स्वभावगत बदलाव और अच्छे व्यवहार में क्या अंतर है?
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
स्वभाव में रूपांतरण मुख्य रूप से एक व्यक्ति की प्रकृति में रूपांतरण को संदर्भित करता है। किसी व्यक्ति की प्रकृति को बाहरी व्यवहारों से नहीं देखा जा सकता; उसका सीधा संबंध लोगों के अस्तित्व के मूल्य और महत्व से है। अर्थात इसमें जीवन के बारे में व्यक्ति का दृष्टिकोण और उसके मूल्य, उसका सार और उसकी आत्मा के भीतर गहराई में स्थित चीज़ें शामिल हैं। अगर एक व्यक्ति सत्य को स्वीकार नहीं कर पाता, तो उसे इन पहलुओं में किसी परिवर्तन से नहीं गुज़रना होगा। केवल यदि लोगों ने परमेश्वर के कार्य का पूरी तरह अनुभव किया है और पूरी तरह से सत्य में प्रवेश किया है, यदि उन्होंने अस्तित्व और जीवन पर अपने मूल्यों और दृष्टिकोणों को बदला है, यदि चीजों को वैसे ही देखा है जैसे परमेश्वर देखता है, और यदि वे पूरी तरह से अपने को परमेश्वर के सामने प्रस्तुत और समर्पित करने में सक्षम हो गए हैं, तभी कहा जा सकता है कि उनके स्वभाव रूपांतरित हो गए हैं। ऐसा लग सकता है कि तुम कुछ प्रयास कर रहे हो, तुम कठिनाई के सामने लचीले हो सकते हो, तुम ऊपर से मिली कार्य व्यवस्थाओं को पूरा करने में सक्षम हो सकते हो, या तुम्हें जहाँ भी जाने के लिए कहा जाए तुम वहाँ जा सकते हो, लेकिन ये व्यवहार के केवल बहुत ही छोटे परिवर्तन हैं, और तुम्हारे स्वभाव के परिवर्तन के तौर पर गिने नहीं जा सकते हैं। तुम कई रास्तों पर जाने में सक्षम हो सकते हो, तुम कई कठिनाइयों का सामना कर सकते हो और घोर अपमान को सहन करने में सक्षम हो सकते हो; तुम महसूस कर सकते हो कि तुम परमेश्वर के बहुत करीब हो और पवित्र आत्मा तुम्हारे में काम कर रहा है, लेकिन जब परमेश्वर तुम से कुछ ऐसा करने के लिए अनुरोध करता है जो तुम्हारी धारणाओं के अनुरूप नहीं है, तो तुम शायद अभी भी समर्पित नहीं हो पाओ, बल्कि तुम शायद बहाने ढूँढने लगो, तुम परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और विरोध कर सकते हो, इस हद तक कि तुम परमेश्वर की आलोचना और उसके ख़िलाफ़ विरोध करते हो। यह एक गंभीर समस्या होगी! यह साबित करता है कि तुममें अभी भी परमेश्वर का प्रतिरोध करने की प्रकृति है और तुम ज़रा भी परिवर्तित नहीं हुए हो।
— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'स्वभाव बदलने के बारे में क्या जानना चाहिए' से उद्धृत
स्वभाव में परिवर्तन के बारे में तुम लोग क्या जानते हो? स्वभाव में परिवर्तन और व्यवहार में परिवर्तन के सार भिन्न-भिन्न हैं, और अभ्यास में परिवर्तन भी अलग हैं—सार में वे सभी अलग-अलग हैं। अधिकांश लोग परमेश्वर पर अपने विश्वास में व्यवहार पर विशेष ज़ोर देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उनके व्यवहार में कुछ निश्चित परिवर्तन आते हैं। परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ करने के बाद वे दूसरों के साथ वाद-विवाद करना, लोगों को अपमानित करना और उनके साथ लड़ना-झगड़ना, धूम्रपान और मद्यपान करना, कोई भी सार्वजनिक संपत्ति—चाहे वह एक कील या लकड़ी का तख्ता ही क्यों न हो—चुराना बंद कर देते हैं, और वे इस सीमा तक जाते हैं कि जब भी उन्हें नुकसान उठाने पड़ते हैं या उनके साथ गलत बर्ताव किया जाता है, वे उसे अदालतों में नहीं ले जाते। निस्संदेह, उनके व्यवहार में कुछ परिवर्तन ज़रूर आते