सत्य का अभ्यास करना क्या है?
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन:
सत्य के अभ्यास में सबसे महत्वपूर्ण बात क्या है? क्या यह महत्वपूर्ण नहीं कि तुम सबसे पहले इसके सिद्धांतों को समझो? सिद्धांत क्या हैं? सिद्धांत सत्य का व्यावहारिक पहलू हैं। जब तुम परमेश्वर के वचनों का एक वाक्य पढ़ते हो, तो तुम्हें लगता है कि यह सत्य है, पर तुम इसके भीतर के सिद्धांतों को नहीं समझ पाते हो; तुम्हें लगता है कि वाक्य सही है, पर तुम्हें यह नहीं मालूम होता कि यह किस तरह से व्यावहारिक है, या यह किस अवस्था को संबोधित करने के लिए है। तुम इसके सिद्धांतों या इसके अभ्यास के मार्ग को नहीं समझ पाते। तुम्हारे लिए तुम्हारे द्वारा महसूस किया गया यह सत्य केवल मत है। परंतु एक बार जब तुम उस वाक्य की सत्य-वास्तविकता को समझ लेते हो और परमेश्वर की अपेक्षाओं को भी जान लेते हो—अगर तुम सचमुच इन चीजों को समझते हो, मूल्य चुकाने और इन्हें अभ्यास में लाने में सक्षम हो जाते हो—तो तुम उस सत्य को प्राप्त कर लोगे। जब तुम थोड़ा-थोड़ा करके उस सत्य को प्राप्त कर लेते हो तो तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव खत्म हो जाता है और वह सत्य तुम्हारे भीतर काम करने लगता है। जब तुम सत्य की वास्तविकता को अभ्यास में लाने में सक्षम हो जाते हो और जब एक व्यक्ति के रूप में अपने कर्तव्य का पालन, तुम्हारा हर कृत्य और तुम्हारा आचरण इस सत्य के अभ्यास के सिद्धांतों पर आधारित हो जाता है, तो क्या तुममें एक बदलाव नहीं आ जाता? सबसे बढ़कर, तुम एक ऐसे व्यक्ति बन जाते हो जिसके अंदर सत्य-वास्तविकता होती है। क्या जिस व्यक्ति में सत्य-वास्तविकता होती है, वह उस व्यक्ति के समान नहीं है जो सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करता है? और क्या जो व्यक्ति सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करता है वह उस व्यक्ति के समान नहीं है जिसमें सत्य है? क्या जिस व्यक्ति में सत्य है वह भी परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप आचरण करने में सक्षम नहीं है? इस तरह ये चीजें आपस में जुड़ी हुई हैं।
— परमेश्वर की संगति से उद्धृत
ऐसा क्यों कहा जाता है कि परमेश्वर के वचन लोगों के लिए एक प्रकाश-स्तंभ हैं? ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि परमेश्वर के वचन व्यर्थ नहीं बोले जाते; वे कोई सिद्धांत या कोई बड़ी-बड़ी बातें नहीं हैं और न ही वे कोई तर्क-वितर्क हैं। वे तुम्हारे द्वारा अपनाए जाने और अभ्यास में लाए जाने के लिए हैं। जब तुम्हारे सामने कोई समस्या आती है, तुम्हें कुछ पता नहीं होता कि क्या करना है और तुम्हारे पास अभ्यास का कोई मार्ग नहीं होता, तो तुम परमेश्वर के वचनों में दी गयीं अपेक्षाओं के बारे में सोचते हो। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके तुम्हें आगे का मार्ग मिलता है और तुम उनका अर्थ समझ लेते हो। फिर, तुम परमेश्वर की इच्छा के अनुसार अभ्यास कर सकते हो। इस तरह अभ्यास करने से तुम्हें पुष्टि प्राप्त हो जाती है और तुम्हें पता चल जाता है कि अभ्यास के इस तरीके से तुम्हारी आत्मा को शांति और आनंद मिलता है; यह दूसरों के लिए भी शिक्षाप्रद है। परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने की प्रक्रिया में, तुम कुछ प्रबुद्धता, कुछ अनुभव और शिक्षा प्राप्त करते हो; तुम वस्तु-विशेष के प्रति जागरुक हो जाते हो। तुम्हें समझ में आ जाता है कि परमेश्वर का इन वचनों को कहने और लोगों को एक निश्चित तरीके से कार्य करने के लिए कहने का क्या अर्थ है। तुम अभ्यास के प्रासंगिक सिद्धांतों का पता लगा लेते हो और तुम्हें परमेश्वर द्वारा इन वचनों को कहने के मूल का और महत्ता का पता चल जाता है—यह सत्य को समझना है। एक बार जब तुम सत्य को समझ लेते हो, तो फिर तुम भ्रमित नहीं होते या तुम्हें उसमें शामिल होना मुश्किल नहीं लगता; तुम्हारे पास अभ्यास करने का एक मार्ग होता है। परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाने का मार्ग होने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि तुम उनके अभ्यास के सिद्धांतों को समझते हो; और तुम परमेश्वर के वचनों के पीछे अभ्यास के सिद्धांतों को समझते हो; तुम समझते हो कि परमेश्वर किन स्थितियों का उल्लेख कर रहा है और तुम जानते हो कि तुम्हें कैसे अभ्यास करना चाहिए। परमेश्वर के वचन तुम्हें सामान्य लग सकते हैं, लेकिन वास्तव में वे तुम्हें बताते हैं कि तुम्हें कैसे जीना चाहिए, किसी समस्या के आने पर तुम्हें क्या करना चाहिए, और उन कठिनाइयों से कैसे निपटना चाहिए। वे सत्य हैं। वे तुम्हारा मार्ग बनकर किसी समस्या को बुद्धि और सिद्धांतों से सुलझाने में मदद कर सकते हैं और तुम्हें अभ्यास का मार्ग दे सकते हैं। यदि किसी दायित्व को निभाने के लिए या किसी और मामले के लिए तुम्हारे पास कोई मार्ग है, चीज़ों को सँभालने के सिद्धांत हैं और तुम परमेश्वर की इच्छा जानते हो, तो यह दर्शाता है कि तुम सत्य और परमेश्वर के वचनों को समझते हो।
— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'मानव सदृशता पाने के लिए आवश्यक है अपने समूचे हृदय, मन और आत्मा से अपना कर्तव्य सही-सही पूरा करना' से उद्धृत
कई लोगों के बाहरी व्यवहार निश्चित प्रकार के होते हैं, जैसे, अपने परिवार और काम-धंधे का त्याग करके अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर पाना, इसलिए वो मानते हैं कि वो सत्य का अभ्यास कर रहे हैं। लेकिन परमेश्वर नहीं मानता कि वो सत्य का अभ्यास कर रहे हैं। अगर तुम्हारे हर काम के पीछे व्यक्तिगत इरादे हों और यह दूषित हो, तो तुम सत्य का अभ्यास नहीं कर रहे हो; तुम्हारा आचरण केवल बाहरी दिखावा है। सच कहें, तो परमेश्वर तुम्हारे आचरण की निंदा करेगा; वह इसकी प्रशंसा नहीं करेगा या इसे याद नहीं रखेगा। इसका आगे विश्लेषण करें तो, तुम दुष्टता कर रहे हो, तुम्हारा व्यवहार परमेश्वर के विरोध में है। बाहर से देखने पर तो तुम किसी चीज़ में अवरोध या व्यवधान नहीं डाल रहे हो और तुमने वास्तविक क्षति नहीं पहुंचाई है या किसी सत्य का उल्लंघन नहीं किया है। यह न्यायसंगत और उचित लगता है, मगर तुम्हारे कृत्यों का सार दुष्टता करने और परमेश्वर का विरोध करने से संबंधित है। इसलिए परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में अपने कृत्यों के पीछे के अभिप्रायों को देखकर तुम्हें निश्चित करना चाहिए कि क्या तुम्हारे स्वभाव में कोई परिवर्तन हुआ है, क्या तुम सत्य को अभ्यास में ला रहे हो। यह इस इंसानी नज़रिए पर निर्भर नहीं करता कि तुम्हारे कृत्य इंसानी कल्पनाओं और इरादों के अनुरूप हैं या नहीं या वो तुम्हारी रुचि के उपयुक्त हैं या नहीं; ऐसी चीज़ें महत्वपूर्ण नहीं हैं। बल्कि, यह इस बात पर आधारित है कि परमेश्वर की नज़रों में तुम उसकी इच्छा के