अपने कर्तव्य को करने का क्या अर्थ है?

14 मार्च, 2021

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:

अपना कर्तव्य पूरा करना ही सत्य है। परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य पूरा करना केवल कुछ दायित्वों को पूरा करना या कुछ ऐसा करना नहीं है जो तुझे करना चाहिए। यह स्वर्ग और पृथ्वी के बीच रहने वाले एक सृजित प्राणी के कर्तव्य को पूरा करना है! यह तेरा दायित्व और तेरी जिम्मेदारी है, और यह जिम्मेदारी तेरी सच्ची जिम्मेदारी है। यही वह दायित्व और जिम्मेदारी है जिसे तू सृष्टिकर्ता के समक्ष पूरी करता है। ये जिम्मेदारियाँ ही तेरी सच्ची जिम्मेदारियाँ हैं। सृजित प्राणी के कर्तव्य को पूरा करने की अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित होने के साथ तुलना कर—कौन सा सत्य है? सृजित प्राणी के कर्तव्य को पूरा करना ही सत्य है; यह तेरा बाध्यकारी कर्तव्य है।

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'सत्य की वास्तविकता क्या है?' से उद्धृत

कर्तव्य तुम लोगों द्वारा प्रबंधित नहीं है—यह तुम्हारा अपना कार्यक्षेत्र या तुम्हारी अपनी रचना भी नहीं है। इसकी बजाय, यह परमेश्वर का कार्य है। परमेश्वर के कार्य के लिए तुम लोगों के सहयोग की आवश्यकता है, जो तुम लोगों के कर्तव्य को उत्पन्न करता है। परमेश्वर के कार्य का वह हिस्सा जिसमें मनुष्य को अवश्य सहयोग करना चाहिए वह है उसका कर्तव्य। कर्तव्य परमेश्वर के कार्य का एक हिस्सा है—यह तुम्हारा कार्यक्षेत्र नहीं है, तुम्हारा घरेलू मामला नहीं है, और न ही यह तुम्हारा व्यक्तिगत मामला है। चाहे तुम्हारा कर्तव्य आंतरिक या बाहरी मामलों से निपटना हो, यह परमेश्वर के घर का कार्य है, यह परमेश्वर की प्रबंधन योजना के एक हिस्से का निर्माण करता है, और यही वह आदेश है जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है। यह तुम लोगों का व्यक्तिगत कारोबार नहीं है। तो फिर तुम्हें अपने कर्तव्य का निर्वहन कैसे करना चाहिए? ...

भले ही तू किसी भी कर्तव्य को पूरा करे, तुझे हमेशा परमेश्वर की इच्छा को समझने की और यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि तेरे कर्तव्य को लेकर उसकी क्या अपेक्षा है; केवल तभी तू सैद्धान्तिक तरीके से मामलों को सँभाल पाएगा। अपने कर्तव्य को निभाने में, तू अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के अनुसार बिल्कुल नहीं जा सकता है या तू जो चाहे मात्र वह नहीं कर सकता है, जिसे भी करने में तू खुश और सहज हो, वह नहीं कर सकता है, या ऐसा काम नहीं कर सकता जो तुझे अच्छे व्यक्ति के रूप में दिखाये। यदि तू परमेश्वर पर अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं को बलपूर्वक लागू करता है या उन का अभ्यास ऐसे करता है मानो कि वे सत्य हों, उनका ऐसे पालन करता है मानो कि वे सत्य के सिद्धांत हों, तो यह कर्तव्य पूरा करना नहीं है, और इस तरह से तेरा कर्तव्य निभाना परमेश्वर के द्वारा याद नहीं रखा जाएगा।

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'केवल सत्य के सिद्धांतों की खोज करके ही अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाया जा सकता है' से उद्धृत

6. वह करो जो मनुष्य द्वारा किया जाना चाहिए और अपने दायित्वों का पालन करो, अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करो और अपने कर्तव्य को धारण करो। चूँकि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, इसलिए तुम्हें परमेश्वर के कार्य में अपना योगदान देना चाहिए; यदि तुम नहीं देते हो, तो तुम परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने के योग्य नहीं हो और परमेश्वर के घर में रहने के योग्य नहीं हो।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, दस प्रशासनिक आदेश जो राज्य के युग में परमेश्वर के चुने लोगों द्वारा पालन किए जाने चाहिए

