत करता है, ये ही वे लोग हैं जिन्हें हमें भी तिरस्कृत और अस्वीकार करना चाहिए। यही है वह जो परमेश्वर के वचन द्वारा अपेक्षित है। यदि तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं करते हैं, तो वे उससे नफ़रत करते हैं; और अगर वे उससे नफरत करते हैं, तो परमेश्वर निश्चित रूप से उनसे घृणा करता है। इसलिए, यदि तुम्हें अपने माता-पिता से नफ़रत करने के लिए कहा जाए, तो क्या तुम ऐसा कर सकोगे? यदि वे परमेश्वर का विरोध करते और उसे बुरा-भला कहते हैं, तो वे निश्चित रूप से ऐसे लोग हैं जिनसे वह घृणा करता है और शाप देता है। इन परिस्थितियों में, तुम्हें अपने माता-पिता के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, यदि वे परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास में बाधा डालते हैं, या यदि वे नहीं डालते हैं? अनुग्रह के युग के दौरान, प्रभु यीशु ने कहा, "कौन है मेरी माता? और कौन हैं मेरे भाई? ... क्योंकि जो कोई मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चले, वही मेरा भाई, और मेरी बहिन, और मेरी माता है।" यह कहावत अनुग्रह के युग में पहले से मौजूद थी, और अब परमेश्वर के वचन और भी अधिक उपयुक्त हैं : "उससे प्रेम करो, जिससे परमेश्वर प्रेम करता है और उससे घृणा करो, जिससे परमेश्वर घृणा करता है।" ये वचन बिलकुल सीधे हैं, फिर भी लोग अकसर इनका वास्तविक अर्थ नहीं समझ पाते।
— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपने पथभ्रष्ट विचारों को पहचानकर ही तुम स्वयं को जान सकते हो' से उद्धृत
अय्यूब द्वारा प्रेम और घृणा का विभाजन
अय्यूब की मानवता का एक और पहलू उसके और उसकी पत्नी के बीच इस संवाद में प्रदर्शित होता है : "तब उसकी स्त्री उससे कहने लगी, 'क्या तू अब भी अपनी खराई पर बना है? परमेश्वर की निन्दा कर, और चाहे मर जाए तो मर जा।' उसने उससे कहा, 'तू एक मूढ़ स्त्री की सी बातें करती है, क्या हम जो परमेश्वर के हाथ से सुख लेते हैं, दु:ख न लें?'" (अय्यूब 2:9-10)। वह जो यंत्रणा भुगत रहा था उसे देखकर, अय्यूब की पत्नी ने उसे इस यंत्रणा से बच निकलने में सहायता करने के लिए सलाह देने की कोशिश की, तो भी उसके "भले इरादों" को अय्यूब की स्वीकृति प्राप्त नहीं हुई; इसके बजाय, उन्होंने उसका क्रोध भड़का दिया, क्योंकि उसने यहोवा परमेश्वर में उसके विश्वास और उसके प्रति उसकी आज्ञाकारिता को नकारा था, और यहोवा परमेश्वर के अस्तित्व को भी नकारा था। यह अय्यूब के लिए असहनीय था, क्योंकि उसने, दूसरों की तो बात ही छोड़ दें, स्वयं अपने को भी कभी ऐसा कुछ नहीं करने दिया था जो परमेश्वर का विरोध करता हो या उसे ठेस पहुँचाता हो। उस समय वह कैसे चुपचाप रह सकता था जब उसने दूसरों को ऐसे वचन बोलते देखा जो परमेश्वर की निंदा और उसका अपमान करते थे? इस प्रकार उसने अपनी पत्नी को "मूढ़ स्त्री" कहा। अपनी पत्नी के प्रति अय्यूब की प्रवृत्ति क्रोध और घृणा, और साथ ही भर्त्सना और फटकार की थी। यह अय्यूब की मानवता की—प्रेम और घृणा के बीच अंतर करने की—स्वाभाविक अभिव्यक्ति थी, और उसकी खरी मानवता का सच्चा निरूपण था। अय्यूब में न्याय की एक समझ थी—ऐसी समझ जिसकी बदौलत वह दुष्टता की हवाओं और ज्वारों से नफ़रत करता था, और अनर्गल मतांतरों, बेतुके तर्कों, और हास्यास्पद दावों से घृणा, उनकी भर्त्सना और उन्हें अस्वीकार करता था, और वह स्वयं अपने, सही सिद्धांतों और रवैये को उस समय सच्चाई से थामे रह सका जब उसे भीड़ के द्वारा अस्वीकार कर दिया गया था और उन लोगों द्वारा छोड़ दिया गया था जो उसके क़रीबी थे।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II