हैं। चूँकि, एक बार परमेश्वर में विश्वास करने के बाद, सच्चा मार्ग स्वीकार करना लोगों को विशेष रूप से अच्छा महसूस करवाता है, और चूँकि अब उन्होंने पवित्र आत्मा के कार्य के अनुग्रह का स्वाद भी चख लिया है, वे विशेष रूप से उत्साहित हैं, और यहाँ तक कि कुछ भी ऐसा नहीं होता है जिसका वे त्याग नहीं कर सकते या जिसे वे सहन नहीं कर सकते। लेकिन फिर भी तीन, पांच, दस या तीस साल तक विश्वास करने के बाद, जीवन-स्वभावों में कोई परिवर्तन न होने के कारण, वे पुराने तौर-तरीके फिर से अपना लेते हैं; उनका अहंकार और घमंड बढ़कर और अधिक मुखर हो जाता है, वे सत्ता और मुनाफे के लिए होड़ करना शुरू कर देते हैं, वे कलीसिया के धन के लिए ललचाते हैं, वे स्वयं अपने हितसाधन के लिए कुछ भी करते हैं, वे रुतबे और सुख-सुविधाओं के लिए लालायित रहते हैं, और वे परमेश्वर के घर के परजीवी बन गए हैं। खासकर अगुआओं के रूप में सेवा करने वाले अधिकांश व्यक्तियों को लोगों द्वारा त्याग दिया जाता है। और ये तथ्य क्या साबित करते हैं? महज व्यवाहारिक बदलाव देर तक नहीं टिकते हैं; अगर लोगों के जीवन-स्वभाव में कोई बदलाव नहीं होता है, तो देर-सबेर उनके पतित पक्ष स्वयं को दिखाएंगे। क्योंकि उनके व्यवहार में परिवर्तन का स्रोत उत्साह है। पवित्र आत्मा द्वारा उस समय किये गए कुछ कार्य का साथ पाकर, उनके लिए उत्साही बनना या अस्थायी दयालुता दिखाना बहुत आसान होता है। जैसा कि अविश्वासी लोग कहते हैं, "एक अच्छा कर्म करना आसान है; मुश्किल तो यह है कि जीवन भर अच्छे कर्म किए जाएँ।" लोग आजीवन अच्छे कर्म करने में असमर्थ होते हैं। एक व्यक्ति का व्यवहार जीवन द्वारा निर्देशित होता है; जैसा भी उसका जीवन है, उसका व्यवहार भी वैसा ही होता है, और केवल जो स्वाभाविक रूप से प्रकट होता है वही जीवन का, साथ ही व्यक्ति की प्रकृति का प्रतिनिधित्व करता है। जो चीजें नकली हैं, वे टिक नहीं सकतीं। जब परमेश्वर मनुष्य को बचाने के लिए कार्य करता है, यह मनुष्य को अच्छे व्यवहार का गुण देने के लिए नहीं होता—परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य लोगों के स्वभाव को रूपांतरित करना, उन्हें नए लोगों के रूप में पुनर्जीवित करना है। इस प्रकार, परमेश्वर का न्याय, ताड़ना, परीक्षण, और मनुष्य का परिशोधन, ये सभी उसके स्वभाव को बदलने के वास्ते हैं, ताकि वह परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण और धर्मनिष्ठा पा सके, और परमेश्वर की सामान्य ढंग से उपासना कर सके। यही परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य है। अच्छी तरह से व्यवहार करना परमेश्वर के प्रति समर्पित होने के समान नहीं है, और यह मसीह के अनुरूप होने के बराबर तो और भी नहीं है। व्यवहार में परिवर्तन सिद्धांत पर आधारित होते हैं, और उत्साह से पैदा होते हैं; वे परमेश्वर के सच्चे ज्ञान पर या सत्य पर आधारित नहीं होते हैं, पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन पर आश्रित होना तो दूर की बात है। यद्यपि ऐसे मौके होते हैं जब लोग जो भी करते हैं, उसमें से कुछ पवित्र आत्मा द्वारा निर्देशित होता है, यह जीवन की अभिव्यक्ति नहीं है, और यह बात परमेश्वर को जानने के समान तो और भी नहीं है; चाहे किसी व्यक्ति का व्यवहार कितना भी अच्छा हो, वह इसे साबित नहीं करता कि वे परमेश्वर के प्रति समर्पित हैं, या वे सत्य का अभ्यास करते हैं। व्यवहारात्मक परिवर्तन क्षणिक भ्रम के अलावा कुछ नहीं हैं; वे जोशो-ख़रोश का प्रस्फुटन हैं। उन्हें जीवन की अभिव्यक्ति नहीं माना जा सकता है।
— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'बाहरी परिवर्तन और स्वभाव में परिवर्तन के बीच अंतर' से उद्धृत
लोगों का व्यवहार अच्छा हो सकता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उनके अंदर सत्य है। लोगों का उत्साह उनसे केवल सिद्धांतों का अनुसरण और नियम का पालन करवा सकता है; लेकिन जो लोग सत्य से रहित हैं उनके पास मूलभूत समस्याओं का समाधान करने का कोई रास्ता नहीं होता, न ही सिद्धांत सत्य का स्थान ले सकता है। जिन लोगों ने अपने स्वभाव में परिवर्तन का अनुभव किया है, वे अलग हैं; उन्होंने सत्य समझ लिया है, वे सभी मुद्दों पर विवेकी होते हैं, वे जानते हैं कि कैसे परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य करना है, कैसे सत्य-सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना है, कैसे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए कार्य करना है, और वे उस भ्रष्टता की प्रकृति को समझते हैं जो वे प्रकट करते हैं। जब उनके अपने विचार और धारणाएँ प्रकट होती हैं, तो वे विवेकी बनकर देह की इच्छाओं को छोड़ सकते हैं। स्वभाव में परिवर्तन को इस प्रकार व्यक्त किया जाता है। जो लोग स्वभाव में परिवर्तन से गुज़रे हैं, उनके बारे में मुख्य बात यह है कि उन्होंने स्पष्ट रूप से सत्य समझ लिया है, और कार्य करते समय तो वे सापेक्ष सटीकता के साथ सत्य का अभ्यास करते हैं और वे अक्सर भ्रष्टता नहीं दिखाते। आम तौर पर, जिन लोगों का स्वभाव बदल गया है, वे खासकर तर्कसंगत और विवेकपूर्ण प्रतीत होते हैं, और सत्य की अपनी समझ के कारण, वे उतनी आत्म-तुष्टि और दंभ नहीं दिखाते। वे अपनी प्रकट हुई भ्रष्टता में से काफ़ी कुछ समझ-बूझ लेते हैं, इसलिए उनमें अभिमान उत्पन्न नहीं होता। मनुष्य का क्या स्थान है, कैसे उचित व्यवहार करना है, कैसे कर्तव्यनिष्ठ होना है, क्या कहना और क्या नहीं कहना है, और किन लोगों से क्या कहना और क्या करना है, इस बारे में उन्हें एक विवेकपूर्ण समझ होती है। इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि इस प्रकार के लोग अपेक्षाकृत तर्कसंगत होते हैं। जिन लोगों का स्वभाव बदल जाता है, वे वास्तव में एक मनुष्य के समान जीवन जीते हैं, और उनमें सत्य होता है। वे हमेशा सत्य के अनुरूप बोलने और चीज़ों को देखने में समर्थ होते हैं और वे जो भी करते हैं, सैद्धांतिक रूप से करते हैं; वे किसी व्यक्ति, मामले या चीज़ के प्रभाव में नहीं होते, उन सभी का अपना दृष्टिकोण होता है और वे सत्य-सिद्धांत को कायम रख सकते हैं। उनका स्वभाव सापेक्षिक रूप से स्थिर होता है, वे असंतुलित नहीं होते, चाहे उनकी स्थिति कैसी भी हो, वे समझते हैं कि कैसे उन्हें अपने कर्तव्य को सही ढंग से निभाना है और परमेश्वर की संतुष्टि के लिए कैसे व्यवहार करना है। जिन लोगों के स्वभाव वास्तव में बदल गए हैं वे इस पर ध्यान नहीं देते कि सतही तौर पर स्वयं को अच्छा दिखाने के लिए क्या किया जाए; परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए क्या करना है, इस पर उन्होंने आंतरिक स्पष्टता पा ली है। इसलिए, हो सकता है कि बाहर से वे इतने उत्साही न दिखें या ऐसा न लगे कि उन्होंने कुछ बड़ा किया है, लेकिन वो जो कुछ भी