अपने कर्तव्य को करने और सेवा करने में क्या अंतर है?

14 मार्च, 2021

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:

मनुष्य के कर्तव्य और वह धन्य है या शापित, इनके बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। धन्य होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। शापित होना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, ऐसा तब होता है जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें धन्य किया जाता है या शापित, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल धन्य होने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें शापित होने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है। अपना कर्तव्य पूरा करने की प्रक्रिया के माध्यम से मनुष्य धीरे-धीरे बदलता है, और इसी प्रक्रिया के माध्यम से वह अपनी वफ़ादारी प्रदर्शित करता है। इस प्रकार, जितना अधिक तुम अपना कार्य करने में सक्षम होगे, उतना ही अधिक तुम सत्य को प्राप्त करोगे, और उतनी ही अधिक तुम्हारी अभिव्यक्ति वास्तविक हो जाएगी। जो लोग अपना कर्तव्य बेमन से करते हैं और सत्य की खोज नहीं करते, वे अंत में हटा दिए जाएँगे, क्योंकि ऐसे लोग सत्य के अभ्यास में अपना कर्तव्य पूरा नहीं करते, और अपना कर्तव्य पूरा करने में सत्य का अभ्यास नहीं करते। ये वे लोग हैं, जो अपरिवर्तित रहते हैं और शापित किए जाएँगे। उनकी न केवल अभिव्यक्तियाँ अशुद्ध हैं, बल्कि वे जो कुछ भी व्यक्त करते हैं, वह दुष्टतापूर्ण होता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर

लोग चाहे जो भी प्रतिभा, योग्यता, या कौशल धारण करते हों, यदि वे केवल चीज़ों को करते हैं और अपने कर्तव्य का पालन करने में ही अपनी ताक़त का उपयोग करते हैं; यदि वे चाहे जो कुछ भी करें, उसमें वे अपनी कल्पनाओं, अवधारणाओं या अपने सहज ज्ञान पर भरोसा करते हैं; यदि वे केवल अपनी ताक़त लगाते हैं, और कभी भी परमेश्वर की इच्छा की तलाश नहीं करते हैं, और उनके मन में कोई धारणा या आवश्यकता नहीं होती है, तो कहते हैं कि, "मुझे सत्य को व्यवहार में अवश्य लाना चाहिए। मैं अपना कर्तव्य कर रहा हूँ"; उनके विचार केवल अपने कार्य को अच्छी तरह से करने और अपने कार्य को पूरा करने से शुरू होते हैं, तो वे ऐसे लोग हैं जो पूरी तरह से अपनी योग्यता, प्रतिभा, क्षमता और कौशल के अनुसार जीते हैं? क्या इस तरह के बहुत से लोग हैं? विश्वास में, वे केवल स्वयं को परिश्रम में लगाने, अपने स्वयं के श्रम को बेचने, और अपने स्वयं के कौशलों को बेचने के बारे में सोचते हैं। विशेष रूप से जब परमेश्वर का घर उन्हें सामान्य कार्य करने के लिए देता है तब ज्यादातर लोग इस दृष्टिकोण से चीज़ों को करते हैं। वे बस खुद का बल लगाते हैं। कभी इसका अर्थ होता है अपने मुँह का उपयोग करना, कभी अपने हाथों का और शारीरिक शक्ति का उपयोग करना, और कभी इसका अर्थ दौड़-भाग करना होता है। ऐसा क्यों कहा जाता है कि उन चीज़ों के अनुसार जीना अपनी ताक़त का उपयोग करना है, न कि सत्य को अभ्यास में लाना? किसी को परमेश्वर के घर द्वारा कोई कार्य दिया जाता है, और इसे प्राप्त करने पर, वह केवल यह सोचता है कि इस कार्य को कैसे यथाशीघ्र पूरा किया जाए ताकि वह कलीसिया के अगुवाओं को विवरण दे सके और उनकी प्रशंसा प्राप्त कर सके। ऐसे लोग एक कदम-दर-कदम योजना बना सकते हैं। वे बहुत ईमानदार प्रतीत होते हैं, लेकिन वे दिखावे के वास्ते कार्य को पूरा करने से ज्यादा किसी अन्य चीज़ पर ध्यान केंद्रित नहीं करते हैं, या जब वे ऐसा कर रहे होते हैं, तो वे स्वयं के लिए अपने मानक निर्धारित करते हैं: इसे कैसे करें ताकि वे खुश और संतुष्ट महसूस करें, पूर्णता के उस स्तर को प्राप्त करना जिसके लिए वे प्रयास करते हैं। भले ही वे किसी भी मानक को निर्धारित करते हों, यदि इसका सत्य से कोई संबंध नहीं है, यदि वे सत्य की तलाश करने या इस बात को समझने और इसकी पुष्टि करने के बाद कि परमेश्वर उनसे क्या माँग करता है, कार्रवाई नहीं करते हैं, बल्कि इसके विपरीत, वे, उलझन में, आँखें मूँदकर कार्य करते हैं, तो यह केवल स्वयं का बल लगाना है। वे अपनी इच्छाओं के अनुसार, अपने दिमाग या योग्यता के अनुसार, या अपनी क्षमताओं और कौशलों के अनुसार कार्य कर रहे हैं। और इस तरह से उनके कार्य करने का परिणाम क्या होता है? हो सकता है कि कार्य पूरा हो गया हो, किसी ने कोई दोष नहीं निकाला हो, और हो सकता है कि तू इससे बहुत खुश हो। लेकिन ऐसा करने के दौरान, सबसे पहले तो: तूने परमेश्वर के इरादे को नहीं समझा; और उसके बाद: तूने इसे अपने पूरे हृदय से, अपने पूरे मन से, और अपनी पूरी ताक़त के साथ नहीं किया—तूने इसमें अपना पूरा हृदय नहीं लगाया। यदि तूने सत्य के सिद्धांतों की तलाश की होती, यदि तूने परमेश्वर की इच्छा की तलाश की होती, तो तू इसे पूरा करने में 90% प्रभावी होता, तू सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने में भी समर्थ होता, और तू ठीक से समझ गया होता कि तू जो कर रहा था वह परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है। लेकिन यदि तू लापरवाह और बेतरतीब होता, तो भले ही कार्य पूरा हो गया हो, तब भी अपने हृदय में तू इस बारे में स्पष्ट नहीं होता कि तूने इसे कितनी अच्छी तरह से किया है। तेरे पास कोई मानदण्ड नहीं होगा, तुझे पता नहीं लगेगा कि यह परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप है या नहीं, या यह सत्य के अनुरूप है या नहीं। इसलिए, जब भी इस तरह की स्थिति में कर्तव्यों का पालन किया जाता है, तो इसका चार शब्दों में उल्लेख किया जा सकता है—स्वयं का बल लगाना।

परमेश्वर में आस्था रखने वाले हर व्यक्ति को परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिये। अपने कर्तव्य को सही ढंग से निभाने वाले लोग ही परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं, परमेश्वर उन्हें जो काम सौंपता है, उसे पूरा करने से ही उनके कर्तव्यों का निर्वहन अपेक्षित मानक के बराबर होगा। परमेश्वर के आदेश की पूर्णता के मानक हैं। प्रभु यीशु ने कहा: "तू प्रभु अपने परमेश्वर से अपने सारे मन से, और अपने सारे प्राण से, और अपनी सारी बुद्धि से, और अपनी सारी शक्ति से प्रेम रखना।" परमेश्वर से प्रेम करना उसका एक पहलू है जिसकी परमेश्वर लोगों से अपेक्षा करता है। वास्तव में, जब परमेश्वर लोगों को एक आदेश देता है, जब वे अपने विश्वास से अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो जिन मानकों की वह उनसे अपेक्षा करता है वे हैं: अपने पूर्ण हृदय से, अपने पूर्ण प्राण से, अपने पूरे दिमाग से, और अपनी पूरी ताक़त के साथ। यदि तू मौज़ूद तो है, लेकिन तेरा हृदय मौज़ूद नहीं है, यदि तू कार्यों के बारे में अपने दिमाग से सोचता है और उन्हें स्मृति में रख देता है, लेकिन तू अपना हृदय उन में नहीं लगाता है, और यदि तू अपनी क्षमताओं का उपयोग करके चीज़ों को पूरा करता है, तो क्या यह परमेश्वर के आदेश को पूरा करना है? तो अपने कर्तव्य को सही तरीके से करने और परमेश्वर ने तुझे जो कुछ भी सौंपा है, उसे पूरा करने के लिए और अपने कर्तव्य को निष्ठापूर्वक निभाने के लिए किस तरह का मानक प्राप्त करना ही चाहिए? यह अपने कर्तव्य को पूरे हृदय से, अपने पूरे प्राण से, अपने पूरे मन से, अपनी पूरी ताक़त से करना है। अगर तुम्हारे अंदर परमेश्वर से प्रेम करने वाला दिल नहीं है, तो फिर अपने कर्तव्य को सही ढंग से निभाने की कोशिश करने से बात नहीं बनेगी। अगर परमेश्वर के लिये तुम्हारा प्रेम मज़बूत और अधिक सच्चा होता चला जाता है, तो स्वाभाविक रूप से तुम पूरे दिल से, पूरी आत्मा से, पूरे मन से, और पूरी शक्ति से अपने कर्तव्य का निर्वाह कर पाओगे।