अनुरूप चल रहे हो या नहीं, तुम्हारे कृत्यों में सत्य-वास्तविकता है या नहीं, और वे उसकी अपेक्षाओं और मानकों को पूरा करते हैं या नहीं। केवल परमेश्वर की अपेक्षाओं से तुलना करके अपने आपको मापना ही सही है। स्वभाव में रूपांतरण और सत्य को अभ्यास में लाना उतना सहज और आसान नहीं है जैसा लोग सोचते हैं। क्या तुम लोग अब इस बात को समझ गए? क्या इसका तुम सबको कोई अनुभव है? जब समस्या के सार की बात आती है, तो शायद तुम लोग इसे नहीं समझ सकोगे; तुम्हारा प्रवेश बहुत ही उथला रहा है। तुम लोग सुबह से शाम तक भागते-दौड़ते हो, तुम लोग जल्दी उठते हो और देर से सोते हो, फिर भी तुम्हारा स्वभाव रूपांतरित नहीं हुआ है, और तुम इस बात को समझ नहीं सकते कि इस रूपांतरण में क्या-क्या चीज़ें शामिल हैं। इसका अर्थ है कि तुम्हारा प्रवेश बहुत ही उथला है, है न? भले ही तुम अधिक समय से परमेश्वर में आस्था रखते आ रहे हो, लेकिन हो सकता है कि तुम लोग स्वभाव में रूपांतरण हासिल करने के सार और उसकी गहराई को महसूस न कर सको। तुम कैसे जानते हो कि परमेश्वर तुम्हारी प्रशंसा करता है या नहीं? कम से कम, तुम अपने हर काम में ज़बर्दस्त दृढ़ता महसूस करोगे और तुम महसूस करोगे कि जब तुम अपने कर्तव्यों को पूरा कर रहे हो, परमेश्वर के घर में कोई काम कर रहे हो, या सामान्य तौर पर भी, पवित्र आत्मा तुम्हारा मार्गदर्शन और प्रबोधन कर रहा है और तुममें कार्य कर रहा है। तुम्हारा आचरण परमेश्वर के वचनों के अनुरूप होगा, और जब तुम्हारे पास कुछ हद तक अनुभव हो जाएगा, तो तुम महसूस करोगे कि अतीत में तुमने जो कुछ किया वह अपेक्षाकृत उपयुक्त था। लेकिन अगर कुछ समय तक अनुभव प्राप्त करने के बाद, तुम महसूस करो कि अतीत में तुम्हारे द्वारा किए गए कुछ काम उपयुक्त नहीं थे, तुम उनसे असंतुष्ट हो, और वास्तव में तुम्हारे द्वारा किए गए कार्यों में कोई सत्यता नहीं थी, तो इससे यह साबित होता है कि तुमने जो कुछ भी किया, वह परमेश्वर के विरोध में था। यह साबित करता है कि तुम्हारी सेवा विद्रोह, प्रतिरोध और मानवीय व्यवहार से भरी हुई थी।
— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'स्वभाव बदलने के बारे में क्या जानना चाहिए' से उद्धृत
सही मायनों में सत्य को अमल में लाने के क्या मानदंड हैं? तुम सत्य को अमल में ला रहे हो या नहीं, इसे कैसे मापा और परिभाषित किया जाता है? परमेश्वर कैसे तय करता है कि तुम उसके वचनों को सुनकर उन्हें स्वीकार करने वाले इंसान हो? वह यह देखता है कि उसमें आस्था रखने और उसके उपदेशों को सुनने के दौरान तुम्हारी आंतरिक अवस्था में, उसके प्रति तुम्हारी अवज्ञा में और तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के विभिन्न आयामों के सार में कोई परिवर्तन आया है या नहीं। वह देखता है कि तुम्हारे अंदर उनका स्थान सत्य ने लिया है या नहीं और क्या तुम्हारे बाहरी बर्ताव और कार्यकलापों में या तुम्हारे दिल की गहराई में छिपे भ्रष्ट स्वभाव के सार में कोई बदलाव आया है या नहीं। परमेश्वर तुम्हें इन मानदंडों पर कसता है। इन तमाम वर्षों में उपदेश सुनकर और परमेश्वर के वचनों को खाने और पीने से तुम में आया बदलाव मात्र सतही है या आधारभूत? क्या तुम्हारे स्वभाव में बदलाव आए हैं? परमेश्वर के बारे में तुम्हारी गलतफहमियों में, परमेश्वर के प्रति तुम्हारी अवज्ञा में और परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपे गए आदेशों