करते हैं वह सार्थक होता है, मूल्यवान होता है, और उसके परिणाम व्यावहारिक होते हैं। जिन लोगों के स्वभाव बदल गए हैं उनके अंदर निश्चित रूप से बहुत सत्य होता है, और इस बात की पुष्टि चीज़ों के बारे में उनके दृष्टिकोण और सैद्धांतिक कार्यों के आधार पर की जा सकती है। जिन लोगों में सत्य नहीं है, उनके स्वभाव में कोई बिलकुल परिवर्तन नहीं हुआ है। स्वभाव में परिवर्तन का अर्थ परिपक्व और कुशल मानवता से युक्त होना नहीं है; यह मुख्य रूप से उन घटनाओं को संदर्भित करता है जिसमें लोगों की प्रकृति के भीतर के कुछ शैतानी विष, परमेश्वर का ज्ञान पा लेने और सत्य समझ लेने के परिणामस्वरूप बदल जाते हैं। कहने का अर्थ यह है कि उन शैतानी विषों को दूर कर दिया जाता है, और परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्य ऐसे लोगों के भीतर जड़ें जमा लेता है, उनका जीवन बन जाता है, और उनके अस्तित्व की नींव बन जाता है। तभी वे नए लोग बनते हैं, और इस तरह उनका स्वभाव रूपांतरित होता है। स्वभाव में रूपांतरण का मतलब यह नहीं है कि उनका बाहरी स्वभाव पहले की तुलना में विनम्र हो गया है, कि वे अभिमानी हुआ करते थे लेकिन अब तर्कसंगत ढंग से बोलते हैं, या वे पहले किसी की नहीं सुनते थे, लेकिन अब वे दूसरों की बात सुन सकते हैं; ऐसे बाहरी परिवर्तन स्वभाव के रूपान्तरण नहीं कहे जा सकते। बेशक स्वभाव के रूपांतरण में ये अवस्थाएँ और अभिव्यक्तियाँ शामिल हैं, लेकिन सर्वाधिक महत्व की बात यह है कि अंदर से उनका जीवन बदल गया है। परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्य ही उनका जीवन बन जाता है, उनके भीतर का शैतानी विष निकाल दिया गया है, उनका दृष्टिकोण पूरी तरह से बदल गया है और उनमें से कुछ भी दुनिया के अनुसार नहीं है। ये लोग बड़े लाल अजगर की योजनाओं और विष को उनके असल रूप में स्पष्टता से देख सकते हैं; उन्होंने जीवन का सच्चा सार समझ लिया है। इस तरह उनके जीवन के मूल्य बदल गए हैं, और यह सबसे मौलिक किस्म का रूपांतरण है और स्वभाव में परिवर्तन का सार है।
— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'बाहरी परिवर्तन और स्वभाव में परिवर्तन के बीच अंतर' से उद्धृत
स्वभाव में रूपांतरण लाना कोई आसान काम नहीं है; इसका मतलब महज़ व्यवहार में थोड-सा बदलाव लाना और सत्य का थोड़ा ज्ञान हासिल कर लेना, सत्य के हर पहलू के बारे में अपने अनुभव पर थोड़ा बात कर लेना, या थोड़ा-सा बदल जाना, अनुशासित किए जाने के बाद थोड़ा-सा आज्ञाकारी हो जाना नहीं है। ये चीज़ें जीवन स्वभाव में रूपांतरण का अंग नहीं हैं। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? भले ही तुम थोड़ा-बहुत बदल गए हो, लेकिन तुम अभी भी सही मायने में सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे हो। तुम शायद इस तरह से व्यवहार इसलिए करते हो क्योंकि तुम कुछ समय के लिए उपयुक्त परिवेश में और अनुकूल स्थिति में हो या तुम्हारी वर्तमान परिस्थितियों ने तुम्हें इस तरह से व्यवहार करने के लिए मजबूर किया है। साथ ही, जब तुम्हारी मन:स्थिति स्थिर हो और पवित्र आत्मा कार्यरत हो, तो तुम अभ्यास कर पाते हो। यदि तुम अय्यूब की तरह परीक्षणों से गुज़रकर कष्ट उठा रहे होते, या पतरस की तरह जिसे परमेश्वर ने मर जाने के लिए कहा था, क्या तुम यह कह पाते, "अगर तुम्हें जानने के बाद मैं मर भी जाऊं, तो कोई बात नहीं"? स्वभाव