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'जीवन जीने के लिए लोग ठीक-ठीक किस पर भरोसा करते रहे हैं' से उद्धृत

कुछ लोगों के लिए, भले ही वे अपने कर्तव्यों का पालन करते समय किसी भी समस्या का सामना क्यों न करें, वे सत्य की तलाश नहीं करते हैं और हमेशा अपने विचारों, अपनी अवधारणाओं, कल्पनाओं और इच्छाओं के अनुसार कार्य करते हैं। वे निरंतर अपनी स्वार्थी इच्छाओं को संतुष्ट करते हैं और उनके भ्रष्ट स्वभाव हमेशा उनके कार्यों पर नियंत्रण करते हैं। भले ही वे उन्हें सौंपे गए कर्तव्य को पूरा कर दें, फिर भी वे किसी सत्य को प्राप्त नहीं करते हैं। तो ऐसे लोग अपने कर्तव्य को करते समय किस पर निर्भर करते हैं? ऐसे व्यक्ति न तो सत्य पर निर्भर करते हैं, न ही परमेश्वर पर। जिस थोड़े से सत्य को वे समझते हैं, उसने उनके हृदयों में संप्रभुत्व हासिल नहीं किया है; वे इन कर्तव्यों को पूरा करने के लिए अपनी स्वयं की योग्यताओं और क्षमताओं पर, उस ज्ञान पर जो उन्होंने प्राप्त किया है और अपनी प्रतिभा पर, और साथ ही अपनी इच्छाशक्ति पर या नेक इरादों पर भरोसा कर रहे हैं। क्या यह अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना है? क्या यह अपना कर्तव्य संतोषजनक ढंग से निभाना है? यद्यपि कभी-कभी तू अपने कर्तव्य को निभाने के लिए अपनी स्वाभाविकता, कल्पना, अवधारणाओं, ज्ञान और शिक्षा पर भरोसा करे, तेरे द्वारा की जाने वाली कुछ चीज़ों में सिद्धांत का कोई मुद्दा नहीं उभरता है। सतह पर ऐसा लगता है जैसे कि तूने गलत मार्ग नहीं अपनाया है, लेकिन एक ऐसी चीज़ है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है: अपने कर्तव्य को निभाने की प्रक्रिया के दौरान, यदि तेरी अवधारणाएँ, कल्पनाएँ और व्यक्तिगत इच्छाएँ कभी नहीं बदलती हैं और कभी भी सत्य के साथ प्रतिस्थापित नहीं की जाती हैं, यदि तेरे कार्य और कर्म कभी भी सत्य के सिद्धांतों के अनुसार नहीं किए जाते हैं, तो अंतिम परिणाम क्या होगा? तू एक सेवा करने वाला बन जाएगा। और ठीक यही बाइबल में लिखा है: "उस दिन बहुत से लोग मुझ से कहेंगे, 'हे प्रभु, हे प्रभु, क्या हम ने तेरे नाम से भविष्यद्वाणी नहीं की, और तेरे नाम से दुष्‍टात्माओं को नहीं निकाला, और तेरे नाम से बहुत से आश्‍चर्यकर्म नहीं किए?' तब मैं उनसे खुलकर कह दूँगा, 'मैं ने तुम को कभी नहीं जाना। हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ'" (मत्ती 7:22-23)। परमेश्वर अपने प्रयास लगाने वालों और सेवा प्रदान करने वालों को "अधर्म करने वाले" क्यों कहता है? एक बात पर हम निश्चित हो सकते हैं, और वह यह कि ये लोग चाहे कोई भी कर्तव्य निभाएँ या कोई भी काम करें, इन लोगों की अभिप्रेरणाएँ, बल, इरादे और विचार पूरी तरह से उनकी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं से पैदा होते हैं, पूरी तरह से उनके अपने विचारों और व्यक्तिगत हितों पर आधारित होते हैं, और उनके विचार और योजनाएँ पूरी तरह से उनकी शोहरत, रुतबे, अहंकार और भविष्य की संभावनाओं के चारों ओर घूमती हैं। उनके अंतरतम में, कोई सत्य नहीं होता, न ही वे सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हैं। इस प्रकार, अब तुम लोगों के लिए क्या खोजना अतिमहत्वपूर्ण है? (हम लोगों को सत्य की खोज करनी चाहिए और परमेश्वर की इच्छा और अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य निभाना चाहिए।) परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हें विशेष रूप से क्या करना चाहिए? कोई काम करते समय तुम्हारे अंदर जो इरादे और विचार होते हैं, उनके संबंध में तुम्हें यह भेद करना ज़रूर सीखना चाहिए कि वे सत्य के अनुरूप हैं या नहीं, साथ ही तुम्हारे इरादे और विचार तुम्हारी अपनी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं की पूर्ति के लिए हैं या परमेश्वर के परिवार के हितों के लिए। अगर तुम्हारे इरादे और विचार सत्य के अनुरूप हैं, तो तुम अपनी सोच के अनुसार अपना कर्तव्य निभा सकते हो; लेकिन अगर वे सत्य के अनुरूप नहीं हैं, तो तुम्हें तुरंत पलटकर उस मार्ग का त्याग कर देना चाहिए। वह मार्ग सही नहीं है और तुम उस तरह से अभ्यास नहीं कर सकते; अगर तुम उस रास्ते पर चलते रहे, तो तुम अंत में दुष्टता कर बैठोगे।

— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपने कर्तव्यों में परमेश्वर के वचनों का अनुभव कैसे करें' से उद्धृत

पतरस को व्यवहार और शुद्धिकरण का अनुभव करने के माध्यम से पूर्ण बनाया गया था। उसने कहा था, "मुझे हर समय परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करना ही चाहिए। मैं जो भी करता हूँ उस सबमें मैं केवल परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने की तलाश करता हूँ, और चाहे मुझे ताड़ना मिले, या मेरा न्याय किया जाए, तो भी मैं ऐसा करके प्रसन्न हूँ।" पतरस ने अपना सब कुछ परमेश्वर को दे दिया था, और उसका कार्य, वचन, और संपूर्ण जीवन सब परमेश्वर को प्रेम करने के लिए थे। वह ऐसा व्यक्ति था जो पवित्रता की खोज करता था, और जितना अधिक उसने अनुभव किया, उसके हृदय की गहराई के भीतर परमेश्वर के लिए उसका प्रेम उतना ही अधिक बढ़ता गया। इसी समय, पौलुस ने बस बाहरी कार्य ही किया था, और यद्यपि उसने भी कड़ी मेहनत की थी, किंतु उसका परिश्रम अपना कार्य उचित ढंग से करने और इस तरह पुरस्कार पाने के लिए था। अगर वह जानता कि उसे कोई पुरस्कार नहीं मिलेगा, तो उसने अपने काम छोड़ दिया होता। पतरस जिस चीज़ की परवाह करता था वह उसके हृदय के भीतर सच्चा प्रेम था, और वह था जो व्यावहारिक था और जिसे प्राप्त किया जा सकता था। उसने इसकी परवाह नहीं की कि उसे पुरस्कार मिलेगा या नहीं, बल्कि इसकी परवाह की कि उसके स्वभाव को बदला जा सकता है या नहीं। पौलुस ने और भी कड़ी मेहनत करने की परवाह की थी, उसने बाहरी कार्य और समर्पण की, और सामान्य लोगों द्वारा अनुभव नहीं किए गए सिद्धांतों की परवाह की थी। वह न तो अपने भीतर गहराई में बदलावों की और न ही परमेश्वर के प्रति सच्चे प्रेम की परवाह करता था। पतरस के अनुभव परमेश्वर का सच्चा प्रेम और सच्चा ज्ञान प्राप्त करने के लिए थे। उसके अनुभव परमेश्वर से निकटतर संबंध पाने के लिए, और व्यावहारिक जीवन यापन करने के लिए थे। पौलुस का कार्य इसलिए किया गया था क्योंकि यह यीशु के द्वारा उसे सौंपा गया था, और उन चीज़ों को पाने के लिए था जिनकी वह लालसा करता था, फिर भी ये स्वयं अपने और परमेश्वर के विषय में उसके ज्ञान से असंबद्ध थे। उसका कार्य केवल ताड़ना और न्याय से बचने के लिए था। पतरस ने जिसकी खोज की वह शुद्ध प्रेम था, और पौलुस ने जिसकी खोज की वह धार्मिकता का मुकुट था। पतरस ने पवित्र आत्मा के कार्य का कई वर्षों का अनुभव प्राप्त किया था, और उसे मसीह का व्यावहारिक ज्ञान, साथ ही स्वयं अपना अथाह ज्ञान भी था। और इसलिए, परमेश्वर के प्रति उसका प्रेम शुद्ध था। कई वर्षों के शुद्धिकरण ने यीशु और जीवन के उसके ज्ञान को उन्नत बना दिया था, और उसका प्रेम बिना शर्त प्रेम था, यह स्वतःस्फूर्त प्रेम था, और उसने बदले में कुछ नहीं माँगा, न ही उसने किसी लाभ की आशा की थी। पौलुस ने कई वर्ष काम किया, फिर भी उसने मसीह का अत्यधिक ज्ञान प्राप्त नहीं किया, और स्वयं अपने विषय में उसका ज्ञान भी दयनीय रूप से थोड़ा ही था। उसमें मसीह के प्रति कोई प्रेम ही नहीं था, और उसका कार्य और जिस राह पर वह चला निर्णायक कीर्ति पाने के लिए थे। उसने जिसकी खोज की वह श्रेष्ठतम मुकुट था, शुद्धतम प्रेम नहीं। उसने सक्रिय रूप से नहीं, बल्कि निष्क्रिय रूप से खोज की; वह अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं कर रहा था, बल्कि पवित्र आत्मा के कार्य द्वारा पकड़ लिए जाने के बाद अपने अनुसरण में बाध्य था। और इसलिए, उसका अनुसरण यह साबित नहीं करता है कि वह परमेश्वर का गुणसंपन्न सृजित प्राणी था; यह पतरस था जो परमेश्वर का गुणसंपन्न सृजित प्राणी था जिसने अपना कर्तव्य निभाया था।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है