मनुष्य द्वारा अपना कर्तव्य निभाना वास्तव में उस सबकी सिद्धि है, जो मनुष्य के भीतर अंतर्निहित है, अर्थात् जो मनुष्य के लिए संभव है। इसके बाद उसका कर्तव्य पूरा हो जाता है। मनुष्य की सेवा के दौरान उसके दोष उसके क्रमिक अनुभव और न्याय से गुज़रने की प्रक्रिया के माध्यम से धीरे-धीरे कम होते जाते हैं; वे मनुष्य के कर्तव्य में बाधा या विपरीत प्रभाव नहीं डालते। वे लोग, जो इस डर से सेवा करना बंद कर देते हैं या हार मानकर पीछे हट जाते हैं कि उनकी सेवा में कमियाँ हो सकती हैं, वे सबसे ज्यादा कायर होते हैं। यदि लोग वह व्यक्त नहीं कर सकते, जो उन्हें सेवा के दौरान व्यक्त करना चाहिए या वह हासिल नहीं कर सकते, जो उनके लिए सहज रूप से संभव है, और इसके बजाय वे सुस्ती में समय गँवाते हैं और बेमन से काम करते हैं, तो उन्होंने अपना वह प्रयोजन खो दिया है, जो एक सृजित प्राणी में होना चाहिए। ऐसे लोग "औसत दर्जे के" माने जाते हैं; वे बेकार का कचरा हैं। इस तरह के लोग उपयुक्त रूप से सृजित प्राणी कैसे कहे जा सकते हैं? क्या वे भ्रष्ट प्राणी नहीं हैं, जो बाहर से तो चमकते हैं, परंतु भीतर से सड़े हुए हैं?

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर

मनुष्य के कर्तव्य और वह धन्य है या शापित, इनके बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। धन्य होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। शापित होना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, ऐसा तब होता है जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें धन्य किया जाता है या शापित, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल धन्य होने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें शापित होने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर

संदर्भ के लिए धर्मोपदेश और संगति के उद्धरण:

तो फिर, प्रत्येक व्यक्ति को किन कर्तव्यों को करना चाहिए? प्रत्येक व्यक्ति को जो कर्तव्य करना चाहिए, वही वह सत्य है जिसका उस व्यक्ति को अभ्यास करना चाहिए, और जिस सत्य का तुम्हें अभ्यास करना चाहिए वही वह कर्तव्य है जिसे तुम्हें करना चाहिए, वह दायित्व है जिसे तुम्हें पूरा करना चाहिए। यदि तुम उस सत्य का अभ्यास करते हो जिससे तुम अवगत हो और जिसका तुम्हें अभ्यास करना चाहिए, तो तुमने अपने कर्तव्य को ठीक से पूरा कर लिया होगा। यदि तुम सत्य का अभ्यास नहीं करते हो, तो तुम अपने कर्तव्य को पूरा नहीं कर रहे हो। मूर्खों जैसा बर्ताव कर रहे हो, और तुम परमेश्वर के साथ बस लापरवाही कर रहे हो। इसलिए, तुम्हारा कर्तव्यों को करना अवश्य ही सत्य के साथ संयोजित होना चाहिए, यह सत्य के साथ निकटता से अवश्य जुड़ा होना चाहिए। तुम्हें उन सभी सत्यों को अभ्यास में लाना चाहिए जिन्हें तुम समझते हो और सत्य की वास्तविकता को जीना चाहिए। सत्य की वास्तविकता को जीना मनुष्य की सच्ची छवि का प्रतिनिधित्व है। जब परमेश्वर ने मनुष्य को बनाया, तो यह इस छवि पर आधारित था, इसलिए यदि तुम सत्य की छवि को जीते हो तो तुम परमेश्वर को संतुष्ट करोगे। जब परमेश्वर तुम पर दृष्टि डालेगा तो वह प्रसन्न होगा, वह तुम्हें आशीष देगा, वह तुम्हें शाश्वत जीवन देगा, वह तुम्हें हमेशा के लिए जीवित रहने देगा। लेकिन यदि तुम सत्य की छवि को नहीं जीते हो, तो तुम एक मनुष्य कहे जाने के योग्य नहीं हो, और जब परमेश्वर तुम पर दृष्टि डालेगा, तो वह सोचेगा कि तुम्हारे पास कोई आध्यात्मिक प्रभामण्डल नहीं है, और तुम्हारे पास परमेश्वर की दी हुई जीवन श्वास ज़रा भी नहीं है। वह आदेश देगा कि इस तरह के कचरे को हटा दिया जाए। इसलिए, कर्तव्यों को करना स्वयं में सत्य का अभ्यास करना है। यदि तुम अपने कर्तव्यों को करते समय सत्य का अभ्यास नहीं करते हो, तो तुम वास्तव में अपने कर्तव्यों को नहीं कर रहे हो। तुम मूर्खों जैसा बर्ताव कर रहे हो, तुम परमेश्वर को बेवकूफ़ बना रहे हो, और तुम परमेश्वर के साथ बस लापरवाही कर रहे हो। तुम केवल प्रक्रिया का पालन कर रहे हो। इसलिए, यदि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, तो तुम्हें उस सत्य का अनुभव और अभ्यास करना चाहिए जो परमेश्वर ने मानवता को प्रदान किया है, और अंततः तुम्हें परमेश्वर के वचन की वास्तविकता को जीना चाहिए। यह अपने कर्तव्यों को करना है। ... यदि कर्तव्यों को करते समय सत्य शामिल नहीं है, तो यह झूठ है, यह लापरवाही है, यह ग़लत और धोखा देने वाला है; तुम सिर्फ औपचारिकताओं को पूरा कर रहे हो, तुम केवल प्रक्रिया का पालन कर रहे हो। अपने कर्तव्यों को सच्चे ढंग से करने के लिए, तुम्हें उन्हें करते समय सत्य का अभ्यास अवश्य करना चाहिए, केवल यही तुम्हारे कर्तव्यों को मानक के अनुसार करने का एकमात्र तरीका है, यही वास्तव में एक मनुष्य होने का एकमात्र तरीका है। तुम जो कोई भी काम कर रहे हो, इसमें सत्य का अभ्यास शामिल होता है, और जब तुम सत्य का अभ्यास कर रहे होते हो, तो तुम अपनी जिम्मेदारियों को पूरा कर रहे होते हो। यह तुम्हारा दायित्व और कर्तव्य है, इसलिए तुम्हें इसे अच्छी तरह से अवश्य करना चाहिए। सत्य का अभ्यास करने से हमारा यही तात्पर्य है। तो तुम्हारे कर्तव्यों को करने और सत्य का अभ्यास करने के बीच वास्तविक संबंध क्या है? ये एक ही बात की व्याख्या करने के दो अलग-अलग तरीके हैं। बाहर से, ऐसा लगता है कि एक कर्तव्य किया जा रहा है, लेकिन सार रूप में सत्य का अभ्यास किया जा रहा है। इसलिए, यदि तुम अपने कर्तव्यों को करते समय सत्य को नहीं समझते हो, तो क्या तुम अपना कार्य ठीक से कर पाओगे? तुम नहीं कर पाओगे। सबसे पहले, तुम्हारे पास इस बात की स्पष्ट समझ नहीं होगी कि अपने कर्तव्यों को करने का अर्थ क्या है, या अपने कर्तव्यों को ठीक से कैसे करें। तुम्हें इन चीजों की स्पष्ट समझ नहीं होगी। दूसरा, एक दिन आएगा जब तुम्हारे पास इसकी स्पष्ट समझ तो होगी लेकिन तुम फिर भी अपने कर्तव्यों को ठीक से करने में विफल होगे, वे अभी भी ग़लतियों से भरे होंगे। इस समय, तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हारी मानवता दोषपूर्ण है, कि तुम जिन चीज़ों को करते हो उसमें बहुत ग़लतियाँ करते हो, कि तुम भ्रष्टता से भरे हो। उस समय तुम इस भ्रष्टता से छुटकारा पाने के लिए सत्य की तलाश करना शुरू कर दोगे, और एक बार जब तुम इससे छुटकारा पा लेते हो, तो तुम अपने कर्तव्यों को प्रभावी रूप से पूरा करना शुरू कर दोगे। एक बार जब तुम अपनी भ्रष्टता से छुटकारा पा लेते हो और सत्य के प्रति जागरूक हो जाओगे, तो उस समय तुम अपने कर्तव्यों को सही तरीके और उचित ढंग से, सिर्फ नाम मात्र के लिए नहीं, बल्कि वास्तविकता में भी करोगे। जब तुम अपना कर्तव्य करते हो, तब यदि तुममें सत्य है, इसे करते समय यदि भ्रष्टता का एक भी अंश व्यक्त नहीं होता है, तो तुम्हारे कार्य-निष्पादन में यथोचित परिणाम प्राप्त होंगे। तुमने मानक के अनुसार सत्य का अभ्यास भी कर लिया होगा। यह बिल्कुल सत्य है। इसलिए, जब भी तुम अपने कर्तव्यों को कर रहे हो, तो तुम सत्य की तलाश कैसे करते हो, यह बात अत्यंत महत्वपूर्ण है। यदि तुम सत्य की तलाश नहीं करते हो, तो यह निश्चित है कि तुम्हारे कर्तव्यों का निष्पादन मानक के अनुसार नहीं होगा।

— 'जीवन में प्रवेश पर धर्मोपदेश और संगति' से उद्धृत

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