में रूपांतरण कोई रातोंरात नहीं होता, और न ही इसका मतलब यह है कि सत्य को समझकर तुम प्रत्येक वातावरण में सत्य को अभ्यास में ला पाओगे। इससे मनुष्य की प्रकृति जुड़ी हुई है। ऐसा लग सकता है जैसे तुम सत्य को अभ्यास में ला रहे हो, लेकिन वास्तव में, तुम्हारे कृत्यों की प्रकृति यह नहीं दर्शाती कि तुम सत्य को अभ्यास में ला रहे हो। कई लोगों के बाहरी व्यवहार निश्चित प्रकार के होते हैं, जैसे, अपने परिवार और काम-धंधे का त्याग करके अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर पाना, इसलिए वो मानते हैं कि वो सत्य का अभ्यास कर रहे हैं। लेकिन परमेश्वर नहीं मानता कि वो सत्य का अभ्यास कर रहे हैं। अगर तुम्हारे हर काम के पीछे व्यक्तिगत इरादे हों और यह दूषित हो, तो तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे हो; तुम्हारा आचरण केवल बाहरी दिखावा है। सच कहें, तो परमेश्वर तुम्हारे आचरण की निंदा करेगा; वह इसकी प्रशंसा नहीं करेगा या इसे याद नहीं रखेगा। इसका आगे विश्लेषण करें तो, तुम दुष्टता कर रहे हो, तुम्हारा व्यवहार परमेश्वर के विरोध में है। बाहर से देखने पर तो तुम किसी चीज़ में अवरोध या व्यवधान नहीं डाल रहे हो और तुमने वास्तविक क्षति नहीं पहुंचाई है या किसी सत्य का उल्लंघन नहीं किया है। यह न्यायसंगत और उचित लगता है, मगर तुम्हारे कृत्यों का सार दुष्टता करने और परमेश्वर का विरोध करने से संबंधित है। इसलिए परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में अपने कृत्यों के पीछे के अभिप्रायों को देखकर तुम्हें निश्चित करना चाहिए कि क्या तुम्हारे स्वभाव में कोई परिवर्तन हुआ है, क्या तुम सत्य को अभ्यास में ला रहे हो। यह इस इंसानी नज़रिए पर निर्भर नहीं करता कि तुम्हारे कृत्य इंसानी कल्पनाओं और इरादों के अनुरूप हैं या नहीं या वो तुम्हारी रुचि के उपयुक्त हैं या नहीं; ऐसी चीज़ें महत्वपूर्ण नहीं हैं। बल्कि, यह इस बात पर आधारित है कि परमेश्वर की नज़रों में तुम उसकी इच्छा के अनुरूप चल रहे हो या नहीं, तुम्हारे कृत्यों में सत्य-वास्तविकता है या नहीं, और वे उसकी अपेक्षाओं और मानकों को पूरा करते हैं या नहीं। केवल परमेश्वर की अपेक्षाओं से तुलना करके अपने आपको मापना ही सही है। स्वभाव में रूपांतरण और सत्य को अभ्यास में लाना उतना सहज और आसान नहीं है जैसा लोग सोचते हैं। क्या तुम लोग अब इस बात को समझ गए? क्या इसका तुम सबको कोई अनुभव है? जब समस्या के सार की बात आती है, तो शायद तुम लोग इसे नहीं समझ सकोगे; तुम्हारा प्रवेश बहुत ही उथला रहा है। तुम लोग सुबह से शाम तक भागते-दौड़ते हो, तुम लोग जल्दी उठते हो और देर से सोते हो, फिर भी तुम्हारा स्वभाव रूपांतरित नहीं हुआ है, और तुम इस बात को समझ नहीं सकते कि इस रूपांतरण में क्या-क्या चीज़ें शामिल हैं। इसका अर्थ है कि तुम्हारा प्रवेश बहुत ही उथला है, है न? भले ही तुम अधिक समय से परमेश्वर में आस्था रखते आ रहे हो, लेकिन हो सकता है कि तुम लोग स्वभाव में रूपांतरण हासिल करने के सार और उसकी गहराई को महसूस न कर सको।
— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'स्वभाव बदलने के बारे में क्या जानना चाहिए' से उद्धृत