पौलुस का कार्य कलीसियाओं के पोषण, और कलीसियाओं की सहायता से संबंधित था। पतरस ने जो अनुभव किया वे उसके जीवन स्वभाव में हुए परिवर्तन थे; उसने परमेश्वर के प्रति प्रेम अनुभव किया था। अब जब तुम उनके सार में अंतर जानते हो, तब तुम देख सकते हो कि अंततः कौन परमेश्वर में सचमुच विश्वास करता था, और कौन परमेश्वर में सचमुच विश्वास नहीं करता था। उनमें से एक परमेश्वर से सच्चे अर्थ में प्रेम करता था, और दूसरा परमेश्वर से सच्चे अर्थ में प्रेम नहीं करता था; एक अपने स्वभाव में परिवर्तनों से गुज़रा था, और दूसरा नहीं गुज़रा था; एक ने विनम्रतापूर्वक सेवा की थी, और आसानी से लोगों के ध्यान में नहीं आता था, और दूसरे की लोगों द्वारा आराधना की जाती थी, और वह महान छवि वाला था; एक पवित्रता की खोज करता था, और दूसरा नहीं करता था, और यद्यपि वह अशुद्ध नहीं था, किंतु वह शुद्ध प्रेम से युक्त नहीं था; एक सच्ची मानवता से युक्त था, और दूसरा नहीं था; एक परमेश्वर के सृजित प्राणी के बोध से युक्त था, और दूसरा नहीं था। ऐसी हैं पतरस और पौलुस के सार की भिन्नताएँ। पतरस जिस पथ पर चला वह सफलता का पथ था, जो सामान्य मानवता की पुनः प्राप्ति और परमेश्वर के सृजित प्राणी के कर्तव्य की पुनः प्राप्ति पाने का पथ भी था। पतरस उन सभी का प्रतिनिधित्व करता है जो सफल हैं। पौलुस जिस पथ पर चला वह विफलता का पथ था, और वह उन सभी का प्रतिनिधित्व करता है जो केवल ऊपरी तौर पर स्वयं को समर्पित करते और खपाते हैं, और परमेश्वर से सच्चे अर्थ में प्रेम नहीं करते हैं। पौलुस उन सभी का प्रतिनिधित्व करता है जो सत्य से युक्त नहीं हैं।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है

संदर्भ के लिए धर्मोपदेश और संगति के उद्धरण:

वे सभी जिन्होंने परमेश्वर पर विश्वास के उचित मार्ग में प्रवेश नहीं किया है, जिनके जीवन-स्वभाव ने किसी भी परिवर्तन का अनुभव नहीं किया है और जिन्हें सत्य के बारे में तनिक भी समझ नहीं है, जब तक वे अपने उत्साह पर, आशीष प्राप्त करने की अपनी प्रेरणा पर भरोसा करते हैं और कुछ प्रयास करने की इच्छा रखते हैं, तब तक वे सेवा कर सकते हैं। जब कोई सत्य के बारे में कुछ समझ रखता है, परमेश्वर पर सच्चा विश्वास रखता है, परमेश्वर के बारे में ज़रा भी संदेह नहीं करता है, परमेश्वर के कार्य की समझ रखता है, यह जानता है कि परमेश्वर के कार्य का उद्देश्य लोगों को बचाना और पूर्ण करना है और यह देख सकता है कि मनुष्य के लिए परमेश्वर का प्रेम सचमुच महान है, जब व्यक्ति ने एक ऐसा हृदय विकसित कर लिया है जो परमेश्वर से प्रेम करता है, और एक ऐसा हृदय जो उस प्रेम को लौटाता है जो परमेश्वर हमें देता है, जिन कर्तव्यों को इस तरह का व्यक्ति पूरा किया करता है, उन्हें अच्छे कर्म कहा जा सकता है। ऐसा व्यक्ति जिन कर्तव्यों को पूरा करता है, उन्हें केवल सेवा करने के रूप में जानने के बजाय, आधिकारिक रूप से परमेश्वर की रचनाओं में से एक के द्वारा पूर्ण किये गए कर्तव्यों के रूप में समझा जा सकता है। कर्तव्यों को पूरा करने का अर्थ है कि परमेश्वर के प्रेम को लौटाने के साधन के रूप में तुम अपने कर्तव्यों को ठीक से पूरा करने के लिए तैयार हो। कर्तव्यों को पूरा करने और सेवा करने में यही अंतर है। यहाँ इरादा एक जैसा नहीं है। हृदय के अंदर की अवस्था और हालत समान नहीं हैं। सेवा करने का अर्थ आशीष प्राप्त करने की अपनी प्रेरणा से और उत्साही तरीके से कोई कर्तव्य पूरा करना है। सत्य की स्पष्ट समझ की नींव पर ही अपने कर्तव्य को सच्चाई से पूरा किया जाता है। परमेश्वर के प्रेम को जानने और परमेश्वर को इस प्रेम को लौटाने की चाह की बुनियाद पर ही अपने कर्तव्यों को पूरा करने की इच्छा जागृत होती है। यह इस समझ पर आधारित है कि परमेश्वर की किसी रचना द्वारा अपने कर्तव्यों को पूरा किया जाना स्वर्ग की व्यवस्था है। अपने कर्तव्य को सही मायनों में और ठीक से पूरा करने का यही अर्थ है।