तुम में मेरी हिम्मत होनी चाहिए, जब उन रिश्तेदारों का सामना करने की बात आए जो विश्वास नहीं करते, तो तुम्हारे पास सिद्धांत होने चाहिए। लेकिन तुम्हें मेरी खातिर किसी भी अन्धकार की शक्ति से हार नहीं माननी चाहिए। पूर्ण मार्ग पर चलने के लिए मेरी बुद्धि पर भरोसा रखो; शैतान के किसी भी षडयंत्र को काबिज़ न होने दो। अपने हृदय को मेरे सम्मुख रखने हेतु पूरा प्रयास करो, मैं तुम्हें आराम दूँगा, तुम्हें शान्ति और आनंद प्रदान करूँगा। दूसरों के सामने एक विशेष तरह का होने का प्रयास मत करो; क्या मुझे संतुष्ट करना अधिक मूल्य और महत्व नहीं रखता? मुझे संतुष्ट करने से क्या तुम और भी अनंत और जीवनपर्यंत शान्ति या आनंद से नहीं भर जाओगे? तुम्हारी आज की तकलीफ़ें बताती हैं कि तुम्हारी आशीष भविष्य में कितनी बड़ी होगी; वे अवर्णनीय हैं। तुम्हें जो आशीष प्राप्त होगी, वे कितनी बड़ी होंगी, ये तुम नहीं जानते; तुम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। आज वह साकार हो गयी है; बिल्कुल वास्तविक! यह बहुत दूर नहीं है—क्या तुम उसे देख सकते हो? इसका हर अंतिम अंश मुझमें है; आगे का मार्ग कितना रोशन है! अपने आंसू पोंछो, तथा दुःख और दर्द महसूस मत करो। सब-कुछ मेरे हाथों से व्यवस्थित किया जाता है, और मेरा लक्ष्य यह है कि तुम्हें जल्द विजेता बनाऊं और तुम्हें अपने साथ महिमा में ले चलूँ। तुम्हारे साथ जो कुछ होता है, उसके अनुरूप तुम्हें आभारी होना चाहिए और भरपूर स्तुति करनी चाहिए; इससे मुझे गहरी संतुष्टि मिलेगी।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 10
एक विश्वास करने वाले पति और विश्वास न करने वाली पत्नी के बीच कोई संबंध नहीं होता और विश्वास करने वाले बच्चों और विश्वास न करने वाले माता-पिता के बीच कोई संबंध नहीं होता; ये दोनों तरह के लोग पूरी तरह असंगत हैं। विश्राम में प्रवेश से पहले एक व्यक्ति के रक्त-संबंधी होते हैं, किंतु एक बार जब उसने विश्राम में प्रवेश कर लिया, तो उसके कोई रक्त-संबंधी नहीं होंगे। जो अपना कर्तव्य करते हैं, उनके शत्रु हैं जो कर्तव्य नहीं करते हैं; जो परमेश्वर से प्रेम करते हैं और जो उससे घृणा करते हैं, एक दूसरे के उलट हैं। जो विश्राम में प्रवेश करेंगे और जो नष्ट किए जा चुके होंगे, दो अलग-अलग असंगत प्रकार के प्राणी हैं। जो प्राणी अपने कर्तव्य निभाते हैं, बचने में समर्थ होंगे, जबकि वे जो अपने कर्तव्य नहीं निभाते, विनाश की वस्तु बनेंगे; इसके अलावा, यह सब अनंत काल के लिए होगा। क्या तुम एक सृजित प्राणी के तौर पर अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए अपने पति से प्रेम करती हो? क्या तुम एक सृजित प्राणी के तौर पर अपने कर्तव्य पूरा करने के लिए अपनी पत्नी से प्रेम करते हो? क्या तुम एक सृजित प्राणी के तौर पर अपने नास्तिक माता-पिता के प्रति कर्तव्यनिष्ठ हो? परमेश्वर पर विश्वास करने के मामले में मनुष्य का दृष्टिकोण सही या ग़लत है? तुम परमेश्वर में विश्वास क्यों करते हो? तुम क्या पाना चाहते हो? तुम परमेश्वर से कैसे प्रेम करते हो? जो लोग पैदा हुए प्राणियों के रूप में अपना कर्तव्य पूरा नहीं कर सकते और जो पूरा प्रयास नहीं कर सकते, वे विनाश की वस्तु बनेंगे। आज लोगों में एक दूसरे के बीच भौतिक संबंध होते हैं, उनके बीच खून के रिश्ते होते हैं, किंतु भविष्य में, यह सब ध्वस्त हो जाएगा। विश्वासी और अविश्वासी संगत नहीं हैं, बल्कि वे एक दूसरे के विरोधी हैं। वे जो विश्राम में हैं, विश्वास करेंगे कि कोई परमेश्वर है और उसके प्रति समर्पित होंगे, जबकि वे जो परमेश्वर के प्रति अवज्ञाकारी हैं, वे सब नष्ट कर दिए गए होंगे। पृथ्वी पर परिवारों का अब और अस्तित्व नहीं होगा; तो माता-पिता या संतानें या पतियों और पत्नियों के बीच के रिश्ते कैसे हो सकते हैं? विश्वास और अविश्वास की अत्यंत असंगतता से ये संबंध पूरी तरह टूट चुके होंगे!
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे
फुटनोट:
क. किनारे पर वापस लौटने की इच्छा : एक चीनी कहावत, जिसका मतलब है "अपने बुरे कामों से विमुख होना; अपने बुरे काम छोड़ना।"
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?