अब तुम लोग किस चरण में हो? यानी, तुम पहले ही जान चुके हो कि तुम्हारा दृष्टिकोण गलत है, लेकिन तुम अभी भी जीने के लिए अपने दृष्टिकोण पर निर्भर रह सकते हो और तुम इसका उपयोग परमेश्वर के कार्य को मापने, उसकी आलोचना करने और परमेश्वर के कार्य पर, उसकी संप्रभुता पर, वह तुम्हारे लिए जिन परिस्थितियों का निर्माण करता है उन पर विचार करने के लिए करते हो और तुम परमेश्वर की संप्रभुता से, अपने दृष्टिकोण और तरीकों से पेश आ सकते हो। क्या यही सत्य का अभ्यास करना है? क्या व्यक्ति के स्वभाव में बदलाव का यही परिणाम होता है? नहीं, ऐसा नहीं है। अभी तुम केवल यह स्वीकार करते हो कि परमेश्वर के वचन अच्छे और सही हैं, तुम्हारे बाहरी व्यवहार को देखने से ऐसा नहीं लगता कि तुम ऐसा कुछ करते हो जो सत्य के खिलाफ हो, ऐसा तो बिल्कुल ही नहीं लगता तुम परमेश्वर की आलोचना करने वाला कोई काम करते हो। तुम परमेश्वर के घर की कार्य-व्यवस्था के प्रति भी समर्पित होते हो। ऐसे व्यक्ति का रूपांतरण एक अविश्वासी से एक संत की शालीनता लिए परमेश्वर के अनुयायी के रूप में हो गया। तुम्हारा रूपांतरण दृढ़ता से शैतान के फलसफों, शैतान की धारणाओं और सिद्धांतों और ज्ञान के सहारे जीवनयापन करने वाले व्यक्ति से, किसी ऐसे व्यक्ति में हो जाता है, जिसे परमेश्वर के वचन सुनकर लगता है कि वे अच्छे हैं, सही हैं और सत्य हैं, जो परमेश्वर के वचनों के अनुरूप जीना चाहता है, जिसने परमेश्वर के वचनों को स्वीकार कर लिया है और उन्हें अपना जीवन मान लिया है। यह उस तरह की प्रक्रिया है—और कुछ नहीं। तो, इस अवधि में, तुम्हारे व्यवहार और काम करने के तरीके में निश्चित रूप से कुछ परिवर्तन आएगा और ये पहले से पूरी तरह अलग होंगे। चाहे वे किसी भी तरह से अलग हों, चाहे कितनी भी चीजें अलग हों, परमेश्वर के प्रति तुममें जो अभिव्यक्त होगा, वह तुम्हारे व्यवहार और तरीकों में बदलाव, तुम्हारी सोच और दृष्टिकोण में बदलाव, तुम्हारी अंतरतम इच्छाओं में बदलाव और तुम्हारी आकांक्षाओं में बदलाव से अधिक कुछ नहीं होगा। प्रयास करके, अब तुम अपना जीवन परमेश्वर को अर्पित कर सकते हो, लेकिन जो मामला तुम्हें विशेष रूप से अरुचिकर लगता है, उसमें तुम परमेश्वर के प्रति पूर्ण आज्ञाकारिता प्राप्त नहीं कर सकते। व्यवहार में बदलाव और स्वभाव में बदलाव के बीच यही अंतर है। शायद, तुम अपने दयालु हृदय के कारण ऐसा व्यवहार कर पाओ कि तुम यह कहते हुए परमेश्वर के लिए तुरंत अपना जीवन न्योछावर कर दो, "मैं तैयार हूं और अपने जीवन का रक्त देना चाहता हूं। इस जीवन में, मुझे न कोई पछतावा है और न ही कोई शिकायत है! मैंने वैवाहिक जीवन का त्याग कर दिया, सांसारिक संभावनाएँ त्याग दीं, सारी महिमा और ऐश्वर्य त्याग दिए और मैंने उन परिस्थितियों को स्वीकार कर लिया जिनकी व्यवस्था परमेश्वर ने मेरे लिए की है। मैं दुनिया के सारे उपहास और बदनामी झेल सकता हूं।" अब परमेश्वर को केवल ऐसी परिस्थितियाँ बनानी हैं जो तुम्हारी अवधारणाओं के उपयुक्त न हों, फिर तुम उस पर चिल्लाते हो और उसका विरोध करते हो। यह व्यवहार में बदलाव और स्वभाव में बदलाव के बीच का अंतर है। यह भी संभव है कि तुम परमेश्वर के लिए अपना जीवन लगा दो, उन लोगों और चीजों का त्याग कर दो, जिनसे तुम सबसे अधिक प्रेम करते हो या उन चीजों का त्याग कर दो, जिनका त्याग तुम्हारा दिल सह न पाए-लेकिन जब तुमसे परमेश्वर के बारे में एक ईमानदार शब्द बोलने को कहा जाए और एक ईमानदार व्यक्ति होने के लिए कहा जाए, तो तुम्हारे लिए बहुत मुश्किल हो जाती है और तुम ऐसा नहीं कर पाते। यही व्यवहार में बदलाव और