— 'जीवन में प्रवेश पर धर्मोपदेश और संगति' से उद्धृत

वे सभी लोग जो जीवन की खोज करने और परमेश्वर की प्रजा होने पर ध्यान केंद्रित करते हैं, अपने कर्तव्य को करना एक ऐसी जिम्मेदारी के रूप में ले पाते हैं जिससे जी नहीं चुराया जा सकता है; वे परमेश्वर के प्रेम को लौटाने के लिए ऐसा करते हैं। वे अपने कर्तव्यों को करने में इनाम पर बखेड़ा नहीं करते, और उनकी कोई माँग नहीं होती हैं। वे जो कुछ भी करते हैं उनके अपने कर्तव्य को करना कहा जा सकता है। जिन लोगों को सेवा करने वाले कहा जाता है उनकी श्रेणी परमेश्वर को खुश करने के लिए बहुत थोड़े से प्रयास करती है, ताकि उनको आशीष प्राप्त हो सके। उनका विश्वास दूषित होता है। उनके पास कोई विवेक या तर्क नहीं होता है, वे सत्य और जीवन की तलाश तो और भी कम करते हैं। चूँकि वे देख सकते हैं कि अपनी प्रकृति में वे कितने भयानक हैं और इसलिए संभवतः वे परमेश्वर की प्रजा नहीं बन सकते हैं, इसलिए वे परमेश्वर की प्रजा बनने की अपनी खोज को छोड़ देते हैं, और हमेशा एक नकारात्मकता की स्थिति के भीतर रहते हैं। इसलिए वे जो कुछ भी करते हैं, वह सेवा करना मात्र होता है क्योंकि वे परमेश्वर की इच्छा के बारे में अपनी विकृत धारणा से बँधे रहते हैं। किसी व्यक्ति द्वारा लिया गया मार्ग यह निर्धारित करता है कि वह जो भी वह करता है, क्या वह कर्तव्य करना है या सेवा करना है। यदि वह सत्य की तलाश करता है और जीवन पर ध्यान केन्द्रित करता है, परमेश्वर के प्रेम को लौटाने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपने पूरे कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाता है, और परमेश्वर की प्रजा में से एक होने के लिए कड़ी मेहनत करता है, अगर इस तरह का दर्शन उसका सहारा है, तो वह जो कुछ भी करता है वह निश्चित रूप से अपने कर्तव्य को करना है। जिन सभी लोगों में सच्चाई का अभाव होता है, जो निराश होते हैं और नकारात्मकता की स्थिति में रहते हैं, परमेश्वर को प्रसन्न करने और उसकी आँखों में धूल झोंकने के लिए ज़रा-सा प्रयास ही करते हैं, इस तरह के व्यक्ति वे हैं जो मात्र सेवा करते हैं। यह स्पष्ट है कि सभी सेवा करने वाले वास्तव में बिना किसी विवेक या तर्क के लोग हैं, और वे ऐसे लोग हैं जो सत्य की खोज नहीं करते हैं, और उनमें जीवन नहीं होता है। इससे यह स्पष्ट है कि जिन लोगों के पास संकल्प नहीं है, जो सत्य की तलाश नहीं करते हैं, और जो जीवन पर ध्यान केन्द्रित नहीं करते हैं, वे शायद सेवा करने वाला होने के लिए योग्य भी नहीं हैं। वे भयानक प्रकृति के होते हैं; वे सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते हैं और परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते हैं। वे परमेश्वर के वचनों पर भी संदेह करते हैं। यह निश्चित रूप से उनके स्वयं के साथ धोखाधड़ी है। यदि कोई वास्तव में एक सेवा करने वाला है, तो उसे तब भी अच्छी तरह से सेवा करने की, न कि लापरवाह और असावधान होने की आवश्यकता है। केवल यही उसे एक ऐसा सेवा करने वाला होने के योग्य बना सकता है जो बना रहता है; जो उसे बहुत भाग्यशाली बनाएगा। वास्तव में एक सेवा करने वाला बनना कोई साधारण बात नहीं है।

— ऊपर से संगति से उद्धृत

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