और कर्तव्यों के प्रति तुम्हारे दृष्टिकोण में बदलाव आए हैं या नहीं? परमेश्वर के विरुद्ध तुम्हारी अवज्ञा में कोई कमी आई है या नहीं? किसी घटना के घट जाने पर, जब तुम्हारी अवज्ञा उजागर हो जाती है, तो क्या तुम आत्म-चिंतन करते हो? क्या तुम अवज्ञाकारी हो? क्या परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपे जाने वाले आदेशों और कर्तव्यों के प्रति तुम और अधिक निष्ठावान हो गए हो और क्या यह निष्ठा शुद्ध है? उपदेश सुनने के दौरान, क्या तुम्हारी अभिप्रेरणाएँ, महत्वाकांक्षाएँ, इच्छाएँ और इरादे शुद्ध हुए हैं? क्या ये मापने के पैमाने नहीं हैं? फिर, परमेश्वर के बारे में तुम्हारी गलतफहमियाँ भी हैं: क्या तुम अभी भी अपनी पुरानी धारणाओं, अज्ञात और अमूर्त कल्पनाओं और निष्कर्षों से चिपके रहते हो? क्या अब भी तुम्हारे अंदर शिकायतें और नकारात्मक भावनाएँ हैं? क्या इन चीज़ों को लेकर तुम में बदलाव आए हैं? यदि इन पहलुओं में कोई बदलाव नहीं आया है, तो फिर तुम किस प्रकार के इंसान हो? इससे एक बात तो सिद्ध होती है: तुम सत्य पर अमल करने वाले इंसान नहीं हो।
— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'परमेश्वर के वचनों पर अमल कर के ही स्वभाव में बदलाव हो सकता है' से उद्धृत
यदि तुम परमेश्वर पर विश्वास करते हो लेकिन सत्य का अनुसरण नहीं करते, तो दस साल तक विश्वास कर सकते हो लेकिन तुम्हें किसी बदलाव का अनुभव नहीं होगा। अंत में, तुम सोचोगे कि परमेश्वर में विश्वास करने का ठीक यही मतलब है; तुम सोचोगे कि यह बहुत हद तक वैसा ही है जैसे तुम पहले दुनिया में रहते थे, और जीवित रहना अर्थहीन है। यह वास्तव में दिखाता है कि सत्य के बिना जीवन खोखला है। तुम कुछ सैद्धांतिक शब्द बोलने में सक्षम हो सकते हो, लेकिन तुम अभी भी असहज और बेचैन महसूस करोगे। यदि लोगों को परमेश्वर के बारे में कुछ जानकारी है, वे जानते हैं कि एक सार्थक जीवन कैसे जीना है, और वे परमेश्वर को संतुष्ट करने वाली कुछ चीजें कर सकते हैं, तो वे महसूस करेंगे कि यही वास्तविक जीवन है, केवल इसी तरह से रहने से उनके जीवन का अर्थ होगा, और परमेश्वर को थोड़ी संतुष्टि प्रदान करने और कृतज्ञ महसूस करने के लिए उन्हें इसी तरह से रहना होगा। यदि वे सजगतापूर्वक परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं, सत्य को व्यवहार में ला सकते हैं, स्वयं को त्याग सकते हैं, अपने विचारों को छोड़ सकते हैं, और परमेश्वर की इच्छा के प्रति आज्ञाकारी और विचारशील हो सकते हैं—यदि वे इन सभी चीजों को सजगतापूर्वक करने में सक्षम हैं—तो सत्य को सटीक रूप से व्यवहार में लाने, और सत्य को वास्तव में व्यवहार में लाने का यही अर्थ है, और यह उनकी कल्पनाओं पर उनकी पिछली निर्भरता और सिद्धांतों और नियमों से चिपके रहने से बिलकुल भिन्न है। वास्तव में, जब वे सत्य को नहीं समझते तो उनका कुछ भी करना थकाऊ है, सिद्धांतों और नियमों से चिपके रहना थकाऊ है, और कोई लक्ष्य न होना और चीज़ों को आँखें मूँदकर करते रहना थकाऊ है। केवल सत्य के साथ ही वे मुक्त हो सकते हैं—यह कोई झूठ नहीं है—और उसके साथ वे चीज़ों को आसानी से और खुशी से कर सकते हैं। ऐसी स्थिति वाले लोग वे लोग हैं, जिनके पास सत्य है; वे ही हैं जिनके स्वभाव बदल दिए गए हैं।
— "मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है' से उद्धृत
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?