स्वभाव में बदलाव के बीच का अंतर है। और फिर, शायद तुम्हें इस जीवन में दैहिक सुखों की लालसा न हो, अच्छा खाना खाने और अच्छे कपड़े पहनने की लालसा न हो, दिन भर काम करके थककर चूर हो जाओ। हर तरह के शारीरिक कष्टों को झेल सकते हो, लेकिन जब परमेश्वर की व्यवस्था तुम्हारी अवधारणाओं के अनुरूप न हो, तो तुम समझ नहीं पाते और जब तुम समझ नहीं पाते, तो तुम्हारे अंदर परमेश्वर के खिलाफ शिकायतें पैदा हो जाती हैं, उसके बारे में गलतफहमी पैदा हो जाती है और ऐसे में, तुम्हारे और परमेश्वर के बीच संबंध तेजी से बिगड़ने लगते हैं, जब तक कि तुम उससे दूर नहीं चले जाते, उसे धोखा नहीं दे देते और उसके प्रति पूरी तरह से समर्पण करना बंद नहीं कर देते। यह व्यवहार में बदलाव और स्वभाव में बदलाव के बीच का अंतर है। तुम परमेश्वर के लिए अपना जीवन त्याग सकते हो, तुम उससे एक ईमानदार शब्द क्यों नहीं कह सकते? तुम अपने से बाहर की हर चीज से स्वयं को अलग कर सकते हो, तो फिर उस आदेश का पालन और उस कार्य को पूरी निष्ठा से क्यों नहीं कर सकते जो परमेश्वर ने तुम्हें दिया है? तुम परमेश्वर के लिए अपना जीवन त्याग सकते हो, तो तुम, जब तुम दूसरों के सामने अपनी भावनाएँ प्रकट करते हो और उनसे अपने संबंध बनाए रखते हो, तो क्या तुम परमेश्वर के कार्य को और उसके हितों को बनाए रखने के लिए अडिग नहीं रह सकते? तुमने परमेश्वर के सामने आजीवन उसके लिए खुद को खपाने और उस राह में आने वाले तमाम कष्टों को सहने का बीड़ा उठाया है, तो फिर तुम्हें अपने कर्तव्य से बर्खास्त कर दिए जाने की एक घटना तुम्हें इतनी नकारात्मकता में क्यों डुबो देती है कि तुम कई दिनों तक उससे बाहर ही नहीं आ पाते? तुम्हारा दिल प्रतिरोध, शिकायत और गलतफहमी से भरा है—यह सब नकारात्मक है। यह क्या हो रहा है? यह व्यवहार में बदलाव और स्वभाव में बदलाव के बीच का अंतर है।
— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपनी धारणाओं का समाधान करके ही कोई परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश कर सकता है (3)' से उद्धृत
इससे पहले लोग किस आधार पर रहते थे? सभी लोग स्वयं के लिए जीते हैं। मैं तो बस अपने लिए सोचूँगा, बाकियों को शैतान ले जाए—यह मानव प्रकृति का निचोड़ है। लोग अपनी ख़ातिर परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; वे चीजों को त्यागते हैं, परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते हैं और परमेश्वर के प्रति वफादार रहते हैं—लेकिन फिर भी वे ये सब स्वयं के लिए करते हैं। संक्षेप में, यह सब स्वयं के लिए आशीर्वाद प्राप्त करने के उद्देश्य से किया जाता है। दुनिया में, सब कुछ निजी लाभ के लिए होता है। परमेश्वर पर विश्वास करना आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए है, और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए ही कोई व्यक्ति सब कुछ छोड़ देता है, और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए कोई व्यक्ति बहुत दुःख का भी सामना कर सकता है। यह सब मनुष्य की भ्रष्ट प्रकृति का प्रयोगसिद्ध प्रमाण है। हालांकि, जिन लोगों के स्वभाव में परिवर्तन हुआ है वे भिन्न होते हैं। उन्हें कैसे सार्थक रूप से जीना चाहिए, मानव कहलाने के योग्य होने के लिए उन्हें कैसे एक व्यक्ति के कर्तव्यों को पूरा करना चाहिए, उन्हें कैसे परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए, और कैसे उन्हें परमेश्वर की आज्ञा माननी चाहिए और उसे संतुष्ट करना चाहिए—उनका मानना है कि यह एक व्यक्ति होने का आधार है और स्वर्ग और पृथ्वी के अपरिवर्तनीय सिद्धांतों के अनुरूप उनका दायित्व है। अन्यथा, वे मानव कहलाने के योग्य नहीं होंगे; उनके जीवन खाली और निरर्थक होंगे। वे यह महसूस करते हैं कि लोगों को परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए, अपना कर्तव्य अच्छी तरह से पूरा करने के लिए जीवन जीना चाहिए, उन्हें एक सार्थक जीवन जीना चाहिए ताकि मृत्यु हो जाने पर भी, वे संतुष्ट रहें और उनमें ज़रा सा भी पछतावा न रहे—उन्हें निरर्थक जीवन नहीं जीना चाहिए। इन दो प्रकार की परिस्थितियों की तुलना करने से, हम देखते हैं कि बाद वाला वह व्यक्ति है जिसका स्वभाव बदल गया है, और चूँकि उसका जीवन-स्वभाव बदल चुका है, जीवन पर उसका दृष्टिकोण निश्चित रूप से बदल गया है। इन अलग मूल्यों के साथ, वह फिर कभी खुद के लिए नहीं जीएगा, और परमेश्वर पर उसका विश्वास फिर कभी अपने लिए आशीर्वाद पाने के उद्देश्य के लिए नहीं होगा। वह इसे कहने में सक्षम होगा, "परमेश्वर को जानने के बाद, मेरे लिए मृत्यु क्या है? परमेश्वर को जानने से मुझे एक सार्थक जीवन जीने में मदद मिली है। मैं व्यर्थ में नहीं जिया हूँ और मैं पछतावे के साथ नहीं मरूँगा—मुझे कोई शिकायत नहीं है।" क्या यह जीवन पर एक परिवर्तित दृष्टिकोण नहीं है? इसलिए, किसी के जीवन स्वभाव में परिवर्तन का मुख्य कारण उसके भीतर सत्य का होना है, और परमेश्वर का ज्ञान होना है; इससे जीवन पर व्यक्ति का दृष्टिकोण बदल जाता है, और मूल्य पहले से भिन्न हो जाते हैं। यह परिवर्तन व्यक्ति के भीतर से, और उसके जीवन से शुरू होता है; यह निश्चित रूप से सिर्फ एक बाहरी परिवर्तन नहीं है। कुछ नए विश्वासियों ने, परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद, लौकिक चीज़ों को पीछे छोड़ दिया है; जब वे अविश्वासियों से मिलते हैं तो वे कुछ नहीं बोलते हैं, और वे शायद ही कभी अपने अविश्वासी रिश्तेदारों और मित्रों से मिलते हैं। अविश्वासियों का कहना होता है, "यह व्यक्ति सचमुच बदल चुका है।" इसलिए वे सोचते हैं, "मेरा स्वभाव सचमुच बदल गया है—अविश्वासी कहते हैं कि मैं बदल गया हूँ।" सच कहें तो, क्या उनके स्वभाव में वास्तव में बदलाव आया है? नहीं आया है। ये केवल बाह्य परिवर्तन हैं। उनके जीवन में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है, और उनकी शैतानी प्रकृति उनके भीतर जड़ें जमाये हुए है, पूरी तरह अछूती रही है। कभी-कभी, लोग पवित्र आत्मा के कार्य की वजह से उत्साह में आ जाते हैं; कुछ बाहरी परिवर्तन होते हैं, और वे कुछ अच्छे कर्म करते हैं। लेकिन यह स्वभाव में परिवर्तन के बराबर नहीं है। तुम बिना सत्य के हो, चीज़ों के प्रति तुम्हारा दृष्टिकोण नहीं बदला है, यहाँ तक कि यह अविश्वासी लोगों से भी अलग नहीं है, और जीवन के बारे में तुम्हारे मूल्य और दृष्टिकोण नहीं बदले हैं। तुम्हारे पास एक ऐसा हृदय भी नहीं है जो परमेश्वर का सम्मान करे, जो कि न्यूनतम आवश्यकता है जो तुम्हारे पास होनी चाहिए। तुम्हारे स्वभाव में बदलाव से बढ़कर कुछ भी नहीं है।
— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'बाहरी परिवर्तन और स्वभाव में परिवर्तन के बीच अंतर' से उद्धृत
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?